कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-14



सत्र—14 नीत्‍शे और एडोल्‍फ हिटलर 


      त्‍वदीयं वस्‍तु गोविंदम्‍, तुभ्‍यमेव समर्पयेत।

हे प्रभु,’ यह जीवन जो तुमने मुझे दिया वह तुम्‍हें आभार सहि‍त वापस समर्पित करता हूं। ये मरते समय मेरे नाना के अंतिम शब्‍द थे।
      हालांकि उन्‍होंने परमात्‍मा में कभी विश्‍वास नहीं किया और पे हिंदू नहीं थे। यह वाकय, सह सूत्र हिंदू सूत्र है। लेकिन भारत में सब चीजें घुल मिल गई है। विशेषकर अच्‍छी बातें। मरने से पहले अन्‍य बातों के बीच उन्‍होंने एक बात बार-बार कहीं, ‘चक्र को रोको।’
      उस समय तो मैं यह नहीं समझ सका अगर हम गाड़ी का चाक रोक दें और उस समय वहां पर तो केवल बैलगाड़ी का चक्र-चाक था। तो हम अस्‍पताल कैसे पहुंच सकेंगे। जब उन्‍होंने बार-बार कहा कि चक्र को रोको तो मैंने अपनी नानी से पूछा ’क्‍या नाना जी का दिमाग खराब हो गया है।’
      वे हंस पड़ी। उनकी यही विशेषता मुझे बहुत पसंद थी। मेरी तरह वे भी जानती थीं कि मृत्‍यु बहुत निकट है। जब मुझे तक मालूम था तो यह कैसे हो सकता है कि उनको नहीं मालूम था। यह तो साफ दिखाई दे रहा था कि उनकी श्‍वास कभी भी बंद हो सकती है। फिर भी वे बार-बार चक्र को बंद करने के लिए कह रहे थे। नानी हंसी, मैं उनको अभी भी हंसते हुए देख सकता हूं।

कुछ काम ओर ज्ञान की बातें-07

तीर्थ--6 (गंगा अल्‍केमी का प्रयोग)


       जैसे रात को आपको नींद आती है। रोज आप दस बजे सोते है, दस बजे नींद आने लगेगी। अगर आप टीक जाएं दस बजे और सोने से मना कर दें, तो आप आधा घंटे में..होना तो यह चाहिए था कि नींद और जो से आए। लेकिन आधा घंटे में यह होगा की अचानक अप पाएंगे कि सुबह से भी ज्‍यादा फ्रेश हो गए है। और अब नींद आना मुश्‍किल हो जाएगी। यह जो प्वाइंट था। जहां से आप अपनी स्‍थिति में वापस गिर सकते थे, अगर सो गए होते तो....तब आप कंटीन्‍यु रखे होते ..। आपने भीतर की व्‍यवस्‍था तोड़ दी।
      तो शरीर से नया शक्‍ति वापस आ गयी। शरीर ने देख लिया कि आप सोने की तैयारी नहीं कर रहे। जागना ही पड़ेगा। तो शरीर के पास जो रिजर्व है जहां वह शक्‍ति संरक्षित है। जरूरत के वक्‍त के लिए वह अपने छोड़ दी और आप ताजे हो गए। इतने ताजे जितने आप सुबह भी ताजे नहीं थे।

कुछ काम ओर ज्ञान की बातें-06



तीर्थ:  अनापान सती योग

            एक बौद्ध भिक्षु को सीलोन से किसी ने मेरे पास भेजा। उसकी तीन साल से नींद खो गई थी। तो उसकी जो हालत हो सकती थे वह हो गयी। पूरे वक्‍त हाथ पैर-कंपते रहेंगे, पसीना छूटता रहेगा और घबराहट होती रहेगी। एक कदम भी उठायेगा तो डरेगा, भरोसा अपने ऊपर का सब खो गया, नींद आती नहीं है। बिलकुल विक्षिप्‍त और अजीब सी हालत है। उसने बहुत इलाज करवाया क्‍योंकि वह.....वह यहां सब तरह के इलाज उसने करवा लिए, कुछ फायदा हुआ नहीं कोर्इ ट्रैंकोलाइजर उसको सुला नहीं सकता था। उसे गहरे से गहरे ट्रैंकोलाइजर दिए गए तो भी उसने कहा कि मैं बहार से सुस्‍त होकर पड़ जाता हू लेकिन भीतर तो मुझे पता चलता ही रहता है कि मैं जगा हुआ हूं।
            उसे किसी ने मेरे पास भेजा। मैंने उसको कहा कि तुम्‍हें कभी नींद आएगी नहीं, ट्रैंकोलाइजर से या और किसी उपाय से। तुम बुद्ध का अनापान सती योग तो नहीं कर रहे हो। क्‍योंकि बौद्ध भिक्षु के लिए वह अनिवार्य है। उसने कहा वह तो मैं कर ही रहा हूं। उसके बिना तो......मैं फिर मैंने कहा,  तुम नींद का ख्‍याल छोड़ दो।

कुछ काम ओर ज्ञान की बातें-05



तीर्थ: अल्‍कुफा एक रहस्‍य—

      तीर्थ शब्‍द का अर्थ होता है—घाट। उसका अर्थ होता है, ऐसी जगह जहां से हम उस अनंत सागर में उतर सकते है। जैनों का शब्‍द तीर्थकर तीर्थ से बना है, उसका अर्थ है तीर्थ को बनानेवाला। असल में उस को ही तीर्थ कहां जा सकता है। तीर्थकर कहा जा सकता है जिसने ऐसा तीर्थ निर्मित किया हो जहां साधारण जन खड़े होते, पाल खोलते, ऐसे ही यात्रा पर संलग्न  हो जाए। अवतार न कहकर तीर्थकर कहा, और अवतार से बड़ी घटना तीर्थ कर है। क्‍योंकि परमात्‍मा, आदमी में अवतरित हो यह तो एक बात है लेकिन आदमी परमात्‍मा में प्रवेश का तीर्थ बना ले, यह और भी बड़ी बात हे।
      जैन, परमात्‍मा में भरोसा करनेवाला धर्म नहीं है, आदमी की सामर्थ्‍य में भरोसा करनेवाला धर्म हे। इसलिए तीर्थ और तीर्थकर का जितना गहरा उपयोग जैन कर पाए उतना कोई भी नहीं कर पाया। क्‍योंकि यहां तो कोई ईश्‍वर की कृपा पर उनको ख्‍याल नहीं है। ईश्‍वर कोई सहारा दे सकता है। इसका कोई ख्‍याल नहीं है। आदमी अकेला है, और आदमी को अपनी ही मेहनत से यात्रा करनी है।

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

कुछ काम ओर ज्ञान की बातें-04



तीर्थ: सम्माद शिखर


      तीर्थों को बनाने का एक तो प्रयोजन यह था कि हम इस तरह से चार्जड़, ऊर्जा से भरे हुए स्‍थल पैदा कर लें जहां से कोई भी व्‍यक्‍ति सुगमता से यात्रा कर सके। करीब-करीब वैसे ही है जैसे—एक तो होता है कि हम नाव में पतवार लगाकर और नाव को खै वें। दूसरा यह होता है कि हम पतवार को चलाएँ ही न, नाव के पाल खोल दे और उचित समय पर, और उचित समय और उचित हवा की दिशा में नाव को बहने दें। तीर्थ वैसी जगह थी, जहां से कि चेतना की एक धारा अपने आप प्रवाहित हो रही हो। जिसको प्रवाहित करने के लिए सदियों से मेहनत कि गई हो। आप सिर्फ उस धारा में खड़े हो जाएं और आपकी चेतना का पाल तन जाए और आप एक यात्रा पर निकल जाएं। जितनी मेहनत आपको अकेले में करनी पड़े उससे बहुत अल्‍प मेहनत में यात्रा संभव हो सकती है। 
      विपरीत स्‍थल पर खड़े होकर यात्रा अत्‍यंत कठिन भी हो सकती है। हवाएँ जब उल्‍टी तरफ बह रही हो और आप पाल खोल दें, तो बजाय इसके कि आप पहुंचे ओर भटक जाएं, इसकी पूरी संभावना है।

कुछ काम ओर ज्ञान की बातें-03



तीर्थ: काबा—

      मुसलमानों का तीर्थ है—काबा। काबा में मुहम्‍मद के वक्‍त तक तीन सौ पैंसठ मूर्तियां थी। और हर दिन की एक अलग मूर्ति थी। वह तीन सौ पैंसठ मूर्तियां हटा दी गयी, फेंक दी गई। लेकिन जो केंद्रीय पत्‍थर था मूर्तियों का, जो मंदिर को केंद्र था, वह नहीं हटाया गया। तो काबा मुसलमानों से बहुत ज्‍यादा पुरानी जगह है।  मुसलमानों की तो उम्र बहुत लंबी नहीं है.....चौदह सौ वर्ष।
      लेकिन काबा लाखों वर्ष पुराना पत्‍थर है। और भी  दूसरे एक मजे की बात है कि वह पत्‍थर जमीन का नहीं है। वह पत्‍थर जमीन का पत्‍थर नहीं है। अब तक तो विज्ञानिक.... क्‍योंकि इसके सिवाय कोई उपाय नहीं था। वह जमीन का पत्‍थर नहीं है। यह तो तय है। एक ही उपाय था हमारे पास कि वह उल्‍कापात में गिरा हुआ पत्‍थर है। जो पत्‍थर जमीन पर गिरते है। वह थोड़े पत्‍थर नहीं गिरते। रोज दस हजार पत्‍थर जमीन पर गिरते है।

कुछ काम ओर ज्ञान की बातें-02



तीर्थ--परम की गुह्य यात्रा

    
      प्रशांत महासागर में एक छोटे से द्वीप पर, ईस्‍टर आईलैंड में एक हजार विशाल मूर्तियां है। जिनमें कोई भी मूर्ति बीस फीट से छोटी नहीं है। और निवासियों की कुल संख्‍या दो सौ है। एक हजार, बीस फीट से भी बड़ी विशाल मूर्तियां है। जब पहली दफा इस छोटे से द्वीप का पता चला तो बड़ी कठिनाई हुई। कठिनाई यह हुई कि इतने थोड़े से लोगों के लिए...ओर ऐसा भी नहीं है कि कभी उस द्वीप की आबादी इससे ज्‍यादा रही हो। क्‍योंकि उस द्वीप की सामर्थ्‍य ही नहीं है इससे ज्‍यादा लोगों के लिए जो भी पैदावार हो सकती है वह इससे ज्‍यादा लोगों को पाल भी नहीं सकती। जहां दो सौ लोग रह सकते हों, वहां एक हजार मूर्तियां विशाल पत्‍थर की खोदने का प्रयोजन नहीं मालूम पड़ता। एक आदमी के पीछे पाँच मूर्तियां हो गयीं। और इतनी बड़ी मूर्तियां ये दो सौ लोग खोदना भी चाहें तो नहीं खोद सकते है। इतना महंगा काम ये गरीब आदिवासी करना भी चाहें तो भी नहीं कर सकते। इनकी जिंदगी तो सुबह से सांझ तक रोटी कमाने में ही व्‍यतीत हो जाती है। और इन मूर्तियों को बनाने में हजारों वर्ष लगे होंगे।

कुछ काम ओर ज्ञान की बातें-01

चिड़िया और मानव मस्‍तिष्‍क का बोलना-

      वाशिंगटन, ऐजेंसी: वैज्ञानिको ने पता लगया है कि एक नन्‍हीं चिड़िया की आवाज सुनकर मानव मस्‍तिष्‍क कैसे कार्य करता है। वैज्ञानिकों का कहना है, चिड़ियाँ कि ध्वनि सुन कर मानव मस्‍तिष्‍क की प्रतिक्रिया का जानने का राज जाने के बाद यह पता लगा की मानव बोलता कैसे है। चिड़िया की आवाज सुन कर मस्‍तिष्‍क की तंत्रिका कोशिकाओं में गायन जैसे व्‍यवहार के संकेत कैसे जाते है। उनका कहना है कि ध्‍वनि सुन कर मानव मस्‍तिष्‍क के प्रतिक्रिया जताने का राज जानने के बाद, मानव की वाणी संबंधी विकृति का भी पता लगया जा सकता है। उसके बोलने के अवरोधों की तंत्र कोशिकाओं को ठीक किया जा सकता है। की मानव कैसे आसानी से बोलना सिख सके।
      बड़ी अजीब घटाना है जिन का एक दूसरे से कोई ताल मेल नहीं है। उन में पीढ़ी का, भाषा का, समय का, कोई ताल मेल नहीं है। वो एक दूसरे से कितनी दुरी है। फिर भी कुछ ऐसा था कि वो बुर्जुग किस अनुभव के आधार पर वो सब करते थे। जो आज वैज्ञानिक शोध कार्य कर-कर के जानने की कोशिश करता है। मैंने देखा जब कोई बच्‍चा ज्‍यादा बड़ा होने पर भी नहीं बोलता तो मां एक चिड़िया को पकड़ कर उस के पास ला उस की जीभ छुआ देती, उसे अंगन में बिठा कर उस के आस पास खाने का सामन रख देती। कुछ ही देर में चिड़िया उसे घेर लेती थी। वो अपने खाना खोन के साथ कुछ बोलती भी रहती।

रविवार, 24 दिसंबर 2017

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-13



सत्र-13  मैं पागल आदमी हूं

      मैं जीसस को नहीं भूल सकता। मैं उन्‍हें दुनिया के किसी भी ईसाई से कहीं अधिक याद करता हूं। जीसस कहते है, ‘धन्य भागी हैं वे’ जो छोटे बच्‍चे जैसे है, क्‍योंकि प्रभु का राज्‍य उनका है।
      यहां पर जो याद रखने बाला सबसे अधिक महत्वपूर्ण शब्‍द है वह है क्‍योंकि। जीसस के उन सब वक्तव्य में से जो ‘जो धन्‍य भागी है से आरंभ होता है और समाप्‍त होता है, ‘प्रभु के राज्‍य ’ के साथ। उनमें से केवल यही एक वक्तव्य अनोखा है। क्‍योंकि शेष सब वक्तव्य क‍हते है। ‘धन्‍यभागी है वे जो विनम्र है, दीन-हीन है, क्‍योंकि वे प्रभु के राज्‍य के उतराधिकारी होंगे।’ वे वक्तव्य तर्कपूर्ण है और वे भविष्‍य का वादा करते है—भविष्‍य, जिसका कोई अस्तित्‍व नहीं है। यही एकमात्र वक्तव्य है जो कहता है,.....क्‍योंकि प्रभु का राज्‍य उनका है।‘ इसमें न कोई भविष्‍य है, न तर्क है, न किसी लाभ का कोई वादा है। तथ्‍य का शुद्ध वक्तव्य है या यूं कहिए कि तथ्‍य का सीधा-सरल वक्तव्य है।

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-12



सत्र-12 जीवक और देव गीत

 
      बुद्ध का वैद्य, जीवक, सम्राट बिंब सार ने बुद्ध को दिया था। एक और बात है कि बिंब सार बुद्ध का संन्‍यासी नहीं था, वह केवल उनका हितैषी था, शुभ चिंतक था। उसने बुद्ध को जीवक क्‍यों दिया? जीवक बिंब सार का निजी वैद्य था, उस समय  का सबसे प्रसिद्ध, क्‍योंकि एक दूसरे राजा से उसकी प्रतियोगिता चल रही थी, जिसका नाम प्रेसनजित था। प्रसेनजित ले बुद्ध से कहा था, आपको जब‍ भी आवश्‍यकता हो, मेरा वैद्य आपकी सेवा में उपस्थित हो जाएगा।
      यह बिंबसार के लिए बहुत बड़ी बात थी। अगर प्रसेनजित यह कर सकता है, तो‍ बिंबसार उसे दिखएगा कि वह बुद्ध को अपना सबसे प्रिय निजी वैद्य भेंट कर सकता है। इसलिए यद्यपि बुद्ध जहां-जहां गए जीवक उनके साथ-साथ गया, लेकिन याद रखना, वह उनका शिष्‍य नहीं था। वह हिंदू ब्राह्मण ही बना रहा था।

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-11



सत्र –11  भोपाल का महल


      जिस गांव में मेरा जन्‍म हुआ था वह ब्रिटिश साम्राज्‍य का हिस्‍सा नहीं था। वह एक छोटी सी रियासत थी जिस पर एक मुसलमान बेगम शासन करता थी। अभी मैं उसे देख सकता हूं। बड़ी अजीब बात है, वह भी इंग्लैंड की महारानी जैसी ही सुंदर थी, बिलकुल वैसी ही सुन्‍दर। लेकिन एक अच्‍छी बात यह थी कि वह मुसलमान थी। लेकिन इंग्लैंड की महारानी मुसलमान नहीं थी। ऐसी औरतों को हमेशा मुसलमान होना चाहिए, क्‍योंकि उन्‍हें एक पर्दे के पीछे, बुरक़े में छिपे रहना होता है। वह बेगम कभी-कभी हमारे गांव आती थी। और उस गांव में केवल मेरा घर ही ऐसा थी जहां वह ठहर सकती थी। और इसके अतिरिक्‍त वह मेरी नानी को बहुत प्रेम करती थी।
      मेरी नानी और वह, दोनों आपस में बातें कर रही थी जब पहली बार मैंने उस महारानी को बिना बुरक़े के देखा थी। मुझे तो विश्‍वास ही न हो सका कि यह घरेलू सी दिखाई देने बाली अति साधारण औरत महारानी है। तब मेरी समझ में आया कि बुरक़े का उद्देश्‍य क्‍या है, इसे हिंदू पर्दा कहते है। यह कुरूप औरतों के लिए अच्‍छा है।

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-10



सत्र—10  बुद्धत्‍व  के भी पार



      मेरे पास एक नहीं बल्कि चार घोड़े थे। एक मेरा अपना था और तुम्‍हें मालूम है कि मैं कितना ‘फसी’ जिद्दी हूं, आज भी रॉल्‍स रॉयसेस में कोई दूसरा नहीं बैठ सकता। यह सिर्फ फसीनेस, जिद्दी पन है।  उस समय भी मैं ऐसा ही था। कोर्इ नहीं यहाँ तक कि मेरे नाना भी मेरे घोड़े पर सवार नहीं हो सकते थे। निश्चित ही मैं दूसरों के घोड़ों पर सबरा हो सकता था। दोनों मेरे नाना और नानी के पास एक-एक घोड़ा था। भारतीय गांव की  स्‍त्री का घुड़सवारी करना कुछ अजीब सा फासले पर मेरे पीछे-पीछे बंदूक लिए चलता था।
      नियति भी अजीब है, मैंने अपने जीवन में किसी का कोई नुकसान नहीं किया—अपने सपने में भी नहीं। मैं तो शुद्ध शाकाहारी हूं। लेकिन भाग्‍य का खेल देखो कि बचपन से ले कर अब तक मेरी रक्षा के लिए एक पहरेदार‍ सदा साथ रहा है। न जाने क्‍यों लेकिन भूरा से लेकर अब तक मैं कभी बिना पहरेदार के नहीं रहा। आज भी या तो मेरे आगे चलते है या मेरे पीछे पर सदा साथ ही रहते है। भूरा ने सारा खेल आरंभ किया।

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-09



सत्र--9   ऊँचे आकाश में निमंत्रण

 
      मय वापस नहीं जा सकता, लेकिन मन जा सकता है। ऐसा मन जो कभी कुछ भी भूल सकता एक ऐसे व्‍यक्ति को देना जो स्‍वयं को ता अमन की स्थिति में पहुंच ही गया है साथ ही दूसरों को भी इससे छुटकारा पाने के लिए कह रहा है, कितना व्‍यर्थ है।
      जहां तक मेरे मन का प्रश्‍न है—या रखना कि मेरा मन, मैं नहीं—वह वैसा ही यंत्र है, जैसा यहां पर इस्‍तेमाल किया जा रहा है। मेरे मन का अर्थ है सिर्फ एक मशीन, पर एक अच्‍छी मशीन, जो ऐसे व्‍यक्ति को दी गई है जो उसे फेंक देगा। इस लिए मैं कहता हूं कि यह कितनी बरबादी है।
      लेकिन मुझे कारण मालूम है। जब तक तुम्‍हारे पास बढ़िया मन न हो तब तक उसे फेंक देने की समझ तुम्‍हारे भीतर नहीं हो सकती। जीवन विरोधाभासों से भर हुआ है। यह कोई बुरी बात नहीं है। इसके कारण जीवन अधिक रंगीन हो जाता है।

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-08

सत्र-8  विद्रोह धर्म की बुनियाद 


      दुनिया में केवल जैन धर्म ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आत्‍महत्‍या का आदर करता है। अब यह हैरान होने की तुम्‍हारी बारी है। निश्चित ही वे इसे आत्‍महत्‍या नहीं कहते। वे इसको सुंदर धार्मिक नाम देते है—संथारा। मैं इसके खिलाफ हूं। खासकर जिस ढंग से यह किया जाता है—यह बहुत ही क्रूर और हिंसात्‍मक है। यह आश्‍चर्य की तो बात है कि जो धर्म अहिंसा में विश्‍वास करता है। वह धर्म संथारा, आत्‍महत्‍या का उपदेश देता है। तुम इसको धार्मिक आत्‍म हत्‍या कह सकते हो। लेकिन आत्‍महत्‍या तो आत्‍महत्‍या ही है। नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। आदमी तो मरता ही है।
      मैं इसके खिलाफ क्‍यों हूं, मैं किसी आदमी के आत्‍महत्‍या करने के अधिकार के विरोध में नहीं हूं। नहीं, यह तो मनुष्‍य का मूलभूत अधिकार होना चाहिए। अगर मैं जीवित रहना नहीं चाहता तो किसी दूसरे को  मुझे जीवित रखने का कोई अधिकार नहीं है। मैं जैनियों के आत्‍महत्‍या के विचार के विरोध में नहीं हूं। लेकिन वह विधि...उनकी विधि है कुछ न खाना, खाना छोड़ देते है, बिलकुल नहीं खाते। इस प्रकार बेचारे आदमी को मरने में करीब-करीब नब्‍बे दिन लगते है।

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-07



सत्र—7  जैन मुनि से संवाद
    

     
गुड़िया को मालूम है कि मैं नींद में बोलता हूं, लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि मैं किससे बोलता हूं। सिर्फ मैं जानता हूं यह। बेचारी गुड़िया, मैं उससे बातें करता हुं और वह सोचती है और चिंता करती है कि क्‍यों बोल रहा हूं और किससे बोल रहा हूं। लेकिन उसे पता नहीं कि मैं इसी तरह उससे बातें करता हूं। नींद एक प्राकृतिक बेहोशी है। जीवन इतना कटु है कि हर आदमी को रात में कम से कम कुछ घंटे नींद की गोद में आराम करना पड़ता है। और उसको आश्‍चर्य होता है कि मैं सोता भी हूं या नहीं। उसके आश्‍चर्य को मैं समझ सकता हूं। पिछले पच्‍चीस सालों से भी अधिक समय से मैं सोया नहीं हूं।
      देव राज, चिंता मत करो। साधारण नींद तो मैं सारी दुनिया में किसी भी व्‍यक्ति से अधिक सोता हूं—तीन घंटे दिन में और सात, आठ या नौ घंटे रात में—अधिक से अधिक जितना कोई भी सो सकता है। कुल मिला कर पूरे दिन में मैं बारह घंटे सोता हूं। लेकिन भीतर मैं जागा रहता हूं। मैं अपने को सोते हुए देखता हूं। और कभी-कभी रात के समय इतना अकेलापन होता है कि मैं गुड़िया से बात करने लगता हूं।

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-06



सत्र—6  नानी—नानी का प्रेम....


      लेकिन दुर्भाग्‍य से ‘सैड’ शब्‍द से फिर उस जर्मन आदमी एकिड़ सैड कि याद आ गइ, है भगवान, उसे मैं जीवन में फिर कभी कुछ कहने वाला नहीं था। मैं उसकी पुस्‍तक से यह जानने की कोशिश कर रहा था कि उसको मुझमें ऐसा क्‍या गलत दिखाई दिया कि जिसके आधार पर वह यह कह रहा है कि मैं एनलाइटेंड नहीं हूं। उत्‍सुकता वश मैं यह देखना चाहता था कि उसने क्‍यों इस तरह का निष्‍कर्ष निकाला। और जो मुझे मालूम हुआ वह सचमुच हंसने जैसा है। मैं इल्युमिनटेड हूं, ऐसा मानने का उसका कारण यह है कि मैं जो कह रहा हूं वह निश्चित ही समस्‍त मानवता के लिए बहुत महत्‍वपूर्ण है। लेकिन मैं एनलाइटेंड नहीं हूं, ऐसा मानने का उसका कारण है मेरे बोलने का ढंग से मैं बोलता है।

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-05



सत्र—5 नाना नानी के संग


 ब बचपन में मैं अपने नाना के पास रहता था तो यही मेरा तरीका था, और फिर भी मैं सज़ा से पूरी तरह सुरक्षित था। उन्‍होंने कभी नहीं कहा कि यह करो और वह मत करो। इसके विपरीत उन्‍होंने अपने सबसे आज्ञाकारी नौकर भूरा के मेरी सेवा में मेरी सुरक्षा के लिए नियुक्‍त कर दिया। भूरा अपने साथ सदा एक बहुत पुरानी बंदूक रखता था। और थोड़ी दूरी पर मेरे साथ- साथ चलता था। लेकिन गांव वालों को डराने के लिए इतना काफी था। मुझे अपनी मनमानी करने का मौका देने के लिए इतना काफी था।
      कुछ जो भी तुम सोच सकते हो.....जैसे भैंस पर उलटी सवारी करना, और भूरा पीछे-पीछे चल रहा  है। बहुत समय बाद विश्वविद्यालय के म्‍यूजियम में मैंने भेस पर उलटे बैठे हुए लाओत्से की मूर्ति देखी। मैं इतनी जोर से हंसा की म्‍यूजियम का निदेशक भागा हुआ आया कि क्‍या हो गया, क्‍या कुछ गड़बड़ है, क्‍योंकि मैं हंसी के कारण पेट पकड़ कर जमीन पर बैठा हुआ था। उसने पूछा ‘क्‍या कोई तकलीफ है।’

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-04


सत्र—4    खजुराहो  

मैं तुमसे उस उस समय कि बात कर रहा था जब ज्‍योतिषी से मिला जो अब संन्‍यासी हो गया था। उस समय  मैं चौदह वर्ष का था और अपने दादा के साथ था। मेरे नाना अब नहीं रहे थे। उस वृद्ध भिक्षु, भूतपूर्व‍ ज्‍योतिषी ने मुझसे पूछा, ‘मैं धंधे से ज्‍योतिषी हूं, लेकिन शौक से मैं हाथ, पैर और माथे की रेखाएं इत्‍यादि‍ भी पढ़ता हुं। तुम यह कैसे बता सके कि मैं संन्‍यासी बनुगां, पहले मैंने सन्‍यास के बारे में सोचा भी नहीं था। तुम्‍हीं ने इसका बीज मेरे भीतर डाला और तब से मैं केवल संन्‍यास के बारे में ही सोचता हूं। तुमने ये कैसे किया।’

      मैंने अपने कंधे बिचकाए। आज भी यदि कोई मुझसे पूछे कि मैं कैसे करता हूं, तो मैं सिर्फ कंधे बिचका सकता हूं। क्‍योंकि मैं कुछ करता नहीं, कोई प्रयास नहीं करता। में तो बस जो हो रहा है उसे होने देता हूं। सिर्फ चीजों से आगे-आगे रहने की कला सीखने की जरूरत है, ताकि सब लोग समझें कि तुम उन्‍हें कर रहे हो। अन्‍यथा कोई कुछ कर नहीं रहा है, विशेषकर उस दुनिया में जिससे मेरा संबंध है।

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-03



सत्र—3   ज्‍योतिषी की भविष्यवाणी

       
बार-बार सुबह का चमत्‍कार.....सूरज और पेड़ । संसार बर्फ के फूल की तरह हैं: इसको तुम अपने हाथ में लो और यह पिघल जाता है—कुछ भी नहीं बचता, सिर्फ गीले हाथ रह जाते है। लेकिन अगर तुम देखो, सिर्फ देखो, तो बर्फ का फूल भी उतना ही सुंदर है जितना संसार में कोई दूसरा फूल। और यह चमत्‍कार हर सुबह होता है, हर दोपहर, हर शाम, हर रात, चौबीस घंटे, दिन-रात होता है.....चमत्‍कार। और लोग परमात्‍मा को पूजने मंदिरों, मसजिदों और गिरजाघरों में जाते है। यह दुनिया मूर्खों से भरी हानि चाहिए—माफ करो, मूर्खों से नहीं वरन मूढ़ों से—असाध्‍य, इतने मंद बुद्धि लोगों से।
     
क्‍या परमात्‍मा को खोजने के लिए मंदिर जाने की जरूरत है, क्‍या वह अभी और यहीं नहीं है।
      खोज का खयाल ही मूढ़तापूर्ण है। खोज तो उसकी करते है जो दूर है। और परमात्‍मा तो इतने करीब है, तुम्‍हारी ह्रदय की घड़कना से भी अधिक करीब है। कोई स्‍त्रष्‍टा नहीं है, केवल सृजन की ऊर्जा है। लाखों रूपों में वह ऊर्जा प्रकट होती, पिघलती, मिलती, प्रकट होती, अदृश्‍य होती, एकत्रित होती और फिर बिखर जाती है।

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-02



सत्र—2 जन्‍म का चुनाव



लोग अपने सुनहरे बचपन बात करते हैं, पर कभी-कभार ही यह सच होता है। अधिकतर तो यह झूठ ही होता है। लेकिन जब बहुत लोग एक ही झूठ बोल रहे हों तो किसी को पता नहीं चलता कि यह झूठ है। कवि भी अपने सुनहरे बचपन के गीत गाते रहते हैं—उदाहरण के लिए वर्डसवर्थ—उसकी कवि‍ताएं अच्‍छी हैं, लेकिन सुनहरा बचपन बहुत ही दुर्लभ घटना हैं। साधारण से कारण से कि तुम इसे पाओगें कहां से।
      सबसे पहले तो व्यक्ति को अपना जन्‍म चुनना पड़ता है। जोकि बिलकुल ही असंभव है। जब तक तुम ध्‍यान की स्थिति में न मरे हो तब तक तुम अपने जन्‍म का चुनाव नहीं कर सकते। यह चुनाव तो केवल ध्यानी ही कर सकता है। वह होश पूर्वक मरता है, इसलिए होश पूर्वक जन्‍म लेने का अधिकार हासिल करता है। मैं होश पूर्वक मरा था। असल में मैं मरा नहीं था, मारा गया था। मैं तीन दिन के बाद मरने बाला था। पर वे लोग इंतजार न कर सके, तीन दिन का भी इंतजार न कर सके। लोग इतनी जल्‍दी में है।