त्वदीयं
वस्तु गोविंदम्, तुभ्यमेव समर्पयेत।
हे प्रभु,’
यह जीवन जो तुमने मुझे दिया वह तुम्हें आभार सहित वापस समर्पित करता हूं। ये
मरते समय मेरे नाना के अंतिम शब्द थे।
हालांकि उन्होंने परमात्मा में कभी विश्वास
नहीं किया और पे हिंदू नहीं थे। यह वाकय, सह सूत्र हिंदू सूत्र है। लेकिन भारत में
सब चीजें घुल मिल गई है। विशेषकर अच्छी बातें। मरने से पहले अन्य बातों के बीच
उन्होंने एक बात बार-बार कहीं, ‘चक्र को रोको।’
उस समय तो मैं यह नहीं समझ सका अगर हम गाड़ी
का चाक रोक दें और उस समय वहां पर तो केवल बैलगाड़ी का चक्र-चाक था। तो हम अस्पताल
कैसे पहुंच सकेंगे। जब उन्होंने बार-बार कहा कि चक्र को रोको तो मैंने अपनी नानी
से पूछा ’क्या नाना जी का दिमाग खराब हो गया है।’
वे हंस पड़ी। उनकी यही विशेषता मुझे बहुत
पसंद थी। मेरी तरह वे भी जानती थीं कि मृत्यु बहुत निकट है। जब मुझे तक मालूम था
तो यह कैसे हो सकता है कि उनको नहीं मालूम था। यह तो साफ दिखाई दे रहा था कि उनकी
श्वास कभी भी बंद हो सकती है। फिर भी वे बार-बार चक्र को बंद करने के लिए कह रहे
थे। नानी हंसी, मैं उनको अभी भी हंसते हुए देख सकता हूं।