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बुधवार, 21 मार्च 2018

हरि बोलौ हरि बोल (संत सुुंदर दास)--प्रवचन-06


जो है, परमात्मा है—छठवां प्रवचन

: दिनांक ६ जून, १९७८; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार:
1—परमात्मा कहां है?
2—हम तो खुदा के कभी कायल ही न थे, तुमको देखा खुदा याद आया।
3—ऐसा लगता है कि कुछ अंदर ही अंदर खाए जा रहा है, जिसकी वजह से उदासी और निराशा महसूस होती है।
4—संसार से रस तो कम हो रहा है और एक उदासी आ गयी है। जीवन में भी लगता है कि यह किनारा छूटता जा रहा है और उस किनारे की झलक भी नहीं मिली। और अकेलेपन से घबड़ाहट भी बहुत होती है और इस किनारे को पकड़ लेती हूं। प्रभु, मैं क्या करूं? कैसे यहां तक पहुंचूं?
5—क्या आप मुझे पागल बना कर ही छोड़ेंगे?
चूक-चूक मेरी, ठीक-ठीक तेरा!

पहला: परमात्मा कहां है?
परमात्मा कहां है, ऐसा पूछने में ही भूल हो जाती है। और प्रश्न गलत हो तो ठीक उत्तर देना असंभव हो जाता है। पूछो, परमात्मा कहां नहीं है? क्योंकि केवल वही है। ज्यादा ठीक होगा कहना कि जो है उसका ही दूसरा नाम परमात्मा है। परमात्मा शब्द छोड़ दो तो भी चलेगा। जो है, यह सारी समग्रता, यह छोटे से कण से लेकर विराट आकाश, यह जीवन का सारा विस्तार--इस सबका इकट्ठा नाम परमात्मा है।

परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है कि तुम पूछो: कहां है? परमात्मा का कोई पता नहीं हो सकता। समग्र का क्या पता होगा? सीमित का पता हो सकता है, और सीमित की तरफ हम अंगुली उठा सकते हैं--वह रहा। सीमित को हम दिशा में रख सकते हैं--पूरब है, पश्चिम में है, दक्षिण है, उत्तर है, ऊपर है नीचे है।
परमात्मा शब्द ने भी बड़ी भ्रांति पैदा की है। उस शब्द में ऐसा लगता है कि कोई है। उस शब्द के कारण ही फिर हमने उसके हाथ बनाए, पैर बनाए, मुंह बनाया। फिर हमने मूर्तियां रचीं, और उन मूर्तियों के सामने झुके, प्रार्थना की। अपनी ही बनाई मूर्तियां, उन्हीं के सामने झुके। ऐसी मूढ़ता चली। परमात्मा अपनी ही बनाई हुई मूर्तियां, उन्हीं के सामने झुके। ऐसी मूढ़ता चली। परमात्मा शब्द के कारण भ्रांति हो गयी।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसके सामने तुम झुको। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जिसे तुम पुकार सको। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जिसके सामने तुम निवेदन कर सको। परमात्मा तो सिर्फ निवेदन करने का बहाना है। असली बात निवेदन है, परमात्मा नहीं। परमात्मा तो सिर्फ झुकने के लिए एक तरकीब है। असली बात झुकना है, परमात्मा नहीं। परमात्मा तो केवल एक निमित्त है। निमित्त को तुम ज्यादा मूल्य मत दो। परमात्मा से ज्यादा मूल्यवान प्रार्थना है--हरि बोलौ हरि बोल! परमात्मा तो सिर्फ इसलिए है कि बना परमात्मा के तुम झुक सको, इतनी अभी तुम्हारी सामर्थ्य नहीं है। झुक सको तो परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है। बिना परमात्मा के तुम प्रार्थना न कर सकोगे, इसलिए तुम्हारी जरूरत के हिसाब से परमात्मा की धारणा है।
पतंजलि ने ठीक कहा कि परमात्मा केवल एक उपाय है। और सब उपायों में एक उपाय है, एक डिवाइस, एक उपाय। इसके आधार से कुछ लोग सत्य तक पहुंच गए हैं। जैसा मैंने तुमसे कहा है बार-बार छोटे बच्चे को हम कहते हैं, आ आम का। बस ऐसा ही। आ का आम से क्या लेना-देना है? लेकिन बच्चे को कैसे समझाएं? सिखाना है आ और बच्चे को आ में कोई रस नहीं है; आम में रस है। आम का स्वाद उसे पता है। आम शब्द उठते ही उसके मुंह में रस बह जाता है। आक के बहाने हम आ सिखा देते हैं।
ऐसे ही परमात्मा के बहाने हम प्रार्थना सिखते हैं। जिस दिन प्रार्थना आ गई, परमात्मा चला जाएगा। प्रार्थना काफी है, पर्याप्त है। तुम अकेले रस-विमुग्ध नहीं हो सकते। तुम्हारी सदा ही अब तक की आदत रही है, दूसरे की मौजूदगी चाहिए तुम्हें। तुम से अगर कोई कहे प्रेम करो, तो तुम पूछते हो--किसको? तुम सिर्फ प्रेम नहीं कर सकते। तुम सिर्फ प्रेममय नहीं हो सकते। तत्क्षण सवाल उठता है--किसको?
मेरे पास लोग आते हैं, मैं उनसे कहता हूं: ध्यान करा। वे कहते हैं: किसका? तत्क्षण जो सवाल उठता है वह--किसका? अब ध्यान तो तुम्हारी चित्त की एक शांति दशा है। इसका किसी से कोई संबंध नहीं। ध्यान किसी का होता है? अगर किसी का ध्यान है तो ध्यान ही नहीं है, क्योंकि अभी विचार की तरंग मौजूद रहेगी। अगर तुमने राम का ध्यान किया, तो राम का विचार मौजूद है और कृष्ण का ध्यान किया तो कृष्ण का विचार मौजूद है। बुद्ध का ध्यान किया तो बुद्ध का विचार मौजूद है, और जब तक विचार मौजूद है, निर्विचार कहां? और ध्यान यानी निर्विचार।
तो जब तुम पूछते हो, ध्यान किसका, तो तुम ध्यान से भ्रष्ट होने का उपाय पूछ रहे हो। मगर तुम्हारी तकलीफ भी, कभी मंदिर का, कभी संसार का विचार किया कभी मोक्ष का--मगर विचार जारी रहा है। एक बात सदा चलती रही है--विचार की धारा। आज अचानक तुमसे मैं कहूं निर्विचार हो जाओ, असंभव मालूम होता है। तुम्हारा अनुभव नहीं है, तुम्हारे अनुभव के लिए एक कल्पित बात जोड़ ली जाती है। कल्पित--कि परमात्मा का ध्यान करो। यह बहाना है सिर्फ हरि बोलौ हरि बोल। उसका कोई नाम थोड़े ही है! हरि बोलने से कोई हरि थोड़े ही है कहीं बैठा। जो सुन लेगा। लेकिन हरि बोलने से धीरे-धीरे-धीरे-धीरे तुम शांत होते जाओगे। और एक घड़ी ऐसी आएगी हरि भी हाथ से छूट जाएगा। तभी जो है, प्रकट हो जाता है। जो है उसका दूसरा नाम परमात्मा है।
तुम पूछते हो परमात्मा कहां है? पहले तो कहां शब्द गलत है। कहां नहीं है? दूसरा, परमात्मा शब्द को भी ठीक से समझ लेना। कहीं भी भूल-चूक से परमात्मा कोई व्यक्ति है, ऐसी कोई धारणा तुम्हारे भीतर बनी रहे, अन्यथा वही तुम्हें अटका देगी। यह सब...ये वृक्ष, ये पक्षी, ये लोग, ये पत्थर, ये पहाड़, ये चांद, ये तारे--ये सब, इन सबके जोड़ का नाम परमात्मा है। इन सबको कोई जोड़े हुए है। इन सबके बीच कुछ तार फैले हुए हैं। ये सब संयुक्त हैं। उस संयुक्तता का नाम परमात्मा है। समग्रता का नाम परमात्मा है।
वृक्ष देखते हो, पृथ्वी से जुड़े हैं। ऊपर उठे हैं, सूरज से जुड़े हैं। हवाओं से जुड़े हैं। वर्षा के बाद आएंगे, उनसे जुड़े हैं। अब वर्षा करीब आ रही है, वृक्ष प्रफुल्लित हैं, आनंदित हैं।
परसों अखबारों में खबर आयी है कि लंदन के कुछ वैज्ञानिक ने एक नया यंत्र आविष्कृत किया है, जो वृक्षों की अंतरत्तरंगों को संगीत में रूपांतरित कर देता है। अंतरत्तरंगों का अध्ययन तो आठ-दस वर्षों से चल रहा है। और यह बात अब वैज्ञानिक रूप से सत्य सिद्ध हो चुकी है कि वृक्षों के भाव होते हैं, अंतर-भाव होते हैं। जैसे तुम्हारे भाव होते हैं--कभी दुख कभी सुख, कभी प्रफुल्लित कभी उदास,कभी राग और विराग। यह बात तो अब प्रमाणित हो चुकी है, लेकिन अब तक जो उपाय थे वे ऐसे ही थे जैसे कार्डियोग्राम में ग्रॉफ बनाता है। तो तुम तो ग्रॉफ में कुछ पढ़ नहीं सकते, उनके लिए चिकित्सक चाहिए, डाक्टर चाहिए--जो समझे ग्रॉफ की भाषा। सामान्यजन को तो सिर्फ लकीरें खींची मालूम पड़ती है--ऊंची-नीची। उन लकीरों में राज छिपा है, हृदय की धड़कनें छिपी हैं, हृदय की गति छिपी है। हृदय की लयबद्धता या लय हीनता वहां प्रकट है। परमात्मा आदमी कैसे समझे? उसके लिए विशेषज्ञ चाहिए।
अभी इंग्लैड के कुछ वैज्ञानिक ने एक नया यंत्र आविष्कृत किया है। उसे जोड़ देते हैं, वृक्ष से, तो वृक्ष के जो अंतर-भाव हैं, वे संगीत में रूपांतरित हो जाते हैं। और बड़ी हैरानी के अनुभव हुए हैं। वृक्ष आते हैं, गुनगुनाते हैं। और उनका गीत सुनकर...भाषा नहीं है उसमें, ध्वनियों का गीत। उनकी ध्वनियां सुनकर तुम समझ पाओगे कि इस वक्त वृक्ष आनंदित है, दुखी है, परेशान है, प्रफुल्लित है--वृक्ष की क्या मनोदशा है? और वृक्ष, जब कोई भी नहीं होता बगीचे में, तब एक दूसरे से भी अंतरंग-वार्ता करते हैं।
पूरे बगीचे को यंत्र से जोड़ दिया गया और चकित हुए वैज्ञानिक: कोई वृक्ष चुप ही खड़ा है, तो घंटों चुप खड़ा रहता है, बोलता ही नहीं, ध्यान में है। और कोई वृक्ष हैं कि बस बकवास कर रहे हैं; एक दूसरे से गुफ्तगू चल रही है; जवाब सवाल चल रहे हैं। एक बोलता है, दूसरा चुप हो जाता है। दूसरा बोलता है, पहला चुप हो जाता है। और ऐसे ही नहीं है कि वृक्षों से बोल रहे हैं, जानवर आते हैं तो उनसे बोलते हैं। और तत्क्षण भाषा बदल जाती है, ढंग बदल जाता है। इतना ही नहीं है कि जानवर से बोलते हैं; एक आदमी आया बगीचे में, तो और भी ढंग बदल आता है। तत्क्षण ध्वनियां भिन्न हो जाती हैं। साधारणतः तुम्हें सन्नाटा दिखाई पड़ रहा है।
वृक्ष भी जड़े हैं। वृक्ष भी उतने ही आत्मवान हैं, जितने तुम हो। उतनी ही भाव-दशाएं वहां भी हैं। महावीर ने सुन लिए होंगे ये गीत, बिना यंत्र के सुन लिए होंगे। इसलिए वृक्ष को भी चोट मत पहुंचाना, वृक्ष को भी मत काटना--ऐसे विचार का आविर्भाव हुआ होगा। जो पच्चीस सौ साल बाद वैज्ञानिक समझ पाए, महावीर किसी अंतर भाव में इसे सुने होंगे, गुने होंगे, पहचान लिया होगा। बारह वर्ष तक मौन जंगल में खड़े थे। बारह वर्ष लंबा वक्त है। और बारह वर्ष तक मौन कोई जंगल में खड़ा रहे और नग्न वृक्षों जैसा ही--वृक्ष ही जैसे हो गए होंगे। जैन तीर्थंकरों की कथाएं हैं कि इतने दिनों, तक, इतने वर्षों तक जंगल में, एकांत में, चुप-चाप खड़े रहे कि वृक्ष चढ़ गए, लताएं, उनके शरीर पर चढ़ गयी। पक्षियों ने उनके बालों में घोंसले बना लिए। भूल ही गए, लताएं भूल ही गई कि कोई आदमी खड़ा है। समझा होगा कि वृक्ष है। इतने ही सरल भी रहे होंगे। धीरे-धीरे वृक्षों के अंतरभाव भी उनके सामने प्रकट हो गए होंगे।
और जब वृक्षों की ऐसी दशा है, तो क्या पशुओं की कहो, क्या पक्षियों की कहो! आज नहीं कल वैज्ञानिक खोज लेंगे कि पहाड़ भी गुनगुनाते हैं। पत्थर भी बोलते हैं, पाषाण भी जीवंत हैं।
यह समग्र का जो जीवन है उसका नाम परमात्मा है। परमात्मा कहीं दूर आकाश में किसी सिंहासन पर बैठा नहीं है--यहां छितरा है, सब तरफ छितरा है, सब तरफ बिखरा है--तुम्हारे बाहर, तुम्हारे भीतर।
अच्छा होगा, परमात्मा की जगत तुम जीवन शब्द का प्रयोग करा। तब तुम ऐसे प्रश्न न बना सकोगे। तब तुम यह न कह सकोगे कि जीवन कहां है? जीवन तो है ही; नास्तिक करेगा, अधार्मिक भी स्वीकार करेगा। जीवन को ही धार्मिक परमात्मा कहता है। उसके कहने के कारण हैं। क्योंकि जीवन को वह इतना गहरा प्रेम करता है कि जीवन शब्द उसे पर्याप्त नहीं मालूम होता। जीवन शब्द में कुछ कभी मालूम होती है। जीवन शब्द कुछ वैज्ञानिक मालूम पड़ता है--रूखा-रूखा, सूखा-सूखा। धार्मिक ने इतने प्रेम से जाना है जीवन को कि वह इस जीवन को अपना प्यारा कहना चाहता है, प्रियतम कहना चाहता है--महबूब, मेरे प्यारे! उस प्यार की भाषा में जीवन परमात्मा हो गया है। ऐसा सोचोगे, ऐसा देखोगे, ऐसा परखोगे, तो तुम्हारी सोचने की दिशा एक नए आयाम में प्रवेश करेगी।
सबा के हाथ में नरमी है आज उनके हाथों की
ठहर-ठहर के होता है आज दिल को गुमां
वो हाथ ढूंढ रहे हैं बिसाते-महफिल में
कि दिल के दाग कहां हैं निशस्ते-दर्द कहां
अगर तुम थोड़े शब्दों के जाल से छूट जाओ और जीवन को पहचाना, तो तुम पाओगे परमात्मा तुम्हें तलाश रहा है। तुम्हारे भीतर गई श्वास में वही आया है। तुम्हारे भीतर गए भोजन में भी वही आया है। तुमने जो जल पिया, उसमें भी वही है। उसके सिवा कुछ भी नहीं है। खाओ तो उसे, पियो तो उसे, पहनो तो उसे। और कोई उपाय नहीं है। हम उसी को खाते हैं, उसी को पीते हैं, उसी को पहनते हैं, उसी को ओढ़ते हैं, उसी को बिछाता हैं--और पूछते हैं, परमात्मा कहां है! तुम भी उसकी एक तरंग हो।
दार्शनिक प्रश्न मत उठाओ। दार्शनिक प्रश्न व्यर्थ प्रश्न हैं। सार्थक प्रश्न उठाओ। पूछो: कहां नहीं है?
आस्मां पर बदलियों के काफिलों के साथ-साथ
पल में आगे पल में पीछे, दाएं-बाएं दोनों हाथ
दिलरुबा तारों की बजती घंटियां!
डोलती पगडंडियों पर नमें बातों का खिराम
नुकरई आवाजे-पा गाहे झिझकता-सा सलाम
था तो अंदेशा नहीं लेकिन कहां--
वो हवा के निस्बतन इक तुंद झोंके का नुजुल
सरसराहट, हल्का-हल्का शोर, कुछ उड़ती-सी धूल
झनझना उठीं सुनहरी बालियां!
लहलहाती आरजूओं का जहां, गंदुम का खेत
वक्त के बाड़े में भेड़ें-बकरियां बच्चों समेत
जिनकी शादाबी जुनूं की दास्तां!
और फिर शीशम के पेड़ों पर बड़े-छोटे तयूर
अपने-अपने साज पर लहरा कर नग्मों का सरूर
ढल रहे हैं रोशनी में बेगुमां!
आस्मां पर बदलियों के काफिलों के साथ-साथ
पल में आगे पल में पीछे, दाएं-दाएं दोनों हाथ
दिलरुबा तारों की बजती घंटियां!
यह सब, यह समस्त उत्सव, यह सारा संगीत, ये ध्वनियां, ये चुप्पियां--वही है। उसे व्यक्ति मत मानकर चलो। वह अव्यक्ति है। वह ऊर्जा है, शक्ति है। तब तुमने ठीक प्रश्न पूछा। और तब ठीक प्रश्न ठीक उत्तर में ले जा सकता है। जरा सा गलत प्रश्न और गलत यात्रा शुरू हो जाती है। फिर तुम जिंदगी भर पूछते रहोगे, कोई उसका उत्तर न दे सकेगा; या जो उत्तर दिए जाएंगे, वे उतने ही व्यर्थ होंगे; या जो देंगे वे इतने ही नासमझ होंगे जितने नासमझ तुम हो। क्योंकि तुम्हारे गलत प्रश्न का उत्तर वही दे सकता है, जिसे अभी पता ही न हो कि उत्तर है क्या। जो अभी यह भी नहीं जानता कि गलत प्रश्न क्या है, वही उतर देगा। तुम पूछो: ईश्वर कहां है? कोई उत्तर दे दे कि पूरब में है, पश्चिम में है, उसे कुछ पता नहीं है। तुम्हारा प्रश्न गलत है, उसका उतर गलत है। मनुष्य यदि ठीक प्रश्न पूछना सीख जाए तो उत्तर बहुत करीब है, बहुत पास हैं--ठीक प्रश्न में ही छिपे हैं। तो मैं तुमसे निवेदन करता हूं, पूछो: परमात्मा कहां नहीं है? क्योंकि मैंने ऐसी कोई जगह नहीं देखी जहां न हो। बहुत खोजा कि ऐसी कोई जगह मिल जाए जहां न हो, सब तरह के उपाय किए कि ऐसा कोई स्थान मिल जाए जहां परमात्मा न हो; नहीं मिल सको।
तुमने सुनी न नानक की कहानी! गए काबा। रात लेटे हैं, काबा के पुजारी बहुत नाराज हो गए। सुन तो रखा था कि हिंदुस्तान से यह आदमी आया है बड़ा ज्ञानी है। मगर इसका व्यवहार बड़ा अज्ञानपूर्ण है! यह काबा के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके सोया हुआ है। उन्होंने कहा कि शर्म नहीं आती? धार्मिक होकर, फकीर होकर, काबा के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करते हो! परमात्मा की तरफ पैर किए सो रहे हो!
तो नानक ने कहा: मेरे पैर उस जगह कर दो जहां परमात्मा न हो। मैं क्षमायाची हूं। लेकिन मैं क्या करूं? तुम मेरे पैर उस तरफ कर दो जहां परमात्मा न हो। क्योंकि मैंने बहुत खोजा, ऐसी कोई जगह पायी नहीं जहां परमात्मा न हो! सारा अस्तित्व उसका मंदिर है।
कहानी तो और भी आगे जाती है। यहां तक तो सच मालूम होती है। इसके आगे कहानी सार्थक तो है, लेकिन सच नहीं है। क्रोध में थे पुजारी, उन्होंने नानक के पैर पकड़कर घूमा दिए दूसरी तरफ। कहानी कहती है, काबा भी उसी तरफ घूम गया। घूम जाना चाहिए, अगर काबा में थोड़ी भी अक्ल हो। अगर घूमा नहीं होगा, क्योंकि काबा पत्थर है, कैसे घूमेगा? इतनी अक्ल कहां? कहानी सच नहीं है, इसलिए नहीं कह रहा हूं कि नानक पर मुझे कुछ शक है; काबा का पत्थर इतना समझदार नहीं है। पत्थर पत्थर है। लेकिन अगर थोड़ी भी अक्ल हो तो घूम तो जाना चाहिए था। इसलिए कहता हूं, कहानी सार्थक है। बहुत कोशिश की पुजारियों ने जहां पैर फेरे वहीं काबा मुड़ गया। सार्थक इसलिए है कि इतनी बात कही जा रही है इस कहानी के द्वारा कि जहां भी पैर करो, वहीं परमात्मा है। सिर करो कि पैर करो, परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। खोजना शुरू करो कि कहां नहीं है--और तुम उसे सब जगह पाओगे। और खोजना शुरू करो कि कहां है--और तुम उसे कहीं भी नहीं पाओगे।
इसलिए मैं कहता हूं: तुम्हारा प्रश्न गलत है। और गलत प्रश्न से शुरू मत करना। तुम्हारा प्रश्न ऐसा है जो तुम्हें नास्तिकता में ले जाएगा। अगर तुमने खोजना शुरू किया कि कहां है, तुम कहीं भी नहीं पाओगे। मेरी सुनो: खोजो, कहां नहीं है? खोदो जगह-जगह। पूछो, कहां नहीं है? और तुम चकित हो जाओगे, जहां खोदोगे वहीं उसी को पाओगे--उसी की अंतःधारा! तुम पाओगे: काबा चारों तरफ घूम रहा है, ठहरा हुआ नहीं है। चारों तरफ परमात्मा की ही गति है, क्योंकि जो है परमात्मा उसी का पर्यायवाची है।

दूसरा प्रश्न--
भगवान! हम तो खुदा के कभी कायल ही न थे,
तुमको देखा, खुदा याद आया।

रतन प्रकाश! देखना आ जाए, तो हर बात से खुदा याद आएगा, बात-बात से खुदा याद आएगा। देखना आ जाए, आंख खुले, तो यह कैसे हो सकता है कि खुदा याद न आए?
यह कोयल की दूर से आती आवाज! यही तो इबादत है, यही तो प्रार्थना है। इसे अगर गौर से सुनी तो सारा अस्तित्व माधुर्य से भर जाता है। सुनो! उसकी रसधार बहने लगती है।
वृक्षों की हरियाली को जरा गौर से देखो, वही हरा है! खिले फूलों को जरा देखो, उसी का नृत्य हो रहा है! उसी रंग, उसी के इंद्रधनुष आकाश में फैलते हैं! सूरज निकलता है तो वही निकलता है। वह जो लाली फैल जाती है सुबह आकाश पर, उसे ही कपोल की लाली है!
देखना आ जाए, तो और कुछ देखने को बचता ही नहीं। देखना आ जाए तो जहां सिर करो, परमात्मा है; जहां आंख खोलो, परमात्मा है; जहां हाथ फैलाओ, परमात्मा है। जिसे छुओगे, वह परमात्मा है। जिसे स्वाद लोगे, वह परमात्मा है।
लेकिन तुम्हारी बात भी मैं समझता हूं। सब से पहले गुरु के दिखाई में दिखाई पड़ता है, क्योंकि सबसे पहले गुरु के पास ही आंख खोलने की हिम्मत आती है। गुरु का अर्थ क्या होता है? जिस पर इतना भरोसा आ जाए कि तुम आंख खोल सको। और तो कुछ अर्थ नहीं होता। किसी की बात सुनकर, किसी का जीवन देखकर, किसी के रंग-ढंग से प्रभावित होकर, इतनी हिम्मत आ जाती है कि तुम आंख खोल लेते हो।
डर के मारे तुम आंख बंद किए हो। तुम्हें भय है कि आंख खोलकर जो दिखेगा, वहीं वह इससे बदतर हो! अभी तो तुम सपनों में हो। आंख बंद है, सपने तुम्हारे हैं और तुमने सपनों को खूब रंगा है, खूब निखारा है। जनम-जनम से तुमने सपनों पर शृंगार किया है। अभी तो तुम अपने-अपने सपने में लीन हो। आंख खोलने से डरते हो, कहीं सपना टूट न जाए! और कौन जाने, जो दिखाई पड़े वह कहीं सपने से भी बदतर न हो!
सत्य सुंदर ही होगा, इसकी कोई गारंटी है? सत्य जीतेगा, इसकी कोई गारंटी है? कहते हैं ऋषि: सत्यमेव जयते! दिखता तो कुछ उल्टा ही है। कहते हैं कि सत्य सदा जीतता है, जीतता तो झूठ मालूम पड़ता है। जीवन भर का अनुभव तुम्हें कहता है कि झूठ जीतता है, सत्य नहीं जीतता। सत्य कहा कि तुमने हारी बाजी। सत्य के साथ संबंध जोड़ा कि चले उतार पर, कि हारे, कि गए काम से! यहां तो झूठ के सोपान पर लोग चढ़ रहे हैं। यहां तो जितना बड़ा झूठ और जितनी हिम्मत से लोग बोल सकते हैं, इतने सफल हो जाते हैं। यहां सच बोलने वाला डूबता मालूम पड़ता है। और ऋषि कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे, मगर पता नहीं किस दुनिया की कहते हैं? किसी लोक की कहते हैं? कहां यह नियम लागू होता है, जहां सत्यमेव जयते चलता हो?
और ऋषि तो यह भी कहते हैं, सत्य ही सुंदर है। सत्यं शिवं सुंदरम! वही सुंदर है, वही शिव है। लेकिन हमने तो कुछ और जाना है। हमने तो झूठ में सौंदर्य जाना है। जैसे-जैसे सच्चाई का पता चलता है वैसे-वैसे हमने सौंदर्य को तिरोहित होते देखा है। सागरत्तट पर तुम एक स्त्री के सौंदर्य से मोहित हो जाते हो। दूरी है, फासला है। और दूर के ढोल सुहावने! वह तुम पर मोहित हो जाती है। दूरी है, फासला है। दूर के ढोल सुहावने होते हैं। आकर्षित होते हो। एक-दूसरे के निकट आते हो। एक-दूसरे को बांध लेना चाहते हो सदा को। इतना सौंदर्य कोई छोड़ कैसे दे! इतना सौंदर्य फिर मिले कि न मिले! फिर गठ-बंधन में बंध जाते हो। विवाह कर लेते हो। साथ-साथ जीते हो। फिर धीरे-धीरे सौंदर्य विदा होने लगता है और सौंदर्य प्रकट होता है। वह जो सागरत्तट पर स्त्री देखी थी, कोई और ही रही, ऐसा मालूम पड़ने लगता है; या ऐसा शक होता है कि धोखा दिया गया है। क्योंकि इस स्त्री में तो सुंदर ही निकलने लगता है, कुरूपता निकलने लगती है। इसके मुंह से ऐसे वचन निकलने लगते हैं, जो तुमने सोचे भी नहीं थे कि इस हसीन चेहरे से निकल सकेंगे, इस सुंदर चेहरे से निकल सकेंगे! ये सुंदर और प्यारे ओंठ, ऐसे भद्दे और बेहूदे शब्द तुम से बोलेंगे, ऐसे कठोर और कठिन घाव तुम पर करेंगे, सोचा भी नहीं था! इस स्त्री ने भी नहीं सोचा था कि तुम्हारी असलियत ऐसी कुरूप होगी। वह जो सपना देखा था प्रेम का सागर के तट पर, वह टूटने लगता है। यथार्थ उसे उखाड़ने लगता है।
मनुष्य का अनुभव तो यह है कि सत्य कुरूप है, और झूठ सुंदर है। ऋषि कहते हैं सत्यं शिवम् सुंदरम्। पता नहीं, किस लोक की कहते हैं! पता नहीं, कहीं ऐसा लोक है भी या नहीं।
सिगमंड फ्रायड या उस जैसे मनोवैज्ञानिक तो मानते हैं कि ये सब कपोल-कल्पनाएं हैं, ये सांत्वनाएं हैं। यहां जिंदगी बड़ी कुरूप है। इस कुरूपता को ढांकने के लिए ये सुंदर-सुंदर वचन हैं। ये सिर्फ आदमी की आकांक्षाएं हैं, ये सत्य की सूचनाएं नहीं हैं। सत्यमेव जयते--यह सिर्फ आकांक्षा है। ऋषि यह कह रहा है: सत्य जीतना चाहिए। मगर जीतता कहां है? ऋषि यह कह रहे है: सत्य सुंदर होना चाहिए। मगर है कहां?
जिंदगी के यथार्थ बड़े कुरूप हैं। ऊपर कुछ, भीतर कुछ पाया जाता है। ऊपर सोने की चमक, भीतर पीतल भी नहीं मिलता। ऊपर फूल की दमक, भीतर कांटा है।
मछली को पकड़ने जाते हैं न, बंसी लटकाते हैं न, कांटे पर आटा लगते हैं न--वैसी हालत है। मछली आटे को पकड़ने आती है, कांटे को पकड़ने नहीं। पकड़ी जाती है कांटे से, आती है आटो को लेने। आटा आकर्षित करता है, फिर हंस जाती है। फिर निकलना मुश्किल हो जाता है।
जो सौंदर्य तुम एक-दूसरे में देखते हो, कहीं आटा ही तो नहीं? पूछो अनुभवियों से, वे कहेंगे, आटा ही है। पीछे कांटा मिलता है। सुख तो केवल द्वार पर बंदनवार है--झूठा। द्वार के भीतर प्रविष्ट हुए, द्वार बंद हुआ कि दुख ही दुख है।
मैंने सुना है, एक राजनेता ने एक सपना देखा। रात सपने मग देखा कि मर गया है और नर्क के द्वार पर खड़ा है। उसे हैरानी भी हुई और हैरानी नहीं भी हुई। हैरानी हुई कि सदा सोचता था स्वर्ग मुझे मिलेगा, क्योंकि यही सुनता आया था कि जो भी दिल्ली में मरता है सब स्वर्गीय हो जाते हैं।
यहां तो, हमारे मुल्क में तो जो भी मरता है उसको हम स्वर्गीय कहते हैं। नारकीय तो किसी को हम कहते ही नहीं। कोई भी मरे! राजनीतिज्ञ भी मरता है तो स्वर्गीय हो जाता है। अगर राजनेता स्वर्ग जाते हैं, तो नर्क कौन जाएगा?
सोचा तो उसने यही था कि स्वर्ग जाऊंगा, नर्क के द्वार पर मैं क्या कर रहा हूं? लेकिन फिर यह भी समझ में आया कि जा कैसे सकता हूं स्वर्ग? जो मैंने किया है, वह स्वर्ग जाने-योग्य तो नहीं। लोग ऐसे ही कहते होंगे।
लोग तो मरे हुए आदमियों के संबंध में अच्छी बातें कहते हैं। जिंदा आदमी के संबंध में कोई अच्छी बात नहीं कहता लोगों ने बड़े अजीब नियम बना रखे हैं। जिंदा आदमी के संबंध में निंदा, मर जाए तो स्वर्गीय हो गया! क्या गजब, का आदमी था! अद्वितीय! जिसकी पूर्ति अब कभी नहीं होगी। दो दिन बाद कोई याद नहीं करता उन सज्जन को, जिनकी पूर्ति कभी नहीं होगी!...अपूर्णीय क्षति हो गई। अब कभी संसार में उनका स्थान भरा नहीं जा सकेगा!
लेकिन अपन कृत्यों का उसे खयाल आया, तो सोचा कि ठीक है। भीतर प्रविष्ट हुआ, तो और भी दंग हुआ! स्वागत कक्ष में बिठाया गया, बड़ा सौंदर्य था! ऐसा सुंदर भवन उसने दिल्ली में भी देखा नहीं था। राष्ट्रपति का भवन भी कुछ नहीं, ऐसे जैसे नौकर चाकर का मकान हो। भवन यह था! स्वर्ग का था, हीरे-जवाहरात जड़े थे। बड़ा स्वागत किया गया, मिष्ठान्न लाए गए, फल लाए गए, फूलमालाएं पहनाई गयीं। वह तो बड़ा हैरान हुआ! उसने कहा कि भाई, यह नर्क है? मुझे तो स्वर्ग से बेहतर मालूम हो रहा है।
शैतान ने कहा, अब आप ही सोचिए। एक तरफ बात चल रही है दुनिया में। परमात्मा की किताबें तो चल रही हैं--बाइबिल और वेद और कुरान; मेरी कोई किताब नहीं। मेरे साथ ज्यादती हो रही है। तो तुम्हें एक पक्ष की बातें सुनने में मिली हैं कि नर्क बुरा है और स्वर्ग अच्छा; वह सब विज्ञापन है। जैसे हर कंपनी अपना विज्ञापन करती है, परमात्मा अपना विज्ञापन करता रहता है। मेरा कोई विज्ञापन करनेवाला नहीं। मैं सीधा-सादा आदमी। मैं अपनी यह दुकान लिए यहां बैठा हूं, कोई जब आ जाता है तो असलियत तो अपने-आप पता चल जाती है। अब आप खुद ही देख लो।
उस राजनेता ने कहा कि बिलकुल तय करके जाता हूं कि यही जगह रहने योग्य है। और तभी उसकी नींद खुल गयी। फिर जब वह मरा, वस्तुतः मरा कोई दस साल बाद, तो मरते वक्त उसने एक ही कामना की कि नर्क जाऊं। वह सौंदर्य उसे भूलता नहीं था। मरकर नर्क पहुंचा नर्क पहुंचा। न कभी करता आकांक्षा तो भी पहुंचना था! होता तो वही है जो होना है; तुम्हारी आकांक्षा से कुछ नहीं होता। कभी-कभी तुम्हारी आकांक्षा मेल खा जाती है तो तुम सोचते हो सफल हो गए। बड़ा खुश था, लेकिन जैसे ही नर्क में घुसा, शैतान ने उसकी जोर से झपटकर गर्दन पकड़ी और लगा घूस मारने। और दस-पांच लोग उस पर टूट पड़े। और बड़ी कुरूप अवस्था थी, चारों तरफ भयंकर वातावरण था। अग्नि की लपटें जल रही थीं और कड़ाहे चढ़ाए जा रहे थे और तेल उबल रहा था और लोग फेंके जा रहे थे। उसने कहा, भाई, यह माजरा क्या है? मैं पहली दफा आया था, तब तो कुछ बात ही और थी!
शैतान ने कहा कि वह स्वागत था, वह टूरिस्टों के लिए है, जो ऐसे ही चले आते हैं, तफरीह के लिए, घूमने के लिए। अब यह असलियत है। यह अब यथार्थ है। उस दफे तो आप ऐसे ही सपने में आ गए थे। तो वह तो प्रलोभन है: वह कक्ष बनाया गया है, अतिथियों के लिए है। यह नर्क का यथार्थ है।
नर्क तक में भी आटा है, कांटा पीछे छिपा है। जिंदगी का अनुभव तो यह कहता है कि सत्य कुरूप है, सपने सुंदर है।
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि आदमी सपने ही इसलिए देखता है कि सत्य कुरूप है। सपने देखे तो क्या करे? कैसे जिए? सत्य इतना कुरूप है कि सपनों से अपने मन को उलझाए रखता है, भुलाए रखता है। जीवन इतना कुरूप है, इसलिए कविताएं खिलता है आदमी और चित्र बनाता है। किसी तरह अपने को भुलाता है। सुंदर भवन बनाता है, सुंदर चित्र लटकाता है, संगीत का निर्माण करता है, काव्य रचता है। ये सब उपाय हैं कि किसी तरह जगत के यथार्थ को, जो कि बहुत कड़वा है, थोड़ी मिठास दी जा सके। कम से कम मिठास की पर्त दी जा सके; जैसे जहरीली, कड़वी गोली के ऊपर हम शक्कर की पर्त चढ़ा देते हैं।
काव्य यही है कला यही है, कि इस जिंदगी को किसी तरह रहने-योग्य बनाओ, किसी तरह कुछ पर्दे डाल कर इसकी कुरूपता को ढांक दो।
तो आदमी आंख खोलने से डरता है। गुरु के संग-साथ में यह साहस आ जाता है कि चलो एक बार हम भी तो आंख खोलकर देखेंगे। क्योंकि कोई आंख खोले हुए आदमी कह रहा है कि नहीं, सत्य कुरूप नहीं है; और तुमने जो जाना था वह सत्य था ही नहीं। सत्य परम सुंदर है। और सत्य कभी नहीं हारता। और तुमने जो सत्य हारते देख था, वह सत्य नहीं था, वह भी एक तरह का झूठ ही था। निष्प्राण था, निर्जीव था, नपुंसक था। आओ मेरे पास। देखो सत्य को, जो सजीव है, जीवंत है।
और सदगुरु के पास उठते-बैठते, उसकी तरंग को झेलते-झेलते, उसकी हवा को पीते-पीते, एक दिन यह हिम्मत आ जाती है कि मैं भी आंख खोल कर देखूं तो। एक बार तो देखूं, कौन जाने सदगुरु जैसा कहता है वैसा ही हो! गुरु वही है जो तुम्हें आंख खोलने के लिए तैयार कर दे।
इसलिए तुम ठीक ही कहते हो रतन प्रकाश--
हम तो खुदा के कभी कायल ही न थे
तुमको देखा खुदा याद आया।
जिसको देखकर खुदा याद आ जाए, वही गुरु है। जहां याद आ जाए, वही गुरु; जहां याद जाए, वही तीर्थ! जहां याद आ जाए, झुक जाना। इसकी फिकिर ही मत करना कि कौन था, जिसके पास आया--हिंदू था कि मुसलमान था कि ईसाई था, आदमी था कि स्त्री था, कौन था? फिकिर ही मत करना। जिसको देखकर भी तुम्हें इस बात की थोड़ी सी झनक मालूम पड़ने लगे कि जगत व्यर्थ नहीं है, सार्थक और यहां पदार्थ ही नहीं है, पदार्थ में छिपा परमात्मा भी है। और यहां ऊपर-ऊपर जो दिखाई पड़ रहा है, वही पूरा नहीं है, भीतर कुछ और भी है। परिधि पर जैसा है वैसा केंद्र पर नहीं है।
सीखी यहीं मेरे दिले-काफिर ने बंदगी
रब्बे करीम है तो तेरी रहगुजर में है
जहां प्रेम घटता है वहीं परमात्मा का अनुभव शुरू हो जाता है। और इस जगत में शुद्धतम प्रेम का जो संबंध है वह गुरु और शिष्य का संबंध है।
सीखी यहीं मेरे दिले-काफिर ने बंदगी रब्बे-करीम है तो तेरी रहगुजर में है
प्रेम के रास्ते पर परमात्मा मिलता है। जहां से प्रेम गुजरता है, उन्हें रास्तों पर चलते-चलते एक दिन परमात्मा मिल जाता है। इस जगत में और बहुत तरह के प्रेम हैं, जो भी सभी टूट जाएंगे, सभी छूट जाएंगे, एक ऐसा भी प्रेम है, जो नहीं टूटता, नहीं छूटता। सौभाग्यशाली हैं, वे जिन्हें उस प्रेम की झलक मिल जाती है, क्योंकि फिर उसी झलक के सहारे को पकड़ कर परमात्मा तक पहुंचा जा सकता। सदगुरु का अर्थ क्या होता है? इतना ही न, कि जहां बैठकर उस रोशनी की चर्चा हो! और चर्चा ही न हो, चर्चा करनेवाले के भीतर अनुभव का स्रोत हो। चर्चा शास्त्रीय न हो, अस्तित्वगत हो।
गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
कफस उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-खुदा आज फिक्रे-यार चले
जहां उस प्यारे की याद की बात हो। हरि बोलौ हरि बोल!
कफस उदास है यारो सब से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-खुदा आज फिक्रे-यार चले
ईश्वर के लिए, कहीं तो उस प्यारे की उसकी चर्चा हो! जहां उसकी चर्चा हो और ऐसी चर्चा, जो अनुभव से निःसृत होती हो। बात ही बात न हो, बात के पीछे अनुभव प्रमाण हो। जिन आंखों में तुम्हें अनुभव का प्रमाण दिखाई पड़ जाए, वहीं से पहली दफा खबर मिलेगी कि ईश्वर है। गुरु है तो ईश्वर है।
इसलिए यह कोई अकारण नहीं है कि इस देश में सदगुरु को भगवान, परमात्मा, ईश्वर कह कर पुकारा...गुरु ब्रह्मा! अकारण नहीं है। दफा यहीं पहली परमात्मा की झलक मिली। उसी द्वार से पहली दफा आकाश खुला। उसी द्वार से विराट की प्रतीति हुई।
बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल गरीब सही
तुम्हारे नाम पे आएंगे, गमगुसार चले
जो हम पे गुजरी सो गुजरी मगर शबे-हिजां
हमारे अश्क तेरी आकबत संवार चले
हुजूर-यार हुई दफ्तरे-जुनूं की तलब
गिरह में लेके गिरहबां का तारत्तार चले
मुकाम फैज कोई राह में जंचा ही नहीं
जो कूए-यार से निकलते तो सूए-दार चले
इस जगत में बस दो ही अनुभव सार्थक हैं--एक तो सदगुरु का अनुभव, क्योंकि वह परमात्मा का पहला अनुभव है; और फिर परमात्मा का अनुभव, क्योंकि वह सदगुरु का अंतिम अनुभव है।
गुलों में रंग भरे, बादे-नौ बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
कफस उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-खुदा, आज जिक्रे-यार चले
ऐसे तो परमात्मा सब तरफ मौजूद है। गुरु में ही मौजूद है, ऐसा नहीं; सब तरफ मौजूद है। लेकिन गुरु में होशपूर्वक मौजूद है और शेष सब तरफ प्रगाढ़ निद्रा में है। वृक्ष में भी है, लेकिन वहां सोया है। अभी वहां स्व-चैतन्य का जन्म वहीं हुआ है। पत्थर में भी है, लेकिन बड़े गहरे में, बहुत खोदोगे तो पाओगे। गुरु में बिना खोदे मिल होगा, गुरु के पास गुरु तुम्हें तलाशता है। उसके हाथ तुम्हें हृदय में गहरे उतरते हैं टटोलते हैं। शेष सारे अस्तित्व में परमात्मा तुम्हें खोजना पड़ेगा, गुरु के पास परमात्मा तुम्हें खोजता है।
सब कत्ल हो के तेरे मुकाबिल से आए हैं
हम लोग सुर्खरू हैं कि मंजिल से आए हैं
शम्मए-नजर, खयाल के अंजुम, जिगर के दाग
जितने चिराग हैं, तेरी महफिल से आए हैं
उठ कर तो आ गए हैं तेरी बज्म से मगर
कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं
जहां-जहां रोशनी है...शम्मए-नजर...कभी किसी आंख में शमा जलती है, कभी किसी आंख में एक लपट होती है। देखी न लपट--आंख की लपट! शम्मए नजर--नजर की दीया! खयाल के अंजुम! और कभी-कभी ध्यान में सितारे झलकते हैं। खयाल के अंजुम! जिगर के दाग। और कभी-कभी प्रेम में पड़े हुए हृदय के घाव, वे भी फूल की तरफ चमकते हैं, वे भी दीए की तरह चलते हैं। उनमें भी बड़ा रंग और बड़ी रोशनी होती है।
शम्मए-नजर खयाल के अंजुम, जिगर के दाग
जितने चिराग हैं, तेरी महफिल से आए हैं।
और जहां- जहां चिराग है, वह सब उसी परमात्मा की रोशनी है। सदगुरु में उसका चिराग प्रगाढ़ता से चलता है। जहां तुम्हें मिल जाए, फिर तुम फिक्र मत करना दुनिया की कि दुनिया क्या कहती है। जरूरी नहीं है कि जो तुम्हें दिखाई पड़े, वह औरों की भी दिखाई पड़े। दिखने-देखने के ढंग हैं और देखने-देखने का समय है और देखने-देखने की परिपक्वता और प्रौढ़ता है। यहां हर आदमी अलग-अलग जगह खड़ा है। हर आदमी यहां एक ही कक्षा में नहीं है।
तुम एक छोटे बच्चे को लेकर बगीचे में आ गए। जो तुम्हें दिखाई पड़ेगा, वह बच्चे को नहीं दिखाई पड़ेगा। जो बच्चे को दिखाई पड़ेगा वह तुम्हें दिखाई नहीं पड़ेगा। दोनों बगीचे में खड़े हैं।
सदगुरु जरूरी नहीं है कि सभी को दिखाई पड़े। देखने की पात्रता चाहिए। बुद्ध चले, कितने थोड़े से लोगों को दिखाई पड़े! और लोग ऐसे अभागे हैं कि फिर सदियों रोते हैं। फिर सदियों तक कहे चले जाते हैं: काश, हम बुद्ध के समय में होते! और काश, उनके चरणों में बैठते! और कुछ ऐसा नहीं है कि तुम नहीं थे, तुम भी थे। तुम सदा से हो यहां। बुद्ध तुम्हारे पास से गुजरे होंगे। तुम्हारे पास से काफिले गुजरते रहे हैं--तीर्थंकरों के, अवतारों के, बुद्धों के। शमाएं जलती रहीं, मशालें निकलती रहीं, मगर तुम्हारी प्रौढ़ता नहीं थी कि तुम रोशनी देख सको। जिन्होंने देखा, उन्हें तुमने पागल समझा। तुमने कहा: हमें तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। और तुम्हारी भीड़ है। बहुमत तुम्हारा है। देखनेवाले इक्के-दुक्के हैं, पागल मालूम होने लगते हैं। तो जरूरी नहीं है कि सभी को दिखाई पड़े।
लेकिन तुम्हें जहां दिख आए, वहीं मिट जाना, वहीं गिर जाना, वहीं ढेर हो जाना, फिर वहीं आखिरी सांस ले लेना। मर जाना गुरु में और तुम नया जीवन पाकर उठोगे। और तुम ऐसी जीवन पाकर उठोगे जिसका फिर कोई अंत नहीं है।

तीसरा प्रश्न--
ऐसा लगता है कि कुछ अंदर ही अंदर खाए जा रहा है, जिसकी वजह से उदासी और निराशा महसूस होती है।

वेदांत! शुभ हो रहा है। तुम्हारी पुरानी दुनिया बिखर रही है। तुम्हारा पुराना भवन गिर रहा है। वह ताश का भवन था। उसे बचाने में कुछ सार भी नहीं है। तुम्हारी नाव डूब रही है, वह कागज की नाव थी! वह डूब ही जाए, जितनी जल्दी डूब जाए, उतना अच्छा! क्योंकि वह डूब जाए तो तुम नयी नाव खोजो। वह डूब जाए तो कम से कम तैरना सीखो। उसके भरोसे तुम समय गंवा रहे हो।
ठीक हो रहा है। शुभ हो रहा है।
दिया जले सारी रात
पहने सर पर ताज अगन का
भेदी मेरी दिल की जलन का
लाया है इस अंधियारे घर में अंसुवन की सौगात
दिया जले सारी रात
जल-पथ जल-पथ भींगी पलकें
पलक-पलक मेरे आंसू छलकें
बरस रही दो नैनन से बिन बादल बरसात
दिया जले सारी रात
टूट गए क्यों प्यार पुराने
मैं जानूं या दीपक जाने
जलते-जलते जल जाए पर कहे न दिल की बात
दिया जले सारी रात
भूल गई मोहे सब रंगरलियां
बिखर गई आशा की कलियां
ऐसी चली विरह की आंधी डाल रहे न पात
दिया जले सारी रात
आंधी आयी है, सूखे पत्ते गिरेंगे। पकड़ो मत। आंधी आयी है, यह तुम्हारी ताश का भवन उड़ेगा। प्रतिरोध न करो। यह नाव कागज की डूब रही है, डूबने दो। तुम सौभाग्यशाली हो। यह उदासी, उदासी नहीं है। यह अंधेरा आनेवाली सुबह की खबर ला रहा है। सुबह होने के पहले रात बड़ी अंधेरी हो जाती है। और ऐसे ही उत्सव के जन्म के पूर्व उदासी गहन हो जाती है।
लेकिन डर तो लगता है जब चित्त उदास होने लगता है और ऐसा लगता कि सब निराशा होती जा रही है, जीवन में कुछ सार नहीं मालूम होता। आदमी घबड़ाता है कि जीऊंगा कैसे अब? किस सहारे जीऊंगा? कि बहाने? लेकिन एक ऐसा भी जीवन है, जिसके लिए सहारे की कोई जरूरत नहीं और जिसके लिए बहाने की कोई जरूरत नहीं। सच तो यह है कि वह जीवन ही सच्चा जीवन है, जिसके लिए भविष्य की कोई आवश्यकता नहीं है और जिसके लिए सपनों का टेका नहीं लेना पड़ता। सपनों की बैसाखी जिस जीवन को जरूरत पड़ती है, वह जीवन झूठा है। उस जीवन को माया कहा है।
क्षण-क्षण बिना भविष्य के, बिना आकांक्षा के, बिना किसी दौड़ के, बिना किसी लक्ष्य के, जीने की एक कला है। वही कला मैं तुम्हें सिखा रहा हूं। इसके पहले कि तुम वर्तमान में जाओ, तुम्हारा भविष्य बिखर जाएगा। उसी से तुम उदास हो रहे हो। मेरे पास उठते रहे, बैठते रहे, तो तुम्हारा अतीत व्यर्थ है, यह तुम्हें पता चलेगा। तुम्हारा अतीत मैं छीन लूंगा। और वही तुम्हारी सारी संपदा है। तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा पुण्य--सब तुम्हारे अतीत में हैं। और पहले अतीत हट गया, तो दूसरी चोट तुम्हारे भविष्य पर होगी, क्योंकि वहीं तुम्हारे सारे रस के स्रोत हैं। कल ऐसा होगा, कल के लिए जी रहे हो, आज की क्या फिकर है!...कल ऐसा होगा!
और ऐसा ही नहीं है कि संसारी लोग कल में जी रहे हैं, तथाकथित धार्मिक लोग भी कल में जी रहे हैं--तुमसे भी ज्यादा! वे कहते हैं, मरने के बाद स्वर्ग होगा...वहां मोक्ष होगा। वहां फिर मिलेगा सुख, यहां सुख कहा रखा है?
मैं तुमसे कह रहा हूं: अगर अतीत और वर्तमान चले जाए, तो यहीं, इसी क्षण मोक्ष अवतरित हो जाता है। मोक्ष कोई भौगोलिक जगह नहीं जहां तुम्हें जाना पड़े। मोक्ष जीवन को जीने का एक ढंग है, कल कला है। मोक्ष कोई स्थान नहीं है कि चले, बैठे रेलगाड़ी में। तुम्हारे साधु-संन्यासी ऐसे ही सोचकर चल पड़े हैं, बैठ गए हैं रेलगाड़ियों में। रेलगाड़ियां चलती रहती हैं, कहीं पहुंचती नहीं। मोक्ष कोई स्थान नहीं है--स्थिति है। और स्थिति तो अभी पाई जा सकती है। उस स्थिति का एक ही लक्षण है।
महावीर ने कहा: जिस क्षण भी चित्त कालातीत हो जाए, जिस क्षण भी चित्त से समय मिट जाए, उसी क्षण मोक्ष है। समय मिट जाए!...समय क्या है? पढ़ा हो, तो बदल लेना। तुमने किताबों में पढ़ा है कि समय के तीन हिस्से हैं। अतीत, वर्तमान, भविष्य। मैं तुमसे कह देना चाहता हूं: समय के दो ही हिस्से हैं--अतीत और भविष्य। वर्तमान का हिस्सा नहीं है, वर्तमान शाश्वत का हिस्सा है। वर्तमान कालातीत है। वर्तमान काल का अंग नहीं है।
तो तुम उदास तो होओगे। मेरे पास जो भी आयेगा, उससे में बहुत कुछ छीनूंगा। हालांकि जो मैं छीन रहा हूं, वह वही है जो तुम्हारे पास है ही नहीं, सिर्फ तुम्हें भ्रांति है कि है।
ऐसा ही समझो, एक आदमी मानकर चलता है कि उससे पास हीरा है। उसकी अकड़ देखो! उसकी चाल देखो।
मैंने सुनी है एक कहानी। दो फकीर एक जंगल से गुजर रहे हैं--गुरु और शिष्य। गुरु बूढ़ा है, शिष्य जवान है। शिष्य थोड़ा परेशान है, क्योंकि गुरु कभी इस तरह से परेशान पहले दिखा नहीं, आज बहुत परेशान है। और गुरु बार-बार अपनी झोली में हाथ डालकर कुछ टटोलकर देख लेता है। बार-बार। और बड़ी तेजी से चल रहा है। इतनी तेजी से कभी चला भी नहीं। और बार-बार पूछता है अपने शिष्य से: रात के पहले हम गांव पहुंच जाएंगे कि न पहुंच पाएंगे? कहीं जंगल में रात न हो जाए!
शिष्य सोच रहा है कि हमें जंगल में रात हो कि गांव में रात हो, क्या फर्क पड़ता है! इसके पहले भी हम कई बार साथ चले और जंगलों में रातें काटी हैं, कभी गुरु को इतना भयभीत नहीं देखा। बात क्या है?
फिर वे एक कुएं पर रुके। गुरु ने झोला रखा कुएं के पाट पर और शिष्य को कहा, जरा झोले का ध्यान रखना। खुद पानी खींचने लगा। शिष्य को मौका मिला, उसने झोले में हाथ डालकर देखा। एक सोने की ईंट! सब राज साफ हो गया कि क्यों आज घबड़ाहट है, क्यों आज डर है, क्यों आज जल्दी अगर नगर पहुंच जाने की आकांक्षा है, आज जंगल में सोने में इतनी बेचैनी क्या है? डाकू...कोई लूट ले! उस युवक ने सोने की ईंट निकालकर कुएं के पास फेंक दी और एक पत्थर का टुकड़ा उतने ही वजन का उठाकर झोले में रख लिया। गुरु ने हाथ-मुंह धोया, स्नान किया बीच-बीच में झोले को देखता रहा। शिष्य भी मन ही मन मुस्कुराता रहा कि देखते रहो झोले को। अब झोला ही है। फिर जल्दी से स्नान करके जल्दी से झोला कंधे पर लिया, टटोलकर, झोले के ऊपर से ही टटोलकर देखा, ईंट अपनी जगह है। प्रसन्न चित्त दोनों चल पड़े। बड़ी जल्दी चल रहा है, भागे जा रहे हैं! बूढ़ा हैं, हांफने लगा है। शिष्य कहता है: धीरे चलिए, इतनी जल्दी क्या है? नहीं भी पहुंचे शहर तो क्या?
अंततः गुरु ने कहा कि नहीं पहुंचे, तो मुश्किल हो जाएगी, खतरा है।
उस शिष्य ने कहा: आप बेफिक्र रहिए, खतरे को मैं पीछे ही फेंक आया हूं। तब घबड़ाकर उस बूढ़े ने अपने झोले में हाथ डाला, देखा, वहां पत्थर है। लेकिन ये दोत्तीन मिल पत्थर भी सोना बना रहा। एकदम बैठ गया। पहले तो बड़ी उदासी घिर गई कि यह तूने क्या किया? सोने की ईंट फेंक दी! और फिर हंसी भी आयी, फिर खयाल भी आया कि पत्थर की ईंट भी झोले में थी, मेरी मान्यता थी कि सोने की है, तो मैं घबड़ाया रहा। सोने की ईंट भी झोले में पड़ी हो और मैं समझूं कि मिट्टी है तो घबड़ाहट कैसी? दोनों बातें हो सकती हैं।
तुम जब मेरे पास आते हो, तुम इसी खयाल में आते हो कि सोने की ईंट तुम्हारे झोले में है। किसी के झोले में सोने की ईंट नहीं है। होती तो तुम यहां आते नहीं। तुम खाली हो, मगर मान रखा है कि सोने की ईंट है। जब तुम मेरे पास आते हो, मैं तुम्हें रोशनी से दिखाता हूं कि तुम्हारे झोले में सोने की ईंट नहीं हूं, तो बड़ी उदासी होती है। क्योंकि इतने दिन की मानी हुई धारणा, जिसके सहारे जी रहे थे, जिससे जिंदगी--सब गया, सब मिटी हो गया! सोने की ईंट ही पास नहीं है, अब क्या होगा? उदासी घेर लेती है।
कल तक तुम चल रहे थे कि आज तो व्यर्थ है सब, लेकिन कल सफलता मिलनेवाली है, भाग्योदय होगा। मेरे पास तुम आते हो, मैं तुमसे भविष्य छीन लेता हूं। मैं कहता हूं, कल कोई भाग्योदय नहीं होता, क्योंकि कल कभी आता ही नहीं, न कभी आया है, न कभी आयेगा। कल का कोई अस्तित्व नहीं है, तुम भ्रांतियां में पड़ें हो।
तुमसे मैं तुम्हारा अतीत छीनता हूं, तुम्हारी सोने की ईंटें मिट्टी की हो जाती हैं। तुमसे तुम्हारा भविष्य छीन लेता हूं, तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं के भवन गिर जाते हैं। फिर उदासी पकड़ती है।
यह उदासी शुभ है। अगर तुम भाग ही न गए वेदांत! तो इसी उदासी से उत्सव का जन्म होगा। अगर तुम रुके ही रहे हिम्मत से...और यही घड़ी है रुकने की। इन्हीं घड़ियों में आदमी भागते हैं, कि यह तो उल्टा हो गया। हम पाने आये थे, यहां उलटा खोना हो गया। हम चले थे घर से भद्दा कि कुछ थोड़ा और आनंद जीवन में आएगा, यहां आकर जो था वह भी खो गया।
पहले तो मुझे तुम्हारा छीन लेना पड़ेगा वह झूठा है। और तभी तुम्हें मैं वह दे सकता हूं जो सच्चा है। और मजा ऐसा है, फिर तुम्हें दोहरा दूं--मैं तुमसे वही छीन रहा हूं, जो तुम्हारे पास नहीं है और तुम्हें वही दूंगा, जो सदा से तुम्हारे पास है, लेकिन तुम्हें जिसकी याद नहीं। मगर उसकी याद आ सके जो तुम्हारे पास है, उसके लिए जरूरी है कि वह तुमसे छीन लिया जाए जो तुम्हारे पास नहीं है।
तुम्हारे सपनों में, तुम्हारा सत्य खो गया है। तुम्हारे कचरे में, तुम्हारा हीरा खो गया है। आधा काम हो गया है, सब भाग मत जाना!

चौथा प्रश्न भी वैसा ही है। पूछा है धर्म भारती ने: संसार से रस तो कम हो रहा है और एक उदासी आ गयी है। जीवन में भी लगता है कि यह किनारा छूटता जा रहा है और उस किनारे की झलक भी नहीं मिली। और अकेलेपन से घबड़ाहट भी बहुत होती है और इस किनारे को पकड़ लेती हूं। प्रभु! मैं क्या करूं? कैसे वहां तक पहुंचूं?

पहली बात: जो किनारा छूट गया, उसे पकड़ने का कोई उपाय नहीं। फिर सोचो उस बूढ़े फकीर की बात। जब तक भ्रांति थी कि सोने की ईंट झोले में है, तब तक एक बात थी। अब जान लिया कि मिट्टी है, पत्थर पड़ा है झोले में। अब तुम सोचते हो कि दुबारा वही गरमी आ सकती है चाल में? अब यह फिर से उत्सुक होकर भाग सकता है शहर की तरफ? अब यह फिर उसी आतुरता से कह सकता है अपने शिष्य से कि शहर कब पहुंचेंगे, रात हूं जाती है, खतरा है? अब कोई उपाय नहीं।
यही हुआ भी था। फिर जिस वृक्ष के नीचे यह पता चला था कि सोने की ईंट नहीं है अब, उसी वृक्ष के नीचे सो गये थे, फिर एक कदम आगे नहीं बढ़े। अब जाने का सार क्या है? अब जंगल की मंगल है। अब भय का कारण ही न रहा। अब खाने को ही कुछ बचा। जो खो ही गया। अब कोई लुटेगा क्या?
धर्म भारती! जो किनारा छुट गया, उसे पकड़ने का अब कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वह किनारा अब है ही नहीं। वह तुम्हारी मान्यता में था, था थोड़े ही! ऐसा तो नहीं था कि किनारा था और तुमने पकड़ा था और तुमने पकड़ा था, तुमने पकड़ा था यह सच है। लेकिन किनारा वहां था नहीं। तुमने माना था। मानकर पकड़ा था। पकड़ कर किनारे को बना लिया था, कल्पित कर लिया था, जीवन दे दिया था। अब छूट गया। अब दिखाई पड़ गया कि यहां कुछ सार नहीं है।
लौटने का तो कोई उपाय नहीं, पकड़ने का भी कोई उपाय नहीं। अब लाख आंख बंद करो, तुम जानोगे ही कि अब बंद करने से कुछ सार नहीं। वह जिंदगी तो व्यर्थ हो गयी। वह जिंदगी तो राख हो गयी। राख थी, पहचान ली गयी।
शौके मंजिल इस कदर था तेजगाम,
जिंदगी गर्दे-सफर होकर सही
वह तो सब धूल-धवांस हो गयी। दौड़ते रहे तब तक दौड़ते रहे। महत्वाकांक्षा जब तक पकड़े थी, पकड़े रही। तब तक धूल खाते रहे, दौड़ते रहे, हांफते रहे, परेशान होते रहे। अब यह नहीं हो सकेगा।
जनम-मरन का साथ था, जिनका, उन्हें भी हम से बैर।
वापस ले चल अब तो आली हो गई जग की सैर।।
अब उस भ्रांति को फिर से प्राण देने की कोई औषधि नहीं है।
अगनी हम पर जीवन का जो वार पड़ा भरपूर।।
अब लौटकर पीछे मत देखो। वहां पाया भी क्या था? वहां पकड़ने योग्य है भी क्या! सब क्षणभंगुर था!
वो आए भी तो बगूले की तरह आए गए।
चिराग बन के जले जिनके इंतजार में हम।।
वहां मिला क्या, जिनकी प्रतीक्षा में इतने-इतने जले थे। चिराग बन के जले जिनके इंतजार में हम! उनके आने पर हुआ क्या? जिन आकांक्षाओं को संजोया और जीवन जिनके लिए दांव पर लगाया, जब वे आकांक्षाएं पूरी हुई, तो पूरा हुआ क्या।
वो आए भी तो बगूले की तरह आए गए।
इस जीवन में जो भी मिलता है, इस हाथ मिलता है उस हाथ छूट जाता है। यहां सब क्षणभंगुर है। मिलने की सब भ्रांति होती है। बहुत हो चुका यह जलना!
गम की चिता में राख हुए हैं जलकर सांझ सवेरे।
दिन जो ढला तो रात खड़ी थी अपने बाल बिखेरे।।
यही होता रहा है। दिन किसी तरह कट गया तो रात आ गयी। रात कट गयी तो दिन आ गया।
यूं ही सुबह-शाम होती है।
यूं ही उम्र तमाम होती है।।
पाया क्या है? वह किनारा तो गया। अब तुम पूछ रही हो कि दूसरा किनारा दिखाई नहीं पड़ता। दूसरा किनारा भी नहीं है। दूसरा किनारा तो सिर्फ बातचीत के लिए है, ताकि पहला किनारा छूट जाए। दूसरा किनारा तो पहले किनारे से मुक्त कराने का उपाय है। यह दूसरा किनारा भी पहले किनारे की ही आकांक्षा है अभी। पहले किनारे को ही तुमने दूसरे किनारे पर आरोपित कर लिया है। तुम कहते हो: संसार तो गया, अब स्वर्ग कहां है?
स्वर्ग क्या है? वे भी तुम्हारे संसार के दुखों में ही सोचे गए सपने थे। संसार में पाए थे बहुत दुख, इतने दुख कि झेलना असंभव था, सहना असंभव था। असहनीय थे, तो स्वर्ग की कल्पना की थी, कि थोड़े दिन की बात और है। बस दो-चार दिन की बात और है। फिर आएगी मौत और विश्राम होगा--स्वर्ग में विश्राम। थोड़े दिन और सह लो, बस पहुंचे...अब पहुंचे...अब पहुंचे ही जाते हैं।
बुद्ध एक जंगल से गुजर रहे हैं। खेत में काम करते एक किसान से आनंद पूछता है कि गांव कितनी दूर है? वह कहता है: होगा कोई दो कोस। दो कोस चलते हैं, गांव का फिर भी कोई पता नहीं । एक लकड़हारे से पूछते हैं कि भाई, गांव कितनी दूर होगा? वह कहता है: होगा कोई दो कोस, बस अब पहुंचे। जरा आनंद हैरान होता है कि दो कोस तो हम चल भी चुके! लेकिन बुद्ध मुस्कुराते हैं। दो को चलकर अभी भी...सांझ होने लगी, अब सूरज ढलने लगा और गांव का कोई पता नहीं है। दूर कहीं कोई विराग भी जलता दिखाई नहीं देता। अंधेरा उतर रहा है। अब तो आनंद बड़ी बेचैनी से एक आदमी से पूछता है। अपने झोपड़े के सामने, अपने खेत में एक आदमी बैठा है, उससे पूछता है: गांव कितनी दूर होगा? वह कहता है: होगा कोई दो कोस, बस अब पहुंच, घबड़ाओ मत। अब आनंद के बर्दाश्त के बाहर हो गया। उसने कहा: हद हो गई! बहुत झूठ बोलनेवाले दुनिया में देखे, मगर तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं है! दो कोस पहला आदमी बता रहा था, दो कोस चल लिए, दूसरे ने भी दो कोस, दो कोस वह भी चल लिए, तुम भी दो कोस कह रहे हो। यह यात्रा कभी पूरी होगी या नहीं होगी?
बुद्ध ने कहा: आनंद, नाराज न हो। मैं इनका राज समझता हूं, क्योंकि यही मैं भी कर रहा हूं। गांव है ही नहीं। ये तो केवल तुम्हें सहारा दे रहे हैं, ये भले लोग हैं। यह नहीं कहते कि पहुंच न पाओगे; कहते हैं, चले जाओ, चलते जाओ। तुम थककर गिर न जाओ, तुम उदास होकर रुन न जाओ, तुम हताश न हो जाओ।ये झूठ नहीं बोल रहे हैं। ये सिर्फ तुम्हारे उत्साह को कायम रखने के लिए कहते हैं कि यही कोई दो कोस...अभी पहुंचे। यही तो मेरी प्रक्रिया है, इसलिए मैं हंस रहा हूं कि इन किसानों को यह पता कैसे चला? यह तो बुद्धों की प्रक्रिया है। वे सदा कहते है: यह रहा दूसरा किनारा। तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता, मुझे दिखाई पड़ता है। चलो आओ, चले आओ। पहला किनारा छूट जाता है पहले। तक जब पहला किनारा छूटता है, स्वभावतः तुम और भी दो कोस, यही कोई दो कोस...। धीरे-धीरे धीरे-धीरे उस जगह से आते हैं, जहां यह तुम्हें समझ में आ जाता है कि न पहला किनारा है न कोई किनारा है। पहुंचने की बात ही व्यर्थ है।
जीवन अनंत यात्रा है। न यहां कोई गंता है, न गंतव्य। जीवन एक अनंत यात्रा है। उस अनंत यात्रा का नाम ही जीवन है पहुंचना कहां है? पहुंचकर फिर करोगे क्या?
थोड़ा सोच, धर्म भारती! दूसरा किनारा आ जाए, फिर क्या करोगी? कितनी देर दूसरा किनारा मन को भाएगा? शास्त्र कहते हैं, मोक्ष में जो लोग बैठे हैं, अनंत काल के लिए बैठ गए। अब जरा सोचो, बैठे हैं कोई मुनि महाराज मोक्ष में, अपनी सिद्ध-शिला पर अनंत काल में! क्या करेंगे अब वहां? कितनी देर तक बैठेंगे? फिर दिल करने लगेगा कि चलो जरा संसार की सैर ही कर आए, फिर यहीं बैठे बैठे क्या करना है? अनंत काल तक यह तो बड़ी सजा हो जाएगी।
अनंत यात्रा है जीवन। प्रतिपल नए उदभव होता है। प्रतिपल नया आकाश, नए द्वार खुलते हैं। पहुंचना नहीं है--यह जानना है कि यहां पहुंचने को कुछ भी नहीं है। और तब एक गहन मुक्ति होती है। पहुंचने की दौड़ हट जाती है, चिंता मिट जाती है, मार मिट जात है।
तुम्हें मैं निर्भार करना चाहता हूं। अब यह दूसरे किनारे की बात तुम्हें और भार से भर देगी। पहला गया, दूसरा भी जाने दो। एक कांटे को हम दूसरे कांटे से निकाल लेते हैं, फिर हम दोनों काटे फेंक देते हैं। पहले किनारे को हटाने के लिए दूसरा किनारा कल्पित किया। अब पहला गया, अब मैं तुमसे सच्ची बात कह दूं: दूसरा कोई किनारा नहीं है। धक्का लगेगा, क्योंकि यह तो बड़ा धोखा हो गया! पहला ही न छोड़ते हम, अगर पहले ही पता होता कि दूसरा नहीं है। इसलिए तो दूसरे की बात करनी पड़ती है।
जब दोनों किनारे छूट जाते हैं, तब जो शेष रह जाता है वही परमात्मा है। न कहीं पहुंचना, न कहीं जाना है, सब यहीं हैं, अभी है।
आस्मां पर बदलियों के काफिलों के साथ-साथ।
पल में आगे पल में पीछे दाएं-बाएं दोनों हाथ
दिलरुबा तारों की बजती घंटिया!
डोलती पगडंडियों पर नर्म बातों का खिराम
नुकराई आवाजे-पा गाहे झिझकता-सा सलाम
था तो अंदेशा नहीं लेकिन यहां
वह हवा के निस्बतन इक तुंद झोंके का नुजुल
सरसराहट, हल्का-हल्का शोर कुछ उड़ती-सी धूल
झनझना उठीं सुनहरी बालियां
लहलहाती आरजूओं का जहां गंदुम के खेत
वक्त के बाड़े में भेड़े-बकरियां बच्चों समेत
जिनकी शादाबी जुनूं की दास्तां
और फिर शीशम के पेड़ों पर बड़े छोटे तयूर
अपने-अपने साज पर लहराकर नग्मों का सरुर
ढल रहे हैं रोशनी में बेगुमां!
यहीं इसी क्षण सब है। किस दूसरे किनारे की बात? कैसे किनारे की बात? कहीं जाना नहीं है, यही होना है! समग्रता से यहीं होना है! परिपूर्णता से यहीं कहीं जाना नहीं है, यहीं होना है! समग्रता से यहीं होना है! परिपूर्णता से यहीं जागना है। प्रतिपल प्रार्थना है। प्रतिपल ध्यान है। और यह सामान्य जीवन सामान्य नहीं है; आंख से तुम्हारी धूल हट जाए, तो असामान्य है। संसार मोक्ष है, झेन फकीर कहते हैं--इसी अर्थ में कहते हैं।

पांचवां प्रश्न--
क्या आप मुझे पागल बनाकर ही छोड़ेंगे?

पागल से कम में काम चलता नहीं। जीवन के वास्तविक जगत में पागलों का ही प्रवेश है, दीवानों का ही प्रवेश है। बुद्धिमान वंचित रह जाते हैं वहां, क्योंकि वे चालबाज हैं, क्योंकि वे गणित बिठाते हैं, क्योंकि वे चतुर हैं, इसलिए वंचित रह जाते हैं। वहां चाहिए सब दांव पर लगा देनेवाले दीवाने। जो कहें--यह या वह, या तो मैं रहूं या तू। अब दो न रहेंगे, अब एक ही रहेगा। या तो तू मुझमें मिट जा या मैं तुझमें मिट जाऊं।
ऐसी हिम्मत समझदारों में नहीं होती। समझदारों में हिम्मत होती ही हनीं। तुमने देखा कभी, जितना आदमी समझदार हो उतनी ही हिम्मत कम होती है। क्योंकि समझ कहते है: सोचकर चल, संभलकर चल एक-एक कदम एक-एक रत्ती हिसाब रखकर चल। समझ इतना हिसाब लगाती है कि अवसर निकल जाता है, तब हिसाब लग पाता है। तब तक समय ही गया। हिसाब लगानेवाले हिसाब ही लगाते रहते हैं, पानेवाले पा लेते हैं।
पागल का मतलब क्या होता है? पागल का मतलब होता है: अब हिसाब-किताब से न चलेंगे।
तुम पूछते हो: क्या आप मुझे पागल बनाकर ही छोड़ेंगे?
और किसी तरह मैं तुम्हारे काम भी नहीं आ सकता। मैं पागल हूं और जब तक तुम्हें पागल न बना दूं तब तक दोस्ती बनी ही नहीं। मेरे जैसा ही तुम्हें बना कर छोडूंगा। मेरे ही रंग में रंगकर छोडूंगा। कठिन है यह यात्रा, क्योंकि समझदारी छोड़नी बड़ी मुश्किल होती है। समझदारी के लाभ बिलकुल साफ हैं। पागलपन के खतरे साफ हैं। लेकिन जो खतरों में जीते हैं, वही जीते हैं। और जो खतरों से बचते हैं, वे जीते ही नहीं, सिर्फ मरते हैं। जो खतरों से बचना चाहते हैं उन्हें अपनी कब्र में समा जाना चाहिए, क्योंकि कब्र में कोई खतरा नहीं है।
एक सम्राट ने एक महल बनाया। खतरे से बचने के लिए उसने उसमें एक ही द्वार रखा। द्वार पर पहरों पर पहरे लगा दिए। पड़ोस का सम्राट उसके महल को देखने आया। खतरे तो उसको भी थे। यह महल देखकर वह भी चकित हो गया। इतनी व्यवस्था की थीं कि कोई उपाय ही नहीं था कि शत्रु घुस जाए कहीं से। एक ही द्वार था पूरे महल में। खिड़कियां भी नहीं थीं। और उस द्वार पर भयंकर पहरा था, पहरेदार पर पहरेदार थे। जब दूसरा सम्राट विदा होने लगा बाहर और महल का मालिक उसे विदा देने आया, तो उस दूसरे सम्राट ने कहा कि महल ऐसा मैं भी बनवाऊंगा। बड़ा सुरक्षित है। इससे ज्यादा सुरक्षित और कोई स्थान नहीं हो सकता।
एक बढ़ा भिखारी रास्ते के किनारे बैठा था, खूब हंसने लगा। दोनों चौंके उन दोनों ने उससे पूछा कि तू क्यों हंसता है बूढ़े? उसने कहा: मैं इसलिए हंसता हूं कि मैं इस मकान को बनते देखता रहा हूं। मैं यहीं बैठे-बैठे बूढ़ा हो गया हूं। यह मकान मेरे सामने ही बनता रहा है, बनता रहा है, बनता रहा है। मैं हमेशा सोचता रहा, इसमें सिर्फ एक कभी है।
महल के मालिक ने पूछा: कौन सी कमी है? अब तक इतने लोग देखने आए, किसी ने कोई कमी नहीं बताई। तुझे कौन सी कमी दिखाई पड़ती है? बोला! उसे ठीक कर देंगे।
उसने कहा कि कभी इतनी है कि आप इसके भीत रहो जाओ और यह जो एक दरवाजा है, इसको पत्थर से चुनवा दो। फिर कोई खतरा नहीं। यह एक दरवाजा खतरनाक है। इसी में से मौत भीतर आएगी और तुम्हारे पहरेदार काम नहीं पड़ेंगे।
सुरक्षित स्थान तो कब्र है। इसलिए जो लोग सुरक्षा में जीना चाहते हैं, वे जीते ही नहीं। जी ही नहीं सकते। इतने डरे-डरे जाती हैं कि जिए कैसे? कदम उठाने में घबड़ाते हैं। अटके ही रहते हैं। किसी तरह भयभीत, समय गुजार लेते हैं और मर जाते हैं। बहुत कम लोग यहां जीते हैं। जो जीते हैं उनमें एक तरह का पागलपन चाहिए।
जीने के लिए एक पागल अभीप्सा चाहिए, एक दीवानगी चाहिए। और जितनी दीवानगी से जीयोगे उतने ही परमात्मा के निकट पहुंच पाओगे, क्योंकि परमात्मा जीवन की सघनता का नाम है।
होशियारी से मिला भी क्या? पागल होने में इतने डरते क्यों हो? होशियारी से कुछ मिल होता, तो भी ठीक था--तो डर भी ठीक था। होशियारी से मिला क्या? जन्मों-जन्मों तो होशियार रहे हो, सिर्फ गंवाया ही, पाया क्या? हां, जोड़ लिए होंगे ठीकरे, मगर ठीकरों का क्या है? कल तुम चले जाओगे, ठीकरे यही के यही पड़ रह जाएंगे।
रह-ए-खिजां में तलाशे-बहार करते रहे
शबे-सियह से तलबे-हुस्ने-यार करते रहे
पतझड़ में वसंत खोजते रहे हो अब तक तुम।
रह-ए-खिजा में तलाशे-बहार करते रहे
शबे-सियह से तलबे-हुस्ने-यार करते रहे
काली अंधेरी रात से प्यारे के सौंदर्य को मांगते रहे। यह तुमने किया है।
खयाले-यार कभी जिक्रे-यार करते रहे
इसी मताअ पे हम रोजगार करते रहे
बस बातचीत ही करते रहे।
खयाले-यार कभी फिक्रे-यार करते रहे
कभी उसका खयाल किया, कभी उसका जिक्र भी किया। मगर बस, बात का ही रोजगार रहा!
नहीं शिकायतें-हिजां कि इस वसीले से
हम उनसे रिश्ता-ए-दिल उस्तवार करते रहे
अब शिकायत भी क्या करोगे! इतने ही तुम चाहते थे कि ईश्वर मिल जाए? इतने से ही चाहते थे कि जीवन मिल जाए? तुमने दिया क्या था? तुमने दांव पर क्या लगाया था?
वो दिन कि कोई भी जब वजह-ए-इंतजार न थी
हम उनमें तेरा सिवा इंतजार करते रहे
कोई कारण नहीं है तुम्हारी जिंदगी में कि तुम्हें जिंदगी मिले और कोई कारण नहीं है तुम्हारी जिंदगी में कि परमात्मा तुम पर बरसे। बस तुम इंतजार करते रहो, करते रहो। तुम्हारा इंतजार काम नहीं आएगा। प्रतीक्षा के पीछे पात्रता भी तो खड़ी करो! और पागल ही पात्र होते हैं।
हम अपने राज पे नाजां थे, शर्मसार न थे
हर एक से सुखने-राजदार करते रहे
उन्हीं के फैज से बाजार-अक्ल रोशन है
जो गाह-गाह जुनूं अख्तियार करते रहे
जरा गौर से देखो, इस दुनिया में जो थोड़े से दीए जलते हुए मालूम पड़ते हैं, इस बाजार में जो कहीं-कहीं मोक्ष की थोड़ी सी झलक मालूम पड़ती है, वह किनकी वजह से है?
उन्हीं के फैज से बाजारे-अक्ल रोशन है!
उन्हीं की कृपा से। किनकी कृपा से?
जो गाह-गाह जुनूं अख्तियार करते रहे।
जो कभी-कभी पागल होने की क्षमता दिखाते रहे। जो गाह-गाह जुनूं अख्तियार करते रहे!
तुम्हें पागल तो बनाना ही चाहता हूं, मगर वह पागलपन साधारण पागलपन नहीं है।
दुनिया में दो तरह के पागल हैं। एक पागलपन है--बुद्धि से नीचे गिर जाना; और एक पागलपन है--बुद्धि से ऊपर उठ जाना। दोनों बड़े भिन्न हैं और दोनों कभी-कभी समान मालूम पड़ते हैं। एक बात समान है दोनों में कि दोनों में बुद्धि विदा हो जाती है। मगर बड़ा भेद भी है दोनों में। एक में आदमी बुद्धि के नीचे गिर जाता है, वह भी पागल है; और एक में आदमी बुद्धि के ऊपर उठ जाता है, वह भी पागल है। पहले पागल पागलखाने में हैं, दूसरे पागल मोक्ष में विराजमान हो जाते हैं।
मैं तुम्हें दूसरे ढंग के पागल बनाना चाहता हूं। यह तो मस्तों की, पियक्कड़ों की बात है, होशियारी की नहीं है, हिसाबी-किताबियों की नहीं, बही-खाते रखनेवालों की नहीं। डरो मत, भय न खाओ। इस पागलपन को आह्लाद से उतरने दो, अहोभाव से अंगीकार करो। बुद्धि को हटा दो। इससे कुछ मिला नहीं। इससे कुछ मिलेगा भी नहीं। अब बुद्धि-शून्य होकर तलाश करो। विचार-मुक्त होकर तलाश करो।
चश्मे-मैगूं जरा इधर कर दे
दस्ते-कुद्रत को बेअसर कर दे
और तुम जरा बुद्धि को सरकाओ, तो तुम्हारी प्याली में उसकी सुराही से शराब उतरने लगे।
चश्मे-मैगूं जरा इधर कर दे!
जरा सुराही का रुख इधर हो।
दस्ते-कुद्रत को बेअसर कर दे
तेज है आज दर्दे-दिल साकी
तल्खी-ए-मय को तेजतर कर दे
जरा इस शराब को और सघन कर दे, जरा और गहन कर दे।
तल्खी-ए-मय को तेजतर कर दे
तेज है आज दर्दे-दिल साकी
चश्मे-मैगूं जरा इधर कर दे
जरा मेरी तरफ...! मगर तुम ये तभी कह पाओगे, जब तुमने अपना पात्र पागलपन का तैयार कर लिया हो। जब तुम पी कर डोलने को राजी हो, तो परमात्मा तुम्हें पिलाए भी! अभी तुम इतने डरते हो डोलने से! इतने घबड़ाते हो कि कहीं पैर कहीं के कहीं न पड़ जाएं! तुम्हारे भय के कारण ही परमात्मा की सुरा तुममें उतरने से अवरुद्ध रहती है।
जोशे-वहशत है तश्ना-काम अभी
चाक-दामन को ताजगर कर दे
मेरी किस्मत से खेलनेवाले
मुझको किस्मत से बेखबर कर दे
लुट रही है मेरी मताअ-ए-नियाज
काश! वो इस तरफ नजर कर दे
उसकी एक नजर काफी है, मगर नजर उठती पागलों की तरफ है, दीवानों की तरफ है। क्योंकि दीवानों इस योग्य होते हैं कि परमात्मा उनमें विराजे। उन दीवानों को हमने परमहंस कहा है। सूफी उन दीवानों को मस्त कहते हैं। नाम कुछ भी हो, मगर संन्यास उसी पागलपन की तलाश है। बुद्धि के ऊपर जाने के सब मार्ग परमात्मा में ले जानेवाले मार्ग है। फिर कैसे तुम बुद्धि के पार जाते हो, यह दूसरी बात है। ध्यान से जाओ तो भी बुद्धि छोड़ देनी पड़ती है। प्रेम से जाओ तो भी बुद्धि छोड़ देनी पड़ती है।
अभी तो हम जो बात कर रहे हैं, यह प्रेम की शाखा की बात है। सुंदरदास के वचन प्रेमी के वचन हैं। और प्रेमी तो...इस जगत के भी प्रेमी पागल होते हैं, उस जगत के प्रेमियों को तो महापागलपन चाहिए ही, चाहिए ही चाहिए! उससे कम में कुछ भी नहीं हो सकेगा।
आखिरी प्रश्न--
चूक-चूक मेरी, ठीक-ठीक तेरा।
अमृत सिद्धार्थ! यह पहला कदम है। सुंदर। उठाया तो अच्छा! मगर ध्यान रखना, यह सिर्फ पहला कदम है। एक कदम और है, इसके आगे एक कदम और है। इतने पर रुक मत जाना। इससे तुम साधु हो जाओगे, सिद्ध न हो पाओगे।
साधु कहता है: चूक-चूक मेरी, ठीक-ठीक तेरा। यह उसकी प्रार्थना है। वह कहता है: सब गलती परमात्मा मेरी, सब पाप मेरा, सब भूल मेरी। और जो भी पुण्य है और जो भी ठीक है, वह सब तेरा। इस जगत में मुझसे तो बुरा ही बुरा हुआ; कभी अगर कुछ ठीक हो गया, तो वह तूने किया होगा। तेरे हाथ रहे होंगे। मुझसे तो बुरा ही हो सकता है; मैं बुरा हूं।
यह साधु की भाषा है कि बुर को खोजने निकला, तो मुझसे बुरा कोई भी न मिला। और कुछ-कुछ अच्छी बातें भी हो गयी जीवन में, कभी-कभी फूल भी खिले, तो उन फूलों का गौरव मैं कैसे ले सकता हूं? यह साधु की विनम्रता है कि वह कहता है नहीं, सब अच्छा तेरा, सब बुरा मेरा।
मगर ध्यान रखना: यह पहला कदम है इस पर रुक मत जाना! सिद्ध क्या कहता है? सिद्ध कहता है: ठीक-ठीक तेरा, चूक-चूक भी तेरी। मैं बीच में आने वाला कौन? क्योंकि सिद्ध का अर्थ होता है: निरहंकारी। साधु का अर्थ होता है: विनम्र। विनम्रता, निर-अहंकारिता नहीं है। विनम्रता एक बड़ा सूक्ष्म अहंकार है। साधु यह कह रहा है, बुरा-बुरा मेरा, लेकिन मैं अभी हूं। और देखो, मेरी विनम्रता देखो, जरा मेरा भाव देखो कि बुरा मैं अपने ऊपर ले रहा हूं और अब भला तुझे दे रहा हूं! जरा खयाल किया मेरे दातापन का! जरा मेरी उदाशयता देखी? मेरी उदारता देखी?
कहीं भीतर...यह धुन बनी रहेगी कि कांटे मेरे, फूल तेरे! समझे कुछ! साधु यह कह रहा है: समझे कुछ? सब छोड़ दिया तेरे चरणों में, ऐसा निर-अहंकार हो गया हूं! ऐसी मेरी विनम्रता है! तेरे पैर की धूल हूं! मगर हूं! वह जो होना है, वही बाधा है।
असाधु क्या कहता है? असाधु कहता है। चूक-चूक तेरी, ठीक-ठीक मेरा। जब भी असाधु के जीवन में कुछ गलत हो जाता है, वह कहता है: हे प्रभु, वह क्या करवा दिया? यह क्या भाग्य में लिख दिया? यह क्या विधि का विधान! और जब ठीक हो जाता है, तो वह अकड़कर चलता है। तब वह कहता है: देखो, मैंने क्या किया? ठीक का गौरव लेता है, गैर-ठीक का जिम्मा परमात्मा पर फेंक देता है। यह साधु का लक्षण है।
साधु, असाधु से उलटा हो जाता है। वह शीर्षासन करके खड़ा हो जाता है। वह कहता है: चूक-चूक मेरी, ठीक-ठीक तेरा। यह पहला कदम है। सिद्धावस्था दोनों से पार है। सिद्धावस्था कहती है: सब तेरा, मैं हूं कहां? मेरा होना ही नहीं है। मैं इतना भी दावा नहीं कर सकता कि चूक-चूक मेरी। तुम जरा समझना, वह कहता है: पुण्य भी तेरे, पाप भी तेरे। परम मुक्ति फलित होती है तब। तब निर्भार हो जाता है। फिर कोई भार ही न रहा। फिर तूने जो करवाया वह किया। अच्छा तो अच्छा और बुरा तो बुरा। तूने रावण बनाया तो रावण का अभिनय पूरा कर दिया और तूने राम बनाया, तो राम का अभिनय पूरा कर दिया। तेरी जैसी मर्जी थी, वही हुआ। हम अभिनेता थे। हम नाटक के मंच पर खेले। तूने जो हमें पार्ट दे दिया था उसी को हमने दोहरा दिया। इसमें हमारा कुछ भी नहीं है।
क्या तुम सोचते हो, नाटक के मंच पर जो रावण का पार्ट कर रहा है वह पापी है? जो राम का पार्ट कर रहा है, वह पुण्यात्मा है? लोग सोचने लगते हैं ऐसा। तो जो राम का पार्ट करता है रामलीला में जब गांव शोभायात्रा निकलती है, लोग उसके चरण छूते, चरणों का पानी पीते हैं। राम ही हो गया वह! रावण को लोग अच्छी नजर से नहीं देखते। मुझे पता है, मेरे गांव में जो आदमी रावण बनता था, लोग उसको समझते थे--बहुत भ्रष्ट आदमी है। अच्छा आदमी नहीं। नहीं तो रावण क्यों बनेगा? कुछ और नहीं सूझता?
नाटक के मंच पर कौन राम, कौन रावण! सब खेल की बात है। जरा भी भेद नहीं है। दोनों उसकी मर्जी पूरी कर रहे हैं। यह सिद्ध की अवस्था है। यह दूसरा और अंतिम कदम है।
तो अमृत सिद्धार्थ! बात तुमने प्यारी कही, लेकिन अभी और आगे जाना है। इतना भी मत बचाओ: चूक भी मत बचाओ। नहीं तो चूक के पीछे ही अहंकार बच जाएगा। सभी दे डालो। दे ही डालो पूरा-पूरा। अपने को ही चढ़ा दिया तो अब चूक भी क्या बचानी! चूक भी करवायी होगी तो उसी ने करवायी होगी।
यह भक्तों की हिम्मत है! ज्ञानी यह नहीं कर पाते। ज्ञानी साधु होने पर रुक जाते हैं, अटक जाते हैं। ज्ञानी कहता है कि ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकता हूं--पुण्य उसका। पाप भी उसका, यह कहने की हिम्मत ज्ञानी की नहीं है। यह तो प्रेमी और पागल की हिम्मत है। वह कहता है: मैं हूं ही क्या? तूने जो करवाया सो किया, न करवाता तो कैसे करता? अगर तूने मुझ में वासना डाल दी तो वासना थी, अगर तूने क्रोध डाल दिया तो क्रोध था, तूने लोभ डाल दिया तो लोभ था। तूने जहां-जहां भटकाया नरकों में भी भटकाया तो भटका, लेकिन तेरी ही ऊपर जुम्मा है--सारा जुम्मा तो तेरे ऊपर है। मैं तेरे हाथ की कठपुतली हूं, धागे तेरे हाथ में हैं। तूने जैसे नचाया नाचा। अब नहीं नचाता तो नहीं नाचता हूं। तूने संसार दिया तो संसार। तूने मोक्ष दिया तो मोक्ष।
भक्त की अपनी कोई आकांक्षा नहीं। भक्त अपने को बचाने की कोई जगह नहीं छोड़ता। भक्त पूरा-पूरा अपने को खोल देता है। इसी खुलने में मोक्ष है, मुक्ति है। इसी खुलने में परम स्वातंत्र्य है। एक कदम और उठाओ, अब चूक भी उसी को दे दो। पुण्य तो दिए, अच्छा किया। लेकिन पुण्य देना उतना कठिन नहीं है, पाप देना कठिन होता है। पुण्य देने में तो एक रस आता है कि देखो, कितनी सुंदर चीज दे रहे हैं! पाप देने में संकोच लगता है कि पाप, और परमात्मा को दूं! भय लगता है। क्या सोचेगा?
लेकिन निवेदन समग्र होना चाहिए, अधूरा नहीं। इसलिए मैं साधु-असाधु से बहुत फर्क नहीं करता। एक जैसे ही लोग हैं। एक-दूसरे से विपरीत चलते हैं मगर एक ही जैसे हैं। उनकी जीवन-दृष्टि भिन्न नहीं है। सिद्ध की जीवन-दृष्टि बिलकुल और है। और सिद्ध से कम पर मैं तुम्हें नहीं चाहूंगा कि रुकना।
बढ़ो आगे, और हिम्मत करो। सब उसे दे दो।
जरा सोचो, एक क्षण के लिए सोचो। सब उसे दे दिया, फिर क्या दुख है? फिर क्या पीड़ा है? फिर क्या चिंता है? फिर यही क्षण परम महोत्सव नहीं हो जाएगा क्या? सब दे दिया, फिर क्या शेष है? फिर कैसी...पीड़ा की रेख भी नहीं रह सकती। तुम्हारा आकाश निर्मल हो जाएगा। उस निर्मलता में ही जाना है। वह निर्मलता ही आंख है।

आज इतना ही।


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