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मंगलवार, 27 मार्च 2018

जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-ओशो


जगत तरैया भोर की (दयाबाई)-ओशो


दुनिया में सौ कवियों में नब्बे तुकबंद होते हैं। कभी-कभी अच्छी तुकबंदी बांधते हैं। मन मोह ले, ऐसी तुकबंदी बांधते हैं। लेकिन तुकबंदी ही है, प्राण नहीं होते भीतर। कुछ अनुभव नहीं होता भीतर। ऊपर-ऊपर जमा दिए शब्द, मात्राएं बिठा दीं, संगीत और शास्त्र के नियम पालन कर लिए। सौ में नब्बे तुकबंद होते हैं। बाकी जो दस बचे उनमें नौ कवि होते हैं, एक संत होता है।
दया उन्हीं सौ में से एक भक्तों और संतों में है। दया के संबंध में कुछ ज्यादा पता नहीं है। भक्तों ने अपने संबंध में कुछ खबर छोड़ी भी नहीं। परमात्मा का गीत गाने में ऐसे लीन हो गए कि अपने संबंध में खबर छोड़ने की फुरसत न पाई। नाम भर पता है। अब नाम भी कोई खास बात है! नाम तो कोई भी काम दे देता। एक बात जरूर पता है, गुरु के नाम का स्मरण किया है--प्रभु के गीत गाए हैं और गुरु के नाम का स्मरण किया है। गुरु थे चरणदास। दो शिष्याएं--सहजो और दया। सहजो पर तो हमने बात की है। चरणदास ने कहा है, जैसे मेरी दो आंखें।

दोनों उनकी सेवा में रत रहीं, जीवन भर। गुरु मिल जाए तो सेवा साधना है; पास होना काफी है। कोई और साधना की हो, इसकी भी कुछ खबर नहीं है। मगर इतना पर्याप्त है। अगर किसी को मिल गया है, तो उसके पास रहना काफी है। बगीचे से गुजर जाओ तो तुम्हारे वस्त्रों में फूलों की गंध आ जाती है। जिसने सत्य को जाना, उसके पास रह जाओ तो तुम्हारे प्राणों में गंध आ जाती है। जिसने सत्य को जाना, उसके पास रह जाओ तो तुम्हारे प्राणों में गंध आ जाती है। सुगंध तैरती है, फैलती है। तो दबाती रही होंगी इस गुरु के चरण, बनाती होंगी भोजन गुरु के लिए, भर लाती होंगी पानी ऐसे कुछ छोटे-मोटे काम करती रही होंगी।
दोनों के पदों में बहुत भेद भी नहीं है। क्योंकि जब गुरु एक हो तो जो बहा है दोनों में, उसमें बहुत भेद नहीं हो सकता है। एक ही घाट का पानी पीआ, एक ही स्वाद पाया। दोनों बेपढ़ी-लिखी मालूम होती हैं। कभी-कभी बेपढ़ा-लिखा होना भी सौभाग्य होता है। पढ़े-लिखे अपने पढ़े-लिखे होने के कारण झुक नहीं पाते। पढ़ा-लिखा होना अहंकार को जन्म देता है। मैं कुछ हूं! पढ़ा-लिखा हूं, तो कैसे आसानी से झुक जाऊं? गैरपढ़ी-लिखी हैं और उसी गांव से आती हैं, उसी इलाके से आती हैं जहां से मीरा आई।
ओशो

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