पंडित जवाहरलाल नेहरू से भेट
ठीक है।
....नहीं तो नोट कौन लिखेगी, अब लिखने वाले को तो कम से कम लिखने वाला ही चाहिए।
अच्छा। ये आंसू तुम्हारे लिए है, इसीलिए तो ये दाईं और है। आशु चुक गई। वह बाईं और एक छोटा सा आंसू उसके लिए भी आ रहा है। मैं बहुत कठोर नहीं हो सकता। दुर्भाग्यवश मेरी केवल दो ही आंखें है। और देवराज भी यहीं है। उसके लिए तो मैं प्रतीक्षा करता रहा हूं। और व्यर्थ में नहीं। वह मेरा तरीका नहीं है। जब में प्रतीक्षा करता हूं। तो वैसा होना ही चाहिए। अगर वैसा नहीं होता तो इसका मतलब है कि मैं सचमुच प्रतीक्षा नहीं कर रहा था। अब फिर कहानी को शुरू किया जाए।
मैं इंदिरा गांधी के पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू के दो कारणों से नहीं मिलना चाहता था। मैंने इसके बारे में मस्तो से कहा भी किंतु वे नहीं माने। वह मेरे लिए बिलकुल ठीक आदमी थे। पागल बाबा ने गलत आदमी के लिए सही आदमी को चुना था। मैं तो किसी की भी नजर में कभी भी ठीक नहीं रहा। किंतु मस्तो था। मेरे सिवाय आरे कोई नहीं जानता था कह वह बच्चें की तरह हंसता था। परंतु वह हमारी निजी बात थी—और भी कई निजी बातें थीं,अब इनकी चर्चा करके मैं इनको सार्वजनिक बना रहा हूं।
कई दिनों तक हम यह बहस करते रहे कि मुझे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री से मिलने जाना चाहिए कि नहीं। मैं सदा की तरह इसके लिए राज़ी नहीं हो रहा था। जैसे ही तुम मुझसे कहीं जाने के लिए पुछोगे—यहां तक कि भगवान के घर जाने के लिए भी—वैसे ही मैं कहूंगा कि ‘हम सोचेंगे या हम उसको चाए पर बुला सकते है।‘
हम बहस करते गए और करते ही गए, लेकिन वे सिर्फ मेरे तर्कों को ही नहीं समझ
रहे थे, बल्कि तर्क करने वाले को भी समझ रहे थे और उसके लिए वे ज्यादा चिंतित थे।
उन्होंने कहा: तुम जो चाहे कहो, लेकिन, जब वे अपने तर्क से मुझे पराजित न कर सकते तो अंत में वे सदा अपना यह अचूक तीर चलाते, पागल बाबा ने मुझसे ऐसा करने को कहा था, अब तुम जानो कि क्या करना है।
मैंने कहा: अगर तुम कहते हो कि पागल बाबा ने तुमसे यह कहा था, तो फिर ठीक है, वैसा ही होने दो। अगर वे जीवित होते तो मैं उन्हें इतनी आसानी से न छोड़ देता। किंतु अब तो वे है ही नहीं और मृत आदमी से—विशेषत: अपने प्रिय व्यक्ति से तर्क नहीं किया जा सकता।
वे हंस पड़ते और कहते: अब तुम्हारे तर्कों को क्या हुआ?
मैंने कहा: अब तुम चुप रहो। तर्क में जीतने के लिए तुम मृत पागल बाबा को बीच
में खड़ा कर देते हो। तुम तर्क में नहीं जीत सके....मैंने अपनी हार मान ली, अब तुम्हें जो करना है करो। पिछले तीन दिन से तुम जिसके बारे में तर्क कर रहे हो वहीं करो।
किंतु वे तर्क बहुत ही सुंदर थे, बहुत ही सूक्ष्म और दूर तक पहुंचने वाले थे। किंतु आज उस पर चर्चा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। शायद फिर किसी दूसरे चक्कर में...
मस्तो इस बात का आग्रह कर रहे थे कि मुझे प्रधानमंत्री से मिलना चाहिए। क्योंकि कोई नहीं जानता, शायद किसी दिन मुझे उसकी सहायता की जरूरत पड़ जाए।
मैंने मस्तो से कहा: तुम इन शब्दों के साथ यह भी जोड़ दो कि शायद कभी प्रधानमंत्री को मेरी सहायता की जरूरत हो सकती है। ठीक है। मैं जाने को तैयार हूं। अगर बाबा ने तुमसे ऐसा कहा है तो बेचारे बाबा को निराश नहीं करना चाहता । परंतु मस्तो क्या तुममें इतनी हिम्मत है कि मैंने जो कहा है उसको तुम अपने शब्दों के साथ जोड़ दो।
थोड़ा झिझकते हुए वे तक कर खड़े हो गए और उन्होंने कहा: हां, एक दिन शायद नही, निश्चित ही उनको या उस कुर्सी पर बैठने वाले किसी भी व्यक्ति को तुम्हारी सहायता की आवश्यकता होगी। अब तो तुम मेरे साथ चलो।
उस समय मैं केवल बीस बरस का था। मैंने मस्तो से पूछा: क्या तुमने जवाहरलाल को मेरी उम्र के बारे में बताया है। वे बुजुर्ग है और दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश के प्रधानमंत्री है। और उनके मन में हजारों बातें चल रही होगी क्या उनके पास मेरे जैसे लड़के के लिए समय होगा। ऐसा लड़का जो रुढिवादी नहीं है—मेरा मतलब जो कनवैंट से नहीं है।
मेरा तो ढंग ही निराला था। पहले तो मैं खड़ाऊँ पहनता था, जो बहुत आवाज करता थी और एक उपद्रव थीं। वे यह घोषणा कर देती थी के मैं आ रहा हूं। नजदीक आ रहा हूं। जितना नजदीक होता उतनी वे ज्यादा आवाज करती।
मेरे हेड मास्टर कहते: तुम्हें जो करना है करो, जाकर फिर सेब को खा लो। वे ईसाई थे। इसलिए उन्होंने ऐसा कहा। या अगर तुम सांप को खाना चाहते हो तो उसे भी खा लो। परंतु भगवान के लिए इन खड़ाऊँ को इस्तेमाल मत करो।
मैंने उनसे कहा: आप पहले मुझे अपने नियमों की किताब दिखाइए जिसे आप हर बार मुझे दिखाते है जब भी मैं कुछ गलत करता हूं। क्या उसमें खड़ाऊँ के बारे में कुछ लिखा है?
उन्होंने कहा: है भगवान, अब ये कौन सोच सकता था कि कोई छात्र खड़ाऊँ पहन कह आएगा। इसके बारे में तो मेरी पुस्तक में कुछ नहीं लिखा है।
मैंने कहा: तब तो आपको शिक्षा मंत्रालय से पूछताछ करनी पड़ेगी। परन्तु जब तक वे यह नियम नहीं बना देते कि स्कूल में खड़ाऊँ नहीं पहनी जा सकती तब तक मैं इसको इस्तेमाल करता ही रहूंगा। मैं नियमों के अनुसार ही चलता हूं। अगर इस खड़ाऊँ मे विरूद्ध कोई नियम बनाया गया तो दुनिया इस बात पर हंसेगे।
हेड मास्टर ने कहा: हां, मुझे मालूम है कि तुम सदा कानून का पालन करते हो। कम से कम इस मामले में तो अवश्य करते हो। गनीमत है कि तुमने यह आग्रह नहीं किया कि मैं भी खड़ाऊँ पहन लू।
मैने कहा: मैं तो प्रजातांत्रिक व्यक्ति हूं। किसी से कोई जबरदस्ती नहीं करना चाहता। आप अगर नग्न भी आ जाएं तो मैं यह नहीं पूछूंगी कि आपकी पेंट कहा है?
उन्होंने कहा: क्या?
मैंने कहा: मैं तो उसी तरह बोल रहा था। जैसे आप क्लास में बोलते है कि अगर ऐसा हो तो....मैं यह नहीं कह रहा की सचमुच आप नग्न आ जाए। ऐसा करने का आप में सहसा नहीं है। ,(खड़खड़ की आवाज फिर होने लगती है)इसके बारे में केवल आशीष ही कुछ कर सकता है!
मैं क्या कहा रहा था?
आप हेड मास्टर से कह रहे थे कि उसमें इतना सहसा नहीं है कि वह बिना पेंट पहने ही आ जाएं।
हां, मैंने उनसे कहा: यह तो मैं केवल कल्पना करने की बात कर रहा हूं। आप जिस प्रकार क्लास में कहते है—मान लो कि, तब हम यह नहीं पूछते कि वास्तव में ऐसा है या नहीं। इसीलिए मुझसे भी मत पूछिए। मान लीजिए कि आप बिना पेंट के आ जाएं...अब मैं कुछ और जोड़ देता हूं—बिना कमीज के या बिना जांघिक के.....’
हेड मास्टर ने कहा: तुम यहां से बाहर चले जाओ।
मैंने कहा: मैं तब तक नहीं जाऊँगा जि तक आप ये न कहा दें कि मैं खड़ाऊँ इस्तेमाल कर सकता हूं। मैं अहिंसक आदमी हूं इसलिए मैं चमड़े का इस्तेमाल नहीं कर सकता। लकडी बिलकुल प्राकृतिक है। या तो मैं आपकी तरह चमड़े का इस्तेमाल करूं। हालांकि आप अपने आप को ब्राह्मण कहते है। आप चमड़े के इन जूतों के साथ अपने आपको ब्राह्मण कैसे कह सकते है। या मैं खड़ाऊँ पहंनू।
उन्होंने कहा: तुम्हे जो करना हो करो, जितने जल्दी हो सके, जितने दूर जा सको चले जाओ। क्योंकि मैं शायद ऐसा कुछ कर बैठूं जिसके लिए मुझे अपनी सारी उम्र पछताना पड़े।
मैंने कहा: क्या आप सोचते है कि आप मुझे जान से मार सकते है, सिर्फ मेरी खड़ाऊँ के कारण।
उन्होंने कहा: और अधिक प्रश्न मत पूछो। मुझे परेशान मत करो। परंतु मैं तुम्हें बताना चाहता हूं कि जब मैं खड़ाऊँ की आवाज को सुनता हूं—और स्कूल के फर्श पत्थर से ही बने हुए थे—मुझे इनकी आवाज कहीं से भी सुनाई देती है। यह असंभव है कि इनकी आवाज न सुनाई दे। पता नहीं क्यों पर हर वक्त तो तुम चलते रहते हो। ओर उस आवाज से में बौखला जाता हूं।
मैंने कहा: वह आपकी समस्या है। मैं तो खड़ाऊँ ही पहनूंगा।
और जब तक मैंने युनिवर्सिटी को नहीं छोड़ा तब तक खड़ाऊँ पहनता ही रहा। हाई स्कूल से लेकर युनिवर्सिटी तक मैंने खड़ाऊँ ही पहने। कोई भी मेरे बारे में तुम्हें बता सकता था। क्योंकि सिर्फ मैं ही खड़ाऊँ पहनता था। इसलिए सब लोग कहते थे कि तुम उसकी आवाज मीलों दूर से सुन सकते हो।
मुझे ये खड़ाऊ बहुत अच्छी लगती थी। जहां तक मेरा सवाल था, मुझे वे बहुत पसंद थीं क्योंकि उन्हें पहल कर मैं रात को और सुबह के समय मीलों घूमता था। सैर करता था। तुम लोगों को तो खड़ाऊँ का कोई अनुभव नहीं है। ऐसा लगता है जैसे कोई अपने पीछे चल रहा हो। जब के अपने को पता होता है कि अपनी ही खड़ाऊँ की आवाज है ।फिर भी बीच-बीच में संदेह होने लगता है कि पीछे मूड कर एक बार देख ही लिया जाए कि कौन मेरा पीछा कर रहा है। मुझे वर्षो लग गए अपने आप को समझाने में कि मुझे ऐसी मूर्खतापूर्ण चीजें नहीं करनी चाहिए। और इससे भी अधिक समय लग गया यह समझाने में कि ऐसी बेवकूफी की चीजें करने के बारे में सोचना भी नहीं चाहिए।
मैंने मस्तो से कहा: दूसरे लोग जिन कामों के लिए आसानी से तैयार हो जाते है उन कामों के लिए भी मैं जल्दी से राज़ी नहीं होता। हां कहना मुझमें बहुत देर के बाद आया। मैं तब तक नहीं-नहीं कहता गया जब तक यह नहीं अपने आप हां में परिवर्तित नहीं हो गई। किंतु मैं इसकी प्रतीक्षा नहीं कर रहा था।
अब यह तो विषयांतर हो गया। सच तो यह है कि इस वार्ता माला में विषयांतर होता ही रहेगा। किंतु मैं बार-बार उसी बिंदु पर वापस आने की कोशिश करता रहूंगा जहां से हम दूसरे विषय पर चले गए थे।
अंत में मैं राज़ी हो गया। मस्तो और मैं प्रधानमंत्री के घर गए। मुझे मालूम नहीं था कि कितने लोग मस्तो का आदर करते है। क्योंकि दुनिया के बारे में तो मैं कुछ ज्यादा जानता ही नहीं था। मैंने रास्ते में उनसे पूछा कि क्या तुमने उनके साथ समय तय कर लिया है?
वह हंसे और उन्होंने कुछ नहीं कहा। मैंने मन ही मन सोचा, अगर इन्हें चिंता नहीं है तो मैं क्यों चिंतित हो रहा हूं। ये मेरी परेशानी नहीं है।, मैं तो सिर्फ इनके साथ जा रहा हूं। जैसे ही हम फाटक के भीतर घूसे मैं यह समझ गया कि मस्तो को यहां आने के लिए किसी से कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं है। वहां पर जो सिपाही खड़ा था उसने मस्तो के पैरों को छूकर कहा: बाबा आप तो कई महीनों से नहीं आए। हम तो आपके दर्शन को तरस गए। कभी-कभी प्रधानमंत्री को भी आपका आशीर्वाद चाहिए होता है।
मस्तो हंसे किंतु उन्होंने कुछ नहीं कहा। जैसे ही हमने प्रवेश किया सैक्रेटरी ने उनके पैर छुए और उनसे कहा: अगर आप टेलीफोन कर देते तो हम प्रधानमंत्री की कार भेज देते। और ये लड़का कोन है?
मस्तो ने कहा: मैं इस लड़के को सिर्फ जवाहरलाल से मिलाने को लाया हूं। और किसी से नहीं। और याद रखना कि उसके बारे में किसी भी तरह से कुछ नहीं कहना। उन्होंने तो पूरी सावधानी से काम किया किंतु फिर भी मेरे सिद्धांत ने भी अपना काम कर ही दिया।
मैंने तुम्हे बताया है कि जैसे ही हम एक मित्र बनाते है वैसे ही एक दुश्मन भी बन जाता है। अगर तुम्हे दुश्मन नहीं चाहिए तो मित्र मत बनाओ। बौद्ध और ईसाई साधुओं का यही ढंग है। वे सब संबंधों को, मित्रता और सबको भूल जाते है ताकि कोई दुश्मन न बने। परंतु जीवन का एक मात्र उद्देश्य यही तो नहीं है कि कोई दुश्मन न बने।
तुम्हें हैरानी होगी जैसे कि मुझे हुई थी....उस दिन नहीं बहुत वर्षो के बाद..उस दिन तो मेरे लिए यह संभव नहीं था कि मैं उस आदमी को पहचान सकूं जो सैक्रेटरी के आफिस में बैठा हुआ भेंट करने के नियुक्त समय का इंतजार कर रहा था। उस समय मैंने उस के बारे में कुछ नहीं सुना था किंतु वह बहुत घमंडी दिखाई दे रहा था । मैंने सोचा कि वह कोई बहुत शक्ति शाली आदमी होगा।
मैने मस्तो से पूछा: ये आदमी कौन है?
मस्तो ने कहा: हां, मेरा मतलब है कि काई खास महत्व के नहीं है। बस यूं ही.....हां, वह कैबिनेट मिनिस्टर है....जरा देखो, वह कितने गुस्से में है, क्योंकि इस समय उन्हें प्रधानमंत्री के साथ होना चाहिए था। उनको यह समय दिया गया था।
परंतु मस्तो को सब लोग जानते थे और प्रधानमंत्री ने उनको पहले बुला लिया और मोरार जी देसाई को इंतजार करने को कहा। जवाहरलाल ने अनजाने में ही उनका अपमान कर दिया। परंतु मोरार जी देसाई तो शायद आज भी नहीं भूल सके। वह उस नवयुवक को शायद भूल हों किंतु उन्हें मस्तो तो याद होगा ही। क्योंकि हर प्रकार से मस्तो बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले थे।
हम लोग भीतर गए और वहीं पाँच मिनट नहीं पूरा एक घंटा और तीस मिनट ठहरे और मोरार जी देसाई को इंतजार करना पडा। उनके लिए यह सहन करना मुश्किल हो गया। वह उसका समय था और एक संन्यासी एक नवयुवक के साथ उनके पहले ही घुस गया... और फिर उनको नब्बे मिनट तक इंतजार करना पड़ा।
और जीवन में पहली बार मैं हैरान रह गया। क्योंकि मैं तो यहां पर एक राजनीतिज्ञ से मिलने गया था। और जिसे मैं मिला वह राजनीतिज्ञ नहीं वरन कवि था। जवाहर लाल राजनीतिज्ञ नहीं थे। अफसोस है कि वह अपने सपनों को साकार नहीं कर सके। किंतु चाहे कोई खेद प्रकट करे, चाहे कोई वाह-वाह कहे, कवि सदा असफल ही रहता है यहां तक कि अपनी कविता में भी वह असफल होता है। असफल होना ही उसकी नियति है। क्योंकि वह तारों को पाने की इच्छा करता है। वह क्षुद्र चीजों से संतुष्ट नहीं हो सकता। वह समूचे आकाश को अपने हाथों में लेना चाहता है।
मैं तो आश्चर्यचकित रह गया। जवाहरलाल के ध्यान में भी यह बात आई और उन्होंने कहा: क्या हुआ? ऐसा लगता है जैसे इस लड़के को शाक लगा हो।
मेरी और बिना देखे ही मस्तो ने कहा: मैं इस लड़के को जानता हूं। इसलिए इसे मैं आपके पास लाया हूं। अगर मेरी सामर्थ्य में होता तो मैं आपको इसके पास ले जाता।
यह सुन कर जवाहरलाल के बड़ा अचरज हुआ। परंतु वे बहुत ही सुसंस्कृत व्यक्ति थे। मस्तो के शब्दों के अर्थ को समझने के लिए उन्होंने फिर मेरी और देखा। एक क्षण के लिए हमने एक दूसरे की आंखों में देखा। आँख से आँख मिली और हम दोनों हंस पड़े। और उनकी हंसी किसी बूढे आदमी की हंसी नहीं थी। वह एक बच्चे की हंसी थी वे अत्यंत सुदंर थे। और मैं जो कह रहा हूं वही इसका तात्पर्य है। मैंने हजारों सुंदर लोगो को देखा है किंतु बिना किसी झिझक के मैं यह कह सकता हूं कि वह उनमें से सबसे अधिक सुंदर थे। केवल शरीर ही सुंदर नहीं था उनका...।
अजीब बात है की हम कविता की बात कर रहे थे और मोरार जी देसाई बाहर बैठे इंतजार कर रहे थे। हम लोग ध्यान की बात कर रहे थे। और मोरार जी मन ही मन गुस्से में जल रहे होगें। उसी दिन से हम दोनों की शत्रुता निश्चित हो गई, उस पर मुहर लग गई। मेरी और से नहीं। मरा अपना तो उससे कोई विरोध नहीं है। उन्होंने जिन बातों का विरोध किया है वे मूर्खतापूर्ण है—उनका क्या विरोध करना। उन पर तो बस हंसा जा सकता है। यही मैंने किया है उनके नाम और उनकी यूरीन थेरेपी के साथ। अब उनका अपने ही पेशाब को पीना अमरीका में वे अपनी इस यूरीन थेरेपी का प्रचार कर रहे थे। कोई उनसे यह नहीं पूछता है कि अपना पेशाब पी रहे हो या किसी दूसरे का। क्योंकि जब कोई आदमी पेशाब पीने लगे तो इसका मतलब है कि वह अपने होश हवास में नहीं है। इसलिए अब वह कुछ भी पी सकता है—दूसरे का पेशाब तो क्या? और वे वहां पर पेशाब पीने का उपदेश दे रहे थे।
उस दिन से वे मेरे शत्रुबन गए, मुझे इसके बारे में उस समय मालूम नहीं थी। इसका कारण यहीं था। उन्हें डेढ घंटे तक इंतजार करना पडा। वे जरूर मेरे बारे में सैक्रेटरी से जान गए होंगे। उन्होंने सैक्रेटरी से पूछा होगा कि यह लड़का कौन है और उसे प्रधानमंत्री से क्यों परिचित करवाया जा रहा है। इसका उद्देश्य क्या है? और मस्तो बाबा उसमें इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे है।
अब अगर कहीं पर डेढ़ घंटे बैठना पड़ें तो थोड़ी-थोड़ी बातचीत तो करनी ही पड़ती है। मैं उस स्थिति को समझ सकता हूं। किंतु उनके लिए यह सहन करना बहुत मुश्किल हो गया। किंतु इससे भी बढ़ कर—उनको बरदाश्त के बाहर तब हो गया जब जवाहर लाल इस बीस वर्ष के लड़के को विदा करने के लिए स्वयं पोर्च में आएं।
उस समय मोरार जी देसाई ने देखा कि प्रधानमंत्री मस्त बाबा से नहीं वरन खड़ाऊँ पहने हुए एक अजीब लड़के से बात कर रहे थे। उस सुंदर संगमरमर के बरामदे पर चलते हुए बहुत आवाज कर रहा था। उस समय मेरे बाल लंबे-लंबे थे और मैंने एक अजीब सा चोगा पहन रखा था, जिसको मैंने अपने हाथों से सिया था। क्योंकि अब जो मेरे संन्यासी मेरे लिए कपड़े बनाते है उस समय वे वहां नहीं थे। कोई भी वहां नहीं था।
मैंने बहुत ही सीधा-साधा रोब बनाया था। उसमें बाँहों को बाहर निकालने के लिए दो सुराख थे और अगर बाँहों को भीतर रखना हो तो इन्हीं सुराखों में उन्हें भीतर कर लिया जात। इसे मैंने स्वयं बनाया था। इसके बनाने में कोई कारीगरी की जरूरत नहीं थी। बस कपड़े के एक टुकडे को दोनों ओर से सीकर गले के लिए एक छोटा सा सुराख बना देना था।
मस्तो को ये चोगा बहुत पसंद आया। उसने किसी दूसरे से अपने लिए भी ऐसा ही बनवाया।
मैंने कहा: तुम्हें इसके लिए मुझसे कहना चाहिए था।
उन्होंने कहा: नहीं, यह ज्यादती हो जाती। अगर तुम उसे बनाते तो मैं उसे पहन ही नहीं सकता था। मैं उसे संजो कर अपने पास सुरक्षित रखता।
हम उस बंगले से बाहर आ गए जो बाद में ‘त्रिमूर्ति’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जवाहरलाल की स्मृति में उसे अजायब घर बना दिया गया है।
जवाहरलाल सचमुच महान थे। वे एक लड़के को बाहर तक छोड़ने आए। जिसकी कोई जरूरत न थी और फिर इसके कार में बैठ जाने पर उन्होंने स्वयं कार का दरवाजा बंद किया और जब तक कार रवाना नहीं हो गई तब तक वहीं खड़े रहे। और बेचारे मोरार जी देसाई यक सब देख रहे थे। वे तो कार्टून है लेकिन यह कार्टून मेरा दुश्मन बन गया सदा के लिए। उन्होंने मुझे नुकसान पहुंचाने की भरपूर कोशिश की किंतु इसमें सफल नहीं हो सके।
समय क्या हुआ है?
आठ बज कर इक्कीस मिनट, ओशो।
अच्छा मेरे लिए दस मिनट। फिर मुझे काम पर जाना है। इसके बाद मेरा आफिस शुरू होता है।
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