ओशो
अब तक किसी
मुक्तनारी पर नहीं बोला। तुम थोड़ा मुक्त पुरुषों को समझ लो, तुम थोड़ा
मुक्ति का स्वाद चल लो, तो शायद मुक्तनारी को समझना भी आसान
हो जाए।
जैसे सूरज की किरण तो सफेद है, पर
प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टूट जाता है। हरा रंग लाल रंग नहीं है, और न लाल रंग हरा रंग है; यद्यपि दोनों एक ही किरण
से टूटकर बने हैं, और दोनों अंततः मिलकर पुनः एक किरण हो
जाएंगे। टूटने के पहले एक थे, मिलने के बाद फिर एक हो जाएंगे,
पर बीच में बड़ा फासला है; और फासला बड़ा
प्रीतिकर है। बड़ा भेद है बीच में, और भेद मिटना चाहिए। भेद
सदा बना रहे, क्योंकि उसी भेद में जीवन का रस है। लाल लाल हो,
हरा हरा हो। तभी तो, हरे वृक्षों पर लाल फूल
जाते हैं। हरे वृक्षों पर हरे फूल बड़ी शोभा न देंगे। लाल वृक्षों पर लाल फूल फूल
जैसे न लगेंगे।
परमात्मा में तो स्त्री और पुरुष एक हैं।
वहां तो किरण सफेद हो जाती है। लेकिन अस्तित्व में, प्रकट लोग में, अभिव्यक्ति में बड़े भिन्न हैं; और उनकी भिन्नता बड़ी
प्रतिकर है। उनके भेद को मिटाना नहीं है, उनके भेद को सजाना
है। उनके भेद को नष्ट नहीं करना है, उनके भीतर छिपे अभेद को
देखना है। स्त्री और पुरुष एक ही स्वर दिखायी पड़ने लगे--बिना भेद को मिटाये--तो
तुम्हारे पास आंख है।
वीणावादक वीणा के तारों को छेड़ता है। बहुत
स्वर पैदा होते हैं। उंगलियां वही हैं, तार भी वही हैं, छेड़खानी का थोड़ा सा भेद है; पर बड़े भिन्न स्वर पैदा
होते हैं। सौभाग्य है कि भिन्न स्वर पैदा होते हैं, नहीं तो
संगीत का कोई उपाय न था। अगर एक ही स्वर होता तो बड़ा बेसुरा हो गया होता, बड़ी ऊब पैदा होती।
ओशो
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