ओ. के. । हम लोग अभी मेरे प्राइमरी स्कूल के दूसरे दिन पर ही है। बस, ऐसा ही होगा, हर रोज नई-नई बातें खुलती जाएंगी। अभी तक मैंने दूसरे दिन का वर्णन समाप्त नहीं किया आज में उसे समाप्त करने की पूरी कोशिश करूंगा।
जीवन अंतर्संबंधित है। इसे टुकड़ो में काटा नहीं जा सकता। यह कपड़े का टुकड़ा नहीं है। इसको तुम काट नहीं सकते। क्योंकि जैसे ही इसको अपने सब संबंधों से काट दिया जाएगा, यह पहले जैसा नहीं रहेगा—यह श्वास नहीं ले सकेगा और मृत हो जाएगा। मैं चाहता हूं कि अपनी गति से बहता रहे। मैं इसे किसी विशेष दिशा की और उन्मुख नहीं करना चाहता। क्योंकि मैंने इसका दिशा-निर्देश पहले से ही नहीं किया। यह बिना किसी पथ-प्रदर्शन के अपनी ही गति से चलता रहा है।
मुझे इन मार्ग दर्शकों से नफरत है। क्योंकि ये ‘जो है’ उसके साथ प्रवाहित होने से तुम्हें रोक देते है। वे रास्ता दिखाते है और उन्हें तुम्हें अगली जगह पहुंचाने की जल्दी रहती है। उनका काम है तुम्हें यह जताना कि तुम जानने के लिए आए हो। न जो वह जानते है, न तुम जानते हो। सच तो यह है कि जब बिना किसी दिशा-निर्देंश के, बिना किसी पथ-प्रदर्शन के जीवन को जिया जाता है तब हम जान पाते है। मैं तो इसी प्रकार जिया हूं और जी रहा हूं।
बड़ा विचित्र भाग्य है, बचपन से ही मुझे मालूम था कि यह मेरा घर नहीं है। वह मेरे नाना का घर था और मेरे माता-पिता कहीं दूर रहते थे। मैं सोचता था कि शायद वहीं पर मेरा घर होगा। किंतु नहीं,वह तो एक बड़ा गेस्ट हाउस (अतिथि-गृह) था। बेचारे मेरे माता-पिता निरंतर मेहमानों की देखभाल करने में व्यस्त रहते थे। वे ऐसा क्यों करते है इसका मुझे कोई कारण दिखाई न देता।
मैंने मन ही मन सोचा कि ‘यह तो वह घर नहीं है जिसे मैं खोज रहा था। अब मैं कहां जाऊँ? मेरे नाना मर गए हैं इसलिए मैं उस घर वापस भी नहीं जा सकता।‘ वह उनका घर था और बिना उनके उस घर का कोई मतलब नहीं है। अगर मेरी नानी वहां वापस चली जाती तो मैं वहां जा सकता था। परंतु नानी ने वहां जाने से बिलकुल इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा: मैं तो उनके लिए वहां गई थी। जब वे ही वहां पर नहीं रहे तो वापस जाने के लिए कोई दूसरा कारण नहीं है। हां, अगर वे वापस आ जाएं तो मैं तैयार हूं। जब वे वापस नहीं आ रहे, अपना वादा पूरा नहीं कर रहे तो मैं उनके मकान और उनकी जायदाद की चिंता क्यों करूं। ये कभी भी मेरे नहीं थे। कोई न कोई इनकी देखभाल कर लेगा। इनका मेरे लिए कोई महत्व नहीं है। इनके लिए तो मैं वहां गई ही नहीं थी ओरा न इनके लिए में वापस जाऊंगी।
उन्होंने इतने जोर से, पूरी तरह से इनकार किया कि उनके इनकार करने के ढंग को मैंने भी सीख लिया और समग्रता से प्रेम करना भी उन्हीं से सीखा।
उस घर को छोड़ने के बाद हम लोग कुछ दिन के लिए पिताजी के परिवार के साथ रहे। उसे सिर्फ परिवार नहीं कहा जा सकता—वह तो कई कबीलों का जमघट था, कई परिवार —एक मेला था मेला । पर हम वहां पर कुछ दिन ही ठहरे। वह भी मेरा घर नहीं था। मैं वहां कुछ रुका सिर्फ वहां का हाल चाल जानने के लिए और वहाँ से चला गया।
तब से मैं न जाने कितने घरों में रहा हूं, तुम्हारे लिए तो सोचना भी करीब-करीब असंभव है कि पचास साल के जीवन में मैंने सिवाय घर बदलने के और कुछ नहीं किया—हां, घास तो अपने आप उगती ही रही, मैं घर बदलता रहा, और कुछ न किया और घास उगती रही—इसका श्रेय घर बदलने को नहीं, कुछ नहीं को है।
इसके बाद मैं नानी के घर चला गया। मैट्रिक्यूलेशन की परीक्षा पास करने के बाद मैं आगे पढ़ने के लिए अपने फूफा के घर चला गया। उन्होंने समझा कि मैं कुछ ही दिन उनके पास रहूंगा। परंतु वे कुछ दिन उनकी उपेक्षा से कहीं अधिक लंबे हो गए। कोई भी होस्टल मुझे रखने के लिए तैयार नहीं था। क्योंकि मेरा रेकार्ड इतना सुंदर जो था। मेरे अध्यापकों और विशेषत: प्रिंसिपल ने मेरे सर्टिफिकेट पर जो टिप्पणियां लिख दी थी वे निशचित ही सम्हाल कर रखने जैसी थी। इन सबने मेरी घोर निंदा की थी, इतनी निंदा जितनी एक सर्टिफिकेट पर की जा सकती थी।
मैंने उनके मुहँ पर ही कह दिया था कि आप यह चरित्र का प्रमाणपत्र नहीं दे रहे,आप चरित्र-हनन कर रहे है। कृपया इसके नीचे यह भी लिख दीजिए कि इस कागज को में चरित्र-हनन मानता हूं। जब तक आप यह नहीं लिखेंगें तब तक मैं इसे नहीं लूगा।
उन्हें ऐसा करना पडा। उन्होंने मुझसे कहा: तुम शैतान ही नहीं, खतरनाक भी हो। क्योंकि अब तुम हम पर मुकदमा कर सकते हो।
मैंने कहा: डरने की कोई बात नहीं। मेरे जीवन में बहुत लोग मुझ पर मुकदमा चलाएँगे किंतु मैं कभी किसी पर मुकदमा दाया नहीं करूंगा।
मैंने कभी किसी पर कोई मुकदमा नहीं किया, हालांकि चाहता तो बहुत आसानी से कर सकता था और अगर मैं ऐसा करता तो सैकड़ों लोगों को सज़ा मिल जाती।
मैं कह रहा था कि आज तक मेरा कभी अपना घर नहीं रहा। इसको भी तो मैं अपना घर नहीं कह सकता। शुरू से अखीरी तक, शायद यह भी आखिरी नहीं है। किंतु जो भी आखिरी होगा—इसे मैं अपना घर नहीं कह सकता। सिर्फ तथ्य को छिपाने के लिए ही मैं इसको ‘लाओत्से हाउस’ कहता हूं। लाओत्से का इससे कोर्इ लेना देना नहीं है।
और मैं इस आदमी को जानता हूं। अगर वह कभी मुझसे मिलेगा—और कभी न कभी तो मुलाकात होगी ही—पहली बात जो वह मुझसे पुछेगा वह यह होगी कि तुमने अपने घर का नाम ‘लाओत्से हाउस’ क्यों रखा। बस केवल उत्सुकता के कारण—बच्चे की उत्सुकता। और लाओत्से से अधिक और कोई बच्चे जैसा सरल नहीं हो सकता। न बुद्ध, न जीसस, न मोहम्मद और मोजेज तो कभी नहीं । यहूदी और बच्चे जैसा, असंभव।
यहूदी तो पैदाइशी व्यवसायी होता है। सूट-बूट पहन कर दूकान पहुंचने की जल्दी में घर से चलने को तैयार, वह तो आता ही रेडीमेड है। मोजेज,कभी नहीं। परंतु लाओत्से और अगर तुम्हें लाओत्से से भी अधिक सरल व्यक्ति चाहिए तब उसका शिष्य च्वांगत्सु... अब लाओत्से का शिष्य होने के लिए लाओत्से से अधिक सरल और भोलाभाला तो होना ही चाहिए। दूसरा कोई ढंग नहीं है।
कनफयूशियस को साफ इनकार कर दिया गया था। संक्षिप्त में उससे कहा गया कि यहां से चले जाओ और हमेशा के लिए खो जाओ और याद रखना, दुबारा कभी भी यहां मत आना। कनफयूशियस से लाओत्से ने भले ही इन शब्दों में स्पष्ट न कहा हो किंतु उसने जो कहा यह उसका सार है। कनफयूशियस उस समय का सबसे बड़ा स्कॉलर, पंडित माना गया था। किंतु उसे स्वीकार नहीं किया गया।
च्वांगत्सु तो आपने गुरु लाओत्से से भी कहीं अधिक सनकी था। जब च्वांगत्सु आया तो लाओत्से ने उससे पूछा: क्या तुम यहां मेरे गुरु बनने के लिए आये हो। तुम चुन सकते हो, या तो तुम मेरे गुरु बन सकते हो। या मैं तुम्हारा गुरु बन सकता हूं।
च्वांगत्सु ने उत्तर दिया: यह सब भूल जाइए, हम जैसे है वैसे ही क्यों नहीं हो सकते। हमारा होना मात्र ही पर्याप्त है। और वे वैसे ही रहे। च्वांगत्सु तो शिष्य था और वह अपने गुरू का बहुत आदर करता था। कोई उसका मुकाबला नहीं कर सकता था। किंतु इन दोनों का आरंभ इसी प्रकार हुआ—उसने कहा, क्या हम उस सारी बकवास को भूल नहीं सकते? मैंने बकवास शब्द को जोड़ दिया ताकि उसका तात्पर्य स्पष्ट हो जाए। किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि अपने गुरु के प्रति उसके ह्रदय में आदर का भाव नहीं था। यह सुन कर लाओत्से भी खूब हंसा और उसने कहा, वाह, वाह,मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था। और च्वांगत्सु ने अपने गुरु के पैर छुए।
लाओत्से ने कहा: यह क्या?
च्वांगत्सु ने कहा: हम दोनों के बीच कुछ भी नहीं आना चाहिए। अगर मैं आपके पैर छूना चाहता हूं तो ऐसा करने से मुझे कोई नहीं रोक सकता—न आप, न मैं। हमें तो सिर्फ ऐसा होते देखना है।
और मैं भी बस इसी प्रकार देखता रहा, एक घर से दूसरा घर बदलते गए। और मुझे सैकड़ों घर याद है। किंतु उनमें से एक को भी मैं अपना घर नहीं कह सका। मुझे आशा थी कि शायद यह......मेरे सारे जीवन का यही ढंग रहा कि शायद अगला घर।
फिर भी...मैं तुम्हें एक राज की बात बताऊ कि अभी भी मुझे यही आशा है कि शायद कहीं पर मुझे एक घर मिल जाएगा। ‘शायद’ ही घर है। जीवन भर मैं अनेक मकानों में यहीं प्रतीक्षा करता रहा हूं कि बस अब मुझे अपना वास्तविक घर मिल ही जाएगा—यह बिलकुल नजदीक लगता है। वह मुझे दिखाई भी दे रहा है। लेकिन यह फासला सदा समान बना रहा। और वह थोड़ी सह दूरी कभी मिटी नहीं ।
मुझे मालूम है कि कोई भी घर कभी मेरा होने वाला नहीं है। किंतु जानना अलग बात है, कभी-कभी वह आवृत हो जाता है उससे जिससे जिसको ‘होना’ कहते है। मैं उसे सब जानना’ कहता हूं। और उन क्षणों में मैं घर को खोजता हूं। मैंने कहा: उस घर का नाम सिर्फ शायद हो सकता है। मेरा मतलब घर का नाम ‘शायद’ है। वह सदा अभी होने वाला है किंतु होता कभी नहीं...सदा बस होने-होने को है।
नानी के घर से मैं अपनी बूआ के घर चला गया। किंतु फूफा मुझे अपने पास रखने के लिए पूरी तरह से राज़ी नहीं थे। स्वभावत: होना भी नहीं चाहिए। मैं उनसे पूरी तरह से राज़ी था।
अगर मैं उनकी जगह पर होता तो मुझे भी इस बात पर आपति होती। क्योंकि मुझे अपने घर में रख कर वे किसी प्रकार की मुसीबत मोल नहीं लेना चाहते थे। वे लोग संतान-विहीन थे, उनको कोई बच्चा नहीं था। इसलिए वे सुखी जीवन व्यतीत कर रहे थे। परंतु सच तो यह है कि वास्तव में वे दुःखी थे। उनको यह मालूम नहीं था कि बच्चों बाले लोग कितने सुखी होते है। और इस तथ्य को वे जान भी कैसे सकते थे।
उनका बँगला सुंदर था और उसमें एक जोड़े से अधिक लोगों के लिए कमरे थे। उस बंगले में अनेक लोग रह सकते थे, इतना बड़ा था। और वे अमीर लोग थे, वे वहन कर सकते थे। मुझे एक छोटा सा कमरा देने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। फूफा ने कुछ कहा तो नहीं किंतु मेरा अनेक यहां रहना उन्हें पसंद नहीं था। मैंने भी भीतर जाने से इनकार कर दिया।
मैं अपने छोटे से सूटकेस को हाथ में लिए हुए उनके घर के बाहर ही खड़ा रहा और बूआ से कहा कि आपके पति की इच्छा नहीं है कि मैं यहां रहूँ। और जब तक उनकी इच्छा नहीं है तब तक अच्छा ही होगा कि मैं सड़क पर ही रहूँ बजाए उनके घर आने के। जब तक मुझे यह विश्वास न हो जाए कि मेरे यहां रहने से फूफा के कोई आपति नहीं है और वे इस बात से खुश है तब तक में इस घर के भीतर पैर नहीं रखूंगा और मैं बहार गली में ही रहना पसंद करूंगा। और मैं यह वादा भी नहीं कर सकता कि मैं आपके लिए मुसीबत नहीं बनूंगा। मुसीबत में न होना तो मेरे स्वभाव के विरूद्ध है और मैं आपके लिए मुसीबत नहीं बनूंगा।
फूफा पर्दे के पीछे छिपे हुए मेरी बात को सुन रहे थे उनकी समझ में यह तो आ गया कि इस लड़के को एक मौका तो देना चाहिए।
पर्दे से बहार निकल कर उन्होंने कर उन्होंने कहा: चलो एक बार देख लेते है।
मैंने कहा: आरंभ से ही आपकेा यह समझ लेना चाहिए कि मैं आपको एक मौका दे रहा हूं, आपको आजमा रहा हूं।
फूफा ने कहा: क्या।
मैंने कहा: धीरे-धीरे इसका मतलब आप समझ जाएंगे, मोटी खोपड़ी में बात बहुत धीरे से घुसती है।
यह सुन कर बूआ तो स्तब्ध रह गई। बाद में उन्होंने मुझसे कहा, ऐसा बात तुम्हें मेरे पति से नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वे तुम्हें बाहर निकाल सकते है। मैं उन्हें रोक नहीं सकूंगा क्योंकि मैं सिर्फ एक पत्नी हूं और वह भी बिना बच्चों वाली।
अब तुम लोग यह नहीं समझ सकेत....भारत में पत्नी को बच्चे न हो तो उसे अभिशाप माना जाता है। चाहे वह इसके लिए खुद जिम्मेवार न भी हो। और मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि इसके लिए यह आदमी ही जिम्मेवार था क्योंकि ड़ाक्टरों ने मुझे बताया था कि वे नपुंसक है। परंतु भारत में, अगर स्त्री को बच्चे न हों ...पहले तो भारत में स्त्री होना ही गुनाह है—जिस पर उसे बच्चे न हों। इससे अधिक बुरा और क्या हो सकता है। अगर स्त्री के बच्चा न हो तो वह क्या कर सकती है। वह स्त्री रोग विशेषज्ञ डाक्टर के पास जा सकती है। परंतु भारत में नहीं। पति के लिए दूसरी शादी कर लेना अधिक सुविधाजनक है।
और भारतीय कानून जो पुरूषों द्वारा बनाया गया है, पुरूष को यह अनुमति देता है कि अगर उसकी पहली पत्नी से बच्चे नहीं होते है तो वह दूसरी स्त्री से शादी कर सकता है। बडी अजीब बात है। कि अगर गर्भधारण के लिए स्त्री ओर पुरूष दोनों का सम्मिलित प्रयास आवश्यक है, तो गर्भवती न होने के लिए भी स्वभावतः: दोनों की जिम्मेदारी है। भारत में, पैदा करने के लिए तो दोनों जिम्मेदार है। पर अगर पैदा न हो तो अकेली स्त्री ही जिम्मेवार मानी जाती है।
मैं उस घर में रहा और स्वभावत: शुरू से ही मेरे और फूफा के बीच विरोध का जा एक सूक्ष्म तनाव बना हुआ था वह बढ़ता ही गया। वह बीच-बीच में कई प्रकार से फूट पड़ता था। पहले तो यह कि मेरी उपस्थिति में फूफा जो भी कहते मैं तुरंत उसको काट देता था, वे जो कुछ भी कहते। वे यह कहते है, इसका कोई मतलब ही न था। ठीक कहते है या गलत कहते है। सवाल यह नहीं था, सवाल था कि या तो मैं या वे.....
शुरूआत से ही उन्होंने जिस ढंग से मुझे देखा,उसी से यह तय हो गया कि मुझे उन्हें किस प्रकार से देखना है—दुश्मन की तरह। अब डेल कारनेगी ने भले ही पुस्तक लिखी हो कि ‘हाउ टू विन फ्रेंडस एण्ड इन्फलुसअंस पीपल’ किंतु मुझे ऐसा नहीं लगता है कि इसके बारे में वह कुछ भी जानता हूं। वह जान ही नहीं सकता। जब तक तुम दुश्मन बनाने की कला मालूम न हाँ तब तक तुम मित्र बनाने की कला नहीं जान सकते। इस मामले में मैं बहुत ही भाग्य शाली हूं।
मैंने इतने दुश्मन बनाएं है कि तुम्हें इस बात का विश्वास हो जाएगा कि मैंने कुछ एक मित्र भी अवश्य बनाए होंगे। बिना मित्र बनाए तुम दुश्मन नहीं बना सकते, यह एक बुनियादी नियम है। अगर तुम्हें मित्र चाहिए तो दुश्मनों के लिए भी तैयार रहिए। ये सामान्य बुद्धि वाले लोग है। परंतु सच तो यह है कि इनकी समझ असामान्य है मेरे पास तो यह भी नहीं है—इसे जो भी कहा जाए। मैंने तो जितने मित्र बनाए उतने ही दुश्मन भी बनाए। दोनों की संख्या एक समान है, मैं उन पर भरोसा कर सकता हूं। और दोनों ही विश्वसनीय है।
पहले तो फूफा का गुरु था। जैसे ही उसने घर में प्रवेश किया मैंने बूआ से कहा: ऐसा बुरा आदमी मैंने आज तक नहीं देखा।
उन्होंने कहा: चुप रहो, अपना मुंह बंद रखो। वह मेरे पति का गुरु है।
मैंने कहा: होगा, किंतु आप बताए कि मैंने ठीक कहा की गलत।
उन्होंने कहा: दुर्भाग्य से तुम ठीक हो, किंतु चुप रहो।
मैंने कहा: मैं चुप नहीं रह सकता। हम दोनों का सामना होकर ही रहेगा।
उन्होंने कहा: मुझे मालूम था कि इस आदमी के यहां आने पर मुसीबत खड़ी हो जाएगी।
मैंने कहा: इसके लिए वह जिम्मेवार नहीं है, मुसीबत तो में हूं। जिस दिन आपने मुझे स्वीकार किया उस दिन मैंने आपके पति से कहा था कि याद रखना आप मुझे नहीं बल्कि मुसीबत को स्वीकार कर रहे है। अब उनकी समझ मे आएगा कि मेरा मतलब क्या था। कुछ शब्दों का अर्थ शब्द कोश में नहीं मिलता उनके अर्थ समझने के लिए अब समय उद्घाटित होगा।
जैसे ही वह गुरु बड़ी शान से अपने सिंहासन पर विराजमान हुए वैसे ही मैंने उनके पास जाकर उनके सिर पर हाथ रख दिया। बस अब यह शुरूआत था, सिर्फ शुरूआत थी। मेरे सब रिश्तेदार इकट्ठे हो गए और कहने लगे: अरे यह क्या कर रहे हो? क्या कर रहे हो, तुम्हें मालूम नहीं कि ये कौन है?
मैंने कहा: यही जानने के लिए तो मैंने ऐसा किया। जानने की कोशिश कर रहा हूं कि ये कौन है। पर ये तो बहुत ही खोखले हैं। ये तो अपने पैरों तक भी नहीं पहुंचते हृद्य इसीलिए तो मैंने इनके सिर को छुआ।
यह सुन कर गुरूजी तो आग बबूला होकर उछलने-कूदने लगे और चिल्ला–चिल्ला कर कहने लगे: यह सरासर मेरा अपमान है।
मैंने कहा: मैं तो आपकी पुस्तक से उद्धृत कर रहा था। उस समय उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। जिसमें उन्होंने लिखा था कि अगर कोई आपका अपमान करे तो विचलित नहीं होना चाहिए।
इस पर उन्होंने मुझसे पूछा: मेरी पुस्तक से क्या मतलब।
मैंने कहा: आप पहले कुर्सी पर बैठ जाइए। जब कि इसकी योग्यता आप में नहीं है।
उन्होंने कहा: लगता है कि तुम मेरा अपमान करने पर उतारू हो।
मैंने कहा: मैं तो किसी का अपमान करने पर उतारू नहीं हूं। मुझे तो केवल इस कुर्सी की चिंता है।
वे गुरु इतने मोटे थे कि बेचारी कुर्सी बडी मुशिकल से उनके वजन को सम्हाल हुई थी। वह चरमरा रही थी। और कई तरह की आवाजें कर रहीं थी।
मैंने कहा: मैं तो कुर्सी की बात कर रहा हूं। मुझे आपसे कोई मतलब नहीं है। लेकिन मुझे कुर्सी कि फ़िकर है। क्योंकि बाद में मैं ही इसको इस्तेमाल करूंगा। यह कुर्सी मेरी है। अगर आप अच्छी तरह से पेश नहीं आते तो आपको यह कुर्सी खाली करनी पड़ेगी।
मेरे इन शब्दों ने तो जैसे बम को आग लगा दी हो। वे उछल पड़े और गालियां बकने लगे। उन्होंने कहा: मुझे मालूम था कि जैसे ही वह लड़का इस घर में आएगा वैसे ही यहां पर सब कुछ बदल जाएगा।
मैंने कहा: हां, यह सच है। और सच जहां भी होगा,मैं उसके साथ अवश्य सहमत होऊंगा—यहां तक कि दुश्मन से भी। यह बिलकुल सच है कि यह घर पहले जैसा नहीं है। क्या आप बता सकते है कि यह घर पहले जैसा क्यों नहीं है।
उन्होंने कहा: क्योंकि तुम नास्तिक हो।
नास्तिक शब्द बहुत सुंदर है। जब अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया जाता है तो ‘गॉडलस’ (परमात्मा विहीन) कहा जाता है। किंतु यह सही अनुवाद नहीं है। नास्तिक का अर्थ है, जो विश्वास नहीं करता ।किसमें विश्वास नहीं करता। यह विश्वास के पात्र के बारे में कुछ नहीं कहता। मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है। मैं नास्तिक कहलाना पसंद करूंगा, जिसका अर्थ है। जो विश्वास नहीं करता। क्योंकि केवल अंधे लोग ही विश्वास करते है। जो देख सकते है उन्हें विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
भारत में विश्वास करने वाले को आस्तिक कहा जाता है। आस्तिक अर्थात विश्वास करने वाला। परमात्मा में विश्वास करने वाले को आस्तिक कहा जाता है।
मैंने तो कभी विश्वास नहीं किया और कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति विश्वास नहीं करता। विश्वास तो अविकसित और मंदबुद्धि वालों के लिए है, मूढ़ों के लिए है। जड़बुद्धि वालों के लिए है। ऐसे लोगो की संख्या अधिक है।
उन्होंने मुझे नास्तिक कहा।
मैंने कहा: मैं फिर आपसे सहमत हूं क्योंकि यह शब्द जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण का वर्णन करता है। और शायद यह हमेशा ही जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण का वर्णन करेगा। विश्वास करने का अर्थ है सीमित होना विश्वास करने से व्यक्ति घमड़ी बन जाता है। क्योंकि उसको यह विश्वास हो जाता है कि वह जानता है।
नास्तिक होने का अर्थ है कि, मैं नहीं जानता।‘ यह अंग्रेजी के एग्नास्टिक शब्द जैसा ही है। जिसका अर्थ है: जो नहीं जानता। न तो वह कहता है कि विश्वास नहीं करता। बस उसके भीतर प्रश्न ही रहता है। प्रश्नवाचक चिह्न वाले व्यक्ति को एग्नास्टिक कहा जाता है।
हीरों से जड़ी हुई सोने की सूली को गले में लटकाए घूमना मुश्किल नहीं है। किंतु जीसस के लिए यह मुश्किल था क्योंकि वह नाटक नहीं था। यह तो वास्तविक सूली थी। और जीसस ईसाई नहीं थे। और यहूदी बहुत नाराज हो गए थे। सामान्यतया तो वे अच्छे लोग है। और जब अच्छे लोग नाराज हो जाते है तो जरूर ही कुछ होकर ही रहता है। क्योंकि सब अच्छे लोग अपनी बुराई का दमन करते है। और जब उसका विस्फोट होता है तो वह एटम बम जैसा होता हे। यहूदी सदा अच्छे लोग होते है। और यही उनका एकमात्र दोष है।
अगर वे थोड़ा कम अच्छे होते तो जीसस को सूली पर न चढ़ना पड़ता। परंतु वे इतने अच्छे थे, उन्हें जीसस को सूली लगानी पड़ी। वास्तव में वे अपने आपको सूली लगा रहे थे। उनका अपना बेटा अपना खून—और वह भी कोई साधारण बेटा नहीं बल्कि सबसे बढ़िया—यहूदियों ने इससे पहले या इसके बाद ऐसे किसी बेटे को जन्म नहीं दिया जो जरा सा भी जीसस जैसा हो। या जीसस के निकट ही हो। जीसस से उन्हें प्रेम करना चाहिए था। किंतु मुसीबत यह थी कि वे अच्छे लोग थे। वे उसे क्षमा नहीं कर सके।
मैंने बहुत से तथाकथित संत देखे है ओ कुछ सच्चे संत भी किंतु मैं इनको संत नहीं कहूंगा, खराब संगत में रह कर यह शब्द गंदा हो गया है। मैं न तो पागल बाबा को संत कहूंगा, न मग्गा बाबा को न मस्तो बाबा को। वह वैसे संत नहीं थे। जैसे आम साधु-संतों के बारे में सोचते है। लोगों में साधु-संतों की जो धारणा प्रचलित है। ये उससे बिलकुल भिन्न थे।
मेरे फूफा के गुरू, हरि बाब को भी संत समझा जाता था। मैंने उनसे कहा: न तो आप बाबा है, न हरि है। हरि परमात्मा का नाम है। अंत: इस नाम को बदल कर अपने लिए कुछ ऐसा नाम रख लें जो आपके अनुरूप हो। आप बाबा भी नहीं हो । शब्दकोश में अपने लिए कोई नाम खोज लें जो आपके लिए उचित हो।
बस यह झगडा शुरू हो गया ओ आगे भी चलता रहा। इसके बारे में मैं बाद में बताऊंगा।
इस घर से मैं युनिवर्सिटी के होस्टल में चला गया और जब मेरी नौकरी लग गई तो में एक छोटे से मकान में रहने लगा। यह मकान छोटा था। और परिवार के लोग भी अच्छे थे। मुझे लगातार शर्म महसूस होती क्योंकि वे आपस में जो भी बातचीत करते वह मुझे स्पष्ट सुनाई देती। अब यह तो ठीक तो नहीं है पर एक बार तो आधीरात को मुझे कहना पड़ा, माफ करना, मैं आपकी सब बातें सुन सकता हूं।
यह सुन कर वे भी परेशान हो गए। सुबह उन्होंने मुझसे कहा: आप हमार मकान खाली कर दें।
मैंने का: मैं तो पहले से ही तैयार हूं। मैंने अपना सामान बाँध लिया। मैं तो गाड़ी भी ले आया था ओ उसमें अपना सामान रख रहा था।
उन्होंने कहा: अजीब बात है। हमने तो अभी तक कुछ कहा भी नहीं था।
मैंने कहा: भले ही आपने कुछ कहा ने हो किंतु आप रात को अपने विस्तर में आपकी पत्नी से जो कहा रहे थे वह सब मैने सुन लिया था। दीवार इतनी पतली है। इसमें आपकी कोई दोष नहीं है। आप भी क्या कर सकते हैं। पर मैं भी क्या कर सकता हूं। मैंने न सुनने कि पूरी कोशिश कि लेकिन यह दीवाल इतनी पतली है कि सब सुनाई देता है।
और तुम लोग शायद नहीं जानते कि आज भी में सोते समय अपने कानों में ईयर-प्लग लगा लेता हूं। उस रात से—शायद उन्नीस सौ सत्तावन के अंत में या उन्नीस सौ अट्ठावन में। मैंने अपने कानों में इयर-प्लग लगाना शुरू किया ताकि मुझे वह सब बातें सुनाई न दें जिनका मुझसे कोई संबंध नहीं था। इसके कारण ही मुझे तुरंत उस मकान को छोड़ना पडा।
बस में निरंतर मकान बदलने के लिए सामान बाँधता रहा हूं। एक प्रकार से यह अच्छा ही हुआ। नहीं तो मेरे पास करने के लिए कुछ न होता। इस प्रकार तो में सदा सामान बाँधता ओर सामन खोलता—सामान बाँधता और खोलता—यहीं करता रहा। कोई और बुद्ध इतना व्यस्त नहीं रहा जितना में व्यस्त रहा। और वह भी किसी दूसरे को कोई नुकसान किए बिना। दूसरे बुद्ध भी व्यस्त रहे परंतु उनकी व्यस्तता में दूसरे भी सम्मिलित थे।
मेरी व्यस्तता तो बिलकुल निजी रही है। हजारों लोग मेरे साथ हैं किंतु उनमें से हरेक आदमी के साथ मेरा संबंध व्यक्तिगत और सीधा है—बिना दूसरे के माघ्यम से वह मेरे साथ संबंधित है। यह कोई संगठन नहीं है, ओर ऐसा हो भी नहीं सकता। अब प्रबंध-व्यवस्था के लिए थोड़ा बहुत संगठन का रूप देना ही पड़ता है। किंतु जहां तक मेरे संन्यासियों का प्रश्न है, प्रत्येक संन्यासी मुझसे सीधा संबंधित है, किसी के माध्यम से नहीं।
मैं बहुत ही अनआक्युपाइड व्यक्ति हूं, कोई काम-धंधा नहीं करता। मैं यह तो नहीं कह सकता कि मैं बेकार हूं। इसी लिए मैंने अनआक्युपाइड शबद का प्रयोग किया। मैं मजा ले रहा हूं। किसी नौकरी के लिए भी में आवेदन-पत्र नहीं भेज रहा। क्योंकि नौकरी आदि का काम तो मैं कब का समाप्त कर चुका हूं। मैं तो आनंद मना रहा हूं, परंतु आनंद प्राप्त करने के लिए एक विशेष वातावरण कि आवश्यकता होती है। सो मैं वह तैयार कर रहा हूं। सारे जीवन मैं धीरे-धीरे इसे तैयार करता रहा हूं। बार-बार मैंने नये कम्यून के बारे में बात की है। मैं नये कम्यून को भूल न जाऊँ। क्योंकि जिस क्षण मैं इसे भूल जाऊँगा तो अगली सुबह मैं जागूंगा नहीं। गुड़िया प्रतीक्षा करेगी...तुम दौडोगे—हां,मैंने तुम्हें दौड़ते हुए आते देखा है। तुम इंतजार करोगे किंतु मैं नहीं आऊँगा, क्योंकि जिस छोटे से धागे को मैं पकड़े हुए था वह मेरे हाथ से छूट गया।
बस ऐसा ही चलता रहा। गाडर वारा से मैं जबलपुर चला गया। जबलपुर में मैंने इतने मकान बदले कि लोग यह समझने लगे कि मकान बदलना मेरा शौक है।
मैंने कहा: हां, बात तो ठीक है। मकान बदलते रहने से भिन्न-भिन्न जगा के लोगों कसे जान-पहचान हो जाती है। और मुझे नये-नये लोगों से परिचित होना बहुत अच्छा लगता है।
उन्होंने कहा: यह तो बड़ा अजीब शौक है और बहुत जटिल भी अभी बीस दिन भी नहीं हुए और तुम दूसरी जगह जा रहे हो।
बंबई में भी मैं स्थान बदलता रहा। और जब तक मैं यहां पर पहुंच नहीं गया तक सह क्रम चलता ही रहा। यह कोई नहीं जानता कि इसके बाद मैं कहां जाऊँगा।
यह बात मेरे स्कूल से शुरू हुई—और अभी सिर्फ दूसरा ही दिन है। जीवन इतना बहुआयामी है। कभी-कभी यह बेतुका भी लगता है, क्योंकि बहुआयामी इसको घेरे हुए है। इसे इतना बहुआयामी क्यों कहा जाए। जीवन तो बहुआयामी है।
तुम लोगों को भूख लगी होगी, और भूखे भूत बड़े खतरनाक होते है। बस केवल दो मिनट मेरे लिए.....
अब समाप्त करो।
--ओशो
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