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रविवार, 11 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-36


भी-अभी मैं एक कहानी के बारे में सोच रहा था। मुझे नहीं मालूम कि इस कहानी को किसने रचा 
और क्‍यों? और मैं उसके निष्‍कर्ष से भी सहमत नहीं हूं फिर भी यह कहानी मुझे बहुत प्रिय है। कहानी बहुत सरल है। तुमने इसे सुना होगा किंतु शायद समझा नहीं होगा क्‍योंकि यह इतनी सरल है। यह अजीब दुनिया है। हर आदमी को यह खयाल है कि वह सरलता को समझता है। लोग जटिलता को समझने की कोशिश करते है और सरलता की और ध्‍यान ही नहीं देते यह सोच कर कि इसकी कोई जरूरत ही नहीं है। शायद तुमने भी इस कहानी पर अधिक ध्‍यान नहीं दिया होगा किंत1 जब मैं इसे तुम्‍हें सुनाऊंगा तो निशचित ही तुम्‍हें याद आ जाएगी।
      कहानियां विचित्र प्राणी हैं, वे कभी मरती नहीं हैं, उनका कभी जन्‍म भी नहीं होता है। वे उतनी ही पुरानी है जितना आदमी। इसीलिए तो वे मुझे बहुत प्रिय है। अगर कहानी में सत्‍य न हो तो वह कहानी नहीं है। तब वह फिलासफी होगी या थियोसाफी होगी या एन्‍थ्रोपोसाफी होगी और न जाने कितनी ही ‘’ सॉफीज ‘’ हैं, वे सब बकवास है। नॉनसेंस है। नॉनसेंस ही लिखों, शुद्ध बकवास, पयोर नॉनसेंस। प्राय: इस शब्‍द के बीच में हाइफन, संयोजक रेखा डाली जाती है—जैसे नॉनसेंस। इसकी क्‍या जरूरत है। मेरे शब्‍दों में से तो इसे हटा दो। परंतु जब मैं कहता हूं कि झेन नॉनसेंस है, तब इस हाइफन की, इस संयोजक-रेखा की जरूरत है।
      मैंने सबसे पहले यह कहानी मस्‍तो को सुनाई थी। वे इस कहानी को पहले भी सुन चुके होंगे। लेकिन उस तरह से नहीं जिस तरह मैं चीजों को विकृत कर देता हूं या उनकी रचना करता हूं। कहनी ऐसी है—और यह मैं मस्‍तो से कह रहा हूं: मस्‍तो, परमात्‍मा ने दुनिया बनाई।
      मस्‍तो ने कहा: वाह, क्‍या खूब। तुमने तो सदा फिलासफी और धर्म का विरोध किया है। अब क्‍या हो गया। सारे धर्म इसी पहेली से आरंभ होते है।
      मैंने कहा: निर्णय लेने से पहले थोड़ा सब्र करो। सारी कहानी सुने बिना किसी निष्‍कर्ष पर मत पहुँचों।
      मस्‍तो ने कहा: मुझे कहानी मालूम है।
      मैंने कहां: :नहीं, तुम इसको नहीं जानते। वे आश्‍चर्यचकित दिखे और कहा: यह कोई बात हुई,  अगर तुम चाहो तो मैं इसे दोहरा सकता हूं।
      मैंने कहा: तुम दोहरा सकते हो किंतु इसका मतलब यह नहीं है कि तुम इसे जानते हो। क्‍या दोहराने से कोई जानना है। क्‍या बुद्ध के सूत्रों को दोहराने से तोता बुद्ध या कम से कम बोधिसत्‍व बन सकता है।
      यह सुन कर वे सोच में पड़ गए। मैंने इंतजार किया और तब मैंने कहा: सोचने से पहले इस कहानी को सुनो। तुम तो तानते हो वह वही नहीं हो सकती जो मैं जानता हूं। क्‍योंकि हम दोनों भिन्‍न है। परमात्‍मा ने दुनियां को बनाया। अब इस प्रश्‍न का उठना स्‍वाभाविक है: और वेद भी यही पूछते हैं कि उसने दुनियां को क्‍यों बनाया? इस अर्थ में वेद महान है। वे कहते है कि शायद उसे भी मालूम नहीं है क्‍यों?  उस  से उनका तात्‍पर्य  परमात्‍मा  से है। मैं इसके सौंदर्य को समझा सकता हूं। शायद इसका सृजन भोलापन में ही हुआ, ज्ञान से नहीं। शायद वह सृजन नहीं कर रहा था। शायद वह उस बच्‍चे की तरह खेल रहा था जो रेत के घरौंदे बनाता है। क्‍या बच्‍चों को मालूम होता है कि वे घरौंदे किसके लिए बना रहे है। क्‍या उन्‍हें उस चींटी का पता है जो रात को उसके अंदर जाकर आराम करेगी।
      हिंदी में चींटी  स्‍त्रीलिंग होती है—मुझे नहीं मालूम कि ऐसा क्‍यों है। उसको नर नहीं माना जाता। सच तो यह है कि केवल चींटी जो रानी होती है वही मादा होती है—बाकी सब नर या पुरूष होते है, यह बड़ी अजीब बात है और शायद अजीब नहीं भी है, इस सच को छिपाने के लिए वे चींटी को स्‍त्रीलिंग ही मानते है। शायद चींटी बहुत छोटी होती है, और उसे पुर्ल्‍लिंग, पुरूष मानने से पुरूष के अहं को ठेस लगती होगी। अब हाथी को या शेर को पुरूष माना जाता है। जब खास तौर पर मादा हाथी की और इशारा करना होता है तब उसको हथिनी कहा जाता है। इस प्रकार मादा शेर को शेरनी कहते है। नहीं तो यूं साधारण बातचीत में इनको पुर्ल्‍लिंग ही माना जाता है। लेकिन बेचारी चींटी....ओर दुर्भाग्‍य से मैंने अपनी कहानी के लिए इसी को चुना है।
      नर या मादा, जो कुछ भी है चींटी, चिंतन-मनन करती है। शायद चींटी मादा नहीं हो सकती अन्‍यथा चिंतन-मनन फिलासफी कहां से आती? मैं कभी किसी महिला के संपर्क में नहीं आया जो चिंतन-मनन फिलासफी करती हो। मैंने फिलासफी की बहुत सी महिला प्रोफेसरों को देखा है परंतु ये प्रोफसर भी केवल कपड़ों की और सिनेमा की बात करती है। अपने सामने बैठे हुए व्‍यक्‍ति की तो यह तारीफ करती हैं किंतु उसी व्‍यक्‍ति की गैर-मौजूदगी में उसकी निंदा करती है। फिलासफी की तो वे कभी चर्चा की नहीं करतीं। वे प्रोफेसर कैसे बन गई इस बात पर मुझे जरा भी अचरज नहीं होता। हालांकि तुम सोचो गे कि अचरज होना चाहिए, नहीं। वे पढ़ा सकती हैं क्‍योंकि इसके लिए सोचने-विचार ने की जरूरत नहीं पड़ती। सच तो यह है कि यही इसकी मूल आवश्यकता है। अगर तुम सोच-विचार करो तो तुम पढ़ा नहीं सकते।    
      विश्‍वविद्यालय में मेरे एक प्रोफेसर बहुत ही विचित्र थे। वर्षो तक उनकी क्लास में एक भी विद्यार्थी पढ़ने नहीं आया था। इसका कारण यह था कि वह अपना लेक्चर तो हमेशा समय पर आरंभ करते थे, किंतु किसी को यह मालूम नहीं था कि वह उसे समाप्‍त कब करेंगे।
      वे आरंभ में ही कह देते थे: कृपया अंत की आशा मत करना, क्‍योंकि इस दुनियां में कभी किसी चीज का अंत नहीं होता। अगर तुम जाना चाहते हो तो जा सकते हो क्‍योंकि इस दुनियां में बहुत से लोग चले जाते है—फिर भी दुनिया चलती रहती है। मेरे बोलने में बाधा नहीं डालना। मत पूछना कि क्‍या मैं जा सकता हूं। जब आदमी मरता है तो यह नहीं पूछता—तो फिर तुम फिलासफी के बेचारे प्रोफेसर से ऐसा क्‍यों पूछते हो। प्रिय,क्‍या में पूछ सकता हूं कि तुम आए ही क्‍यों? तुम जब चाहो जा सकते हो और मैं तब तक बोलता रहूंगा जब तक मेरे मुंह से शब्‍द निकलते रहेगें।
      जब मैं विश्‍वविद्यालय पहुंचा तो सबने कहा: उस आदमी से दूर रहना। यह डाक्‍टर दास गुप्‍ता बिलकुल पागल है।
      मैंने कहा: इसका मतलब यह कि सबसे पहले मुझे उन्‍हीं से मिलना चाहिए। मैं तो पागल लोगों की खोज ही कर रहा हूं। क्‍या वे सचमुच पागल है।
      उनहोंने कहा: वे बिलकुल पागल है। और हम मजाक नहीं कर रहें।
      यह जान करा बहुत खुशी हुई कि आप लोग मजाक नहीं कर रहे। वह तो मैं खुद ही कर लूगा। जब भी मुझे जरूरत होती है मैं स्‍वयं ही अपने आप को अच्‍छे मजेदार जोक, चुटकुले सुनाता हूं और फिर दिल खोल कर हंसता हूं और कहता हूं: वाह, वाह, ऐसा जोक तो मैंने पहल कभी नहीं सुना।
      उन्‍होंने कहा: यह आदमी स्‍वयं भी पागल मालूम होता है।
      मैंने कहा: बिलकुल ठीक, अब मुझे यह बताओ कि डाक्‍टर दास गुप्‍ता रहते कहां है?
      मैं उनके घर गया और दरवाजे को खटखटाया। वहां पर एक नौकर भी नहीं था। वे तो भगवान की तरह रहते थे। कोई पत्‍नी नहीं थी, कोई बच्‍चा नहीं था, कोई नौकर नहीं था—बस अकेले रहते थे। उन्‍होंने मुझसे कहा: तुमने गलत दरवाजे को खटखटा दिया है शायद। क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि मैं डाक्‍टर गुप्‍ता हूं।
      मैंने कहा: हां, यह तो मैं जानता हूं, आपको मालूम है कि मैं कौन हूं?
      वे बूढे आदमी थे, उन्‍होंने अपने मोटे-मोटे चश्‍मे में से देखते हुए कहा: मुझे क्‍या मालूम कि तुम कौन हो?
      मैंने कहा: यही तो मैं खोजने आया हूं।
      उन्‍होंने कहा: तुम्‍हारा मतलब कि तुम भी नहीं जानते।   
      मैंने कहा: नहीं।
      उन्‍होंने कहा: हे भगवान, एक ही घर में दो पागल आदमी। और तुम तो मुझसे भी अधिक पागल हो। अच्‍छा,भीतर आइए जनाब बैठिए।
      वे बहुत ही आदरपूर्ण थे। बिना मजाक किए उन्‍होंने कहा: हम विश्‍विद्यालय में पिछले तीन साल से मेरी क्‍लास में कोई नहीं आया। अब तो मैंने भी वहां जाना बंद कर दिया है। जाने से कोई फायदा नहीं। मैं तो अपना लेक्‍चर यहां पर जहां तुम बैठे हो—इसी कमरे में देता हूं।
                मैंने कहा: यह तो बहुत अच्‍छी बात है, लेकिन लेक्‍चर किसको देते है।
      उन्‍होंने कहा: हां,यहीं तो मैं भी कभी-कभी पूछता हूं कि किसको।
      मैंने कहा: मैं आपकी क्‍लास में नाम लिखवा दूँगा और आपको वहां जाने का कष्‍ट नहीं करना पड़ेगा। वह आपके घर से करीब-करीब एक मील दूर है। मैं यहीं पर आ जाऊँगा।
      उन्‍होंने कहा: नहीं-नहीं, मैं आऊँगा, क्‍योंकि वह मेरे काम का हिस्‍सा है। किंतु सिर्फ एक बात, माफ करना, मैं अपना लेक्‍चर तो ठीक समय पर शुरू कर दूँगा, अगर ग्‍यारह बजे का समय है तो ठीक ग्‍यारह बजे, किंतु चालीस मिनट बाद जब घंटी बजेगी तो मैं वादा नहीं कर सकता कि उसे समाप्‍त कर दूँगा।
      मैंने कहा: मैं यह समझ सकता हूं। अब हर चालीस मिनट के बाद घंटी बजाने वाले बेचारे आदमी को क्‍या मालूम कि आप क्‍या कर रहे है। और सिर्फ आप ही नहीं,युनिवर्सिटी के बाकी सब प्रोफेसर क्‍या कर रहे है। अगर वे रूक जाएं तो वे मुर्ख है। घंटी को नहीं मालुम, घंटी बजाने वाले आदमी को नहीं मालुम, तो आप क्‍यों समाप्‍त करेंगे। अगर आपका यह वादा है कि आप नहीं रोकेंगे, समाप्‍त नहीं करेंगे तो मेरा भी यह वादा है कि अगर आप रूक गए तो मैं आपको इतने जोर से मारूंगा कि आपकी जान खतरे में पड़ जाएगी।
      उन्‍होंने कहा: क्‍या, तुम मुझे मरोगे? वे बंगाली आदमी थे।
      मैंने कहा: मैं तो यूं ही अलंकार के भाव से बोल रहा था। मैं आपके सिर काक हलके से छूकर याद दिलाऊंगां कि आपको इस घंटी की चिंता करने की जरूरत नहीं है।
      उन्‍होंने कहा: तब यह ठीक है। तुम्‍हें होस्‍टल में जाने की जरूरत नहीं, तुम मेरे घर में रह सकते हो। यह बहुत बड़ा है और मैं अकेला हूं।
      उस दिन मुझे मस्‍तो की याद आई। उसको यह घर तो अच्‍छा लगता ही, साथ ही चिंतनशील आंखों वाला यह आदमी भी। उस दिन भी मुझे यह कहानी याद आई, मैं इसे दुबारा तुम्‍हें सुनाऊंगा ताकि तुम लोग इसे समझ जाओ।
      परमात्‍मा ने इस दुनिया को बनाया। उसने यह काम छह दिनों में समाप्‍त किया। अंत में उसने स्‍त्री को बनाया। स्‍वभावत: प्रश्‍न उठता है कि क्‍यों? उसने स्‍त्री को अंत में क्‍यों बनाया। नारी आंदोलन वाले तो यही कहेंगे कि स्‍त्री परमात्‍मा की सर्वश्रेष्‍ठ कृति है, परिपूर्ण है। पुरूष के सृजन के अनुभव के बाद ही उसने स्‍त्री की रचना की। पुरूष तो पुराना मॉडल है। परमात्‍मा ने स्‍त्री के रूप मैं अधिक परिष्‍कृत मॉडल तैयार किया।
      परंतु जो पुरूष तानाशाह है वे कहते है कि पुरूष तो परमात्‍मा की अंतिम रचना है। परंतु पुरूष ने उससे इस प्रकार के प्रश्न पूछने शुरू किए कि  तुमने दुनिया को क्‍यों बनाया। या तुमने मुझे क्‍यों बनाया। परमात्‍मा इतना परेशान हो गया कि पुरूष को परेशान करने के लिए, उसने उलझन में डालने के लिए उसने स्त्री का सृजन किया—जब से परमात्‍मा नह पुरूष से कुछ नहीं सुना।    
      पुरूष तो टांगों में दुम दबाए हुए घर आता है। केले या कद्दू खरीदने के लिए बाहर जाता है। और धीरे-धीरे वह कद्दू ही बन गया है। श्रीमान कद्दू, पी. एँच. डी., एम. ए., डी. लिट कद्दू, और न जाने क्‍या-क्या। लेकिन श्रीमान कद्दू तो बिलकुल सड़े गले है, इसे खाना मत। इसके छिलके के नीचे भी मत देखना। नहीं तो पछताओगे। अरे तुरंत कहने लगोंगे—चक्र को रोको। जन्‍म और मृत्‍यु का चक्र। क्‍योंकि कौन कद्दू बनना चाहता है। कद्दू बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहने हों, शायद पेरिस में बने। श्रीमान कद्दू कुछ भी कर सकता है। उसने कितनी बढ़िया टाई लगा रखी है कि सांस भी नहीं ले सकता। और उसके जूते तो इतने अच्‍छे हैं कि अगर तुम उसके पैरों को देख लो तो तुम उसके चेहरे को कभी नहीं देखोगे।
      मुझे जूते कभी पसंद नहीं थे किंतु लोगों ने कहा कि मुझे उन्‍हें पहनना चाहिए। मैंने कहा: चाहे कुछ भी हो जाए मैं उन्‍हें नहीं पहनूंगा।
      मैं चप्‍पल इस्‍तेमाल करता हूं। वे जूते जैसी नहीं है, सैंडल जैसी भी नहीं,वे पैरो को बहुत कम ढकती है। और मैंने तो जो चप्‍पल चुनी है उसको कहीं से भी कम नहीं किया जा सकता। बस केवल एक पटटी किसी तरह मेरे पैरो को चप्‍पल के भीतर रखता है। अब इससे कम नहीं किया जा सकता है। अर्पिता मेरे चप्‍पल बनाती है। उसे मालूम है कि इससे बढ़िया और कुछ नहीं बन सकता। इस चप्पल को जरा सा भी कम करो तो मेरे पैर नंगे हो जाएंगे।
      मुझे जूतों से नफरत क्‍यों है। इसका सीधा-साधा कारण यह है कि वह आपको कद्दू बना देते है। श्रीमान कद्दू, डाक्‍टर कद्दू, प्रोफेसर कद्दू—सब प्रकार के कद्दू। जेंटल मैन कद्दू, लेंड़ी कद्दू—सब प्रकार के कद्दू खोज सकते हो। किंतु सबकी शुरूआत जूतों से होती है।
      आपने कभी ऊंची एड़ी की जूती पहने हुए विक्‍टोरियन-युग की महिलाओं को देखा है। वह एड़ी इतनी ऊंची होती है कि रस्‍सी पर चलने वाला आदमी भी उन जूतियों काक पहन कर चलने की कोशिश करे तो चल नहीं सकेगा, गिर जाएगा। क्‍या आपको मालूम है कि ऊंची एड़ी वाली जूतियों को क्‍यों चुना गया? एक अति धार्मिक समाज ने बहुत ही अधार्मिक कारण के लिए, अश्‍लीलता के लिए इनको चुना है। क्‍योंकि जब एड़िया ऊंची होती है तो नितंब उभरे रहते है।   
      अब कारण काक जानने की तो कोई कोशिश ही नहीं करता। महिलाएं ऊंची एड़ी की जूती पहन कर सोचती है कि वे बहुत ही सभ्‍य और शालीन दिखाई देती है। यह बहुत ही अभद्र है। उनको समझ में यह नहीं आता कि वह अपने नितंब का मुफ्त-प्रदर्शन कर रही है। और मजा ले रही है, और तंग कपड़ों में तो उनकी नग्‍नता स्‍पष्‍ट प्रदर्शित होती है। तंग कपड़ों में स्त्रीयां नग्‍नता से ज्‍यादा अच्‍छी दिखाई देती है। क्‍योंकि चमड़ी तो चमड़ी है। अगर काई तीस साल काह है तो चमड़ी भी तीस साल की होगी। तीस साल को गुजरते उसने देखा है। इसी लिए वह बाजार से खरीदी गई नई पोशाक की तरह कसी हुई नहीं हो सकती। अब तो कपड़े बनाने बाले चमत्‍कार कर रहे है। वे स्‍त्रियों को इतना मनमोहक बना रहे है कि परमात्‍मा भी सेब खा लेता।
      जो मैं कह रहा हूं क्‍या तुम्‍हारी समझ में आ रहा है। शायद इसके लिए तुम्‍हें कुछ देर लगेगी। आशु भी नहीं हंसी। समझने के लिए कुछ देर लगती है। हां,सांप की तो जरूरत ही न पड़ती—कपड़े बेचन वाला सेल्‍समैन ही काफी था। बस, मिसेस ईव के लिए एक तंग पोशाक—और परमात्‍मा खुद ही सेब खा लेता और मिसेस ईव के साथ शाम को ड्राइव के लिए चला जाता।
      परमात्‍मा ने स्‍त्री की रचना पुरूष के बाद क्‍यों कि। पुरूष तानाशाह कहते है कि पुरूष तो परमात्‍मा की परिपूर्ण कृति है। तुमने यूनानी और रोमन मूर्ति कला में पुरूषों की मूर्तियां तो अवश्‍य देखी होगी, किंतु स्‍त्री की नग्‍न मूर्ति बहुत कम दिखाई देती है। सिर्फ पुरूष, अजीब बात है। इसका कारण क्‍या था। क्‍या उन लोगों को स्‍त्री में सौंदर्य दिखाई नहीं देता था।    
      वास्‍तव में वे पुरूष-तानाशाह थे। इतने तानाशाह, कि उन्‍होंने होमोसेक्सुअल टी की जो तारीफ कह परंतु इतर लिंगी, हेट्रोसेक्‍सुअलिटी की नहीं। यह सुन कर बहुत अजीब लगता है। क्‍योंकि सुक़रात को हुए पच्‍चीस सदिया बीत गई है। सुक़रात भी पुरूषों से प्रेम करता था। स्‍त्रीयों से नहीं। शायद उसकी पत्‍नी झेनथिप्‍पे ने उसको इतना सताया कि इसके प्रतिक्रिया स्‍वरूप वह स्‍त्रियों को ही भूल गया और कुछ पुरूषों से प्रेम करने लगा। शायद कोई और कारण रहे होगें।
      अगर किसी दिन मुझे सुक़रात का मनो विश्‍लेषण करना पड़े तो मैं कई ऐसी चींजे उखाड़ कर रख दूँगा जिनके बारे में दूसरा कोई सोच भी नहीं सकता। पर पुरूष तानाशाह कहते है कि परमात्‍मा ने पुरूष की रचना कि, और क्‍योंकि पुरूष अकेला था, उसे एक साथी की जरूरत थी, तो परमात्‍मा ने ईव को बनाया।
      एक मौलिक कहानी नहीं है। मूल स्‍त्री का नाम ईव नहीं था। उसका नाम लिलिथ था। परमात्‍मा ने लिलिथ काक बनाया परंतु लिलिथ ने तो पहले क्षण से ही समस्‍या उत्‍पन्‍न कर दी।
      शुरू आत ऐसे हुई कि सूर्य अस्‍त हो रहा था। रात हो रही थी और उनके पास केवल एक ही पलंग था, यह समस्‍या थी। वे मेरे जैसे भाग्य शाली नहीं थे। मेरे पास तो आशीष है—उसे माइग्रेन का कष्‍ट हो रहा हो तब भी वह एक अच्‍छा पलंग बना देता है। किंतु आशीष तो वहां था नहीं। वास्‍तव में वहां और कोई भी मनुष्‍य नहीं था....
      मेरी घड़ी बंद हो गई है। अभी उस दिन मैं इसकी बात कर रहा था और यह रूक गई थी। तुम जानते हो ये घड़ियाँ बड़ी तुनक मिजाज होती है। ठीक उसी क्षण वह रूक गई थी। मैं तो किसी और घड़ी के बारे में बात कर रहा था। अलंकारिक भाषा में। किंतु अब इस घड़ी को कौन समझाए कि मैं इसके बारे में बात नहीं कर रहा था। रात को भी कई बार मैं इससे कहता हूं कि सुनो,तुम रुको मत। मैं तुम्‍हारे बारे में बात नहीं कर रहा था। तुम तो इतनी सुंदर घड़ी हो.....परंतु वह सुनती ही नहीं।
      मैं क्‍या कहा रहा था?
      आप कह रहे थे कि ईव के पास बिस्‍तर नहीं था..या लिलिथ बिस्‍तर नहीं था, ओशो।
      हां, झगडा तो बिस्‍तर में जाने से पहले ही शुरू हो गया। नारी मुक्‍ति-आंदोलन को अंतिम करने वाली निश्‍चित ही लिलिथ थी। भले ही उसकी जानकारी उसकेा हो या न हो। उसने झगड़ा किया और अदम को बिस्‍तर से बाहर फेंक दिया। कितनी महान औरत थी वह, अदम ने उसको बाहर फेंकने की बार-बार कोशिश की। पर फायदा क्‍या था। अगर वह सफल हो भी जाता तो भी वह वापस आकर उसे बाहर फेंक ही देती।
      उसने कहा: इस बिस्‍तर में केवल एक ही सो सकता है, यह दो के लिए नहीं बना है।
भगवान ने इसको दो के लिए नहीं बनाया था, यह डबल बेड़ नहीं था।
      वह सारी रात झगड़ते रहे और सुबह अदम ने भगवान से कहा: मैं तो बहुत खुश था...  हालाकि वह था नहीं। परंतु रात भर के दुःख के कारण उसको अपना विगत जीवन सुखी लग रहा था। उसने कहा: इस स्‍त्री के आने के पहले मैं इतना सुखी था।
      और लिलिथ ने भी  कहा: मैं भी बहुत सुखी थी। मैं तो जीना ही नहीं चाहती। बहुत सी बातों का आरंभ उसी से हुआ होगा। शायद वह प्रथम झेन थी, क्‍योंकि उसने कहा, मैं जीना नहीं चाहती। एक जीवन के लिए एक रात ही  काफी है। मुझे मालूम है कि हर रात बार-बार उसी की पुनरावृति होगी। अगर तुम मुझे डबल बेड भी दे दो तब भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हम दोनों में झगड़ा होता ही रहेगा। क्‍योंकि प्रश्‍न तो यह कि मालिक कौन है। इस बर्बर व्‍यक्‍ति को मैं अपना मालिक नहीं बनने दूंगी।
      परमात्‍मा ने कहा: अच्‍छा, उन दिनों—ये बिलकुल आरंभ के दिन थे—सृष्‍टि के बाद का यह पहला ही दिन था। जरूर रविवार रहा होगा—ईसाइयों के अनुसार। परमात्‍मा रविवार की छुटटी के मूड में ही रहा होगा क्‍योंकि उसने कहा: ठीक है, मैं तुम्‍हें गायब कर दूँगा। लिलिथ गायब हो गई, और तब परमात्‍मा ने आम की पसली से ईव को बनाया।
      यह पहला आपरेशन था। देवराज इसको नोट कर लो। परमात्‍मा पहला सर्जन था। रॉयल सोसाइटी इसे माने या न माने, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसने बहुत बड़ा काम किया। उसके बाद से अब तक आरे किसी सर्जन ने ऐसा नहीं किया, कोई कर भी नहीं सकता। केवल एक पसली से उसने स्‍त्री को बना दिया। किंतु यह बहुत अपमानजनक है। और मुझे इस कहानी से घृणा है। भगवान को ऐसा नहीं करना चाहिए। केवल एक पसली.....।
      अब बाकी की कहानी यह है कि हर रात सोने से पहले ईव अदत ही पसलियों को गिनती है यह देखने के लिए कि बाकी सब पसलियाँ सही सलामत है या नहीं। और दुनिया में दूसरी कोई औरत तो नहीं है। यह जानने के बाद वह अच्‍छी तरह से सो जाती है।
      बड़ी अजीब बात है.....अगर दूसरी औरत हो तो वह अच्‍छी तरह से क्‍यों सो नहीं सकती? किंतु मुझे कहानी का यह अंत पसंद नहीं है। पहली बात तो यह है कि इसमें पुरूष ताना शाही है। दूसरी बात यह है कि यह परमात्‍मा के अनुरूप नहीं है। तीसरी बात यह है कि इसमें कल्‍पना की कोई उड़ान नहीं है। और बहुत अधिक तथ्‍यात्‍मक है। कभी-कभी तो केवल इशारा ही करना चाहिए।
      मस्‍तो ने मुझसे पूछा: तुम्‍हारी क्‍या निष्‍कर्ष है।
      मैंने कहा: मेरा निष्‍कर्ष यह है कि परमात्‍मा ने पहले पुरूष को बनाया क्‍योंकि वह नहीं चाहता था कि सृजन के समय किसी प्रकार की कोई दखलंदाजी हो। पूर्व में यह बात अति प्रचलित है। यह मेरी बात नहीं है। किंतु मुझे यह इतनी प्रिय है कि मैं इसको अपना कहने का दावा कर सकता हूं। अगर प्रेम किसी को भी अपना बना सकता है तो यह मेरी है। मुझे नहीं मालूम कि सबसे पहले ऐसा किसने कहा और मुझे जानने की जरूरत भी नहीं है।
      मैंने मस्‍तो से कहा: तब से भगवान के बारे में कुछ भी नहीं सुना गया। इस बेचारे बूढे आदमी की तुम्‍हें कोई खबर मिली, क्‍या वह रिटायर हो गया है। क्‍या वह अपनी ही सृष्टि को भूल गया है। अपने ही बनाए लोगों के प्रति क्‍या उसे कोई करूणा नहीं है? कोई प्रेम नहीं।
      मस्‍तो ने कहा: ऐसी बेतुकी कहानियों में से तुम सदा अजीब-अजीब प्रश्‍न निकाल लेते हो और फिर तुम उनकी बडी समझदारी की बात बना देते हो। मुझे लगता है कि एक दिन तुम कहानीकार बन जाओगे।
      मैंने कहा: नहीं, कभी नहीं। कहीं अधिक योग्‍य लोग उस काम में लगे हुए है। मेरी कहीं और ही आवश्‍यकता है। वहां किसी की दिलचस्‍पी दिखाई नहीं देती है, क्‍योंकि मेरी तो केवल परमात्‍मा में ही दिलचस्‍पी है।
      मस्‍तो को झटका लगा आरे उन्‍होंने कहा: परमात्‍मा में, पर मैं तो सोचता था कि तुम परमात्‍मा में विश्‍वास ही नहीं करते।
      मैंने कहा: मैं विश्‍वास नहीं करता, क्‍योंकि मैं जानता हूं, और मैं इतनी गहराई से जानता हूं कि अगर तुम मेरे सिर को भी काट डालों तब भी मैं यहाँ कहूंगा,मैं जानता हूं। भले ही मैं न रहूँ....एक बार पहले भी मैं नहीं था....वह था, और वह रहेगा।
      उसके लिए स्‍त्रीलिंग या पुल्‍लिंग शब्‍द का प्रयोग करना ठीक नहीं है। क्‍योंकि वह न स्‍त्री है, न पुरूष। पूर्व‍ में हम इसकेा इन दोनों के पार मानते है। उसका कोई लिंग नहीं है, इस बात को समझने के बाद ही हम बुद्ध के शब्‍दों को और लाओत्से के वचनों तथा जीसस की प्रार्थना को समझ सकते है।
      मैंने सुना है, तुमने शायद अभी नहीं सुना होगा, क्‍योंकि यह भविष्‍य की कहानी है। पोलक पोप मर जाता है और वह स्‍वर्ग पहुंच जाता है। वह परमात्‍मा से मिलने जल्‍दी से भीतर जाता है और वह जितनी तेजी से भी तर जाता है उतनी ही तेजी से बाहर आ जाता हे। चिल्‍लाता है रोता है। सेंट पीटर,पॉल, थॉमस आदि सब संत एकत्रित हो जाते है। और कहते है: चिल्‍लाओ मत, रोओ मत। तुम अच्‍छे आदमी हो और हम तुम्‍हारी भावना को समझते है।
      पो ने चीखते हुए कहा: आप क्‍या समझते है, पहली बात तो यह कि क्‍या आपको मालूम है कि वह गोरा आदमी नहीं है। वह काला आदमी है, हब्‍शी है। और दूसरी बात तो और भी बुरी है—वह पुरूष नहीं, स्‍त्री नहीं है।
      परमात्‍मा ने तो पुरूष है, न स्‍त्री ,किंतु पोलक तो पोलक ही है, तुम उन्हें पोप बना सकते हो पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। परमात्‍मा ने जगत न तो पुरूष तानाशाहो के अनुसार बनाया है और न ही नारी मुक्‍ति आंदोलनकारी यों के अनुसार बनाया है। इन दोनों के मत परस्‍पर विरोधी है।
      उसने स्‍त्री को सही मॉडल के रूप में बनाया। और हर कलाकार का यही विचार है कि स्‍त्री बहुत अच्‍छी मॉडल है। अगर तुम उनके चित्रों को देखो तो तुम्‍हे भी यह विश्‍वास हो जाएगा कि वह बढ़िया मॉडल है। किंतु बस वहीं पर रूक जाओ। वास्‍तविक स्‍त्री को छूना मत। चित्र ठीक है, प्रतिमाएं भी ठीक हैं। परंतु वास्‍तविक स्‍त्री तो उतनी अपूर्ण है जितना कि उसे होता चाहिए।
      मैं किसी प्रकार की निंदा या आलोचना नहीं कर रहा। अपूर्णता जीवन का नियम है। केवल मृत चीज ही पूर्ण होती है। जीवन अपूर्ण है। स्त्रीयां अपूर्ण है, पुरूष अपूर्ण है। और जब दो अपूर्णताएं मिलती है तो तुम अंदाज लगा सकत हो कि उसका परिणाम क्‍या होगा।
      मैंने मस्‍तो से कहा कि मेरे निष्‍कर्ष ये है कि परमात्‍मा ने पुरूष को बनाया और पुरूष ने दार्शनिक प्रश्‍न पूछने शुरू कर दिए। परमात्‍मा ने स्‍त्री को बनाया—ताकि वह पुरूष को व्‍यस्‍त रख सके। बस तब से पुरूष कद्दू या केले ख़रीदता रहता हे। और जब तक वह घर पहुंचता है वह इतना थक जाता है कि....जब कि उसकी पत्‍नी उसके साथ महत्‍वपूर्ण विषयों पर चर्चा करना चाहती है—वह टाइम्‍स या किसी और समाचार पत्र के पीछे अपने को छिपा लेता है। स्‍त्री उसको निरंतर भगाती रहती है कि अब यह करो, वह करो।
      अजीब बात है कि स्‍त्रीयों को बहुत सी नौकरियों पार तो नहीं रखा जाता किंतु अध्यापिका काम उनको दे दिया जाता है। शायद इसमें कोई तर्क है। वे लड़कों को ठीक समय पर पकड़ लेती है। और इसके बाद तो वे निरंतर उनसे इतनी डरे रहते है कि उनके सामने कांपने लगते है। छह दिन में बनाई गई अपनी दुनिया के तमाशे को देख कर परमात्‍मा इसका खूब मजा लेता रहता है।
      बुद्ध पुरूष सदा यह कोशिश करते है कि तुम्‍हें उस शांत और शिथिल दुनिया कि एक झलक मिल जाए जो इस मुसीबतों बाली दुनिया के बनने से पहले थी। अभी भी एक और हो जाना संभव है। नदी के प्रवाह के बाहर होते ही तुम हंसने लगते हो। परमात्‍मा है या नहीं है—यह तो एक कहानी है। मैंने मस्‍तो से कहा: जब तक कोई इस जीवन रूपी नदी के प्रवाह में से बाहर नहीं निकल जाता....
      मैं इस आदमी से विदा ले लेना चाहता था, किंतु अच्छा हुआ कि ऐसा नहीं कर सका। उनके साथ अभी भी इतनी चीजें जुड़ी हुई हैं—और कुछ भी उन सब चीजों को प्रतिबिंबित कर देता है। जीवन सकल भी है और जटिल भी, दोनों। ओस की बूंद की तरह सरल और ओस की बूंद की तरह जटिल। क्‍योंकि ओस की बूंद सारे आकाश को प्रतिबिंबित करती है। और उस के भीतर सारे सागर समाए हुए है। और वह हमेशा तो रहेगी नहीं—बस कुछ क्षण और फिर मिट जाएगी सदा के लिए। मैं सदा के लिए, जोर दे रहा हूं। फिर उसको वापस नहीं लाया जा सकता उन सब तारों और साग़रों के साथ।
      मस्‍तो के साथ इतना कुछ जुडा हुआ है.....
      जब भी मैं रोना चाहता तो मैं मस्‍तो से वीणा बजाने को कहता—वह आसान था, कुछ किसी को समझाना न पड़ता। तक कोई न पुछता कि तुम क्‍यों रो रहे हो। वीणा तुम्‍हारे भीतर की गहराई को आंदोलित कर देती है। परंतु उनकी ज़िद्द के कारण मुझे यह कहानी तुम्‍हें सुनानी पड़ी। क्‍योंकि वे मुझसे कहते थे कि जब तक तुम मुझे कहानी नहीं सुनाओगे तब तक मैं वीणा नहीं बजाऊंगा। मैंने उनको सुना दी है। और अब उनके बजाने का समय है। किंतु केवल मैं ही सुन सकता हूं। अच्‍छा है कि अभी भी केवल मैं ही सुन सकता हूं।
      बस मुझे केवल दस मिनट चाहिए सुनने के लिए। मुझे वहीं आनंद मिल रहा है जो आदम को मिला होगा।
      इस पुरातन बैलगाड़ी की प्रक्रिया में हमें कितने मिनट लगे है। क्‍या इसके बारे में किसी को कुछ मालूम है।
      सदा के लिए ओशो।
      जब एक मिनट ओर, और तुम रोक सकते हो।
      यह ठीक है। कितना ही सुंदर हो, उसे निरंतर बनाए रखने की इच्‍छा नहीं करनी चाहिए। उसे समाप्‍त करने की योग्‍यता भी होनी चाहिए। मुझे मालूम है कि तुम इसे जारी रख सकते हो। किंतु नहीं, मेरा डाक्‍टर कुछ भी अधिक खाने के लिए मना करता है। वह चाहता है कि में अपना वज़न कम करूं, और अगर मैं तुम्‍हारा खाना खाऊं तो जीसस....।
      अब तुम इसे बंद कर सकते हो।
--ओशो
                        
      

    

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