ओ. के.। मैं रविशंकर को सितार बजाते हुए सुना है। हम जो सोच सकें, वे सब गुण उनमें है। उनका व्यक्तित्व गायक का है। अपने वाद्ययंत्र पर उनका पूर्ण अधिकार है। और उनमें नवीनता उत्पन्न करने की योग्यता है। जो कि शास्त्रीय संगीतज्ञों में दुर्लभ ही होती है। रविशंकर को नवीनता से बहुत प्रेम है। इन्होंने यहूदी मैन हून की वायलिन के साथ अपनी सितार की जुगल बंदी की है। दूसरा कोई भी भारतीय सितारवादक इसके लिए तैयार नहीं होता। क्योंकि इसके पहले किसी ने ऐसा प्रयोग नहीं किया। वायलिन के साथ सितार वादन। क्या तुम पागल हो? परंतु नये की खोज करने वाल लोग थोड़े पागल ही होते है। इसीलिए तो वे नवीनता को जन्म दे सकते है।
तथाकथित स्वस्थ दिमाग वाले लोग सुबह से रात तक परंपरागत जीवन ही जीते है। रात से सुबह तक, कुछ कहा ही नहीं जाना चाहिए—नहीं कि कहने में मुझे कुछ डर है। लेकिन मैं उनकी बात कर रहा हूं। वे आजीवन लकीर के फकीर बने रहते है और परंपरागत नियमों के आधार पर ही चलते है। वे कभी भी निधार्रित पथ से जरा भी इधर उधर नहीं होते।
परंतु नये का सृजन करने वालों को परंपरा और रूढ़ि के बाहर जाना ही पड़ता है। कभी-कभी परंपरा से हट कर भी चलना चाहिए। नियमों को न मानने पर जोर दिया जाना चाहिए। और इससे बहुत लाभ होता है—मेरी इस बात पर विश्वास करो। इससे फायदा होता है। क्योंकि इससे सदा कुछ नया उजागर हो जाता है। अपने ही भीतर छिपा हुआ अचानक उजागर हो जाता है। माध्यम चाहे कुछ भी हो—सितार, वायलिन या बांसुरी—बजाने वाला भीतर से तो वही है। अलग-अलग रास्ते उसी बिंदु पर पहुंचाते है। वर्तुल की भिन्न-भिन्न रेखाएं एक ही केंद्र पर पहुँचती है। नवीनता उत्पन्न करनेवाले लोगों को कुछ सनकी होना ही होता है। रूढ़ि मुक्त,और रवि शंकर सचमुच रूढ़ि मुक्त है।
पहला, वे एक पंडित है, ब्राह्मण है और उन्होंने एक मुसलमान लड़की से शादी की भारत में तो ऐसा कोई सोच भी नहीं सकता कि ऐ ब्राह्मण मुसलमान लड़की से शादी कर ले। रविशंकर ने ऐसा किया आरे वह भी किसी साधारण मुसलमान लड़की से नहीं बल्कि अपने गुरु की बेटी से विवाह कर लिया।
वह तो और भी अपरंपरागत हो गया। इसका मतलब यह है कि वर्षों तक उन्होंने इस बात को अपने गुरु से छिपाया। जैसे ही गुरु को इस बात का पता चला वैसे ही उन्होंने इसकी अनुमति दे दी। और सिर्फ अनुमति ही नहीं दी, साथ में स्वयं ने इस विवाह का आयोजन भी किया।
उनका नाम अल्लाउद्दीनखान था। और ये तो रविशंकर से भी अधिक क्रांतिकारी थे। मैं मस्तो के साथ उनसे मिलने गया था। मस्तो मुझे अनूठे लोगों से मिलाते थे। अल्लाउदीन खान तो उन दुर्लभ लोगों में से अति विशिष्ट थे। मैं कई अनोखे लोगो से मिला हूं, किंतु अल्लाउदीन जैसा दूसरा दिखाई नहीं दिया। वे अत्यंत वृद्ध थे। सौ वर्ष की उम्र पूरी करने के बाद ही उनकी मृत्यु हुई।
जब मैं उनसे मिला तो वे जमीन की और देख रहे थे। मस्तो ने भी कुछ नहीं कहा। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने मस्तो को ची कुटी भरी, किंतु मस्तो फिर चुप रहे—जैसे कि कुछ भी नहीं हुआ। तब मैंने मस्तो को आरे भी ताकत से ची कुटी काटी। फिर भी उन पर कोई असर नहीं हुआ। तक तो मैंने ची कुटी काटने में अपनी पूरी ताकत लगा दी। और तब उन्होंने कहा: ओह।
उस समय मैंने अल्लाउदीनखान की उन आंखों को देखा—उस समय वे बहुत वृद्ध थे। उनके चेहरे की रेखाओं पर अंकित सारे इतिहास को पढ़ा जा सकता था।
उन्होंने सन अठारह सौ सत्तावन में हुए भारत के प्रथम स्वतंत्रता-विद्रोह को देखा था। वह उनको अच्छी तरह से याद था। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि उस समय वे इतने बड़े तो अवश्य रहे होंगे कि उस समय की घटनाओं को याद रख सकें। उन्होंने सारी शताब्दी को गुजरते देखा था। आरे इस अवधि में वे केवल सितार ही बजाते रहे। दिन में कभी आठ घंटे, कभी दस घंटे, कभी बारह घंटे। भारतीय शास्त्रीय संगीत की साधना बहुत कठिन है। यदि अनुशासित ढंग से इसका अभ्यास न किया जाए तो इसकी निपुणता में कसर रह जाती है। संगीत पर अपना अधिकार जमाए रखने के लिए सदा उसकी तैयारी में लगे रहना पड़ता है। इसके अभ्यास मे जरा सी भी लापरवाही नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसकी प्रस्तुति में वह त्रुटि तत्क्षण खटक जाती है।
एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ ने कहा है: अगर मैं तीन दिन तक अभ्यास न करूं, तो श्रोताओं को इसका पता चल जाता है। अगर मैं दो दिन अभ्यास न करूं तो संगीत के विशेषज्ञों को पता चल जाता है। और अगर मैं एक दिन अभ्यास न करूं तो मेरे शिष्यों को मालूम हो जाता है। जहां तक मेरा अपना प्रश्न है, मुझे तो निरंतर अभ्यास करना पड़ता है। एक क्षण के लिए भी मैं इसे छोड़ नहीं सकता। अन्यथा तुरंत मुझे खटक जाता है। कि कहीं कुछ गड़बड़ है। रात भी की अच्छी नींद के बाद सुबह मुझे कुछ खोया-खोया सा लगा है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत बहुत ही कठोर अनुशासन है। परंतु यदि तुम इस अनुशासन को अपनी इच्छा से अपने ऊपर लागू करो तो यह तुम्हें यथेष्ट स्वतंत्रता भी देता है। सच तो यह है कि अगर समुद्र में तैरना हो तो तैरने का अभ्यास अच्छी तरह से करन पड़ता है। और अगर आकाश में उड़ना हो तो बड़े कठोर अनुशासन की आवश्यकता होती है। लेकिन यह किसी ओर के द्वारा तुम्हारे ऊपर थोपा नहीं जा सकता। सच तो यह है कि जब कोई दूसरा तुम पर अनुशासन ला दे तो यह बहुत अप्रिय लगता है। अनुशासन शब्द के अप्रिय हो जाने का मुख्य कारण यहीं है। अनुशासन शब्द वास्तव में पर्यायवाची बन गया है माता-पिता, अध्यापक जैसे लोगो की कठोरता का, जो अनुशासन के बारे में कुछ भी नहीं जानते। उनको तो इसका स्वाद भी मालूम नहीं।
संगीत का वह गुरु यह कह रहा था कि ‘अगर मैं कुछ घंटे भी अभ्यास न करूं तो दूसरे किसी को तो पता नहीं चलता परंतु फर्क मालूम हो जाता है। इसलिए इसका अभ्यास निरंतर करते रहना होता है—और जितना ज्यादा तुम अभ्यास करो, उतना ही ज्यादा अभ्यास करने का अभ्यास हो जाता है और वह आसान हो जाता है। तब धीरे-धीरे अनुशासन अभ्यास नहीं बल्कि आंदन हो जाता है।
मैं शास्त्रीय संगीत के बारे में बात कर रहा हूं, मेरे अनुशासन के बारे में नहीं। मेरा अनुशासन तो आरंभ से ही आनंद है। शुरूआत से ही आनंद की शुरूआत है। इसके बारे में मैं बाद में आप लोगों को बताऊंगा।
मैंने रविशंकर को कई बार सुना है उनके हाथ में स्पर्श है, जादू का स्पर्श है, जो कि इस दुनिया में बहुत कम लोगों के पास होता है। संयोगवश उन्होंने सितार को हाथ लगाया और इस पर उनका अधिकार हो गया। सच तो यह है कि उनका हाथ जिस यंत्र पर भी पड़ जाता उसी पर उनका अधिकार हो जाता। अपने अपन में यंत्र तो गौण है, महत्वपूर्ण है उसको बजाने बाला।
रविशंकर तो अल्लाउदीनखान के प्रेम में डूब गए। और अल्लाउदीनखान की महानता या ऊँचाई के बारे में कुछ भी कहना बहुत मुश्किल है। हजारों रवि शंकरों को एक साथ जोड़ देने पर भी वे उन ऊँचाई को छू नहीं सकते। अल्लाउदीनखान वास्तव में विद्रोही थे। वे संगीत के मौलिक स्त्रोत थे और अपनी मौलिक सूझ-बूझ से उन्होंने इस क्षेत्र में अनेक नई चीजों का सृजन किया था।
आज के प्राय: सभी भारतीय बड़े संगीतज्ञ उनके शिष्य रह चुके है। आदर से उन्हें बाबा’ कहा जाता था। ऐसा अकारण ही नहीं है कि उनके चरण-स्पर्श करने के लिए दूर-दूर से सब प्रकार के कलाकार—नर्तक, सितारवादक, बांसुरी वादक, अभिनेता आदि आते थे।
मैंने उन्हें जब देखा तो वे नब्बे वर्ष पार कर चुके थे। उस समय वे सचमुच ‘ बाबा’ थे और यही उनका नाम हो गया था। वे संगीतज्ञों को विभिन्न वाद्ययंत्र बजाना सिखाते थे। उनके हाथ में जो भी वाद्ययंत्र आ जाता वे उसको इतनी कुशलता से बजाते मानों वे जीवन भर से उसी को बजा रहे है।
मैं जिस विश्वविद्यालय में पढ़ता था वे उसके नजदीक ही रहते थे—बस कुछ ही घंटों का सफर था। कभी-कभी मैं उनके पास जाता था। तभी जाता जब वहां कोई त्यौहार न होता। वहां पर सदा कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता था। शायद मैं ही एक ऐसा व्यक्ति था जिसने उनसे पूछा कि ‘ बाबा’ मुझे किसी ऐसे दिन का समय दो जब यहां पर कोई त्यौहार न हो।
उन्होंने मेरी और देख कर कहा: तो अब तुम उन दिनों को भी छीन लेने आ गए हो। और मुस्कुरा कर उन्होंने मुझे तीन दिन बताए। सारे बरस में केवल तीन दिन ही ऐसे थे जब वहां पर कोई उत्सव नहीं होता था। इसका कारण यह था कि उनके पास सब प्रकार के संगीतज्ञ आते थे—ईसाई,हिन्दू, मुसलमान,। वे उन सबको अपने-अपने त्यौहार मनाने देते थे। वे सच्चे अर्थों में संत थे और सबके शुभचिंतक थे।
मैं उनके पास उन तीन दिनों में ही जाता था जब वे अकेले होते थे और उनके पास कोई भीड़-भीड़ नहीं होती थी। मैंने उनसे कहा कि ‘ मैं आपको किसी तरह से परेशान नहीं करना चाहता। आप जो करना चाहें करें—अगर आप चुप बैठना चाहते है तो चुप रहिए। आप अगर वीणा बजाना चाहते है तो वीणा बजाइए। अगर कुरान पढ़ना चाहे तो कुरान पढ़िए। मैं तो केवल आपके पार बैठने आया हूं। आपकी तरंगों को पीने को आया हूं। मेरी इस बात को सुन कर वे बच्चे की तरह रो पड़े। मैने उनके आंसुओं को पोंछते हुए उनसे पूछा: क्या अनजाने में मैंने आपके दिल को दुखा दिया है।
उन्होंने कहा: नहीं-नहीं। तुम्हारी बातों से तो मेरा ह्रदय द्रवित हो उठा है और मेरी आंखों से आंसू उमड़ आए है। मेरा इस प्रकार रोना अनुचित है। मैं इतना बूढा हूं। परंतु क्या प्रत्येक व्यक्ति को सदा उचित व्यवहार ही करना चाहिए।
मैंने कहा: नहीं, कम से कम तब तो नहीं जब मैं यहां हूं।
यह सुन कर वे हंस पड़े। उनकी आँखो में आंसू थे और चेहरे पर हंसी थी...दोनों एक साथ। बहुत ही आनंददायी स्थिति थी।
मस्तो मुझे उनके पास ले गए थे। क्यों, इसका उत्तर देने से पहले मैं थोड़ी से कुछ और बातें कहूँगा।
मैंने दूसरे महन सितारवादक विलायत खान को भी सुना है। इस कला में वे शायद रविशंकर से भी आगे है। परंतु अपनी इस कला में कोई नवीनता उत्पन नहीं करते। वे पूर्णत: शास्त्रीय है। उन्हें सुन कर तो मुझे भी शास्त्रीय संगीत से प्रेम हो गया। यूं तो मुझे कुछ भी शास्त्रीय पसंद नहीं है। किंतु वे इतना अच्छा सुंदर बजाते है कि तुम कुछ कर ही नहीं सकते, तुम्हें उसके प्रेम में पड़ ही जाना पड़ेगा। तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं होता। सितार पर उनका हाथ पड़ते ही श्रोता अपने वश में नहीं रहता। विलायत खान का संगीत शुद्ध शास्त्रीय संगीत है। वे अपने संगीत में किसी प्रकार की मिलावट पंसद नहीं करते। उन्हें कुछ भी प्रचलित पंसद नहीं है। मेरा अभिप्राय ‘ पॉप ‘ से है क्योंकि पश्चिम में तो जब तक तुम पॉप न कहो कोई समझेगा ही नहीं कि पॉपुलर का क्या मतलब होता है। वास्तव में ‘पॉप ‘ से तात्पर्य होता है। प्रचलित से वास्तवमें पॉप शब्द अँग्रेजी के पॉपुलर शब्द का संक्षिप्त रूप है। पॉपूलर को काट-छांट कर ‘ पॉप’ बना दिया गया है।
मैंने विलायत खान को सुना है। मैं तुम्हे अपने एक बहुत संपन्न शिष्य की कहानी सुनाना चाहता हूं। यह सन उन्नीस सौ सत्तर की बात है। उसके बाद तो मुझे उनका कोई समाचार नहीं मिला। मैंने उनके बारे में पूछताछ की तो मालूम हुआ कि वे अभी वहीं पर है। परंतु ‘ संन्यास से बहुत से लोग डर गए—विशेषत: धनी लोग ।
यह भारत के अति संपन्न परिवारों में से एक था। मुझे बड़ी हैरानी हुई जब ऐ दिन उनकी पत्नी ने मुझसे कहा: मैं केवल आपको ही यह बात बता सकती हूं कि पिछले दस वर्ष से मुझे विलायत खाल से प्रेम है।
मैंने कहा: तो इसमे गलत क्या है। विलायत खान, कुछ भी गलत नहीं है।
उसने कहा: आप समझे नहीं। मेरा मतलब उनकी सितार से नहीं, मैं तो उनके बारे में कह रही हूं।
मैंने कहा: हां,उनके बिना तुम्हारे लिए उनकी सितार का क्या मतलब।
यह सुनते ही अपने माथे को हाथ से ठोंकते हुए उसने कहा: आपकी समझ में कुछ नहीं आ रहा है।
मैंने कहा: हां, लगता तो कुछ ऐसा ही है। किंतु यह तो मैं समझ गया हूं कि तुम विलायत खान से प्रेम करती हो। यह तो बिलकुल ठीक ही है। मैं तो सिर्फ कह रहा हूं कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
पहले तो उसने मुझे अविश्वास से देखा। क्योंकि भारत में अगर ऐसी बात किसी धार्मिक आदमी से कही जाए कि एक हिंदू पत्नी किसी मुसलमान संगीतज्ञ, गायक या नर्तक से प्रेम करती है। तो वह निश्चित ही उसे आर्शीर्वाद नहीं देगा। संभावना तो यही है कि वह अभिशाप ही देगा। और अगर वह इसके लिए उसे क्षमा कर दे तो वह अत्यंत आधुनिक दृष्टिकोण माना जाएगा।
मैंने उससे कहा: इसमें तो कोई बुराई नहीं। कुछ भी गलत नहीं है। प्रेम करो, तुम जिसे भी चाहो उससे प्रेम करो। और प्रेम में जाति और घर्म बाधा नहीं डाल सकते।
उसने मेरी और ऐसे देखा जैसे कि मुझे किसी से प्रेम हो गया है। मानो वह कोई संत है जिसे मैं अपने प्रेम की बात बता रहा हूं। मैंने कहा: तुम तो मुझे ऐसे देख रही हो जैसे की मुझे उनसे प्रेम हो गया है। यह भी सच है। मुझे उनके सितार वादन से बहुत प्रेम है लेकिन उनसे नहीं। वे बहुत ही घमंडी है। अधिकांश कलाकार इसी प्रकार अहंकारी और घमंडी होते है।
रवि शंकर तो और भी अधिक अहंकारी है। शायद इसलिए कि वे ब्राह्मण है। यह तो ऐसे है जैसे दो बीमारियां एक साथ हो—एक तो ब्राह्मण और दूसरे शास्त्रीय संगीतज्ञ। तीसरा कारण यह भी है कि इन्होंने महान अल्लाउदीनखान की बेटी से विवाह किया है। और ये उनके दामाद है।
अल्लाउदीनखान इतने सम्मानित थे कि उनका दामाद बनना अपने आप में स्वंय एक प्रमाण था कि तुम एक बहुत बड़े कलाकार हो। परंतु इनके दुर्भाग्य से मैं मस्तो को भी सुन चुका था जैसे ही मैंने उनको सुना मैंने कहा: अगर दुनिया तुम्हारे बारे में जानती तो वह इन सब रवि शंकरो और विलायत खानों को भूल जाती और इन्हें माफ कर देती।
मस्तो ने कहा: दुनिया को मेरे बारे में कभी मालूम ही न होगा। केवल तुम्हीं मुझे सुन सकोगे।
तुम लोगों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि मस्तो बहुत से वाद्ययंत्र को बजाते थे। वे बहुआयामी प्रतिभावान व्यक्ति थे। वे जिस चीज को हाथ लगाते वही सुंदर बन जाती। वे चित्र भी बनाते थे। पिकासो से कहीं अधिक अर्थ बाले और कहीं अधिक सुंदर। परंतु उन्होंने अपने इस सब चित्रों को नष्ट कर दिया। उन्होंने कहा कि मैं समय की रेत पा कोई पद-चिन्ह नहीं छोड़ना चाहता ।
पर कभी-कभी वह पागल बाबा के साथ संगीत बजाते थे। इसलिए मैंने उनसे पूछा पागल बाबा के बारे में तुम्हें क्या कहना है।
उन्होंने कहा: मेरा सितार तो तुम्हारे लिए आरक्षित है। पागल बाबा ने भी उसे नहीं सुना है। पागल बाबा के लिए कुछ और ही आरक्षित है, कृपा करके उसके बारे में तुम मुझसे मत पूछना। तुम शायद ही उसे सुनो।
स्वभावतः: मैं जानना चाहता था कि वह क्या है। मैं उत्सुक था, फिर उनसे कहा: मैं अपनी उत्सुकता को अपने भीतर दबाए रखूंगा और किसी से कुछ नहीं पूछूंगी। मैं जानता हूं कि इसके बारे में मैं अगर बाबा से पूछूं तो बाबा मुझसे झूठ नहीं बोलेंगे, परंतु मैं उन से नहीं पूछूगां। इतना मैं तुमसे वादा करता हूं।
उन्होंने हंस कर कहा: अच्छा तो सुनो जब बाबा इस संसार में नहीं रहेंगे तो मैं उस वाद्ययंत्र को तुम्हारे लिए अवश्य बजाऊंगा। इसके पहले तो मैं तुम्हारे लिए या किसी और के लिए नहीं बजा सकता।
और जिस दिन पागल बाबा मृत्यु हुई, मेरे मल में यह पहला प्रश्न उठा: ‘ वह वाद्ययंत्र कौन सा है। यही तो समय है....इस उत्सुकता के लिए मैंने अपने आपको बहुत कोसा परंतु इसका कोई असर नहीं हुआ और बार-बार यही प्रश्न मेरे सामने खड़ा हो जाता—मस्तो काह वह वाद्ययंत्र कौन सा है।
मनुष्य में उत्सुकता बहुत गहरी होती है। ईव को सांप ने नहीं बहकाया था। उसको और अदम को कौतूहल ने बहकाया था। और यह क्रम आज तक इसी प्रकार चलता रहा है। ऐसे ही सदा होता रहेगा। अजीब बात है कि लोग कौतूहल का ही पीछा करते है। यह कोई बड़ी बात नहीं थी। मैंने मस्तो को दूसरे बाद्य-यंत्रो को बजाते सुना था। शायद वे इसको बजाने में अधिक कुशल हों। तो क्या हुआ। एक आदमी अभी-अभी मरा है और तुम यही सोच रहे हो कि मस्तो अब तुम्हारे लिए कौन सा यंत्र बजाएगा....किंतु यह स्वाभाविक है, मानव स्वभाव ऐसा ही होता है।
गनीमत है कि मनुष्य के सिर में खिड़कियाँ नहीं लगी हुई हैं, नहीं तो सबको मालूम हो जाता कि इस सिर के भीतर क्या चल रहा है। तब तो मुसीबत हो जाती। क्योंकि लोगों ने अपने चेहरे पर जो मुखौटे लगा रखे है वे बिलकुल भिन्न है, झूठ है। अपने भीतर वे क्या है। हजारों चीजें एक साथ प्रवाहित हो रही है।
अगर हमारे सिर में खिड़कियाँ लगी होतीं तो जीना मुश्किल हो जाता। परंतु मुझे यह विचार अच्छा लगा...इससे लोगों को मौन होने में बहुत सहायता मिलती, क्योंकि तब कोई भी लोगो के सिरों में झांक कर देखता तो उसे मालूम होता कि वहां तो देखने को कुछ भी नहीं है। मौन लोग मुस्कुरा कर अपने पड़ोसियों की और देखते और कहते: देखो भाई देखो। जितना चाहो देखो। परंतु सर पर खिड़की ही नहीं है। वह तो बिलकुल बंद है।
बाबा की मृत्यु के समय मैं केवल मस्तो के वाद्य-यंत्र के बारे में ही सोच रहा था। मुझे माफ करना, किंतु मैंने सारी सच्ची बातें बताने का फैसला किया है। और तुम लोग यह याद रखो कि मैं सारा सच बता कर ही रहूंगा। इसमें चाहे कितना ही समय क्यों न लग जाए। देव गीत, देवराज और आशु, इसे कहने में मुझे चाहे बरसों लग जाए और तब मैं तुमसे कहूंगा कि इस पुस्तक को जल्दी समाप्त करो। इसलिए इसके ढेर को बढ़ाते मत जाओ।
कल का भरोसा मत करो। जो करना है आज ही करो, कल पर कुछ मत छोड़ो: तभी तुम कुछ कर सकोगे। अनजाने ही तुम जाल में फंस गए हो। और तुम समझते हो कि मैं फंस गया हूं। गलती से भी ऐसा मत सोचना। वास्तव में मैंने तुम तीनों को फांस लिया और अब यह फंदा रोज अधिक से अधिक मजबूत होता जाएगा, अब कोई बचाव नहीं है।
हां, एक महिला—इस कहानी में कहीं पर उनका जिक्र आएगा। क्योंकि उनका मेरे लिए बहुत महत्व है। उन्होंने मुझसे कुछ ऐसा ही कहा था। एक तरह से वे थोड़ी विशेष है। क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी मुझे दिया,वह सब पहला था। पहली घड़ी, पहला टाईपराइटर, पहली कार, पहला टेप-रिकार्डर पहला कैमरा, भरोसा नहीं आता कि उन्होंने ऐसा कैसे किया, किंतु ये सब चीजें मुझे सबसे पहले उनसे ही मिली। उनके बारे में मैं बाद में बताऊंगा। उस समय आए तो मुझे याद दिलाना।
उन्होंने मुझे यह बताया कि उनके दिल मर यही एक बोझ है कि जब उनकी सास मरी तो उन्हें बहुत भूख लगी थी।
मैंने कहा: भूख लगने में क्या बुराई है।
उन्होंने कहा: क्या आप इसे ठीक समझते है कि मेरे पति की मां मेरे सामने मरी पड़ी है और मुझे इतनी भूख लगी कि मैं अच्छे-अच्छे भोजन के बारे में सोच रहीं हूं—पराठा, भजिया, पुलाव व रसगुल्ला। मैंने कहा कभी किसी को इस बात के बारे में बताया तो नहीं है। उन्होंने कहा, क्योंकि मुझे मालूम है कि इसके लिए मुझे कोई माफ नहीं करेगा।
मैंने कहा: इसमें तो कुछ गलत नहीं हैं। तुम भी क्या करती, तुमने तो उसको मारा नहीं था। खैर, जो भी हो,देर-अबेर, कभी न कभी तो खाना शुरू करना ही पड़ता है। जितना जल्दी उतना ही अच्छा। और जब खाने का मन हो तो अपनी मन पंसद चीजों का याद आना स्वभाविक है।
उसने कहा: क्या ये सच है।
मैंने कहा: और कितनी बार मुझे यह कहना पड़ेगा।
जब उन्होंने यह बात बताई तो मैं उनके भाव को समझ गया कि उन्हें अपने मन में कैसा लगा होगा। क्योंकि मुझे याद आया जब बाबा मरे थे। तो जो पहला विचार मुझे आया था—ये विचार भी अजीब हैं—तुरंत मैंने यही सोचा का कि मस्तो जिस वाद्य को बजाता है वह कौन सा है। वह जैसे ही मैंने मस्तो की और देखा मैंने कहा: अब।
उसने कहा: अच्छा।
हम दोनों ने दूसरा कोई शब्द नहीं कहा। वह समझ गया और उसने मेरे लिए पहली बार वीणा बजाईं। इससे पहले उसने मेरे सामने वीणा कभी नहीं बजाईं थी। यह यंत्र गिटार जैसा है, किंतु उससे कहीं अधिक जटिल है। और ऐसी ऊँचाइयों को छूता है जिसको सितार भी नहीं छू सकता है। सितार न तो इसकी ऊँचाई तक पहुंच सकती है। न इसकी गहराई को छू सकती है।
मैंने कहा: मस्तो, यह तो वीणा है। तुम इसके अनुभव को मुझसे छिपाना चाहते थे।
उन्होंने कहा: नहीं कभी नहीं, लेकिन जब मैं बाबा के साथ था और तुम्हें अभी नहीं जानता था तब मैंने स्वयं ही यह वादा किया था कि जब तक वे जीवित है तब तक मैं इस यंत्र को किसी और के लिए नहीं बताऊंगा। अब तुम मेरे लिए बाबा हो और मैं सदा यही तुम्हें मानूँगा। अब मैं इस वीणा को तुम्हारे लिए बजा सकता हूं। में तुमसे कुछ छिपा नहीं रहा था। किंतु तब तुम मुझसे परिचित नहीं थे जब मैंने यह वादा किया था। अब यह समाप्त हो गया है।
एक क्षण के लिए तो मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि उसने मुझसे कितना छिपा रखा था। मैंने कहा: मस्तो, दो मित्रों के बीच यह बात ठीक नहीं है।
उसने जमीन की और देखा और कुछ नहीं कहा। जीवन में पहली बार मैंने उसे ऐसे मूड में देखा था।
मैने उससे कहा: अब न तो अफसोस करने की, न उदास होने की जरूरत है। जो हो गया सो हो गया। अब इससे हमें कोई मतलब नहीं है।
उसने कहा: मुझे अफसोस नहीं हो रहा था। मैं तो शर्मिंदा हो रहा था। मुझे मालूम है कि अफसोस या खेद को जो जल्दी मिटाया जो सकता है। परंतु शर्मिंदगी....इसे चाहे जितना मिटाओ यह मिटती ही नहीं है।
शर्मिंदा होने का भाव तो महान लोगों में ही होता है। साधारण लोग तो शर्मिंदा होता ही नहीं। उन्हें मालूम ही नहीं कि शर्मिंदगी क्या होती है। अचानक मुझे एक बात याद आई.... समय क्या हुआ है।
दस बज कर बाईस मिनट, ओशो।
अच्छा।
मुझे समय की याद नहीं आई। तुम लोगों को यह मालूम है कि मुझे कभी समय का ध्यान नहीं रहता। कभी-कभी ज्यादती भी हो जाती है। तुम लोगों को भूख लगी होगी। जल्दी से जल्दी तुम मैगदेलीना में पहुंच जाना चाहते हो। और मैं हूं कि बोलता ही चला जाता हूं। अब तुम तो मुझे रोक नहीं सकते हो। मैं स्वय ही आपने आप को रोक सकता हूं। जब मैं तुम्हें रोकने को कहूं तभी तुम भी रूक सकते हो। यह एक बहुत ही पुरानी आदत है। नहीं, मुझे समय की नहीं किसी और बात कि याद आई।
मस्तो मेरी नानी के घर ठहरा हुआ था। वह मेरा अतिथि गृह था। मेरे पिता के घर में तो घर वालों के लिए ही जगह नहीं होती थी, अतिथि के बारे में तो क्या सोचना वहां सदा बहुत से लोगों की भीड़-भाड़ जमा रहती थी। उतनी भीड़ तो नोआज़-आर्क में भी नहीं होती। वहां परतों सब प्रकार के प्राणी रहते थे। वहां की दुनियां बड़ी अजीब थी। किंतु मेरी नानी का घर प्राय: खाली रहता था—ठीक जैसा मुझे पसंद है।
मैं जो कहना चाहता हूं उसको अंग्रेजी का ‘एंप्टी‘ शब्द अभिव्यक्त नहीं कर सकता। उपयुक्त शब्द है—शून्य, अब इससे आपको डाक्टर इकलींग की याद नहीं आनी चाहिए, क्योंकि मैंने उसे ‘ शून्यो’ नाम दिया है। पर बेचारा इकलींग चीनी जैसा लगता है। यह नाम भी कैसा है इकलींग। वह अमरीकन नहीं हो सकता। जब उसने अपनी दाढ़ी मुड़वाँ दी तो बिलकुल चीनी जैसा ही दिखाई देने लगा। एक दिन अचानक वह मेरे सामने पड़ गया तो मैं उसको पहचान ही न सका।
मैंने पूछा कि तुम्हें क्या हुआ।
गुड़िया ने याद दिलाया कि वह ‘शून्यो‘ है।
मैंने कहा: अच्छा हुआ कि तुमने याद दिला दिया, नहीं तो मैं उसको पीट ही देता। वह चीनी जैसा ही दिखाई देता है। मैंने उससे पूछा: तुमने दाढ़ी क्यो मुड़ाव दी।
सच तो यह है कि अगर ड़ाक्टरों के इतिहास को देखा जाए तो हमें मालूम होता है। कि किसी अंजान कारण से सारे महान ड़ाक्टरों ने दाढ़ी रखी हुई थी। शायद उनके पास हजामत करने का समय ही नहीं था। शायद उनकी पत्नियाँ ही नहीं थी। इसलिए उनको किसी की परवाह नहीं थी। मैंने उससे पूछा कि किसने तुम्हें यह बताया है कि अमरीका में डाक्टर बनने के लिए दाढ़ी मुड़वनी पड़ती है। शून्यो से तुम फिर डाक्टर इकलींग बन गए हो। क्या तुम बिल्ली हो, कहा जाता है कि बिल्ली के नौ जीवन होते है। मिस्टर इकलींग तुम्हारे कितने जीवन है।
मेरी नानी का घर बिलकुल शून्य था। वह एक मंदिर की तरह खाली था और वे उसे बहुत ही साफ-सुथरा रखती थी। मुझे गुड़िया कई कारणों से पंसद है। एक कारण तो यहीं है। कि हर चीज को साफ रखती है। कभी-कभी तो वह सफाई के लिए मुझे भी टोक देती है। और जब वह सफाई के लिए ऐसा करती है तो मुझे उससे सहमत होना पड़ता है। वह मेरी नानी की तरह ही संवेदन शील है। स्त्री का यह गुण स्वभाविक है। परंतु शायद पुरूष के पास यह नहीं होता। पुरूष अगर गंदा हो तो हम यह सोच कर उसे सहन कर लेते है कि आखिर वह पुरूष है। परंतु अगर स्त्री गंदी हो तो सहन नहीं होती। स्त्री तो स्वभाव से ही सफाई पंसद होती है। इसलिए वह स्वयं को आरे अपने-अपने आस पास के वातावरण को अनायास ही साफ-सुथरा रखती है। और गुड़िया तो अंग्रेज है, पक्की अंग्रेज है—सारी दुनिया में केवल दाह ही पक्के अंग्रेज है—गुड़िया और सागर।
नानी सफाई का इतना ध्यान रखती थीं कि उनके लिए तो भगवान का स्थान भी सफाई के बाद ही आता था। वे दिन भर सफाई करती रहती। किसके लिए, वहीं तो केवल मैं ही रहता था। सुबह मैं घर से बाहर चला जाता था और शाम को ही वापस आता था। नानी सारा दिन सफाई में व्यस्त रहती थीं।
एक बार मैंने उनसे पूछा कि क्या तुम सफाई करते-करते थकती नहीं, और कोई भी तो तुम्हें सफाई के लिए नहीं कहता।
नानी ने कहा: इस सफाई से मुझे बहुत लाभ हुआ है। मेरे लिए यह प्रार्थना बन गई है। तुम मेरे लिए अतिथि हो। तुम यहां रहते नहीं हो। रहते हो क्या, तुम अतिथि हो, अपने अतिथि के लिए मुझे अपना घर तैयार रखना पड़ता है। भारत में अतिथि को भगवान माना जाता है। नानी के कहा: ‘तुम मेरे भगवान हो।‘
मैंने कहा: नानी,तुम पागल हो गई हो क्या। मैं तुम्हारा भगवान हूं। तुमने तो कभी किसी भगवान में विश्वास नहीं किया।
उन्होंने कहा: मैं तो केवल प्रेम में विश्वास करती हूं। और वह मुझे मिल गया है। अब मेरे प्रेम के इस मंदिर में तुम्हीं एकमात्र अतिथि हो। इस मंदिर को मुझे जितना साफ हो सके उतना साफ रखना है।
नानी का घर अतिथि-गृह था। सिर्फ मेरे लिए ही नहीं बल्कि मेरे मेहमानों के लिए भी। मस्तो जब भी आते वहीं ठहरते थे। मैं जिसे भी वहां लाता नानी उसकी देखभाल बहुत अच्छी तरह से करतीं। मैं उनसे कहता: नानी, इतना अधिक परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। वे कहती: ये तुम्हारे मेहमान हैं इसलिए इनकी देखभाल तो मुझे अपने मेहमानों से भी अधिक करनी चाहिए।
मैंने नानी को मस्तो से बात करते हुए कभी नहीं देखा। कभी-कभी वे एक साथ बैठे हुए दिखाई देते। परंतु मैंने उनको आपस में बात करते हुए कभी नहीं देखा। बड़ी अजीब बात है।
मैंने नानी से पूछा: तुम उनसे बात क्यों नहीं करती, क्या वे तुम्हें अच्छे नहीं लगते है।
उन्होंने कहा: मुझे वे बहुत अच्छे लगते है। परंतु बात करने की जरूरत ही नहीं, क्योंकि कहने को कुछ नहीं है। न मुझे कुछ कहना है, न उन्हें कुछ कहना है। हम लोग तो चुपचाप बैठ कर अपना सिर हिला देते है। चुपचाप बैठना बहुत अच्छा लगता है। तुम्हारे साथ मैं बात करती हूं। तुमसे मुझे कई बातें पूछनी होती है। और तुम्हें भी मुझे बहुत कुछ बताना होता है। तुम्हारे साथ बातचीत करना बहुत अच्छा लगता है।
मेरी समझ में आ गया कि इन दोनों का संबंध दूसरे ही सतर का है। नानी का और मेरा संबंध अलग ही ढंग का था। और वही एकमात्र ढंग नहीं था। उस दिन से हम दोनों के बीच भी कम होती गई और फिर बिलकुल बंद हो गई। तब हम चुपचाप घंटों बैठे रहते।
नानी का घर बहुत ही सुंदर था। वह नदी के किनारे था। ‘नदी’ शब्द बोलते ही मेरे ह्रदय गीत गाने लगता है। उस नदी को मैं दुबारा नहीं देख सकूँगा। इसकी जरूरत भी नहीं है। क्योंकि मैं अपनी आँखो को बंद करके उसे देख सकता हूं। मैंने सुना है—वह स्थान अब उतना सुंदर नहीं रहा। उसके नजदीक बहुत से मकान बन गए है। दुकानें बन गई है। अच्छा खासा बाजार लग गया है। नहीं अब मैं नहीं जाना चाहता। अगर मुझे वहां जाना भी पड़े तो में अपनी आंखें बंद कर उसी पुरानी सुंदर जगह को देखना चाहता । बड़े-बड़े वृक्ष और छोटा सा मंदिर—अभी भी मुझे उसकी घंटी बजती हुई सुनाई देती है।
अभी कुछ दिन पहले एक आदमी मेरे लिए कुछ घंटी या लाया था। अजीब घंटी या थी। ऐसी तो बहुत कम दिखार्इ देती है। ये तिब्बत की घंटियों है। हालांकि कैलिफ़ोर्निया में बनाई गई हैं, पर इन घंटियों का डिजाइन तिब्बती है। कैलिफ़ोर्निया में बनती हैं, फिर भी इनमें कुछ सुधार हो गया है। तिब्बती घंटियों बहुत बेडौल होती हैं। किंतु ये कांच की बनी हुई है आरे बहुत सुंदर और परिष्कृत है। तुम्हारे लिए मैं इनका वर्णन करना चाहता हूं।
ये आम प्रचलित घंटियों जैसी नहीं है। ये प्लेट जैसी है। यदि बहुत सी प्लेटों को ऐ साथ एक दूसरे के ऊपर रख दिया जाए तो हवा के झोंके से ये एक दूसरे से टकरा कर बड़ी मधुर आवाज करती है। ये घंटियों बहुत सुंदर है। कभी-कभी कैलिफ़ोर्निया में भी अच्छी चीजें बन जाती है। आमतौर पर कैलिफ़ोर्निया में बनी हुई चीजें ऐसी-वैसी ही होती है। पर कभी-कभी वे अच्छी चीजें भी करते है।
मैंने बहुत प्रकार की घंटियों देखी है। कलिम्पोंग में एक तिब्बती लामा के एक बार मुझे ऐसी ही एक तिब्बती घंटी दिखाई थी। जिसे मैं आज तक भूल नहीं सका। इसके बारे में मैं अवश्य तुम लोगों को बताना चाहता हूं। तुम उसको शायद कभी नहीं देख सकोगे, क्योंकि वह अब गायब होते हुए तिब्बत का ही विशेष अंग है। जल्दी ही यह सब गायब हो जाएगा। यह घंटी जो मैंने देखी थी सचमुच विचित्र थी।
मैं भारत में घंटियों देखी है। इसलिए मुझे भारतीय घंटियों की ही जानकारी थी। ये छत से लटकाई जाती है। और उसमें एक डंडी रहती है। इससे घंटी की एक और चोट लगाई जाती है। यह घंटी सेाए हुए भगवान को जगाने के लिए होती है। मैं इसके सौंदर्य को समझ सकता हूं। आदमी को ही नहीं भगवान को भी जगना पड़ता है। परंतु यह तिब्बती घंटी तो बिलकुल अलग ही ढंग की थी। इसको छत से नहीं लटकाया जाता, इसको जमीन रखा जाता है।
मैंने कहा: क्या यह घंटी है, यह तो घंटी जैसी दिखाई नहीं देती।
उस लामा ने हंस कर कहा: आप देखते जाइए। यह कोई मामूली घंटी नहीं है। यह ऐ विशेष घंटी है।
तब उसने अपने थैले में से लकड़ी का बना हुआ एक छोटा गाल हैंडल निकाला जब वह उस हैंडल को उस तथाकथित घंटी के भीतर गोल-गोल घुमाने लगा। वह घंटी तो एक बर्तन जैसी दिखाई देती थी। थोड़ी दे दस प्रकार घूमने के बाद उसने हैंडल को ऐसी जगह पर चोट लगाई जहां पर कोई निशान बना हुआ था। और आश्चर्य उस घंटी ने एक पूरे तिब्बती मंत्र को दोहरा दिया। वह मंत्र था: मणि पद्य हूम। जब पहली बार मैंने सुना तो में अपने कानों पर विश्वास न कर सका। घंटी ने इस मंत्र को बड़ी स्पष्टता से दोहराया।
उसने कहा: ऐसी घंटी हर तिब्बती मठ में पाई जाती है, क्योंकि हम स्वयं इस मंत्र को उतनी बार नहीं दोहरा सकते जितनी बार हमें दोहराना चाहिए, इसलिए इस घंटी से दोहराते है।
मैंने कहा: वाह, क्या कहने इस घंटी के, यह गूंगी नहीं।
उसने कहा: बिलकुल नहीं, और क्या आपको मालूम है कि अगर गलत जगत पर चोट कर दी जाए तो यह चिल्ला उठेगी। यह मंत्र को तभी दोहराती है जब सही जगह पर चोट की जाती है। अन्यथा यह चीखती-चिल्लाती है। सब तरह का शोरगुल करती है, मगर मंत्र नहीं दोहराती।
मैं लद्दाख भी गया था। यह प्रदेश भारत और तिब्बत के बीच में है। अब शायद लद्दाख इस दुनिया का सबसे अधिक महत्वपूर्ण धार्मिक देश बन जाएगा जैसा कि कभी तिब्बत था। अब तो तिब्बत समाप्त हो गया है। उसकी हत्या कर दी गई है। खून कर दिया गया है। लद्दाख में मैंने ऐसी ही घंटियों देखी थी। किंतु वे बहुत बड़ी थी—मकान जैसी। तुम उनके भीतर और लटकती हुई लोहे कि छड़ी को पकड़ कर विशेष जगह पर चोट करने से अपनी इच्छानुसार किसी भी मंत्र को दोहरा सकते हो। बस उस घंटी की भाषा कि जानकारी होनी चाहिए। वह कंप्यूटर जैसी है।
देव गीत मैं क्या कह रहा था।
आप बता रहे थे कि नानी मस्तो से कभी बात नहीं करती थी, वे दोनों चुपचाप बैठे रहते थे.......
बिलकुल ठीक, हमें भी अब चुपचाप बैठना चाहिए...मेरे लिए दस मिनट। भगवान के लिए—वह है या नहीं—शिथिल हो जाओ। आराम से बैठो।
सत्यम् शिवम् सुंदरम्....मैं तो हूं नहीं, और तुम तक पहुंचना चाहते हो। सब देख सकते है। क्या तुम देख सकेत हो। मैं नहीं हूं। कुछ मिनट इसे जारी रखो, बस दो मिनट क्योंकि मैं किसी चीज कि प्रतीक्षा कर रहा हूं। इसलिए थोड़ा सजग रहो। हां.....अच्छा है...
नहीं, देव गीत, तुम इतनी अच्छी पत्नी बन सकते थे, मैं हंस पड़ता,किंतु मुझे हंसना नहीं चाहिए।
--ओशो
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