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बुधवार, 14 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-48

महर्षि महेश योगी यों सबसे अधिक चालाक

      मैं तुम लोगों को यह बता रहा था कि मैं स्‍कूल नियमित रूप से हाजिरी लगाने नहीं जाता था। मैं तो वहां कभी-कभी जाता था। और वह भी उस समय जब मुझे कोई शैतानी सूझती,शरारत और शैतानी करने में मुझे बड़ा मजा आता था और एक प्रकार से यही आरंभ था मेरे शेष जीवन के ढंग का।
      मैंने कभी कुछ गंभीरता से नहीं लिया। अभी भी ऐसा ही हूं। अगर मुझे छूट दी जाए तो मैं तो अपनी मृत्‍यु पर भी खूब हंसूगा। परंतु भारत में पिछले पच्‍चीस वर्ष तक मुझे गंभीर आदमी का पार्ट अदा करना पडा—यह अभिनय कुछ लंबा ही चला। थोड़ा मुश्‍किल था किंतु मैंने यह अभिनय इस प्रकार किया कि मैं तो गंभीर बना रहा परंतु मैंने अपने आस पास के लोगों को गंभीर नहीं होने दिया। इसी से मैंने अपने आपको बचा लिया। अन्‍यथा ये गंभीर लोग तो ज़हरीले साँपों से भी अधिक ज़हरीले होते है।
      तुम साँपों को पकड़ सकते हो किंतु ये गंभीर लोग तुम्‍हें पकड़ लेते है। इनसे तो सदा दूर ही रहना चाहिए। किंतु मैं सौभाग्‍यशाली हूं क्‍योंकि कोई गंभीर व्‍यक्‍ति मेरे नजदीक नहीं आएगा। मैंने बहुत जल्‍दी अपने आप को बदनाम कर लिया और यह उस समय किया जब मुझे अनुमान ही नहीं था कि इसका नतीजा क्‍या होगा।   
      जब वे मुझे स्‍कूल में आते देखते तो तुरंत सबको सावधान कर दिया जाता कि कहीं मैं कुछ गड़बड़ न कर दू्ं, उनके लिए कोई खतरा न खतरा न खड़ा कर दूँ। मैं तो मजाक करता था, किंतु उन्‍हें वह मजाक खतरनाक दिखाई देते थे। मेरे लिए तो सारा जीवन ही मजाक है।
      उदाहरण के लिए मेरे प्राइमरी स्‍कूल की इस दूसरी घटना को ही देखो। मैं प्राइमरी स्‍कूल की अंतिम चौथी क्‍लास में रहा होऊंगा। मुझे कभी फेल नहीं किया गया, क्‍योंकि कोई भी अध्‍यापक अपनी क्‍लास में मुझे दुबारा नहीं चाहता था। स्‍वभावत: हर अध्‍यापक की यही कोशिश होती थी कि मैं जल्‍दी से जल्‍दी उसकी क्‍लास से अगली क्‍लास में चला जाऊँ जिससे इस मुसीबत से उसका छुटकारा हो जाए। कम से कम एक साल के लिए कोई दूसरा इस मुसीबत को झेले। वे सब मुझ ‘’एक मुसीबत’’ समझते थे। मुझे समझ में नहीं आता था। कि मैं दूसरों के लिए क्‍या मुसीबत खड़ी करता था।
      मैं तुम्‍हें दूसरी घटना का उदाहरण देने जा रहा हूं। मेरे शहर से रेलवे स्‍टेशन दो या तीन मील की दूरी पर था। और उस स्‍टेशन के पार छह मील की दूरी पर चीचली नाम का एक छोटा सा गांव था। हां, याद आया, महर्षि महेश योगी का जन्‍म इसी चीचली गांव में हुआ था। किंतु उन्‍होंने कभी इसका उल्‍लेख नहीं किया। इसके कुछ कारण है। वे भारत के शूद्र मानी गई जाति के है। भारत में कोई भी किसी से उसका गांव, जाति और पेशे के बारे में पूछ सकता है। इस अर्थ में भारतीय बहुत ही असंस्‍कृत हैं। वह तुम्‍हें रास्‍ते पर रोक कर पूछ सकते है कि तुम किस जाति के हो। इन बातों को पूछने में वे जरा भी झिझकते नहीं है।
      महर्षि महेश योगी स्‍टेशन के उस पास पैदा हुए थे। क्‍योंकि वे शूद्र है, इसलिए वे अपने गांव का नाम नहीं लेते। क्‍योंकि वह गांव शुर्दो का है। भारत में यह सबसे नीची जाति मानी जाती है। वे अपने कुल का नाम भी नहीं बताते। क्‍योंकि उससे भी तुरंत पता चल जाएगा कि वह कौन है।
      उनका पूरा नाम है, महेश कुमार श्रीवास्‍तव। भारत में श्रीवास्‍तव उपनाम उनके सब दिखावे को खत्‍म कर देगा। और उससे सभी जगह असर आएगा। वे भारत की किसी भी प्राचीन परंपरा में दीक्षित संन्‍यासी नहीं है। भारत में संन्‍यास की केवल दस परंपरा प्रचलित है। मैं उन सबको नष्‍ट करने का प्रयास करता रहा हूं। इसी से वे सब नाराज है।
      संन्‍यासियों कि ये दस जातियां मानी जाती है। महर्षि महेश योगी संन्यासी नहीं हो सकते थे। क्योंकि वे शूद्र को दीक्षित नहीं किया जा सकता। इसीलिए वे अपने नाम के साथ स्‍वामी नहीं लिख सकते। किसी ने उनको यह नाम दिया ही नहीं। प्राचीन हिंदू-संन्‍यास की दस पद्धतियों के अनुसार वे अपने नाम के साथ,भारती, सरस्‍वती, गिरि आदि नहीं लिख सकते, क्‍योंकि इनमें से किसी भी संन्‍यास पद्धति में वे दीक्षित नहीं है। इसलिए वे स्‍वयं ही अपने नाम के साथ योगी जोड़ दिया है जिसका कोई अर्थ नहीं है। जो लोग शीर्षासान करने के प्रयास में बार-बार गिरते है वह अवश्‍य अपने आप को योगी कह सकते है—इसमें किसी को कोई आपति नहीं हो सकती। एक शूद्र योगी हो सकता है। स्‍वामी के स्‍थान पर उन्‍होने महर्षि लिख दिया है। भारत में संन्‍यासी के नाम के साथ अगर स्‍वामी न हो तो लोगों को शंका होती है। कि कुछ गलत है। इसलिए उसकी जगह भरने के लिए तुम्‍हे कुछ और लिखना होता है।
      स्‍वामी की पूर्ति के लिए इन्‍होंने महर्षि का आविष्‍कार कर लिया। किंतु ये तो .ऋषि भी नहीं है। ऋषि का अर्थ होता है: दर्शक और महार्षि का अर्थ हाता है: महान दर्शक। इनको तो नजदीक से भी कुछ दिखाई नहीं देता। जब इनसे कोई सार्थक प्रश्न पूछा जात है तो उसके उत्‍तर में ये केवल गिगिल करते है, खी-खी करके हंसने लगते है। इनको तो स्‍वामी गिलला नंद कहना चाहिए। वह एकदम फिट होगा। इनकी यह हंसी स्‍वभाविक नहीं है। यह तो लोगो के प्रश्‍नों से बचने की एक तरकीब है। इसकी आड़ में वे उत्‍तर देने से बच जाते है। क्‍योंकि वे किसी प्रश्‍न का उत्‍तर दे ही नहीं सकते।
      संयोगवश इनसे मेरी मुलाकात पहल गाम में हुई। वे वहां पर एक ध्‍यान-शिविर ले रहे थे और मैं भी ध्‍यान-शिविर ले रहा था। स्‍वभावत: उनके और मेरे लोग आपस में मिलते रहते थे। इन लोगों ने पहले तो महर्षि महेश योगी को मेरे शिविर में लाने की कोशिश की। किंतु उन्‍होंने अनेक प्रकार के बहाने बना कर की उनके पास समय नहीं है। चाहता तो हूं पर संभव नहीं है। इस प्रस्‍ताव को टाल दिया। परंतु साथ ही यह सुझाव भी दिया कि मैं उनके शिविर में जाकर उनके मंच पर उनसे बात करूं। और लोग यह मान गए।
      और जब उन्‍होंने मुझे यह बताया तो मैंने उनसे कहा: तुम लोगों ने बड़ी बेवकूफी की है, अब मुझे अनावश्‍यक मुश्‍किल में डाल रहे हो। प्रश्नों का अत्‍तर तो मैं दे दूँगा किंतु उनके लोगों के सामने उनकी आलोचना करना ठीक नहीं लगता। अतिथि बन कर मेजबान पर प्रहार करना उचित नहीं है खासकर उनके लोगों के सामने। किंतु मैं भी अपनी आदत से विवश हूं। उनको देखते ही उनकी धुनाई शुरू कर देता हूं। अपने आप को रोकना चाहूं तो भी नहीं रूक सकता।
      इन लोगों ने कहा: लेकिन हमने तो वादा कर दिया है।
      मैंने कहा: अच्‍छा, तो ठीक है। मैं वहां जाने को तैयार हूं। केवल दो मिनट का रास्‍ता था। कार में बैठते ही तुरंत पहुंच जाते थे। इसलिए मैं वहां जाने के लिए मान गया।
      मैं वहां गया और ठीक जैसे मैंने सोचा था वे वहां पर नहीं थे। किंतु मैं कहां किसी बात की फ़िकर करता हूं। मैंने शिविर शुरू कर दिया—और यह उनका शिविर था। वे तो वहां थे नहीं। वे मुझसे बचने की कोशिश कर रहे थे। किसी ने उनको जरूर बता दिया होगा। क्‍योंकि वे नजदीक के एक होटल में ठहरे हुए थे। उन्‍होंने अपने कमरे में से मेरी बात को सुन लिया होगा। कि मैं क्‍या कह रहा हूं। मैंने तो उनकी अच्‍छी धुनाई शुरू कर दी। क्‍योंकि जब मैंने देखा कि वे तो वहां नहीं है। तो मैं जितनी चाहूं उतनी पिटाई कर सकता हूं। और इसका मजा ले सकता हूं। किंतु शायद मैंने इतने जो से उनकी पिटाई की कि वह अधिक देर तक अपने को छिपा न सके और वे वहां पर खी-खी हंसते हुए पहुंच गए।
      मैंने कहा: बंद करो यह खी-खी। इस प्रकार दाँत निकाल कर हंसना अमरीका के टेलीविजन पर अच्‍छा लगता होगा। लेकिन यहां पर मेरे साथ यह सब नहीं चलेगा। और उनकी मुस्‍कान गायब हो गई। वे गुस्‍से में लाल-पीले हो गए। जैसे उनकी हंसी तो एक प्रकार का पर्दा थी जिसके पीछे वे बहुत कुछ छिपाए हुए थे। जो नहीं होना चाहिए।
      स्‍वभावत: से सुन कर वे बौखला गए और उन्‍होंने कहा: मुझे बहुत काम है। मैं माफी चाहता हूं।
      मैंने कहा: इसकी भी कोई जरूरत नहीं हे। जहां तक मुझे मालूम है आप तो यहां आए ही नहीं। आप तो गलत कारण से यहां आए है। और मेरा उससे कुछ लेना-देना नहीं है। पर याद रखिए मेरे पास तो बहुत समय है।
      तब मैंने उनकी अच्‍छी तरह से खबर ली, क्‍योंकि मुझे मालूम था कि वे अपने होटल के कमरे में वापस चले गए है। खिड़की में से झाँकता हुआ उनका चेहरा मुझे दिखाई दे रहा था। मैंने उनके लोगों से कहा: देखो, यह आदमी कहता है कि उसे और बहुत काम है। क्‍या यहीं काम है उसका, खिड़की में से किसी ओर काम को देखना। अच्‍छा होता अगर वे अपने आप को छिपाए रखते । वैसे ही जैसे अपनी खी-खी में अपने को छिपाए रखते है।
      सभी तथाकथित धामिर्क गुरूओं में से महर्षि महेश योगी सबसे अधिक चालाक है। चालाकी अपना काम खूब कर लेती हे। चालाकी जैसा कुछ और सफल नहीं होता। अगर चालाकी सफल नहीं होती तो इसकी मतलब सिर्फ यह है कि तुम अपने से अधिक चालाक आदमी से हार गए हो। पर फिर भी चालाकी ही जीतती है।
      वे अपने गांव का नाम कभी नहीं बताते थे। मुझे वह याद आ गया कयोंकि मैं एक घटना के बारे में आपको बताना चाहता था। उस प्रसंग का उनके गांव से कुछ संबंध है। और मेरी कहानी इधर-उधर सभी दिशाओं की और मुड़ती रहती है।
      चीचली बहुत  छोटी सी रियासत थी, जो ब्रिटिश राज्‍य का हिस्‍सा नहीं थी। रियासत तो छोटी थी, किंतु राजा तो राजा ही कहलाता था। उसके पास मुश्‍किल से एक हाथी था। हाथियों की संख्‍या से ही तो राज का बड़प्पन आंका जाता था। मैं तुम लोगों को हाथी फाटक के बारे में बता चुका हूं जो स्‍कूल के सामने था। एक दिन मैं चीचली के राजा के पास पहुंच गया और उससे कहा कि मुझे एक घंटे के लिए आपका हाथी चाहिए।
      उसने कहा: क्‍या, लेकिन तुम हाथी को क्‍या करोगे।
      मैंने कहा: मुझे आपके हाथी का कुछ नहीं करना, मैं तो उस फाटक के नाम को सार्थक करना चाहता हूं। आप भी उस स्‍कूल में पढ़े होंगे और आपने भी उस हाथी फाटक को देखा होगा।
      उन्‍होंने कहा: हां, मेरे जमाने में तो वहीं एक प्राइमरी स्‍कूल था। अब तो ऐसे चार स्‍कूल है।
      मैने कहा: अब मैं चाहती हूं कि कम से कम एक बाद यह फाटक कुछ सम्मानित हो जाए। इसका नाम तो हाथी फाटक किंतु इसमें से तो कभी कोई गधा भी नहीं गुजरा।
      उसने कहा: तुम बड़े अजीब लड़के हो। लेकिन मुझे तुम्‍हारा विचार बहुत अच्‍छा लगा।
      उसके सैक्रेटरी ने कहा: आपको यह विचार कैसे अच्‍छा लगा। यह लड़का तो सनकी मालूम होता है।
      मैंने कहा: आप दोनों ठीक है। मैं सनकी हूं या नहीं यह कहना मुश्किल है। इस समय तो मैं आपसे आपका हाथी मांगने आया हूं। मुझे वह केवल एक घंटे के लिए चाहिए। मैं उस पर सवार होकर स्‍कूल जाना चाहता हूं।
      वे इस विचार से बहुत प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने मुझसे कहा: अच्‍छा, तुम हाथी पर सवार होकर जाना और मैं तुम्‍हारे पीछे-पीछे अपनी पुरानी फोर्ड गाड़ी में बैठ कर आऊँगा। राजा के पास बहुत ही पुरानी—शायद टी-मॉडल वाली फोर्ड कार थी। मेरे खयाल से वह टी-मॉडल वाली थी जो कि सबसे पुरानी कार है। वे भी देखना चाहते थे कि वहां पर क्‍या होने वाला है।
      फिर जब मैं हाथी पर सवार होकर शहर में से गुजरा तो लोग बड़े हैरान हुए और उत्‍सुकता वश जगह-जगह लोगों की भीड़ जमा हो गई और उन्‍होंने कहा: इस लड़के को यह हाथी कहां से मिल गया और कैसे मिल गया।
      जब मैं स्‍कूल पहुंचा तो वहां पहले से ही बहुत बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई थी। भीड़ के कारण हाथी को भी दरवाजे में से अंदर जाने में मुश्किल हुई। बच्‍चे भी कूद रहे थे—मालूम है कहां, स्‍कूल की छत पर, वे चिल्‍ला-चिल्‍ला कर कह रहे थे। वह आ गया, वह आ गया। हमें मालूम था इस बार वह भी कुछ ट्रिक करेगा। लेकिन यह तो बहुत बड़ी ट्रिक है।
      हेड मास्‍टर ने चपरासी से घंटा बजा कर छुटटी कर देने को कहा। क्‍योंकि उसको डर लगा कि स्‍कूल की छत गिर न जाए। या बग़ीचा खराब न हो जाए। मेरे अध्‍यापक भी छत पर चढ़ हुऐ थे। इन सबको वहां पर देख कर मेरा भी जी चाहा कि मैं वहां जाकर देखूं कि क्‍या हो रहा है।
      स्‍कूल को बंद कर दिया गया। हाथी उस फाटक में से गुजर कर स्‍कूल में प्रवेश कर चुका था और इस प्रकार उसने हाथी फाटक नाम को सार्थक कर दिया था। अब यह फाटक दूसरे फाटकों से कहा सकता था कि एक बार एक लड़का हाथी पर सवार होकर मेरे यहां से गुजरा था और इसे देखने के लिए लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। फाटक तो यही कहेगा कि मुझे देखने के लिए।
      राजा भी वहां आया और इतनी भीड़ को देख कर उसे बड़ा आश्‍चर्य हुआ। उसने मुझसे पूछ: तुमने इतनी जल्‍दी इतने लोगों को कैसे जमा कर लिया।
      मैंने कहा कि मैंने तो कुछ भी नहीं किया। स्‍कूल में मेरा प्रवेश ही काफी था। तुम्‍हारे हाथी के कारण ऐसा नहीं हुआ। अगर तुम्‍हें मेरी बात पर विश्‍वास न हो राह हो तो कल तुम स्‍वयं हाथी पर सवार होकर देख सकते हो। तुम्‍हें देखने को एक आदमी भी नहीं आयेगा।
      उसने कहा: मैं बुद्धू नहीं बनना चाहता। लोग वहां पर जमा हों या न हों किंतु इतना तो मुझे मालुम है कि उस प्राइमरी स्‍कूल के सामने अगर मैं अपने हाथी पर सवार होकर जाऊँ तो मैं बहुत ही बेवकूफ दिखाई दूँगा। तुम तो उस स्‍कूल के हो। मैं तुम्‍हारे बारे में कई कहानियां सुन चुका हूं। अब तुम मुझे यह बताओ कि तुम मुझसे मेरी फोर्ड गाड़ी कब मांगोंगे।
      मैंने कहा: बस इंतजार करो। उन्‍होंने मुझे निमंत्रण दिया था। किंतु मैं दुबारा उनके पास गया ही नहीं। उस गाड़ी से भी मै अच्‍छा खासा तमाशा कर सकता था। क्‍योंकि सारे शहर में दूसरी कोई कार ही नहीं थी। और वह कार गजब की थी—हर बीस गज के बाद उसे धक्‍का देना पड़ता था। इसीलिए तो मैं वहां कभी नहीं गया।    
      मैंने राजा से कहा कि यह कार कैसी है।
      उसने कहा: मैं तो एक छोटी सी रियासत का एक गरीब राजा हूं। मेरे पास एक कार तो होनी ही चाहिए, सो ऐसी कार से ही मुझे अपना काम चलाना पड़ता है।
      वह कार बिलकुल बेकार थी। आज भी मुझे यह अचरज होता है। कि वह कार कुछ गज भी कैसे चलती थी। जब वह राजा उस कार में जाता था तो सारा शहर हंसता था। सब लोगों को उसे धक्‍का देना पड़ता था। मैंने उनसे कहा: अभी तो मुझे आपकी कार की जरूरत नहीं है किंतु कभी न कभी उसे लेने अवश्‍य आऊँगा। उसको बुरा न लगे इसलिए मैने उससे यह कहा। लेकिन आज भी मुझे वह कार याद है। अभी भी वह उस घर में होगी।
      भारत में ऐसी पुरानी कारें बहुत सी मिल जाएंगी। क्‍या कहते हो तुम उन्‍हें? विंटेज, भारत सरकार को तो यह नियम बनाना पडा कि कोई विंटेज कार भारत के बाहर नहीं जाएगी। ऐसा नियम बनाने की जरूरत ही नहीं थी। वैसे ही ये कारें तो कहीं नहीं जा सकती। परंतु अमरीका के लोग इसको किसी भी कीमत पर खरीदने के लिए तैयार हो जाते है। भारत में तो हर कार का पहला माडल बड़ी आसानी से मिल जाता है। बंबई और कलकता में ऐसी कई पुरातन कारें देखी जा सकती है। उन्‍हें देख कर यह विश्‍वास ही नहीं होता कि हम लोग बीसवीं सदी में रह रहे है।   
      एक बार संयोगवश रेलगाड़ी में मेरी मुलाकात इस राजा से हो गई। मुझे देखते ही उसने पूछा: तुम क्‍यों नहीं आए?
      उस समय तो मेरी समझ में नहीं आया कि ‘’तुम क्‍यों नहीं आए’’, से उसका तात्पर्य था।......इसलिए मैंने कहा: मुझे याद ही नहीं कि मुझे आना था।
      उसने कहा: हां, यह कोई चालीस साल पहले की बात है। तुमने वादा किया था कि तुम मेरी कार को अपने स्‍कूल में ले जाओगे। तब मुझे याद आया। वे बिलकुल ठीक कह रहे थे।
           
      मैं कहा: बहुत खूब।....क्‍योंकि उस समय वह राजा पिनचानबे वर्ष का रहा होगा और अभी तक उसकी याददाश्‍त इतनी अच्‍छी है। चालीस साल के बाद वह पूछ रहा था कि ‘’तुम क्‍यों नहीं आए।‘’ मैंने कहा: आप तो चमत्‍कार है।
      मेरा खयाल है कि अगर हम दोनों दूसरे लोक में भी कहीं मिल जाते तो पहला प्रश्न होगा, तुम क्‍यों नहीं आए। क्‍योंकि मैंने फिर दुबारा यही वादा किया, अरे मैं तो भूल गया। माफ करना। मैं जरूर आऊँगा।
      उसने पूछा: कब?
      मैने कहा: चालीस साल के बाद आप इस कार के लिए मुझसे आने का दिन तय करना चाहते है। चालीस साल पहले भी यह नाम मात्र कि ही कार थी। चालीस साल बाद उसकी क्‍या हालत हो गई होगी।
      उसने कहा: वह तो बिलकुल ठीक-ठाक है।
      मैंने कहा: आपको तो उसके बारे में यही कहना चाहिए कि वह तो एकदम नहीं सी है—लगता है कि अभी-अभी शोरुम से आई है। लेकिन मैं अवश्य‍ आऊँगा। कम से कम एक बार तो उसकी सवारी जरूर करना चाहूंगा। किंतु दुर्भाग्‍य से जब मैं वहां पहुंचा तब तक उस राजा की मृत्‍यु हो गई थी। किंतु मैने वह कार देखी। चालीस साल पहले वह कुछ गज तो चलती थी, अब तो वह भी मर गई है। अगर राजा जीवित होता तो वह भी इस मरी कार को देख कर उसे जीवित नहीं कर सकता था।
      उसके पुराने नौकर न कहा: आप बहुत देर से आए। राजा मर गए है।
      मैंने कहा: अच्‍छा हुआ, नहीं तो वह मुझे करा में बैठाता। और वह चलने वाली नही थी।
      उसने का: आप ठीक ही कहते है। मैंने उसे चलते हुए कभी नहीं देखा। मैं पिछले पंद्रह साल से यहां पर काम कर रहा हूं और आज तक मैने इस कार को चलते नहीं देखा। इसको तो पोर्च में केवल यह दिखाने के लिए रखा गया है कि महाराज के पास कार है।
      मैंने कहा: इसकी सवारी तो बड़ी अजीब है और मजेदार है। इधर से घूसों और उधर से निकल जाओ—इस तरह समय बिलकुल बरबाद नहीं होता।
      आज भी मेरे जो अध्‍यापक जीवित है उन्‍हें मेरे स्‍कूल के दिनों की शैतानियां अच्छी तरह से याद है। जब मैं यूनिवसिर्टी में प्रथम आया तो वे विश्‍वास ही नहीं कर सके। क्‍योंकि उन्‍हें याद था कि मुझे कैसे एक क्‍लास से दूसरी क्‍लास में भेजा जाता है। यह तो उन लोगों की मुझ पर कृपा थी या उन्‍हें डर था। जिसके कारण वे मुझे परीक्षा में पास कर देते थे। इसलिए इनको यह विश्‍वास नहीं हो रहा था कि सारी युनिवर्सिटी में मैं कैसे प्रथम आ सकता हूं।   
      जब मैं घर आया तो सारे समाचार-पत्रों ने मेरा फोटो छाप कर कहा कि स्‍कूल के इस लड़के को सोने का मैडल मिला हे। अध्‍यापक तो आश्‍चर्यचकित रह गए। वे मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे कि मैं किसी दूसरे ग्रह से आया हूं।
      मैंने उनसे जब पूछा भी कि आप मुझे इस तरह से क्‍यों देख रहे है।
      उन्‍होंने कहा: तुम्‍हें देख कर भी हमें विश्‍वास नहीं होता। जरूर तुमने कोई चालाकी की होगी।
      मैंने कहा: हां,आप ठीक कहते है—ये एक प्रकार की चालाकी ही थी। उन लोगों के साथ तो मैं सदा शरारत ही कहता था।      
      एक बार एक आदमी एक घोड़े के साथ हमारे शहर आया। तुम लोगों को जर्मनी के एक बहुत प्रसिद्ध घोड़े के बारे में अवश्‍य सुना होगा, उसका नाम था—हैंस, देव गीत इस नाम का ठीक से उच्‍चारण क्‍या है। हैंस या हैंड्स?
      हैंड्स, ओशो।
      अच्‍छा, हैंड्स ही सही। उस समय यह हैंस सारी दूनिया में इतना प्रसिद्ध हो गया था कि बड़े गणितज्ञ, वैज्ञानिक, विचारक और दार्शनिक उसको देखने जाते थे। इसका कारण क्‍या था। मुझे मालूम है किंतु इस हैंस के बारे में बाद में पता चला। मेरे गांव में एक आदमी के पास एक घोड़ा था जो ठीक इसी प्रकार का था। मैंने उसको इतना परेशान किया कि आखिर तंग आकर उसने मुझे बता दिया कि वह कैसे अपने घोड़े से ये सब करवाता है।
      उसका घोड़ा....पहले मुझे तुम्‍हें जर्मनी के इस प्रसिद्ध घोड़े के बारे में बताने दो ताकि तुम्‍हारी समझ में आ जाए कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक भी किस प्रकार एक घोड़े के बेवकूफ बनाए जा सकते है। यह हैंस नामक घोड़ा गणित के छोटे-छोटे प्रश्नों को हल कर देता था। जब उससे पूछा जाता कि दो और चार का जोड़ कितना होगा, तो वह अपने दाएं पैर से छह बार टाप देता।
      सवाल तो छोटा सा ही था, किंतु घोड़ा जो कर रहा थ वह बड़ी हैरानी की बात थी। धीरे-धीरे वह बड़े अंको वाले सवाल भी हल करने लगा। किसी की समझ में न आया कि उसका रहस्‍य क्‍या है। वायोलाजिस्‍ट भी कहने लगे कि शायद घोड़े भी मनुष्‍य की तरह बुद्धिमान होते हे। केवल थोड़े से प्रशिक्षण की जरूरत होती है।
      मैंने भी इस प्रकार का घोड़ा अपने गांव में देखा है। वह संसार-प्रसिद्ध नहीं था, सह एक गरीब आदमी का घोड़ा था। उस आदमी की आमदनी का एकमात्र साधन यहीं घोड़ा था। जो उसी प्रकार के करतब करता था। अपने इस घोड़े के साथ वह आदमी गांव-गांव घूमता था और लोग इससे तरह-तरह के प्रश्‍न पूछते थे। यह घोड़ा अपना सिर हिला कर कभी तो हाँ कहता और कभी नहीं कहता। वह जापानी लोगों के तरह सिर न हिला कर बाकी सारी दुनिया की तरह सिर हिलाता था। ये जापानी भी अजीब है।
      जब मैं किसी जापानी को संन्‍यास देता तो यह समस्‍या खड़ी हो जाती। ये अपना सिर दूसरे ढंग से हिलाते है। जब ये अपने सिर को ऊपर-नीचे हिलाते है तो उनका मतलब होता है--नहीं। जब वे हां कहते है तो हम समझते है कि वह नहीं कह रहे है।  मुझे यह अच्‍छी तरह से मालूम था, किंतु उनसे बात करते समय मैं भूल जाता था। और जब वे हां कहते तो मैं समझता कि वे नहीं कहा रहे है।
      एक क्षण के लिए तो मैं स्‍तब्‍ध रह गया। जब मेरे अनुवादन नर्तन ने कहा: यक अपना सिर दूसरे ढंग से चलाते है। न वे कुछ सीखते है न आप ही सीखते है—दोनों के बीच मैं मुश्‍किल में पड़ जाता हूं। मुझे मालूम है कि ऐसा ही होने वाला है। मैं उन्‍हें याद दिलाने के लिए चिकोटी काटता हूं, धक्का मारता हूं। किंतु जब आप उनसे प्रश्न पूछते है तो...
      वास्‍तव में अपनी आदत को बदलना आसान नहीं है। इस आदत के अनुसार ही हमारा व्‍यवहार होता है। केवल आदत जापानियों की ही यह आदत क्‍यों है। शायद ये किसी दूसरे प्रकार के बंदर  के वंशज हैं। बस यहीं एक उपास है इसको समझाने का। आरंभ में दो बंदर थे। उनमें एक जापानी था।
      मैं इस घोड़े वाले आदमी के पीछे रहता था। कि मुझे वह तरकीब बता दो। उसका घोड़ा भी वह सब कर देता था जो प्रसिद्ध घोड़ा हैंस करता था। यह आदमी बहुत गरीब था और उसकी आमदनी का सहारा यही घोड़ा था। आखिर मुझसे पीछा छुड़ाने के लिए उसने मुझे उसका रहस्‍य बता ही दिया। मैंने उससे वादा किया कि मैं यह बात किसी को नहीं बताऊंगा। परंतु तुम मुझे अपना यह घोड़ा केवल एक घंटे के लिए दे दो। मैं इसे अपने स्‍कूल ले जाना चाहता हूं। मैं किसी से कुछ भी नहीं कहूंगा।
      उसने कहा: अच्‍छा वह किसी तरह मुझसे अपना पीछा छुड़ाना चाहता था। इसलिए उसने मेरी बात मान ली और मुझे उस घोड़े का रहस्‍य बता दिया। सीधी सी बात था कि उसने अपने घोड़े को इस प्रकार प्रशिक्षित किया था कि जब वह अपने सिर को एक और मोड़ता तो घोड़ा भी अपने सिर को उसी और मोड़ लेता था। लोग तो घोड़े की और देखते, घोड़े  के मालिक की और किसी की निगाह न जाती। मालिक एक कोने में खड़ा रहता। वह अपने सिर को इतने धीरे से हिलाता कि देखने वाला कुछ भी न भांप पाता। किंतु घोड़े को पता चल जाता। जब मालिक अपना सर न हिलाता तो घोड़ा अपना सिर एक और से दूसरी और हिलाने लगता। उसको इसी प्रकार से प्रशिक्षित किया गया था। उसकी टाप का भी यही कारण था।
      घोड़ा न तो गणित जानता था। न किसी अंक की उसे जानकारी थी। जब उससे पूछा जाता कि दो और दो का जोड़ कितना होता है। तो वह चार बार टाप देता और खड़ा हो जाता। असल में बात यह थी कि जब मालिक अपनी आंखे खोलें  रखता तो घोड़ा टापता रहता ओर जब उसकी आंखें बंद हो जाती तो घोड़ा टापना बंध कर देता। बस यहीं रहस्‍य था उस प्रसिद्ध हैंस नामक घोड़े का। यह गरीब आदमी तो एक गरीब गांव का रहनेवाला था और हैंस तो बहुत प्रसिद्ध घोड़ा था—वह जर्मनी का था। जर्मनी के लोग जो काम करते है अच्‍छी तरह सोच-समझ कर। जर्मनी के एक गणितज्ञ ने तो तीन साल तक खोज की इन रहस्‍यों को जानने के लिए। जो मैं तुम्‍हें बता रहा हूं।
      जब उस आदमी ने मुझे ये तरकीबें अच्‍छी तरह से बता दी तो मैं घोड़े को अपने स्‍कूल ले गया। मुझे देखते ही बच्चे तो खुशी से उछलने लगे और हेड मास्टर ने मुझसे कहा: ये अजीब-अजीब चीजें तुम्‍हें कहां से मिलती है। इस गांव में ही मैं रहता हूं लेकिन मुझे इस घोड़े के बारे में कुछ भी नहीं मालुम था।
      मैंने कहा: इसके लिए तो पारखी आंखें चाहिए। हमेशा इसकी खोज में रहना पड़ता है। इसीलिए तो मैं स्‍कूल रोज नहीं आता।
      उन्‍होंने कहा: यह तो अच्‍छा है। मत आओ, खोज तो करनी ही चाहिए। जब तुम स्‍कूल आते हो तो सारा काम ठप्‍प हो जाता है। क्‍योंकि तुम अपनी हरकतों से छात्रों का ध्‍यान भंग कर देते हो। मैंने तुम्‍हें दूसरों की तरह बैठे हुए अपना काम करते कभी नहीं देखा।
      मैंने कहा: यह काम करने लायक ही नहीं है। अगर सब लोग इस काम को कर रहे है तो इसका मतलब ही यही है कि यह काम करने लायक नहीं है। इस स्‍कूल में हर व्‍यक्‍ति यही काम कर रहा है। भारत में सत्‍तर लाख गांव है और हर गांव में हर आदमी वही काम कर रहा है। वह करने योग्‍य ही नहीं है। मैं कुछ अलग ढंग का काम खोजता रहता हूं। ऐसा काम जो कोई नहीं करता और उसे आप लोगों के सामने मुफ्त में कर दिखाता हुं। मैं जब भी आता हूं, एक मेला सा लग जाता है। और आप इतनी उदासी से मेरी और देख रहे है। मैं तो ठीक-ठाक हूं।
      उन्‍होंने कहा: मैं तुम्‍हारे लिए उदास नहीं हूं। मुझे तो अपना खयाल आता है। यहीं कि मुझे इस स्‍कूल का हेड मास्टर बनना पडा।    
      वे बुरे आदमी नहीं थे। मेरे प्राइमरी स्‍कूल के अंतिम दिन उनकी क्‍लास में गुज़रे। वह चौथी क्‍लास थी। उनके लिए मैंने कोई मुसीबत खड़ी नहीं की किंतु छोटी-मोटी तो पैदा होती ही रहती थी। उन पर मेरा कोई वश नहीं था। किंतु जब मैंने उनकी उदास आंखों को देखा तो मैने कहा: अब मैं कभी ऐसा कुछ नहीं लेकर आऊँगा जिससे स्‍कूल की शाति भंग हो। इसका मतलब यह है कि अंग मैं यहां पर आऊँगा ही नहीं। हां, मुझे अपना सर्टिफिकेट लेने एक बार आना पड़ेगा। अगर उसे आप चपरासी को दे दें तो मैं उससे ले लुंगा। और मैं स्‍कूल में दुबारा प्रवेश नहीं करूंगा।
      और सचमुच मैं अपना सर्टिफिकेट लेने के लिए भी स्‍कूल के भीतर नहीं गया। मैंने चपरासी को लेने के लिए भेजा। उसने हेड मास्टर से कहा: वह लड़का कह रहा है कि जब स्‍कूल में मेरा आना पसंद नहीं किया जाता तो अब इस सर्टिफिकेट के लिए मैं क्‍यो आऊं। तुम ही उसको ले आओ और मुझे वह हाथी फाटक पर दे दो।
      मैं उस चपरासी से बहुत प्रेम करता था। बहुत ही सुंदर आत्‍मा थी। उन्‍नीस सौ साठ में उसकी मृत्‍यु हुई। संयोग वश में उस समय वहीं था। मुझे ऐसा लगाता है कि मैं उसके कारण ही वहां पर था। ताकि मैं उसको मरता हुआ देख लू। बचपन से ही मृत्‍यु में मेरी दिलचस्पी बहुत गहरी रही है। मृत्‍यु का रहस्‍य जीवन के रहस्‍य से कहीं अधिक गहरा है।
      मैं यह नहीं कहता कि तूम आत्‍महत्‍या कर लो किंतु यह याद रखो कि मृत्‍यु शत्रु नहीं है। और वह अंत भी नहीं है। यह कोई फिल्‍म नहीं है कि जिसका अंत समाप्‍त के साथ हो जाती है। कोई अंत नहीं है। जीवन की सरिता में जन्‍म और मृत्‍यु तो लहरें है। घटनाएं है। निश्चित ही मृत्‍यु जन्‍म से की अधिक समृद्ध है। जन्‍म तो खाली है। मृत्‍यु तो जीवन भर का अनुभव है। यह तो केवल तुम पर निर्भर करता है। कि तुम अपनी मृत्‍यु को कितना महत्‍वपूर्ण और अर्थपूर्ण बनाते हो। और यह इस पर निर्भर करता है कि तुमने जीवन को कितनी गहराई से जिया है। अधिक अम्र तक जीने से दीर्घायु होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
      बहुत वर्षो के बाद मैं उस प्राइमरी स्‍कूल में गया। मुझे यह देख कर बड़ा दुःख और अचरज हुआ कि सब कुछ गायब हो गया था सिवाय उस हाथी फाटक के। वहां पर बहुत से पेड़ थे। वे सब काट दिए गए थे। बहुत से फूलों वाले पेड़ इधर-उधर लगे हुए थे किंतु अब एक भी दिखाई नहीं देता था। मैं तो वहां पर केवल उस बूढ़े चपरासी के लिए गया था जिसकी अभी-अभी मृतयु हुई थी। वह स्‍कूल के फाटक के पास रहता था। अच्‍छा होता अगर मैं वहां न जाता, क्‍योंकि मेरे मन में स्‍कूल की बड़ी सुंदर यादें थीं,और वे वैसी ही बनी रहती अगर मैं नहीं जाता। किंतु अब तो बहुत मुशिकल है। अब तो वह एक ऐसे पुराने चित्र के समान है जिसके सब रंग  फीके पड़ गए है, रेखाएं भी गायब हो गई हैं—बस केवल फ्रेम ही बच गए है।
      मेरे स्‍कूल के केवल एक अध्‍यापक मुझसे मिलने पूना आया थे। उस समय भी वे मुझसे बहुत प्‍यार करते थे किंतु मैने कभी यह सोचा भी नहीं था कि वे मुझसे मिलने पूना आएंगे। एक गरीब आदमी के लिए यह लंबा सफर बहुत महंगा है।
      मैंने उनसे पूछा: आपको यहां आने की इच्‍छा कैसे हुई। किस बात से प्रेरित होकर यहां आना पडा।
      उन्‍होंने कहा: मैं यह देखने आया हूं कि तुम्‍हारे बारे में गहरे में मैं जो सोचता था वह सच हुआ है या नहीं। मुझे सदा ऐसा लगता था कि बाहर से तुम जैसे दिखते हो वैसे वास्‍तव में तुम नहीं हो। तुम कुछ और ही हो।
      मैंने कहा: लेकिन इसके बारे में आपने मुझसे पहले  कभी नहीं कहा।
      उन्‍होंने कहा: वास्‍तव में मुझे भी बहुत अजीब लग रहा था कि मैं किसी से यह कहूं कि तुम असल में वह नहीं हो जो तुम दिखाई दे रहे हो। इसलिए मैं चुप ही रहा। इसके बारे में किसी से कुछ नहीं कहां। मेरे मन में यह विचार बार-बार आता था। अब तो मैं बूढ़ा हो गया हूं। इसलिए मैं देखना चाहता था कि तुम्‍हारे बारे में मैं जो सोचता था वह सच हुआ या नहीं।
      वह अध्‍यापक संन्‍यासी बन कर वापस गए। उन्‍होंने कहा: अब तो मैंने तुम्‍हें और तुम्‍हारे लोगों को देख लिया है। मैं बूढा हो गया हूं, अधिक दिन तक जीवित नहीं रहूंगा। इस उम्र में संन्‍यास लेकर मैं अपने जीवन को सार्थक कर देना चाहता हूं।
      मेरे लिए केवल दस मिनट.......
--ओशो

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