सम्मदंसणणाणं, एसोलहदि त्ति णवरिववदेसं।
सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदोजोसोसमयसारो।। 66।।
दंसणाणचरित्तणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिणिण वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो।। 67।।
णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचि वि अन्नं,ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।। 68।।
अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति।। 69।।
आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरित्ते य।
आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे।। 70।।
हिमाच्छादित गौरीशंकर के शिखर करीब आने लगे। महावीर क्रमशः ऊंचाइयों और ऊंचाइयों पर उड़ रहे हैं! समझना क्रमशः कठिन होता जायेगा। क्योंकि जिन ऊंचाइयों की हमें आदत नहीं है, उन ऊंचाइयों को समझना तो दूर, उन ऊंचाइयों पर श्वास लेना भी कठिन हो जाता है। और जिन ऊंचाइयों का हमें कोई अनुभव नहीं, उनके संबंध में शब्द भला हमें सुनायी पड़ जायें, अर्थ का विस्फोट नहीं होता है। गुजर जाते हैं शब्द हमारे पास से। अगर बहुत बार सुने हुए हैं तो ऐसी भ्रांति भी होती है कि समझ में आ गये।
इसे स्मरण रखना कि महावीर जो कह रहे हैं, वह अगर समझ में न आये तो स्वाभाविक है; समझ में आ जाये तो संदेह करना, क्योंकि वही अस्वाभाविक है।
अनुभव से ही समझ में आयेगा। उसके पहले ज्यादा से ज्यादा इतना ही हो सकता है कि अनुभव के लिए एक प्यास प्रज्वलित हो जाये, कि अनुभव की आकांक्षा पैदा हो, कि काश, ऐसी ऊंचाइयों पर हम भी उड़ सकते! जिन दूर की बातों को महावीर पास ला रहे हैं, काश हमारे भी जीवन की संपदा उन्हीं स्वर्ण-रत्नों से बन सकती!
प्यास उठ आये, बस इतना काफी है।...तो समझ में न आये, तो धैर्य रखना। घबड़ाना मत! और ऐसा मत सोच लेना कि हमारी समझ में आएगा ही नहीं। और ऐसा तो भूलकर भी मत सोच लेना कि यह बात समझने योग्य ही नहीं है। क्योंकि हमारा मन इस तरह के बहुत उपाय करता है। अहंकारी मन हो तो वह कह देता है, इन बातों में कुछ सार नहीं। इस तरह हम अपने अहंकार को सुरक्षित कर लेते है। इस तरह ऊंचाई पास आती थी तो हम उससे दूर हट जाते हैं। क्योंकि ऊंचाई के पास हमें अपनी नीचाई मालूम पड़ने लगती है!
ऊंचाइयों से दूर मत हटना। उन्हें बुलाना! उनकी खोज करना! तुम्हें जितने बड़े शिखर मिल जायें, उतना ही शुभ है। क्योंकि जितने तुम्हें शिखर मिलें, उतने ही अहंकार के विसर्जन की संभावना बढ़ेगी, उतना ही तुम छोड़ पाओगे यह "मैं' का खयाल। इसीलिए तो तीर्थंकरों, प्रबुद्ध पुरुषों को हमने बहुत स्वागत से कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी मौजूदगी हमें हीन करती मालूम पड़ने लगी। उनके सामने हम खड़े हुए तो छोटे मालूम होने लगे। उनके पास हम आये, तो हम जैसे जमीन पर चींटियां रेंगती हों, ऐसे रेंगते हुए मालूम होने लगे। तो दो ही उपाय थे--या तो हम भी उनके साथ उड़ना सीखें और या हम उन्हें इनकार ही कर दें कि यह सब कल्पना-जाल है; कि ये दूर की बातें सब काव्य-शास्त्र हैं; कि ये बातें कहीं हैं नहीं; ये सब बातें हैं। या हम यह कहकर हट जायें कि ये बातें हमारी समझ में नहीं पड़तीं, तो जो समझ में ही नहीं पड़ती हैं उन बातों को मानकर हम चलें कैसे? वहां भी भूल हो जायेगी।
ध्यान रखना: जो तुम्हारे समझ में नहीं पड़ता वह इसलिए समझ में नहीं पड़ता कि उसका कोई अनुभव नहीं हुआ है। अनुभव के बिना समझ कैसे होगी? अनुभव के बिना कोई अंडरस्टैंडिंग, कोई प्रज्ञा का प्रादुर्भाव नहीं होता। तो तुम यह मत कहना कि जब समझ में ही नहीं आता तो हम चलें कैसे? क्योंकि चलोगे, तो ही समझ में आयेगा। यह तो तुमने अगर ऐसा मान लिया तो अपने जीवन में एक ऐसे पत्थर को रख लिया कि उसको पार करना फिर असंभव हो जायेगा।
कोई प्रेम को जानता नहीं; प्रेम करता है तब जानता है। और न ही कोई परमात्मा को जानता है, जब तक उतरता नहीं उस गहराई में। और न ही कोई आत्मा को जानता है, जब तक डूबता नहीं अपने आत्यंतिक केंद्र पर।
तो समझ नहीं है, इसको पत्थर की तरह उपयोग मत कर लेना। समझ आयेगी ही अनुभव से। इसलिए समझ से भी ज्यादा जरूरी है साहस। इसे मैं फिर से दोहराऊं: अध्यात्म के मार्ग पर समझ से भी ज्यादा जरूरी है साहस। क्योंकि साहस हो तो आदमी अनुभव में उतरता है; अनुभव में उतरे तो समझ आती है। इसलिए जिनको तुम समझदार कहते हो वह वंचित ही रह जाते हैं। क्योंकि समझदार यह कहेगा, यह अपनी समझ में नहीं आती। जो समझ में नहीं आती, चलूं कैसे? पता नहीं कोई भटकाव न हो जाये! पता नहीं जो हाथ में है, कहीं वह भी न खो जाये! ये बड़ी दूर की बातें, आकाश की बातें, कहीं मेरी पृथ्वी को उजाड़ न दें! एक छोटा घर बनाया है--वासना का, तृष्णा का--एक छोटा संसार रचाया है। ये कहीं परमात्मा और आत्मा के खयाल, यह दिव्य प्यास, कहीं मेरी सारी घर-गृहस्थी को डांवांडोल न कर दे।
तो समझदार आदमी कहता है, जब समझ में आयेगी तब करेंगे। साहसी कहता है, समझ में नहीं आती तो करेंगे और देखेंगे और समझेंगे।
साहस! वस्तुतः दुस्साहस चाहिए! इसलिए तो महावीर को हमने महावीर नाम दिया। उन्होंने बड़ा दुस्साहस किया। वह समझ के लिए न रुके। वह अनुभव में उतर गये।...जुआरी की हिम्मत! सब दांव पर लगा दिया। फिर समझ भी आयी। क्योंकि समझ अनुभव की छाया की तरह आती है।
तो दुनिया में दो तरह की समझ है। एक तो समझदारों की, जिनको तुम समझदार कहते हो--उनकी समझ अनुभव से नहीं आती; उनकी समझ सिर्फ बौद्धिक है, सिर्फ बुद्धि की है। वह शब्दों को समझ लेते हैं; शब्दों का संयोजन समझ लेते हैं; शब्दों का व्याकरण समझ लेते हैं; शब्दों का अर्थ भी बिठा लेते हैं--लेकिन बस सब खेल शब्दों का होता है!
शब्दों को हटा लो तो उनके पीछे कोई समझ बचेगी नहीं; शब्द के हटते ही सारी समझ हट जायेगी। तो समझ उनकी शब्दों का ही जोड़ है।
और एक ज्ञानी की समझ है; तुम उससे सब शब्द छीन लो तो भी उसकी समझ न छीन सकोगे। क्योंकि उसकी समझ अनुभव की है, शब्दों की नहीं। अगर शब्दों का उसने उपयोग भी किया है तो अपनी समझ को तुम तक पहुंचाने के लिए किया है। शब्दों के उपयोग से उसने समझ को पाया नहीं है। वह बौद्धिक नहीं है--अस्तित्वगत है, एक्जीसटेंशियल है। उसने जाना है, जीया है। तो तुम उसके सारे शब्द छीन लो, तब भी तुम उसकी समझ न छीन पाओगे। उसकी समझ शब्दों से बहुत गहरी है। उसने मौन में समझ पायी है। उसने तो खुद ही शब्द छोड़ दिये थे, तब समझ आयी है।
तो इसे खयाल रखना। और एक खतरा है कि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इन वचनों को समझ लेंगे, समझते मालूम पड़ेंगे; क्योंकि ये वचन कोई बहुत दुरूह नहीं हैं। इनकी दुरूहता अगर कहीं है तो अनुभव में है, वचनों में नहीं है। वचन तो बड़े सीधे-साफ हैं। महावीर ने एक भी जटिल विचार का उपयोग नहीं किया--कोई ज्ञानी पुरुष कभी नहीं किया है। जटिल विचारों का उपयोग तो वे लोग करते हैं जिनके पास कुछ भी नहीं है; और केवल बड़े-बड़े शब्दों की छाया में अपने अंधकार को छिपा लेना चाहते हैं।
दार्शनिक बड़े-बड़े शब्दों का उपयोग करते हैं; बड़े-बड़े लंबे वचनों का उपयोग करते हैं। तुम उनके वचनों के बीहड़ में ही खो जाओगे। तुम्हें यह पक्का हो ही न पायेगा कि वे क्या कहना चाहते थे। उनके पास कहने को कुछ था भी नहीं। लेकिन जो नहीं था उनके पास कहने को, उसको उन्होंने इस ढंग से फैलाया कि शब्द-जाल ऐसा बड़ा हो गया कि तुम समझ ही न पाये। न समझने के कारण कई बार तुम्हें लगता है, बड़ी गहरी बात है।
महावीर जैसे पुरुष सुलझाने को हैं, उलझाने को नहीं। उनके वचन सीधे-साफ हैं; दो टूक हैं; गणित की तरह स्पष्ट हैं। दो और दो चार--बस ऐसे ही उनके वचन हैं।
तो खतरा यह भी है कि तुम्हें वचन सुनकर ऐसा लगे कि अरे, समझ गये! वहां मत रुक जाना। वह समझ कुछ काम न आयेगी। अगर तुम महावीर के वचनों को सुनकर समझ गये तो फिर महावीर ने बारह वर्ष मौन और ध्यान साधा, तो बहुत कम बुद्धि के आदमी रहे होंगे। तुम सुनकर समझ गये। महावीर को बारह वर्ष लगे, कठोर तपश्चर्या के, गहन संघर्ष के, रत्ती-रत्ती अपने को छांटा और काटा और जलाया, निखारा, जब अंतरज्योति पूरी शुद्ध हो गयी तब उन्हें यह समझ पैदा हुई। तुम्हारा धुएं से भरा हुआ मन, ईंधन गीला, लपट कहीं दिखायी नहीं पड़ती, बस धुआं ही धुआं फैलता मालूम होता है--इसमें ये शब्द तुम्हें याद हो सकते हैं। बहुत से पंडितों को याद हैं। इन शब्दों को तुम तोते की तरह कंठस्थ कर ले सकते हो। उस याददाश्त को तुम प्रज्ञा मत समझ लेना।
तो दो बातें स्मरण रखना: समझ में न आयें तो इनकार मत करना; और समझ में आ जायें तो भी वहीं मत रुक जाना। इन दोनों के बीच में मार्ग है। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने योग्य है। इतना ज्यादा भी समझ में न आ जाये कि पा लिया। इतना समझ में आ जाये कि कुछ पाने योग्य है। प्यास जग जाये और यात्रा शुरू हो जाये। तो किसी दिन अनुभव भी घटेगा। तुम भी उड़ोगे उन आकाश की ऊंचाइयों में। तुम्हें भी पंख लगेंगे!
"जो सब नय-पक्षों से रहित है, वही समयसार है। उसी को सम्यक दर्शन और सम्यकज्ञान की संज्ञा दी है।'
सम्मदंसणणाणं, ऐसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं।
सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।।
"सव्वणयपक्खरहिदो'--जिसका मन सभी पक्षों से रहित है, जो सब नय-पक्षों से शून्य है, वही समयसार है। समयसार का अर्थ होता है: वही आत्मा की सार स्थिति है। वही अस्तित्व का निचोड़ है। वहीं तुम हो, वहीं तुम्हारी आत्मा है--जहां न कोई नय है, न कोई पक्ष है। इसे समझें।
साधारणतः तो हम नय-पक्षों से भरे हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई ईसाई है। जब तक तुम हिंदू हो, जैन हो, ईसाई हो, तब तक तुम्हें समयसार का पता न चलेगा। आत्मा का रस तुम्हें उपलब्ध न होगा। क्योंकि आत्मा न हिंदू, न मुसलमान, न जैन है।
जब तक तुम कहते हो, "मेरी ऐसी मान्यता है', तब तक तुम सत्य को न जान सकोगे, क्योंकि सभी मान्यताएं सत्य को जानने में बाधा बन जाती हैं। मान्यता का अर्थ है कि बिना जाने तुम जानते हो। तो जिसने बिना जाने जान लिया है, वह जान कैसे सकेगा फिर? मान्यता-शून्य होने का अर्थ है: मुझे पता नहीं; इसलिए मैं किसी मान्यता को कैसे पकडूं? मैं कैसे कहूं कि क्या ठीक है? मुझे कुछ भी पता नहीं है।
तो ऐसा जो अज्ञान में खड़ा हो जाता है शांत चित्त से, जबर्दस्ती ज्ञान को नहीं पकड़ लेता, छिपाता नहीं ज्ञान के आवरण में अपने को, ज्ञान के वस्त्रों में अपने को ढांकता नहीं, जो अपने अज्ञान को स्वीकार कर लेता है--वही व्यक्ति ज्ञान की तरफ पहला कदम उठाता है। यह बड़ा विरोधाभासी लगेगा। ज्ञान की तरफ पहला कदम अपने अज्ञान के साथ ईमानदारी से खड़े हो जाना है। हम में से बहुत कम लोग ही ईमानदारी से खड़े होते हैं अज्ञान के साथ। अज्ञान को स्वीकार करने में अहंकार को चोट लगती है। अहंकार चाहता है दावा करना कि मैं जानता हूं। तो हम शास्त्र से, परंपरा से, अन्यों से, शिक्षकों से, गुरुओं से, कहीं न कहीं से इकट्ठा कर लेते हैं ज्ञान।
तुम्हारा ज्ञान सभी कुछ नय-पक्ष है। वह तुमने इकट्ठा किया है, जाना नहीं है। पक्षपात से भरे हो तुम। हर चीज के संबंध में तुमने कुछ तय कर लिया है। तुम तय करके बैठे हो। तुम तय करके बैठे हो, इसलिए तुम्हारी आंख खाली नहीं है; पक्ष से आंख दबी है। पक्ष की कंकड़ी तुम्हारी आंख में पड़ी है। तो कंकड़ी जब आंख में पड़ी हो तो फिर कुछ नहीं दिखाई पड़ता।
महावीर कहते हैं, आंख खाली चाहिए, निर्मल चाहिए! आंख ऐसी चाहिए कि सिर्फ देखती हो और आंख में कुछ न पड़ा हो। क्योंकि अगर आंख में कुछ भी पड़ा हो तो जो तुम देखोगे वह विकृत हो जायेगा।
सोचो...अगर तुम जैन हो, पढ़ो गीता--तुम्हें समझ में आ जायेगा! तुम गीता पढ़ ही न पाओगे, तुम्हें रस ही न आयेगा। घड़ी-घड़ी तुम्हारा जैन धर्म बीच में खड़ा हो जायेगा। तुम्हें ऐसा लगेगा, ये कृष्ण तो अर्जुन को भ्रष्ट करने लगे। ऐसा तुम कहो या न कहो, तुम्हारे भीतर यह पक्ष खड़ा रहेगा। आज तक किसी जैन ने गीता पर कोई वक्तव्य नहीं दिया, कोई महत्वपूर्ण बात नहीं कही। गीता को किनारे हटा दिया है।
हिंदू से कहो कि महावीर के वचन सुने, पढ़े? पढ़ भी ले तो मुर्दा भाव से पढ़ जायेगा। क्योंकि भीतर तो वह जानता ही है कि सब गलत है। हिंदू से कहो कुरान को पढ़े, तो भीतर तो वह मानता ही है कि "क्या रखा है! कहां वेद, कहां उपनिषद! क्या रखा है कुरान में? वही कुरान के माननेवाले की स्थिति है। वही बाइबिल को माननेवाले की स्थिति है। बाइबिल को माननेवाला जब वेद पढ़ता है तो उसे लगता है, बस गांव के ग्रामीण गडरियों के गीत हैं, इससे ज्यादा नहीं। जब वेद को माननेवाला आर्यसमाजी पंडित बाइबिल को पढ़ता है तो उसमें से कुछ भी सार नहीं पाता; उसमें से सब कचरा-कूड़ा इकट्ठा कर लेता है।
अगर तुम्हें इस दृष्टि की, पक्षपात से भरी दृष्टि की, ठीक-ठीक उपमा चाहिए हो तो दयानंद का ग्रंथ "सत्यार्थ प्रकाश' पढ़ना चाहिए। वह पक्षपात से भरी आंख का, उससे ज्वलंत प्रमाण कहीं खोजना मुश्किल है। तो सभी में भूलें निकाल ली हैं उन्होंने--और बेहूदी भूलें, जो कि निकालनेवाले के मन में छिपी हैं, जो कहीं भी नहीं हैं। लेकिन निकालनेवाला पहले से मानकर बैठा है।
जो तुम मानकर बैठ जाते हो वह तुम खोज भी लोगे। अगर तुम्हीं मानकर बैठे हो तो फिर मुश्किल है। तुमने जानने के पहले अगर धारणा तय कर रखी है, तो तुम सत्य को कभी भी न जान पाओगे; तुम सत्य को कभी मौका न दोगे कि तुम्हारे सामने प्रगट हो जाये।
मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने एक मित्र दर्जी से कपड़े बनवाये। जब वह कपड़े पहनने गया, उठाने गया, दर्जी ने उसे पहनाकर बताया। उसे कपड़े जंचे नहीं; कुछ बेहूदे थे; कुछ अटपटे थे। कुछ शरीर पर बैठते भी न थे। लेकिन दर्जी प्रशंसा मारे जा रहा था। वह गुणगान किए जा रहा था। वह कह रहा था, "देखो तो जरा दाहिने आईने में! तुम्हारे मित्र भी तुम्हें पहचान न पायेंगे। तुम्हारी पत्नी भी शायद ही तुमको पहचान पाए। इतने सुंदर मालूम हो रहे हो...! जरा तुम बाहर तो जाओ, जरा सड़क पर चक्कर लगाकर आओ!'
मुल्ला बाहर गया--संकोच से भरा हुआ; क्योंकि बड़ा अटपटा-सा लग रहा था उसे उन कपड़ों में। जल्दी ही भीतर आ गया। जब वह भीतर आया तो दर्जी, जो उसका पुराना मित्र, बोला, "आइये राजकपूर साहब! बहुत दिनों बाद आये!'
अब दर्जी मानकर ही बैठा है कि गजब के कपड़े उसने सी दिये! जो तुम मानकर बैठे हो, तुम उसे सिद्ध करने की चेष्टा में लग जाते हो, जाने-अनजाने। तुम सब तरह से प्रमाण जुटाते हो। विपरीत प्रमाणों को तुम देखते ही नहीं। तुम्हारी आंखें चुनाव करने लगती हैं। जो पक्ष में पड़ता है तुम्हारे पक्ष के, वह तुम चुन लेते हो; जो विपक्ष में पड़ता है, वह तुम छोड़ देते हो।
सत्य को जानने का यह ढंग न हुआ। यह तो असत्य में जीने का ढंग हुआ। तो महावीर कहते हैं:
सम्मदंसणणाणं, एसो लहदि त्ति णवरि ववदेसं!
सव्वणयपक्खरहिदो, भणिदो जो सो समयसारो।।
जो सब नय-पक्षों से रहित है; जिसकी कोई धारणा नहीं, मान्यता नहीं; जिसका कोई विश्वास-अविश्वास नहीं; जो नग्न चित्त है; जो दिगंबर है; जिसके ऊपर कोई आवरण नहीं; आकाश ही जिसका आवरण है; विराट ही जिसका आवरण है; इससे कम को जिसने स्वीकार नहीं किया है--ऐसा नग्न चित्त, शांत मन, निष्पक्ष व्यक्ति--वही समयसार है। वह जान लेगा आत्मा का सारभूत, आत्मा का सत्य, उसे अस्तित्व की पहचान मिलेगी। वह अस्तित्व के मंदिर में प्रवेश पा सकेगा। पात्रता, पक्षपात रहित हो जाना है।
महावीर के पास लोग आते, प्रश्न पूछते, तो महावीर कहते, "तुम कुछ पहले से ही मानते तो नहीं हो? अगर मानते हो तो बात व्यर्थ, फिर संवाद न हो सकेगा।'
जब कोई मानकर ही चलता है तो विवाद हो सकता है, संवाद नहीं हो सकता। जब कुछ मानकर कोई भी नहीं चलता; जब कोई तैयार है सत्य के साथ जहां ले जाये; जब कोई इतना हिम्मतवर है कि सत्य जो दिखाएगा उसे स्वीकार करूंगा--तभी, महावीर कहते हैं, संवाद हो सकता है। तब महावीर कहते हैं, ज्यादा कुछ कहने को भी नहीं है। क्योंकि सत्य को कहा तो नहीं जा सकता। मैं कुछ इशारे कर देता हूं, तुम इनका पालन कर लो। इन इशारों के पालन करने से धीरे-धीरे तुम्हें भी वही अनुभव होने लगेगा जो मुझे हो रहा है। जिस द्वार से खड़े होकर मैं देख रहा हूं जीवन को, तुम भी देख सकोगे मेरे करीब आ जाओ। लेकिन अगर तुम मानते हो कि तुम्हें द्वार मिल ही गया है, तो फिर तुम मेरे करीब न आओगे और व्यर्थ खींचात्तानी होगी।
दुनिया में जहां भी जितनी बातचीत हो रही है, तुम अगर गौर करोगे तो बातचीत तो कहीं मुश्किल से होती है। संवाद कहां है? विवाद है। चाहे प्रगट हो, चाहे अप्रगट हो। जब भी दो व्यक्ति बात करते हैं तो खुलते कहां हैं? अपनी-अपनी चेष्टा में रत रहते हैं।
महावीर ने कोई शास्त्रार्थ नहीं किया; किसी से कोई विवाद नहीं किया। महावीर शंकराचार्य की तरह मुल्क में नहीं घूमे विवाद करते। महावीर की पकड़ बड़ी गहरी है। महावीर कहते हैं, विवाद से क्या होगा? अगर कोई पहले से मानकर बैठा है तो उसे मनाया नहीं जा सकता। और अगर जबर्दस्ती उसे चुप करा दिया जाये, तर्क से हो सकता है, तो भी उसका हृदय थोड़े ही राजी होता है! कभी-कभी ऐसा हुआ है कि तर्क में तुम किसी से हार गये हो, तो भी दिल में तो तुम घाव लिए रहे हो हो कि ठीक है, देखेंगे; आज जरा मुश्किल हो गयी, हम तर्क ठीक न खोज पाये! चुप कर दिये गये हो तुम, लेकिन तुम्हारा हृदय रूपांतरित तो नहीं हुआ। जबर्दस्ती तुम्हारी जबान रोक दी गयी है। यह हो सकता है, कोई तुमसे ज्यादा कुशल हो तर्क में।
तो तर्क में जो जीत जाता है, जरूरी नहीं कि उसके पास सत्य हो। और तर्क में जो हार जाता है जरूरी नहीं कि उसके पास सत्य न हो। यह भी हो सकता है, जिसके पास सत्य है उसके पास सत्य को सिद्ध करने का तर्क न हो। यह भी हो सकता है, जिसके पास सत्य को सिद्ध करने के तर्क हैं उसके पास कोई सत्य न हो। और जो कोई तर्क के द्वारा तुम्हें पराजित कर देता है वह केवल इतना ही सिद्ध कर रहा है कि वह तुमसे ज्यादा कुशल है, तुमसे ज्यादा अनुभवी है; इतना। उससे कुछ सिद्ध नहीं होता। और यह भी हो सकता है कि वह तुम्हारे पीछे चलने लगे, हार जाये तो तुम्हारे पीछे चले, तुम्हें मान ले। कल कुछ और मानता था, आज तुम्हें मान ले--लेकिन मान्यता तो मान्यता है। कल मानता था, ईश्वर नहीं है; आज तुमने तर्क दे-देकर सिद्ध कर दिया और उसने मान लिया कि ईश्वर है। कल एक मान्यता से भरा था, आज दूसरी मान्यता से भर गया है--विपरीत मान्यता से; लेकिन मान्यता तो दोनों ही मान्यताएं हैं। ज्ञान का जन्म न हुआ।
महावीर कहते हैं, एक पक्ष को दूसरे में नहीं बदलना है--पक्ष को गिरा देना है; तुम्हें निष्पक्ष होना है। इसलिए जैन भी महावीर के अनुयायी नहीं हैं। क्योंकि जैन होने में ही खराबी हो गयी। महावीर जैन न थे। महावीर के पास जैन होने का उपाय नहीं है। क्योंकि महावीर की मौलिक दृष्टि यही है कि सभी पक्ष भ्रष्ट कर देते हैं। अब जैन तो पहले से मानकर बैठ गया है कि महावीर ठीक हैं; इसीलिए वंचित हो गया है। पहले से मानकर बैठ गया कि महावीर जो कहते हैं, वह सही ही कहते हैं; इसीलिए महावीर से दूर हो गया है।
महावीर के साथ तो केवल वही खड़ा हो सकता है जो निष्पक्ष है--इतना निष्पक्ष कि यह भी नहीं कहता कि महावीर ठीक हैं। इतना ही कहता है कि मुझे पता नहीं; मैं खोजने को तैयार हूं। सूरज की कहीं से भी किरण आये, मैं पीछे जाने को तैयार हूं। मैं अनंत की यात्रा के लिए तैयार हूं।
और बिना मान्यता के यात्रा पर निकलना बड़ा दूभर है। क्योंकि तुम कहते हो कि जब कोई मान्यता ही नहीं है, तो हम यात्रा पर कैसे निकलें! वैज्ञानिक तक प्रयोग करने के पहले हाईपोथिसिस निर्मित करता है। हाईपोथिसिस का मतलब है, पक्ष तय करता है। तय करता है कि यह हो सकता है कम से कम। फिर यात्रा पर निकलता है।
महावीर का विज्ञान वैज्ञानिक के विज्ञान से भी ज्यादा गहरा है। महावीर कहते हैं, उतना पक्षपात भी खतरनाक है। क्योंकि उसी पक्षपात के कारण तुम वह देख लोगे जो नहीं था। और यह बात अब वैज्ञानिकों को भी समझ में आने लगी।
पोल्यानी ने एक बहुत अदभुत किताब लिखी है: पर्सनल नालेज। तीन सौ वर्ष की वैज्ञानिक खोज के बाद वैज्ञानिकों को भी यह सिद्ध हो गया है कि हमारा जो ज्ञान है वह इम्पर्सनल नहीं है, अवैयक्तिक नहीं है; वह भी वैयक्तिक है। क्योंकि जो वैज्ञानिक खोज करने जाता है, उसकी धारणा वह जो खोज करता है उस पर आरोपित हो जाती है, उसको रंग देती है। इसलिए हम जो भी जानते हैं, वह वस्तुतः ऐसा है, कहना मुश्किल है। खोजनेवाला उस पर हावी हो जाता है।
तो पहले तो हम सोचते थे...अभी एक बीस वर्ष पहले तक वैज्ञानिक यही सोचते थे कि विज्ञान निष्पक्ष है। अगर कोई आदमी किसी स्त्री के संबंध में कहता है, बड़ी सुंदर और तुम्हें सुंदर नहीं लगती, तो तुम कहते हो, पसंद-पसंद की बात है। इसमें कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता।
तुम कहते हो, "चाहत की बात है। अपने रुझान की बात है। तुम्हें सुंदर मालूम पड़ती है, मुझे सुंदर नहीं मालूम पड़ती।' झगड़ा खड़ा नहीं होता। क्योंकि जो आदमी कहता है, यह स्त्री सुंदर है, वह इतना ही कह रहा है कि मुझे सुंदर मालूम पड़ती है। यह पर्सनल, वैयक्तिक बात है; इसमें झगड़ा नहीं है। एक आदमी को एक तरह की सिगरेट पसंद पड़ती है, दूसरे आदमी को दूसरी तरह की पड़ती है। एक आदमी को एक तरह का साबुन पसंद है, दूसरे को दूसरी तरह का पसंद है। एक आदमी को एक तरह का फूल लुभाता है, दूसरे को दूसरी तरह का लुभाता है। कोई कहता है सुबह बड़ी सुंदर है, कोई कहता है मुझे जंचती नहीं--तो कोई झगड़ा खड़ा नहीं होता; विवाद का कोई कारण नहीं, यह व्यक्तिगत रुझान है। लेकिन अगर कोई आदमी कहे, यह स्त्री सुंदर है, यह वैज्ञानिक सत्य है, तो फिर झगड़ा खड़ा होगा। वैज्ञानिक सत्य कहने का अर्थ यह हुआ कि यह सभी के लिए सुंदर है। तो फिर अड़चन आयेगी।
अब तक वैज्ञानिक मानते थे कि उनका सत्य वैज्ञानिक है और बाकी जो वक्तव्य हैं वे कवियों के हैं। लेकिन पोल्यानी की किताब ने और पोल्यानी की खोजों ने जीवनभर यह सिद्ध करने की कोशिश की कि विज्ञान भी वैयक्तिक है। आइंस्टीन जो कह रहा है, वह आइंस्टीन कह रहा है। न्यूनट जो कह रहा है, वह न्यूटन कह रहा है। यद्यपि आइंस्टीन जो कह रहा है वह इतने प्रबल तर्क से कह रहा है कि अभी हम उसका विरोध न कर पायेंगे जब तक कि प्रबलतर आइंस्टीन न आ जाये। और यह तीन सौ साल में निरंतर हुआ। न्यूटन ने जो कहा वह आइंस्टीन ने गलत कर दिया। ऐसी-ऐसी चीजें जिनके बाबत हम सोचते थे बिलकुल सही हैं, वह भी सही न रहीं। ज्यामति जैसा शास्त्र भी सही न रहा। इकलेट ने जो सिद्ध किया था, वह गलत हो गया। दूसरे लोगों ने उससे विपरीत मान्यताएं सिद्ध कर दीं। गणित जैसा विषय भी अब वैज्ञानिक नहीं रहा। क्योंकि गणित की सामान्य मान्यताओं के विपरीत भी मान्यताएं लोगों ने सिद्ध कर दीं और नये गणित विकसित हो गये। तो अब तो दिखायी पड़ता है कि सारा ज्ञान व्यक्तिगत है, रुझान है। वह आदमी के ऊपर निर्भर है।
महावीर कहते हैं, जो परम सत्य को मानने चला है, मान्यता तो दूर, हाइपोथिसिस, परिकल्पना भी ठीक नहीं, नय भी ठीक नहीं। नय का अर्थ होता है: बड़ी सूक्ष्म-सी रेखा दृष्टि की; कोई दृष्टिकोण; कोई हाइपोथिसिस। वह भी ठीक नहीं। उसे खाली जाना चाहिए--कोरा। तुम्हारे मन के कागज पर कुछ भी न लिखा हो, अन्यथा जो लिखा है उसका प्रक्षेपण हो जायेगा। तुम्हारा मन का कागज बिलकुल कोरा हो। इसका अर्थ हुआ, तुम्हारा मन सक्रिय रूप से भाग न ले ज्ञान की खोज में, निष्क्रिय रहे; एक्टिव न हो, पैसिव रहे। स्त्रैण हो तुम्हारा चित्त! सिर्फ जो हो रहा है उसको स्वीकार करे; लेकिन कैसा होना चाहिए, कैसा होता, ऐसी कोई धारणा प्रक्षेपण न करे। इसे खयाल में लेना।
जगत में खोज के दो उपाय हैं--एक निष्क्रिय, एक सक्रिय। सक्रिय में तुम चेष्टा करते हो कुछ खोजने की; निष्क्रिय में तुम केवल निष्पक्ष भाव से खड़े होते हो। सक्रिय चेष्टा विचार बन जाती है; निष्क्रिय चेष्टा ध्यान बन जाती है। जब तुम सक्रिय होकर खोज में लग जाते हो तो तुम विचारों से भर जाते हो; क्योंकि विचार मन के सक्रिय होने का अंग हैं। मन जब सक्रिय होता है तो विचार से भर जाता है। मन जब निष्क्रिय होता है तो कोरा रह जाता है। आकाश में बादल हों तो सक्रिय; आकाश में कोई बादल न हो तो निष्क्रिय, कोई क्रिया नहीं हो रही।
महावीर कहते हैं, मन की सारी क्रिया शून्य हो जाये, नय-पक्षरहित हो जाये--सव्वणयपक्खरहिदो--तो जो शेष रह जाता है उस निष्क्रिय चित्त की दशा में जिसको लाओत्सु ने वू-वेइ कहा है--ऐसी निष्क्रियता, दर्पण जैसी निष्क्रियता; जैसे दर्पण "जो है' उसको झलका देता है। अगर दर्पण कुछ जोड़ता है, घटाता है, तो सक्रिय हो गया; जैसा है वैसा का वैसा, तैसे का तैसा झलका देता है। उस स्थिति को महावीर कहते हैं, उपलब्ध हो जाओ तो वही समयसार है। वही अध्यात्म का निचोड़ है। वहीं से तुम्हें अनुभव का जगत शुरू होगा। उसी को सम्यक दर्शन और उसी को सम्यक ज्ञान की संज्ञा दी है।
महावीर कहते हैं, और सब तो शब्द हैं, मगर असली बात वही है। सम्यक ज्ञान कहो, सम्यक दर्शन कहो या कुछ और कहना हो--ध्यान, समाधि, निर्विकल्प दशा जो भी कहना हो कहो। लेकिन एक बात तय है कि वह निष्क्रिय दशा है। जिसमें तुम कुछ भी हिस्सा नहीं बंटाते; तुम सिर्फ खड़े रह जाते हो। इसे थोड़ा अभ्यास करना शुरू करो। यह मेरे कहने भर से साफ न हो जायेगा--इसका थोड़ा अभ्यास करना शुरू करो। कभी इसकी झलक मिलेगी। नाच उठोगे तुम, जब इसकी पहली झलक मिलेगी। तुम भरोसा न कर पाओगे कि अरे, मैं अब तक यह क्या करता रहा! तुम्हारा सारा जीवन तब एक नयी रूप-रेखा से भर जायेगा। थोड़ा अभ्यास करो।
शांत बैठकर वृक्ष को देखते हो तो देखते ही रहो। सक्रिय मत बनो। इतना भी मत कहो कि यह पीपल का वृक्ष है। यह भी मत कहो कि यह गुलाब की झाड़ी है। यह भी मत कहो कि गुलाब कितने सुंदर हैं। यह भी मत कहो कि अहा, कितने प्यारे फूल खिले हैं! ऐसा मन में कुछ भी मत कहो। क्योंकि ये सब नय-पक्ष हैं; ये सब तुम्हारी मान्यताएं हैं।
गुलाब का फूल तो बस गुलाब का फूल है--न सुंदर, न असुंदर। सुबह तो बस सुबह है। सब वक्तव्य तुम्हारे हैं; सुबह तो अवक्तव्य है। उसके बाबत तो कोई वक्तव्य नहीं हो सकता। अनिर्वचनीय है। सब वचन तुम्हारे हैं। तुम अपने को हटा लो। तुम कुछ कहो ही मत। तुम सक्रिय बनो ही मत। तुम सिर्फ सुबह को देखते रह जाओ। ऊगता है सूरज, ऊगने दो। वृक्षों में हवा सरसराती है, सरसराने दो। तुम शब्द न दो। तुम शब्द को मत बनाओ। तुम शब्द से रिक्त और शून्य देखते रहो, देखते रहो। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे-धीरे अभ्यास घना होगा। कभी ऐसा क्षण आ जायेगा, एक क्षण को भी, कि तुम सिर्फ देखते रहे और तुम्हारे भीतर डालने को कुछ भी न था। तुमने कुछ भी न डाला अस्तित्व में, तुम सिर्फ खड़े देखते रहे, दर्शक, द्रष्टा-मात्र, जिसको महावीर कहते हैं ज्ञायक-मात्र--सिर्फ देखते रहे! उस घड़ी में एक झरोखा खुलता है। पहली दफा अस्तित्व तुम्हारे सामने अपने रूप को प्रगट करता है। पहली बार तुम उसे देखते हो, जो है। क्योंकि पहली बार तुम कुछ जोड़ते नहीं, मिलाते नहीं, तुम कुछ डालते नहीं। तुम भी शुद्ध होते हो उस घड़ी में और अस्तित्व भी शुद्ध होता है। दो शुद्धियां एक-दूसरे का साक्षात्कार करती हैं। इसे महावीर कहते हैं समयसार।
तुमने कभी खयाल किया! दूधवाला दूध में पानी मिला लाता है; तुम कहते हो अशुद्ध कर दिया। तुमने इस पर कभी विचार किया कि उसने शुद्ध पानी मिलाया हो तो? अशुद्ध क्यों कह रहे हो? वह कहेगा कि हमने तो दोहरा शुद्ध कर दिया--शुद्ध पानी शुद्ध दूध, दोनों को मिलाया; अशुद्धि तो कुछ मिलायी नहीं है। पानी भी शुद्ध था, प्राशुक था। दूध भी शुद्ध था। अशुद्धि कैसे कह रहे हो, किस कारण कह रहे हो? फिर भी तुम कहोगे, दूध अशुद्ध है।
अशुद्धि का कारण यह नहीं कि तुमने अशुद्धि मिलायी। दो शुद्धियां भी मिला दो तो अशुद्धि का परिणाम आता है। अशुद्ध कहने का इतना ही अर्थ है कि दूध अब दूध न रहा और पानी पानी न रहा। तुम खयाल रखना, दूध ही अशुद्ध नहीं होता, पानी भी अशुद्ध हो गया। तुम दूध को कहते हो अशुद्ध हो गया, पानी को नहीं कहते; क्योंकि पानी तो मुफ्त मिलता है, इसलिए कोई चिंता नहीं है, कोई आर्थिक सवाल नहीं उठता। तुम कहते हो, दूध अशुद्ध हो गया। लेकिन दूसरी बात भी खयाल रखना, पानी भी अशुद्ध हो गया है। अगर किसी क्षण शुद्ध पानी की जरूरत हो, तब तुम समझोगे कि अरे, यह तो पानी भी अशुद्ध हो गया, दूध मिला दिया! मिलावट अशुद्धि है।
तो जब तुम अस्तित्व में मिलावट करते हो, जब तुम कुछ डालते हो, उंडेलते हो, जब तुम दूध में पानी डाल देते हो, तब सब अशुद्ध हो जाता है--तुम भी, अस्तित्व भी। जब तुम खड़े रह जाते हो--तटस्थ, साक्षी; यहां अस्तित्व, यहां तुम; दो दर्पण एक-दूसरे के सामने, बिना कुछ डाले हुए--तब दो शुद्धियों का साक्षात्कार होता है।
इस साक्षात्कार की अवस्था को महावीर कहते हैं समयसार। और जब तक यह न हो जाये तब तक तुम्हारी जिंदगी नाममात्र को जिंदगी है, अशुद्ध है, कुनकुनी जिंदगी है। इसमें ज्वाला न होगी। इसमें प्रकाश...यह ज्योतिर्मय न होगी। इसमें आनंद के फूल न लगेंगे, न प्रसाद होगा।
जीस्त है किसी मुफलिस का चिरागखाना
उसने सीखा ही नहीं खुलके फुरोजां होना।
नहीं, जिंदगी तो किसी गरीब का चिराग नहीं है। लेकिन हम सबने जिंदगी को गरीब का चिराग बना दिया है। यह खिलकर जल ही नहीं पाता, यह खुल के प्रज्वलित नहीं हो पाता। यह इसकी ज्योति ज्योति ही नहीं बन पाती--बुझी-बुझी, बुझी-बुझी, टिमटिमाती!
जीस्त है किसी मुफलिस का चिरागखाना
उसने सीखा ही नहीं खुलके फुरोजां होना
नहीं, जिंदगी तो किसी गरीब का चिराग नहीं है। लेकिन हम सबने जिंदगी को गरीब का चिराग बना दिया है। क्योंकि हमने जिंदगी को मौका ही नहीं दिया। हमने जिंदगी पर इतनी शर्तें लगा दी हैं। हमने जिंदगी पर इतने अवरोध खड़े कर दिये हैं, हमने जिंदगी की ज्योति के आसपास इतने पक्ष-विपक्ष, धारणाएं, मान्यताएं, विचार, ऐसा घेरा बांध दिया है, किला खड़ा कर दिया है, ईंट पर ईंट रख दी है विचारों और पक्षों की, कि जिंदगी की लपट उठे कैसे, प्रगट कैसे हो?
जिसे तुम अभी टिमटिमाता हुआ दीया जानते हो, वही महावीर में प्रज्वलित सूर्य होकर जला है। वही जीवन! वही कबीर ने कहा है कि एक सूरज, एक सूरज कहने से न हो सकेगा; जिस दिन मैं जागा, हजार-हजार सूरज मेरे भीतर एक साथ जल उठे। उस प्रकाशमयी दशा के लिए कोई उपमा खोजना मुश्किल है। हजार-हजार सूरज भी कम पड़ते हैं, क्योंकि सूरज तो एक न एक दिन चुक जाएंगे। सभी सूरज चुक जाते हैं। यह हमारा सूरज भी, वैज्ञानिक कहते हैं, चार हजार सालों में ठंडा हो जायेगा। इसका ईंधन चुकता जा रहा है। आखिर कब तक जलता रहेगा? सब ईंधन की सीमा है। कितना ही बड़ा हो, करोड़ों साल जले तो भी एक सीमा आती है और चुक जायेगा। सांझ दीया जलाया, सुबह बुझ जायेगा; फिर रात कितनी ही लंबी हो: लेकिन भीतर का दीया कुछ ऐसा है कि वह ज्योति शाश्वत है। हजारों सूरज जलते हैं और बुझ जाते हैं--और उस भीतर की ज्योति का कभी बुझना नहीं होता। इसलिए हजार सूरज का प्रतिमान भी छोटा है। लेकिन छोड़ो सूरज की तो बात दूर, हम तो अपने भीतर के दीये को टिमटिमाता दीया भी नहीं कह सकते। ज्योति मालूम ही नहीं पड़ती।
अनेक लोग सुनकर सुकरात की बात, कि महावीर की बात, कि बुद्ध की, कि कृष्ण की बात भीतर जाने की चेष्टा करते हैं। क्योंकि ये सभी लोग कहते हैं, जानो अपने को! आंख बंद करके भीतर जाने की कोशिश करते हैं, जल्दी से बाहर लौट आते हैं; क्योंकि अंधेरा ही अंधेरा मालूम पड़ता है। और ये सब तो कहते हैं, बड़ा ज्योतिर्मय लोक है!
नहीं, अभी तुम भीतर न जा सकोगे। अभी तो तुमने बाहर को भी शुद्ध आंख से नहीं देखा। अभी तो तुमने क ख ग भी नहीं पढ़ा जीवन के सत्य का।
इसलिए महावीर का पहला सूत्र कहता है: जो सब नय-पक्षों से रहित वही समयसार है। और अगर ऐसा न किया तो एक पक्ष में से दूसरा पक्ष निकलता जाता है। जैसे एक वृक्ष में अनेक शाखाएं निकलती हैं। फिर एक शाखा में अनेक उपशाखाएं निकलती हैं ऐसा तुमने अगर एक पक्ष बनाया तो जल्दी ही तुम पाओगे, तुम बहुत पक्षों से घिर गये। एक मेहमान को घर लाओगे, जल्दी ही पाओगे मेहमानों की भीड़ लग गई; क्योंकि एक मेहमान के पीछे दूसरा चला आता है। रिश्तेदारों के रिश्तेदार!
मैंने सुना है, मुल्ला नसरुद्दीन के घर एक दफा एक आदमी आया पास के गांव से और एक बतख दे गया। कहा कि गांव के तुम्हारे मित्र ने भेजी है। मुल्ला बड़ा खुश हुआ। उसने बतख...उसने कहा कि रुको, शोरबा तो पीते जाना। उसने शोरबा बनवाया, मित्र को पिलाया और कहा कि कभी भी आओ तो जरूर आना। कोई दोत्तीन दिन बाद एक दूसरा आदमी आया। मुल्ला ने पूछा, आप कौन हो? उसने कहा, कि जो बतख लाया था उसका मैं मित्र हूं। कोई बात नहीं, मित्र के मित्र हो तो भी मित्र हो। उसको भी उसने भोजन करवाया, खिलवाया-पिलवाया। यह तो सिलसिला अंतहीन होने लगा। फिर दोत्तीन दिन बाद एक आदमी आ गया। उसने कहा, मित्र के मित्र का मित्र। ऐसे यह संख्या बढ़ने लगी। तो मुल्ला बहुत घबड़ा गया। दोत्तीन महीने में तो मुल्ला बहुत घबड़ा गया कि यह तो एक बतख क्या भेजी, यह तो सारा गांव आये जा रहा है! उसने कहा, कुछ करना पड़ेगा। फिर एक आदमी आ गया दो-चार दिन बाद। अब तो बहुत संख्या आगे हो गयी थी--मित्र के मित्र, मित्र के मित्र। काफी लंबी शृंखला हो गयी थी। उसने कहा, अब कुछ बताने की जरूरत नहीं, ठीक है। उसने पत्नी से कहा, सिर्फ गर्म पानी बना दे, कुछ और बनाना मत। गर्म पानी लेकर उसको पीने को दिया। कहा, बतख का शोरबा है। उसने चखा, उसने कहा, यह तो सिर्फ गर्म पानी मालूम होता है; इसमें बतख तो कहीं दिखाई नहीं पड़ती। उसने कहा कि खाक दिखाई पड़ेगी, यह शोरबे के शोरबा का शोरबा का शोरबा...सिर्फ पानी बचा है अब!
विचार से और विचार निकल आते हैं। पहला विचार ही व्यर्थ था, दूसरा और भी व्यर्थ होता है। तीसरा और भी व्यर्थ होता है। अंत में तुम्हारे पास विचारों की भीड़ लग जाती है, जिनमें सार्थकता कुछ भी नहीं होती।
मिलते गये हैं मोड़ नए हर मुकाम पर
बढ़ती गई है दूरी-ए-मंज़िल जगह-जगह।
और एक-एक मोड़ नए मोड़ ले आता है और तुम बढ़ते जाते हो, और मंजिल दूर होती जाती है। और जितने तुम चलते जाते हो विचारों में उतने ही तुम अपने से दूर होते जाते हो, क्योंकि वही मंजिल है।
अगर उस स्वयं को पाना हो तो लौटो उलटे, चलो गंगोत्री की तरफ! छोड़ो एक-एक विचार को। और जब तुम आखिरी विचार पर आओगे, तब तुम्हें पता चलेगा: यह मेरा पक्षपात था, जिससे सारी यात्रा शुरू हुई। उस पक्षपात को भी गिरा दो। निर्विचार तुम्हारे भीतर उठेगा। उस निर्विचार में ही समयसार है।
और जब तक वैसी शुद्ध दर्पण की दशा न आ जाये, तब तक तुम जिंदगी को तो जानोगे ही नहीं, न अपने को जानोगे। क्योंकि तुम चूकते ही रहोगे। जिंदगी है प्रतिपल अभी और यहां--और विचार तुम्हें उससे मिलने नहीं देता, क्योंकि विचार सदा कहीं और है--या तो भविष्य में या अतीत में। या तो अतीत की स्मृतियों से जुड़ा है विचार, जो कल हो चुका, परसों बीत चुका--उसका सब संग्रह। उसकी तुम उधेड़-बुन में लगे रहते हो। और या भविष्य...।
मुल्ला नसरुद्दीन को नींद न आती थी। एक डाक्टर ने कहा कि तू ऐसा कर भेड़ें गिन; भेड़ें गिनने से बड़ा लाभ होता है, गिनते-गिनते नींद आ जाती है। गिनते गए; एक, दो, तीन, हजार, दस हजार, लाख, जहां तक...बस चलते गए, चलते गए। एक ऐसी घड़ी आयेगी कि थककर तू नींद में गिर जाएगा। मुल्ला ने कहा, ठीक। उसने भेड़ें गिननी शुरू कीं। वह कई लाख पर पहुंच गया। उसने कहा, ऐसे तो बढ़ते गये तो ये तो करोड़ों अरबों हो जायेंगी। फिर करेंगे क्या इनका? तो उसने सोचा, अब बेहतर है कि अब इनका ऊन निकालना शुरू करें, बजाय इसके कि गिनते ही जाने से। उसने ऊन निकालना शुरू किया। अब वह लाखों भेड़ों का ऊन, गांठों पर गांठें लग गयीं! उसने सोचा, ऐसे अगर ऊन इकट्ठा करते गए तो कहां, रखेंगे कहां? गोदाम मिलते कहां आजकल? रखने की जगह कहां है? वर्षा सिर पर आ रही है। यह तो मुश्किल है। इसके कोट-कपड़े बनवाना शुरू कर दो। तो कंबल, कोट, कपड़े...लेकिन इतना ढेर हो गया कि वह एकदम घबड़ाया कि बाजार की हालत तो वैसे ही खराब है, खरीददार तो मिलता नहीं, मारे गये! तो वह आधी रात में चिल्लाया: बचाओ, बचाओ! तो उसकी पत्नी घबड़ाकर उठी। उसने कहा, हुआ क्या? उसने कहा, हुआ क्या...मर गये, लुट गये! पत्नी ने कहा, क्या, हुआ क्या? कोई सपना देखा, उसने कहा, सपना क्या, नींद तो आयी नहीं अभी। यह तो वह जो डाक्टर ने कहा था, भेड़ गिनो...कहां का नासमझ आदमी। भेड़ें गिनीं, ऊन काटा, कपड़े बनाये, बाजार में बेचने खड़े हो गये...खरीददार नहीं है। और इतना सब बना लिया है कि बरबाद हो जायेंगे।
विचार एक के बाद एक चलते चले जाते हैं--या तो अतीत के होते हैं या भविष्य के होते हैं। तो या तो स्मृति पैदा करते हैं वे और स्मृति के घावों को उघाड़ते हैं, या फिर कल्पना पैदा करते हैं और कल्पना से वासना को उकसाते हैं। तो या तो तुम अपने घावों को कुरेदते रहते हो, जो कि बड़ी व्यर्थ प्रक्रिया है और खतरनाक भी; क्योंकि उनसे घाव हरे बने रहते हैं। लौट-लौटकर, किसी ने गाली दी थी, तुम सोचने लगते हो; लौट-लौटकर क्रोधित होने लगते हो।
कभी तुमने खयाल किया! अगर तुम विचार करने बैठ जाओ और ठीक से स्मृति को जगाओ तो जब तुम्हें किसी ने गाली दी थी और अपमान किया था, तो उसकी स्मृति ही न आएगी; तुम अचानक पाओगे, फिर तुम्हारे रग-रेशे में क्रोध आ गया, तुम्हारे रोएं-रोएं में फिर क्रोध दौड़ गया! तुम फिर कुछ करने को उतारू हो गये! फिर घाव हरा हो गया।
या तो तुम घाव कुरेदते हो और या तुम भविष्य में कामना को उकसाते हो।
दोनों खतरनाक हैं। क्योंकि सभी कामनाएं आज नहीं कल विषाद में रूपांतरित हो जाएंगी। सभी कामनाएं आज नहीं कल घाव बन जायेंगी। जो अभी भविष्य है, कल अतीत हो जायेगा।
अगर कोई विचार न हो चित्त में तो तुम यहां होते हो--अभी। न कोई अतीत, न कोई भविष्य--यह वर्तमान का क्षण तुम्हें समग्रता से घेर लेता है।
गए हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन
कभी बहार से पहले, कभी बहार के बाद
--बगीचे में जाने से सार क्या?
गए हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन,
--बहुत बार गए हैं, अनेक बार गए हैं!
कभी बहार से पहले, कभी बहार के बाद
--या तो वसंत के पहले जाते हैं या वसंत जब बीत जाता है तब जाते हैं। हर हालत में पतझड़ हाथ लगता है।
तो अस्तित्व का जो बगीचा है वह तो अभी और यहां है। वर्तमान उसका ढंग है। तुम जाते हो--या तो जब बीत चुकी बहार या अभी जब आयी नहीं; या तो अतीत के ढंग से या भविष्य के ढंग से।
निर्विचार में जो खड़ा है वह वर्तमान से जुड़ता है। उसका सीधा-सीधा संबंध हो जाता है। वह आमने-सामने खड़ा होता है। यह प्रतीति, यह साक्षात्कार, महावीर कहते हैं, समयसार।
"साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन करना चाहिए। निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिए। ये तीनों आत्मरूप ही हैं। अतः निश्चय से आत्मा का सेवन ही उचित है।'
दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि, अप्पाणं जाण णिच्छयदो।।
इस वचन के जो भी अनुवाद किए गए हैं, उनमें थोड़ा-सा फर्क मालूम होता है। और फर्क बहुमूल्य है। जिन्होंने अनुवाद किये हैं--जैन साधु, मुनि अनुवाद करते हैं। अनुवाद में उनका व्यक्तिगत पक्षपात उतर जाता है। जैसे दंसणाणचरित्ताणि: दर्शन, ज्ञान और चरित्र; सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं: इनका नित्य सेवन, यही साधु का लक्षण है। लेकिन अनुवाद क्या किया जाता है: साधु को नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का पालन करना चाहिए। चाहिए कहीं मूल सूत्र में नहीं है। मूल सूत्र में तो सिर्फ व्याख्या है कि साधु कौन। साधु का कर्तव्य नहीं गिनाया है, साधु की परिभाषा है। साधु कौन? जो नित्य दर्शन, ज्ञान और चरित्र का सेवन करता है--पालन भी नहीं। मूल शब्द है: सेविदव्वाणि--जो सेवन करता है; पालन नहीं; जो भोजन करता है; जो उपभोग करता है; जो भोगता है। साधु है वह जो दर्शन, ज्ञान और चरित्र का नित्य भोग करता है।
अब बात साफ हो सकती है। पहले तो नित्य, प्रतिपल, वर्तमान में; न तो बीते कल में न आनेवाले कल में--अभी और यहां भोग करता है। असाधु या तो अतीत में भोगता है या भविष्य में।
गये हैं हम भी गुलिस्तां में बारहा लेकिन
कभी बहार से पहले कभी बहार के बाद।
--वह असाधु। साधु वह जो अभी और यहीं के द्वार से अस्तित्व में प्रवेश करता है; जो "अब' के द्वार से अस्तित्व में प्रवेश करता है; जो यहां और ठीक अभी साक्षात्कार करता है अस्तित्व का।
सेवन..."सेवन' बड़ा प्यारा शब्द है! इसका भोग करता है।
जैन मुनि "भोग' शब्द को लाने में अड़चन अनुभव किए होंगे। "सेवन करता है' उनको लगा होगा, इसे "करना चाहिए' में बदलो।
यह हमारे सारे शास्त्रों के साथ होता है। जहां "है' की सूचना है वहां "होना चाहिए', हम अनुवाद करते हैं। जहां केवल "है' की सूचना है--जैसे कि आग जलाती है, यह तो ठीक है; लेकिन आग को जलाना चाहिए, तब अड़चन हो गयी। कोई ऐसा अनुवाद न करेगा कि आग को जलाना चाहिए, क्योंकि आग इस तरह की बकवास को मानती ही नहीं। वह तो जलाती है। "चाहिए'--वासना, कामना आ गयी; भविष्य आ गया। "चाहिए' का अर्थ ही हुआ कि कल हो सकेगा, आज नहीं हो सकता। "चाहिए' का मतलब ही यह हुआ कि जो है नहीं; कोशिश करके लाना होगा। तो कोशिश में तो समय लगेगा। दिन लग सकते हैं, वर्ष लग सकते हैं, जन्म लग सकते हैं। कौन जाने कितना समय लगेगा तब हो पायेगा!
लेकिन साधारणतः दूसरे सुननेवाले भी इस अनुवाद से राजी होते हैं, क्योंकि उनको भी सुविधा मिल जाती है। वे भी कहते हैं, "चाहिए' ठीक है। कल पर स्थगित करने का उपाय है। तो कल कर लेंगे। साधुता कल, असाधुता आज!
तुमने देखा, अगर दान देना हो तो तुम कहते हो देंगे; क्रोध करना हो तो तुम नहीं कहते, करेंगे। तुम कहते हो, करते हैं अभी! क्रोध होता है। और करुणा? करनी चाहिए! यह बड़े मजे की बात है। अगर दान देना है, तो तुम कहते हो, करेंगे!
एक मित्र संन्यास लेने आये थे, वे कहने लगे, सोचता हूं! बहुत दिन से सोच रहा हूं। अभी भी विचार कर रहा हूं, अभी भी पक्का नहीं कर पाता।
मैंने उनसे पूछा, क्रोध के संबंध में सोचते हो कि बिना ही सोचे पक्का कर लेते हो? वे कहने लगे कि क्रोध के संबंध में तो हालत उलटी है: सोचते हैं कि न करें और होता है। और संन्यास के संबंध में हालत यह है कि सोचते हैं कि लें, और नहीं होता।
हमने शुभ को, श्रेष्ठ को, सत्य को, शिवम् को टालने के उपाय किए हैं। तो इसलिए इन अनुवादों पर कोई एतराज भी नहीं करता। यह सिर्फ सूचक हैं।
महावीर कह रहे हैं:
दंसणाणचरित्ताणि, सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
वही है साधु, वही है साहु, जो नित्य सेवन कर रहा है दर्शन, ज्ञान, चरित्र का। जो कल पर नहीं छोड़ रहा है; जो अभी और यहीं जी रहा है; जिसने भविष्य के साथ नाते तोड़ लिए। भविष्य के साथ जिसका नाता है, वही गृहस्थ। क्योंकि गृहस्थ का अर्थ है: वासना, कामना; कल भोगेंगे। और गृहस्थ की भूल यही है कि कल आएगी मौत, तुम भोग न पाओगे। तुम कल पर टालते जाओगे, एक दिन मौत आ जायेगी। तुम्हारा सब टाला हुआ, टाला हुआ रह जायेगा।
महावीर इतना ही कह रहे हैं कि शुभ को टालना मत, स्थगित मत करना; जब शुभ का भाव उठे, तत्क्षण भोग लेना।
अशुभ को टालना; क्योंकि टल जाये तो अच्छा। अशुभ को कल पर छोड़ना!
मेरे देखे ऐसा है कि अगर तुम अशुभ को कल पर छोड़ो तो उसी तरह अशुभ न हो पायेगा जैसे अभी शुभ नहीं हो पा रहा है। कल पर छोड़ा, होता ही नहीं। तुम जरा करके देखो! कोई तुम्हें गाली दे, तुम कहो कि चौबीस घंटे बाद क्रोध करेंगे। अगर तुम कर लो चौबीस घंटे बाद क्रोध तो चमत्कार है। हो नहीं सकता। चौबीस घंटे! चौबीस क्षण तो रुको, क्रोध असंभव हो जायेगा।
अब्राहम लिंकन के जीवन में उल्लेख है, एक आदमी, मित्र उनका, बड़ा क्रोधित आया। किसी ने उसको पत्र लिखा था और बड़ी ऊलजलूल बातें लिखी थीं। लिंकन ने कहा, "बैठो इसी वक्त जवाब दो। और दिल खोलकर जवाब दो! डरने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारा मित्र भी हूं, तुम्हारा वकील भी हूं। यह हद्द हो गयी! लिखो दिल खोलकर! जो भी गालियां तुम्हें लिखनी हैं, लिख डालो पूरा।' वह आदमी भी थोड़ा चौंका! ऐसा उसने सोचा ही न था कि लिंकन यह कहेंगे। पर वह बैठ गया लिखने। दिल तो भरा था। दिल खोलकर उसने गालियां दीं। लिंकन उसे उकसाता था, उकसावा देते रहे कि तू डर मत, लिख, सब लिख डाल! सब मवाद निकाल दे! कागज पर कागज, उसने गालियां और ऊलजलूल बातों के सब उत्तर दे डाले। और जब वह पूरा लिखकर उसने हलकी सांस ली, लिंकन ने कहा, ला अब यह पत्र मुझे दे दे। उसने कहा, पता तो लिख देने दो। तो उसने कहा, पता लिखने की कोई जरूरत नहीं। भेजने की कोई जरूरत नहीं। भेजेंगे सात दिन बाद। सात दिन बाद तू आना, फिर इसको पढ़ लेना। अगर तू सात दिन बाद कहे कि भेजना है तो भेज देंगे। उस आदमी ने कहा, ठीक है। कोई हर्जा नहीं। वह सात दिन बाद आया, उसने पत्र देखा। उसे भरोसा ही न आया कि मैं और ऐसा पत्र लिख सकता हूं।
सात दिन में आग सब ठंडी हो गयी, अंगारे बुझ गये। दी गयी गालियां उतनी महत्वपूर्ण न मालूम पड़ीं। उत्तर व्यर्थ मालूम पड़े। वह आदमी तो पागल मालूम ही पड़ा। अपना पत्र देखा तो उसने कहा, यह मेरा भी दिमाग खराब है। इसको जवाब नहीं देना, मेरे दिमाग के लिए कुछ उपाय बताओ, इस तरह की बातें मेरे मन में उठती हैं! अच्छा ही हुआ, उस आदमी ने कहा कि उसने यह पत्र लिखा। उसके पत्र के बहाने मुझे मेरी आत्मा के दर्शन तो हो गये थोड़े कि यह सब मेरे भीतर भरा पड़ा है।
मैं तुमसे कहता हूं अगर क्रोध को तुम कल पर टाल दो तो उसी तरह टल जायेगा, जैसे करुणा अभी तक टलती आयी है।
अशुभ को अगर तुम कहो, करेंगे भविष्य में, तो अशुभ भी उसी तरह विदा हो जायेगा तुम्हारे जीवन से जैसे शुभ विदा हो गया है।
महावीर कहते हैं, साधु वह है जो दर्शन, ज्ञान और चरित्र का अभी पालन कर रहा है, अभी सेवन कर रहा है। और "पालन' से "सेवन' शब्द ज्यादा बेहतर है, क्योंकि पालन में ऐसा लगता है कि कुछ चेष्टा करके आयोजन करके अपने को बांध रहा है; कोई अनुशासन। "सेवन' में ऐसा लगता है: कुछ अनुभव में आ रहा है, उसको भोजन बना रहा है; उसको अपने रक्त, मांस-मज्जा में मिला रहा है।
"निश्चय-नय से इन तीनों को आत्मा ही समझना चाहिए। ये तीनों आत्मरूप ही हैं।'
ये अलग-अलग नहीं हैं। यह जैनों की त्रिवेणी है या त्रिमूर्ति। क्योंकि ईश्वर का तो कोई भाव जैनों के पास नहीं है। सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन, सम्यक चारित्र्य--ये उनके शिव, ब्रह्मा, विष्णु हैं। यह उनकी त्रिमूर्ति है। यह उनकी ट्रिनिटी है। और ये तीनों आत्मा के ही तीन रूप हैं। ये तुम्हारे होने की शुद्धता में प्रगट होते हैं। ये आत्मा ही हैं।
"अतः निश्चय से आत्मा का सेवन ही उचित है।'
यह बड़ा अदभुत वचन है! अपना ही भोजन उचित है। अपना ही भोग उचित है। अपने को ही पीयो, अपने को ही भोगो।
हम साधारणतः जीवन में दूसरे को भोगने का आयोजन करते हैं। "पर' का हम सेवन करना चाहते हैं।
महावीर कहते हैं, "पर' का सेवन करते-करते तो तुम संसार में भटक गये हो। अब तुम अपना ही सेवन करो। तुम अकेले अपने एकांत को ही भोगो। तुम अपने स्वभाव में डूबो। तुम्हारे भीतर जो छिपा है, इसके साथ नाचो, इसी को संगी-साथी बनाओ! भीतर होने दो रास!
तुमने अपने साथ संबंध ही नहीं जोड़े। तुम अपने से कभी आलिंगन नहीं किए। तुमने अपने को कभी चूमा नहीं, अपना कभी भोजन नहीं किया। अपना सेवन करो!
सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया
खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ।
और जब तक बूंद सागर न हो जाये, तब तक मिट्टी है। और जब तक हृदय में छिपा हुआ गीत प्रगट न हो जाये, तब तक वह हृदय का घाव है।
सीने का दाग है वह नाला कि लब तक न गया
खाक का रिज्क है वह कतरा कि दरिया न हुआ।
हमारे जीवन में जो इतनी पीड़ा है, यह पीड़ा सिर्फ इसीलिए है कि हमारे भीतर जो पड़ा है, छिपा है, वह प्रगट नहीं हो पाया। जो गीत दबा पड़ा है हमारे प्राणों में, वह गाया नहीं गया। जो नाच हम छिपाये चल रहे हैं, वह नाचा नहीं गया। जो भोग हमारा स्वभाव है, वह भोगा नहीं गया। हमने अपने को अभिव्यंजना नहीं दी है। हमारा सितार ऐसा ही पड़ा है, उस पर हमने अंगुलियां नहीं नचायीं। वह सितार ऐसे ही धूल जमा पड़ा है। उससे विराट संगीत पैदा हो सकता था, उस तरफ हमने कोई ध्यान ही न दिया। हमारी नजरें दूसरे को तलाशती रहीं। हम दूसरे के संगीत में डूबने को आतुर रहे--और अपना घर भूल गये, अपना संगीत भूल गये। हमने और सब भोगा और हाथ सदा खाली पाए, और हमने उसे न भोगा जो हमारा था और जिसे भोगने से जीवन भर जाता।
कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से
मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती।
कितनी बार नहीं तुमने दोनों दुनियाओं को लूटकर अपने हृदय को भर देने की चेष्टा की है!
कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से
मगर दिल है कि इसकी खाना-वीरानी नहीं जाती।
लेकिन दिल है कि वह गरीब का गरीब, दीन का दीन, भिखारी का भिखारी, खंडहर का खंडहर, वहां कभी महल बन नहीं पाता--बनेगा भी नहीं। क्योंकि बाहर की तुम सारी दुनियाएं लूटकर ले आओ, तो भी कुछ न होगा, जब तक कि भीतर की दुनिया न लूटो। और भीतर की दुनिया कुछ ऐसी है--ऐसी अनंत कि भोगो और भोग के नये द्वार खुलते चले जाते हैं; रस लो, और नई रसधार बहती है। रसधार बड़ी होती जाती है, बड़ी होती जाती है। और कतरा एक दिन दरिया बन जाता है। बूंद एक दिन सागर हो जाती है।
तुम जब तक प्रगट न हो जाओगे अपनी परिपूर्ण महिमा में, तब तक दुखी रहोगे, घाव रहेगा। गीत गाना ही पड़ेगा। वह हमारी नियति है। अभिव्यंजित होना ही होगा, गूंजना ही होगा--एक परम संगीत से! एक दिव्य विभा से मंडित होना ही होगा!
अपनी महिमा को छिपाओ मत, भोगो!
हिंदू शास्त्रों में बड़े प्रसिद्ध वचन हैं:
आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः।
सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृति।
स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः।
आहार शुद्धि से सत्व शुद्धि; सत्व शुद्धि से स्मृति का लाभ; और स्मृति-लाभ से ग्रंथियों का खुलना; और समस्त उलझनों का अंत, समाप्ति, विप्रमोक्ष।
साधारणतः लोग यही अर्थ करते हैं, आहार शुद्धि से सत्व शुद्धि। यही अर्थ करते हैं: शुद्ध आहार। ब्राह्मण के हाथ का बनाया हुआ आहार। इसका गहरा अर्थ खयाल में नहीं आता: शुद्ध का आहार! परम शुद्ध का आहार! सत्व का आहार! वह जो तुम्हारे भीतर छिपा है, उसका आहार!
महावीर वर्षों तक उपवास किए, महीनों उपवास किए, दिनों उपवास किए! लेकिन उन्होंने अपने इस उपवास को उपवास कहा, निराहार न कहा; अनशन न कहा, उपवास कहा। उपवास का अर्थ है: अपने पास होते जाना; अपने निकट होते जाना। जो उपनिषद का अर्थ है, वही उपवास का अर्थ है। अपने पास, अपने पास, और पास होते चले जाना! निराहार न कहा अपने उपवास को, क्योंकि वह गलत जोर होता। भोजन नहीं किया, यह तो गौण बात है। अपना भोजन किया, यह महत्वपूर्ण बात है। आत्म-आहार किया। और आत्म-आहार से ऐसे भर गये कि भोजन कि जरूरत न रही। वह गौण बात है।
तुमने कभी खयाल किया! प्रेम के बहुत गहरे क्षणों में भूख नहीं लगेगी। कभी-कभी तुम चकित होओगे...एक महिला ने मुझे कहा...मैं यह बात कर रहा था। उसने सुनी, वह मुझसे मिलने आयी। उसने कहा कि एक बात आपसे कहनी है, मेरे जीवन में अटकी रही है सदा से। उसकी सास की मृत्यु हुई सांझ के वक्त। जैनों की "अंथऊ' का समय। सूरज ढल गया, फिर भोजन तो हो नहीं सकता। सास मर गई बेवक्त। सासों के ढंग...! अब वह कोई ढंग का वक्त भी चुन सकती थी। दोपहर में मरती, रात मरती ठीक; अंथऊ के वक्त मर गई! तो भोजन तो हो नहीं सका; पड़ा रह गया। और ऐसा भी नहीं कि इस बहू का अपनी सास से कुछ विरोध रहा हो--बड़ा लगाव था। तो उस समय तो कुछ खयाल नहीं आया, लेकिन जैसे रात बढ़ने लगी, उसकी भूख बढ़ने लगी। इधर रो भी रही। सास ने उसे अपनी बेटी की तरह रखा था, बहुत गौरव से रखा था। वह मर गयी तो दुख स्वाभाविक था। रो रही है, दुखी हो रही है। लेकिन पेट में भूख लग रही है! और आधी रात भूख इतनी ज्यादा बढ़ गयी कि वह महिला चकित हुई। भूख इतनी बढ़ गयी कि उसे जाकर चोरी से अपने चौके में कुछ भोजन करना पड़ा। उसकी ग्लानि उसके मन में रह गयी।
और यह जो महिला, जिसने मुझे यह कहा, वह आठ-आठ दस-दस दिन के उपवास कर लेती है; इसलिए उसे भी बड़ा चक्कर मालूम हुआ कि "यह हुआ क्या! मैं आठ-आठ दस-दस दिन उपवास कर लेती हूं और कभी भूख ने मुझे ऐसा नहीं सताया कि उपवास तोड़ना पड़ा हो! और यह सास का मरना और इतना मेरा लगाव! तो एक अपराध-भाव उसके मन में अटका रह गया। किसी को भी उसने कहा नहीं--अपने पति को भी नहीं कहा, क्योंकि वह भी दुखी होंगे यह बात सोचकर कि मेरी मां मर गयी और तूने रात चोरी से भोजन किया। उसने मुझे कहा और कहा कि आप किसी को कहना मत! मुझे यह उलझन रह गयी है।
मैंने उससे कहा कि इससे विपरीत भी तुझे कभी हुआ? कभी आनंद के क्षण में, भूख न लगी हो? उसने कहा, "हां, यह भी मुझे हुआ। आप भी जब मेरे घर में आते हो तो मैं भोजन नहीं कर पाती। मैं इतनी प्रसन्न हो जाती हूं कि वर्ष में आप दो दिन के लिए आते हो, कि दो दिन मैं भोजन नहीं कर पाती; बस ऐसे ही चाय इत्यादि से काम चल जाता है। भूख ही नहीं लगती, ऐसा कुछ भरापन मालूम होता है।'
जब भी तुम आनंदित होओगे, तुम हैरान हो जाओगे कि पेट भरा है! तुम इतने भरे हो, इतने भीतर भरे हो कि पेट का खालीपन पता न चलेगा। प्रेम के बहुत गहरे क्षणों में भूख न लगेगी। दुख के क्षणों में भूख लगेगी। दुख में तुम एकदम खाली हो जाओगे। दुख में न केवल पेट खाली हो जायेगा, आत्मा भी खाली हो जायेगी।
इसलिए अकसर जिसने तुम्हारे जीवन को बहुत गहराई से भरा था, अगर वह मर जायेगा तो तुम्हें तत्क्षण भूख लगेगी। बेचैनी होगी तुम्हें यह सोचकर कि यह कोई वक्त है भूख लगने का। क्योंकि भोजन को तो हम उत्सव मानते हैं। दुख में तो कोई भोजन करता नहीं। पास-पड़ोस के लोगों को भोजन बनाकर लाना पड़ता है खिलाने अगर कोई मर जाये किसी के घर में; क्योंकि वह अपना चूल्हा जलाये तो वह भी तो अशुभ मालूम पड़ता है। यह कोई वक्त है! किसी का पति जल गया हो और वह चूल्हा जलाकर भोजन बना रही! चूल्हा नहीं जलता दिनों तक। लेकिन जब कोई निकटतम तुम्हारा मर जायेगा, तो न केवल तुम्हारा शरीर खाली हो गया, उसने तुम्हारी आत्मा के भी एक हिस्से को घेरा था, वह भी खाली हो गया। और खालीपन ऐसा मालूम होगा कि लगेगा कुछ भोजन कर लो।
कल ही एक संन्यासी ने मुझे कहा, कि विपस्सना का दस दिन प्रयोग करने के बाद, दसवें दिन, आखिरी दिन, उसे ऐसा लगा कि शरीर से आत्मा अलग हो गयी है। कोई आधी रात के वक्त, वह घबड़ा गया! यह अनुभव इतना प्रगाढ़ था और इतना साफ था कि मैं आत्मा से अलग हूं, कि उसे लगा कि अब मौत होने के करीब है। और जो पहली बात उसे याद आयी वह यह कि कुछ खाओ, जल्दी कुछ खाओ। जो कुछ भी उसे मिल सका आधी रात...होटल में रहता है...आधी रात जो कुछ भी मिल सकता है जगाकर, कुछ भी, उसने जल्दी अपना पेट भर लिया। उसने कल मुझे कहा कि यह मैंने कुछ गलत तो नहीं किया है? क्योंकि करने के बाद मुझे ऐसा लगा कि कुछ भूल हो गयी। क्योंकि वह अनुभव तत्क्षण खो गया। लेकिन उस क्षण में मुझे इतने जोर की भूख लगी, जैसी मुझे कभी लगी न थी।
शरीर आत्मा से अलग होता हुआ मालमू पड़े, एक खालीपन मालूम होगा। और भरने का हम एक ही उपाय जानते हैं--पेट को भर लो; और हमें कोई उपाय नहीं मालूम। अगर इस क्षण में यह युवक अपने को प्रेम से भर लेता या आनंद से भर लेता तो यह अनुभव और ऊंचे शिखर पर पहुंच जाता। इसने शरीर से भर लिया। इसने इस क्षण में शरीर का सेवन कर लिया। भोजन मतलब शरीर। भोजन--जो शरीर बन जायेगा; अभी भोजन है, कल शरीर बन जायेगा। भोजन यानी बीज रूप से शरीर। इसने शरीर से भर लिया। यह क्षण था जब इसे आत्मा से भरना था। नाच उठता! गीत गाता! आंदोलित हो उठता आनंद से! प्रेम को जगाता! आत्मा से भरता! आत्मा का सेवन करता! तो यह घड़ी बड़ी गहरी हो जाती। यह अनुभव चिरस्थायी हो जाता। चूक हो गयी।
महावीर कहते हैं, "आत्मा से ही आत्मा का सेवन उचित है।'
आत्मा से आत्मा का भोजन, आत्मा से आत्मा का भोग ही उचित है।
आहार शुद्धौ सत्व शुद्धिः।
--आहार के शुद्ध होने से सत्व शुद्ध हो जाता है।
यह आहार की शुद्धि को तुम ब्राह्मण के द्वारा बनाया गया आहार मत समझना। इसे तो तुम समझना ब्रह्म के द्वारा बनाया गया आहार--वह जो तुम्हारे भीतर की अंतर्आत्मा है, जिस पर ब्रह्म के हस्ताक्षर हैं।
सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
--और जिसने उस आत्मा का आहार कर लिया उसकी स्मृति ध्रुव हो जाती है। उसका बोध थिर हो जाता है। यही तो मैंने उस संन्यासी को कहा कि उस क्षण में आत्मा का आहार कर लिया होता, तो स्मृति ध्रुव हो जाती।
स्मृति का अर्थ यहां याददाश्त नहीं है। यहां स्मृति का अर्थ है परमात्मा का स्मरण, या आत्मा का स्मरण।
जिसको महावीर सम्यक दर्शन कह रहे हैं; वह थिर हो जाता है, उसकी लकीर खिंच जाती अमिट। फिर भूले न भूलती। फिर मिटाये न मिटती।
सत्व शुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।
--और आत्मा के शुद्ध आहार से जब भीतर का सत्व शुद्ध होता है तो स्मृति धु्रव हो जाती है।
स्मृतिलाभे सर्वग्रंथीनां विप्रमोक्षः।
--और स्मृति से, स्मृति के लाभ से सारी ग्रंथियां खुल जाती हैं--जिसको महावीर कहते हैं निर्गं्रथ दशा--सब गांठें खुल जाती हैं। और जो शेष रह जाता है--वही मोक्ष, वही समाधान, समाधि, विप्रमोक्ष! फिर कुछ और करने को शेष नहीं रह जाता।
"जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ नहीं करता है, और न कुछ छोड़ता है उसी को निश्चय-नय से मोक्ष-मार्ग कहा है।'
णिच्छयणयेण भणिदो, तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचि वि अन्नं, ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।।
बड़ी अदभुत बात महावीर कह रहे हैं! जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है--सम्यक ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य से समाहित! समाहित का अर्थ है, जिसके लिए ये ऊपर से थोपे गये नियम नहीं--जो इन्हें पचा गया; जो इसको इस भांति पी गया, इस भांति कि मांस-मज्जा बन गयी, समाहित हो गया! अब ऐसा नहीं कि वह चेष्टा करता है चारित्र्य की, कि मैं ठीक करूं और गैर-ठीक न करूं। ऐसा भी नहीं कि वह चेष्टा करता है ज्ञान को पकड़ने की, दर्शन को पकड़ने की। नहीं, ये सब समाहित हो गए।
तुमने भोजन किया...तो भोजन की दो घटनाएं घट सकती हैं। तुमने भोजन किया--या तो भोजन समाहित हो जायेगा और या अपच हो जायेगी। अपच होगी तो भोजन बिना पचा शरीर के बाहर फेंक देना होगा। वमन से निकले, मल-मूत्र से निकले--लेकिन अगर अपच हुआ तो उसे शरीर से बाहर फेंक देना होगा वैसा का वैसा। उसमें जो छिपा हुआ सत्व है, तुम्हारा हिस्सा न बन पाएगा। समाहित का अर्थ है: पच जाये। तो जो कूड़ा-कचरा है वह बाहर निकल जायेगा; जो सार-सार है वह तुम्हारे खून में, लहू में बहने लगेगा। वह तुम्हारे हृदय में धड़केगा, तुम्हारी आंखों से देखेगा, तुम्हारे मस्तिष्क से सोचेगा। वह तुम्हारे भीतर का हिस्सा हो जायेगा।
एक बार जो अन्न पच गया, फिर तुम्हें उसकी चिंता नहीं करनी होती कि अब वह क्या कर रहा है; खून ठीक चल रहा है कि नहीं; मस्तिष्क सोच रहा है या नहीं; हड्डी, मांस-मज्जा बन रही है या नहीं। तुम तो गले के नीचे उतार लेते हो भोजन को, फिर बात खतम हो गयी। अगर न पचे तो अड़चन होती है।
पंडित है ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान समाहित नहीं हुआ। ज्ञानी है ऐसा व्यक्ति जिसका ज्ञान समाहित हो गया।
पंडित है ऐसा व्यक्ति जिसको अपच हो जाता है। भर लेता है ज्ञान को, लेकिन वह ज्ञान कहीं उसके जीवन की धारा का अंग नहीं होता; वह धारा में कंकड़-पत्थर की तरह पड़ा रहता है, धारा के साथ बहता नहीं।
समाहित का अर्थ है: जिसे तुम भूल जाओ, फिर भी तुम्हारे साथ हो; जिसकी तुम्हें चेष्टा न करनी पड़े, सहज तुम्हारे साथ हो। सहज-स्फूर्त यानी समाहित।
"जो आत्मा इन तीनों से समाहित हो जाता है और अन्य कुछ भी नहीं करता...'
अन्य कुछ की कोई जरूरत नहीं, ये तीन काफी हैं। इन तीन में सब हो जाता है। और न कुछ छोड़ता है। यह जैन मुनियों को बड़ी तकलीफ होगी सोचकर: न कुछ करता न कुछ छोड़ता; क्योंकि छोड़ना भी कृत्य है। छोड़ने में भी कर्ता आ जाता है और अहंकार आ जाता है। न तो पकड़ता और न छोड़ता, चुपचाप साक्षी-भाव से जीता है।
"उसी को निश्चय-नय से मोक्ष-मार्ग कहा है।'
वही है मुक्ति का मार्ग।
जो छोड़ने-पकड़ने में पड़ा वह अड़चन में पड़ेगा। वह यहां से वहां डोलेगा।
कभूं तो दैर में हूं, कभूं हूं काबे में
कहां-कहां लिए फिरता है शौक उस दर का।
वह उसके दरवाजे को कभी मंदिर में खोजेगा, कभी मस्जिद में खोजेगा, कभी यहां कभी वहां; और एक दरवाजा जहां कि वह छिपा है--स्वयं का--अनखुला रह जायेगा।
चमक सूरज में क्या रहेगी
अगर बेजार हो अपनी किरण से?
और जो व्यक्ति छोड़ने-पकड़ने में लग जायेगा, वह बेजार हो जायेगा। छोड़ने का मतलब है निंदा करनी होगी अपने कुछ अंगों की; शरीर की निंदा करनी होगी; धन की निंदा करनी होगी; कामवासना की निंदा करनी होगी, सबकी निंदा करनी होगी।
चमक सूरज में क्या रहेगी
अगर बेजार हो अपनी किरण से?
और ये अपनी ही किरणें हैं। अगर इनसे हम बेजार हो गये, और इनकी निंदा करने लगे और छोड़ने के चक्कर में पड़े गये, तो हम तोड़ते जायेंगे अपने को। लेकिन जीवन का अहोभाग्य इस दिशा से नहीं आता। जीवन का अहोभाग्य तो तब आता है जब जो भी हमें मिला है उसे हम रूपांतरित करने में कुशल हो जायें, समाहित करने में कुशल हो जायें।
कामवासना समाहित होकर ब्रह्मचर्य बन जाती है। क्रोध समाहित होकर करुणा बन जाता है। राग समाहित होकर प्रेम बन जाता है। हिंसा समाहित होकर अहिंसा बन जाती है। पचा लो! बेजार मत हो जाना! छोड़ने के उपद्रव में मत पड़ जाना! क्योंकि जो-जो तुम छोड़ दोगे, उस उसका रूपांतरण असंभव हो जायेगा। अगर क्रोध छोड़ दिया तो यह तो हो सकता है तुम अक्रोधी हो जाओ, लेकिन करुणावान न हो सकोगे। अगर कामवासना छोड़ दी, तो यह तो हो सकता है कि तुम काम-रहित हो जाओ, लेकिन ब्रह्मचर्य उपलब्ध न हो सकेगा। यह काम-रहितता वैसे ही होगी जैसे हम सांड को बैल बना देते हैं, ग्रंथि काट देते हैं, यंत्र को नष्ट कर देते हैं।
और तुम ऐसा मत सोचना कि यह जो मैं दृष्टांत दे रहा हूं, बड़े दूर का है। यह दूर का नहीं है। साधुओं ने यह सब किया है। रूस में साधुओं की एक जमात थी जो जननेंद्रिय काट लेती थी। काट देने से, एक अर्थ में तो हल हो जाता था। जब जननेंद्रिय ही न रही तो कोई उपाय न रहा। लेकिन ब्रह्मचर्य इस तरह उपलब्ध नहीं होता। ब्रह्मचर्य उपलब्ध तो तब होता है जब यह जीवंत ऊर्जा काम की समाहित होती है; जब तुम इसे बाहर नहीं फेंकते, भीतर पचा जाते हो; जब तुम इसे उछालते नहीं फिरते; जब यह ऊर्जा तुम्हारे भीतर ऊर्ध्वगमन बन जाती है।
क्रोध को काट देने से, कसम खा लेने से कि क्रोध न करूंगा, यह हो सकता है तुम दबा लो, दबाते जाओ, ऐसी घड़ी आ जाये कि किसी को भी पता न चले कि तुममें क्रोध है; लेकिन तुम्हें तो चलता ही रहेगा पता! तुम तो उसी के ऊपर बैठे हो। तुम तो ज्वालामुखी पर बैठे हो जो कभी भी फूट सकता है।
नहीं, करुणा पैदा न हो पायेगी। क्योंकि करुणा तो उसी ऊर्जा से निर्मित होती है जिससे क्रोध निर्मित होता है। ऊर्जा का दमन नहीं--ऊर्जा का रूपांतरण!
"इस दृष्टि से आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि होता है...।'
तो महावीर कह रहे हैं, फिर व्याख्या क्या होगी सम्यक दृष्टि की? जिसको गीता में स्थितिप्रज्ञ कहते हैं, उसी को महावीर सम्यक दृष्टि कहते हैं। स्थितिप्रज्ञ--जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गयी; सम्यक दृष्टि--जिसका दर्शन स्थिर हो गया है। एक ही बात है।
"आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यक दृष्टि है। जो आत्मा को यथार्थ रूप से जानता है वही सम्यक ज्ञान है और उसमें स्थिर रहना ही सम्यक चारित्र्य है।'
बड़ी अदभुत बात...! महावीर चरित्र यह नहीं कह रहे हैं जो तुम करते हो--उसमें चरित्र नहीं है। तुम जो हो...! साधारणतः हम सोचते हैं चरित्र का अर्थ है, जो हम करते हैं। अगर हमने क्रोध नहीं किया तो हम चरित्रवान हैं। अगर क्रोध किया तो हम चरित्रहीन हैं। अगर हमने कामवासना का संबंध बनाया तो हम चरित्रहीन हैं। अगर कोई कामवासना का संबंध न बनाया तो हम चरित्रवान हैं।
महावीर राजी न होंगे। महावीर कहेंगे, क्रोध किया या नहीं, यह सवाल नहीं--क्रोध है या नहीं? यह हो सकता है क्रोध किसी से भी न किया हो और क्रोध भीतर हो। तो भी वह कहते हैं, तुम सम्यक चारित्र्य को उपलब्ध न हुए।
"उसमें स्थित रहना ही सम्यक चारित्र्य है।' आत्मा में स्थित रहना ही...! अपने में ऐसे खड़े हो जाना कि वहां से डांवांडोल न किए जा सको। वहां से तुम्हें कोई बाहर न ले जा सके--क्रोध या काम, कोई भी स्थिति "अप्पा अप्पम्मि रओ'--अपने में ही रमो! अपने में ही रम जाओ। अप्पा अप्पम्मि रओ। रमो अपने में! आपे में! कहीं और न जाओ! कहीं और न भटको!
सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
--और यही है सम्यक दृष्टि हो जाने का मार्ग!
जाणइ तं सण्णाणं, चरदिह चारित्तमग्गु त्ति।
यही है जानना, यही है देखना, यही है दर्शन, यही है चारित्र्य!
अप्पा अप्पम्मि रओ! "अपने में रम जाओ।'
हमारे पास जो शब्द है "स्वास्थ्य', वह यही अर्थ रखता है: अप्पा अप्पम्मि रओ! स्वास्थ्य का अर्थ है: स्वयं में स्थित हो जाना। जब तुम बीमार होते हो तो तुम स्वयं में डांवांडोल हो जाते हो। सिर में दर्द है तो चेतना सिर के कारण डांवांडोल हो जाती है। पैर में कांटा लगा है तो कांटे के कारण चेतना डांवांडोल हो जाती है। जब तुम बिलकुल डांवांडोल नहीं होते--न सिर बुलाता, न पैर बुलाता, न पेट बुलाता--जब शरीर को तुम बिलकुल भूले रहते हो, ऐसा जैसा विदेह, है ही नहीं--तब तुम "स्वस्थ।' यही तो आत्म-स्थिति की दशा है; जब तुम इतने अपने में लीन हो कि कोई गाली दे तो तुम बाहर नहीं आते। तुम वहीं अपने भीतर से सुन लेते हो, कोई परिणाम नहीं होता। तुम्हारी दशा में कोई भेद नहीं पड़ता। तुम वही रहते हो जैसा गाली देने के पहले थे; वैसे ही गाली देने के बाद रहते हो। गाली दी या न दी, बराबर। तुम पर कोई रेखा नहीं खिंचती, कोई खरोंच नहीं लगती। किसी ने सम्मान किया, तुम फूल नहीं जाते। तुम्हारे अहंकार का गुब्बारा बड़ा नहीं होने लगता। तुम वैसे ही रहते हो जैसे थे, कोई अंतर नहीं पड़ता।
रवींद्रनाथ को जब नोबल प्राइज मिली और वे वापिस कलकत्ता लौटे, तो कलकत्ते में बड़ा संकट था। अनेक लोगों को बड़ी चोट लगी थी कि रवींद्रनाथ को नोबल प्राइज मिल गयी। तो बंगाली बड़े नाराज भी थे। एक संपादक अखबार का जूतों की माला लेकर पहुंच गया स्वागत करने के लिए। तो सोचा था उसने कि रवींद्रनाथ खिन्न होंगे, नाराज होंगे, लेकिन रवींद्रनाथ के "कवि' में कुछ "ऋषि' का अंग था। इसलिए उनकी गीताजंलि में उपनिषदों की झलक है। कुछ उड़ानें उन्होंने उस आकाश में भी भरी थीं जहां ऋषि ही प्रवेश करते हैं। वे सिर्फ सामान्य कवि नहीं थे। उस आदमी को जूतों की माला लिए देखकर वे उसके पास गये, क्योंकि वह भीड़ में पीछे खड़ा था। थोड़ा संकोच भी लग रहा था। दूसरे फूलमाला लाए थे, वह जूतों की माला लाया था। उसको संकोच में देखकर उनको थोड?ा अच्छा भी न लगा। वे फूलों की माला छोड़कर उसके पास गये, और कहा कि अब ले ही आये हो तो पहना दो। वह आदमी और लज्जा से भर गया। वह जूते की माला पटककर भाग खड़ा हुआ। तो रवींद्रनाथ ने उसमें से एक जोड़ी चुन ली अपने पहनने के लायक, पैर के लायक जो जोड़ी थी वह पहन ली और वे चल पड़े घर की तरफ। उन्होंने कहा कि ठीक किया, मेरे जूते रास्ते में खो भी गए थे! यह आदमी भी वक्त पर ले आया! और जूते की दुकान पर जाने की झंझट से बचा दिया! और माला लाया तो काफी जूते लाया था, तो दो उनके नाप के मिल भी गये।
जब तुम्हें बाहर का सम्मान और असम्मान कुछ अंतर न लाता हो, तुम्हारी मुस्कुराहट न तो जरा फीकी पड़ती हो, न जरा गहरी होती हो, तुम वैसे ही रह जाते हो जैसे तुम हो--स्वभाव में स्थिर! अप्पा अप्पम्मि रओ! तो तुम स्वस्थ! तो तुम आत्मज्ञान को उपलब्ध! तो यही है सम्यक दृष्टि हो जाना। और यही सम्यक चारित्र्य है--इसमें स्थिर होना ही!
तो चारित्र्य का अर्थ दूसरे से संबंध नहीं है। अगर चारित्र्य का अर्थ दूसरे से ही संबंध है तो हिमालय की किसी एकांत गुफा में बैठे हुए तुम चारित्र्यवान न हो सकोगे।
इसलिए ये दो शब्द एक जैसे हैं--चरित्र और चारित्र्य। इनका फर्क समझ लेना। चरित्र का अर्थ है: जिसका संबंध दूसरे से है। और चारित्र्य का अर्थ है: स्वयं में स्थित। तुमने गाली दी तो मैंने क्रोध किया--यह चरित्र। तुमने प्रशंसा की तो मैंने धन्यवाद दिया--यह चरित्र। तुमने गाली दी कि प्रशंसा की, मैंने कुछ भी न किया, मैं वैसा ही रहा जैसा था--यह चारित्र्य।
तो अगर तुम हिमालय की गुफा में बैठ जाओ तो चरित्र तो समाप्त हो जायेगा, क्योंकि चरित्र तो दूसरे के बिना हो ही नहीं सकता; लेकिन चारित्र्य...चारित्र्य प्रगट होगा। एकांत में भी प्रगट होगा, जैसा एकांत में फूल खिलता है! कोई नहीं निकलता पास से तो भी उसकी गंध हवाओं में फैलती है। रात सब सो गये होते हैं, तब भी तारा आकाश में चमकता रहता है। वह चारित्र्य है। उसका दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं।
तुम बैठे हो अपने कमरे में, अकेले, और कोई आया, दरवाजे पर दस्तक दी--तुम तत्क्षण बदल जाते हो, कोट-टाई ठीक करके बैठ जाते हो। यह चरित्र!
तुम स्नानगृह में स्नान कर रहे हो। आईने के सामने मुंह भी बना-बिचका रहे हो। तत्क्षण तुम्हें खयाल होता है कि बच्चा तुम्हारा ताली के छेद में से देख रहा है। तुम समझ जाते हो कि यह बाप के लिए योग्य नहीं कि मुंह बिचकाए, बनाए, कि नाचे-कूदे, स्नानागृह में। यह चरित्र! यह दूसरे के देखते ही बदल जाता है।
जिसका दूसरे से कोई संबंध नहीं, जिसका तुमसे ही बस संबंध है--वह है चारित्र्य।
अप्पा अप्पम्मि रओ।
"आत्मा ही मेरा ज्ञान है। आत्मा ही दर्शन है। आत्मा ही चारित्र्य है। आत्मा ही प्रत्याख्यान है और आत्मा ही संयम और योग है। अर्थात ये सब आत्मरूप ही है।'
आया हु महं नाणे
"ज्ञान, आत्मा ही मेरा ज्ञान है।'
आया हु महं नाणे, आया में दंसणे चरित्ते य।
"और दर्शन और चरित्र भी मेरी आत्मा...।'
आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे।
"और आत्मा ही प्रत्याख्यान। और आत्मा ही व्रत-नियम, आत्मा ही संयम और योग अर्थात ये सब आत्मरूप ही हैं।'
महावीर के लिए आत्मा शब्द परम है। और जिसने उसमें थिरता पाली, सब पा लिया।
अगर तुमने त्याग किया दूसरों को दिखाने के लिए तो वह चरित्र हो गया, चारित्र्य नहीं। अगर तुमने त्याग किया भीतर के परम आनंद से, तो चारित्र्य। अगर तुम्हारा ज्ञान दूसरों से आया है तो वह ज्ञान नहीं। अगर तुम्हारा ज्ञान भीतर से आविर्भूत हुआ है तो ज्ञान। जो गीत तुमने दूसरों की नकल पर गुनगुनाया है, वह गीत नहीं। जो गीत सद्यःस्नात, अभी ताजा नहाया हुआ तुम्हारी अंतरात्मा से उठा है, अलौकिक, अद्वितीय, नितनूतन, यद्यपि सनातन--वही गीत! वही गीत वेद बन जाता है! वही गीत ऋचाएं! वही गीत उपनिषद बन जाते हैं।
महावीर का सारा जोर एक बात पर है कि तुम किसी तरह अपने घर लौट आओ। आपे में आ जाओ! अपने में आ जाओ! दूसरे में बहुत भटक लिए--दूसरे में होना ही संसार है। तो जो तुमने दूसरे के लिए किया, दूसरे को सोचकर किया, दूसरे की आशा-अपेक्षा में किया--वह सब संसार है। दूसरे से आशा-अपेक्षा छोड़ो! दूसरे से दृष्टि हटाओ। तुम वहीं लीन हो जाओ जो तुम हो। यही संयम, यही योग!
इश्क भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में
या तो खुद आशकार हो, या मुझे आशकार कर।
दो ही उपाय हैं। या तो हम परमात्मा से कहें: या तो खुद आशकार हो--या तो खुद को प्रगट कर; या मुझे आशकार कर--या मुझे प्रगट कर।
महावीर ने दूसरा ही रास्ता चुना है। वे कहते हैं, अपने को ही प्रगट करना है। प्रार्थना की उन्होंने गुंजाइश नहीं छोड़ी। उन्होंने इतना भी दूसरे पर भरोसा नहीं रखा है। परमात्मा भी दूसरा हो जायेगा, "पर' हो जायेगा। तो परमात्मा भी संसार ही हो जायेगा। उतना भी दूसरे पर निर्भर नहीं रखना है। क्योंकि दूसरे पर निर्भरता तुम्हें कभी भी मोक्ष, कभी भी परम स्वतंत्रता में न ले जा सकेगी।
तेरी दुआ से कजा तो बदल नहीं सकती
मगर है इसमें ये मुमकिन कि तू बदल जाये।
यह बात बड़ी ठीक है। जब तुम प्रार्थना करते हो तो प्रार्थना से कोई तुम्हारी मौत नहीं रुक जायेगी, न प्रार्थना से कुछ और बदलेगा। लेकिन यही होता है कि प्रार्थना करने में तुम बदल जाते हो। जब तुम प्रार्थना करते हो तो तुम्हारी प्रार्थना से और कुछ भी नहीं बदलता, लेकिन प्रार्थना करनेवाला बदल जाता है।
तो महावीर ने इस सार को बहुत गहराई से पकड़ा। उन्होंने कहा कि, तो फिर प्रार्थना की जरूरत क्या? जब बदलना ही स्वयं को है, तो फिर परोक्ष क्यों? फिर प्रत्यक्ष क्यों नहीं? जब असली सवाल मेरे भीतर ही घटना है, जब असली में भगवान भक्त के भीतर ही प्रगट होना है, तो फिर बाहर की तलाश बंद। फिर बाहर क्यों टटोलूं किसी पैरों को? फिर अपने घर लौट आऊं। फिर अपने में ही लीन हो जाऊं।
अप्पा अप्पम्मि रओ!
और यह जो तुम्हारे भीतर की आत्मा की बात महावीर कर रहे हैं, यह तुम भूल भला गए हो, लेकिन बिलकुल भूल भी नहीं गए हो। थोड़ी पर्तें जम गई हैं धूल की, लेकिन पर्त के नीचे तुम्हारे प्राण अभी भी जीवंत हैं। जलधार अभी भी ताजी है। ऊपर-ऊपर काई छा गई है। तुम इसे भूल भी नहीं गए हो, क्योंकि कोई कैसे अपने को भूल जा सकता है? भूलने जैसी हालत है, लेकिन बिलकुल नहीं भूल गये हो। उसी में संभावना है। उसी में किरण है संभावना की। जरा-सा सहारा पकड़ लो तो तुम अपने को याद कर पाओगे।
एक मुद्दत से तेरी याद भी आयी न हमें
और हम भूल गये हों तुझे ऐसा भी नहीं।
सदियां बीत गयी हों, मुद्दत बीत गयी है और तुमने अपनी याद भी न की हो! लेकिन भूल गये हो, ऐसा भी नहीं है। इस बात को ठीक से समझना। अगर बिलकुल भूल गये हो, तब तो याद का कोई उपाय नहीं। और अगर बिलकुल याद है तो याद की कोई जरूरत नहीं। दोनों के बीच में है स्थिति: भूली-भूली सी याद है। भूली-भूली सी याद, धुंधली-धुंधली सी याद! सूरज नहीं निकला है, भर-दुपहरी नहीं है, अंधेरी रात भी नहीं है--सुबह का हलका-हलका सा आलोक! सूरज ऊगने-उगने को है। कुहासा छाया है। हाथ को हाथ नहीं सूझता, फिर भी सूझ बिलकुल नहीं खो गयी है। वह जो थोड़ी-सी सूझ बची है, जो थोड़ी-सी याद बची है, उसी को ही निखारो, प्रगाढ़ करो। उसी के सहारे भीतर की यात्रा होगी। उसी को निखारने और प्रगाढ़ने का नाम ध्यान है, विवेक है।
थोड़ा जागते चलो! जो थोड़ा-सा आसरा दिखायी पड़ रहा है, उसको पकड़ो, और उस दिशा में थोड़े बढ़ते चलो! थोड़ा साहस करो। वह भूली-भूली सी याद गहन होने लगेगी। भूल छंटती जायेगी, याद सघन होने लगेगी।
और जिस दिन भी कोई अपने घर लौट आता है, एक अनूठी घटना घटती है। इतने दुख, इतनी पीड़ाएं, इतनी शिकायत, इतने शिकवे, सब समाप्त हो जाते हैं। इतनी मांगें, इतनी वांछनाएं, इतनी आकांक्षाएं, इतनी तृष्णाएं, सब अचानक पूरी हो जाती हैं।
सब न मिलने की बातें थीं जब आकर मिल गए
सारे शिकवे मिट गए, सारा गिला जाता रहा।
तब पता चलता है कि वह सब जो मांगें थीं, अनंत-अनंत, वह एक ही मांग के खंड थीं। अपने से मिलने की असली मांग थी। उसको नहीं पहचान पा रहे थे, तो वही मांग अनंत खंडों में बंट गई थी। वह जो पद को चाहा था, वह अपने ही भीतर आत्मपद को चाहा था। वह जो धन को चाहा था, वह अपने ही भीतर उस शाश्वत धन को चाहा था, जो मेरा स्वभाव है। वह जो यश और प्रतिष्ठा चाही थी, उस यश और प्रतिष्ठा में अपनी ही महिमा की तलाश थी--गलत रास्ते पर गलत दिशा में।
महावीर का सारा योग आत्म-स्थिति है। कृष्ण ने कहा है गीता में: समत्वं योग उच्चते!
समत्व को उपलब्ध हो जाना योग है। महावीर भी कहते हैं, सम्यक दृष्टि, समत्व। सम्यकत्व--समता को उपलब्ध हो जाना! डांवांडोल न रहे चित्त, सम हो जाये। यहां-वहां न जाये, थिर हो जाये। थिरता सधे! ज्योति ऐसी हो जाये जैसे किसी घर में हवा के झोंके न आते हों, और ज्योति अकंप जलती हो, कंपती न हो। समत्वं योग उच्चते। यही दशा योग की दशा है। और महावीर कहते हैं, यही दशा--आया हु महं नाणे--यही दशा ज्ञान। आया में दंसणे चरित्ते य। और यही दर्शन और यही चरित्र!
आया पच्चक्खाणे, आया में संजमे जोगे।
"और यही प्रत्याख्यान, व्रत, नियम, अनुशासन। और यही संयम और योग!'
महावीर ने जैसी महिमा का गुणगान आत्मा का किया है, किसी ने भी नहीं किया। महावीर ने सारे परमात्मा को आत्मा में उंडेल दिया है। महावीर ने मनुष्य को जैसी महिमा दी है और किसी ने भी नहीं दी।
महावीर ने मनुष्य को सर्वोत्तम, सबसे ऊपर रखा है।
और यह जो दुर्लभ क्षण तुम्हें मिला है मनुष्य होने का, इसे ऐसे ही मत गंवा देना। इसे ऐसे भूले-भूले ही मत गंवा देना। इसे दूसरों के द्वार खटखटाते-खटखटाते ही मत गंवा देना। बहुत मुश्किल से मिलता है यह क्षण और बहुत जल्दी खो जाता है। बड़ा दुर्लभ है यह फूल; सुबह खिलता है, सांझ मुर्झा जाता है। फिर हो सकता है सदियों-सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़े।
इसलिए मनुष्य होना महिमा ही नहीं है, बड़ा उत्तरदायित्व है। अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ा कृत्य पूरा करना चाहा है। साथ दो! सहयोग दो!
अस्तित्व ने तुम्हारे भीतर से कोई बहुत बड़ी घटना को घटाने का आयोजन किया है। साथ दो! सहयोग दो! और जब तक तुम खिल न पाओगे, नियति तुम्हारी पूरी न होगी।
तो समस्त ज्ञानी पुरुष कहते हैं तुम वापिस भेज दिये जाओगे। यह जीवन और मरण का चक्र चलता रहेगा। इससे केवल वे ही बाहर निकल पाते हैं जो इस जीवन और मरण के चक्र में चलते हुए भी अपने भीतर के सारे विचारों के चक्र को रोक देते हैं; जो इस जीवन-मरण के चक्र में रहते हुए भी, साक्षी हो जाते हैं और एक गहन अर्थ में बाहर हो जाते हैं।
साक्षी होकर जो बाहर हो गया संसार के, उसको फिर दुबारा लौटने की कोई जरूरत न रहेगी। और जो दुबारा नहीं लौटता, उसने ही अपनी नियति को पूरा किया। उसके भीतर ही बीज फूल को उपलब्ध हुए।
इस अवस्था को महावीर कहते हैं: परमात्म-अवस्था।
तुम परमात्मा होने को हो। इससे कम पर राजी मत होना। इससे जो कम पर राजी हुआ वह नासमझ है। तुम कंकड़-पत्थरों से राजी मत हो जाना। हीरों की अनंत राशियां तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं।
आज इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें