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मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--13)

सात शरीरों से गुजरती कुंडलिनी—(प्रवचन—तैहरवां)


सातवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

मनुष्य के सात शरीर:

प्रश्न: ओशो कल की चर्चा में आपने कहा कि कुंडलिनी के झूठे अनुभव भी प्रोजेक्ट किए जा सकते हैं— जिन्हें आप आध्यात्मिक अनुभव नहीं मानते हैं मानसिक मानते हैं। लेकिन प्रारंभिक चर्चा में आपने कहा था कि कुंडलिनी मात्र साइकिक है। इसका ऐसा अर्थ हुआ कि आप कुंडलिनी की दो प्रकार की स्थितियां मानते हैं— मानसिक और आध्यात्मिक। कृपया इस स्थिति को स्‍पष्‍ट करें।

 सल में, आदमी के पास सात प्रकार के शरीर हैं। एक शरीर तो जो हमें दिखाई पड़ता है—फिजिकल बॉडी, भौतिक शरीर। दूसरा शरीर जो उसके पीछे है और जिसे ईथरिक बॉडी कहें— आकाश शरीर। और तीसरा शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे एस्ट्रल बॉडी कहें—सूक्ष्म शरीर। और चौथा शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे मेंटल बॉडी कहें— मनस शरीर। और पांचवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे म्प्रिचुअल बॉडी कहें— आत्मिक शरीर। छठवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे हम कास्मिक बॉडी कहें—ब्रह्म शरीर। और सातवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे हम निर्वाण शरीर, बॉडीलेस बॉडी कहें— अंतिम।
इन सात शरीरों के संबंध में थोड़ा समझेंगे तो फिर कुंडलिनी की बात पूरी तरह समझ में आ सकेगी।

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--12)

सतत साधना : न कहीं रुकना, न कहीं बंधना—(प्रवचन—बाहरवां)


छठवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:


 प्रश्न: ओशो आपने पिछली एक चर्चा में कहा कि सीधे अचानक प्रसाद के उपलब्ध होने पर कभी— कभी दुर्घटना भी घटित हो सकती है और व्यक्ति क्षतिग्रस्त तथा पागल भी हो सकता है या उसकी मृत्यु भी हो सकती है। तो सहज ही प्रश्न उठता है कि क्या प्रसाद हमेशा ही कल्याणकारी नहीं होता है? और क्या वह स्व— संतुलन नहीं रखता है? दुर्घटना का यह भी अर्थ होता है कि व्यक्ति अपात्र था। तो अपात्र पर कृपा कैसे हो सकती है?

 दो—तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो प्रभु कोई व्यक्ति नहीं है, शक्ति है। और शक्ति का अर्थ हुआ कि एक—एक व्यक्ति का विचार करके कोई घटना वहां से नहीं घटती है। जैसे नदी बह रही है। किनारे जो दरख्त होंगे, उनकी जड़ें मजबूत हो जाएंगी; उनमें फूल लगेंगे, फल आएंगे। नदी की धार में जो पड़ जाएंगे, उनकी जड़ें उखड़ जाएंगी, बह जाएंगे, टूट जाएंगे। नदी को न तो प्रयोजन है कि किसी वृक्ष की जड़ें मजबूत हों, और न प्रयोजन है कि कोई वृक्ष उखाड़ दे। नदी बह रही है। नदी एक शक्ति है, नदी एक व्यक्ति नहीं है।

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--11)

मुक्ति सोपान की सीढियां—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)

पांचवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

शक्तिपात और प्रसाद:

प्रश्न: ओशो आपने नारगोल शिविर में कहा कि शक्तिपात का अर्थ है— परमात्मा की शक्ति आप में उतर गई। बाद की चर्चा में आपने कहा कि शक्तिपात और ग्रेस में फर्क है। इन दोनों बातों में विरोधाभास सा लगता है। कृपया इसे समझाएं।

 दोनों में थोड़ा फर्क है, और दोनों में थोड़ी समानता भी है। असल में, दोनों के क्षेत्र एक—दूसरे पर प्रवेश कर जाते हैं। शक्तिपात परमात्मा की ही शक्ति है। असल बात तो यह है कि उसके अलावा और किसी की शक्ति ही नहीं है। लेकिन शक्तिपात में कोई व्यक्ति माध्यम की तरह काम करता है। अंततः तो वह भी परमात्मा है। लेकिन प्रारंभिक रूप से कोई व्यक्ति माध्यम की तरह काम करता है।
जैसे आकाश में बिजली कौंधी; घर में भी बिजली जल रही है; वे दोनों एक ही चीज हैं। लेकिन घर में जो बिजली जल रही है, वह एक माध्यम से प्रवेश की है घर में—नियोजित है। आदमी का हाथ उसमें साफ और सीधा है। वह भी परमात्मा की है। वर्षा में जो बिजली कौंध रही है वह भी परमात्मा की है। लेकिन इसमें बीच में आदमी भी है, उसमें बीच में आदमी नहीं है। अगर दुनिया से आदमी मिट जाए तो आकाश की बिजली तो कौंधती रहेगी, लेकिन घर की बिजली बुझ जाएगी।

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--10)

आंतरिक रूपांतरण के तथ्य—(प्रवचन—दसवां)

चौथी प्रश्नोत्तर चर्चा


 प्रश्न : ओशो कल की चर्चा में आपने कहा कि शक्ति का कुंड प्रत्येक व्यक्ति का अलग— अलग नहीं है लेकिन कुंडलिनी जागरण में तो साधक के शरीर में स्थित कुंड से ही शक्ति ऊपर उठती है। तो क्या कुंड अलग— अलग हैं या कुंड एक ही है इस इस स्थिति को कृपया समझाएं।

 सा है, जैसे एक कुएं से तुम पानी भरो। तो तुम्हारे घर का कुआं अलग है, मेरे घर का कुआं अलग है, लेकिन फिर भी कुएं के भीतर के जो झरने हैं वे सब एक ही सागर से जुड़े हैं। तो अगर तुम अपने कुएं के ही झरने की धारा को पकड़कर खोदते ही चले जाओ, तो उस मार्ग में मेरे घर का कुआं भी पड़ेगा, औरों के घर के कुएं भी पड़ेंगे, और एक दिन तुम वहां पहुंच जाओगे जहां कुआं नहीं, सागर ही होगा। जहां से शुरू होती है यात्रा वहां तो व्यक्ति है, और जहां समाप्त होती है यात्रा वहां व्यक्ति बिलकुल नहीं है, वहां समष्टि है; इंडिविजुअल से शुरू होती है और एकोल्युट पर खतम होती है।

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--09)

श्वास की कीमिया—(प्रवचन—नौवां)

तीसरी प्रश्नोत्तर चर्चा

प्रश्न :  ओशो रूस के बहुत बड़े अध्यात्मविद् और मिस्टिक जॉर्ज गुरजिएफ ने अपनी आध्यात्मिक खोज— यात्रा के संस्मरण 'मीटिंग्स विद दि रिमार्केबल मेन' नामक पुस्तक में लिखे हैं। एक दरवेश फकीर से उनकी काफी चर्चा भोजन को चबाने के संबंध में तथा योग के प्राणायाम व आसनों के संबंध में हुई जिससे वे बड़े प्रभावित भी हुए। दरवेश ने उन्हें कहा कि भोजन को कम चबाना चाहिए कभी— कभी थी सहित भी निगल जाना चाहिए; इससे पेट शक्तिशाली होता है। इसके साथ ही दरवेश ने उन्हें किसी भी प्रकार के श्वास के अभ्यास को न करने का सुझाव दिया। दरवेश का कहना था कि प्राकृतिक श्वास—प्रणाली में कुछ भी परिवर्तन करने से सारा व्यक्तित्व अस्तव्यस्त हो जाता है और उसके घातक परिणाम होते हैं इस संबंध में आपका क्या मत है?

 समें पहली बात तो यह है कि यह तो ठीक है कि अगर भोजन चबाया न जाए, तो पेट शक्तिशाली हो जाएगा। और जो काम मुंह से कर रहे हैं वह काम भी पेट करने लगेगा। लेकिन इसके परिणाम बहुत घातक होंगे।

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--08)

यात्रा: दृश्य से अदृश्य की और—(प्रवचन—आठवां)

दूसरी प्रश्नोत्तर चर्चा:

 प्रश्न : ओशो आपने नारगोल शिविर में कहा है कि कुंडलिनी साधना शरीर की तैयारी है। कृपया इसका अर्थ स्पष्ट समझाएं।

 हली बात तो यह शरीर और आत्मा बहुत गहरे में दो नहीं हैं; उनका भेद भी बहुत ऊपर है। और जिस दिन दिखाई पड़ता है पूरा सत्य, उस दिन ऐसा दिखाई नहीं पड़ता कि शरीर और आत्मा अलग—अलग हैं, उस दिन ऐसा ही दिखाई पड़ता है कि शरीर आत्मा का वह हिस्सा है जो इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है और आत्मा शरीर का वह हिस्सा है जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर रह जाता है।

 शरीर और आत्मा—एक ही सत्य के दो छोर:


शरीर का ही अदृश्य छोर आत्मा है और आत्मा का ही दृश्य छोर शरीर है, यह तो बहुत आखिरी अनुभव में शात होगा। अब यह बड़े मजे की बात है. साधारणत: हम सब यही मानकर चलते हैं कि शरीर और आत्मा एक ही हैं।

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--07)

कुंडलिनी जागरण व शक्तिपात—(प्रवचन—सातवां)

पहली प्रश्नोत्तर चर्चा:

 ताओ—मूल स्वभाव:

प्रश्न:

ओशो ताओ को आज तक सही तौर से समझाया नहीं गया है। या तो विनोबा भावे ने ट्राई किया या फारेनर्स ने ट्राई किया या हमारे एक बहुत बड़े विद्वान मनोहरलाल जी ने ट्राई किया लेकिन ताओ को या तो वे समझा नहीं पाए या मैं नहीं समझ पाया। क्योंकि यह एक बहुत बड़ा गंभीर विषय है।

 ताओ का पहले तो अर्थ समझ लेना चाहिए। ताओ का मूल रूप से यही अर्थ होता है, जो धर्म का होता है। धर्म का मतलब है स्वभाव।  जैसे आग जलाती है, यह उसका धर्म हुआ। हवा दिखाई नहीं पड़ती है, अदृश्य है, यह उसका स्वभाव है, यह उसका धर्म है। मनुष्य को छोड्कर सारा जगत धर्म के भीतर है। अपने स्वभाव के बाहर नहीं जाता। मनुष्य को छोड्कर जगत में, सभी कुछ स्वभाव के भीतर गति करता है। स्वभाव के बाहर कुछ भी गति नहीं करता। अगर हम मनुष्य को हटा दें तो स्वभाव ही शेष रह जाता है। पानी बरसेगा, धूप पड़ेगी, पानी भाप बनेगा, बादल बनेंगे, ठंडक होगी, गिरेंगे। आग जलाती रहेगी, हवाएं उड़ती रहेंगी, बीज टूटेंगे, वृक्ष बनेंगे। पक्षी अंडे देते रहेंगे। सब स्वभाव से होता रहेगा। स्वभाव में कहीं कोई विपरीतता पैदा न होगी।

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--06)

गहरे पानी पैठ—(प्रवचन—छठवां)

(समापन प्रवचन)

 मेरे प्रिय आत्मन्!

तीन दिनों में बहुत से प्रश्न इकट्ठे हो गए हैं और इसलिए आज बहुत संक्षिप्त में जितने ज्यादा प्रश्नों पर बात हो सके, मैं करना चाहूंगा।

 कितनी प्यास?

एक मित्र ने पूछा है कि ओशो विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा कि क्या आपने ईश्वर देखा है? तो रामकृष्ण ने कहा लूं जैसा मैं तुम्हें देख रहा हूं ऐसा ही मैने परमात्मा को भी देखा है। तो वे मित्र पूछते हैं कि जैसा विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछा क्या हम भी वैसा आपसे पूछ सकते हैं?

 हली तो बात यह, विवेकानंद ने रामकृष्ण से पूछते समय यह नहीं पूछा कि हम आपसे पूछ सकते हैं या नहीं पूछ सकते हैं। विवेकानंद ने पूछ ही लिया। और आप पूछ नहीं रहे हैं, पूछ सकते हैं या नहीं पूछ सकते हैं, यह पूछ रहे हैं। विवेकानंद चाहिए वैसा प्रश्न पूछनेवाला। और वैसा उत्तर रामकृष्ण किसी दूसरे को न देते। यह ध्यान रहे, रामकृष्ण ने जो उत्तर दिया है वह विवेकानंद को दिया है, वह किसी दूसरे को न दिया जाता।

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--05)

कुंडलिनी, शक्तिपात व प्रभु प्रसाद—(प्रवचन—पांचवां)

अंतिम ध्यान प्रयोग

 मेरे प्रिय आत्मन्!

हुत आशा और संकल्प से भर कर आज का प्रयोग करें। जानें कि होगा ही। जैसे सूर्य निकला है, ऐसे ही भीतर भी प्रकाश फैलेगा। जैसे सुबह फूल खिले हैं, ऐसे ही आनंद के फूल भीतर भी खिलेंगे। पूरी आशा से जो चलता है वह पहुंच जाता है, और जो पूरी प्यास से पुकारता है उसे मिल जाता है।
जो मित्र खड़े हो सकते हों, वे खड़े होकर ही प्रयोग को करेंगे। जो मित्र खड़े हैं, उनके आसपास जो लोग बैठे हैं, वे थोड़ा हट जाएंगे.. .कोई गिरे तो किसी के ऊपर न गिर जाए। खड़े होने पर बहुत जोर से क्रिया होगी—शरीर पूरा नाचने लगेगा आनंदमग्न होकर। इसलिए पास कोई बैठा हो, वह हट जाए। जो मित्र खड़े हैं, उनके आसपास थोड़ी जगह छोड़ दें—शीघ्रता से। और पूरा साहस करना है, जरा भी अपने भीतर कोई कमी नहीं छोड देनी है।

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--04)

ध्‍यान पंथ ऐसो कठिन—(प्रवचन—चौथा)

प्रभु—कृपा और साधक का प्रयास
मेरे प्रिय आत्मन्!

 एक मित्र ने पूछा है कि ओशो क्या ध्यान प्रभु की कृपा से उपलब्ध होता है?

 स बात को थोड़ा समझना उपयोगी है। इस बात से बहुत भूल भी हुई है। न मालूम कितने लोग यह सोचकर बैठ गए हैं कि प्रभु की कृपा से उपलब्ध होगा तो हमें कुछ भी नहीं करना है। यदि प्रभु—कृपा का ऐसा अर्थ लेते हैं कि आपको कुछ भी नहीं करना है, तो आप बड़ी भ्रांति में हैं। दूसरी और भी इसमें भांति है कि प्रभु की कृपा सबके ऊपर समान नहीं है।
लेकिन प्रभु—कृपा किसी पर कम और ज्यादा नहीं हो सकती। प्रभु के चहेते, चूज़न कोई भी नहीं हैं। और अगर प्रभु के भी चहेते हों तो फिर इस जगत में न्याय का कोई उपाय न रह जाएगा।
प्रभु की कृपा का तो यह अर्थ हुआ कि किसी पर कृपा करता है और किसी पर अकृपा भी रखता है। ऐसा अर्थ लिया हो तो वैसा अर्थ गलत है। लेकिन किसी और अर्थ में सही है। प्रभु की कृपा से उपलब्ध होता है, यह उनका कथन नहीं है जिन्हें अभी नहीं मिला, यह उनका कथन है

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-04


अकाम—(प्रवचन—चौथा)

3 सितंबर 1970, षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई


मेरे प्रिय आत्मन्,
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, तीन महाव्रतों पर हमने विचार किया है। आज चौथा व्रत है, अकाम। काम मनुष्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऊर्जा का नाम है। जिन तीन व्रतों की हमने बात की उन सबके आधार में काम की शक्ति ही काम करती है। यदि काम सफल हो जाये तो परिग्रह बन जाता है। यदि काम स्वयं की हीनता से विफल हो जाये तो चोरी बन जाता है। यदि काम दूसरे के कारण से विफल हो जाये तो हिंसा बन जाता है। काम के मार्ग पर, कामना के मार्ग पर, इच्छा के मार्ग पर, अगर कोई बाधा बनता हो तो काम हिंसक हो उठता है। अगर कोई बाधा न हो, भीतर की ही क्षमता बाधा बनती हो तो काम चोर हो जाता है। और अगर कोई बाधा न हो, भीतर की कोई अक्षमता न हो और काम सफल हो जाये तो परिग्रह बन जाता है। इस काम को गहरे से समझना जरूरी है।
मनुष्य एक ऊर्जा है, एक एनर्जी है। इस जगत में ऊर्जा, एनर्जी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। समस्त जीवन एक ऊर्जा है। वे दिन लद गये कि जब कुछ लोग कहते थे, पदार्थ है। वे दिन समाप्त हो गये।

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-03

अचौर्य—(प्रवचन—तीसरा)
3 सितंबर 1970, षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई
मेरे प्रिय आत्मन्,
हिंसा का एक आयाम परिग्रह है। हिंसक हुए बिना परिग्रही होना असंभव है। और जब परिग्रह विक्षिप्त हो जाता है, पागल हो जाता है, तो चोरी का जन्म होता है। चोरी परिग्रह की विक्षिप्तता है, पजेसिवनेस दैट हैज गॉन मैड। स्वस्थ परिग्रह हो तो धीरे-धीरे अपरिग्रह का जन्म हो सकता है। अस्वस्थ परिग्रह हो तो धीरे-धीरे चोरी का जन्म हो जाता है। स्वस्थ परिग्रह धीरे-धीरे दान में परिवर्तित होता है, अस्वस्थ परिग्रह धीरे-धीरे चोरी में परिवर्तित होता है।
अस्वस्थ परिग्रह का अर्थ है कि अब दूसरे की चीज भी अपनी दिखाई पड़ने लगी, हालांकि दूसरा अपना नहीं दिखाई पड़ता है। अस्वस्थ परिग्रह का अर्थ है, वह जो इनसेन पजेसिवनेस है, वह दूसरे को तो दूसरा मानती है, लेकिन दूसरे की चीज को अपना मानने की हिम्मत करने लगती है। अगर दूसरा भी अपना हो जाये तब दान पैदा होता है। और जब दूसरे की चीज भर अपनी हो जाये और दूसरा दूसरा रह जाये तो चोरी पैदा होती है।

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-02

अपरिग्रह—(प्रवचन—दूसरा)
2 सितंबर 1970,
षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई

मेरे प्रिय आत्मन्,
दूसरे महाव्रत "अपरिग्रह' को समझने के लिए परिग्रह को समझना आवश्यक है। बड़ी भ्रांतियां हैं परिग्रह के संबंध में। परिग्रह का अर्थ वस्तुओं का होना नहीं होता। परिग्रह का अर्थ होता है--वस्तुओं पर मालकियत की भावना। परिग्रह का अर्थ होता है--पजेसिवनेस। कितनी वस्तुएं हैं आपके पास, इससे कुछ तय नहीं होता। आप किस दृष्टि से उन वस्तुओं का व्यवहार करते हैं, आप किस भांति उन वस्तुओं से संबंधित हैं, सब कुछ इस पर निर्भर है। और वस्तुओं के ही नहीं, हम व्यक्तियों के प्रति भी परिग्रही, पजेसिव होते हैं।
हिंसा के संबंध में कुछ बातें मैंने कल आपसे कहीं। परिग्रह, पजेसिवनेस, हिंसा का ही एक आयाम, एक डायमेंशन है। सिर्फ हिंसक व्यक्ति ही पजेसिव, परिग्रही होता है। जैसे ही मैं किसी व्यक्ति पर, किसी वस्तु पर मालकियत की घोषणा करता हूं, वैसे ही मैं गहरी हिंसा में उतर जाता हूं। बिना हिंसक हुए मालिक होना असंभव है। मालकियत हिंसा है। वस्तुओं की मालकियत तो ठीक ही है, व्यक्तियों की मालकियत भी हम रखते हैं।

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-01


अहिंसा—(पहला—प्रवचन 
 1 सितंबर 1970,षणमुखानंद हाल, बंबई

मेरे प्रिय आत्मन्,
आज मैं अहिंसा पर आपसे बात करूंगा। पंच महाव्रत नकारात्मक हैं, अहिंसा भी। असल में साधना नकारात्मक ही हो सकती है, निगेटिव ही हो सकती है। उपलब्धि पॉजिटिव होगी, विधायक होगी। जो मिलेगा वह वस्तुतः होगा और जो हमें खोना है, वही खोना है जो वस्तुतः नहीं है।
अंधकार खोना है, प्रकाश पाना है। असत्य खोना है, सत्य पाना है। इससे एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि नकारात्मक शब्द इस बात की खबर देते हैं कि अहिंसा हमारा स्वभाव है, उसे पाया नहीं जा सकता, वह है ही। हिंसा पायी गयी है, वह हमारा स्वभाव नहीं है। वह अर्जित है, एचीव्ड। हिंसक बनने के लिए हमें कुछ करना पड़ा है। हिंसा हमारी उपलब्धि है। हमने उसे खोजा है, हमने उसे निर्मित किया है। अहिंसा हमारी उपलब्धि नहीं हो सकती। सिर्फ हिंसा न हो जाये तो जो शेष बचेगा वह अहिंसा होगी।
इसलिए साधना नकारात्मक है। वह जो हमने पा लिया है और जो पाने योग्य नहीं है, उसे खो देना है। जैसे कोई आदमी स्वभाव से हिंसक नहीं है, हो नहीं सकता। क्योंकि कोई भी दुख को चाह नहीं सकता और हिंसा सिवाय दुख के कहीं भी नहीं ले जाती। हिंसा एक्सीडेंट है, सांयोगिक है। वह हमारे जीवन की धारा नहीं है।

रविवार, 1 अप्रैल 2018

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—(पंच महाव्रत)-ओशो

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—(पंच महाव्रत)

ओशो
(ओशो द्वारा पंच महाव्रत पर दिए गए तेरह अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।)

र्म एक चुनौती है। और चुनौती सीख जायें तो कहीं से भी वह चुनौती मिल सकती है। जीवन बंधे—बंधाये—सूत्र नहीं है। जीवन कहीं से भी आपको पकड़ ले सकता है। खुले रखें द्वार मन के।। राह चलते, सोते, उठते, बैठते, सीखते रहे। लेते रहे चुनौती। किसी दिन चोट गहरी पड़ जाएगी। और वीणा झंकृत हो जाएगी।
जिंदगी दूसरे का अनुसरण नहीं, जिंदगी स्‍वयं का उदघाटन है। जिंदगी दूसरे जैसे होने की प्रक्रिया नहीं, स्‍वयं जैसे होने का आयोजन है। और जो इस स्‍वयं होने की चुनौती को स्‍वीकार करता है, वह महावीर का अनुयायी नहीं बनेगा। लेकिन वहीं पहुंच सकता है;उसी ऊँचाई पर, जहां जीसस पहुंचे है; उसी ऊंचाई पर जहां बुद्ध पहुंचे हे। उसी समाधि उसी निर्वाण में, उसी मोक्ष में उसी स्‍वर्ग में उसी प्रभु के राज्‍य में प्रत्‍येक का प्रवेश हो सकता है।

ओशो