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सोमवार, 2 अप्रैल 2018

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍ही चदरिया—प्रवचन-03

अचौर्य—(प्रवचन—तीसरा)
3 सितंबर 1970, षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई
मेरे प्रिय आत्मन्,
हिंसा का एक आयाम परिग्रह है। हिंसक हुए बिना परिग्रही होना असंभव है। और जब परिग्रह विक्षिप्त हो जाता है, पागल हो जाता है, तो चोरी का जन्म होता है। चोरी परिग्रह की विक्षिप्तता है, पजेसिवनेस दैट हैज गॉन मैड। स्वस्थ परिग्रह हो तो धीरे-धीरे अपरिग्रह का जन्म हो सकता है। अस्वस्थ परिग्रह हो तो धीरे-धीरे चोरी का जन्म हो जाता है। स्वस्थ परिग्रह धीरे-धीरे दान में परिवर्तित होता है, अस्वस्थ परिग्रह धीरे-धीरे चोरी में परिवर्तित होता है।
अस्वस्थ परिग्रह का अर्थ है कि अब दूसरे की चीज भी अपनी दिखाई पड़ने लगी, हालांकि दूसरा अपना नहीं दिखाई पड़ता है। अस्वस्थ परिग्रह का अर्थ है, वह जो इनसेन पजेसिवनेस है, वह दूसरे को तो दूसरा मानती है, लेकिन दूसरे की चीज को अपना मानने की हिम्मत करने लगती है। अगर दूसरा भी अपना हो जाये तब दान पैदा होता है। और जब दूसरे की चीज भर अपनी हो जाये और दूसरा दूसरा रह जाये तो चोरी पैदा होती है।
चोरी और दान में बड़ी समानता है। वे एक ही चीज के दो छोर हैं। चोरी में दूसरे की चीज अपनी बनाने की कोशिश है, दान में दूसरे को अपना बनाने की कोशिश है। चोरी में हम दूसरे की चीज छीन कर अपनी कर लेते हैं। दान में हम अपनी चीज दूसरे की कर देते हैं। एक अर्थ में दान चोरी का प्रायश्चित है। अक्सर दानी कभी अतीत का चोर होता है, और अक्सर चोर भविष्य का दानी हो सकता है। यह जो चोरी है, यह अगर चीजों तक ही संबंधित होती तो बहुत बड़ी बात न थी। जहां तक वस्तुओं की चोरी का संबंध है, इससे कानून, न्याय, राज्य, समाज का जोड़ है। धर्म से तो किसी और गहरी चोरी का संबंध है।
तो ऐसा हो सकता है कि एक दिन आ जाये कि संपत्ति ज्यादा हो, ऐफ्ल्युएंट हो तो वस्तुओं की चोरी बंद हो जाये, लेकिन उस दिन भी अचौर्य का महत्व रहेगा। इसलिए साधारणतः जिसे हम धार्मिक व्यक्ति कहें वह जिस चोरी से रोकने की बात कर रहा है, वह चोरी तो बहुत जल्दी खत्म हो जायेगी। लेकिन कोई महाव्रत कभी खत्म नहीं हो सकता। इसलिए अचौर्य का कोई और गहरा अर्थ भी है, जो सदा सार्थक रहेगा, सदा प्रासंगिक रहेगा। अगर किसी दिन पूरी तरह समाज समृद्ध हो गया तो चोरी तो बंद हो जायेगी। जो वस्तुओं की चोरी है, वह अधिकतर गरीबी के कारण पैदा होती है। लेकिन और भी चोरियां हैं। महाव्रत का संबंध उन गहरी चोरियों से है।
तो पहले उस गहरी चोरी को हम थोड़ा समझें जिसमें हम सब सम्मिलित हैं, वे लोग भी जिन्होंने कभी किसी की वस्तु नहीं चुराई होगी।
चोरी का अर्थ ही क्या है? चोरी का गहरा आध्यात्मिक अर्थ है कि जो मेरा नहीं है, उसे मैं मेरा घोषित करूं। बहुत कुछ मेरा नहीं है जिसे मैंने मेरा घोषित किया है, यद्यपि मैंने कभी किसी की चोरी नहीं की है।
शरीर मेरा नहीं है, लेकिन मैं मेरा घोषित करता हूं। चोरी हो गई, अध्यात्म की दृष्टि से चोरी हो गई। शरीर पराया है, शरीर मुझे मिला है, शरीर मेरे पास है। जिस दिन मैं घोषणा करता हूं कि मैं शरीर हूं उसी दिन चोरी हो गई। आध्यात्मिक अर्थों में मैंने किसी चीज पर दावा कर दिया, जो दावा अनाधिकारपूर्ण है, मैं पागल हो गया। लेकिन हम सभी शरीर को अपना, अपना ही नहीं, बल्कि मैं ही हूं ऐसा मान कर चलते हैं।
मां के पेट में एक तरह का शरीर था आपके पास। आज अगर आपके सामने उसे रख दिया जाये तो खाली आंखों से देख नहीं सकेंगे। बड़ी खुर्दबीन चाहिए जिससे दिखाई पड़ सकेगा और कभी न मानने को राजी होंगे कि कभी यह मैं था। फिर बचपन में एक शरीर था जो रोज बदल रहा है। प्रतिदिन शरीर बह रहा है। अगर हम एक आदमी के जिंदगी भर के चित्र रखें सामने, तो वह आदमी हैरान हो जायेगा कि इतने शरीर मैं था! और मजे की बात है कि इन सारे शरीरों में यात्रा करते वक्त हर शरीर को उसने जाना कि यह मैं हूं।
एक अमरीकन अभिनेता का जीवन मैं पढ़ता था। कई बार संन्यासियों के जीवन थोथे होते हैं, उनमें कुछ भी नहीं होता। जिन्हें हम तथाकथित अच्छे आदमी कहते हैं, अक्सर उनके पास कोई जिंदगी नहीं होती। इसलिए अच्छे आदमी के आसपास कहानी लिखना बहुत मुश्किल है। उसके पास कोई जिंदगी नहीं होती। वह थोथा, समतल भूमि पर चलने वाला आदमी होता है, कोई उतार-चढ़ाव नहीं होते। अक्सर जिसको हम बुरा आदमी कहते हैं, उसमें एक जिंदगी होती है, और उसमें उतार-चढ़ाव होते हैं और अक्सर बुरे आदमी के पास जिंदगी के गहरे अनुभव होते हैं। अगर वह उनका उपयोग कर ले तो संत बन जाये। अच्छा आदमी कभी संत नहीं बन पाता। अच्छा आदमी बस अच्छा आदमी ही रह जाता है--सज्जन। सज्जन याने मिडियॉकर। जिसने कभी बुरे होने की भी हिम्मत नहीं की, वह कभी संत होने की भी सामर्थ्य नहीं जुटा सकता।
इस अभिनेता की मैं जिंदगी पढ़ रहा था। उसकी जिंदगी बड़े उतार-चढ़ाव की जिंदगी है। अंधेरे की, प्रकाशों की, पापों की, पुण्यों की--लेकिन उसका अंतिम निष्कर्ष देख कर मैं दंग रह गया। अंतिम उसने जो निष्कर्ष दिया है, पूरी जिंदगी में जो बात उसे सबसे ज्यादा बेचैन की है, काश वह आपको भी बेचैन कर सके। आखिरी बात उसने यह कही है कि मेरी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि मैंने इतने प्रकार के अभिनय किये, जिंदगी में मैंने इतनी एक्टिंग्स कीं, मैं इतने व्यक्ति बना, कि अब मैं तय नहीं कर पाता हूं कि मैं कौन हूं? कभी वह शेक्सपियर के नाटक का कोई पात्र था, कभी वह किसी और कथा का कोई और पात्र था। कभी किसी कहानी में वह संत था, और कभी किसी कहानी में वह पापी था। जिंदगी में इतने पात्र बना वह कि आखिर में कहता है कि मुझे अब समझ नहीं पड़ता कि असली में मैं कौन हूं? इतने अभिनय करने पड़े, इतने चेहरे ओढ़ने पड़े, कि मेरा खुद का चेहरा क्या है वह मुझे कुछ पक्का नहीं रहा।
दूसरी बड़ी गहरी बात उसने कही है कि जब भी मैं किसी पात्र का अभिनय करने मंच पर जाता हूं तब मैं एट-ईज होता हूं। क्योंकि वहां स्वयं होने की जरूरत नहीं होती, एक अभिनय निभाना पड़ता है, तो मैं एकदम सुविधा में होता हूं, मैं निभा देता हूं। "टु स्टेप इन ए रोल इज ईजीयर।' उसने लिखा है कि एक अभिनय में कदम रखना आसान है। "बट टु स्टेप आउट आफ इट बिकम्स कांप्लेक्स।' जैसे ही मैं मंच से उतरता हूं उस अभिनय को छोड़ कर, वैसे ही मेरी दिक्कत शुरू हो जाती है कि अब मैं कौन हूं? तब तक तो तय होता है कि मैं कौन था, अब मैं कौन हूं?
हजार अभिनय करके यह तय करना उसे मुश्किल हो गया है कि मैं कौन हूं? कहना चाहिए कि उसकी जिंदगी में अचौर्य का क्षण निकट आ गया है। लेकिन हमारी जिंदगी में हमें पता नहीं चलता। सच बात तो यह है कि कोई अभिनेता इतना अभिनय नहीं करता, जितना अभिनय हम सब करते हैं। मंच पर नहीं करते हैं, इससे खयाल पैदा नहीं होता है। बचपन से लेकर मरने तक अभिनय की लंबी कहानी है। ऐसा एक भी आदमी नहीं है जो अभिनेता नहीं है। कुशल-अकुशल का फर्क हो सकता है, लेकिन अभिनेता नहीं है, कोई ऐसा आदमी नहीं है। और अगर कोई आदमी अभिनेता न रह जाये तो उसके भीतर धर्म का जन्म हो जाता है।
हम चेहरे चुरा कर जीते हैं। हम शरीर को अपना मानते हैं वह भी अपना नहीं है, और हम जिस व्यक्तित्व को अपना मानते हैं वह भी हमारा नहीं है। वह सब उधार है। और जिन चेहरों को हम अपने ऊपर लगाते हैं; जो मास्क, जो परसोना, जो मुखौटे लगा कर हम जीते हैं वह भी हमारा चेहरा नहीं है।
बड़ी से बड़ी जो आध्यात्मिक चोरी है वह चेहरों की चोरी है, व्यक्तित्वों की चोरी है।
बेंजामिन फ्रेंकलिन ने अपने बचपन का एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि बचपन से ही मुझे पूर्ण होने की इच्छा है, तो मैंने बारह नियम तय किये थे जिनका उपयोग करके मैं पूर्ण हो जाऊंगा। उन बारह नियमों में समस्त धर्मों ने जो श्रेष्ठ बातों की चर्चा की है वह सब आ जाते हैं। संयम है, संकल्प है, शील है, शांति है, मौन है, सदभाव है...वह सारे बारह, सब अच्छी बातें उन बारह में आ जाती हैं।
बेंजामिन फ्रेंकलिन ने लिखा है कि लेकिन मैं इनको पाऊं कैसे? तो मैंने एक-एक आचरण का अभ्यास करना शुरू कर दिया। मैंने बुरा बोलना बंद कर दिया, और जब बुरा आये तो उसे दबाने लगा, और रोज रात हिसाब-किताब रखने लगा कि आज मैंने कोई बुरी बात तो नहीं बोली। आज मैंने किसी चीज में असंयम तो नहीं किया। आज मैंने कोई अनाचार तो नहीं किया। आज मैंने चोरी की बात तो नहीं सोची। आज मैंने आलस्य तो नहीं किया। वह हिसाब रखने लगा और रोज-रोज अभ्यास साधने लगा, फिर अभ्यास सध गया।
और बेंजामिन फ्रेंकलिन ने लिखा है कि मैंने अपने आचरण को पूरा साध लिया और तब एक ईसाई साधु ने उसे कहा कि तुमने सब तो साध लिया, लेकिन तुम बड़े अहंकारी हो गये हो। स्वभावतः जिसने सब साध लिया वह अहंकारी हो जायेगा। साधा है, सिद्ध हो गया है, तो अहंकार हो जायेगा। तो उस ईसाई फकीर ने कहा कि एक तेरहवां नियम और जोड़ दो--ह्यूमिलिटी, विनम्रता। बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कहा कि मैं उसको भी साध लूंगा। उसने फिर ह्यूमिलिटी भी साध ली, उसने विनम्रता भी साध ली। वह विनम्र भी हो गया।
लेकिन अपने संस्मरण में उसने एक वचन लिखा है जो बड़ा कीमती है। उसने लिखा है कि अंततः लेकिन मुझे ऐसा लगा कि जो भी मेरी उपलब्धि है, इट इज जस्ट एन एपियरेंस, वह सिर्फ दिखावा है। जो भी मैंने साध लिया है, वह सिर्फ चेहरा बन पाया है, वह मेरी आत्मा नहीं बन पायी। स्वभावतः जो भी हम बाहर से साधेंगे वह चेहरा ही बनता है। जो भीतर से आता है वही आत्मा होती है।
हम सब बाहर से ही साधते हैं धर्म को। अधर्म होता है भीतर, धर्म होता है बाहर। चोरी होती है भीतर, अचौर्य होता है बाहर। परिग्रह होता है भीतर, अपरिग्रह होता है बाहर। हिंसा होती है भीतर, अहिंसा होती है बाहर। फिर चेहरे सध जाते हैं। इसलिए धार्मिक आदमी जिन्हें हम कहते हैं, उनसे ज्यादा चोर व्यक्तित्व खोजना बहुत मुश्किल है।
चोर व्यक्तित्व का मतलब यह हुआ कि जो वे नहीं हैं, वे अपने को माने चले जाते हैं, दिखाये चले जाते हैं। आध्यात्मिक अर्थों में चोरी का अर्थ है: जो आप नहीं हैं उसे दिखाने की कोशिश, उसका दावा। हम सब वही कर रहे हैं, सुबह से सांझ तक हम दावे किये जाते हैं।
वह अमरीकी अभिनेता ही अगर भूल गया हो कि मेरा ओरीजिनल-फेस, मेरा अपना चेहरा क्या है, ऐसा नहीं है; हम भी भूल गये हैं। हम सब बहुत-से चेहरे तैयार रखते हैं। जब जैसी जरूरत होती है वैसा चेहरा लगा लेते हैं। और जो हम नहीं हैं, वह हम दिखाई पड़ने लगते हैं। किसी आदमी की मुस्कुराहट देख कर भूल में पड़ जाने की कोई जरूरत नहीं है, जरूरी नहीं है कि भीतर आंसू न हों। अक्सर तो ऐसा होता है कि मुस्कुराहट आंसुओं को छिपाने का इंतजाम ही होती है। किसी आदमी को प्रसन्न देख कर ऐसा मान लेने की कोई जरूरत नहीं है कि उसके भीतर प्रसन्नता का झरना बह रहा है, अक्सर तो वह उदासी को दबा लेने की व्यवस्था होती है। किसी आदमी को सुखी देख कर ऐसा मान लेने का कोई कारण नहीं है कि वह सुखी है, अक्सर तो दुख को भुलाने का आयोजन होता है।
आदमी जैसा भीतर है वैसा बाहर दिखाई नहीं पड़ रहा है, यह आध्यात्मिक चोरी है। और जो आदमी इस चोरी में पड़ेगा उसने वस्तुएं तो नहीं चुराईं, व्यक्तित्व चुरा लिये। और वस्तुओं की चोरी बहुत बड़ी चोरी नहीं है, व्यक्तित्वों की चोरी बहुत बड़ी चोरी है।
इसलिए जिस आदमी को अचौर्य में उतरना हो, उसे पहली बात यह समझ लेनी चाहिए कि वह भूल कर भी कभी व्यक्तित्व न चुराये। महावीर से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जाएगा। बुद्ध से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जायेगा। जीसस से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जाएगा। कृष्ण से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जाएगा।
चोर का मतलब ही यह है कि जिसने जो है वह नहीं, बल्कि जो नहीं था उसको ओढ़ लिया। अब दूसरा कोई आदमी पृथ्वी पर दुबारा महावीर नहीं हो सकता, हो ही नहीं सकता। वे सारी की सारी स्थितियां दुबारा नहीं दोहराई जा सकतीं जो महावीर के होने के वक्त हुईं। न तो वह पिता खोजे जा सकते हैं फिर से जो महावीर के थे। न वह मां खोजी जा सकती है फिर से जो महावीर की थी। न वह आत्मा दुबारा खोजी जा सकती है जो महावीर की थी। न वह शरीर खोजा जा सकता है जो महावीर का था। न वह युग खोजा जा सकता है जो महावीर का था। न वे चांदत्तारे खोजे जा सकते हैं। कुछ भी नहीं खोजा जा सकता। इस जगत में जो क्षण बह गया वह बह गया।
इसलिए दूसरा कोई आदमी जब भी महावीर होने की कोशिश करेगा तो वह चोर महावीर हो जाएगा। दूसरा कोई आदमी अगर कृष्ण होने की कोशिश करेगा तो वह चोर कृष्ण हो जाएगा। कोई आदमी जब भी दूसरा आदमी होने की कोशिश करेगा तो आध्यात्मिक चोरी में पड़ जाएगा। उसने व्यक्तित्व चुराने शुरू कर दिये। और धर्म का हम यही मतलब समझे बैठे हैं: किसी के जैसे हो जाओ, अनुयायी बनो, अनुकरण करो, अनुसरण करो, पीछे चलो, ओढ़ो, किसी को भी ओढ़ो, खुद मत रहो बस, किसी को भी ओढ़ो। इसलिए कोई जैन है, कोई हिंदू है, कोई ईसाई है, कोई बौद्ध है। ये कोई भी धार्मिक नहीं हैं। ये धर्म के नाम पर गहरी चोरी में पड़ गये हैं। अनुयायी चोर होगा ही आध्यात्मिक अर्थों में, उसने किसी दूसरे व्यक्तित्वों को चुरा कर अपने पर ओढ़ना शुरू कर दिया जो वह नहीं है। पाखंड, हिपोक्रेसी परिणाम होगा।
इसलिए जितना तथाकथित धार्मिक समाज, उतना पाखंडी, उतना हिपोक्रेट। उसका कारण है, क्योंकि वहां कोई व्यक्ति वही नहीं है, जो वह है। वहां सभी व्यक्ति वही है, जो वह नहीं है। ऐसा समझें कि कोई व्यक्ति अपनी जगह नहीं है, सब किसी और की जगह खड़े हैं। कोई व्यक्ति अपनी आंखों से नहीं देख रहा है, सब किसी और की आंखों से देख रहे हैं। कोई व्यक्ति अपने होठों से नहीं हंस रहा है, सब व्यक्ति दूसरों के होठों से हंस रहे हैं। कोई व्यक्ति अपने से नहीं जी रहा है, सब व्यक्ति किसी और से जी रहे हैं। जो असंभव है। न तो मैं किसी की जगह जी सकता हूं और न किसी की जगह मर सकता हूं। न मैं किसी के होठ से हंस सकता हूं और न किसी के हृदय से अनुभव कर सकता हूं। मेरा अनुभव अनिवार्यरूपेण निजी होगा। और निजी होगा उसी दिन मैं अचौर्य को उपलब्ध होऊंगा, उसके पहले नहीं हो सकता। मैं जिस दिन स्वयं ही रह जाऊंगा, मेरे पास कोई ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व नहीं होगा, उस दिन मैं अचौर्य को उपलब्ध हो जाऊंगा, अन्यथा मैं चोर बना रहूंगा।
ध्यान रहे, वस्तुओं के चोरों को तो हम जेलों में बंद कर देते हैं, व्यक्तित्वों के चोरों के साथ हम क्या करें? जिन्होंने पर्सनैलिटीज चुराई हैं, उनके साथ क्या करें? उन्हें हम सम्मान देते हैं, उन्हें हम मंदिरों में, मस्जिदों में, गिरजाघरों में आदृत करते हैं।
ध्यान रहे, वस्तुओं के चोर ने कोई बहुत बड़ी चोरी नहीं की है, व्यक्तित्व के चोर ने बहुत बड़ी चोरी की है। और वस्तुओं की चोरी बहुत जल्दी बंद हो जाएगी, क्योंकि वस्तुएं ज्यादा हो जाएंगी, चोरी बंद हो जाएगी, लेकिन व्यक्तित्वों की चोरी जारी रहेगी। हम चुराते ही रहेंगे, दूसरे को ओढ़ते ही रहेंगे।
इसे आप जरा सोचना कि आप स्वयं होने की हिम्मत जिंदगी में जुटा पाये, या नहीं जुटा पाये? अगर नहीं जुटा पाये तो आपके व्यक्तित्व की अनिवार्य आधार-शिला चोरी की होगी। आपने कोई और बनने की कोशिश तो नहीं की है? आपके चेतन-अचेतन में कहीं भी तो किसी और जैसा हो जाने का आग्रह तो नहीं है? अगर है, तो उस आग्रह को ठीक से समझ कर उससे मुक्त हो जाना जरूरी है। अन्यथा अचौर्य, नो-थेफ्ट की स्थिति नहीं पैदा हो पाएगी। और यह चोरी ऐसी है कि इससे आपको कोई भी रोक नहीं सकता, क्योंकि व्यक्तित्व अदृश्य चोरियां हैं। धन चुराने जाएंगे, पकड़े जा सकते हैं। व्यक्तित्व चुराने जाएंगे, कौन पकड़ेगा? कैसे पकड़ेगा? कहां पकड़ेगा? और व्यक्तित्व की चोरी ऐसी है कि किसी से कुछ छीनते भी नहीं और आप चोर हो जाते हैं। व्यक्तित्व की चोरी आसान और सरल है। सुबह से उठ कर देखना जरूरी है कि मैं कितनी बार दूसरा हो जाता हूं। हम व्यक्ति नहीं हो पाते व्यक्तित्वों के कारण। पर्सनैलिटीज के कारण पर्सन पैदा नहीं हो पाता।
यह शब्द पर्सनैलिटी बड़ा अच्छा शब्द है--यूनान में ग्रीक ड्रामा से आया हुआ शब्द है। यूनान में जो यूनानी ड्रामा होता था उसमें प्रत्येक अभिनेता को अपने ऊपर एक मुखौटा, एक चेहरा ओढ़ना पड़ता था, एक मास्क पहनना पड़ता था। उस चेहरे को परसोना कहते थे। और उस चेहरे से बने हुए व्यक्तित्व को पर्सनैलिटी कहते थे। पर्सनैलिटी का मतलब था जो वो नहीं है वह। पर्सनैलिटी का मतलब कि जो आप नहीं हैं।
इसलिए जितनी बड़ी पर्सनैलिटी हो उतनी बड़ी चोरी होगी। बहुत कुछ चुराया हुआ होगा। एक साधु है, वह महावीर की पर्सनैलिटी लिये हुए है। ठीक महावीर जैसा नग्न खड़ा हो गया है। ठीक महावीर जैसा चलता, उठता, बैठता है। ठीक महावीर जैसा खाता-पीता है। ठीक महावीर के शब्द बोलता है। बिलकुल महावीर हो गया है। लेकिन यह होना बाहर से ही हो सकता है। भीतर से तो वह सिर्फ वही हो सकता है जो है, यह पर्सनैलिटी है।
इसलिए चोरों के पास अक्सर अपना व्यक्तित्व होता है। साधुओं के पास अपना होता ही नहीं। अगर जेलखाने में जायें और चोरों की आंखों में झांकें तो ऐसा लगेगा कि वे जो हैं, हैं। मंदिरों में जायें और साधुओं की आंखों में झांकें तो लगेगा कि वे जो नहीं हैं वही हैं।
बुरा आदमी अक्सर वही होता है, जो है। क्योंकि बुरे को कोई भी ओढ़ता नहीं। अच्छा आदमी अक्सर वही होता है जो नहीं है, क्योंकि अच्छे को ओढ़ने का मन होता है। अच्छा होना तो बहुत कठिन है, ओढ़ना बहुत आसान है। अच्छा होना तो तपश्चर्या है, अच्छा होना आर्डुअस है। लेकिन अच्छे को ओढ़ लेना खेल है, सुविधा है, बहुत कन्वीनिएंट है। फिर अच्छे होने के साथ बड़ी कठिनाइयां हैं; क्योंकि दुनिया अच्छी नहीं है। इसलिए अच्छा होने वाला आदमी दुनिया के साथ मुसीबत में पड़ जाता है। टु बी मॉरल इन ए इम्मॉरल सोसायटी, टु बी गुड इन ए बैड सोसायटी, एक अनैतिक समाज में नैतिक होना बड़ी दुविधा है। एक बुरे समाज में अच्छे होना बड़ी कठिनाई मोल लेना है। यही है तपश्चर्या साधु की।
साधु की तपश्चर्या नंगा खड़ा हो जाना नहीं है। साधु की तपश्चर्या भूखा रह जाना नहीं है। ये बड़ी सस्ती और सरल बातें हैं, जो कोई भी नासमझ साध सकता है। असल में समझ हो तो साधना मुश्किल, ना-समझी हो तो साधना आसान। साधु की तपश्चर्या है: टु बी मॉरल इन ए इम्मॉरल वर्ल्ड, नैतिक होना अनैतिक जगत में तपश्चर्या है। क्योंकि चारों तरफ से चोट पड़ेगी। इसलिए सुविधापूर्ण है वस्त्र ओढ़ लेना। नैतिकता के वस्त्र ओढ़ो, अनैतिक रहो। अनैतिक रहो, दुनिया से कोई तकलीफ नहीं होगी। नैतिकता के वस्त्र ओढ़ो, बाजारों में, सार्वजनिक स्थानों में।
इसलिए हमारे पास दो तरह के चेहरे हैं: प्राइवेट फेसेस, पब्लिक फेसेस। और नियम है कि वह जो व्यक्तिगत चेहरा है, निजी चेहरा है, उसे कभी सार्वजनिक स्थान में मत ले जाना। कोई नहीं ले जाता। कभी-कभी शराब वगैरह कोई पी ले तो भूल हो जाती है, अन्यथा नहीं। कोई शराब पी ले तो भूल जाता है कि पब्लिक प्लेस है और प्राइवेट फेस, तो तकलीफ होती है।
इसलिए भले आदमी शराब पीने से बहुत डरते हैं। बुरे आदमी उतने नहीं डरते हैं, क्योंकि उनका चेहरा सब जानते हैं। उससे बड़ा और बुरा चेहरा उनके पास नहीं है। अगर दुनिया के सब भले आदमियों को इकट्ठा करके शराब पिलाई जा सके तो आपको पता चलेगा कि प्राइवेट फेसेस क्या हैं।
यूनान में एक फकीर था गुरजिएफ। वह तो जब भी कोई आदमी वहां आता तो उससे पहले पूछता कि भले आदमी हो कि बुरे आदमी हो? शायद ही कभी कोई आदमी कहता कि मैं बुरा आदमी हूं। क्योंकि इतना भला आदमी बहुत मुश्किल है खोजना जो कह सके कि मैं बुरा आदमी हूं। अक्सर तो लोग कहते कि कैसी आप बात पूछते हैं! भला हूं, साधना करने आया हूं, साधना करने ही क्यों आता अगर भला न होता? हालांकि हालत उल्टी है, भला आदमी किसलिए साधना करने जाएगा?
गुरजिएफ कहता, पहली साधना यह रहेगी कि पंद्रह दिन शराब पीनी पड़ेगी। अक्सर तो भला आदमी भाग जाता। कल्पना भी नहीं कर सकते कि कोई फकीर और शराब पीने के लिए कहेगा। लेकिन अर्थपूर्ण थी उस गुरजिएफ की बात। वह कहता था पंद्रह दिन तो मैं शराब पिलाऊंगा ताकि मैं तुम्हारा प्राइवेट फेस देख सकूं। अन्यथा मैं किसके साथ बात करूं, अन्यथा मैं किसके साथ व्यवहार करूं, अन्यथा मैं किसको बदलूं? क्योंकि तुम जो दिखाई पड़ रहे हो, अगर इसको मैंने बदला तो बेकार मेहनत हो जाएगी, क्योंकि तुम तो यह हो ही नहीं। यह बदलाहट बेकार। यह रंगरोगन मैं कर दूंगा, यह तुम्हारे मुखौटे पर हो जाएगा, तुम्हारे चेहरे से इसका कोई संबंध नहीं है। और मुखौटा बिलकुल अलग चीज है, तुम उसे कभी भी उतार कर रख सकते हो, बदल सकते हो। तुम मुझसे बेकार मेहनत मत करवाओ। पहले मुझे तुम्हारा ओरिजिनल फेस, तुम्हारा असली चेहरा देख लेने दो।
अक्सर तो अच्छा आदमी भाग जाता शराब का नाम सुन कर ही। भागना ही बता देता कि उस आदमी के भीतर कुछ छिपा है जो प्रकट होने से डरेगा। लेकिन अगर कोई रुक जाता तो बड़ी हैरानी होती। पंद्रह दिन गुरजिएफ उसे शराब ही पिलाये जाता। जितनी ज्यादा से ज्यादा पिला सकता, पिलाता। और उसके असली चेहरे को खोजता।
कैसा दुर्भाग्य कि आदमी के असली चेहरे को खोजने के लिए उसे बेहोश करना पड़ता है। इतनी परतें हैं नकली चेहरों की, चोरी इतनी गहरी है, इतनी लंबी है, अनंत जन्मों की है कि असली चेहरा बहुत-बहुत, बहुत पीछे छिप गया है। एक मुखौटा उतारो तो दूसरा उसके नीचे है। प्याज की तरह आदमी हो गया है। एक छिलका निकालो फिर छिलका, और छिलका निकालो फिर छिलका।
आप इस भ्रम में मत रहना कि प्याज को खोज लेंगे। आप छिलके निकालते जाओ, निकालते जाओ, निकालते जाओ, बस छिलके ही निकलते चले जाएंगे। आखिर में कुछ भी नहीं बचेगा। आखिरी छिलका निकल जाएगा। आप पूछोगे प्याज कहां है? पता चलेगा छिलकों का जोड़ ही प्याज थी, प्याज का अपना कोई अस्तित्व न था।
हम करीब-करीब अनंत जन्मों में इतने व्यक्तित्वों की चोरी किये हैं, हमने इतने मुखौटे ओढ़े हैं कि हमारा अपना तो कोई चेहरा नहीं रह गया है। अगर हमारे छिलके उतारे जाएंगे तो आखिर में शून्य रह जाएगा। लेकिन उसी शून्य से शुरू करना पड़ेगा, क्योंकि उसी शून्य से अचौर्य में गति होगी। उसके पहले कोई गति नहीं हो सकती। अगर एक आदमी को यह पता चल जाये कि मेरा कोई चेहरा ही नहीं है, तो बड़ी उपलब्धि है यह।
आपसे मैं कहना चाहूंगा कि आप चोरी से बचने की कोशिश का नाम अचोरी मत समझ लेना। चोरी से जो बचा है, वह भी चोरी से बचा हुआ चोर है। चोरी जिसने की है चोरी में फंस गया चोर है। वे दोनों चोर हैं। चोरी उनके भीतर है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक की चोरी व्यवहार तक चली गयी है, एक की चोरी मन तक रह गयी है।
लेकिन चोरी का जो असली गहरा आध्यात्मिक, स्पिरिच्युअल अर्थ है, वह यह है कि क्या आपके पास अपना चेहरा है?
नहीं खोज पाएंगे। आइने के सामने खड़े होंगे, वह जो चेहरा दिखाई पड़ेगा, पता चलेगा वह किसी और का है। हालांकि अब तक उसे हमने अपना ही समझा है। फिर ऐसा भी नहीं है कि हमारे पास एक ही चेहरा हो, जिससे हम चौबीस घंटे काम चलाते हों। चौबीस घंटे हमको फंक्शनली इतने बहुत-से चेहरे बदलने पड़ते हैं--पति के सामने पत्नी को कुछ और ही होना पड़ता है; पति पत्नी के सामने कुछ और होता है, अपनी पत्नी के सामने कुछ और होता है, पड़ोसी की पत्नी के सामने कुछ और होता है। तत्काल चेहरा बदल जाता है। अपने मालिक के सामने कुछ और होता है, अपने नौकर के सामने कुछ और होता है। अगर मेरे इस तरफ मालिक को बिठाल दिया जाये और मेरे इस तरफ नौकर को बिठाल दिया जाये तो मेरा नौकर मेरे आधे चेहरे में कुछ और देखेगा, मेरा मालिक मेरे आधे चेहरे में कुछ और देखेगा--मेरे दो चेहरे एक साथ होंगे। इधर नौकर को मैं दबाता हुआ रहूंगा। इधर मालिक की तरफ मैं पूंछ हिलाता हुआ रहूंगा। यह मेरे एक ही साथ मुझे दोनों काम करने पड़ेंगे।
तो कई दफे बहुत लोगों के बीच जब आप होते हैं तो आप गिरगिट हो जाते हैं। इसके साथ कुछ और, उसके साथ कुछ और, इसके साथ कुछ और। बड़ी कठिनाई हो जाती है।
मैंने सुना है नसरुद्दीन के बाबत। नसरुद्दीन की दो प्रेयसियां थीं। विनम्र आदमी रहा होगा, नहीं तो दो प्रेयसियों पर कौन रुकता है। दोनों से अलग-अलग मिलता था। दो प्रेयसी से एक साथ मिलना बहुत कठिन है। क्योंकि दोनों को ऐसे चेहरे दिखाये हैं, जो वायदा किया है कि एक को ही दिखाया है। प्रत्येक से कहा, तेरे सिवाय किसी को प्रेम नहीं करता।
लेकिन प्रेयसियां भी बहुत होशियार हैं, वे तत्काल पता लगा लेती हैं। वे प्रेमी की इतनी खोज नहीं करतीं जितनी प्रेमी की प्रेयसियों की खोज करती हैं। उन दोनों ने पता लगा लिया और एक दिन नसरुद्दीन को फंसा लिया और नसरुद्दीन से कहा, आज तो हम दोनों को एक साथ जवाब दो। नसरुद्दीन ने कहा, गरीब आदमी को इस तरह मत फंसाओ। क्योंकि तुम दोनों अलग-अलग हो तो बड़ी सुविधा रहती है, इतनी देर में मैं चेहरा बदल लेता हूं। लेकिन उन दोनों ने तो उसे पकड़ लिया और कहा, तुम जवाब दो कि हम दोनों में सुंदर कौन है? नसरुद्दीन ने कहा, तुम एक से एक बढ़कर सुंदर हो, तुम एक दूसरे से बढ़कर सुंदर हो।
पता नहीं प्रेयसियां समझ पाईं कि नहीं। शायद ही समझ पायी होंगी, क्योंकि प्रेम से बुद्धि का बहुत कम संबंध है। पता नहीं आप भी समझ पाये कि नहीं! नसरुद्दीन कह रहा है, तुम एक दूसरे से बढ़कर सुंदर हो! क्या कहना! बड़ी गहरी मजाक नसरुद्दीन आदमी से कर रहा है। दोनों चेहरे एक साथ संभालने हों तो बेचारा क्या कर सकता है? गिरगिट हो गया वह। कह रहा है कि तुम दोनों एक दूसरे से बढ़कर हो।
चौबीस घंटे में हम चौबीस चेहरे बदल रहे हैं। चौबीस नहीं और ज्यादा बदलने पड़ते हैं, और यह चेहरों की बदलाहट तनाव पैदा करती है। टेंशन जो है वह चेहरों की बदलाहट है। जिस आदमी के पास एक चेहरा है उस आदमी को तनाव नहीं होता। तनाव का कोई कारण नहीं रहा। तनाव सदा होता है चेहरों को बार-बार बदलने से। इतनी बार बदलना पड़ता है कि बहुत मुश्किल हो जाती है और बीच-बीच जो गैप पड़ता है, जब आप एक चेहरे को उतार कर दूसरा लाते हैं तो बीच का जो गैप होता है वह बहुत एंग्जाइटी पैदा करता है; क्योंकि उस वक्त आपके पास कोई चेहरा नहीं होता है, उस वक्त आप बड़ी कठिनाई में होते हैं। वह ठीक कहता है अमरीकी अभिनेता, "टु स्टेप इन ए रोल इज ईजीअर बट टु स्टेप आउट इज आरडुअस।' बाहर होना किसी रोल के बड़ा मुश्किल है, लेकिन हमें तो चौबीस घंटा करना पड़ता है। चेहरों को बदलना पड़ता है, बदलना पड़ता है, बदलना पड़ता है।
लेकिन आदमी बहुत होशियार है। जैसे पहले गाड़ियों में कन्वेंशनल गेयर था तो बदलना पड़ता था। अब ऑटोमैटिक गेयर है, उसे नहीं बदलना पड़ता। जो बहुत कुशल लोग हैं उनके पास ऑटोमैटिक गेयर हैं। वे चेहरे बदलते नहीं, चेहरे बदल जाते हैं। चेहरे के बदलने के हमने ऑटोमैटिक गेयर तय कर लिये हैं, अब हमें बदलना नहीं पड़ता। नौकर आया कि चेहरा बदला। मालिक आया कि चेहरा बदला। पत्नी आई कि चेहरा और हुआ। प्रेयसी आई कि चेहरा और हुआ। मित्र आया तो चेहरा और हुआ। अब चेहरा बदलता रहता है। पुराने आदमी को धार्मिक होने में बड़ी सुविधा थी। उसके पास कन्वेंशनल गेयर थे। उसको चेहरा बदलना पड़ता था, इसलिए यह भी पता चलता था कि मैं चेहरा बदल रहा हूं। आधुनिक सभ्यता ने कन्वेंशनल गेयर हटा दिये, जिनको बदलना पड़ता था। अब ऑटोमैटिक गेयर हैं। सभ्य आदमी और असभ्य आदमी में मैं इतना ही फर्क करता हूं, कन्वेंशनल गेयर और ऑटोमैटिक गेयर का, और कोई फर्क नहीं करता हूं।
असभ्य आदमी को चेहरा बदलना पड़ता है। बदलना पड़ने की वजह से उसे हर बार पता चलता है कि मैं कुछ कर रहा हूं। यह मैं क्या कर रहा हूं, उसे कठिनाई होती है। सभ्य आदमी का मतलब है, सभ्यता का अर्थ है, ऐसा प्रशिक्षण जो आपको चेहरे बदलने के कष्ट से बचा देता है। ऐसी शिक्षा जो आपको चेहरे बदलने के कष्ट से बचा देती है। और चेहरे अपने आप बदलने लगते हैं। इसलिए सभ्य आदमी का धार्मिक होना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उसको चोरी का पता ही नहीं चलता। उसे गैप का पता ही नहीं चलता, वह जो दो चेहरों के बीच में क्षण गुजरता है, जहां खाली जगह छूट जाती है, उसका उसे पता नहीं चलता। तनाव तो बढ़ता जाता है सभ्य आदमी का, क्योंकि तनाव चेहरे बदलने से पैदा होता है। लेकिन यह चेहरे न बदलूं यह बोध पैदा नहीं होता, क्योंकि गेयर ऑटोमैटिक है। वह अपने आप हो जाता है, इसलिए जितना सभ्य आदमी, उतना धर्म से दूर जाता हुआ मालूम पड़ता है।
जीसस, बुद्ध या महावीर एक असभ्य दुनिया में पैदा हुए थे। सभ्य दुनिया में हम जीसस, बुद्ध और महावीर जैसे हैसियत के आदमी पैदा नहीं कर पा रहे हैं। उसके कारण हैं। बेचैनी तो उससे भी ज्यादा है। असभ्य आदमी इतना बेचैन नहीं था। बेचैनी तो बहुत है, लेकिन यह पता नहीं चलता कि बेचैनी क्यों है? बेचैनी क्यों है, इसका हमें बोध कम हो गया।
तो मैं आप से कहना चाहूंगा अचौर्य को समझने के लिए अपने चेहरे बदलने के प्रति आपको सजग होना पड़ेगा। सजग होने की एक तरकीब है और सजग होने का एक अर्थ है। आप जितने सजग होते हैं किसी भी चीज के प्रति, उसकी गति कम हो जाती है।
कभी आपने फिल्म देखी है। उसकी कभी मशीन बिगड़ जाये, मशीन के बिगड़ने का मतलब क्या? मशीन धीमी चलने लगे, प्रोजेक्टर धीमा चलने लगे तो परदे पर फिल्म की गति क्षीण हो जाती है। तो जो आदमी एकदम से हाथ उठाता मालूम पड़ रहा था परदे पर, फिर दस आदमी धीरे-धीरे हाथ उठाते हुए मालूम पड़ते हैं और हाथों के बीच गैप हो जाता है। जब मैं भी हाथ उठाता हूं तो यह हाथ एक झटके में नहीं उठता, सिर्फ आपकी आंख इतनी गति को पकड़ नहीं पाती अन्यथा हाथ को बीस पोजीशन लेनी पड़ती इतने हटने में। लेकिन अगर गौर से देखें, और मशीन आपकी थोड़ी धीमी हो जाये...और गौर से देखने से धीमी हो जाती है। किसी भी चीज को अगर बहुत गौर से देखें तो प्रक्रिया धीमी हो जाती है, दो कारण से। क्योंकि गौर से देखने के लिए पहले तो आपको खड़ा होना पड़ता है। आपको रुकना पड़ता है। अगर आप अपने चेहरे बदलने की प्रक्रियाओं को गौर से देखें तो प्रक्रिया धीमी हो जाएगी और आप देख सकेंगे कि कब आपका चेहरा बदला और अपने पर हंस सकेंगे कि चेहरा बदल लिया गया।
अचौर्य के महाव्रत में आप अपने चेहरे बदलने को देखना। एक आदमी दूकान से मंदिर की ओर जा रहा है। उसे पता रखना चाहिए कि कब उसने चेहरा बदला, किस स्टेप पर, मंदिर की किस सीढ़ी पर चेहरा बदला गया। दूकान पर वही तो चेहरा नहीं था जो मंदिर में होता है, बदलाहट कहीं तो हुई है जरूर। कहीं उसने चेहरा बदला है। पुरुष वेनीटी बैग वगैरह साथ नहीं रखते, स्त्रियां साथ रखती हैं। बस से उतरने के पहले चेहरा बदलती हैं, साथ में इंतजाम भी रखती हैं। वैसा बहुत भीतरी इंतजाम हम सबके पास है--जहां से हम चेहरे निकालते हैं और बदलते हैं। जब आप घर से मंदिर की तरफ जा रहे हैं तब आप जरा होशपूर्वक जानना कि चेहरा किस जगह बदलता है। किस जगह दूकानदार हटता है और साधक आता है। किस जगह दूकान पर बैठा हुआ आदमी जाता है और मंदिर में प्रवेश करने वाला आदमी आता है। जहां आप जूते उतारते हैं मंदिर के बाहर वहीं तो यह परिवर्तन नहीं होता? जरूरी नहीं है कि वहीं हो। असल में जूते उतरवाये इसलिए जाते हैं वहां कि कृपया अब चेहरा बदलो, अब वह जगह आ गयी जहां आपका पुराना ढंग नहीं चलेगा, जूता यहां उतारो! जहां लिखा रहता है "कृपया जूता यहां' वहीं नीचे तख्ती होनी चाहिए "कृपया चेहरे यहां'। कई लोग अपने चेहरे लिये भीतर घुस जाते हैं। जूता लिये मंदिर में चले जायें उतनी अपवित्रता नहीं होगी, चेहरा लिये चले गये तो ज्यादा होगी। लेकिन उसका किसी को पता नहीं चलता।
आपको मैं कहना चाहूंगा कि जब आप चेहरे बदलते हैं तो आप जरा होश रखना कि आप कब बदलते हैं। और इसका बड़ा मजा होगा। अब तक आप दूसरों पर हंसे हैं, तब आप अपने पर हंसना शुरू हो जायेंगे। और जब आप जान कर चेहरा बदलेंगे तो चेहरा बदलना मुश्किल हो जायेगा, और धीरे-धीरे आप कहेंगे कि यह क्या पागलपन है? यह मैं क्या अभिनय कर रहा हूं?
धीरे-धीरे चेहरा बदलना कठिन हो जायेगा और जिस दिन चेहरा बदलना कठिन होगा और बीच का अंतराल बढ़ेगा, और कभी-कभी आप बिना चेहरे के रह जायेंगे तब आप का ओरिजिनल फेस जन्मेगा। आपके भीतर आपका चेहरा आना शुरू होगा।
तो एक तो चौबीस घंटे बदलते हुए चेहरों का खयाल रखना, और दूसरा किसी का चेहरा--महावीर का, बुद्ध का, कृष्ण का, क्राइस्ट का, अपना बनाने की कोशिश मत करना। भूल कर मत करना। अनुयायी बनना ही मत, अन्यथा चोर बने बिना कोई उपाय ही नहीं है।
अनुयायी दो चोरी करता है। चेहरा चुराता है जो बहुत सिनसियर अनुयायी होता है। कहना चाहिए जो बहुत सिनसियर चोर होता है, जो बहुत ईमानदारी से चोरी करता है, वह चेहरे चुराता है। जो बेईमानी से चेहरे चुराता है वह चेहरे नहीं चुराता, सिर्फ विचार चुराता है। वह महावीर का चेहरा नहीं ओढ़ता, सिर्फ महावीर का विचार पकड़ लेता है। पंडित के पास सिर्फ विचार की चोरी होती है, तथाकथित साधु के पास चेहरों की चोरी होती है।
तो ध्यान रखना, कुछ कमजोर चोर हैं। वह कहते हैं, चेहरा तो मुश्किल है महावीर का लगाना, लेकिन अहिंसा परमधर्म है, यह तो हम अपने भीतर लिख ही सकते हैं। महावीर का शास्त्र तो पढ़ ही सकते हैं। कृष्ण का चेहरा लगाकर तो जरा कठिनाई है, लेकिन कृष्ण की गीता तो कंठस्थ कर ही सकते हैं।
तो दो तरह की चोरी है--विचार की, चेहरे की। चेहरे की चोरी वाले आदमी को हम बहुत सिनसियर चोर और ईमानदार चोर कहते हैं। क्योंकि इस बेचारे आदमी ने जैसा विचारा वैसा किया भी। ध्यान रखें, जिसने विचार से कुछ किया है वह आदमी चेहरा ओढ़ लेगा। धर्म का कोई संबंध किसी सिद्धांत को तय करके उसके अनुसरण करने से नहीं है। नहीं तो बेंजामिन फ्रेंकलिन वाली घटना घटेगी, एपियरेंसेज पैदा हो जायेंगे, दिखावे पैदा हो जायेंगे।
अक्सर हम कहते हैं, जो विचारते हो उसके अनुसार आचरण करो। यह चोर बनाने का सूत्र है, लेकिन सिनसियर, ईमानदार चोर इससे पैदा होते हैं। हम लोगों से कहते हैं, जो विचारते हो उसका आचरण भी करो, पर हमें पहले यह तो पता लगा लेना चाहिए कि कहीं विचार चोरी से तो नहीं आया है? अन्यथा आचरण और भी गहरी चोरी में ले जायेगा। जब हम किसी से कहते हैं कि इस आदमी का विचार और आचरण बिलकुल एक-सा है, तब हमें पूछ लेना चाहिए कि इसके आचरण से इसका विचार आया है, या इसके विचार से इसका आचरण आया है। अगर इसके आचरण से इसका विचार आया है तब तो यह धार्मिक आदमी है, अगर इसके विचार से इसका आचरण आया है तो यह आदमी चोर है। मगर यह फर्क एकदम से दिखाई नहीं पड़ता।
जब आचरण से कोई विचार आता है, तब उसकी सुगंध और है, क्योंकि आचरण आत्मा से आता है। जब किसी विचार से आचरण आता है तो विचार, शास्त्र से आता है। शास्त्र से आया हुआ विचार खुद भी चोरी है, फिर शास्त्र से आये हुए विचार के अनुसार जीवन को ढाल लेना और बड़ी चोरी है। और जो इस तरह की चोरियों में भटक जाते हैं वे आत्मा को खो देते हैं। उन्हें पता लगाना मुश्किल हो जाता है कि वे कौन हैं?
नहीं, मैं नहीं कहता हूं कि विचार के अनुसार आचरण। मैं कहता हूं, आचरण के अनुसार विचार। बड़ी मुश्किल में पड़ेंगे आप, क्योंकि आचरण कहां से लायें? अगर विचार के अनुसार आचरण हो तो विचार तो मिल सकते हैं, आचरण कहां से लायें! आचरण की कोई दूकान नहीं है। आचरण कहीं बिकता नहीं। विचार तो बिकते हैं। विचारों की तो किताबें हैं। आचरणों की कोई किताबें नहीं। आचरण का कोई शास्त्र नहीं है। इसलिए आचरण आप कहां से लायेंगे? अगर महावीर से लायेंगे तो फिर विचार से आया, बुद्ध से लायेंगे तो विचार से आया, कृष्ण से लायेंगे तो विचार से आया। आचरण कहां से लाइयेगा? अगर किसी दूसरे से लायेंगे तो पहले विचार आयेगा। अगर अपने से लायेंगे तो बात और हो जायेगी। तब पहले विचार नहीं आयेगा, पहले अनुभव आयेगा।
अगर चोर आचरण है आपका, तो कृपा करके चोर जैसा विचार करिये। इसमें एक सरलता होगी। आपका आचरण चोर का है, तो चोर जैसा ही विचार करिये। और मैं आपसे कहता हूं कि अगर आपका आचरण चोर का है और विचार भी चोर का है तो आप चोरी के बाहर हो जायेंगे! अगर आपका आचरण चोर का है और विचार अचौर्य का है तो आप चोरी के बाहर कभी नहीं होंगे। क्योंकि आप कहेंगे आचरण तो बाहरी चीज है, असली चीज तो विचार है। ऐसे तो मैं अचोर हूं, मजबूरियों में चोर बन जाता हूं। तो धीरे-धीरे साध लूंगा, आचरण भी बदल लूंगा। जब विचार बदल गया तो आचरण भी बदल जायेगा--व्रत ले लूंगा, कसम खा लूंगा। तो आप जिंदगी भर पोस्टपोन करते रहेंगे, क्योंकि आप भीतरी रूप से अनुभव करेंगे कि विचार तो अचोरी का है। ऐसे तो आदमी मैं भीतर से अच्छा हूं। ऐसी बाहर की परिस्थितियां हैं, कारण हैं, जो चोर बना देते हैं, चोर मैं हूं नहीं।
यह ध्यान रखें आप कि आपका जो व्यवहार है, वह बहुत दूर है आपसे। आपका जो विचार है वह बहुत निकट है। इसलिए अगर हम किसी आदमी को उसके विचार में गलती बतायें तो वह मानने को राजी नहीं होता। अगर हम किसी आदमी को कहें कि तुम्हारे पैर में फोड़ा है, वह झंझट नहीं करता, वह कहता है, इलाज बताइये! लेकिन हम किसी आदमी से कहें कि तुम्हारे मन में रोग है, तो वह लड़ने को तैयार हो जाता है, वह कहता है, आपकी गलती है देखने में।
शरीर के रोग को आदमी स्वीकार कर लेता है, वह बहुत दूर है। मन के फोड़े को वह स्वीकार नहीं करता, वह बहुत निकट है। मन के फोड़े पर चोट उस पर ही चोट है। तो हमने एक तरकीब की है। एक टेक्नीकल तरकीब है हमारी कि हम विचार अच्छे करते हैं, आचरण बुरा करते हैं। इससे सुविधा रहती है। सुविधा यह रहती है कि हम अपने भीतर मानते ही चले जाते हैं कि हम आदमी अच्छे हैं। अगर आपको मैं गाली दूं तो मैं यह नहीं कहूंगा कि मैं गाली देने वाला आदमी हूं; मैं कहूंगा, मैं तो गाली कभी नहीं देता, लेकिन इस आदमी ने गाली दी इसलिए मुझे गाली देनी पड़ी। यही आदमी जिम्मेदार है मेरी गाली को पैदा करवाने में। जब आप किसी से लड़ते हैं तो आप यह नहीं कहते हैं कि लड़ाई मेरे भीतर है। आप कहते हैं, इस आदमी ने लड़ाई की सिच्युएशन पैदा कर दी। मुझे लड़ना पड़ा। ऐसे आदमी मैं लड़ने वाला नहीं हूं। और इसको आप विश्वास भी दे लेंगे क्योंकि भीतर आप कभी लड़ने का विचार तो करते नहीं। विचार तो सदा अहिंसा, अचोरी, अपरिग्रह का करते हैं। शास्त्र तो अहिंसा, अचोरी, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य का पढ़ते हैं। तो विचार तो बड़े अच्छे हैं। आचरण! तो आचरण के लिए दूसरा जिम्मेदार हो जाता है। आप बच जाते हैं। फिर एक और सुविधा होती है, जब विचार अच्छे हैं तो आज नहीं कल ताकत जुटा कर, संकल्प पैदा करके, स्थिति ठीक बनाकर, आचरण भी बदल लेंगे। तो पोस्टपोनमेंट किया जा सकता है।
ध्यान रहे, जिस आदमी को जिंदगी में ट्रांसफार्मेशन लाना हो उसे पोस्टपोनमेंट से बचना चाहिए। स्थगन से बचना चाहिए। वह बहुत कनिंग, बहुत चालाक तरकीब है। एक आदमी कहता है, मैं हूं तो अभी हिंसक लेकिन अहिंसा को मानता हूं। धीरे-धीरे अहिंसक हो जाऊंगा। वह कहेगा, कल हो जाऊंगा, परसों हो जाऊंगा। इस जन्म में हो जाऊंगा, अगले जन्म में हो जाऊंगा, वह उसे पोस्टपोन करता जायेगा और रहेगा हिंसक। लेकिन हिंसक होने की जो पीड़ा है उससे बच जायेगा; क्योंकि अहिंसक होने की आशा उसकी पीड़ा को कम कर देगी। वह कंसोलेटरी है।
तो मैं कहता हूं, चोरी करना तो चोरी का विचार भी करना। और जितने अचोरी के शास्त्र हों उनमें आग लगा देना। और घर में दीवालों पर लिखना कि चोरी परमधर्म है। और अपने हृदय में जानना कि चोरी परम कर्तव्य है। जो चोरी नहीं करता है वह गलती करता है।
अगर आप विचार भी चोरी का करें और आचरण भी चोरी का करें तो आप अपने साथ जी न सकेंगे। क्योंकि तब अपने चोर के साथ कोई भी नहीं जी सकता। और आप पक्के चोर हो जायेंगे। पूरे चोर हो जायेंगे। इसके साथ जीना मुश्किल हो जायेगा। आपकी पूरी पर्सनैलिटी, आचरण में, विचार में, आपका पूरा व्यक्तित्व चोर हो जायेगा। और आपकी आत्मा को इस चोर के साथ जीना मुश्किल हो जायेगा। एक क्षण जीना मुश्किल है।
लेकिन जीने की तरकीब है। वह तरकीब यह है कि हम कल ठीक कर लेंगे। विचार तो अच्छे हैं, आचरण बुरा है। आचरण दूसरों के कारण बुरा है, इस तरह के खयाल को बहुत तरह के प्रमाण भी मिल जाते हैं। जैसे एक आदमी जंगल में चला जाये तो वहां क्रोध नहीं करता। वह कहता है, देखो, क्रोध दूसरे लोग करवाते थे। अब मैं जंगल में आ गया, अब मैं कहां क्रोध कर रहा हूं!
इसलिए साधु जंगल की तरफ भागता है। वहां उसे आश्वासन हो जाता है कि मैं बिलकुल अच्छा आदमी हूं, मैं पहले भी अच्छा आदमी था, बुरे लोगों के बीच में घिरा था, इसलिए सब गड़बड़ हो रही थी। इसलिए पति पत्नी को छोड़कर भाग जाता है और सोचता है, देखो अब तो मैं माया-मोह के बाहर हो गया। उस स्त्री की वजह से माया-मोह पैदा हो रहा था। इसलिए पुरुष शास्त्रों में लिखते हैं, स्त्री नरक का द्वार है! भागे हुए स्त्री से, भाग गये हैं छोड़कर, अब वह कह रहे हैं, स्त्री नरक का द्वार है। क्योंकि वही उलझा रही थी, मैं तो सदा ही मुक्त था, इसके लिए कारण मिल जाते हैं।
अगर हम किसी कुएं में बाल्टी डालें और उसमें पानी न हो तो बाल्टी पानी बाहर नहीं ला सकती। बाल्टी उसी पानी को लाती जो कुएं में होता है। बाल्टी सिर्फ बाहर लाने का काम करती है। जब मैं आपको गाली देता हूं तो मेरी गाली आप में क्रोध पैदा नहीं कर सकती। गाली में क्रोध पैदा करवाने की ताकत ही नहीं है। लेकिन आपके भीतर जो क्रोध के पानी का कुआं भरा हुआ है, गाली बाल्टी बन जाती है, आपके क्रोध को बाहर ले आती है। गाली जो है वह प्रोडक्टिव नहीं है, वह सिर्फ मेनीफेस्टिंग है। वह किसी चीज को पैदा नहीं करती सिर्फ अभिव्यक्त करवाती है। लेकिन एक कुएं में बाल्टी न डाली जाये तो कुआं समझेगा अब पानी है ही नहीं, अब निकालता ही नहीं। वह बाल्टी का कसूर था कि बाल्टी भीतर आती थी और पानी की गड़बड़ पैदा होती थी। मैं तो सदा से खाली हूं, पानी है ही नहीं। देखो, अब कोई बाल्टी नहीं आती। अब कहां पानी निकल रहा है?
हम सब इसी भ्रम में हैं, अकेले में पता नहीं चलता। असल में हमारे व्यक्तित्व का पता ही हमें दूसरों के साथ चलता है। जब हम दूसरे के साथ हैं तभी पता चलता है कि हमारे भीतर क्या-क्या है। दूसरा मौका बनता है, हमें प्रकट होने का।
इसलिए कृपा करके दूसरे को जिम्मेदार मत ठहराना। जिसने भी इस दुनिया में दूसरे को जिम्मेदार ठहराया वह आदमी धार्मिक नहीं हो पाया है। धार्मिक आदमी का मतबल है, टोटल रिस्पांसिबिलिटी इज माइन। टोटल, पूरा का पूरा दायित्व मेरा है। अधार्मिक आदमी का मतलब है कि दायित्व किसी और का है, मैं तो भला आदमी हूं, लोग मुझे बुरा किये दे रहे हैं। कोई आपको बुरा नहीं कर रहा है।
दूसरी तरकीब, आप भीतर अच्छे विचार करते रहते हैं इसलिए आप भीतर जानते हैं कि भीतर तो मैं अच्छा हूं। जब दूसरों के संबंध में आता हूं तो बाहर बुरा हो जाता हूं। इसलिए यह बाहर से बुरा होना दूसरे के कारण है। अच्छे विचार से बचना, अगर अच्छे आचरण को जन्म देना हो। अगर बुरा आचरण है, कृपा करके बुरा विचार करना, पूरी तरह बुरे हो जाना। पूरी तरह बुरे आदमी के साथ जीना मुश्किल है। आधे अच्छे आदमी के साथ जीने की सुविधा बनायी जा सकती है। आधा अच्छा आदमी बुरे आदमी से भी बुरा है। आधे सत्य पूरे असत्यों से बुरे होते हैं। क्योंकि पूरे असत्य से मुक्त हो जायेंगे आप, आधे असत्य से कभी मुक्त नहीं हो सकते। क्योंकि वह जो आधा सत्य है वह बंधन का काम करेगा।
तो मैं आपसे कहूंगा, विचार के अनुसार आचरण मत बनाना। आचरण के अनुसार ही विचार करना। ताकि चीजें साफ हों और अगर चीजें साफ हुईं तो कोई भी आदमी इस दुनिया में बुरे आदमी के साथ नहीं जी सकता। आप भी अपने बुरे आदमी के साथ नहीं जी सकते। और एक दफा यह पता चल जाये कि मैं एक बुरी पर्त के साथ जी रहा हूं तो इस पर्त को उखाड़ फेंकने में उतनी ही आसानी होगी जैसे पैर से कांटा निकालने में होती है। इस बुरी पर्त को फेंक देने में, इस व्यक्तित्व को, इस पर्सनालिटी को, इस प्याज की पर्त को उखाड़ कर फेंक देने में उतनी ही आसानी होगी जैसे शरीर से मैल को अलग कर देने में होती है।
लेकिन अगर कोई आदमी अपने मैल को सोना समझ रहा हो तब कठिनाई हो जाती है। कोई आदमी अपनी बीमारी को अगर मूल्य दे रहा हो, आभूषण समझ रहा हो, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। अब अगर हम किसी बच्ची की नाक को छेदें तो उसे तकलीफ होगी, लेकिन सोने के आभूषण की आकांक्षा में नाक छिदवाने के लिए कोई भी तैयार हो जाता है। अब शरीर को छेदना पागलपन है। लेकिन सोने की आशा में हम पागलपन करने को भी तैयार हो जाते हैं। अब शरीर को छेदना कुरूपता है, लेकिन सौंदर्य के खयाल में, भ्रम में, हम शरीर को छेदने को राजी हो जाते हैं।
हम बुरे होने को राजी हो गये हैं, क्योंकि बुरे होने के पीछे हम सोने की कील लगाये हुए हैं विचारों की। विचार के अनुसार आचरण कभी मत करना, आचरण के अनुसार विचार करना और तब आपके व्यक्तित्व की सीधी और सच्ची सफाई हो जायेगी। आप जो होंगे वही होंगे, धोखे का उपाय नहीं रह जायेगा। दूसरे के धोखे का डर नहीं है, अपने को धोखा देने का उपाय नहीं रह जायेगा। आप अपने चेहरों को पहचान सकेंगे। और जिस दिन यह चेहरे चारों तरफ से पहचान में आ जाते हैं और इनकी कुरूपता, इनकी गंदगी और इनकी दुर्गंध, इनका कोढ़, जब चारों तरफ से दिखाई पड़ने लगता है, बाहर और भीतर, तब आप इसके साथ रह नहीं सकते। यह ऐसे ही हो जाता है, जब किसी के कपड़ों में आग लगी हो और वह अपने कपड़ों को फेंक कर नग्न हो जाये। ठीक ऐसे ही ट्रांसफार्मेशन होता है। ऐसे ही क्रांति घटित होती है। जब सारा व्यक्तित्व रुग्ण और आग लगा मालूम होता है तब आप उसे फेंक देते हैं। उसे फेंकने के लिए फिर एक क्षण भी विचार नहीं करना पड़ता कि कल फेंकूंगा। ऐसा नहीं है...।
बुद्ध के पास कोई आया और उसने कहा कि महाराज कुछ उपदेश दें। तो बुद्ध ने कहा, करोगे अभी कि कल? उसने कहा, अभी तो बहुत मुश्किल है। तो बुद्ध ने कहा, फिर कल ही आना। जिस दिन करना हो उसी दिन आ जाना। उसने कहा कि नहीं आप उपदेश तो दे दें। वक्त पर काम पड़ेगा, आप मिले न मिले। कभी उपयोग में जरूर लाऊंगा।
बुद्ध ने कहा कि मैं एक गांव से गुजरता था और घर में आग लग गई थी। मैंने उस घर के लोगों को कहा, अभी मत भागो कल भाग जाना। वे कहने लगे, पागल हो गये हो तुम! घर में आग लगी है, कल तक कैसे रुका जा सकता है। तो बुद्ध ने कहा कि जहां तक मैं समझता हूं, तुम जो हो अभी मानते हो कि ठीक हो, इसलिए कल तक ठहरा सकते हो। और जब तुम ठीक ही हो तो मुझे क्यों परेशान करते हो? मैं क्यों व्यर्थ की बातें तुमसे कहूं? जिस दिन तुम्हें पता लगे कि तुम ठीक नहीं हो...। नहीं, उस आदमी ने कहा, मुझे पता तो है मैं ठीक नहीं हूं। आदमी अच्छा नहीं हूं, बुरे काम करता हूं, लेकिन आत्मा तो शुद्ध-बुद्ध है। आत्मा तो शुद्ध ही है सदा। यह सब आचरण, तो आचरण बदल लूंगा, आप उपदेश करें।
हम सब उपदेश ग्रहण करने को बहुत आतुर और उत्सुक हैं। फिर हम सोचते हैं, उसके अनुसार आचरण बना लेंगे। यह आचरण वैसा ही होगा जैसा मंच पर अभिनेता का होता है। पहले उसे स्क्रिप्ट मिल जाती है, पहले उसे ढांचा मिल जाता है नाटक का, फिर उसको कंठस्थ करता है। फिर रिहर्सल करता है। फिर आकर मंच पर दिखा देता है करके कि यह रहा।
अभिनय का मतलब है विचार के अनुसार आचरण, लेकिन आत्मा का मतलब कुछ और है, आचरण के अनुसार विचार। अगर बुरा आचरण है तो बुरा विचार ही करना। टूट जाएंगे आप। आप का व्यक्तित्व बच नहीं सकेगा, बिखर जाएगा। और जिस दिन आपका पुराना व्यक्तित्व पूरा बिखर जाएगा उस दिन उस खाली जगह में उसका जन्म होगा जो आपका असली चेहरा है।
जापान में झेन फकीरों के पास अगर कोई जाता है तो वे बहुत से सवाल उससे पूछते हैं। उनमें से एक सवाल यह भी है कि कृपा करके अपना ओरिजिनल चेहरा प्रकट कीजिए, अपना असली चेहरा दिखाइये? अब नया आदमी आया है उससे कोई फकीर कहता है, असली चेहरा दिखाइये? तो वह कहता है, यही मेरा चेहरा है। तो फकीर कहता है, अगर यही तेरा चेहरा है तो यहां आने की कोई जरूरत नहीं। जा खोज--असली चेहरा लेकर आ। कभी-कभी कुछ हिम्मतवर लोग असली चेहरा लेकर आ जाते हैं। लेकिन वे फकीर भी बहुत अदभुत हैं, वे कहे ही चले जाते हैं कि माना कि यह पिछले से ज्यादा आथेंटिक है, पिछले वाले से ज्यादा गहरा है, लेकिन फिर भी असली नहीं है। अपना असली लेकर आ। उस चेहरे को ला, जो जन्म के पहले तेरे पास था और मौत के बाद तेरे पास होगा। जन्म के पहले कौन-सा चेहरा तेरे पास था, उसे ले आ। या मरने के बाद तेरे पास फिर जो चेहरा होगा, उसे ले आ। कृपा करके यह बीच के चेहरों को यहां मत ला। और जब कोई आदमी आकर बैठ जाता है फेसलेस, बिना चेहरे के, तो वह फकीर कहता है, ठीक है, अब तू असली जगह आ गया।
बड़ी उपलब्धि है फेसलेसनेस। लेकिन हम बहुत डरते हैं। अगर चेहरा खो जाये तो हम बहुत डरते हैं, हम पूछते हैं इससे बड़ी मुश्किल हो गई। फिर हम जल्दी चेहरा बनाने में लगते हैं।
चेहरा खोना ही चाहिए अगर चोरी खोनी है। और वह क्षण आना ही चाहिए जहां आपको पक्का न रह जाये कि मैं कौन हूं। अगर आपको जानना है कि आप कौन हैं, चोर चेहरों को हटाइए, चाहे महावीर से लिये हों, चाहे बुद्ध से, चाहे कृष्ण से, चाहे मुसलमान के, चाहे जैन के, चाहे हिंदू के। उन चेहरों को हटाइए और उसको खोजिए जो आपका है। और जिस दिन आपके सारे चेहरे गिर जायेंगे, अचानक आपके सामने वह रूप प्रगट हो जाता है जो आपका है। जैसे ही वह रूप प्रकट होता है आप अचौर्य को उपलब्ध हो जाते हैं। और जिस आदमी ने व्यक्तित्व चुराने बंद कर दिए, जिसने चेहरे चुराने बंद कर दिए, जिसने आचरण चुराने बंद कर दिए, वह आदमी वस्तुएं नहीं चुरा सकता। वह असंभव है। वह असंभव है, उसका कोई उपाय नहीं रह जाता। जिसने इतनी गहरी चोरियां छोड़ दीं, वह इन क्षुद्र चोरियों के लिए नहीं जाएगा; लेकिन हम क्षुद्र चोरियां छोड़ने में लगे रहते हैं।
एक मित्र मेरे पास आये, उन्होंने मुझसे कहा कि मैं रिश्वत नहीं लेता हूं। बड़े आफिसर हैं। मैंने कहा, अगर पांच रुपये कोई देने आये? उन्होंने कहा, क्या आप फिजूल की बातें करते हैं। मैं लेता ही नहीं रिश्वत। मैंने कहा, कोई पांच सौ देने आये? उन्होंने उतने जोर से नहीं कहा कि क्या फिजूल की बातें करते हैं। उन्होंने कहा, नहीं, नहीं, मैं लेता ही नहीं हूं। मैंने पूछा, अगर कोई पांच हजार रुपया लेकर आये? तो उन्होंने मुझे गौर से देखा, संदेह उनके मन में आ गया। मैंने कहा, अगर कोई पांच लाख लेकर आये? उन्होंने कहा, फिर सोचना पड़ेगा।
तो हमारे चोर होने में हो सकता है मात्राएं हों, डिग्रीज हों। हो सकता है आप दो पैसे न चुराते हों, लेकिन इससे यह मत समझ लेना कि आप अचोर हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि आपने दो पैसे चुराये कि दो लाख चुराये। चोरी में कोई मात्रा हो सकती है? चोरी कम और ज्यादा हो सकती है? दो पैसे की चोरी कम और दो लाख की ज्यादा! दो पैसा कम होंगे, दो लाख ज्यादा होंगे, चोरी तो एक-सी है। चोरी कैसे भिन्न, कम और ज्यादा हो सकती है? चोरी का एक्ट तो टोटल है। दो पैसे चुराऊं तो भी मैं उतना ही चोर होता हूं जितना दो लाख चुराऊं।
तो यह हो सकता है आपके चोरी के अपने मापदंड हैं, मेरे चोरी के अपने मापदंड हैं। मैं दो पैसे चुराता हूं, आप दो लाख चुराते हैं। दो लाख चुरानेवाले, दो पैसे चुराने वाले को जेल में बंद कर सकते हैं। कर सकते हैं, क्योंकि दो पैसा वाले अभी जेल नहीं बना सकते, दो लाख वाले जेल बना सकते हैं। दो लाख वाले चोरों को पकड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि दो लाख वाले चोर दो लाख रुपया किसी को भी चोरी में दे सकते हैं। तो जो मजिस्ट्रेट दो पैसेवाले चोर को सजा दे दे, वह दो लाख वाले चोर को कैसे सजा दे? क्योंकि तब तक तो वह मजिस्ट्रेट भी चोर हो जाएगा। दो लाख के लिए तो वह भी चोरी को राजी हो सकता है। तो बड़े चोर छोटे चोरों को फंसाये चले जाते हैं। बड़े चोर दीवारों के बाहर, छोटे चोर दीवारों के भीतर। होशियार चोर दीवारों के बाहर, नासमझ चोर दीवारों के भीतर। लेकिन पूरा समाज चोर है।
और यह चोरी जब तक हम वस्तुओं के संबंध में ही सोचते रहेंगे तब तक मिटनेवाली नहीं है। यह हो सकता है कि मैं सब छोड़ कर भाग जाऊं और कहूं कि मैं चोरी नहीं करूंगा। लेकिन मेरा भोजन कोई चोर लायेगा, मेरे कपड़े कोई चोर लायेगा, मेरे रहने का आश्रम कोई चोर बनायेगा। इससे क्या फर्क पड़ता है। सिर्फ मैं और भी होशियार चोर हूं। मैं खुद चोरी नहीं करता हूं, दूसरे से करवाता हूं। और कोई फर्क नहीं पड़ जाएगा। लेकिन मैं जिम्मेदारी के बाहर नहीं भाग सकता। चोरी है, समाज चोर है, समाज चोर रहेगा। तब तक, जब तक हम चोरी को वस्तुओं की चोरी समझ रहे हैं। समाज चोर है, क्योंकि हमने बहुत गहरे में सबको चोर होने की ही शिक्षा दी है।
हम एक बच्चे से कहते हैं कि विवेकानंद जैसे हो जाओ। अब इस बच्चे का क्या कसूर है कि विवेकानंद जैसा हो जाये? विवेकानंद बहुत भले थे, लेकिन इस बच्चे की कौन-सी गलती कि विवेकानंद हो जाये? और अगर हो गया तो चोर हो जाएगा। हम कहते हैं, महावीर जैसे हो जाओ। अब कोई गलती की है आपने पैदा होकर? अगर महावीर को ही सिर्फ पैदा होने का हक है पृथ्वी पर तो अब तक दुनिया खतम हो जानी चाहिए। वह हो चुके पैदा, मामला खतम हो गया। अब आपके होने की क्या जरूरत है? तो महावीर की कार्बन कापियों को दुहराने की क्या जरूरत है? जब ओरिजिनल ही हो गई तो अब फिजूल की और मेहनत किस लिए कर रहे हैं? एक महावीर काफी!
नहीं, किसी आदमी को कार्बन कॉपी होने की जरूरत नहीं है। व्यक्तित्व चुराने से बचना, आचरण चुराने से बचना, तब किसी दिन आपकी अपनी आत्मा प्रकट होगी जो अचौर्य को उपलब्ध होती है। और उसके बाद वस्तुओं को तो चुराने का सवाल ही नहीं उठता। वह सवाल ही नहीं है।
यह थोड़ी-सी बातें मैंने कहीं। यह आप कोशिश करने में मत लग जाना अन्यथा यह मेरा उधार विचार हो जाएगा और चोरी शुरू हो जाएगी। चोरी के बहुत सूक्ष्म रास्ते हैं। हो सकता है आप कहें कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं, चलें अब यही करें, चोरी शुरू हो गई। कृपा करके यही मत करना जो मैं कह रहा हूं। मैं जो कह रहा हूं उसे समझ लेना, और छोड़ देना। समझ आपके पास रह जाये, विचार नहीं। परफ्यूम रह जाये, फूल नहीं। मैंने जो बात कही वह समझ लेना, फिर उसे यहीं छोड़ जाना। बात से कोई लेना-देना नहीं, समझ आपके साथ चली जाएगी। वह समझ आपकी जिंदगी को बदले तो बदलने देना, न बदले तो न बदलने देना। कृपा करके ऊपर से थोपने की कोशिश मत करना, अन्यथा चोरी जारी रहेगी। और अचोरी कभी उपलब्ध नहीं हो सकती।
कल चौथे सूत्र अकाम पर हम बात करेंगे। मैंने कहा कि जब हिंसा रूप लेती है तो उसका एक रूप परिग्रह है और जब परिग्रह पागल होता है, विक्षिप्त होता है, तो उसका एक रूप चोरी है। कल अकाम की बात करेंगे। अकाम तीनों का आधार है। काम, वासना, डिजायरिंग, चाह, वह हिंसा का भी आधार है। वह परिग्रह का भी आधार है। वह चोरी का भी आधार है। काम इन तीनों के नीचे बैठा है और सरका हुआ है, सबकी जड़ में वह है। कल हम काम को समझेंगे और परसों अप्रमाद को।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

३ सितंबर १९७०, षणमुखानंद हाल, बंबई


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