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मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

जिन खोजा तिन पाइयां--(प्रवचन--13)

सात शरीरों से गुजरती कुंडलिनी—(प्रवचन—तैहरवां)


सातवीं प्रश्नोत्तर चर्चा:

मनुष्य के सात शरीर:

प्रश्न: ओशो कल की चर्चा में आपने कहा कि कुंडलिनी के झूठे अनुभव भी प्रोजेक्ट किए जा सकते हैं— जिन्हें आप आध्यात्मिक अनुभव नहीं मानते हैं मानसिक मानते हैं। लेकिन प्रारंभिक चर्चा में आपने कहा था कि कुंडलिनी मात्र साइकिक है। इसका ऐसा अर्थ हुआ कि आप कुंडलिनी की दो प्रकार की स्थितियां मानते हैं— मानसिक और आध्यात्मिक। कृपया इस स्थिति को स्‍पष्‍ट करें।

 सल में, आदमी के पास सात प्रकार के शरीर हैं। एक शरीर तो जो हमें दिखाई पड़ता है—फिजिकल बॉडी, भौतिक शरीर। दूसरा शरीर जो उसके पीछे है और जिसे ईथरिक बॉडी कहें— आकाश शरीर। और तीसरा शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे एस्ट्रल बॉडी कहें—सूक्ष्म शरीर। और चौथा शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे मेंटल बॉडी कहें— मनस शरीर। और पांचवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे म्प्रिचुअल बॉडी कहें— आत्मिक शरीर। छठवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे हम कास्मिक बॉडी कहें—ब्रह्म शरीर। और सातवां शरीर जो उसके भी पीछे है, जिसे हम निर्वाण शरीर, बॉडीलेस बॉडी कहें— अंतिम।
इन सात शरीरों के संबंध में थोड़ा समझेंगे तो फिर कुंडलिनी की बात पूरी तरह समझ में आ सकेगी।

 भौतिक शरीर, भाव शरीर और सूक्ष्म शरीर:

पहले सात वर्ष में भौतिक शरीर ही निर्मित होता है। जीवन के पहले सात वर्ष में भौतिक शरीर ही निर्मित होता है, बाकी सारे शरीर बीजरूप होते हैं; उनके विकास की संभावना होती है, लेकिन वे विकसित उपलब्ध नहीं होते। पहले सात वर्ष, इसलिए इमिटेशन, अनुकरण के ही वर्ष हैं। पहले सात वर्षों में कोई बुद्धि, कोई भावना, कोई कामना विकसित नहीं होती, विकसित होता है सिर्फ भौतिक शरीर।
कुछ लोग सात वर्ष से ज्यादा कभी आगे नहीं बढ़ पाते; कुछ लोग सिर्फ भौतिक शरीर ही रह जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों में और पशु में कोई अंतर नहीं होगा। पशु के पास भी सिर्फ भौतिक शरीर ही होता है, दूसरे शरीर अविकसित होते हैं।
दूसरे सात वर्ष में भाव शरीर का विकास होता है, या आकाश शरीर का। इसलिए दूसरे सात वर्ष व्यक्ति के भाव जगत के विकास के वर्ष हैं। चौदह वर्ष की उम्र में इसीलिए सेक्स मैच्योरिटी उपलब्ध होती है; वह भाव का बहुत प्रगाढ़ रूप है। कुछ लोग चौदह वर्ष के होकर ही रह जाते हैं, शरीर की उम्र बढ़ती जाती है, लेकिन उनके पास दो ही शरीर होते हैं।
तीसरे सात वर्षों में सूक्ष्म शरीर विकसित होता है— इक्कीस वर्ष की उम्र तक। दूसरे शरीर में भाव का विकास होता है; तीसरे शरीर में तर्क, विचार और बुद्धि का विकास होता है।
इसलिए सात वर्ष के पहले दुनिया की कोई अदालत किसी बच्चे को सजा नहीं देगी, क्योंकि उसके पास सिर्फ भौतिक शरीर है; और बच्चे के साथ वही व्यवहार किया जाएगा जो एक पशु के साथ किया जाता है। उसको जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। और अगर बच्चे ने कोई पाप भी किया है, अपराध भी किया है, तो यही माना जाएगा कि किसी के अनुकरण में किया है, मूल अपराधी कोई और होगा।

 तीसरे शरीर में विचार का विकास:

दूसरे शरीर के विकास के बाद— चौदह वर्ष—एक तरह की प्रौढ़ता मिलती है; लेकिन वह प्रौढ़ता यौन—प्रौढ़ता है। प्रकृति का काम उतने से पूरा हो जाता है। इसलिए पहले शरीर और दूसरे शरीर के विकास में प्रकृति पूरी सहायता देती है, लेकिन दूसरे शरीर के विकास से मनुष्य मनुष्य नहीं बन पाता। तीसरा शरीर—जहां विचार, तर्क और बुद्धि विकसित होती है—वह शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता का फल है। इसलिए दुनिया के सभी मुल्क इक्कीस वर्ष के व्यक्ति को मताधिकार देते हैं।
अभी कुछ मुल्कों में संघर्ष है अठारह वर्ष के बच्चों को मताधिकार मिलने का। वह संघर्ष स्वाभाविक है; क्योंकि जैसे— जैसे मनुष्य विकसित हो रहा है, सात वर्ष की सीमा कम होती जा रही है। अब तक तेरह और चौदह वर्ष में दुनिया में लड़कियां मासिक धर्म को उपलब्ध होती थीं। अमेरिका में पिछले तीस वर्षों में यह उम्र कम होती चली गई है; ग्यारह वर्ष की लड़की भी मासिक धर्म को उपलब्ध हो जाती है। अठारह वर्ष का मताधिकार इसी बात की सूचना है कि मनुष्य, जो काम इक्कीस वर्ष में पूरा हो रहा था, उसे अब और जल्दी पूरा करने लगा है, वह अठारह वर्ष में भी पूरा कर ले रहा है।
लेकिन साधारणत: इक्कीस वर्ष लगते हैं तीसरे शरीर के विकास के लिए। और अधिकतम लोग तीसरे शरीर पर रुक जाते हैं; मरते दम तक उसी पर रुके रहते हैं; चौथा शरीर, मनस शरीर भी विकसित नहीं हो पाता।
जिसको मैं साइकिक कह रहा हूं वह चौथे शरीर की दुनिया की बात है—मनस शरीर की। उसके बड़े अदभुत और अनूठे अनुभव हैं। जैसे जिस व्यक्ति की बुद्धि विकसित न हुई हो, वह गणित में कोई आनंद नहीं ले सकता। वैसे गणित का अपना आनंद है। कोई आइंस्टीन उसमें उतना ही रसमुग्ध होता है, जितना कोई संगीतज्ञ वीणा में होता हो, कोई चित्रकार रंग में होता हो। आइंस्टीन के लिए गणित कोई काम नहीं है, खेल है। पर उसके लिए बुद्धि का उतना विकास चाहिए कि वह गणित को खेल बना सके।

 प्रत्येक शरीर के अनंत आयाम:

जो शरीर हमारा विकसित होता है, उस शरीर के अनंत—अनंत आयाम हमारे लिए खुल जाते हैं। जिसका भाव शरीर विकसित नहीं हुआ, जो सात वर्ष पर ही रुक गया है, उसके जीवन का रस खाने—पीने पर समाप्त हो जाएगा। जिस कौम में पहले शरीर के लोग ज्यादा मात्रा में हैं, उसकी जीभ के अतिरिक्त कोई संस्कृति नहीं होगी।
जिस कौम में अधिक लोग दूसरे शरीर के हैं, वह कौम सेक्स सेंटर्ड हो जाएगी; उसका सारा व्यक्तित्व—उसकी कविता, उसका संगीत, उसकी फिल्म, उसका नाटक, उसके चित्र, उसके मकान, उसकी गाडिया—सब किसी अर्थों में सेक्स सेंट्रिक हो जाएंगी; वे सब वासना से भर जाएंगी।
जिस सभ्यता में तीसरे शरीर का विकास हो पाएगा ठीक से, वह सभ्यता अत्यंत बौद्धिक चिंतन और विचार से भर जाएगी। जब भी किसी कौम या समाज की जिंदगी में तीसरे शरीर का विकास महत्वपूर्ण हो जाता है, तो बड़ी वैचारिक क्रांतियां घटित होती हैं। बुद्ध और महावीर के वक्त में बिहार ऐसी ही हालत में था कि उसके पास तीसरी क्षमता को उपलब्ध बहुत बड़ा समूह था। इसलिए बुद्ध और महावीर की हैसियत के आठ आदमी बिहार के छोटे से देश में पैदा हुए, छोटे से इलाके में। और हजारों प्रतिभाशाली लोग पैदा हुए।
सुकरात और प्लेटो के वक्त यूनान की ऐसी ही हालत थी। कनफ्यूशियस और लाओत्से के समय चीन की ऐसी ही हालत थी। और बड़े मजे की बात है कि ये सारे महान व्यक्ति पांच सौ साल के भीतर सारी दुनिया में हुए। उस पांच सौ साल में मनुष्य के तीसरे शरीर ने बड़ी ऊंचाइयां छुई।
लेकिन आमतौर से तीसरे शरीर पर मनुष्य रुक जाता है, अधिक लोग इक्कीस वर्ष के बाद कोई विकास नहीं करते।

 चौथे मनस शरीर की अतींद्रिय क्रियाएं:

लेकिन ध्यान रहे, चौथा जो शरीर है उसके अपने अनूठे अनुभव हैं—जैसे तीसरे शरीर के हैं, दूसरे शरीर के हैं, पहले शरीर के हैं। चौथे शरीर के बड़े अनूठे अनुभव हैं। जैसे सम्मोहन, टेलीपैथी, क्लेअरवायंस— ये सब चौथे शरीर की संभावनाएं हैं। आदमी बिना समय और स्थान की बाधा के दूसरे से संबंधित हो सकता है; बिना बोले दूसरे के विचार पढ़ सकता है या अपने विचार दूसरे तक पहुंचा सकता है; बिना कहे, बिना समझाए, कोई बात दूसरे में प्रवेश कर सकता है और उसका बीज बना सकता है, शरीर के बाहर यात्रा कर सकता है—एस्ट्रल प्रोजेक्शन—शरीर के बाहर घूम सकता है, अपने इस शरीर से अपने को अलग जान सकता है।
इस चौथे शरीर की, मनस शरीर की, साइकिक बॉडी की बड़ी संभावनाएं हैं, जो हम बिलकुल ही विकसित नहीं कर पाते हैं, क्योंकि इस दिशा में खतरे बहुत हैं—एक; और इस दिशा में मिथ्या की बहुत संभावना है— दो। क्योंकि जितनी चीजें सूक्ष्म होती चली जाती हैं, उतनी ही मिथ्या और फाल्स संभावनाएं बढ़ती चली जाती हैं।
अब एक आदमी अपने शरीर के बाहर गया या नहीं—वह सपना भी देख सकता है अपने शरीर के बाहर जाने का, जा भी सकता है। और उसके अतिरिक्त, स्वयं के अतिरिक्त और कोई गवाह नहीं होगा। इसलिए धोखे में पड़ जाने की बहुत गुंजाइश है; क्योंकि दुनिया जो शुरू होती है इस शरीर से, वह सब्जेक्टिव है; इसके पहले की दुनिया ऑब्जेक्टिव है।
अगर मेरे हाथ में रुपया है, तो आप भी देख सकते हैं, मैं भी देख सकता हूं पचास लोग देख सकते हैं। यह कॉमन रियलिटी है, जिसमें हम सब सहभागी हो सकते हैं और जांच हो सकती है—रुपया है या नहीं? लेकिन मेरे विचारों की दुनिया में आप सहभागी नहीं हो सकते, मैं आपके विचारों की दुनिया में सहभागी नहीं हो सकता, वह निजी दुनिया शुरू हो गई। जहां से निजी दुनिया शुरू होती है, वहां से खतरा शुरू होता है; क्योंकि किसी चीज की वैलिडिटी, किसी चीज की सच्चाई के सारे बाह्य नियम खतम हो जाते हैं।
इसलिए असली डिसेपान का जो जगत है, वह चौथे शरीर से शुरू होता है। उसके पहले के सब डिसेपान पकड़े जा सकते हैं, उसके पहले के सब धोखे पकड़े जा सकते हैं। और ऐसा नहीं है कि चौथे शरीर में जो धोखा दे रहा है, वह जरूरी रूप से जानकर दे रहा हो। बड़ा खतरा यह है! वह अनजाने दे सकता है; खुद को दे सकता है, दूसरों को दे सकता है। उसे कुछ पता ही न हो, क्योंकि चीजें इतनी बारीक और निजी हो गई हैं कि उसके खुद के पास भी कोई कसौटी नहीं है कि वह जाकर जांच करे कि सच में जो हो रहा है वह हो रहा है? कि वह कल्पना कर रहा है?

 चौथे शरीर के लाभ और खतरे:

तो यह जो चौथा शरीर है, इससे हमने मनुष्यता को बचाने की कोशिश की। और अक्सर ऐसा हुआ कि इस शरीर का जो लोग उपयोग करनेवाले थे, उनकी बहुत तरह की बदनामी और कडेमनेशन हुई। योरोप में हजारों स्त्रियों को जला डाला गया विचेज़ कहकर, डाकिनी कहकर; क्योंकि उनके पास यह चौथे शरीर का काम था। हिंदुस्तान में सैकड़ों तांत्रिक मार डाले गए इस चौथे शरीर की वजह से, क्योंकि वे कुछ सीक्रेट्स जानते थे जो कि हमें खतरनाक मालूम पड़े। आपके मन में क्या चल रहा है, वे जान सकते हैं; आपके घर में कहां क्या रखा है, यह उन्हें घर के बाहर से पता हो सकता है। तो सारी दुनिया में इस चौथे शरीर को एक तरह का ब्लैक आर्ट समझ लिया गया कि एक काले जादू की दुनिया है जहां कि कोई भरोसा नहीं कि क्या हो जाए! और एकबारगी हमने मनुष्य को तीसरे शरीर पर रोकने की भरसक चेष्टा की कि चौथे शरीर पर खतरे हैं।
खतरे थे, लेकिन खतरों के साथ उतने ही अदभुत लाभ भी थे। तो बजाय इसके कि रोकते, जांच—पड़ताल जरूरी थी कि वहां भी हम रास्ते खोज सकते हैं जांचने के। और अब विज्ञानिक उपकरण भी हैं और समझ भी बढ़ी है, रास्ते खोजे जा सकते हैं। जैसे कुछ चीजों के रास्ते अभी खोजे गए। कल ही मैं देख रहा था।
अभी तक यह पक्का नहीं हो पाता था कि जानवर सपने देखते हैं कि नहीं देखते। क्योंकि जब तक जानवर कहे न, तब तक कैसे पता चले? हमारा भी पता इसीलिए चलता है कि हम सुबह कह सकते हैं कि हमने सपना देखा। चूंकि जानवर नहीं कह सकता, तो कैसे पता चले कि जानवर सपना देखता है या नहीं देखता! बहुत तकलीफ से लेकिन रास्ता खोज लिया गया। एक आदमी ने बंदरों पर वर्षों मेहनत की यह बात जांचने के लिए कि वे सपने देखते हैं कि नहीं।
अब अपना बहुत निजी, चौथी बॉडी की बात है; बहुत निजी बात है। पर उसकी जांच की उसने जो व्यवस्था की, वह समझने बसा है। उसने बंदरों को फिल्म दिखानी शुरू की—पदें पर फिल्म दिखानी शुरू की। और जैसे ही फिल्म चलनी शुरू हो, नीचे से बंदर को शॉक देने शुरू किए बिजली के। और उसकी कुर्सी पर एक बटन लगा रखी, जो उसको सिखा दी कि जब भी उसको शॉक लगे तो वह बटन बंद कर दे, तो शॉक लगना बंद हो जाए। फिल्म शुरू हो और शॉक लगे और वह बटन बंद करे, ऐसा उसका अभ्यास कराया। फिर उस कुर्सी पर उसको सो जाने दिया। जब उसका सपना चला, तो उसको घबराहट हुई कि शॉक न लग जाए—नींद में उसको घबराहट हुई; क्योंकि वह सपना और पर्दे पर फिल्म एक ही चीज है उसके लिए—उसने तत्काल बटन दबाई। इस बटन के दबाने का बार—बार प्रयोग करने पर खयाल में आया कि उसको जब भी सपना चलता, तब वह बटन दबा देता फौरन। अब सपने जैसी गहरी भीतर की दुनिया के, वह भी बंदर की, जो कह न सके, बाहर से जांच का कोई उपाय खोजा जा सका।
साधकों ने चौथे शरीर के भी बाहर से जांचने के उपाय खोज लिए हैं। और अब तय किया जा सकता है कि जो हुआ, वह सच है या गलत, वह मिथ्या है या सही; जिस कुंडलिनी का तुमने चौथे शरीर पर अनुभव किया, वह वास्तविक है या झूठ। सिर्फ साइकिक होने से झूठ नहीं होती, फाल्स साइकिक स्थितियां भी हैं और टू साइकिक स्थितियां भी हैं। यानी जब मैं कहता हूं कि वह मनस की है बात, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि झूठ हो गई; मनस में भी झूठ हो सकती है और मनस में भी सही हो सकती है।
तुमने एक सपना देखा रात। यह सपना एक सत्य है, क्योंकि यह घटा। लेकिन सुबह उठकर तुम ऐसे सपने को भी याद कर सकते हो जो तुमने देखा नहीं, लेकिन तुम कह रहे हो कि मैंने देखा; तब यह झूठ है। एक आदमी सुबह उठकर कहता है कि मैं सपना देखता ही नहीं। हजारों लोग हैं जिनको खयाल है कि वे सपने नहीं देखते। वे सपने देखते हैं; क्योंकि सपने जांचने के अब बहुत उपाय हैं जिनसे पता चलता है कि वे रात भर सपने देखते हैं; लेकिन सुबह वे कहते हैं कि हमने सपने देखे ही नहीं। तो वे जो कह रहे हैं, बिलकुल झूठ कह रहे हैं, हालांकि उन्हें पता नहीं है। असल में, उनको स्मृति नहीं बचती सपने की। इससे उलटा भी हो रहा है जो सपना तुमने कभी नहीं देखा, उसकी भी तुम सुबह कल्पना कर सकते हो कि तुमने देखा। वह झूठ होगा।
सपना कहने से ही कुछ झूठ नहीं हो जाता, सपने के अपने यथार्थ हैं। झूठा सपना भी हो सकता है, सच्चा सपना भी। मेरा मतलब समझे? सच्चे का मतलब यह है कि जो— हुआ है, सच में हुआ है। और ठीक—ठीक तो सपने को तुम बता ही नहीं पाते सुबह। मुश्किल से कोई आदमी है जो सपने की ठीक रिपोर्ट कर सके।
इसलिए पुरानी दुनिया में जो आदमी अपने सपने की ठीक—ठीक रिपोर्ट कर सकता था, उसकी बड़ी कीमत हो जाती थी। उसकी बड़ी कठिनाइयां हैं, सपने की रिपोर्ट ठीक से देने की। बड़ी कठिनाई तो यह है कि जब तुम सपना देखते हो तब उसका सीकेंस अलग होता है और जब याद करते हो तब उलटा होता है, फिल्म की तरह। जब हम फिल्म देखते हैं तो शुरू से देखते हैं, पीछे की तरफ। सपना जब आप देखते हैं नींद में तो जो घटना पहले घटी, वह स्मृति में सबसे बाद में घटेगी, क्योंकि वह सबसे पीछे दबी रह गई। जब तुम सुबह उठते हो तो सपने का आखिरी हिस्सा तुम्हारे हाथ में होता है और उससे तुम पीछे की तरफ याद करना शुरू करते हो। यह ऐसे उपद्रव का काम है, जैसे कोई किताब को उलटी तरफ से पढ़ना शुरू करे, और सब शब्द उलटे हो जाएं, और वह डगमगा जाए। इसलिए थोड़ी दूर तक ही जा पाते हो सपने में, बाकी सब गड़बड़ हो जाता है। उसे याद रखना और उसको ठीक से रिपोर्ट कर देना बड़ी कला की बात है। इसलिए हम आमतौर से गलत रिपोर्ट करते हैं; जो हमें नहीं हुआ होता, वह रिपोर्ट करते हैं। उसमें बहुत कुछ खो जाता है, बहुत कुछ बदल जाता है, बहुत कुछ जुड़ जाता है।
यह जो चौथा शरीर है, सपना इसकी ही घटना है।

 योग—सिद्धियां, कुंडलिनी, चक्र इत्यादि:

इस चौथे शरीर की बड़ी संभावनाएं हैं। जितनी भी योग में सिद्धियों का वर्णन है, वह इस सारे चौथे शरीर की ही व्यवस्था है। और निरंतर योग ने सचेत किया है कि उनमें मत जाना। और सबसे बड़ा डर यही है कि उसमें मिथ्या में जाने के बहुत उपाय हैं और भटक जाने की बड़ी संभावनाएं हैं। और अगर वास्तविक में भी चले जाओ तो भी उसका आध्यात्मिक मूल्य नहीं है।
तो जब मैंने कहा कि कुंडलिनी साइकिक है, तो मेरा मतलब यह था कि वह इस चौथे शरीर की घटना है, वस्तुत:। इसलिए फिजियोलाजिस्ट तुम्हारे इस शरीर को जब खोजने जाएगा तो उसमें कोई कुंडलिनी नहीं पाएगा। तो तुम, सारी दुनिया के सर्जन, डाक्टर कहेंगे कि कहां की फिजूल की बातें कर रहे हो! कुंडलिनी जैसी कोई चीज इस शरीर में नहीं है; तुम्हारे चक्र इस शरीर में कहीं भी नहीं हैं।
वह चौथे शरीर की व्यवस्था है। वह चौथा शरीर लेकिन सूक्ष्म है, उसे पकड़ा नहीं जा सकता, पकड़ में तो यही शरीर आता है। लेकिन उस शरीर और इस शरीर के तालमेल पडते हुए स्थान हैं। जैसे कि हम सात कागज रख लें, और एक आलपीन सातों कागज में डाल दें, और एक छेद सातों कागज में एक जगह पर हो जाए। अब समझ लो कि पहले कागज पर छेद विदा हो गया, नहीं है। फिर भी, दूसरे कागज पर, तीसरे कागज पर जहां छेद है उससे कॉरस्पांड करनेवाला स्थान पहले कागज पर भी है; छेद तो नहीं है, इसलिए पहले कागज की जांच पर वह छेद नहीं मिलेगा, लेकिन पहले कागज पर भी कॉरस्पाडिंग कोई बिंदु है, जिसको अगर हाथ रखा जाए तो वह तीसरे—चौथे कागज पर जो बिंदु है, उसी जगह पर होगा।
तो इस शरीर में जो चक्र हैं, कुंडलिनी है, जो बात है, वह इस शरीर की नहीं है, वह इस शरीर में सिर्फ कॉरस्पाडिंग बिंदुओं की है। और इसलिए कोई शरीर—शास्त्री इनकार करे तो गलत नहीं कह रहा है— वहां कोई कुंडलिनी नहीं मिलती, कोई चक्र नहीं मिलता। वह किसी और शरीर पर है। लेकिन इस शरीर से संबंधित बिंदुओं का पता लगाया जा सकता है।

 कुंडलिनी : मनस शरीर की घटना:

तो कुंडलिनी चौथे शरीर की घटना है; इसलिए मैंने कहा, साइकिक है। और जब मैं कह रहा हूं कि यह साइकिक होना यह मानसिक होना भी दो तरह का हो सकता है— गलत और सही, तो मेरी बात तुम्हारे खयाल में जा आएगी। गलत तब होगा जब तुमने कल्पना की; क्योंकि कल्पना भी चौथे शरीर की ही स्थिति है।
जानवर कल्पना नहीं कर पाते। तो जानवर का अतीत थोड़ा—बहुत होता है, भविष्य बिलकुल नहीं होता। इसलिए जानवर निश्चिंत हैं, क्योंकि चिंता सब भविष्य के बोध से पैदा होती है। जानवर रोज अपने आसपास किसी को मरते देखते हैं, लेकिन यह कल्पना नहीं कर पाते कि मैं मरूंगा। इसलिए मृत्यु का कोई भय जानवर को नहीं है। आदमी में भी बहुत आदमी हैं जिनको यह खयाल नहीं आता है कि मैं मरूंगा; उनको भी खयाल आता है— कोई और मरता है, कोई और मरता है, कोई और मरता है। मैं मरूंगा, इसका खयाल नहीं आता। उसका कारण सिर्फ यह है कि चौथे शरीर में कल्पना जितनी विस्तीर्ण होनी चाहिए कि दूर तक देख पाए, वह नहीं हो रहा।
अब इसका मतलब यह हुआ कि कल्पना भी सही होती है और मिथ्या होती है। सही का मतलब सिर्फ यह है कि हमारी संभावना दूर तक देखने की है। जो अभी नहीं है, उसको देखने की संभावना कल्पना की बात है। लेकिन जो होगा ही नहीं, जो है ही नहीं, उसको भी मान लेना कि हो गया है और है, वह मिथ्या कल्पना होगी।
तो कल्पना का अगर ठीक उपयोग हो तो विज्ञान पैदा हो जाता है, क्योंकि विज्ञान सिर्फ एक कल्पना है—प्राथमिक रूप से। हजारों साल से आदमी सोचता है कि आकाश में उड़ेंगे। जिस आदमी ने यह सोचा है आकाश में उड़ेंगे, बड़ा कल्पनाशील रहा होगा। लेकिन अगर किसी आदमी ने यह न सोचा होता तो राइट ब्रदर्स हवाई जहाज नहीं बना सकते थे। हजारों लोगों ने कल्पना की है और सोचा है कि हवाई जहाज में उड़ेंगे, इसकी संभावना को जाहिर किया है। फिर धीरे— धीरे, धीरे— धीरे संभावना प्रकट होती चली गई—खोज हो गई और बात हो गई। फिर हम सोच रहे हैं हजारों वर्षों से कि चांद पर पहुंचेंगे। वह कल्पना थी उस कल्पना को जगह मिल गई। लेकिन वह कल्पना आथेंटिक थी। यानी वह कल्पना मिथ्या के मार्ग पर नहीं थी। वह कल्पना भी उस सत्य के मार्ग पर थी जो कल आविष्कृत हो सकता है।
तो वैज्ञानिक भी कल्पना कर रहा है, एक पागल भी कल्पना कर रहा है। तो अगर मैं कहूं कि पागलपन भी कल्पना है और विज्ञान भी कल्पना है, तो तुम यह मत समझ लेना कि दोनों एक ही चीज हैं। पागल भी कल्पना कर रहा है, लेकिन वह ऐसी कल्पनाएं कर रहा है जिनका वस्तु जगत से कभी कोई तालमेल न है, न हो सकता है। वैज्ञानिक भी कल्पना कर रहा है, लेकिन ऐसी कल्पना कर रहा है जो वस्तु जगत से तालमेल रखती है। और अगर कहीं तालमेल नहीं रखती है तो तालमेल होने की संभावना है पूरी की पूरी।
तो इस चौथे शरीर की जो भी संभावनाएं हैं उनमें सदा डर है कि हम कहीं भी चूक जाएं और मिथ्या का जगत शुरू हो जाता है। तो इसलिए इस चौथे शरीर में जाने के पहले सदा अच्छा है कि हम कोई अपेक्षाएं लेकर न जाएं, एक्सपेक्टेशंस न हों। क्योंकि यह चौथा शरीर मनस शरीर है।
जैसे कि मुझे अगर इस मकान से नीचे उतरना है—वस्तुत, तो मुझे सीढ़ियां खोजनी पड़ेगी, लिफ्ट खोजनी पड़ेगी। लेकिन मुझे अगर विचार में उतरना है, तो लिफ्ट और सीढ़ी की कोई जरूरत नहीं, मैं यहीं बैठकर उतर जाऊंगा।
तो विचार और कल्पना में खतरा यह है कि चूंकि कुछ नहीं करना पड़ता, सिर्फ विचार करना पड़ता है, कोई भी उतर सकता है। और अगर अपेक्षाएं लेकर कोई गया, तो जो अपेक्षाएं लेकर जाता है उन्हीं में उतर जाएगा। क्योंकि मन कहेगा कि ठीक है, कुंडलिनी जगानी है? यह जाग गई! और तुम कल्पना करने लगोगे कि जाग रही, जाग रही, जाग रही। और तुम्हारा मन कहेगा कि बिलकुल जाग गई और बात खत्म हो गई, कुंडलिनी उपलब्ध हो गई है; चक्र खुल गए हैं; ऐसा हो गया।
लेकिन इसको जांचने की कोई कसौटी है। और वह कसौटी यह है कि प्रत्येक चक्र के साथ तुम्हारे व्यक्तित्व में आमूल परिवर्तन होगा। उस परिवर्तन की तुम कल्पना नहीं कर सकते, क्योंकि वह परिवर्तन वस्तु जगत का हिस्सा है।

कुंडलिनी जागरण से व्यक्तित्व में आमूल रूपांतरण:
जैसे, कुंडलिनी जागे तो शराब नहीं पी जा सकती है। असंभव है! क्योंकि वह जो मनस शरीर है, वह सबसे पहले शराब से प्रभावित होता है; वह बहुत डेलिकेट है। इसलिए बड़ी हैरानी की बात जानकर होगी कि अगर स्त्री शराब पी ले और पुरुष शराब पी ले, तो पुरुष शराब पीकर इतना खतरनाक कभी नहीं होता, जितनी स्त्री शराब पीकर खतरनाक हो जाती है। उसका मनस शरीर और भी डेलिकेट है। अगर एक पुरुष और एक स्त्री को शराब पिलाई जाए, तो पुरुष शराब पीकर इतना खतरनाक कभी नहीं होता, जितना स्त्री हो जाए। स्त्री तो इतनी खतरनाक सिद्ध होगी शराब पीकर जिसका कोई हिसाब लगाना मुश्किल है। उसके पास और भी डेलिकेट मेंटल बॉडी है, जो इतनी शीघ्रता से प्रभावित होती है कि फिर उसके वश के बाहर हो जाती है।
इसलिए स्त्रियों ने आमतौर से नशे से बचने की व्यवस्था कर रखी है, पुरुषों की बजाय ज्यादा। इस मामले में उन्होंने समानता का दावा अब तक नहीं किया था। लेकिन अब वे कर रही हैं, वह खतरनाक होगा। जिस दिन भी वे इस मामले में समानता का दावा करेंगी, उस दिन पुरुष के नशे करने से जो नुकसान नहीं हुआ, वह स्त्री के नशे करने से होगा।
यह जो चौथा शरीर है, इसमें सच में ही कुंडलिनी जगी है, यह तुम्हारे कहने और अनुभव करने से सिद्ध नहीं होगा क्योंकि वह तो झूठ में भी तुम्हें अनुभव होगा और तुम कहोगे। नहीं, वह तो तुम्हारा जो वस्तु जगत का व्यक्तित्व है, उससे तय हो जाएगा कि वह घटना घटी है या नहीं घटी है; क्योंकि उसमें तत्काल फर्क पड़ने शुरू हो जाएंगे।
इसलिए मैं निरंतर कहता हूं कि आचरण जो है वह कसौटी है—साधन नहीं है, भीतर कुछ घटा है, उसकी कसौटी है। और प्रत्येक प्रयोग के साथ कुछ बातें अनिवार्य रूप से घटना शुरू होंगी। जैसे चौथे शरीर की शक्ति के जगने के बाद किसी भी तरह का मादक द्रव्य नहीं लिया जा सकता। अगर लिया जाता है, और उसमें रस है, तो जानना चाहिए कि किसी मिथ्या कुंडलिनी के खयाल में पड़ गए हो। वह नहीं संभव है।
जैसे कुंडलिनी जागने के बाद हिंसा करने की वृत्ति सब तरफ से विदा हो जाएगी—हिंसा करना ही नहीं, हिंसा करने की वृत्ति! क्योंकि हिंसा करने की जो वृत्ति है, हिंसा करने का जो भाव है, दूसरे को नुकसान पहुंचाने की जो भावना और कामना है वह तभी तक हो सकती है जब तक कि तुम्हारी कुंडलिनी शक्ति नहीं जगी है। जिस दिन वह जगती है, उसी दिन से तुम्हें दूसरा दूसरा नहीं दिखाई पड़ता, कि उसको तुम नुकसान पहुंचा सको, उसको तुम नुकसान नहीं पहुंचा सकते। और तब तुम्हें हिंसा रोकनी नहीं पड़ेगी, तुम हिंसा नहीं कर पाओगे। और अगर तब भी रोकनी पड़ रही हो, तो जानना चाहिए कि अभी वह जगी नहीं है। अगर तुम्हें अब भी संयम रखना पड़ता हो हिंसा पर, तो समझना चाहिए कि अभी कुंडलिनी नहीं जगी है।
अगर आंख खुल जाने पर भी तुम लकड़ी से टटोल—टटोलकर चलते हो, तो समझ लेना चाहिए आंख नहीं खुली है— भला तुम कितना ही कहते हो कि आंख खुल गई है। क्योंकि तुम अभी लकड़ी नहीं छोड़ते और तुम टटोलना अभी जारी रखे हुए हो, टटोलना भी बंद नहीं करते। तो साफ समझा जा सकता है। हमें पता नहीं है कि तुम्हारी आंख खुली है कि नहीं खुली लेकिन तुम्हारी लकड़ी और तुम्हारा टटोलना और डर—डरकर तुम्हारा चलना बताता है कि आंख नहीं खुली है।
चरित्र में आमूल परिवर्तन होगा। और सारे नियम, जो कहे गए हैं महाव्रत, वे सहज हो जाएंगे। तो समझना कि सच में ही आथेंटिक है—साइकिक ही है, लेकिन आथेंटिक है। और अब आगे जा सकते हो, क्योंकि आथेंटिक से आगे जा सकते हो; अगर झूठी है तो आगे नहीं जा सकते। और चौथा शरीर मुकाम नहीं है, अभी और शरीर हैं।

 चौथे शरीर में चमत्कारों का प्रारंभ:

तो मैंने कहा कि चौथा शरीर कम लोगों का विकसित होता है। इसीलिए दुनिया में मिरेकल्स हो रहे हैं। अगर चौथा शरीर हम सबका विकसित हो तो दुनिया में चमत्कार तत्काल बंद हो जाएंगे। यह ऐसे ही है, जैसे कि चौदह साल तक हमारा शरीर विकसित हो, और हमारी बुद्धि विकसित न हो पाए, तो एक आदमी जो हिसाब—किताब लगा सकता हो बुद्धि से, गणित का हिसाब कर सकता हो, वह चमत्कार मालूम हो।
ऐसा था। आज से हजार साल पहले जब कोई कह देता था कि फलां दिन सूर्य—ग्रहण पड़ेगा, तो वह बड़ी चमत्कार की बात थी, वह परम ज्ञानी ही बता सकता था। अब आज हम जानते हैं कि यह मशीन बता सकती है, यह सिर्फ गणित का हिसाब है। इसमें कोई ज्योतिष और कोई प्रोफेसी और कोई बड़े भारी ज्ञानी की जरूरत नहीं है, एक कंप्यूटर बता सकता है— और एक साल का नहीं, आनेवाले करोड़ों साल का बता सकता है कि कब—कब सूर्य—ग्रहण पड़ेगा। और अब तो कंप्यूटर यह भी बता सकता है कि सूरज कब ठंडा हो जाएगा। क्योंकि अब तो सारा हिसाब है! वह जितनी गर्मी फेंक रहा है, उससे उसकी कितनी गर्मी रोज कम होती जा रही है, उसमें कितना गर्मी का भंडार है, वह इतने हजार वर्ष में ठंडा हो जाएगा, एक मशीन बता देगी। लेकिन यह अब हमको चमत्कार नहीं मालूम पड़ेगा, क्योंकि हम सब तीसरे शरीर को विकसित कर लिए हैं। आज से हजार साल पहले यह बात चमत्कार की थी कि कोई आदमी बता दे कि अगले साल, फलां रात को, ऐसा होगा कि चांद पर ग्रहण हो जाएगा। तो जब साल भर बाद ग्रहण हो जाता, तो हमें मानना पड़ता कि यह आदमी अलौकिक है।
अभी जो चमत्कार घट रहे हैं, कि कोई आदमी ताबीज निकाल देता है, किसी आदमी की तस्वीर से राख गिर जाती है, ये सब चौथे शरीर के लिए बड़ी साधारण सी बातें हैं। लेकिन वह हमारे पास नहीं है, तो हमारे लिए बड़ा भारी चमत्कार है।
यह सारी बात ऐसी है जैसे कि एक झाड़ के नीचे तुम खड़े हो और मैं झाड़ के ऊपर बैठा हूं। मैं तुमसे कहता हूं कि घंटे भर बाद एक बैलगाड़ी इस रास्ते पर आएगी। वह मुझे दिखाई पड़ रही है—मैं झाडू के ऊपर बैठा हूं तुम झाडू के नीचे बैठे हो, हम दोनों में बातें हो रही हैं। मैं कहता हूं एक घंटे बाद एक बैलगाड़ी इस झाड़ के नीचे आएगी।
तुम कहते हो, बड़े चमत्कार की बातें कर रहे हो! बैलगाड़ी कहीं दिखाई नहीं पड़ती। क्या आप कोई भविष्यवक्ता हैं? मैं नहीं मान सकता।
लेकिन घंटे भर बाद बैलगाड़ी आ जाती है, और तब आपको मेरे चरण छूने पड़ते हैं कि गुरुदेव, मैं नमस्कार करता हूं आप बड़े भविष्यवक्ता हैं। लेकिन फर्क कुल इतना है कि मैं थोड़ी ऊंचाई पर एक झाड़ पर बैठा हूं जहां से मुझे बैलगाड़ी घंटे भर पहले वर्तमान हो गई थी। भविष्य की बात मैं नहीं कह रहा हूं मैं भी वर्तमान की ही बात कह रहा हूं। लेकिन आपके वर्तमान में, मेरे वर्तमान में घंटे भर का फासला है, क्योंकि मैं एक ऊंचाई पर बैठा हूं। आपके लिए घंटे भर बाद वह वर्तमान बनेगा, मेरे लिए अभी वर्तमान हो गया है।
तो जितने गहरे शरीर पर व्यक्ति खड़ा हो जाएगा, उतना ही पीछे के शरीर के लोगों के लिए चमत्कार हो जाएगा। और उसकी सब चीजें मिरेकुलस मालूम पड़ने लगेंगी कि यह हो रहा है, यह हो रहा है, यह हो रहा है। और हमारे पास कोई उपाय न होगा कि कैसे हो रहा है; क्योंकि उस चौथे शरीर के नियम का हमें कोई पता नहीं है। इसलिए दुनिया में जादू चलता है, चमत्कार घटित होते हैं; वे सब चौथे शरीर के थोड़े से विकास से हैं।
इसलिए दुनिया से अगर चमत्कार खतम करने हों, तो लोगों को समझाने से खतम नहीं होंगे; चमत्कार खतम करने हों तो जैसे हम तीसरे शरीर की शिक्षा देकर प्रत्येक व्यक्ति को गणित और भाषा समझने के योग्य बना देते हैं, उसी तरह हमें चौथे शरीर की शिक्षा भी देनी पड़ेगी और प्रत्येक व्यक्ति को इस तरह की चीजों के योग्य बना देना होगा। तब दुनिया से चमत्कार मिटेंगे, उसके पहले नहीं मिट सकते। कोई न कोई आदमी इसका फायदा लेता रहेगा।
चौथा शरीर अट्ठाइस वर्ष तक विकसित होता है—यानी सात वर्ष फिर और। लेकिन मैंने कहा कि कम ही लोग इसको विकसित करते हैं।

 पांचवां आत्म शरीर:

पांचवां शरीर बहुत कीमती है, जिसको अध्यात्म शरीर या स्वपिचुअल बॉडी कहें। वह पैंतीस वर्ष की उम्र तक, अगर ठीक से जीवन का विकास हो, तो उसको विकसित हो जाना चाहिए।
लेकिन वह तो बहुत दूर की बात है, चौथा शरीर ही नहीं विकसित हो पाता। इसलिए आत्मा वगैरह हमारे लिए बातचीत है, सिर्फ चर्चा है; उस शब्द के पीछे कोई कंटेंट नहीं है। जब हम कहते हैं ' आत्मा ', तो उसके पीछे कुछ नहीं होता, सिर्फ शब्द होता है, जब हम कहते हैं ' दीवाल', तो सिर्फ शब्द नहीं होता, पीछे कंटेंट होता है। हम जानते हैं, दीवाल यानी क्या। ' आत्मा' के पीछे कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि आत्मा हमारा अनुभव नहीं है। वह पांचवां शरीर है। और चौथे शरीर में कुंडलिनी जगे तो ही पांचवें शरीर में प्रवेश हो सकता है, अन्यथा पांचवें शरीर में प्रवेश नहीं हो सकता। चौथे का पता नहीं है, इसलिए पांचवें का पता नहीं हो पाता। और पांचवां भी बहुत थोड़े से लोगों को पता हो पाता है। जिसको हम आत्मवादी कहते हैं, कुछ लोग उस पर रुक जाते हैं, और वे कहते हैं बस यात्रा पूरी हो गई; आत्मा पा ली और सब पा लिया।
यात्रा अभी भी पूरी नहीं हो गई।
इसलिए जो लोग इस पांचवें शरोर पर रुकेंगे, वे परमात्मा को इनकार कर देंगे, वे कहेंगे, कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा वगैरह नहीं है। जैसे जो पहले शरीर पर रुकेगा, वह कह देगा कि कोई आत्मा वगैरह नहीं है। तो एक शरीरवादी है, एक मैटीरियलिस्ट है, वह कहता है. शरीर सब कुछ है; शरीर मर जाता है, सब मर जाता है। ऐसा ही आत्मवादी है, वह कहता है. आत्मा ही सब कुछ है, इसके आगे कुछ भी नहीं; बस परम स्थिति आत्मा है। लेकिन वह पांचवां शरीर ही है।

 छठवां ब्रह्म शरीर और सातवां निर्वाण काया:

छठवां शरीर ब्रह्म शरीर है, वह कास्मिक बॉडी है। जब कोई आत्मा को विकसित कर ले और उसको खोने को राजी हो, तब वह छठवें शरीर में प्रवेश करता है। वह बयालीस वर्ष की उम्र तक सहज हो जाना चाहिए— अगर दुनिया में मनुष्य—जाति वैज्ञानिक ढंग से विकास करे, तो बयालीस वर्ष तक हो जाना चाहिए।
और सातवां शरीर उनचास वर्ष तक हो जाना चाहिए। वह सातवां शरीर निर्वाण काया है, वह कोई शरीर नहीं है, वह बॉडीलेसनेस की हालत है। वह परम है। वहां शून्य ही शेष रह जाएगा। वहां ब्रह्म भी शेष नहीं है। वहां कुछ भी शेष नहीं है। वहां सब समाप्त हो गया है।
इसलिए बुद्ध से जब भी कोई पूछता है, वहां क्या होगा? तो वे कहते हैं जैसे दीया बुझ जाता है, फिर क्या होता है? खो जाती है ज्योति, फिर तुम नहीं पूछते, कहां गई? फिर तुम नहीं पूछते, अब कहां रहती होगी? बस खो गई।
निर्वाण शब्द का मतलब होता है, दीये का बुझ जाना। इसलिए बुद्ध कहते हैं, निर्वाण हो जाता है। पांचवें शरीर तक मोक्ष की प्रतीति होगी, क्योंकि परम मुक्ति हो जाएगी; ये चार शरीरों के बंधन गिर जाएंगे और आत्मा परम मुक्त होगी।
तो मोक्ष जो है, वह पांचवें शरीर की अवस्था का अनुभव है।
अगर चौथे शरीर पर कोई रुक जाए, तो स्वर्ग का या नरक का अनुभव होगा; वे चौथे शरीर की संभावनाएं हैं।
अगर पहले, दूसरे और तीसरे शरीर पर कोई रुक जाए, तो यही जीवन सब कुछ है—जन्म और मृत्यु के बीच; इसके बाद कोई जीवन नहीं है।
अगर चौथे शरीर पर चला जाए, तो इस जीवन के बाद नरक और स्वर्ग का जीवन है, दुख और सुख की अनंत संभावनाएं हैं वहां।
अगर पांचवें शरीर पर पहुंच जाए, तो मोक्ष का द्वार है।
अगर छठवें पर पहुंच जाए, तो मोक्ष के भी पार ब्रह्म की संभावना है; वहां न मुक्त है, न अमुक्त है, वहां जो भी है उसके साथ वह एक हो गया। अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा इस छठवें शरीर की संभावना है।
लेकिन अभी एक कदम और, जो लास्ट जंप है—जहां न अहं है, न ब्रह्म है, जहां मैं और तू दोनों नहीं हैं; जहां कुछ है ही नहीं, जहां परम शून्य है— टोटल, एब्सोल्युट वॉयड—वह निर्वाण है।

 हर सात साल में एक शरीर का विकास:

ये सात शरीर हैं। इसलिए पचास वर्ष की....... .उनचास वर्ष में यह पूरा होता है, इसलिए औसतन पचास वर्ष को क्रांति का बिंदु समझा जाता था। पच्चीस वर्ष तक एक जीवन—व्यवस्था थी। इस पच्चीस वर्ष में कोशिश की जाती थी कि हमारे जो भी जरूरी शरीर हैं वे विकसित हो जाएं—यानी चौथे शरीर तक आदमी पहुंच जाए; मनस शरीर तक आदमी पहुंच जाए, तो उसकी शिक्षा पूरी हुई। फिर वह पांचवें शरीर को जीवन में खोजे। और पचास वर्ष तक—शेष पच्चीस वर्षों में—वह सातवें शरीर को उपलब्ध हो जाए। इसलिए पचास वर्ष में दूसरा क्रांति का बिंदु आएगा कि अब वह वानप्रस्थ हो जाए। वानप्रस्थ का मतलब केवल इतना ही है कि उसका मुख अब जंगल की तरफ हो जाए; अब आदमी की तरफ से, समाज की तरफ से, भीड़ की तरफ से वह मुंह को फेर ले। और पचहत्तर वर्ष फिर एक क्रांति का बिंदु है जहां से वह संन्यस्त हो जाए। वन की तरफ मुंह फेर ले— यह भीड़ और आदमी से बचे। और संन्यस्त का मतलब है— अपने से भी बचे, अब अपने से भी मुंह फेर ले। मतलब समझ रहे हो न तुम? यानी जंगल में अब मैं तो बच ही जाऊंगा! फिर इसको भी छोड़ने का वक्त है कि पचहत्तर वर्ष में फिर इसको भी छोड़ दे।
लेकिन गृहस्थ जीवन में उसके सातों शरीर का अनुभव और विकास हो जाना चाहिए, तो यह सब आगे बड़ा सहज और आनंदपूर्ण हो जाएगा; और अगर यह न हो पाए, तो यह बड़ा कठिन हो जाएगा। क्योंकि प्रत्येक उम्र के साथ विकास की एक स्थिति जुड़ी है। अगर एक बच्चे का शरीर सात वर्ष में स्वस्थ न हो पाए, तो फिर जिंदगी भर वह किसी न किसी अर्थों में बीमार रहेगा। ज्यादा से ज्यादा हम इतना ही इंतजाम कर सकते हैं कि वह बीमार न रहे, लेकिन स्वस्थ कभी न हो सकेगा। क्योंकि उसकी बेसिक फाउंडेशन जो सात साल में पड़नी थी, वह डगमगा गई; वह उसी वक्त पड़नी थी। जैसे कि हमने मकान की नींव भरी, अगर नींव कमजोर रह गई, तो शिखर पर पहुंचकर उसको ठीक करना बहुत मुश्किल मामला है; वह जब नींव भरी थी तभी मजबूत हो जानी चाहिए थी।
तो वे जो पहले सात वर्ष हैं, वह अगर भौतिक शरीर के लिए पूरी व्यवस्था मिल जाए, तो बात बनेगी। दूसरे सात वर्ष में अगर भाव शरीर का ठीक विकास न हो पाए, तो पच्चीस सेक्सुअल परवर्शन पैदा हो जाएंगे; फिर उनको सुधारना बहुत मुश्किल हो जाएगा। वह वही वक्त है, जब कि तैयारी उसकी हो जानी चाहिए। यानी जीवन की प्रत्येक सीडी पर प्रत्येक शरीर की साधना का सुनिश्चित समय है। उसमें इंच, दो इंच का फेर—फासला और बात है। लेकिन एक सुनिश्चित समय है।

हर शरीर का समय पर विकसित हो जाना जरूरी:

अगर किसी बच्चे में चौदह साल तक सेक्स का विकास न हो पाए, तो अब उसकी पूरी जिंदगी किसी तरह की मुसीबत में बीतेगी। अगर इक्कीस वर्ष तक उसकी बुद्धि विकसित न हो पाए, तो फिर अब बहुत कम उपाय हैं कि इक्कीस वर्ष के बाद हम उसकी बुद्धि को विकसित करवा पाएं।
लेकिन इस संबंध में हम सब राजी हो जाते हैं कि यह ठीक बात है। इसलिए हम पहले शरीर की भी फिकर कर लेते हैं, स्कूल में भी पढ़ा देते हैं, सब कर देते हैं। लेकिन बाद के शरीरों का विकास भी उस सुनिश्चित उम्र से बंधा हुआ है, और वह चूक जाने की वजह से बहुत कठिनाई होती है। एक आदमी पचास साल की उम्र में उस शरीर को विकसित करने में लगता है जो उसे इक्कीस वर्ष में लगना चाहिए था। तो इक्कीस वर्ष में जितनी ताकत उसके पास थी उतनी पचास वर्ष में उसके पास नहीं है। इसलिए अकारण कठिनाई पड़ती है और उसे बहुत ज्यादा श्रम उठाना पड़ता है जो कि इक्कीस वर्ष में आसान हुआ होता। वह अब एक लंबा पथ और कठिन पथ हो जाता है। और एक कठिनाई हो जाती है कि इक्कीस वर्ष में उस द्वार पर खड़ा था, और इक्कीस वर्ष और पचास वर्ष के बीच तीस वर्ष में वह इतने बाजारों में भटका है कि वह दरवाजे पर भी नहीं है अब, जहां इक्कीस वर्ष में अपने आप खड़ा हो गया था, जहां से जरा सी चोट और दरवाजा खुलता, अब उसको वह दरवाजा फिर से खोजना है। और वह इस बीच इतना भटक चुका है और इतने दरवाजे देख चुका है कि उसे पता लगाना भी मुश्किल है कि वह दरवाजा कौन सा है, जिस पर मैं इक्कीस वर्ष में खड़ा हो गया था।
इसलिए पच्चीस वर्ष तक बड़ी सुनियोजित व्यवस्था की जरूरत है बच्चों के लिए। वह इतनी सुनियोजित होनी चाहिए कि उनको चौथे पर तो पहुंचा दे। चौथे के बाद बहुत आसान है मामला। फाउंडेशन सब भर दी गई हैं, अब तो सिर्फ फल आने की बात है। पांचवें से फल आने शुरू हो जाते हैं। चौथे तक वृक्ष निर्मित होता है, पांचवें से फल आने शुरू होते हैं, सातवें पर पूरे हो जाते हैं। इसमें थोड़ी देर—अबेर हो सकती है, लेकिन यह बुनियाद पूरी की पूरी मजबूत हो जाए।
इस संबंध में एक—दो बातें और खयाल में ले लेनी चाहिए।

 स्त्री और पुरुष के चार विद्युतीय शरीर:

चार शरीर तक स्त्री और पुरुष का फासला है। जैसे कोई व्यक्ति पुरुष है, तो उसकी फिजिकल बॉडी मेल बॉडी होती है, वह पुरुष शरीर होता है उसका भौतिक शरीर। लेकिन उसके पीछे की, नंबर दो की ईथरिक बॉडी, भाव शरीर स्त्रैण होती है; वह फीमेल बॉडी होती है। क्योंकि कोई निगेटिव या कोई पाजिटिव अकेला नहीं रह सकता। स्त्री का शरीर और पुरुष का शरीर, इसको अगर हम विद्युत की भाषा में कहें, तो निगेटिव और पाजिटिव बॉडीज़ हैं।
स्त्री के पास निगेटिव बॉडी है— स्थूल। इसीलिए स्त्री कभी भी सेक्स के संबंध में आक्रामक नहीं हो सकती, वह पुरुष पर बलात्कार नहीं कर सकती; उसके पास निगेटिव बॉडी है। वह बलात्कार झेल सकती है, कर नहीं सकती। पुरुष की बिना इच्छा के स्त्री उसके साथ कुछ भी नहीं कर सकती। लेकिन पुरुष के पास पाजिटिव बॉडी है, वह स्त्री की बिना इच्छा के भी कुछ कर सकता है, आक्रामक शरीर है उसके पास। निगेटिव का मतलब ऐसा नहीं कि शून्य, और ऐसा नहीं कि ऋणात्मक। निगेटिव का मतलब विद्युत की भाषा में इतना ही होता है—रिजर्वायर। स्त्री के पास एक ऐसा शरीर है जिसमें शक्ति संरक्षित है—बडी शक्ति संरक्षित है। लेकिन सक्रिय नहीं है, है वह निष्किय शक्ति।
इसलिए स्त्रियां कुछ सृजन नहीं कर पातीं— न कोई बड़ी कविता का जन्म कर पाती हैं, न कोई बड़ी पेंटिंग बना पाती हैं, न कोई विज्ञान की खोज कर पाती हैं। उनके ऊपर कोई बड़ी खोज नहीं है, उनके ऊपर कोई सृजन नहीं है। क्योंकि सृजन के लिए आक्रामक होना जरूरी है, वे सिर्फ प्रतीक्षा करती रहती हैं। इसलिए सिर्फ बच्चे पैदा कर पाती हैं।
पुरुष के पास एक पाजिटिव बॉडी है— भौतिक शरीर। लेकिन जहां भी पाजिटिव है, उसके पीछे निगेटिव को होना चाहिए, नहीं तो वह टिक नहीं सकता। वे दोनों इकट्ठे ही मौजूद होते हैं, तब उनका पूरा सर्किल बनता है। तो पुरुष का जो नंबर दो का शरीर है, वह स्त्रैण है; स्त्री के पास जो नंबर दो का शरीर है, वह पुरुष का है।
इसलिए एक और मजे की बात है कि पुरुष दिखता बहुत ताकतवर है—जहां तक उसके भौतिक शरीर का संबंध है, वह बहुत ताकतवर है; लेकिन उसके पीछे एक कमजोर शरीर खड़ा हुआ है, स्त्रैण। इसलिए उसकी ताकत क्षणों में प्रकट होगी, लंबे अरसे में वह स्त्री से हार जाएगा; क्योंकि स्त्री के पीछे जो शरीर है, वह पाजिटिव है।
इसलिए रेसिस्टेंस की, सहने की क्षमता पुरुष से स्त्री में सदा ज्यादा होगी। अगर एक बीमारी पुरुष और स्त्री पर हो, तो स्त्री उसे लंबे समय तक झेल सकती है, पुरुष उतने लंबे समय तक नहीं झेल सकता। बच्चे स्त्रियां पैदा करती हैं, अगर पुरुष को पैदा करना पड़े तब उसे पता चले। शायद दुनिया में फिर संतति—नियमन की कोई जरूरत न रह जाए, वह बंद ही कर दे। वह इतना कष्ट नहीं झेल सकता— और इतना लंबा! क्षण, दो क्षण को क्रोध में वह पत्थर फेंक सकता है, लेकिन नौ महीने एक बच्चे को पेट में नहीं झेल सकता और वर्षों तक उसे बड़ा नहीं कर सकता। और रात भर वह रोए तो उसकी गर्दन दबा देगा, उसको झेल नहीं सकता। ताकत तो उसके पास ज्यादा है, लेकिन पीछे उसके पास एक डेलिकेट और कमजोर शरीर है जिसकी वजह से वह उसको झेल नहीं पाता। इसलिए स्त्रियां कम बीमार पडती हैं।
स्त्रियों की उम्र पुरुष से ज्यादा है। इसलिए हम पांच साल का फासला रखते हैं शादी करते वक्त। नहीं तो दुनिया विधवाओं से भर जाए। इसलिए हम लड़का बीस साल का चुनते हैं तो लडकी पंद्रह साल की चुनते हैं, सोलह साल की चुनते हैं। क्योंकि चार और पांच साल का फासला है, नहीं तो सारी दुनिया विधवाओं से भर जाए। क्योंकि पुरुष की उम्र चार—पांच साल कम है। वह जब सत्तर साल में मरेगा तो कठिनाई खड़ी हो जाएगी। तो उसका, दोनों के बीच तालमेल बैठ जाए और वे बराबर जगह आ जाएं।
एक सौ सोलह लड़के पैदा होते हैं और एक सौ लड़कियां पैदा होती हैं; पैदा होते वक्त सोलह का फर्क होता है, सोलह लड़के ज्यादा पैदा होते हैं। लेकिन दुनिया में स्त्री—पुरुष की संख्या बराबर हो जाती है पीछे। सोलह लड़के चौदह साल के होने के पहले मर जाते हैं और करीब—करीब बराबर अनुपात हो जाता है। लड़के ज्यादा मरते हैं, लड़कियां कम मरती हैं, उनके पास रेसिस्टेंस की क्षमता, प्रतिरोध की क्षमता प्रबल है। वह उनके पीछे के शरीर से आती है।
दूसरी बात : तीसरा शरीर जो है पुरुष का, वह फिर पुरुष का होगा—यानी सूक्ष्म शरीर। और चौथा शरीर, मनस शरीर फिर स्त्री का होगा। और ठीक इससे उलटा स्त्री में होगा।
चार शरीरों तक स्त्री—पुरुष का विभाजन है, पांचवां शरीर बियांड सेक्स है।
इसलिए आत्म—उपलब्धि होते ही इस जगत में फिर कोई स्त्री और पुरुष नहीं है। लेकिन तब तक स्त्री—पुरुष है।
और इस संबंध में एक बात और खयाल आती है, वह मैं आपसे कहूं कि चूंकि प्रत्येक पुरुष के पास स्त्री का शरीर है भीतर और प्रत्येक स्त्री के पास पुरुष का शरीर है, अगर संयोग से स्त्री को ऐसा पति मिल जाए जो उसके भीतर के पुरुष शरीर से मेल खाता हो, तभी विवाह सफल होता है, नहीं तो नहीं हो पाता; या पुरुष को ऐसी स्त्री मिल जाए तो उसके भीतर की स्त्री से मेल खाती है, तो ही सफल होता है, नहीं तो नहीं हो पाता।

 प्रथम चार शरीरों के विकास के बिना विवाह असफल:

इसलिए सारी दुनिया में सौ में निन्यानबे विवाह असफल होते हैं, क्योंकि उनकी गहरी सफलता का सूत्र अभी तक साफ नहीं हो सका है। और उसको हम कैसे खोजबीन करें कि उनके भीतरी शरीरों से मेल खा जाए, तब तक दुनिया में विवाह असफल ही होता रहेगा। उसके लिए हम कुछ भी इंतजाम कर लें, वह सफल नहीं हो सकता। और उसको हम तभी खोज पाएंगे जब यह सारी की सारी शरीरों की पूरी वैज्ञानिक व्यवस्था अत्यंत स्पष्ट हो जाए।
और इसलिए अगर एक युवक विवाह के पहले, एक युवती विवाह के पहले, अपनी कुंडलिनी जागरण तक पहुंच गए हों, तो उन्हें ठीक साथी चुनना सदा आसान है। उसके पहले ठीक साथी चुनना कभी भी आसान नहीं है। क्योंकि वे अपने भीतर के शरीरों की पहचान से बाहर के ठीक शरीर को चुन पा सकते हैं।
इसलिए हमारी कोशिश थी, जो लोग जानते थे, वे पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य वास में और इन चार शरीरों के विकास तक ले जाने के बाद...... .तभी विवाह, उसके पहले विवाह नहीं! क्योंकि किससे विवाह करना है? किसके साथ तुम्हें रहना है? खोज किसकी है? हम किसको खोज रहे हैं? एक पुरुष एक स्त्री को....... .कौन सी स्त्री को खोज रहा है जिससे वह तृप्त हो सकेगा?
वह अपने ही भीतर की स्त्री को खोज रहा है; एक स्त्री अपने ही भीतर के पुरुष को खोज रही है। अगर कहीं तालमेल बैठ जाता है संयोग से, तब तो वह तृप्त हो जाता है, अन्यथा वह अतृप्ति बनी रहती है। फिर हजार तरह की विकृति पैदा होती है—कि वह वेश्या को खोज रहा है, वह पड़ोस की स्त्री को खोज रहा है, वह यहां जा रहा है, वह वहां जा रहा है। वह परेशानी बढ़ती चली जाती है।
और जितनी मनुष्य की बुद्धि विकसित होगी उतनी यह परेशानी बढ़ेगी। अगर चौदह वर्ष तक ही आदमी रुक जाए तो यह परेशानी नहीं होगी। क्योंकि यह सारी परेशानी तीसरे शरीर के विकास से शुरू होगी, बुद्धि के। अगर सिर्फ दूसरा शरीर विकसित हो, भाव शरीर, तो वह सेक्स से तृप्त हो जाएगा।
इसलिए दो रास्ते थे या तो हम पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य के काल में उसको चार शरीरों तक पहुंचा दें, और या फिर बाल—विवाह कर दें। क्योंकि बाल—विवाह का मतलब है कि बुद्धि का शरीर विकसित होने के पहले। ताकि वह सेक्स पर ही रुक जाए और कभी झंझट में न पड़े। तब उसका जो संबंध है स्त्री—पुरुष का, वह बिलकुल पाशविक संबंध है। बाल—विवाह का जो संबंध है, वह सिर्फ सेक्स का संबंध है; प्रेम जैसी संभावना वहां नहीं है।
इसलिए अमेरिका जैसे मुल्कों में, जहां शिक्षा बहुत बढ़ गई, और जहां तीसरा शरीर पूरी तरह विकसित हो गया, वहां विवाह टूटेगा, वह नहीं बच सकता। क्योंकि तीसरा शरीर कहता है मेल नहीं खाता। इसलिए तलाक फौरन तैयार हो जाएगा, क्योंकि मेल नहीं खाता तो इसको खींचना कैसे संभव है।

 सम्यक शिक्षा में चार शरीरों का विकास:

ये चार शरीर अगर विकसित हों, तो ही मैं कहता हूं शिक्षा ठीक है, सम्यक है। राइट एजुकेशन का मतलब है. चार शरीर तक तुम्हें ले जाए। क्योंकि पांचवें शरीर तक कोई शिक्षा नहीं ले जा सकती, वहां तो तुम्हें जाना पड़ेगा। लेकिन चार शरीर तक शिक्षा ले जा सकती है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है।
पांचवां कीमती शरीर है, उसके बाद यात्रा निजी शुरू हो जाती है। फिर छठवां और सातवां तुम्हारी निजी यात्रा है।
कुंडलिनी जो है वह चौथे शरीर की संभावना है। मेरी बात खयाल में आई न?

 प्रश्न : ओशो शक्तिपात में कंडक्टर का काम करनेवाले व्यक्ति के साथ क्या साधक की साइकिक बाइंडिंग हो जाती है? उससे क्या— क्या हानियां साधक को हो सकती हैं? क्या उसके अच्छे उपयोग भी हैं?

 बंधन का तो कोई अच्छा उपयोग नहीं है, क्योंकि बंधन ही बुरी बात है; और जितना गहरा बंधन हो उतनी ही बुरी बात है। तो साइकिक बाइंडिंग तो बहुत बुरी बात है। अगर मेरे हाथ में कोई जंजीर डाल दे तो चलेगा; क्योंकि वह मेरे भौतिक शरीर को ही पकड़ पाती है। लेकिन कोई मेरे ऊपर प्रेम की जंजीर डाल दे तो ज्यादा झंझट शुरू हुई; क्योंकि वह जंजीर गहरे चली गई। वह जंजीर गहरे चली गई और उसको तोड़ना उतना आसान नहीं रह गया। कोई श्रद्धा की जंजीर डाल दे तो और गहरी चली गई, उसको तोड़ना और अनहोली काम हो गया न! अपवित्र काम हो गया। वह और मुश्किल बात हो गई।
तो बंधन तो सभी बुरे हैं, और मनस बंधन तो और भी बुरे हैं।

 शक्तिपात का सही माध्यम:

जो व्यक्ति शक्तिपात में वाहन का काम करे, वह व्यक्ति तो तुम्हें बांधना ही न चाहेगा। अगर शक्तिपात हो रहा है, तो वह व्यक्ति तो तुम्हें बांधना न चाहेगा; क्योंकि अगर वह बांधना चाहता हो तो वह पात्र ही नहीं है कि वह वाहन बन सके। हां, लेकिन तुम बंध सकते हो। तुम बंध सकते हो, तुम उसके पैर पकड़ ले सकते हो कि मैं अब आपको न छोडूंगा, आपने मेरे ऊपर इतना उपकार किया। उस समय सजग होने की जरूरत है। उस समय बहुत सजग होने की जरूरत है कि साधक, जिस पर शक्तिपात हो, वह अपने को बंधन से बचा सके।
लेकिन अगर यह खयाल हो, और अगर यह बात साफ हो कि बंधन मात्र आध्यात्मिक यात्रा में भारी पड़ जाते हैं, तो अनुग्रह बांधेगा नहीं, बल्कि अनुग्रह भी खोलेगा। यानी मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हो जाऊं, तो यह बंधन क्यों बने? इसमें बंधन होने की क्या बात है? बल्कि अगर मैं कृतशता शापन न कर पाऊं तो शायद भीतर एक बंधन रह जाए कि मैं धन्यवाद भी नहीं दे पाया। लेकिन धन्यवाद देने का मतलब यह है कि बात समाप्त हो गई।

 सुरक्षा— भयभीत की खोज:

अनुग्रह बंधन नहीं है, बल्कि अनुग्रह का भाव परम स्वतंत्रता का भाव है। लेकिन हम कोशिश करते हैं बंधने की क्योंकि हमारे भीतर भय है। और हम सोचते हैं अकेले खड़े रह पाएंगे, नहीं खड़े रह पाएंगे? किसी से बंध जाएं। दूसरे की तो बात छोड़ दें, अंधेरी गली में से आदमी निकलता है तो खुद ही जोर—जोर से गाना गाने लगता है; अपनी ही आवाज जोर से सुनकर भी भय कम होता है। अपनी ही आवाज! दूसरे की आवाज भी होती तब भी ठीक था कि कोई दूसरा भी मौजूद है! लेकिन अपनी ही आवाज जोर से सुनकर काफिडेंस बढ़ता मालूम पड़ता है कि कोई डर नहीं।
तो आदमी भयभीत है और वह कुछ भी पकड़ने लगता है। और अगर डूबते को तिनका भी मिल जाए, तो वह आंख बंद करके उसको भी पकड़ लेता है। हालांकि इस तिनके से डूबने से नहीं बचता, सिर्फ डूबनेवाले के साथ तिनका भी डूब जाता है। लेकिन भय में हमारा चित्त पकड़ लेना चाहता है। सारी बाइंडिंग फियर की है। तो गुरु हो—यह हो, वह हो—कोई भी, उसको पकड़ लेंगे हम। पकड़कर हम सुरक्षित होना चाहते हैं। एक तरह की सिक्योरिटी है।

 असुरक्षा में ही आत्मा का विकास:

और साधक को सुरक्षा से बचना चाहिए। साधक के लिए सुरक्षा सबसे बड़ा मोहजाल है। अगर उसने एक दिन भी सुरक्षा चाही, और उसने कहा कि अब मैं किसी की शरण में सुरक्षित हो जाऊंगा, और किसी की आडू में अब कोई भय नहीं है अब मैं भटक नहीं सकता, अब मैंने ठीक मुकाम पा लिया, अब मैं कहीं जाऊंगा नहीं, अब मैं यहीं बैठा रहूंगा, तो वह भटक गया; क्योंकि साधक के लिए सुरक्षा नहीं है। साधक के लिए असुरक्षा वरदान है; क्योंकि जितनी असुरक्षा है, उतना ही साधक की आत्मा को फैलने, बलवान होने, अभय होने का मौका है; जितनी सुरक्षा है, उतना साधक के निर्बल होने की व्यवस्था है; वह उतना निर्बल हो जाएगा।

बेसहारा होने के लिए ही सहारे का उपयोग:

सहारा लेना एक बात है, सहारा लिए ही चले जाना बिलकुल दूसरी बात है। सहारा दिया ही इसलिए गया है कि तुम बेसहारे हो सको; सहारा दिया ही इसलिए गया है कि अब तुम्हें सहारे की जरूरत न रहे।
एक बाप अपने बेटे को चलना सिखा रहा है। कभी खयाल किया है कि जब बाप अपने बेटे को चलना सिखाता है, तो बाप बेटे का हाथ पकड़ता है; बेटा नहीं पकड़ता। लेकिन थोड़े दिन बाद जब बेटा थोड़ा चलना सीख जाता है, तो बाप का हाथ बाप तो छोड़ देता है, लेकिन बेटा पकड़ लेता है। कभी बाप को चलाते देखें, तो अगर बेटा हाथ पकड़े हो तो समझो कि वह चलना सीख गया है, लेकिन फिर भी हाथ नहीं छोड़ रहा है; और अगर बाप हाथ पकड़े हो तो समझना कि अभी चलना सिखाया जा रहा है, अभी छोड़ने में खतरा है, अभी छोड़ा नहीं जा सकता। और बाप तो चाहेगा ही यह कि कितनी जल्दी हाथ छूट जाए; क्योंकि इसीलिए तो सिखा रहा है।
और अगर कोई बाप इस मोह से भर जाए कि उसे मजा आने लगे कि बेटा उसका हाथ पकड़े ही रहे, तो वह बाप दुश्मन हो गया। बहुत बाप हो जाते हैं। बहुत गुरु हो जाते हैं। लेकिन चूक गए वे। जिस बात के लिए उन्होंने सहारा दिया था, वही खत्म हो गई। वह तो उन्होंने क्रिपिल्ड पैदा कर दिए जो अब उनकी बैसाखी लेकर चलेंगे। हालांकि उनको मजा आता है कि मेरी बैसाखी के बिना तुम नहीं चल सकते। अहंकार की तृप्ति मिलती है। लेकिन जिस गुरु को अहंकार की तृप्ति मिल रही हो, वह तो गुरु ही नहीं है।
लेकिन बेटा पकड़े रह सकता है पीछे भी, क्योंकि बेटा डर जाए कि कहीं गिर न जाऊं! क्योंकि बिना बाप के मैं कैसे चल सकूंगा? तो गुरु का काम है कि उसके हाथ को झिड्के और कहे कि अब तुम चलो। और कोई फिकर नहीं, दों—चार बार गिरो तो ठीक है, उठ आना। आखिर उठने के लिए गिरना जरूरी है। और, गिरने का डर मिटाने के लिए भी कुछ बार गिरना जरूरी है कि अब नहीं गिरेंगे।
हमारे मन में यह हो सकता है कि किसी का सहारा पकड़ लें, तो फिर बाइंडिंग पैदा हो जाती है। वह पैदा नहीं करना है। किसी साधक को ध्यान लेकर चलना है कि वह कोई सुरक्षा की तलाश में नहीं है; वह सत्य की खोज में है, सुरक्षा की खोज में नहीं है। और अगर सत्य की खोज करनी है तो सुरक्षा का खयाल छोड़ना पड़ेगा। नहीं तो असत्य बहुत बार बड़ी सुरक्षा देता है— और जल्दी से दे देता है। तो फिर सुरक्षा का खोजी असत्य को पकड़ लेता है। कनवीनिएंस का खोजी सत्य तक नहीं पहुंचता, क्योंकि लंबी यात्रा है। फिर वह यहीं असत्य को गढ़ लेता है और यहीं बैठे हुए पा लेता है। और बात समाप्त हो जाती है।

 अंधश्रद्धा क्यों:

इसलिए किसी भी तरह का बंधन...... और गुरु का बंधन तो बहुत ही खतरनाक है, क्योंकि वह आध्यात्मिक बंधन है। और आध्यात्मिक बंधन शब्द ही कट्राडिक्टरी है; क्योंकि आध्यात्मिक स्वतंत्रता तो अर्थ रखती है, आध्यात्मिक गुलामी का कोई अर्थ नहीं होता। लेकिन इस दुनिया में आध्यात्मिक रूप से जितने लोग गुलाम हैं, उतने लोग और किसी रूप से गुलाम नहीं हैं। उसका कारण है; क्योंकि जिस चौथे शरीर के विकास से आध्यात्मिक स्वतंत्रता की संभावना पैदा होगी, वह चौथा शरीर नहीं है। उसके कारण हैं—वें तीसरे शरीर तक विकसित हैं।
इसलिए अक्सर देखा जाएगा कि एक आदमी हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस है, किसी युनिवर्सिटी का वाइसचांसलर है, और किसी निपट गंवार आदमी के पैर पकड़े बैठा हुआ है। और उसको देखकर हजार गंवार उसके पीछे बैठे हुए है—कि जब हाईकोर्ट का जस्टिस बैठा है, वाइसचांसलर बैठा है युनिवर्सिटी का, तो हम क्या हैं! लेकिन उसे पता नहीं कि यह जो आदमी है, इसका तीसरा शरीर तो बहुत विकसित हुआ है, इसने बुद्धि का तो बहुत विकास किया था, लेकिन चौथे शरीर के मामले में यह बिलकुल गंवार है; उसके पास वह शरीर नहीं है। और इसके पास चूंकि तीसरा शरीर है केवल, बुद्धि और तर्क का विचार करते—करते यह थक गया और अब विश्राम कर रहा है। और जब बुद्धि थककर विश्राम करती है तो बड़े अबुद्धिपूर्ण काम करती है। कोई भी चीज जब थककर विश्राम करती है तो उलटी हो जाती है। इसलिए यह बड़ा खतरा है।
इसलिए आश्रमों में आपको मिल जाएंगे, हाईकोर्ट के जजेज़ वहां निश्चित मिलेंगे। वे थक गए हैं, वे बुद्धि से परेशान हो गए हैं, वे इससे छुटकारा चाहते हैं। वे कोई भी अबुद्धिपूर्ण, इररेशनल, किसी भी चीज में विश्वास करके आंख बंद करके बैठ जाते हैं। वे कहते हैं सोच लिया बहुत, विवाद कर लिया बहुत, तर्क कर लिया बहुत, कुछ नहीं मिला; अब इसको हम छोड़ते हैं। तो वे किसी को भी पकड़ लेते हैं। और उनको देखकर, पीछे जो बुद्धिहीन वर्ग है, वह कहता है जब इतने बुद्धिमान लोग हैं, तो फिर हमको भी पकड़ लेना चाहिए। लेकिन वे जहां तक चौथे शरीर का संबंध है, निपट ना—कुछ हैं।
इसलिए चौथे शरीर का किसी व्यक्तित्व में थोड़ा सा भी विकास हुआ हो, तो बडे से बड़ा बुद्धिमान उसके चरणों को पकड़कर बैठ जाएगा; क्योंकि उसके पास कुछ है, जिसके मामले में यह बिलकुल निर्धन है।
तो चूंकि चौथा शरीर विकसित नहीं है, इसलिए बाइंडिंग पैदा होती है। ऐसा मन होता है कि किसी को पकड़ लो; जिसका विकसित है, उसको पकड़ लो। लेकिन उसको पकड़ने से विकसित नहीं हो जाएगा; उसको समझने से विकसित हो सकता है। और पकड़ना समझने से बचने का उपाय है—कि समझने की क्या जरूरत है? समझने की क्या जरूरत है, हम आपके ही चरण पकड़े रहते हैं! तो जब आप वैतरणी पार होओगे, हम भी हो जाएंगे। हम आपको ही नाव बनाए लेते हैं; हम उसी में सवार रहेंगे जब आप पहुंचोगे, हम भी पहुंच जाएंगे।

 साधना के श्रम से बचने के लिए अंधानुकरण:

समझने में कष्ट है। समझने में अपने को बदलना पड़ेगा। समझना एक प्रयास, एक साधना है। समझना एक श्रम है, समझना एक क्रांति है। समझने में एक रूपांतरण होगा, सब बदलेगा पुराना; नया करना पड़ेगा। इतनी झंझट क्यों करनी! जो आदमी जानता है, हम उसको पकड़ लेते हैं; हम उसके पीछे चले जाएंगे।
लेकिन इस जगत में सत्य तक कोई किसी के पीछे नहीं जा सकता, वहां अकेले ही पहुंचना पड़ता है। वह रास्ता ही निर्जन है। वह रास्ता ही अकेले का है। इसलिए किसी तरह का बंधन वहां बाधा है।
तो सीखना, समझना, जहां से जो झलक मिले उसे लेना, लेकिन रुकना कहीं भी मत, किसी भी जगह को तुम मुकाम मत बना लेना और उसका हाथ पकड़ मत लेना कि बस अब ठीक, आ गए। हालांकि बहुत लोग मिलेंगे, जो कहेंगे. कहां जाते हो? रुक जाओ मेरे पास! बहुत लोग मिलेंगे जिनको
यह दूसरा हिस्सा है। जैसा कि मैंने कहा, भयभीत आदमी बंधना चाहता है किसी से, तो कुछ भयभीत आदमी बांधना भी चाहते हैं किसी को; उनको उससे भी अभय हो जाता है। जिस आदमी को लगता है, मेरे साथ हजार अनुयायी हैं, उसको लगता है— मैं ज्ञानी हो गया, नहीं तो हजार अनुयायी कैसे होते! जब हजार आदमी मुझे माननेवाले हैं, तो जरूर मैं कुछ जानता हूं नहीं तो मानेंगे कैसे!
यह बड़े मजे की बात है कि गुरु बनना कई बार तो सिर्फ इसी मानसिक हीनता के कारण होता है— कि दस हजार मेरे शिष्य हैं, बीस हजार! तो गुरु लगे हैं शिष्य बढ़ाने में— कि मेरे सात सौ संन्यासी हैं, मेरे हजार संन्यासी हैं, मेरे इतने शिष्य हैं—वे फैलाने में लगे हैं। क्योंकि जितना यह विस्तार फैलता है, वे आश्वस्त होते हैं कि जरूर मैं जानता हूं नहीं तो हजार आदमी मुझे क्यों मानते! यह तर्क लौटकर उनको विश्वास दिलाता है कि मैं जानता हूं। अगर ये हजार शिष्य खो जाएं, तो उनको लगेगा कि गया। इसका मतलब कि मैं नहीं जानता।

जहां बंधन है, वहां संबंध नहीं है:

बड़े मानसिक खेल चलते हैं। बड़े मानसिक खेल चलते हैं। उन मानसिक खेलों से सावधान होने की जरूरत है—दोनों तरफ से, क्योंकि दोनों तरफ से खेल हो सकता है। शिष्य भी बांध सकता है, और जो शिष्य आज किसी से बंधेका, वह कल किसी को बांधेगा, क्योंकि यह सब श्रृंखलाबद्ध काम है। वह आज शिष्य बनेगा तो कल गुरु भी बनेगा। क्योंकि शिष्य कब तक बना रहेगा! अभी एक को पकड़ेगा, तो कल फिर किसी को खुद को भी पकड़ाएगा। श्रृंखलाबद्ध गुलामिया हैं।
मगर उसका बहुत गहरे में कारण वह चौथे शरीर का विकसित न होना है। उसको विकसित करने की चिंता चले तो तुम स्वतंत्र हो सकोगे। फिर बंधन नहीं होगा।
इसका यह मतलब नहीं है कि तुम अमानवीय हो जाओगे, कि तुम्हारा मनुष्यों से कोई संबंध न रह जाएगा; बल्कि इसका मतलब ही उलटा है। असल में, जहां बंधन है, वहां संबंध होता ही नहीं। अगर एक पति और पत्नी के बीच बंधन है.. .हम कहते हैं न कि विवाह—बंधन में बंध रहे हैं! निमंत्रण पत्रिकाएं भेजते हैं कि मेरा बेटा और मेरी बेटी प्रणय—सूत्र के बंधन में बंध रहे हैं! जहां बंधन है, वहां संबंध नहीं हो सकता। क्योंकि गुलामी में कैसा संबंध?
कभी भविष्य में जरूर कोई बाप निमंत्रण पत्र भेजेगा कि मेरी बेटी किसी के प्रेम में स्वतंत्र हो रही है। वह तो समझ में आती है बात कि अब किसी का प्रेम उसको स्वतंत्र कर रहा है जीवन में; अब उसके ऊपर कोई बंधन नहीं रहेगा, वह मुक्त हो रही है प्रेम में। और प्रेम मुक्त करना चाहिए। अगर प्रेम भी बांध लेता है तो फिर इस जगत में मुक्त क्या करेगा? कौन करेगा?

 संबंध वही, जो मुक्त करे:

और जहां बंधन है, वहां सब कष्ट हो जाता है, सब नरक हो जाता है। ऊपर से चेहरे और रह जाते हैं, भीतर सब गंदगी हो जाती है। वह चाहे गुरु—शिष्य का हो, चाहे बाप—बेटे का हो, चाहे पति—पत्नी का हो, चाहे दो मित्रों का हो—जहां बंधन है, वहां संबंध नहीं होता। और अगर संबंध है तो बंधन बेमानी है। लगता तो ऐसा ही है कि जिससे हम बंधे हैं, उसी से संबंध है; लेकिन सिर्फ उसी से हमारा संबंध होता है, जिससे हमारा कोई भी बंधन नहीं।
इसलिए कई बार ऐसा हो जाता है कि आप अपने बेटे से वह बात नहीं कह सकते जो एक अजनबी से कह सकते हैं। मैं इधर हैरान हुआ हूं जानकर कि पत्नी अपने पति से नहीं कह सकती और ट्रेन में एक अजनबी आदमी से कह सकती है, जिसको वह बिलकुल नहीं जानती, घंटे भर पहले मिला है।
असल में, कोई बंधन नहीं है, तो संबंध के लिए सरलता मिल जाती है। इसलिए तुम एक अजनबी से जितने भले ढंग से पेश आते हो, उतना परिचित से नहीं आते। वहां कोई भी तो बंधन नहीं है, तो सिर्फ संबंध ही हो सकता है। लेकिन परिचित के साथ तुम उतने भले ढंग से कभी पेश नहीं आते, क्योंकि वहां तो बंधन है। वहां नमस्कार भी करते हो तो ऐसा मालूम पड़ता है, एक काम है।
इसलिए गुरु—शिष्य का एक संबंध तो हो सकता है। और संबंध सब मधुर हैं। लेकिन बंधन नहीं हो सकता। और संबंध का मतलब ही है कि वह मुक्त करता है।

 न बाधनेवाले अदभुत हेन फकीर:

झेन फकीरों की एक बात बड़ी कीमती है कि अगर किसी भी झेन फकीर के पास कोई सीखने आएगा, तो जब वह सीख चुका होगा, तब वह उससे कहेगा कि अब मेरे विरोधी के पास चले जाओ, अब कुछ दिन वहां सीखो। क्योंकि एक पहलू तुमने जाना, अब तुम दूसरे पहलू को समझो।
और फिर साधक अलग—अलग आश्रमों में वर्षों घूमता रहेगा। उनके पास जाकर बैठेगा जो उसके गुरु के विरोधी हैं; उनके चरणों में बैठेगा और उनसे भी सीखेगा। क्योंकि उसका गुरु कहेगा कि हो सकता है वह ठीक हो; तुम उधर भी जाकर सारी बात समझ लो। और कौन ठीक है, इसका क्या पता? हो सकता है, हम दोनों से मिलकर जो बनता हो, वही ठीक हो; या यह भी हो सकता है कि हम दोनों को काटकर जो बचता हो, वही ठीक हो। इसलिए जाओ, उसे खोजो।
जब कोई देश में आध्यात्मिक प्रतिभा विकसित होती है, तो ऐसा होता है, तब बंधन नहीं बनतीं चीजें।
अब यह मैं चाहता हूं ऐसा इस मुल्क में जिस दिन हो सकेगा, उस दिन बहुत परिणाम होंगे—कि कोई किसी को बांधता न हो, भेजता हो लंबी यात्रा पर, कि वह जाए। और कौन जानता है कि क्या होगा अंतिम! लेकिन जो इस भांति भेज देगा, अगर कल तुम्हें उसकी सब बातें भी गलत मालूम पड़े, तब भी वह आदमी गलत मालूम नहीं पड़ेगा। जो इस भांति तुम्हें भेज देगा कि जाओ कहीं और खोजो—हो सकता है मैं गलत होऊं। तो यह हो भी सकता है कि किसी दिन उसकी सारी बातें भी तुम्हें गलत मालूम पड़े, तब भी तुम अनुगृहीत रहोगे; वह आदमी कभी गलत नहीं हो पाएगा। क्योंकि उस आदमी ने ही तो भेजा था तुम्हें। अभी हालतें ऐसी हैं कि सब रोक रहे हैं। एक गुरु रोकता है, किसी दूसरे की बात मत सुन लेना! शास्त्रों में लिखता है कि दूसरे के मंदिर में मत चले जाना! चाहे पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना, मगर दूसरे के मंदिर में शरण भी मत लेना; कहीं ऐसा न हो कि वहां कोई चीज कान में पड़ जाए!
तो भला ऐसे आदमी की सब बातें भी सही हों, तब भी यह आदमी तो गलत ही है। और इसके प्रति अनुग्रह कभी नहीं हो सकता, क्योंकि इसने तुम्हें गुलाम बनाया, कुचल डाला और मार डाला है।
यह अगर खयाल में आ जाए तो बंधन का कोई सवाल नहीं है।

 प्रश्न: आपने कहा कि अगर शक्तिपात प्रामाणिक व शुद्धतम हो तो बंधन नहीं होगा।

 हां, नहीं होगा।

 शक्तिपात के नाम पर शोषण:

प्रश्न : ओशो शक्तिपात के नाम पर साइकिक एक्सप्लायटेशन संभव है क्या? कैसे संभव है और उससे साधक बचे कैसे?

 संभव है, शक्तिपात के नाम पर बहुत आध्यात्मिक शोषण संभव है। असल में, जहां भी दावा है, वहां शोषण होगा। और जहां कोई कहता है, मैं कुछ दूंगा, वह लेगा भी कुछ। क्योंकि देना जो है, वह बिना लेने के नहीं हो सकता। जहां कोई कहेगा, मैं कुछ देता हूं वह तुमसे वापस भी कुछ लेगा। कॉइन कोई भी हो—वह धन के रूप में ले, आदर के रूप में ले, श्रद्धा के रूप में ले—किसी भी रूप में ले, वह लेगा जरूर। जहां देना है— आग्रहपूर्वक, दावेपूर्वक—वहां लेना है। और जो देने का दावा कर रहा है, वह जो देगा, उससे ज्यादा लेगा। नहीं तो बाजार में चिल्लाने की उसे कोई जरूरत न थी।
असल में, वह दे इसी तरह रहा है, जैसे कोई मछली मारनेवाला कांटे पर आटा लगाता है; क्योंकि मछली कांटे नहीं खाती। हो सकता है, किसी दिन मछलियों को समझाया—बुझाया जा सके, वे सीधा कांटा खा लें। अभी तक कोई मछली सीधा कांटा नहीं खाती। उसके ऊपर आटा लगाना पड़ता है। हां, मछली आटा खा लेती है। और आटे के दावे की वजह से कांटे के पास आ जाती है। आटा मिलेगा, इस आशय में कांटे को भी गटक जाती है। गटकने पर पता चलता है कि आटा तो व्यर्थ था कांटा असली था। लेकिन तब तक कांटा छिद गया होता है।

दावेदार गुञ्चों से बचो:

तो जहां दावा है—कोई कहे कि मैं शक्तिपात करूंगा, मैं ज्ञान दिलवा दूंगा, मैं समाधि में पहुंचा दूंगा, मैं ऐसा करूंगा, मैं वैसा करूंगा—जहां ये दावे हों, वहां सावधान हो जाना। क्योंकि उस जगत का आदमी दावेदार नहीं होता। उस जगत के आदमी से अगर तुम कहोगे भी जाकर कि आपकी वजह से मुझ पर शक्तिपात हो गया, तो वह कहेगा, तुम किसी भूल में पड़ गए; मुझे तो पता ही नहीं, मेरी वजह से कैसे हो सकता है! उस परमात्मा की वजह से ही हुआ होगा। वहां तो तुम धन्यवाद देने जाओगे तो भी स्वीकृति नहीं होगी कि मेरी वजह से हुआ है। वह तो कहेगा, तुम्हारी अपनी ही वजह से हो गया होगा। तुम किस भूल में पड़ गए हो, वह परमात्मा की कृपा से हो गया होगा। मैं कहां हूं! मैं किस कीमत में हूं! मैं कहां आता हूं!
जीसस निकल रहे हैं एक गांव से, और एक बीमार आदमी को लोग उनके पास लाए हैं। उन्होंने उसे गले से लगा लिया और वह ठीक हो गया। और वह आदमी कहता है कि मैं आपको कैसे धन्यवाद दूं क्योंकि आपने मुझे ठीक कर दिया है। जीसस ने कहा कि ऐसी बातें मत कर; जिसे धन्यवाद देना है उसे धन्यवाद दे! मैं कौन हूं? मैं कहां आता हूं?
उस आदमी ने कहा, आपके सिवाय तो यहां कोई भी नहीं है।
तो जीसस ने कहा, हम—तुम दोनों नहीं हैं; जो है, वह तुझे दिखाई ही नहीं पड़ रहा; उससे ही सब हो रहा है। ही हैज हील्ड यू! उसी ने तुझे स्वस्थ कर दिया है!
अब यह जो आदमी है, यह कैसे शोषण करेगा? शोषण करने के लिए आटा लगाना पड़ता है कांटे पर। यह तो, कांटा तो दूर, आटा भी मेरा है, यह भी मानने को राजी नहीं है। इसका कोई उपाय नहीं है।
तो जहां तुम्हें दावा दिखे—साधक को—वहीं सम्हल जाना। जहां कोई कहे कि ऐसा मैं कर दूंगा, ऐसा हो जाएगा, वहां वह तुम्हारे लिए तैयार कर रहा है; वह तुम्हारी मांग को जगा रहा है; वह तुम्हारी अपेक्षा को उकसा रहा है; वह तुम्हारी वासना को त्वरित कर रहा है। और जब तुम वासनाग्रस्त हो जाओगे, कहोगे कि दो महाराज! तब वह तुमसे मांगना शुरू कर देगा। बहुत शीघ्र तुम्हें पता चलेगा कि आटा ऊपर था, कांटा भीतर है।
इसलिए जहां दावा हो, वहां सम्हलकर कदम रखना, वह खतरनाक जमीन है। जहां कोई गुरु बनने को बैठा हो, उस रास्ते से मत निकलना; क्योंकि वहां उलझ जाने का डर है। इसलिए साधक कैसे बचे? बस वह दावे से बचे तो सबसे बच जाएगा। वह दावे को न खोजे, वह उस आदमी की तलाश न करे जो दे सकता है। नहीं तो झंझट में पड़ेगा। क्योंकि वह आदमी भी तुम्हारी तलाश कर रहा है—जो फंस सकता है। वे सब घूम रहे हैं। वह भी घूम रहा है कि कौन आदमी को चाहिए। तुम मांगना ही मत, तुम दावे को स्वीकार ही मत करना। और तब..

 पात्र बनो, गुरु मत खोजो:

तुम्हें जो करना है, वह और बात है। तुम्हें जो तैयारी करनी है, वह तुम्हारे भीतर तुम्हें करनी है। और जिस दिन तुम तैयार होओगे, उस दिन वह घटना घट जाएगी; उस दिन किसी भी माध्यम से घट जाएगी। माध्यम गौण है; खूंटी की तरह है। जिस दिन तुम्हारे पास कोट होगा, क्या तकलीफ पड़ेगी खूंटी खोजने में? कहीं भी टल दोगे। नहीं भी खूंटी होगी तो दरवाजे पर टांग दोगे। दरवाजा नहीं होगा, झाड़ की शाखा पर टांग दोगे। कोई भी खूंटी का काम कर देगा। असली सवाल कोट का है।
लेकिन कोट नहीं है हमारे पास, खूंटी दावा कर रही है कि इधर आओ, मैं खूंटी यहां हूं! तुम फंसोगे। कोट तो तुम्हारे पास नहीं है, खूंटी के पास जाकर भी क्या करोगे? खतरा यही है कि खूंटी में तुम्हीं न टैग जाओ। क्योंकि कोट तो नहीं है तुम्हारे पास। इसलिए अपनी पात्रता खोजनी है, अपनी योग्यता खोजनी है, अपने को उस योग्य बनाना है कि मैं किसी दिन प्रसाद को ग्रहण करने योग्य बन सकूं। फिर तुम्हें चिंता नहीं लेनी है, वह तुम्हारी चिंता नहीं है।
 इसलिए कृष्ण जो कहते हैं अर्जुन को, वह ठीक ही कहते हैं। उसका मतलब ही इतना है। वे कहते हैं तू कर्म कर और फल परमात्मा पर छोड़ दे; उसकी तुझे फिकर नहीं करनी है। उसकी तूने फिकर की तो कर्म में बाधा पड़ती है। क्योंकि उसकी फिकर की वजह से ऐसा लगता है कर्म क्या करना, फल की पहले चिंता करो! उसकी वजह से ऐसा लगता है कि क्या करना है मुझे! फल क्या होगा, इसको देखूं! और तब गलती सुनिश्चित हो जानेवाली है। इसलिए कर्म की फिकर ही अकेली फिकर है हमारी; हम अपने को पात्र बनाने योग्य करते रहें। जिस दिन क्षमता हमारी पूरी होगी—ऐसे ही, जैसे जिस दिन बीज की क्षमता फूटने की पूरी होती है, उस दिन सब मिल जाता है। जिस दिन फूल खिलने को पूरा तैयार होता है, कली टूटने को तैयार होती है, सूरज तो निकल ही आता है। उसमें कोई अड़चन नहीं है। सूरज सदा तैयार है। लेकिन हमारे पास कली नहीं है खिलने को, सूरज निकल गया है, होगा क्या? इसलिए सूरज की तलाश मत करो, अपनी कली को गहरा करने की फिकर करो, सूरज सदा निकला हुआ है, वह तत्काल उपलब्ध हो जाता है।

 खाली पात्र भर दिया जाता है:

इस जगत में पात्र एक क्षण को भी खाली नहीं रह जाता है; जिस तरह की भी पात्रता हो, वह तत्काल भर दी जाती है। असल में, पात्रता का हो जाना और भर जाना दो घटनाएं नहीं, एक ही घटना के दो पहलू हैं। जैसे हम इस कमरे की हवा बाहर निकाल दें, दूसरी हवा इस कमरे की खाली जगह को तत्काल भर देगी। ये दो हिस्से नहीं हैं। इधर हम निकाल नहीं पाए कि उधर नई हवा ने दौड़ना शुरू कर दिया। ऐसे ही अंतर—जगत के नियम हैं हम इधर तैयार नहीं हुए कि वहां से जो हमारी तैयारी की मांग है, वह उतरनी शुरू हो जाती है।
लेकिन कठिनाई हमारी है कि हम तैयार नहीं होते और मांग हमारी शुरू हो जाती है; तब झूठी मांग के लिए झूठी सप्लाई भी हो जाती है। अब इधर मैं बहुत हैरान होता हूं ऐसे लोग हैरानी में डालते हैं। एक आदमी आता है, वह कहता है, मेरा मन बड़ा अशांत है, मुझे शांति चाहिए। उससे आधा घंटा मैं बात करता हूं मैं कहता हूं कि सच में ही तुम्हें शांति चाहिए? तो वह कहता है, शांति तो अभी क्या है कि मेरे लड़के को पहले नौकरी चाहिए, उसी की वजह से अशांति है, नौकरी मिल जाए तो सब ठीक हो जाए। तो अब यह आदमी कहता हुआ आया था कि मुझे शांति चाहिए, वह इसकी जरूरत नहीं है, इसकी असली जरूरत दूसरी है, जिसका शांति से कुछ लेना—देना नहीं है; इसकी जरूरत है कि इसके लड़के को नौकरी चाहिए। अब यह मेरे पास, गलत आदमी के पास आ गया।

 धर्म के दुकानदारों का रहस्य:

अब वह जो बाजार में दुकान लेकर बैठा है, वह कहता है, नौकरी चाहिए? इधर आओ! हम नौकरी भी दिलवा देंगे और शांति भी मिल जाएगी। इधर जो भी आते हैं, उनको नौकरी मिल जाती है; इधर जो आते हैं, उनका धन बढ़ जाता है; इधर जो आते हैं, उनकी दुकान चलने लगती है। और उस दुकान के आसपास दस—पांच आदमी आपको मिल जाएंगे, जो कहेंगे, मेरे लड़के को नौकरी मिल गई, मेरी पत्नी मरते से बच गई, मेरा मुकदमा हारते से जीत गया, धन के अंबार लग गए; वे दस आदमी उस दुकान के आसपास मिल जाएंगे।
ऐसा नहीं कि वे झूठ बोल रहे हैं! ऐसा नहीं कि वे झूठ बोल रहे हैं, ऐसा भी नहीं कि वे किराए के आदमी हैं, ऐसा भी नहीं कि वे दुकान के दलाल हैं। नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं है। जब हजार आदमी किसी दुकान पर नौकरी खोजने आते हैं, दस को मिल ही जाती है। जिनको मिल जाती है वे रुक जाते हैं, नौ सौ निन्यानबे चले जाते हैं। वे जो रुक जाते हैं, वे खबर करते रहते हैं; धीरे— धीरे उनकी भीड़ बड़ी होती जाती है।
इसलिए हर दुकान के पास आथेंटिक हैं वे दावेदार। वे जो कह रहे हैं कि मेरे लड़के को नौकरी मिली, इसमें झूठ नहीं है कोई; यह कोई खरीदा हुआ आदमी नहीं है। यह भी आया था, इसके लड़के को मिली है; जिनको नहीं मिली है, वे जा चुके हैं, वे दूसरे गुरु को खोज रहे हैं कि कहां मिले; जहां मिले वहां चले गए हैं। यहां वे ही रह गए हैं जिनको मिल गई है। वे हर साल लौट आते हैं, हर त्योहार पर लौट आते हैं; उनकी भीड़ बढ़ती चली जाती है। और इस आदमी के आसपास एक वर्ग खड़ा हो जाता है, जो सुनिश्चित प्रमाण बन जाता है कि भई मिली है इतने लोगों को, तो मुझे क्यों न मिलेगी! यह आटा बन जाता है, और कांटा बीच में है। और ये सारे लोग आटे बन जाते हैं। और आदमी फंस जाता है।
मांगना ही मत; नहीं तो फंसना निश्चित है। मांगना ही मत; अपने को तैयार करना। और भगवान पर छोड़ देना कि जिस दिन होता होगा, होगा; नहीं होगा तो हम समझेंगे हम पात्र नहीं थे।

 प्रामाणिक शक्तिपात के बाद भटकना समाप्त:

प्रश्न: ओशो एक साधक का कई व्यक्तियों के माध्यम से शक्तिपात लेना उचित है या हानिप्रद है? कंडक्टर बदलने में क्या— क्या हानियां संभव हैं और क्यों?

 सल बात तो यह है कि बहुत बार लेने की जरूरत तभी पड़ेगी जब कि शक्तिपात न हुआ हो। बहुत लोगों से लेने की भी जरूरत तभी पड़ेगी जब कि पहले जिनसे लिया हो वह बेकार गया हो, न हुआ हो। अगर हो गया, तो बात खतम है। बहुत बार लेने की जरूरत इसीलिए पड़ती है कि दवा काम नहीं कर पाई, बीमारी अपनी जगह खड़ी है। स्वभावत:, फिर डाक्टर बदलने पड़ते हैं। लेकिन जो बीमार ठीक हो गया, वह नहीं पूछता कि डाक्टर बदलू या न बदलू। वह जो ठीक नहीं हुआ है, वह कहता है कि मैं दूसरे डाक्टर से दवा लूं या क्या करूं! दस—बीस डाक्टर बदल लेता है।
तो एक तो अगर शक्तिपात की किरण उपलब्ध हुई जरा भी, तो बदलने की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। वह प्रश्न ही नहीं है फिर उसका। नहीं उपलब्ध हुई, तो बदलना ही पड़ता है, और बदलते ही रहते हैं आदमी। और अगर उपलब्ध हुई है कभी एक से, तो फिर किसी से भी उपलब्ध होती रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता। वे सब एक ही स्रोत से आनेवाले माध्यम ही अलग हैं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। रोशनी सूरज से आती, कि दीये से आती, कि बिजली के बल्व से आती, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; प्रकाश एक का ही है। उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। अगर घटना घटी है तो कोई अंतर नहीं पड़ता, और कोई हानि नहीं है।
लेकिन इसको खोजते मत फिरना, वही मैं कह रहा हूं इसे खोजते मत फिरना। यह मिल जाए रास्ते पर चलते, तो धन्यवाद दे देना और आगे बढ़ जाना। इसे खोजना मत। खोजोगे तो खतरा है। क्योंकि फिर वे जो दावेदार हैं, वे ही तो तुम्हें मिलेंगे न! वह नहीं मिलेगा जो दे सकता था; वह मिलेगा, जो कहता है, देते हैं। जो दे सकता है वह तो तुम्हें उसी दिन मिलेगा, जिस दिन तुम खोज ही नहीं रहे हो, लेकिन तैयार हो गए हो। वह उसी दिन मिलेगा।
इसलिए खोजना गलत है, मांगना गलत है। होती रहे घटना, होती रहे। और हजार रास्तों से प्रकाश मिले तो हर्ज नहीं है। सब रास्ते एक ही प्रकाश के मूल स्रोत को प्रमाणित करते चले जाएंगे। सब तरफ से मिलकर वही.......

 मूल स्रोत परमात्मा है:

कल मुझसे कोई कह रहा था.. .किसी साधु के पास जाकर कहा होगा कि ज्ञान अपना होना चाहिए। तो उन साधु ने कहा, ऐसा कैसे हो सकता है! ज्ञान तो सदा पराए का होता है—फलां मुनि ने फलां मुनि को दिया, उन मुनि ने उन मुनि को दिया। खुद कृष्ण गीता में कहते हैं कि उससे उसको मिला, उससे उसको मिला, उससे उसको मिला। तो कृष्ण के पास भी अपना नहीं है।
तो मैंने उसको कहा कि कृष्ण के पास अपना है। लेकिन जब वे कह रहे हैं कि उससे उसको मिला, उससे उसको मिला, तो वे यह कह रहे हैं कि यह जो ज्ञान मेरा है, यह जो मुझे घटित हुआ है, यह मुझे ही घटित नहीं हुआ है, यह पहले फलां आदमी को भी घटित हुआ था; और प्रमाण है कि उसको घटित हुआ था, उसने फलां आदमी को बताया भी था; और फलां आदमी को भी घटित हुआ था, उसने उसको भी बताया था। लेकिन बताने से घटित नहीं हुआ था, घटने से बताया था। तो मुझको भी घटित हुआ है, और अब मैं तुम्हें बता रहा हूं—वे अर्जुन से कह रहे हैं। लेकिन मेरे बताने से तुम्हें घटित हो जाएगा, ऐसा नहीं है; तुम्हें घटित होगा तो तुम भी किसी को बता सकोगे, ऐसा है।
उसे दूसरे से मांगते ही मत फिरना, वह दूसरे से मिलनेवाली बात नहीं है। उसकी तो तैयारी करना। फिर वह बहुत जगह से मिलेगी, सब जगह से मिलेगी। और एक दिन जिस दिन घटना घटती है, उस दिन ऐसा लगता है कि मैं कैसा अंधा हूं जो चीज सब तरफ से मिल रही थी, वह मुझे दिखाई क्यों नहीं पड़ती थी!
एक अंधा आदमी है, वह दीये के पास से भी निकलता है, वह सूरज के पास से भी निकलता है, बिजली के पास से भी निकलता है, लेकिन प्रकाश नहीं मिलता। और एक दिन, जब उसकी आंख खुलती है, तब वह कहता है मैं कैसा अंधा था, कितनी जगह से निकला, सब जगह प्रकाश था और मुझे दिखाई नहीं पड़ा! और अब मुझे सब जगह दिखाई पड़ रहा है।
तो जिस दिन घटना घटेगी, उस दिन तो तुम्हें सब तरफ वही दिखाई पड़ेगा; और जब तक नहीं घटी है, तब तक जहां भी दिखाई पड़े, वहां उसको प्रणाम कर लेना; जहां भी दिखाई पड़े, वहां उसे पी लेना। लेकिन मांगते मत जाना, भिखारी की तरह मत जाना; क्योंकि सत्य भिखारी को नहीं मिल सकता। उसे मांगना मत। नहीं तो कोई दुकानदार बीच में मिल जाएगा, जो कहेगा, हम देते हैं। और तब एक आध्यात्मिक शोषण शुरू हो जाएगा। तुम चलना अपनी राह— अपने को तैयार करते, अपने को तैयार करते— जहां मिल जाए, ले लेना, धन्यवाद देकर आगे बढ जाना।
फिर जिस दिन तुम्हें पूरा उपलब्ध होगा, उस दिन तुम ऐसा न कह पाओगे. मुझे फलाने से मिला। उस दिन तुम यही कहोगे कि आश्चर्य है! मुझे सबसे मिला; जिनके करीब मैं गया, सभी से मिला! और तब अंतिम धन्यवाद जो है वह समस्त के प्रति हो जाता है, वह किसी एक के प्रति नहीं रह जाता।

 दूसरे से आए प्रभाव की सीमा:

प्रश्न: ओशो यह प्रश्न इसलिए आया था कि शक्तिपात का प्रभाव धीरे— धीरे कम भी तो हो सकता है।

 हां—हां, वह कम होगा ही। असल में, दूसरे से कुछ भी मिलेगा तो वह कम होता चला जाएगा; वह सिर्फ झलक है। उस पर तुम्हें निर्भर भी नहीं होना है। उसे तो तुम्हें अपने भीतर ही जगाना है किसी दिन, तभी वह कम नहीं होगा। असल में, सब प्रभाव क्षीण हो जाएंगे, क्योंकि प्रभाव जो हैं वे फारेन हैं, वे विजातीय हैं, वे बाहरी हैं।
मैंने एक पत्थर फेंका। तो पत्थर की कोई अपनी ताकत नहीं है। मैंने फेंका, मेरे हाथ की ताकत है। तो मेरे हाथ की ताकत जितनी लगी है, पत्थर उतनी दूर जाकर गिर जाएगा। लेकिन बीच में जब पत्थर हवा चीरेगा, तो पत्थर को खयाल हो सकता है कि अब तो मैं हवा चीरने लगा, अब तो मुझे गिरानेवाला कोई भी नहीं है। लेकिन उसे पता नहीं कि वह प्रभाव से गया है, किसी के धक्के से गया है, दूसरे का हाथ पीछे है। वह एक पचास फीट दूर जाकर गिर जाएगा। गिरेगा ही! असल में, दूसरे से आए प्रभाव की सदा सीमा होगी। वह गिर जाएगा।
दूसरे से आए प्रभाव का एक ही फायदा हो सकता है, और वह यह है कि उस प्रभाव की क्षीण झलक में तुम अपने मूल स्रोत को खोज सको, तब तो ठीक। यानी मैंने एक माचिस जलाई, प्रकाश हुआ। पर मेरी माचिस कितनी देर जलेगी? अब तुम दो काम कर सकते हो. तुम यहीं अंधेरे में खड़े रहो और मेरी माचिस पर निर्भर हो जाओ— कि हम इस रोशनी में जीएंगे अब। एक घड़ी, क्षण भर भी नहीं बीतेगा, माचिस बुझ जाएगी, फिर घुप्प अंधेरा हो जाएगा। यह एक बात हुई। मैंने माचिस जलाई, घुप्प अंधेरे में थोड़ी सी रोशनी हुई, तुम एकदम दरवाजा दिखाई पड़ा और बाहर भाग गए। तुम मेरी माचिस पर निर्भर न रहे, तुम बाहर निकल गए; मेरी माचिस बुझे या जले, अब तुम्हें कोई मतलब न रहा; लेकिन तुम वहां पहुंच गए जहां सूरज है। अब कोई चीज थिर हो पाएगी।
तो ये जितनी घटनाएं हैं, इनका एक ही उपयोग है कि इससे तुम समझकर कुछ कर लेना अपने भीतर, इसके लिए मत रुक जाना। इसकी प्रतीक्षा करते रहोगे तो यह तो बार—बार माचिस जलेगी, बुझेगी। फिर धीरे— धीरे कंडीशनिंग हो जाएगी। फिर तुम इसी माचिस के मोहताज हो जाओगे। फिर तुम अंधेरे में प्रतीक्षा करते रहोगे— कब जले! फिर जलेगी तो तुम प्रतीक्षा करोगे— अब बुझनेवाली है, अब बुझनेवाली है, अब गए, अब गए, अब फिर अंधेरा हो जाएगा। बस यह एक चक्कर पैदा हो जाएगा। नहीं, जब माचिस जले, तब माचिस पर मत रुकना; क्योंकि माचिस इसलिए जली है कि तुम रास्ता देखो और भागो—निकल जाओ, जितने दूर अंधेरे के बाहर जा सकते हो।

 झलक पाकर अपनी राह चल देना:

दूसरे से हम इतना ही लाभ ले सकते हैं। लेकिन दूसरे से हम स्थायी लाभ नहीं ले सकते। पर यह कोई कम लाभ नहीं है। यह कोई थोड़ा लाभ नहीं है, बहुत बड़ा लाभ है; दूसरे से इतना भी मिल जाता है, यह भी आश्चर्य है। इसलिए जो दूसरा अगर समझदार होगा तो तुमसे नहीं कहेगा कि रुको। तुमसे कहेगा—माचिस चल गई, अब तुम भागो! अब तुम यहां ठहरना मत, नहीं तो माचिस तो अभी बुझ जाएगी।
लेकिन अगर दूसरा तुमसे कहे कि अब रुको, देखो मैंने माचिस जलाई अंधेरे में! और किसी ने तो नहीं जलाई न, मैंने जलाई! अब तुम मुझसे दीक्षा लो; अब तुम यहीं ठहरो, अब तुम कहीं छोड्कर मत जाना, खाओ कसम! अब यह संबंध रहेगा, अब यह टूट नहीं सकता। मैंने ही माचिस जलाई! मैंने ही तुम्हें अंधेरे में दिखाया! अब तुम किसी और की माचिस के पास तो न जाओगे? अब तुम कोई और प्रकाश तो न खोजोगे? अब तुम किसी और गुरु के पास मत रुकना, सुनना भी मत, अब तुम मेरे हुए! तो फिर, तो फिर खतरा हो गया।

 झलक दिखाकर बाधनेवाले तथाकथित गुरु:

इससे अच्छा था यह आदमी माचिस न जलाता। इसने बड़ा नुकसान किया। अंधेरे में तुम खोज भी लेते; किसी तरह टकराते, धक्के खाते, किसी दिन प्रकाश में पहुंच जाते; अब इस माचिस को पकडने की वजह से बड़ी मुश्किल हो गई, अब कहां जाओगे?
और तब इतना भी पक्का है कि यह माचिस इस आदमी की अपनी नहीं है, यह किसी से चुरा लाया है। यह कहीं से चुराई गई माचिस है। नहीं तो इसको अब तक पता होता कि बाहर भेजने के लिए है यह, किसी को रोकने के लिए नहीं है, यहां बिठा रखने के लिए नहीं है। यह चोरी की गई माचिस है। इसलिए अब यह माचिस की दुकान कर रहा है; अब यह कह रहा है : जिन— जिनको हम झलक दिखा देंगे, उनको यहीं रुका रहना पड़ेगा; अब वे कहीं जा नहीं सकते।
तब तो हइ हो गई! अंधेरा रोकता था, अब यह गुरु रोकने लगा। इससे अंधेरा अच्छा था कि कम से कम अंधेरा हाथ फैलाकर तो नहीं रोक सकता था। अंधेरे का जो रोकना था वह बिलकुल ही पैसिव था। लेकिन यह गुरु तो एक्टिव रोकेगा; यह तो हाथ पकड़कर रोकेगा, छाती अड़ा देगा बीच में, और कहेगा कि धोखा दे रहे हो! दगा कर रहे हो!
अभी एक लड़की ने मुझे आकर कहा कि उसके गुरु ने उससे कहा कि तुम उनके पास क्यों गई? यह तो ऐसे ही है, जैसे कोई पत्नी अपने पति को छोड्कर चली जाए! गुरु कह रहा है उससे कि यह तो जैसे पत्नीव्रत और पतिव्रत एक के साथ होता है, ऐसा गुरु को छोड्कर चला जाए कोई दूसरे के पास, तो यह महान पाप है!
यह चुराई हुई माचिसवाला अब माचिस से काम चलाएगा। और चुराई जा सकती हैं माचिसें, इसमें कोई कठिनाई नहीं है, शास्त्रों में बहुत माचिसें उपलब्ध हैं, उनको कोई चुरा सकता है।

 प्रश्न: ओशो क्या चुराई हुई माचिस जल सकती है?

 ल सकने का मतलब यह है कि....... असल में, अंधेरे में मजा ऐसा है...... अंधेरे में मजा ऐसा है, जिसने प्रकाश देखा ही नहीं, उसको कौन सी चीज जलती हुई बताई जा रही है, यह भी तय करना मुश्किल है। समझे न? जिसने प्रकाश देखा ही नहीं, उसे कौन सी चीज जली हुई बताई जा रही है, यह पक्का करना बहुत मुश्किल है। यह तो प्रकाश के बाद उसको पता चलेगा कि तुम क्या जला रहे थे, क्या नहीं जला रहे थे! वह जल भी रही थी कि नहीं जल रही थी! कि आंख बंद करके समझा रहे थे कि जल गई! वह सब तो तुम्हें प्रकाश दिखाई पड़ेगा, तब तुम्हें पता चलेगा। जिस दिन प्रकाश दिखाई पड़ेगा, उस दिन सौ में से निन्यानबे गुरु अंधेरे के साथी और प्रकाश के दुश्मन सिद्ध होते हैं! पता चलता है कि ये तो बहुत दुश्मन थे, ये सब शैतान के एजेंसीज थे।

आज इतना ही।

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