रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)
ओशो
पहला प्रवचन
मेरे प्रिय आत्मन्!
एक छोटी सी घटना से आज की बात मैं आपसे कहना चाहूंगा।
एक बहुत बड़े सम्राट की मृत्यु हो गई थी। उसकी अरथी निकाली जा रही थी।
लाखों लोग उस अरथी को देखने रास्तों पर इकट्ठे हुए थे। एक बड़ी अजीब बात थी, अरथी के बाहर दोनों हाथ बाहर निकले हुए थे। जो भी देखा उसी के मन में
प्रश्न उठा, ऐसी अरथी तो कभी देखी नहीं गई जिसमें लाश के हाथ
दोनों बाहर हों। और कोई साधारण आदमी भी नहीं मरा था, एक
सम्राट की मृत्यु हो गई थी। हर कोई पूछने लगा, क्या बात है?
अरथी के बाहर हाथ क्यों निकले हुए हैं?
और तब धीरे-धीरे पता चला, मरते वक्त उस सम्राट
ने...उसका नाम सभी ने सुना होगा: अलेक्जेंडर महान, सिकंदर!
मरते वक्त सिकंदर ने कहा था, मेरे हाथ अरथी के बाहर रखे जाएं,
ताकि हर कोई यह देख ले कि मेरी मुट्ठियां भी खाली हैं।
बहुत वर्ष हो गए सिकंदर को मरे हुए। न तो उसके पहले और न उसके बाद
किसी के हाथ अरथियों के बाहर नहीं रहे हैं। लेकिन हाथ--चाहे बाहर रहें, चाहे भीतर--सारी जिंदगी के बाद खाली के खाली रह जाते हैं। और चाहे वे हाथ
सम्राट के हों और चाहे भिखारी के, इससे कोई भेद नहीं पड़ता।
जिंदगी में होगा कोई भिखारी और होगा कोई सम्राट। लेकिन मौत, मौत
सबको बराबर कर देती है। और वह बराबरी खाली हाथों की बराबरी होती है। सबके हाथ समान
रूप से खाली होते हैं।
यह बात इसलिए मैंने कहनी चाही है, इस बात का स्मरण
दिलाने के लिए कि मौत जिसके हाथ खाली पाती है, जिंदगी में भी
वह खाली रहा होगा। यह असंभव है कि जिंदगी में भरा रहा हो और मौत उसके हाथ खाली
पाए। क्योंकि मृत्यु तो जीवन की ही पूर्णता है। जिस भांति हम जीते हैं उस भांति ही
हम मरते हैं। मृत्यु तो सूचना है पूरे जीवन की--कि जीवन कैसा था? तो यदि मौत खाली हाथ पाती हो तो कोई भूल में रहा होगा कि जिंदगी में भरा
था। जिंदगी में भी खाली रहा होगा।
कुछ थोड़े से लोगों को जीवन में ही यह दिखाई पड़ने लगता है कि हाथ खाली
हैं। जिनको यह दिखाई पड़ता है कि हाथ खाली हैं, वे संसार की दौड़ छोड़
देते हैं--धन की और यश की, पद की और प्रतिष्ठा की। लेकिन वे
लोग भी एक नई दौड़ में पड़ जाते हैं--परमात्मा को पाने की, मोक्ष
को पाने की। और मैं यह निवेदन करना चाहूंगा इन तीन दिनों में कि जो भी आदमी दौड़ता
है वह हमेशा खाली रह जाता है, चाहे वह परमात्मा के लिए दौड़े
और चाहे धन के लिए दौड़े। इसलिए केवल सम्राट ही खाली हाथ नहीं मरते, और भिखारी ही नहीं, बहुत से संन्यासी भी खाली हाथ ही
मरते हैं।
जीवन में जो भी पाने जैसा है वह दौड़ कर नहीं पाया जा सकता है। जीवन का
सौंदर्य और जीवन का सत्य और जीवन का संगीत कहीं बाहर नहीं है कि कोई दौड़े और उसे
पा ले। जो कुछ भी बाहर होता है उसे पाने के लिए यात्रा करनी होती है, चलना होता है। और जो भी भीतर है उसे पाने के लिए जो यात्रा करेगा वह भटक
जाएगा। क्योंकि यदि मुझे आपके पास आना हो तो मैं चलूंगा और तब आपके पास पहुंच
सकूंगा। और अगर मुझे अपने ही पास पहुंचना हो तो चलने से कैसे पहुंचा जा सकता है?
मैं तो जितना चलूंगा उतना ही दूर निकल जाऊंगा। अगर मुझे अपने पास
पहुंचना है तो मुझे सारा चलना छोड़ देना पड़ेगा, दौड़ना छोड़
देना पड़ेगा, तो शायद मैं पहुंच जाऊं।
तो एक तो रास्ता वह है जो बाहर की तरफ जाता है, जिस पर हमें चलना पड़ता है, श्रम करना पड़ता है,
पहुंचना पड़ता है। एक रास्ता ऐसा भी है जिस पर चलना नहीं पड़ता,
और जो चलता है वह कभी नहीं पहुंचता, जिस पर
रुकना पड़ता है। और जो रुक जाता है वह पहुंच जाता है। यह बात बड़ी उलटी मालूम पड़ेगी।
क्योंकि हमने तो अब तक यही जाना है कि जो खोजेगा वह पाएगा, जो
चलेगा वह पहुंचेगा, और जो जितने जोर से चलेगा उतने जल्दी
पहुंचेगा। और जो जितने श्रम से दौड़ेगा उतने शीघ्र पहुंच जाएगा। लेकिन इन तीन दिनों
में मैं यह निवेदन करूंगा, जो चलेगा वह कभी नहीं पहुंचेगा।
और जो जितने जोर से चलेगा उतने ही ज्यादा जोर से अपने से दूर निकल जाएगा।
एक और छोटी कहानी कहूं।
एक नदी पर सांझ सूरज ढलता था। दो भिक्षु नाव से उतरे, एक युवा भिक्षु था और एक बूढ़ा। उन दोनों ने मांझी से पूछा कि क्या सूरज
डूबने तक हम, यह जो सूरज की डूबती रोशनी में चमकती हुई दीवाल
है गांव की, वहां तक पहुंच जाएंगे? पास
ही गांव था और उसके चारों तरफ किले की दीवाल थी, और नियम था
कि सूरज डूबने के साथ ही उस गांव का दरवाजा बंद हो जाएगा। तो उन दोनों भिक्षुओं ने
पूछा कि क्या हम पहुंच जाएंगे सूरज के डूबते-डूबते?
उस बूढ़े मांझी ने कहा कि अगर धीरे गए तो पहुंच जाओगे और अगर जल्दी गए
तो पहुंचना बहुत मुश्किल है।
उन दोनों भिक्षुओं ने समझा कि यह आदमी पागल है। क्योंकि जो यह कहता हो
कि धीरे चलोगे तो पहुंच जाओगे और जल्दी चले तो नहीं पहुंच पाओगे, उसको कौन समझदार समझेगा? उसे तो कोई भी पागल समझेगा।
पूरी दुनिया पागल समझेगी, आप भी पागल समझेंगे। क्योंकि
दुनिया में तो हम यही जानते हैं--दौड़ना जानते हैं, शीघ्रता
जानते हैं। यह क्या बात? उसकी बात सुनने को फिर वे और नहीं
ठहरे, उसकी बात सुनने जैसी नहीं थी। उसकी पहली बात ही बड़ी
गड़बड़ थी। वे दोनों भागे। उचित था यही। तर्क यही कहता है, बुद्धि
यही कहती है: अगर पहुंचना है तो दौड़ो। और सूरज ढला जाता है, सांझ
हुई जाती है। रात घिर आएगी, द्वार बंद हो जाएंगे, पहुंचना मुश्किल है, फिर रात बाहर ही ठहर जाना होगा।
इसलिए वे भागे, जितनी उनमें शक्ति थी उतनी शक्ति लेकर भागे।
थोड़ी ही देर बाद बूढ़ा भिक्षु गिर पड़ा। उतनी शक्ति न थी दौड़ने की, सिर पर बोझ था ग्रंथों का, ग्रंथ लिए हुए था। गठरी
गिर गई और ग्रंथ बिखर गए और उनके पन्ने उड़ गए। पीछे से उस मांझी ने अपनी नौका
बांधी और वह भी अपनी पतवार लेकर धीरे-धीरे आता था। युवा भिक्षु बूढ़े भिक्षु के
पैरों से खून को साफ कर रहा था और पट्टी बांध रहा था। उस मांझी ने आकर कहा कि मेरे
मित्रो, मैंने कहा था: अगर धीरे जाओगे, पहुंच जाओगे; अगर जोर से गए, नहीं
पहुंच पाओगे। तब उन्हें खयाल में आया कि धीरे चलने की भी कोई कला होती है।
लेकिन उसने तो कहा था: धीरे चलोगे तो पहुंच जाओगे। इन तीन दिनों में
मैं तो और भी बड़े पागलपन की बात आपसे कहने को हूं। मैं तो यह कहने को हूं कि चले
तो कभी न पहुंच पाओगे। तो जब धीमे चलने को ही कोई पागलपन समझे और तेजी से चलना
समझदारी मालूम हो तो फिर मेरी बात कैसी लगेगी?
लेकिन कुछ कारण हैं जिनसे ऐसा कहता हूं। वे कारण तो धीरे-धीरे तीन
दिनों में आपको स्पष्ट करूंगा। आज तो शुरू में, सूत्र रूप में कुछ
बातें कह देनी जरूरी हैं जो तीन दिनों में आपके खयाल में आ जाएंगी।
सबसे पहली बात यही और वह यह कि मनुष्य के भीतर कुछ है। और जो उस भीतर
के सत्य को जाने बिना जीवन में कुछ भी खोजता है वह व्यर्थ ही खोजता है। यदि मैं यह
भी न जान पाऊं कि मैं क्या हूं और कौन हूं, तो मेरी सारी खोज का
क्या अर्थ होगा? चाहे वह खोज धन की हो, चाहे पद की, चाहे यश की, चाहे
परमात्मा की और चाहे मोक्ष की।
मेरी सारी खोज व्यर्थ होगी। क्योंकि जो मैं था उसको भी मैंने नहीं
जाना था। और यह जो मैं हूं, इसे जानने के लिए कहां दौड़ेंगे? कहां जाएंगे? क्या करेंगे? इसे
जानने को तो सारी दौड़ छोड़ कर रुक जाना पड़ेगा। इसे जानने को तो सारी खोज छोड़ कर ठहर
जाना पड़ेगा। क्योंकि जो चित्त खोजता है वह चित्त उद्विग्न हो जाता है, तनाव से भर जाता है, अशांत हो जाता है। तो यदि मैं
सारी खोज छोड़ कर ठहर सकूं, मेरे मन में कोई खोज न हो,
कहीं पहुंचने का खयाल न हो, कहीं जाना न हो,
तो क्या होगा? सारी उद्विग्नता, सारी दौड़, सारी खोज जहां न होगी, वहां एक अदभुत शांति अवतरित होगी। एक मौन, एक
साइलेंस आनी शुरू होगी, एक शांति आनी शुरू होगी। क्योंकि जो
दौड़ने के खयाल में नहीं है वह एकदम शांत हो जाता है। और उस शांति में ही उसके
दर्शन होंगे जो मैं हूं।
इसलिए कोई कभी खोज कर नहीं खोज सका है स्वयं को। ठहर कर, रुक कर। वह तो हम आने वाले दिनों में बात करेंगे। लेकिन क्या मिल जाएगा?
अगर हम सारी खोज छोड़ कर स्वयं को जानने में समर्थ हो जाएं तो क्या
मिल जाएगा?
मिल जाएगा यह कि हाथ खाली नहीं हैं, यह ज्ञात हो जाएगा।
अभी हमें लगता है कि हाथ खाली हैं, इसलिए भरने का खयाल है।
इसलिए दौड़ते हैं, खोजते हैं--किसी भांति भरापन मिल जाए,
फुलफिलमेंट मिल जाए। क्योंकि यह खालीपन, अभाव
घबड़ाता है। दरिद्रता, दीनता मालूम पड़ती है कि मैं कुछ भी
नहीं, मेरे पास कुछ भी नहीं। दौड़ते हैं, भागते हैं। लेकिन कोई आज तक दौड़ कर और भाग कर उस भरेपन को उपलब्ध नहीं हो
पाया जिसकी खोज है। जिनके पास सब कुछ इकट्ठा हो जाता है वे भी भीतर दरिद्र बने
रहते हैं। उनके भीतर भी भिखारी का अंत नहीं होता। उनके भीतर भी वह मांगने वाला
समाप्त नहीं होता। वे मांगे चले जाते हैं, मांगे चले जाते
हैं। उनकी, उनकी दौड़ का भी कोई अंत नहीं होता।
अकबर से मिलने फरीद नाम का एक फकीर गया था। उसके गांव के लोगों ने
फरीद से कहा था कि अकबर से प्रार्थना करो, मित्र है तुम्हारा,
गांव में एक छोटा सा स्कूल खोल दे। फरीद गया। सोचा था, अकबर के पास तो बड़ी सामर्थ्य है, क्या एक स्कूल के
लिए मना करेगा! जल्दी से बहुत सुबह ही पहुंच गया। अकबर अपनी प्रार्थना करता था,
सुबह की नमाज पढ़ता था। फरीद पीछे खड़ा हो गया। अकबर ने नमाज पूरी की,
हाथ जोड़े और कहा: हे परमात्मा, मेरे धन को
बढ़ा! मेरे राज्य को और बड़ा कर! मेरी सीमाओं को बड़ा कर! फरीद ने सुना, वह लौट पड़ा। अकबर उठा और देखा कि फरीद लौट रहा है, सीढ़ियां
उतरता है, उसकी पीठ दिखाई पड़ी। दौड़ा और फरीद को रोका और पूछा,
कैसे आए? और वापस लौट चले?
फरीद ने कहा कि मैं सोचता था एक सम्राट के पास जा रहा हूं। यहां तो
पाया कि यहां भी एक भिखारी है। मैं तो सोचता था कि तुमसे कुछ मांगूंगा गांव के लिए, लेकिन मैंने देखा कि तुम तो खुद ही मांग रहे हो। मैं बड़ी भूल में रहा। और
अब मांगना ही होगा तो उसी से मांग लेंगे जिससे तुम मांगते थे, अब तुम्हें बीच में लेने की क्या जरूरत रही? लेकिन
एक भ्रम मेरा टूट गया कि मैं सोचता था कि सम्राट के भीतर का भिखारी मर जाता है। यह
भ्रम मेरा टूट गया। वस्त्र सम्राट के हो जाते हैं, आत्मा
भिखारी की ही बनी रहती है।
दुनिया में दो तरह के भिखारी हैं--एक जिनके वस्त्र भिखारी के हैं और
एक जिनके वस्त्र सम्राटों के हैं। लेकिन जहां तक आत्मा का संबंध है, मुश्किल से कभी कोई सम्राट होता है। सभी लोग भिखारी होते हैं। मांग बंद
नहीं होती, मांगते ही चले जाते हैं। क्यों मांगते चले जाते
हैं? सब कुछ मिल जाता है, फिर भी मांग
समाप्त क्यों नहीं होती?
नहीं होती इसलिए कि सब कुछ मिल जाता है, फिर भी भीतर का जो
खालीपन है, जो एंप्टीनेस है, वह जो
भीतर सब खाली है, वह नहीं भरता। बाहर संपदा इकट्ठी होती चली
जाती है, भीतर का खालीपन अपनी जगह बना रहता है, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। नहीं पड़ सकता है अंतर, क्योंकि
संपदा है बाहर और खालीपन है भीतर। तो बाहर की संपत्ति भीतर की शून्यता को कैसे
भरेगी? कोई उपाय नहीं है। बाहर के सिक्के भीतर की शून्यता को
कैसे भरेंगे? बाहर की संपत्ति बाहर पड़ी रह जाएगी। ढेर इकट्ठे
हो जाएंगे और भीतर का गङ्ढा भीतर रहेगा। उन दोनों का कोई संबंध नहीं। उन दोनों के
मिलने का कोई स्थान नहीं। वे दोनों अलग-अलग बातें हैं। भीतर की दरिद्रता बाहर की
समृद्धि से इसीलिए नहीं मिट पाती, क्योंकि उन दोनों का कहीं
मिलन ही नहीं होता, उनका कोई संबंध ही नहीं है।
लेकिन क्या भीतर की भी कोई समृद्धि हो सकती है?
कुछ लोग सोचते हैं कि हो सकती है। तो वे भजन में, पूजा में, प्रार्थना में लग जाते हैं। वे सोचते हैं
कि शायद धन से तो काम नहीं होता तो भजन करें; गृहस्थी से तो
काम नहीं होता, संसार से तो काम नहीं होता, तो संन्यासी हो जाएं। वे सोचते हैं कि पद से तो नहीं मन भरता, तो परमात्मा को पा लें। लेकिन उनका परमात्मा भी बाहर होता है और उनके भजन
भी बाहर होते हैं और उनका मंदिर भी बाहर होता है। धन बाहर था, पद बाहर थे। यह परमात्मा भी बाहर होता है। जिसके लिए वे हाथ जोड़ते हैं और
प्रार्थना करते हैं, वह बाहर है। जिस परमात्मा के सामने वे
हाथ जोड़ते हैं वह बाहर होगा, कहीं आकाश में होगा, कहीं और होगा। जिससे वे प्रार्थना करते हैं वह भी बाहर होगा। जिसके लिए वे
गीत गाते हैं और भजन करते हैं वह भी बाहर होगा।
तो बाहर के संसार से छुटकारा होता है तो बाहर का परमात्मा पकड़ लेता
है। लेकिन भीतर जाना फिर भी नहीं हो पाता। क्योंकि जितने बाहर के मकान हैं उतने ही
बाहर के मंदिर हैं। चीज बदल जाती है, स्थिति वही की वही
रही आती है। इसलिए जीवन भर कोई प्रार्थना करता है और फिर भी पाता है कि भीतर का
खालीपन अपनी जगह है। वह कहीं नहीं गया। जीवन भर भजन करता है, फिर भी आखिर में पाता है कि वे शब्द खो गए हवाओं में, और भीतर जो खाली था वह अब भी खाली है।
असल में मजा यह है कि हम एक ऐसी चीज को भरने चले हैं जो पहले से ही
भरी हुई है! तो न तो धन उसे भर सकेगा और न धर्म उसे भर सकेगा। उसे तो कोई भी नहीं
भर सकेगा। लेकिन अगर हम उस खालीपन को देखने को राजी हो जाएं, तो हम पाएंगे कि खालीपन इसीलिए था कि हम उस तरफ देख ही नहीं रहे थे। वहां
तो सब भरा हुआ था।
एक भिखारी मरा था एक बार। और जिस जमीन के टुकड़े पर बैठ कर बाजार में
वह भीख मांगता रहा जीवन भर, मरने के बाद, तीस साल बाद उसके
गांव के लोगों ने उसे तो हटाया, उसकी लाश को हटाया, और तीस साल उसी जगह अपने चीथड़े और गंदगी फैलाए बैठा रहा था तो उसकी सफाई
करनी जरूरी हो गई थी, तो उन्होंने सफाई की और थोड़ी-थोड़ी जमीन
खोद कर भी साफ करवा दी। तीस साल से एक भिखमंगा वहां बैठा रहा था। जमीन उन्होंने
थोड़ी सी खोदी, वे हैरान हो गए! जमीन खोदते ही, वहां तो अटूट खजाना गड़ा हुआ था। और तब वे हंसने लगे कि यह तो मुश्किल,
अजीब बात हो गई: भिखारी उसी खजाने पर बैठा हुआ भीख मांगता रहा! तीस
साल चीथड़ों में जीया, भूखा मरा और मर गया। और जिस जमीन पर
बैठा था वहां खजाना गड़ा था!
उन लोगों ने मुझे यह खबर बताई, उस गांव के लोगों ने,
तो मैंने उनसे कहा कि तुम उस भिखारी पर हंस रहे हो और तुम मर जाओगे
तो दूसरे लोग तुम पर हंसेंगे।
उन्होंने कहा, क्यों?
मैंने कहा, हर आदमी जिस जगह खड़ा है वहां खजाना गड़ा हुआ है। लेकिन
जिंदगी भर भीख मांगता है और पता नहीं चलता कि मैं जहां खड़ा हुआ हूं वहां खजाना गड़ा
हुआ है।
हर आदमी जहां है वहां खजाना है। और जिस परमात्मा को हम खोजते हैं वह
वहां है जहां हम हैं। इसलिए उसे हम कभी नहीं खोज पाएंगे कहीं खोजने जाएंगे तो। और
जिस यश को, और जिस धन को, और जिस संपत्ति
को हम खोजते हैं वह वहां है जहां हम हैं। इसलिए हम खोजें और खोजें और मिट जाएं,
हम कभी नहीं खोज पाएंगे। वह है हमारा स्वरूप जिसे हम खोज रहे हैं।
और जब तक हम खोजते रहेंगे, तब तक स्वरूप का कोई बोध नहीं हो
सकता। जो खोज को छोड़ देता है और खोज को छोड़ कर खड़ा होता है, उसे
दिखाई पड़ता है कि मैं कौन हूं।
एक आदमी दौड़ रहा हो, दौड़ रहा हो। दौड़ते हुए आदमी को
पता भी नहीं चल सकता कि मैं कौन हूं। ठहरे, रुके, थोड़ी दौड़ बंद हो, थोड़े चित्त का भागना बंद हो,
तो शायद उसे दिखाई पड़े कि मैं कौन हूं। और जिस क्षण उसे दिखाई पड़ता
है कि मैं कौन हूं, वह पाता है कि मैं तो कभी खाली था ही
नहीं।
बुद्ध को समाधि उपलब्ध हुई। कुछ लोगों ने जाकर उनसे पूछा कि आपको
ज्ञान उपलब्ध हुआ है, आपको क्या मिला ज्ञान?
बुद्ध हंसने लगे और उन्होंने कहा कि मिला तो कुछ भी नहीं, बल्कि कुछ खो गया।
वे लोग हैरान हुए और उन्होंने कहा कि हम तो सुनते रहे हैं कि ज्ञान
होता है तो कुछ मिलता है।
बुद्ध ने कहा, नहीं, मिला तो कुछ भी नहीं।
क्योंकि जैसे ही आंखें खुलीं, दिखाई पड़ा कि जिसे मैं सोचता
था कि खो गया है, वह तो खोया ही नहीं था। मिला वही जो सदा से
मिला ही था। इसलिए उसे मिलना नहीं कह सकता हूं। हां, कुछ खो
जरूर गया; यह भ्रम खो गया कि मेरे पास कुछ भी नहीं है।
यह जो दौड़ है हमारी, इस दौड़ को बदल नहीं लेना है। एक
चीज को छोड़ कर हम दूसरी चीज के लिए दौड़ने लगें, इससे कोई
फर्क नहीं पड़ता, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। जब तक हम
दौड़ते हैं, तब तक हम नहीं पा सकेंगे। कैसे हम रुक जाएं,
कैसे हम ठहर जाएं, क्या कोई उपाय है, कोई मार्ग है कि हम ठहर जाएं? क्या कोई दृष्टि है
जहां हम रुक जाएं? उसकी तो हम तीन दिनों में बात करेंगे।
लेकिन उस बात की तैयारी के लिए कि उस बात को आप, वह बात आपको
दिखाई पड़ सके, कुछ थोड़े से सूत्र आपसे कहना चाहूंगा। जिनके
आधार पर अगर तीन दिन हम थोड़े से जीए, तो शायद जो बात मैं
कहूं वह आपको दिखाई पड़ जाए।
क्योंकि महत्वपूर्ण यह नहीं है कि मैं कुछ कहूं? मेरे कहने का क्या महत्व है। सवाल तो यह है कि वह आपको दिखाई पड़ जाए। हो
सकता है कि मैं कहता रहूं और आपको दिखाई न पड़े। तो उस कहने का कोई भी प्रयोजन नहीं
है, कोई अर्थ नहीं है। इसलिए यह महत्वपूर्ण नहीं है बहुत कि
मैंने क्या कहा, बहुत महत्वपूर्ण यह होगा कि आपने कैसे सुना।
तो इन तीन दिनों में अगर कुछ सूत्रों पर आप प्रयोग करेंगे, तो जो मैं कहूंगा, शायद वह कम्युनिकेट हो पाए। वह आप
तक पहुंच पाए, आप तक मेरी बात पहुंच जाए। बहुत कठिन है यह
बात, किसी की बात किसी तक पहुंचनी, बहुत
कठिन है। इतना काफी नहीं है कि मैं बोल दूं और आप तक पहुंच जाए। आपके भीतर अगर उस
बात से जुड़ने की कोई तैयारी हो तो दिखाई पड़ सकती है। और नहीं तो उलटा भी हो सकता
है। उलटा यह हो सकता है कि मैं कुछ कहूं, आपको कुछ सुनाई
पड़े। अक्सर तो ऐसा ही होता है, अक्सर ऐसा ही होता है।
क्योंकि जब मैं यहां बोलूंगा तब आप भी अपने भीतर बोले चले जाएंगे।
एक बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक के चिकित्सालय में दो पागल नये-नये चिकित्सा
के लिए लाए गए। वे दोनों ही किसी विश्वविद्यालय के अध्यापक थे। और जैसा कि अक्सर
होता है, अध्यापक अगर अध्यापक बना ही रह जाए तो उसके पागल हो
जाने के खतरे पैदा हो जाते हैं। क्योंकि वह सीखना तो बंद कर देता है और सिर्फ
सिखाता है, सिर्फ सिखाता है। वह धीरे-धीरे यह भूल ही जाता है
कि उसको भी कुछ सीखना है। और जो आदमी यह भूल जाए कि मुझको कुछ सीखना है--सिर्फ
सिखाना है, सिर्फ सिखाना है--वह आदमी पागल नहीं हो जाएगा तो
क्या होगा? उन दोनों अध्यापकों पर भी यह मुसीबत आ गई थी और
करीब-करीब दुनिया में सभी अध्यापकों पर आ रही है। वे दोनों पागल हो गए थे। वे
दोनों भर्ती किए गए थे। मनोवैज्ञानिक उन्हें खिड़की में से छुप कर उनका अध्ययन करता
था कि वे क्या करते हैं।
वे बड़ी अजीब बात करते थे। एक बोलना शुरू करता था तो बोले ही चला जाता
था, बोले ही चला जाता था, दूसरा बैठ कर बिलकुल चुपचाप
सुनता था। जब वह बोलना बंद कर देता था तो दूसरा बोलना शुरू करता था। लेकिन दूसरा
जहां से शुरू करता था वहां से पहले वाले की बात का कोई संबंध ही नहीं होता था। वह
मनोवैज्ञानिक बहुत हैरान हुआ। उनका कोई वास्ता ही नहीं था, जो
एक कहता था उससे दूसरे का कोई संबंध नहीं था। लेकिन दूसरा रुकता था जब तक एक बोलता
था।
उसने जाकर उनसे पूछा कि मेरे मित्रो, बड़ी हैरानी की बात
है! तुम्हारी बातों में तो कोई संबंध नहीं है, फिर रुकते
क्यों हो? एक आदमी बोलता है तो दूसरा रुकता क्यों है?
तो उनमें से एक पागल ने कहा, हम जानते हैं
कनवरसेशन कैसे किया जाए, बातचीत कैसे की जाए। यह तो नियम है
बातचीत का कि जब एक बोलता हो तब दूसरा चुप रहे। तो हम चुप रहते हैं। और जब वह थक
जाता है तो हम शुरू करते हैं बोलना, फिर उसको चुप रहना पड़ता
है।
मैंने यह घटना पढ़ी और मैंने सोचा कि यह तो बात बड़ी सच्ची है। सारी
दुनिया में सभी लोग इसी भांति तो बातचीत करते हैं। जब तक मैं बोल रहा हूं, तब तक आप भी अपने भीतर बोले जा रहे हैं, बोले जा रहे
हैं। मैं जो बोल रहा हूं उससे और आपके बोलने का क्या संबंध है? कोई भी संबंध नहीं है।
हां, हम अभी इतने पागल नहीं हैं, हम
बातचीत करते हैं तो जब एक बंद होता है तब दूसरा शुरू करता है। और हम इतने पागल
नहीं हैं कि बिलकुल असंगत बात शुरू कर दें। इसलिए दूसरा जहां खत्म करता है वहां से
बहाने मात्र को कोई बात ले लेते हैं और अपनी बात शुरू कर देते हैं। बस वह बहाना भर
होता है बात शुरू करने का। फिर बात शुरू हो जाती है। हम सब इस भांति बातचीत करने
के आदी हैं।
यहां मैं कोई बातचीत नहीं करूंगा तीन दिनों में आपसे। तो अगर मैं बोल
रहा हूं, उस वक्त आप भी अपने भीतर बोले चले जा रहे हैं,
तो इस भ्रम में आप न रहें कि आपने वही सुना जो मैंने कहा था। वह आप
नहीं सुन सकेंगे। और सच तो यह है कि वह आपने कभी नहीं सुना। और आपने जिंदगी में
हमेशा अनुभव किया होगा।
अगर आप पति हैं तो आपने अनुभव किया होगा कि मैं पत्नी से जो कहता हूं, यह तो उत्तर जो देती है उसका कोई संबंध ही नहीं है। अगर आप पत्नी हैं तो
आपने अनुभव किया होगा कि पति से जो मैं कहती हूं, वह तो न
मालूम क्या मतलब ले लेते हैं और झगड़ा खड़ा हो जाता है। वह तो मैंने कभी कहा ही नहीं
था, वह मेरा अभिप्राय नहीं था, वह मेरा
प्रयोजन नहीं था।
बच्चे जानते हैं कि मां-बाप से उन्होंने जो कहा उनका प्रयोजन नहीं था, उन्होंने न मालूम क्या अर्थ ले लिया! मां-बाप जानते हैं कि बच्चों,
हमने जो कहा, बच्चों ने क्या अर्थ ले लिया!
हम सब अर्थ ले रहे हैं। समझ कोई भी नहीं रहा है। इसलिए तो चौबीस घंटे
कलह खड़ी हो जाती है। क्योंकि जो कहा गया वह हम सुनते नहीं, हम कुछ और सुन लेते हैं। हम सुनेंगे ही कुछ और, क्योंकि
हमारे भीतर खुद बहुत सी बातें चल रही हैं। और उन बातों के धुएं में दूसरे की बात
आकर विकृत हो जाती है, उसके सब अर्थ खो जाते हैं।
तो तीन दिन में एक तो प्रार्थना यह करूंगा, यहीं नहीं, घंटे भर के लिए यहीं नहीं, बल्कि तीन दिनों में जब भी आप किसी से कुछ भी बात कर रहे हों, तो कृपा करके इसका थोड़ा ध्यान रखें कि जब आप कुछ भी बात सुन रहे हैं तो
आपके भीतर बातचीत नहीं चलनी चाहिए। अगर चलती है तो आप सामान्य बातचीत भी नहीं समझ
पाते। कौन किसको समझ पाता है? पत्नी पति को समझ पाती है?
गलती है। पति पत्नी को समझ पाता है? मित्र
मित्र को समझ पाते हैं? नहीं समझ पाते। जिंदगी भर जिनके हम
साथ रहते हैं उनको भी नहीं समझ पाते, क्योंकि हमने सुनना ही
नहीं सीखा! हमने कभी सुनना ही नहीं जाना कि किसी की बात कैसे सुनी जाए!
बात सुनने का पहला सूत्र तो यह है कि जब कोई कुछ कह रहा हो तो हमारे
भीतर दूसरी बात न चले, वहां सब मौन हो। वहां हम बहुत तत्परता से, बहुत शांति से, बहुत मौन से, अत्यंत
शांति में, अत्यंत शून्य में कुछ सुनें। तो जब शून्य में कुछ
सुना जाता है, मौन में कुछ सुना जाता है, तब, तभी सुना जाता है। उससे अन्यथा कभी नहीं सुना
जाता।
तो तीन दिन में एक प्रयोग करें। बातचीत तो करेंगे ही, तो उस वक्त यह प्रयोग करें कि जब मैं सुन रहा हूं किसी की बात, तब मेरे भीतर कुछ न चले। तब मैं पूरी तत्परता हो जाऊं, पूरी अटेंशन हो जाऊं। पूरा ध्यान मेरा उसको सुनने में हो, मेरे भीतर कुछ भी न चले। अगर तीन दिन इसका थोड़ा प्रयोग किया तो शायद मैं
भी जो कहूंगा, दिन के किन्हीं-किन्हीं समय में, वह भी शायद सुनाई पड़ सके। क्योंकि ऐसा नहीं हो सकता कि मेरी तो आप बात सुन
लें और जब आपका मित्र बात कह रहा हो तब आप न सुन पाएं। अगर उसकी सुन पाएंगे तो ही
मेरी भी सुन पाएंगे। ये दोनों अलग-अलग बातें नहीं हैं। यहां पक्षी हैं, वे आवाज देंगे, तो उनकी आवाज को भी उतनी ही शांति से
सुनें। एक बच्चा रोने लगे तो उसके रोने को भी उतनी ही शांति से सुनें। हवाएं
दरख्तों को हिलाएं और उनमें आवाज हो, उसको भी उतनी ही शांति
से सुनें। आर्ट ऑफ लिसनिंग जिसको कहें, सुनने की कला।
हम सब बोलने की कला जानते हैं, सुनने की कला कोई भी
नहीं। इसलिए तो दुनिया में इतना अजीब हो गया है सब। सारे लोग बोल रहे हैं, सुन कोई भी नहीं रहा है। दुनिया करीब-करीब एक पागलखाने में परिवर्तित हो
गई है, जहां लोग बोल रहे हैं और सुनता कोई भी नहीं। यह जो
स्थिति है इसमें तो कभी हम किसी सत्य के अभिप्राय और अर्थ के करीब नहीं पहुंच
सकते।
तो पहली तो बात यह है: सुनने की कला। उसको थोड़ा तीन दिनों में प्रयोग
करें। उसके ही साथ संबंधित दूसरी बात है, जो सुनने के लिए
तैयार हो जाए...और चौबीस घंटे मौके हैं, सुबह जब आप सोकर
उठेंगे तब से, रात जब आप सो जाएंगे तब तक। अगर बार-बार उसका
ध्यान रखा तो तीन दिन में ही आपको पता चलेगा कि सुनने से क्या हो सकता है! क्या
रहस्य खुल सकते हैं जीवन के! तो उस तरफ थोड़ा ध्यान देंगे, पहली
बात। दूसरी बात, जो व्यक्ति दिन भर व्यर्थ की बातें बोलता है
वह कभी सार्थक बातें समझने में समर्थ नहीं हो सकता है। और हम दिन भर व्यर्थ की
बातें बोलते हैं। अगर चौबीस घंटे जो हम बोलते हैं उस पर थोड़ा सा विचार करें तो पता
चलेगा, उसमें से अट्ठानबे प्रतिशत अगर हमने काट दिया होता तो
कोई हर्जा नहीं होता।
बोलने के संबंध में टेलीग्रैफिक होना चाहिए। बोलने के संबंध में वैसा
ही ध्यान रखना चाहिए, जैसा हम तार करते वक्त ध्यान रखते हैं: एक-एक शब्द
काट देते हैं, क्योंकि एक-एक शब्द का पैसा चुकाना पड़ता है।
लेकिन बोलने में हमें कोई ध्यान नहीं है, हम समझते हैं कि
बोलने में थोड़े ही कुछ चुकाना पड़ रहा है, कुछ भी बोले चले
जाएं।
लेकिन आपको पता नहीं है: पैसे का कोई मूल्य नहीं है, बोलने में हम जीवन खो रहे हैं। एक-एक शब्द हमारे जीवन की शक्ति को और
ऊर्जा को ले जा रहा है। और एक-एक गलत और निद्रा में निकला हुआ शब्द, व्यापक संसार में जाकर कितने उपद्रव खड़ा करेगा, इसका
हमें कुछ भी पता नहीं। तो एक-एक शब्द के संबंध में सचेत होना जरूरी है: क्या बोल
रहे हैं?
लाओत्से हुआ चीन में; उसकी एक घटना मन में स्मरण
रखेंगे। लाओत्से का एक मित्र रोज-रोज सुबह-सुबह लाओत्से के साथ घूमने जाता था। यह
क्रम वर्षों से चलता था। कोई दो घंटे तक वे मीलों पहाड़ियों में चक्कर लगाते थे। जो
कुल जमा बात होती थी वह इतनी होती थी, लाओत्से का मित्र कहता,
नमस्कार! और लाओत्से कहता, नमस्कार! बस इतनी
ही बात होती थी। यह वर्षों से चलता था।
एक दिन उसके मित्र का भी मित्र मेहमान हुआ मित्र के घर में, तो वह अपने मेहमान को भी लाओत्से के साथ घूमने को ले आया। जब वे तीनों लौट
आए घूम कर तो लाओत्से ने अपने मित्र के कान में कहा कि भाई, अपने
मित्र को कल से मत लाना, यह बहुत बातूनी मालूम पड़ता है। और
बातूनी होने का क्या मामला था? मामला कुल इतना था कि रास्ते
में मित्र के मित्र ने इतना कहा था, आज मौसम बहुत अच्छा है।
बस इतनी ही बात कही थी।
लाओत्से के मित्र ने पूछा, इतनी सी बात के लिए
आप कहते हैं बातूनी?
लाओत्से ने कहा, बिलकुल फिजूल बात थी, क्योंकि मौसम हमको भी दिखाई पड़ रहा था, तुमको भी और
उसको भी। एकदम एब्सर्ड थी बात, एकदम बेमानी थी, मीनिंगलेस थी, उसमें कोई अर्थ ही नहीं था। क्योंकि
मैं भी वहां जिंदा था, तुम भी वहां जिंदा थे, वह भी वहां जिंदा था। हम तीनों देख रहे थे। इसको कहने की कहां जरूरत थी?
अगर ऐसी बात भी अर्थहीन है, तो हमारी और सारी
बातों का क्या होगा जो हम चौबीस घंटे किए जा रहे हैं? इन तीन
दिनों में थोड़ा खयाल रखें, अर्थहीन न बोलें। अगर सार्थक को
समझना हो तो अर्थहीन न बोलें, क्योंकि जो अर्थहीन बोलता है
वह सार्थक को नहीं समझ सकेगा। अगर सार्थक को समझने की बुद्धि उसमें आ जाए तो
अर्थहीन नहीं बोल सकेगा। ये दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकती हैं। तो तीन दिनों
में थोड़ा इसका ध्यान रखें कि हम अर्थहीन न बोलें, व्यर्थ न
बोलें।
कितना हम व्यर्थ बोल रहे हैं! कितना हम व्यर्थ बोल रहे हैं, चौबीस घंटे बोल रहे हैं! जो बोलने की कमी जागने में रह जाती है, रात नींद में भी बोल कर हम उसे पूरा करते हैं। रात भर भी बोल रहे हैं,
दिन भर भी बोल रहे हैं। क्या बोल रहे हैं? क्या
कह देना चाहते हैं दुनिया से? इस पर थोड़ा विचार करें,
इसे थोड़ा छांटें, इसे बोधपूर्वक जाने दें।
जबरदस्ती मौन से बैठ जाने का कोई अर्थ नहीं है। क्योंकि एक आदमी जबरदस्ती मौन से
बैठ जाए तो वह भीतर-भीतर बोलता रहेगा, सुलगता रहेगा, भीतर-भीतर उबलता रहेगा। उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए मैं मौन के लिए
नहीं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं, बोलने की व्यर्थता को
समझें। और अगर बोलना व्यर्थ होता जाएगा, तो जितना बोलना
व्यर्थ हो जाएगा उतना गिर जाएगा। और तब एक वास्तविक मौन भीतर विकसित होगा। वह मौन
जबरदस्ती नहीं लिया जा सकता कि हम सोमवार मौन रखते हैं, रविवार
मौन रखते हैं। ऐसा मौन रखने से कहीं मौन आया दुनिया में? क्योंकि
जो आदमी रविवार को समझदार है वह सोमवार को फिर नासमझ हो जाएगा क्या? यह मौन होगा थोपा हुआ जबरदस्ती।
मौन का अर्थ नहीं है; बोलने की व्यर्थता दिखाई पड़नी
चाहिए। तो जितना बोलना व्यर्थ है वह खो जाएगा; सार्थक बोलना
शेष रह जाएगा। सार्थक बोलना अत्यंत अल्प है। और बाकी, बाकी
जो अंतराल होंगे वे मौन के हो जाएंगे। और बड़े रहस्य की बात है कि मौन से जो बोलना
निकलता है, वह बात ही कुछ और है, शब्द
का मूल्य ही कुछ और है। और निरंतर बातचीत, निरंतर बातचीत से
जो बोलना निकलता है उसका कोई भी मूल्य नहीं है। वह हमारी विक्षिप्तता का हिस्सा है,
वह हमारी मैडनेस का हिस्सा है।
आप अगर यह सोचते हों कि आप इसलिए बात कर रहे हैं कि मित्र मौजूद है, इसलिए बात कर रहे हैं, तो आप गलती में हैं। आप सोचते
हों कि इसलिए बात करनी जरूरी है कि यह तो मामला बहुत आवश्यक है इसलिए मैं बात कर
रहा हूं, तो भी आप गलती में हैं। आपको पता नहीं है, ये बहाने हैं बात करने के। अगर आपको एक कमरे में बिलकुल अकेला बंद कर दिया
जाए, तो दो-चार दिन के बाद आप अकेले में ही बातचीत शुरू कर
देंगे। इस पर तो प्रयोग हुए हैं। ये तो हमारे बहाने हैं कि यह जरूरी बात थी इसलिए
हम कर रहे हैं। जरूरी बात तो खूंटी की तरह काम कर रही है, जिस
पर हम कोट टांग देते हैं अपना खूंटी पर। हमारे भीतर उबल चल रही है, हमारे भीतर उपद्रव चल रहा है, हमारे भीतर एक
विक्षिप्त दौड़ चल रही है, उसको हमें टांगना है कहीं भी। तो
कोई भी बहाना ले लेते हैं खूंटी की तरह, उस पर टांग देते
हैं।
तो इसके प्रति जागना जरूरी है कि हमारे भीतर यह क्या चल रहा है? व्यर्थ बोलने के प्रति अगर तीन दिनों में थोड़ी सजगता आई, तो सार्थक सुनने का सामर्थ्य भी पैदा होगा। तो इन तीन दिनों में यहां
व्यर्थ न बोलें।
अभी यहां कहा गया कि यहां सफाई का बड़ा ध्यान है, तो कोई चीज न फेंकें, कुछ गंदगी न फैलाएं।
कोई फिक्र नहीं, थोड़ी-बहुत गंदगी आप फैला भी दें
तो वह शारदा ग्राम के संयोजक बाद में साफ कर लेंगे। लेकिन दूसरे के दिमाग में
गंदगी न फैलाएं, क्योंकि उसको कोई संयोजक कभी साफ नहीं कर
सकेगा। और हम जब भी गलत बोल रहे हैं तो हम दूसरे के दिमाग में गंदगी फेंक रहे हैं।
जिससे हम परेशान हैं, वह कचरा हम दूसरे के ऊपर फेंक रहे हैं।
और इस तरह हम सब एक-दूसरे के सहयोगी हो गए हैं। तो दुनिया अगर पागल नहीं हो जाएगी
तो क्या होगा? हम एक-दूसरे के दिमाग...
अगर मैं आपके घर में आकर कचरा फेंकूं तो झगड़ा खड़ा हो जाए। अगर आप मेरे
घर में कचरा फेंकें तो मैं पुलिस में खबर करूं। लेकिन सुबह से ही मैं आपसे आकर
कहता हूं, कहिए, खबर पता चली? और आप पूछते हैं, कौन सी? और
मैं कचरा फेंकना शुरू कर देता हूं। और न आप खबर करते हैं पुलिस में, न कोई फिक्र करता है इस बात की कि मैं आपके दिमाग में कचरा डाल रहा हूं।
हम सब एक-दूसरे के दिमाग में कचरा फेंक रहे हैं। और जब भी हम व्यर्थ
बोलते हैं तो स्वभावतः कचरा फिंकता है।
तो जब आपको लगे कि कोई बात अत्यंत आवश्यक है, मेरी कहने की मजबूरी के कारण नहीं कि मेरे भीतर उबल रही है इसलिए मुझे कह
देना है, बल्कि आपको लगे कि जीवन ने उसे चाहा है, उसकी जरूरत पड़ी है, तब तो ठीक। अन्यथा उसे अपने तक
ही रोकें, तो भी बड़ी कृपा है। वह बीमारी संक्रामक न हो और सब
तक न जाए।
बातचीत की बीमारी बढ़ती चली गई है दुनिया में, मौन एकदम खो गया है, एकदम खो गया हैं। तो हमको अगर
एकांत में भी बिठाल दिया जाए तो हमारे भीतर बातचीत चलती है। हम किसी से बातचीत
करते हैं कल्पना में। डायलाग चलता है, कोई मौजूद होता है
कल्पना में, उसी से बात करते हैं।
तो यहां हम ध्यान करने को बैठेंगे और अगर आपकी ऐसी आदत रही तो ध्यान
तो क्या, आप आंख बंद करके बैठ जाएंगे, और
किसी काल्पनिक मित्र से, शत्रु से बातचीत जारी रखेंगे। उसका
कोई उपयोग, अर्थ नहीं होगा। ऊपर से दिखाई पड़ेंगे कि हम आंख
बंद किए बैठे हैं, भीतर काम जारी रहेगा।
तो दूसरा निवेदन यह है कि यह बातचीत करने की जो बीमारी है, इसके प्रति थोड़ा सचेत होना जरूरी है। इन तीन दिनों में थोड़ा प्रयोग करें।
और जिस चीज के प्रति सचेत हो जाएंगे, कठिनाई नहीं है बहुत।
हम सचेत नहीं हैं, यही कठिनाई है, और
कोई कठिनाई नहीं है। तो जरा देखें कि व्यर्थ की बातचीत आपसे न हो। अगर कोई दूसरा
आपके भीतर कचरा डालता हो तो उसको भी थोड़ा सावधान करें कि कृपा करो। इन तीन दिनों
में कम से कम मन की एक स्वच्छता पर ध्यान हो।
सड़कें स्वच्छ होनी चाहिए, मकान स्वच्छ होने
चाहिए, जरूर। वे अस्वच्छ क्यों हैं? वे
इसीलिए अस्वच्छ हैं कि भीतर मन गंदगी से भरा हुआ है। वह गंदगी सड़कों पर भी फैल
जाती है, मकानों में भी फैल जाती है। तो हम अगर किसी तरह
कोशिश करके मकान और सड़कें साफ भी कर लें, आदत भी बना लें,
तो भी बहुत फर्क नहीं पड़ता, हमारी आत्मा वैसी
की वैसी रह जाती है। वहां फर्क होने चाहिए।
तो एक तो मैंने आपसे कहा सुनने के संबंध में, लिसनिंग के बाबत तीन दिन प्रयोग करें। और दूसरा बोलने के संबंध में। शब्द
क्षीण हो जाए, व्यर्थ हो जाए, और मौन
गहरा हो जाए तो सुनना संभव हो जाएगा। ये तो दो सूत्र।
तीसरा सूत्र: शांति से सुनना जरूरी है, सार्थक बोलना जरूरी
है, और स्वीकारपूर्वक जीना जरूरी है। हम अस्वीकार से जीते
हैं, रेसिस्टेंस से जीते हैं। हर चीज में रेसिस्टेंस है
हमारा।
किसी मित्र ने कहा कि आठ-दस लोग एक कमरे में ठहरेंगे तो बहुत मुश्किल
है। पता होता तो हम आते ही नहीं यहां।
अब अगर यह खयाल मन में आ गया कि आठ-दस लोग जिस कमरे में ठहरे हों
उसमें मैं कैसे रह सकता हूं? तो जरूर वे आठ-दस लोग बाधा बन
जाएंगे, जरूर बाधा बन जाएंगे। दिमाग ने एक रेसिस्टेंस बना
लिया, एक विरोध बना लिया।
मैं एक छोटे से रेस्ट-हाउस में पीछे मेहमान था। छोटा सा गांव था और
गांव भर के कुत्ते उस रेस्ट-हाउस के आसपास रात को इकट्ठे हो गए। मेरे एक मित्र भी
साथ थे, वे करवटें बदलने लगे और उन्होंने कहा कि नींद आनी
बहुत मुश्किल है। सोना मुश्किल है। ये कुत्ते तो सब यहां गांव भर के इकट्ठे शोरगुल
कर रहे हैं। दो दफा बाहर जाकर उनको भगा भी आए। लेकिन जिसको भी हम भगाएं वह बहुत
जल्दी वापस लौट आता है। वे कुत्ते, वे मित्र भीतर भी नहीं आ
पाए और वापस आ गए। शायद उन्होंने सोचा होगा कि जरूर यहां कोई महत्वपूर्ण बात है,
यहां से भागना ठीक नहीं। तो जहां से भी हम चीजों को हटाते हैं,
वहीं वापस लौट आती हैं। कुत्ते भी आदमी से कोई कम समझ तो हैं नहीं,
वे भी वापस लौट आए। वे मित्र परेशान हो गए और उन्होंने कहा, यह तो नींद हराम कर दी।
मैंने उनसे कहा, इन कुत्तों को पता भी नहीं है कि
आप यहां ठहरे हुए हैं। और आपसे इनका क्या संबंध? और ये क्यों
आपकी नींद हराम करना चाहेंगे? इनको कोई पता भी नहीं है आपका।
आप चले जाएंगे तब भी ये यहां इकट्ठे होते रहेंगे और चिल्लाते रहेंगे। आपसे इनका
कोई संबंध नहीं है। हां, आपका इनसे कोई संबंध जरूर बन
गया--रेसिस्टेंस का, विरोध का। कुत्तों को कोई भी पता नहीं
है कि आप यहां हैं। उनकी तरफ से कोई नाता नहीं है आपसे, कोई
रिलेशनशिप नहीं है। लेकिन आपकी तरफ से नाता खड़ा हो गया है। और वह नाता यह खड़ा हो
गया है, इस विचार ने सारी दिक्कत खड़ी कर दी है कि ये कुत्ते
भौंक रहे हैं तब तक मैं कैसे सो सकता हूं? मैंने उनसे कहा कि
इस विचार की जगह कोई और विचार भी हो सकता है।
उन्होंने पूछा, क्या?
मैंने कहा कि लेट जाएं और कुत्ते भौंक रहे हैं, इसे शांति से सुनें। इससे विरोध न करें। कुत्ते भौंक रहे हैं, ठीक है। हमारा क्या बस है! आकाश में तारे निकले हुए हैं, जमीन पर पौधे निकले हुए हैं, पक्षी उड़ते हैं,
कुत्ते भौंकते हैं, यह हो रहा है। यह जो
विस्तीर्ण जगत है उसका हिस्सा है। इसे शांति से सुनें, इसके
प्रति विरोध छोड़ दें। और मैंने उनसे कहा कि आप हैरान होंगे कि कुत्तों का भौंकना
नींद का तोड़ना तो बनेगा ही नहीं, बल्कि संगीत बन जाएगा और
नींद ले आएगा।
वे कोई पंद्रह मिनट लेटे रहे आंख बंद किए। फिर उनकी नींद लग गई होगी।
सुबह वे उठे और मुझसे बोले, यह तो बड़ी अजीब बात हुई! मैंने जैसे ही विरोध छोड़
दिया और सुनने लगा उनकी आवाज को, निश्चित ही मैं कौन हूं जो
विरोध करूं? जमीन पर मैं भी हूं, कुत्ते
भी हैं। कुत्तों का होना भी उतना ही सार्थक है जितना मेरा होना। ठीक है, उनकी आवाज मैं सुनने लगा। और जैसे ही मैं उनकी आवाज सुनने लगा और मेरे
भीतर विरोध टूट गया, मैंने पाया कि उनकी आवाज आती है और चली
जाती है, पर मेरे भीतर उससे कोई तनाव, कोई
विक्षोभ, कुछ भी पैदा नहीं हो रहा है। थोड़ी देर में उनकी
आवाज एक अदभुत रूप से संगीत का रूप ले लिया और मैं सो गया।
जीवन में जिन चीजों के प्रति हम विरोध पालते हैं उनसे विसंगीत पैदा
होता है। और जो पूरे जीवन के प्रति विरोध से भर जाता है, उसका जीवन पूरा का पूरा दुख, पीड़ा और अशांति हो जाती
है, नरक हो जाता है। नरक का अर्थ ही है, सब चीजों के प्रति विरोध का भाव। स्वर्ग का अर्थ है, सब चीजों के प्रति स्वीकार का भाव।
तो इन तीन दिनों में एक सहज स्वीकृति का जीवन आप जीएंगे।
संयोजकों ने अभी कहा कि थोड़ी-बहुत तकलीफें शायद हो जाएं। मैं उनसे
प्रार्थना करूंगा, थोड़ी-बहुत तकलीफें वे जान कर दें। शायद हो जाएं तो
उतना मजा नहीं, वे थोड़ी कोशिश करें और तकलीफें दें। और उसका
स्वीकार का भाव! चीजें जैसी हैं अगर उनका स्वीकार का भाव ले लें, तो आप पाएंगे कि उनका कष्ट विलीन हो गया।
एक रात एक साध्वी एक गांव में ठहरना चाहती थी। लेकिन उस गांव के लोग
दूसरे धर्म के मानने वाले थे और उन्होंने उस साध्वी के लिए दरवाजे बंद कर दिए। और
उन्होंने कहा कि यहां नहीं, तुम आगे गांव जाओ। रात घिरने को हो गई थी। औरत थी
अकेली, जंगल का रास्ता था, कैसे जाए?
लेकिन धार्मिक लोग तो बड़े कठोर होते हैं। उन लोगों ने दरवाजे न खोले
सो न खोले। तो निश्चित ही बात है, अब तक जमीन पर अगर धार्मिक
लोग कठोर न होते तो कितनी बेहतर दुनिया न बन गई होती! हिंदू कहां से पैदा होता?
मुसलमान कहां से पैदा होता? हमारी कठोरता से
पैदा हुआ है। मस्जिद मंदिर के खिलाफ खड़ी कैसे होती? हमारी
कठोरता से खड़ी हुई है। वे भी कठोर लोग थे, वे भी धार्मिक लोग
थे, उन्होंने कहा कि इस धर्म को हम मानते नहीं। तुम साध्वी
किसी और धर्म की। अब जाओ वहीं, यहां रुकने का कोई स्थान
नहीं।
उस साध्वी को उस गांव के बाहर चला जाना पड़ा। एक दरख्त के नीचे रात उसे
गुजारनी पड़ी। आधी रात गए दरख्त के फूल चटक-चटक कर खिलने लगे तो उसकी नींद खुल गई।
उसने आंखें उठा कर ऊपर देखा तो पूर्णिमा का चांद था ऊपर, और दरख्त पर फूल थे जो चटक-चटक कर आवाज करके खिल रहे थे, छोटी-छोटी बदलियां थीं आकाश में घूमती। वह उठी, उसने
इतना बड़ा सौंदर्य अपने जीवन में कभी न जाना था। उसने ऐसे बात करते हुए फूल आकाश से
कभी न देखे थे। उसने ऐसा चांद भी कभी न देखा था। ऐसी बदलियां भी कभी न देखी थीं।
असल में, खुली रात और अकेले जंगल में वह सोई ही नहीं थी,
हमेशा आदमी की बंद दीवालों में रही थी। पहला मौका था कि आदमी ने
कठोरता से और भूल से उसे दीवाल के बाहर कर दिया था।
वह नाचने लगी। और आधी रात उस गांव में वापस पहुंच गई। और जिन-जिन
दरवाजों ने उसे इनकार कर दिया था, उन-उन दरवाजों को उसने जोर-जोर
से पीटा। लोग नींद से उठे और बाहर आए। और उस साध्वी ने कहा कि धन्यवाद, अगर कहीं तुमने मुझे ठहरा लिया होता तो आज मैं एक अलौकिक आनंद से वंचित रह
जाती। तो मेरे मित्रो, धन्यवाद! तुम्हारी कृपा थी कि तुमने
मुझे नहीं ठहराया। और मैंने जो आज जाना और देखा, वह मैंने
कभी जाना और देखा नहीं था।
वे गांव के लोग तो हैरान हो गए, उनकी तो कल्पना के
बाहर था यह।
यह है स्वीकार का भाव। अगर सांझ वह साध्वी क्रोध से भर कर उस झाड़ के
नीचे सोई होती तो क्या होता? पहली बात--उस रात चांद न निकलता,
उस रात फूल न खिलते, उस रात बदलियां न निकलतीं;
निकलतीं ही नहीं, उस रात चांद नहीं निकलता,
उस रात फूल भी नहीं खिलते। ऐसा नहीं कि फूल नहीं खिलते और चांद नहीं
निकलता। चांद तो निकलता, फूल भी खिलते। लेकिन क्रोध में जो
हो उसने कभी फूल खिलते देखे हैं? उसने कभी चांद निकलते देखा
है? उसने कभी आकाश में बादल तैरते देखे हैं?
नहीं देखे। क्योंकि देखने के लिए तो अविरोधी चित्त चाहिए, नॉन-रेसिस्टेंट माइंड चाहिए। वही जीवन में जो सत्य है और सौंदर्य है उसको
देख पाता है।
तो इन तीन दिनों में नॉन-रेसिस्टेंस का, अप्रतिरोध का,
विरोध के अभाव का अगर हम तीन दिन प्रयोग करेंगे तो शायद इस शिविर के
कोई परिणाम हो सकें। नहीं तो कोई परिणाम नहीं होते। तो इन तीन दिनों में इन तीन
सूत्रों के लिए निवेदन है।
पहली बात, सुनने की कला के बाबत थोड़े से जागरूक हों। दूसरी बात,
बोलने के संबंध में जो व्यर्थ है उसके प्रति सचेत हों। और तीसरी बात,
हमारे भीतर चौबीस घंटे जो विरोध चलता है सबका, सब स्थिति का, उसके प्रति थोड़े ढीले और शिथिल हों,
उसको जाने दें। आज ही रात ऐसे सोएं जैसे संसार से, किसी चीज से आपका कोई विरोध नहीं। सब आपको स्वीकार है। जैसा है, जो है, सब उसकी समग्रता में आपको स्वीकार है। इस
स्वीकृति को ही मैं आस्तिकता कहता हूं। इस समग्र स्वीकृति को आस्तिकता कहता हूं।
तो आज रात ऐसे ही सोएं जैसे सब स्वीकार है। और देखें कि नींद कुछ और
हो जाएगी। सुबह आप दूसरे आदमी की तरह जागेंगे। और अगर सब स्वीकार है तब आप देख
पाएंगे...अभी आप कहते तो हैं कि बहुत अच्छी जगह है। यहां दरख्त हैं, छाया है, फूल हैं, पौधे हैं,
सफाई है, बहुत सुंदर है, ऐसा कहते हैं, लेकिन अभी ऐसा दिखाई नहीं पड़ा होगा।
ऐसा दिखाई पड़ना एकदम आसान नहीं है। और ऐसा अगर दिखाई पड़ जाए तो आप खुद ही एक सुंदर
आदमी हो उठेंगे। लेकिन बस हम यह कहते हैं, ये हमारे सीखे हुए
शब्द हैं। ये हमने किताबों में पढ़े हैं। ये हमने कविताओं में पढ़े हैं कि जहां बहुत
दरख्त होते हैं वहां बड़ी सुंदर जगह होती है। यह हमने जाना नहीं है, यह हमने देखा नहीं है। क्योंकि इसे देखने के लिए जो बात जरूरी है वह हमारे
भीतर नहीं है। वह है नॉन-रेसिस्टेंट माइंड। वह एक ऐसा मन, एक
ऐसा चित्त है जिसमें विरोध न हो।
तो आज रात ऐसे सोएं जैसे आपका इस संसार से कोई विरोध नहीं है। किसी तल
पर आपका कोई विरोध नहीं है। तो सुबह आप बिलकुल दूसरी बात अनुभव करेंगे। कल सुबह से
ही उठ कर बाकी दो सूत्रों का भी ध्यान रखें। ये तीन सूत्र अगर थोड़े आपने ध्यान रखे, तो कुछ हृदय की बातें जो मुझे आपसे कहनी हैं, वे
शायद पहुंच जाएं। और अगर वे पहुंच जाएं तो आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा उन बातों के
लिए, अगर वे पहुंच जाएं तो वे खुद अपने आप कुछ करना शुरू कर
देती हैं।
सत्य के साथ यह एक अदभुत बात है कि सत्य अगर खयाल में आ जाए तो फिर
हमें कुछ करना नहीं पड़ता, सत्य खुद हमारे भीतर कुछ करना शुरू कर देता है। और जब
सत्य हमारे भीतर कुछ करना शुरू कर देता है तब जिंदगी में, जिंदगी
में कुछ भराव आना शुरू होता है; कुछ फुलफिलमेंट मालूम होता
है; लगता है कि कहीं पहुंचे, लगता है
कि कुछ पाया, लगता है कि हाथ भरे हुए हैं।
तो परमात्मा से प्रार्थना करता हूं इस उदघाटन चर्चा में कि आपकी मौत
आपके हाथ खाली न देखे। और यह तभी हो सकता है जब आपकी जिंदगी आपके हाथों को भरा देख
ले। और यह किसी और पर नहीं, बिलकुल आप पर और एकदम आप पर निर्भर है कि आपके हाथ
भरे हो जाएं। हाथ तो भरे हुए हैं, लेकिन देखने की दृष्टि उन
हाथों की हमारे पास नहीं है।
इन तीन दिनों में उस तरफ थोड़ा सा हम काम करेंगे। दूर-दूर से आप इकट्ठे
हुए हैं। मैं भी आपका स्वागत करता हूं--एक बड़े जीवन के लिए, एक बड़े जीवन के द्वार के लिए, आपके लिए आमंत्रित भी
करता हूं। परमात्मा करे वह मिले जीवन में जिसे पाए बिना जीवन व्यर्थ है और जिसे
पाकर जीवन एक धन्यता बन जाता है, एक कृतार्थता बन जाता है।
तो इधर तीन दिन बहुत कुछ बात आपसे करनी हैं, लेकिन बात कम, कुछ और करना है, जो बात के बाहर है और पार है। उसको ही मैं ध्यान कहता हूं। लेकिन ध्यान से
मेरे वे अर्थ नहीं हैं जो प्रचलित हैं। किस बात को ध्यान कहता हूं वह तो हम सुबह
से शुरू करेंगे। अभी रात समग्र स्वीकार के भाव से जाकर सो जाएं। और यहां से जाते
वक्त ही प्रयोग शुरू करें कि बातचीत शुरू न कर दें। सोते वक्त भी बिना बातचीत के सो
जाएं। देखें आपकी बिना बातचीत के दुनिया का कोई हर्जा नहीं हो जाएगा, कोई नुकसान नहीं हो जाएगा। परमात्मा करे जिस आकांक्षा को लेकर आप आए हैं
वह पूरी हो सके।
मेरी बातों को इतनी शांति और धैर्य से सुना है, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम
करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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