सूत्र:
अत्थं हित्वा
पियग्गाही पिहेतत्तानुयोगिनं।।183।।
मा पियेहि समागज्छि
अप्पियेहि कुदाचनं।
पियानं अदस्सनं
दुक्खं अप्पियाजज्च दस्सनं।।184।।
तस्मा पियं न
कयाराथ पियापायो हि पापको।
गंथा तेसं न विज्जन्ति
येसंनत्थि पियाप्पियं।।185।।
पियतो जायते सोको
पियतो जायते भयं।
पियतो विप्पमुत्तस्स
नत्थि पियाप्पियं।।186।।
तण्हाय जायते सोको
तण्हाय जायते भयं।
तण्हाय विप्पमुत्तस्स
नत्थि सोको कुत्तो भयं।।187।।
छंदजातो अनक्खातो
मनसा च फुटो सिया।
कामेसु च अप्पटिवद्धचित्तो
उद्धसोतो ति बुच्चति।।188।।
शाम है दर्द है हम हैं
और तनहाई
जिंदगी
टूटा हुआ कम है और तनहाई
कहने को
लोग हैं खुशिया हैं तमन्नाएं हैं
न कोई
दोस्त न हमदम है और तनहाई
कोई आता
है आ रहा है आएगा शायद
खूबसूरत
ये हमें भ्रम है और तनहाई
उनके
मिलते ही बिछुड़ने की कोई बात करो
रात है
घिरता हुआ तम है और तनहाई
क्या
करें किसको पुकारें और कहां जाएं हम
आंख हर
एक यहां नम है और तनहाई
आदमी
अकेला है। और इस अकेलेपन के कारण दो यात्राओं पर आदमी जा सकता है। एक यात्रा है
समाज की और एक यात्रा है संन्यास की। दोनों पैदा होते हैं अकेलेपन से, तनहाई से। अकेला आदमी या तो अपने को भुलाने के लिए
दूसरों का साथ खोजे, भीड़ खोजे, संबंध
खोजे, संग खोजे नाता—रिश्ता खोजे—पत्नी में, पति में, बच्चों में, मित्रों
में, परिवार में अपने को डुबा ले, भूल
जाए कि मैं अकेला हूं र तो समाज की यात्रा शुरू हुई।
लेकिन
ऐसे कोई कभी भूल नहीं पाता। बार—बार तनहाई उभर—उभरकर निकलतो रहती है। जगह—जगह से
छेद हो जाते हैं और जगह—जगह से दिखायी पड़ता है वह सत्य, जिसे हमने झुठलाने की कोशिश की है। लाख पत्नी हो,
पति हो, मित्र हों, प्रियजन
हों, फिर भी तुम होते तो अकेले ही हो। अकेलेपन को इतने जल्दी
मिटा देने का कोई उपाय नहीं। इतने सस्ते में अकेलापन जाता होता तो आदमी सुखी हो
गया होता। नहीं जाता है। अक्सर तो ऐसा होता है कि भीड़ तुम्हें और भी अकेला कर जाती
है। भीड़ और अकेलेपन को उभार—उभारकर बताने लगती है। जितना तुम भुलाने की चेष्टा
करते हो, उतनी और याद आती है।
तो एक तो
समाज, संग—साथ, इनके द्वारा आदमी अपने को भुलाने की कोशिश करता है। और दूसरा, संन्यास। संन्यास का अर्थ है, अकेलेपन को किसी के
संग—साथ में भुलाना नहीं है, बल्कि अकेलेपन को जानना है कि
क्या है। अकेलेपन में उतरना है, सीढ़िया लगानी हैं। पहचानना
है अपने को कि मैं कौन ' जो अकेला है। और पहचानना है कि यह
क्या है जो अकेलापन है।
जो आदमी
इस अकेलेपन को पहचानने चलता है, एक
दिन पाता है, यह अकेलापन कैवल्य है। यह अकेला होना हमारा
स्वभाव है। और इस अकेले होने में कोई पीड़ा नहीं है, कोई दुख
नहीं है। यह अकेला होना आनंद है। यह अकेला होना हमारी स्वतंत्रता है, मुक्ति है, मोक्ष है।
तो समाज
और संन्यास, दोनों पैदा होते हैं एक
ही तथ्य से। और वह तथ्य है—तनहाई, अकेलापन, एकाकीपन। अगर भुलाने की कोशिश की तो भीड़ में खो जाओगे। और अपने से दूर और
दूर निकलते जाओगे। और जितने दूर निकलोगे उतनी पीड़ा बढ़ जाएगी, क्योंकि अपने से दूर जाना ही पीड़ा है। अगर संन्यास में उतरे, अपने स्वात को ध्यान बनाया; स्वात स्वात है, अकेलापन नहीं; एकांत का सौदर्य है, एकांत में कोई पीड़ा नहीं, ऐसी तुमने व्याख्या बदली
और तुम धीरे—धीरे अपने रस में डूबे, अपने होने में डूबे,
तुमने अपने में मजा लिया...।
दूसरे
में मजा लेना समाज। मिलता कभी नहीं, लगता है मिलेगा, मिलेगा—
कोई आता
है आ रहा है आएगा शायद
खूबसूरत
ये हमें भ्रम है और तनहाई
कोई कभी
आता नहीं। द्वार खोले तुम बैठे रहते हो, कोई कभी आता नहीं। आएगा शायद, इस आशा में आखें थक
जाती हैं, फूटी हो जाती हैं। इस आशा में जीवन चुक जाता है,
मौत आ जाती है और कोई नहीं आता। और इस आशा में वह परम अवसर चूक जाता
है जिसमें तुम अपने भीतर जा सकते थे।
खयाल करो, अगर तुम्हें अपने साथ आनंद नहीं मिल रहा है तो
किसकेसाथ आनंद मिल सकेगा! अगर अपने साथ भी तुम मौज में नहीं हो सकते तो किसके साथ
मौज में हो सकोगे! और दूसरा जो तुमसे संबंध बनाने आएगा, वह
भी इसीलिए संबंध बनाने आया है, कि वह भी अकेलेपन से घबड़ा रहा
है। वह भी अकेले में भानदित नहीं है, तुम भी अकेले में
आनंदित नहीं हो। दो दुखी आदमी अपने—अपने से घबड़ाकर एक—दूसरे में डूबने की कोशिश कर
रहे हैं, दुख दुगुना हो जाएगा। गगना नहीं अनेक गुना हो
जाएगा—गुणनफल हो जाएगा। दो दुखी आदमी जुड़कर कैसे सुख पैदा कर सकते हैं! दो दुख
मिलकर सुख बनते हैं, ऐसा तुमने कहा पढ़ा? किस गणित में पढ़ा? तुमने गणित ही गलत पढ़ लिया है।
मगर यह हमारे जीवन, गणित है, ऐसे ही हम
सोचते हैं।
तुम अकेले
हो तो सोचते हो, विवाह कर लो। फिर भी दुख।
तो सोचते हो, एक बेटा पैदा हो जाए। फिर भी दुख। तो सोचते हो,
एक बहू बेटे को मिल जाए। फर भी दुख। सोचते हो, अब बेटे को बेटा पैदा हो जाए। ऐसे चलता है। दुख घटता नहीं, बढ़ता है। क्योंकि ये जितने लोग बढ़ते जा रहे हैं, ये
सब अकेले में दुखी हैं। संन्यास का अर्थ होता है, अगर आनंद
घट सकता है तो अपने में घट सकता है, और कहीं भी नहीं घटेगा।
ये आज के सूत्र इस संबंध में हैं।
पहला सूत्र, सूत्र
के पूर्व वह कथा, जहां बुद्ध ने यह सूत्र कहा—
एक युवक बुद्ध से
दीक्षा लेकर संन्यस्त होना चाहता था युवक था अभी बहुत हच्ची उम्र का था? जीवन अभी जाना नहीं था। लेकिन घर से ऊब गया था मां—
बाप से ऊब गया था—इकलौता बेटा था मां—बाप की मौजूदगी धीरे— धीरे उबाने वाली हो गयी
थी। और मां— बाप का बड़ा मोह था युवक पर ऐसा मोह था कि उसे छोड़ते ही नहीं थे एक ही
कमरे में सोते थे तीनों। एक ही साथ खाना खाते थे। एक ही साथ कहीं जाते तो जाते थे।
थक गया होगा घबड़ा गया होगा। संन्यास में उसे कुछ रस नहीं था लेकिन ये
मां— बाप से किसी तरह पिंड छूट जाए और कोई उपाय नहीं दिखता था तो वह बुद्ध के संघ
में दीक्षित होने की उसने आकांक्षा प्रगट की मां—बाप तो रोने लगे चिल्लाने— चीखने
लगे। यह तो बात ही उन्होंने कहा मत उठाना उनका मोह उससे भारी था।
लेकिन जितना उनका मोह उतना ही वह भागा— भागा रहने लगा। जितने जोर से
तुम किसी को पकड़ोने उतना ही वह तुमसे भागने लगेगा। आखिर एक रात वह चुपचाप घर से
भाग गया। दूर कहीं जहां बुद्ध विहार करते थेर उसने जाकर दीक्षा भी ले ली भिक्षु हो
गया बाप ने बड़ी खोजबीन की सब जगह खोजा फिर उसे याद आया कि वह भिक्षु होने की कभी—
कभी बात करता था कि संन्यस्त हो जाऊंगा तो वह बुद्ध की तलाश में गया। मिल गया बेटा
वहां! बाप ने तो बहुत रोना— धोना किया छाती पीटी कपड़े फाड़ डाले लोटा जमीन पर।
लेकिन बेटा, जितना बाप रोया—चिल्लाया,
उतना ही मजबूती से जिद्द बांध लिया कि मैं यहां से जाऊंगा नहीं।
आखिर कोई और उपाय न देखकर बाप भी भिक्षु हो गया। बेटे को छोड़ तो सकता
नहीं था तो उसने भी संन्यास ले लिया। फिर उसकी पत्नी और बेटे की मां, वह कुछ दिन तक तो राह देखी बाप घर लौटा नहीं तो वह
उसकी तलाश में निकली उसे भी खयाल आया कि बेटा कभी— कभी कहता था भिक्षु हो जाऊंगा
कहीं भिक्षु न हो गया हो। वह वहां पहुंची तो वह देखकर चकित रह गयी—बेटा ही भिक्षु
नहीं हो गया है बाप भी भिक्षु हो गया है? वह बहुत रोयी— पीटी
चिल्लायी लोटी बड़ा शोरगुल मचाया बड़ी भीड़ जमा कर ली। बाप तो जाने को राजी था लेकिन
वह बेटा कहे कि मैं जा नहीं सकता। आखिर कोई और उपाय न था तो मां भी दीक्षित हो
गयी। वे तीनों संन्यासी हो गए
अब यह संन्यास बड़ा अजीब हुआ। बेटे को संन्यास में कोई रस न था, घर में विरस था। बाप को तो संन्यास से कुछ लेना——देना
ही नहीं था, वह बेटे का साथ नहीं छोड़ सकता था। और स्वभावत:
पत्नी कहां जाए! तो वह भी संन्यस्त हो गयी थी। वे तीनो साथ ही साथ बने रहते। वे
साथ ही साथ डोलते साथ ही साथ बैठते साथ ही साथ भिक्षा मांगने को जाते साथ ही साथ
बैठकर गपशप मारते। उनका संन्यास और न संन्यास तो सब बराबर था। न ध्यान न धर्म न
साधना न कोई सिद्धि इससे उन्हें कुछ लेना—देना नही था। बुद्ध के वचन भी सुनने न
जाते। बुद्ध को सुनने हजारों मीलों से लोग आते वे वहीं बुद्ध के पास थे और बुद्ध
के वचन
सुनने न जाते—उन्हें
लेना— देना क्या था
भिक्षु और भिक्षुणियां उनसे परेशान होने लगे। यह कुछ अजीब सा ही जमघट
हो गया इन तीन कााउ इन्होने तो एक परिवार बना लिया वहां। आखिर बात बुद्ध तक पहुंची
बुद्ध ने उन्हें बुलाया और उनसे पूछा. देखा बुद्ध ने, सारी बात साफ हो गयी। बेटा सिर्फ भागने के लिए
संन्यास ले लिया घर में स्वतंत्रता न थी
सभी बेटे स्वतंत्रता चाहते हैं। किसी भी भाति स्वतंत्रता चाहिए। तो
संन्यास ले लिया था कि इस भांति मुक्त हो जाएगा।
बाप और मां सिर्फ
बेटे के पास ही बने रहे यह साथ कभी छूटे न इस मोह में संन्यस्त हो गए। बुद्ध ने
उनसे पूछा कि यह क्या कर रहे हो। यह कैसा संन्यास। संन्यास का अर्थ ही होता है
अपने अकेलेपन में रस दूसरे में रस का त्याग।
अब इस
बात को समझना। दूसरे में रस के त्याग का अर्थ होता है, दूसरे में विरसता का भी त्याग। जब तक तुम्हारा दूसरे
में रस है, या विरस; जब तक तुम्हारा
दूसरे में लगाव है, या दुराव; जब तक
दूसरे में मोह है, या दूसरे में क्रोध; तब तक तुम दूसरे से बंधे हो।
इसलिए
तुम्हारे बहुत से संन्यासी जो घरों को छोड़कर भाग गए हैं, वस्तुत: संन्यस्त नहीं हो पाए हैं। घरों से छोड़कर भाग गए होंगे, संन्यास
नहीं घटित हुआ है। उनका विरस हो गया है। घर से वे परेशान हो गए हैं। पत्नी से
परेशान, बच्चों से परेशान, क्रोध में
चले गए हैं, किसी बोध में नहीं।
अगर बोध
में गए हों तो जाने की जरूरत क्या है? क्रोध में ही आदमी भागता है, या भय में भागता है।
बोध में तो भागने की जरूरत नहीं, बोध में तो थिर हो जाता है।
बोध में तो जहां है वहीं ज्योतिर्मय हो जाता है। बोध में तो जहां है वहीं चिन्मय
की वर्षा हो जाती है। बोध में फिर क्या पहाड़ और क्या बाजार, क्या
घर और क्या गिदर, सब बराबर है।
भगोड़ों
में रस तो नहीं है, विरस है। पर विरस भी तो
रस का ही रूप है। जैसे दूध फट गया, ऐसा विरस है—रस फट
गया—लेकिन है दूध का ही रूपांतरण। नेसे कोई चीज रखी—रखी बासी होकर खट्टी हो गयी।
मगर है तो उसी का रूपांतरण।
इसलिए
संन्यास को तुम त्याग मत समझना। संन्यास न तो भोग है और न त्याग। फिर संन्यास क्या
है? संन्यास इस बात का बोध है कि न
तो दूसरे से कुछ मिला है, न मिल सकता है। नाराजगी का भी कोई
कारण नहीं। क्योंकि नाराजगी का तो अर्थ ही यह होता है कि अभी भी यह बात मन में बनी
है कि मिल सकता था और नहीं मिला। नाराजगी का क्या अर्थ होता है? तुम अगर अपनी पत्नी पर नाराज हो तो तुम यह कह रहे हो कि यह गलत पत्नी मिल
गयी है, अगर ठीक पत्नी मिलती तो हम सुखी हो जाते। तुम अगर
बेटे से नाराज हो, तो तुम यह कह रहे हो कि कहां हा बेटा घर
में पैदा हो गया है, कुपुत्र पैदा हो गया है, सुपुत्र होता तो हृदय में बड़ी शांति हो जाती, बड़ा
आनंद हो जाता। तुम वस्तुत: सत्य को देख नहीं पाए कि दूसरे में सुख होता ही
नहीं—सुपुत्र में भी नहीं होता, कुपुत्र में तो होता ही
नहीं। कुरूप में तो होता ही नहीं, सुरूप में भी नहीं होता।
दूसरे में सुख होता ही नहीं—बुरी स्त्री में तो होता ही नहीं, भली स्त्री में भी नहीं होता। असाधु में तो होता ही नहीं, साधु में भी नहीं होता, सुख दूसरे में होता ही नहीं।
यह दूसरे से सुख के भाव का सब भाति से मुक्त हो जाना संन्यास है।
युवक घर
से भागा, क्योंकि वह मां—बाप से
परेशान हो गया था। उनका मोह करीब—करीब कारागृह बन गया था। अकेला कहीं जा न सके।
कोई राग—रंग में अकेला सम्मिलित न हो सके, वह बाप और मां
पीछे ही लगे रहें। यह जरा अति हो गयी। इस अति से वह भागा हलेकिन संन्यासी तो नहीं
था। और मां—बाप को तो कोई प्रयोजन ही न था, इतना भी प्रयोजन
नहीं था। उनको तो मोह था। उनको तो खयाल था कि बेटे के कारण सब हो जाएगा। जो चाहिए
वुहु हो जाएगा। बस बेटे में जैसे परमात्मा मिल गया, सब मिल
गया था। इसके पार उनकी आखें ही न उठी थीं। वे जमीन पर रेंगते हुए चल रहे थे। जमीन
पर आखें गड़ाए हुए चल रहे थे।
और ध्यान रखना, जो जमीन पर आखें गड़ाए चलेगा, उसे अगर आकाश के तारे न
दिखायी पड़े तो तारों का कोई कसूर नहीं है। तारे तो हैं। तुम्हारे लिए भी उतने हैं
जितने कि बुद्ध और महावीर और कृष्ण और कबीर के लिए हैं। मगर तुम आखें ही जमीन पर
गड़ाए रखोगे तो तारों का कोई कसूर नहीं है। आखें ऊपर उठेंगी तो ही तारे दिखायी पड़ेंगे।
बुद्ध ने
उनसे पूछा कि यह मामला क्या है यह कैसा संन्यास! यह तो संन्यास की शुरुआत ही गलत
हो गयी मालूम होती है तो बाप ने कहा असली बात यह है—संन्यास से हमें कुछ लेना—
देना नहीं। मैं और मेरी पत्नी बेटे के साथ रहना चाहते हैं और बेटा भागता है भगोड़ा
है बचना चाहता है खराब होना चाहता है; बुरे संग में पड़ जाएगा बिगड़ जाएगा तो हम इसे बचाने के लिए इसके पीछे रहते
हैं। और यह बुरे संग में पड़ना चाहता है। बूढ़े बाप ने कहा कि आप तो जानते ही हैं
जवानी कैसी होती है! यह कहीं बिगड़ न जाए इसलिए हम पीछे लगे हैं। और यह बिगड़ने के
लिए आतुर है? तो यह भागता है। न इसे संन्यास से कुछ
लेना—देना है न हमें कुछ लेना—देना है। हम तीनों एक साथ ही रहे इसलिए हमने संन्यास
ले लिया है हम अलग—अलग नहीं रह सकते।
तब भगवान
ने कहा प्रिय का अदर्शन और अप्रिय का दर्शन दुखकर है इसलिए किसी को प्रिय या
अप्रिय नहीं करना चाहिए। और दुख का मूल यही है कि दूसरे से मिलेगा दूसरे से आशा
दूसरे से संभावना सारे दुख का मूल है। फिर नहीं मिलता तो क्रोध आता है फिर नहीं
मिलता तो क्षोभ पैदा होता है 1 जहां मोह है वहां मोहभंग पर क्षोभ पैदा होता
है।
तब बुद्ध ने ये पहली तीन गाथाएं कहीं। ये
गाथाएं अपूर्व हैं—
अयोगे युज्जमत्तानं योगस्मिज्च अयोजयं।
अत्थं हित्वा पियग्गाही पिहेतत्तानुयोगिनं।
अयोग्य
कर्म में लगा हुआ, योग्य कर्म में न लगने
वाला तथा श्रेय को छोड़कर प्रिय को ग्रहण
करने वाला मनुष्य, आत्मानुयोगी पुरुष की स्पृहा करे। '
पहली
गाथा। बुद्ध कहते हैं, जो अयोग्य कर्म में लगा
है और योग्य कर्म में नहीं लगा है। स्वभावत: जब तुम्हारी ऊर्जा अयोग्य में लगी
होगी तो योग्य में कैसे लगेगी प अयोग्य से छूटेगी तो योग्य में लगेगी। गलत दिशा
में जाता आदमी एक ही साथ ठीक दिशा में तो नहीं जा सकता। जो गलत दिशा में जा रहा है,
वह ठीक दिशा में तो नहीं जा सकता। और जिसे ठीक दिशा में जाना है,
उसे गलत दिशा में जाना बंद करना होगा।
'अयोग्य कर्म में लगा हुआ, योग्य कर्म में न लगने
वाला तथा श्रेय को छोड़कर प्रिय को ग्रहण
करने वाला मनुष्य, आत्मानुयोगी पुरुष की स्पृहा करे। '
ये दो
बातें श्रेय और प्रेय समझने की हैं।
प्रेय का
अर्थ होता है, जो प्रिय है मुझे उसे पा
लूं। लेकिन अभी तुम अंधेरे में खड़े हो, तुम्हें जो प्रिय भी
लगता है, वह भी तुम्हारे अंधेरे की ही उपज है। अभी तुम रुग्ण
हो, तुम्हें जो प्रिय भी लगता है, वह भी
तुम्हारे रोग का ही हिस्सा है। अभी तुम अंधे हो, वह जो
तुम्हें प्रिय भी लगता है, वह तुम्हारे अंधेपन से ही पैदा हो
रहा है। इसलिए प्रेय में अगर लग गए, प्रिय में अगर लग गए,
तो भटकते ही चले जाओगे। पहले श्रेय को साधो।
श्रेय का
अर्थ होता है, स्वयं को रूपांतरित करो।
जिस आदमी की आखें जमीन पर गड़ी हैं, वह अगर चुनाव भी कर ले कि
कौन सी चीज प्रिय है, तो भी चीज तो जमीन की ही रहेगी। चलो,
कंकड़—पत्थर नहीं बीनेगा तो हीरे—जवाहरात बीन लेगा। प्नेकिन
हीरे—जवाहरात भी वस्तुत: तो कंकड़—पत्थर हैं। हीरे—जवाहरात तो हमने उन्हें बना दिया।
अगर आदमी न हो तो कौन हीरा है और कौन पत्थर है! आदमी के कारण कुछ पत्थर हीरे हो गए
हैं। मगर आदमी हट जाए तो सब पत्थर हैं, हीरा भी पत्थर हे,
पत्थर भी पत्थर हैं। उनमें कोई फर्क न रहेगा। हीरों को पता ही नहीं
है कि वे हीरे है'। और पता हो जाए तो आदमी पर वे बहुत हंसें,
क्योंकि वे जानते हैं कि पत्थर ही ते। आदमी ने भेद कर लिया है,
यह प्रिय है, उसको ऊंचा बना लिया है।
लेकिन इस
तरह अगर प्रेय का कोई चुनाव करता रहे जमीन पर आख गड़ाए तो चांद—तारों को कभी भी न
पा सकेगा। श्रेय का अर्थ होता है, पहले
आखें उठाओ, पहले अपने को उठाओ। श्रेय का अर्थ होता है,
पहले शुभ बनो। श्रेय का अर्थ होता है, पहले
सत्व में उठो। श्रेय का अर्थ होता है, पहले शिवत्व में जागो।
श्रेय का अर्थ होता है, पहले थोड़ी दिव्यता का अनुभव करो—फिर
प्रिय को चुनना।
जो आदमी
श्रेय को चुन लेता है वह प्रेय को पा ही लेता है। क्योंकि श्रेय की आखिरी अवस्था
में सिर्फ परमात्मा के अतिरिक्त और कोई प्रेय नहीं रह जाता। श्रेय की ऊंचाई पर
सिवाय आत्मानुभव के और कोई चीज प्रिय नहीं रह जाती।
तो अभी
जो प्रिय को खोजेगा वह भटकता चला जाएगा। अब यह मजे की बात समझना। अभी जो प्रिय को
खोजेगा वह प्रिय को तो पाएगा ही नहीं और श्रेय को भी चूक जाएगा। क्योंकि प्रिय तो
एक ही है, वह तुम्हारे अंतरतम में
बसा है, वह तुम्हारे हृदय का मालिक है, वह प्रियतम तुम्हारे भीतर बैठा है। और तुम बाहर टटोल रहे हो। कभी इस चीज
को प्रेय मान लेते हो, कभी उस चीज को प्रेय मान लेते हो—कहते
हो कभी, बड़ा मकान, कहते हो कभी,
बड़ा हीरा; कभी कहते हो, बड़ी
दुकान, बड़ी कार—कुछ करते रहते, खोजते
रहते। क्हीं भी पाते नहीं हो प्रिय को। जो मिल जाता है वही व्यर्थ हो जाता है।
क्या
तुम्हारे जीवन का अनुभव भी यही नहीं है? जो मिल जाता है वही व्यर्थ हो जाता है। जब तक नहीं मिला, तब तक सार्थक मालूम होता है। बड़े से बड़े महल में भी पहुंचकर भी कितने दिन
तक महल सुख देता है? दो—चार दिन पा लेने की तरंग रहती है,
अकड़ रहती है कि मिल गया। दो—चार दिन के बाद तुम भूल जाते हो। जो
महलों में रहते हैं कोई चौबीस घंटे महल को याद रखते हैं! महल झोपड़े जैसे ही भूल
जाते हैं। और बड़े महलों के सपने उठने लगते हैं। सब महल छोटे हो जाते हैं। जो है,
वही व्यर्थ हो जाता है।
तो श्रेय
का अर्थ होता है, पहले स्वयं को जगाओ। तुम
जाग गए तो ही तुम श्रेय को खोज सकोगे। तुम सोए—सोए टटोलते रहे तो तुम गलत को ही
पकड़ते रहोगे। तुम ही गलत हो, तो तुम ठीक को कैसे खोजोगे?
श्रेय की तलाश करने वाला श्रेय को तो पा ही लेता है और अचानक एक दिन
पाता है, प्रेय मुफ्त में मिल गया। श्रेय की छाया की तरह मिल
गया।
तो बुद्ध
कहते हैं, श्रेय को छोड़कर प्रिय को ग्रहण करने वाला मनुष्य उस व्यक्ति के
साथ स्पृहा करे, उस व्यक्ति के साथ स्पर्धा करे, जो आत्मानुयोगी है, जो अपने भीतर जा रहा है, आत्मा की तलाश कर रहा है।
उन तीनों
को बुद्ध ने यह वचन कहा कि तुम थोड़ा सोचो, क्या कर रहे हो? ऐसे कहीं प्रिय मिला है! ऐसे तो
जीवन गंवा दोगे। बेटे से थोड़े ही प्रिय मिल जाएगा, न पत्नी
से मिल जाएगा, न पिता से मिलेगा, संबंधों
से कोई प्रिय मिलता नहीं। संबंधों से तो तुम सिर्फ इतनी बात को छिपाते हो कि तुम
अकेले हो, बस। अकेले नहीं हो।
तुमने
खयाल किया, अकेले रह जाते हो घर में,
कैसी घबड़ाहट, भांय—भांय मालूम होने लगती है!
अकेले रहते ही से कुछ घबड़ाहट, कुछ भय पकड़ता है! कोई
असुरक्षा! अब कोई भी नहीं है, संगी—साथी नहीं है। और जिनको
तुम संगी—साथी कहते हो, वे भी क्या हैं! उनके होने से भी
क्या हो गया है? कुछ भी नहीं हो गया है। मगर एक बात बनी रहती
है कि शोरगुल बना रहता है, भीड़— भाड़ बनी रहती है। भीड़— भाड़
और शोरगुल में तुम अपने को भूले रहते हो। दिनभर की आपाधापी, रात
आकर गिर जाते बिस्तर पर थके—मादे, सुबह उठकर फिर चल पड़ते हो।
ऐसे भूले रहते हो। ऐसे याद नहीं आता कि क्या गंवा रहे हो। ऐसे खयाल में नहीं आता
कि क्या खो रहे हो। यह सारी दौड़—धूप एक तरह की शराब है, जो
तुम्हें अपने से वंचित रखती है।
बुद्ध ने
कहा, इस बात को खयाल में लो,
श्रेय को पकड़ो, प्रेय को छोड़ो। और अगर तुमसे
अभी यह न हो सके तो कम से कम जिन्होंने प्रेय को छोड़ दिया है और श्रेय की यात्रा
पर निकले हैं, उनसे स्पृहा तो करो। यहा इतने भिक्षु हैं,
बुद्ध ने कहा होगा, जो श्रेय की यात्रा पर
निकले हैं, इनकी शांति
तो देखो! मुझे तो देखो, बुद्ध ने कहा होगा। सुसुखं वत! जरा मेरे सुख को देखो। मेरी तरफ आखें उठाओ,
यह मेरे आनंद का जो शिखर खड़ा हुआ है, इस पर
जरा आखें गड़ाओ। यहौ मेरे पास रहकर, इतनें भिक्षुओं से घिरे
रहकर, इतने लोग ध्यान कर रहे, इतने लोग
समाधि में उतर रहे, इतने लोग समाधि को प्राप्त हो गए,
इस अपूर्व वातावरण में भी तुम तीनों बैठकर एक—दूसरे को पकड़े हुए हो!
फालतू की बातों में लगे हो! यहां इतना श्रेय घटित हो रहा है, ऐसी श्रेय की तरंगें उठ रही हैं, लहरें उठ रही हैं,
इन पर सवार हो जाओ। यह इतनी बड़ी नौका श्रेय की तरफ जा रही है,
इसमें बैठने का तुम्हारा मन नहीं करता? और इस
नौका में जो बैठे हैं, उन्हें देखकर तुम्हारे मन में स्पृहा
पैदा नहीं होती?
खयाल
रखना, दो शब्द—स्पृहा और
ईर्ष्या। ईर्ष्या सांसारिक स्पृहा है और स्पृहा सासारिक से पार, वह जो परमात्म है, परमार्थ है, अध्यात्म है, उसमें दूसरों को मिल रहा है, मुझे नहीं मिल रहा! कम से कम इस बात की चोट तो होने दो। दूसरे जग रहे हैं,
मैं अभी तक सोया हूं कम से कम इस बात की पीड़ा तो चुभने दो, काटा तो लगने दो। यहां इतने संन्यासियों के बीच भी तुम अपने घर में ही बने
हुए हो! तुम वहां से आए ही नहीं। यह मा—बाप और बेटा, बस,
यह तुम तीनों ने अपना एक अड्डा बना लिया है! थोड़ा जागकर देखो। चलो
सयोगवशात ही यह मौका मिल गया है। न बेटे को संन्यास में रस था, न तुम्हें संन्यास में रस है। सयोगवशात तुम यहौ आ गए हो, लेकिन फिर भी लाभ तो ले सकते हो। सयोगवशात ही कोई बगीचे में आ जाए,
तो भी फूलों के सौंदर्य का आनंद तो ले ही सकता है। शायद दुबारा फिर
आकांक्षा करके आए, अभीप्सा करके आए।
ऐसा घटता
है। यहा किसी का बेटा संन्यस्त हो गया है...।
अभी हुआ, एक युवती जर्मनी से आयी, संन्यस्त
हो गयी, उसके घर के लोग परेशान थे। एक तो संन्यास उनकी समझ
में ही न आए कि बात क्या है ' पश्चिम में यह शब्द तो बहुत
उलझन भरा है। यह हुआ क्या! बाप भागा हुआ आया। चार दिन यहां अपनी बेटी को
समझाता—बुझाता रहा, लेकिन बेटी जाने को राजी न हुई। तो फिर
वह बेटी को लेकर मेरे पास आया। सोचा शायद मैं समझा दूंगा। दो—चार दिन उसने मेरी
बातें भी सुनीं, फिर सांझ के दर्शन में आया। तो दूसरों से जो
मैं बातें कर रहा था वह उसने सुना, फिर तो यह बात उसे पूछने
जैसी ही न लगी। यह बात ही उसे न जंची कि अब वह पूछे कि इस लड़की को वापस ले जाना
है। वह कहने लगा कि मैं फिर आऊंगा। संन्यास ने मेरे मन को भी लुभा लिया है,
आया तो मैं अपनी लड़की को लेने था, लेकिन मैं
खुद पकड़ा गया हूं। ध्यान में डुबकी मैं भी लगाना चाहूंगा। अभी तो मुझे लौटना पड़ेगा,
इसकी मां परेशान हो रही है, यह कालेज से भाग
आयी है, परीक्षा करीब आ रही है, कालेजु
के अधिकारी परेशान हो रहे हैं, अभी तो मैं जाऊं।
तो मैंने
उस युवती को कहा कि तू भी वापस जा, मर के लोग सब शात हो जाएंगे, सौभाग्यशाली है तू कि
तुझे ऐसा पिता मिला, तू जा!
युवती
साथ चली गयी, लेकिन पिता का हृदय यहां
छूट गया है। युवती तो लौट ही आएगी, पिता भी लौट आएगा। संयोग
से ही आना हुआ, कोई कारण न था आने का। शायद अगर उसकी बेटी
भागकर न आयी होती तो पिता कभी आता ही नहीं, लेकिन स्पृहा
पैदा हो गया। यहा देखा लोगों को नाचते, तो उसने मुझसे पूछा
कि मैं तो कभी नाचा नहीं! लोगों को प्रसन्न देखा, तो उसने
पूछा कि इतने प्रसन्न लोग हो सकते हैं, यह मुझे भरोसा नहीं!
संयोग से
आया हुआ आदमी भी कभी—कभी नाव में सवार हो जाता है, समझदारी हो तो। और कभी—कभी ऐसा होता है कि समझदारी न हो, तो तुम चेष्टा करके आए हो तो भी चूक जाओगे।
वैसे लोग
भी आ जाते हैं। संन्यास ही लेने आते हैं, लेकिन फिर कोई छोटी—मोटी बात अड़चन बन जाती है। उतनी सी अड़चन से लौट जाते
हैं। आदमी पर निर्भर है। आदमी की गुणवत्ता पर निर्भर है।
शुभ होना
तो शुभ है ही, कम से कम शुभ की स्पृहा
तो करो। अगर आज शुभ नहीं हो सकते तो इतना तो सोचो, इतना सपना
तो संजोओ, इतना सपना तो देखो किं कभी शुभ हो सकूं। और जिनको
शुभ घटित हुआ है, उनके साथ थोड़ा सा खयाल तो करो कि यह भी हो
सकता है; और जो इन्हें हुआ है, वह मुझे
भी हो सकता है।
मा पियेहि समागच्छि अपियेहि कुदाचनं।
पियानं अदस्सनं दुक्खं अप्पियानज्व दस्सनं।।
'प्रियों का संग न करे', बुद्ध ने कहा, 'न कभी अप्रियों का ही संग करे। प्रियों का न देखना दुखद है, और अप्रियों का देखना दुखद है।
बुद्ध ने
कहा, दुख के दो कारण हैं।
प्रिय से मिलन न हो तो दुख होता है, अप्रिय से मिलन हो जाए
तो दुख होता है। प्रिय छूट जाए तो दुख हो जाता है, अप्रिय
मिल जाए तो दुख हो जाता है। लेकिन दुख का मूल कारण तो यही है कि तुमने प्रेम का
संबंध बनाया। दोनों प्रेम के संबंध हैं—प्रिय का और अप्रिय का। और कभी—कभी ऐसा
होता है कि दोनों बातें एक के साथ ही घट जाएंगी।
तुमने
कभी देखा है, बचपन का बिछड़ा हुआ मित्र
वापस आ गया है मिलने, बड़े तुम खुश हुए, गले से लगा लिया, उठा लिया। एक दिन खुशी रही,
वह घर टिक ही गया बोरिया—बिस्तर जमाकर, दूसरे
दिन जरा बेचैनी होने लगी, तीसरे दिन पत्नी नाराज होने लगी कि
हटाओ भी, यह कहा के आदमी को बिठा रखा है, चौथे दिन बच्चे भी परेशान होने लगे, पांचवें दिन तुम
भी प्रार्थना करने लगे भगवान से कि अब इन सज्जन को विदा करो। अगर महीने दो महीने
यह मित्र रुक जाए और फिर तुम सफल हो जाओ इसको विदा करवाने में, तो तुम जितने प्रसन्न होओगे, उतने प्रसन्न तुम इसके
मिलने पर भी नहीं हुए थे। यह वही का वही है; कुछ फर्क नहीं
पड़ा है, तुम वही के वही हो, यह मित्र
भी वही का वही है, लेकिन क्या हो गया! हक ही संबंध प्रेम का
अप्रेम का भी बन जाता है।
प्रेम और
अप्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और बुद्ध कहते हैं, दोनों से दुख मिलता है। प्रिय बिछुड़े तो दुख होता
है—और बिछुड़ना तो होगा ही, क्योंकि यहां मौत सबको अलग कर
देगी। जन्म के पहले हम सब अलग थे। जन्म ने इकट्ठा कर दिया, मौत
अलग कर देगी। नदी—नाव संयोग। राह पर चलते यात्री मिल गए है। तीर्थयात्रा को गए थे,
राह पर बातचीत हो गयी, मिल गए, संबंध बन गया, फिर बिछुड़ जाएंगे। सांझ को पक्षी एक
वृक्ष पर आकर बैठ गए हैं, मिलन हो गया है, रातभर साथ रहेगा डेरा, सुबह फिर उड़ जाएंगे। जन्म ने
मिला दिया है, मृत्यु फिर विदा कर देगी। तो विदा तो होना ही
होगा आज नहीं कल।
फिर और
बहुत से कारण हैं जिन्होंने मिला दिया है। कोई स्त्री सुंदर है, उसके सौंदर्य के कारण तुम प्रेम में पड़ गए हो,
लेकिन सौंदर्य टिकता थोड़े ही है। थोड़े दिनों बाद सौंदर्य तिरोहित हो
जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन की पत्नी उससे पूछ रही थी कि क्या मैं की हो जाऊंगी तब भी तुम मुझे
प्रेम करोगे? मुल्ला पहले तो अखबार पढ़
रहा था, तो उसने ठीक से सुना नहीं, उसने
टालने को कहा, हा—हा, जरूर, क्यों नहीं! तब उसे खयाल आया कि वह क्या कह रहा है। तो उसने पूछा कि तुम
अपनी मां जैसी तो नहीं लगने लगोगी? अन्यथा मैं पहले ही से
कहे देता हूं कि फिर मुझसे न हो सकेगा प्रेम इत्यादि।
कभी तुम
किसी बात से, किसी कारण से किसी के
प्रेम में पड़ गए। वह कारण हट जाएगा, फिर? फिर क्या करोगे? और कारण न भी हटे, तो भी जो चीज तुम्हें प्रीतिकर मालूम पड़ती है जब दूर होती है, पास आने पर, मिल जाने पर उतनी प्रीतिकर मालूम होगी?
अपनी पत्नी किसी को सुंदर मालूम होती? अपना
पति किसी को सुंदर मालूम होता। सौंदर्य दूर से मालूम होता है। सौंदर्य जो उपलब्ध
नहीं है, उसमें मालूम होता है। सौंदर्य का अधिकतम प्रभाव तो
जितना कठिन हो पाना, उसमें होता है। जितना सरल हो जाए,
उतना ही सौंदर्य समाप्त हो जाता है। अगर कोई स्त्री बहुत दुर्लभ हो
कि मिल ही न सके, तो उसका सौंदर्य सदा बना रहेगा। मिल गयी कि
सौंदर्य समाप्त हो गया। करोगे क्या? कितनी ही सुंदर नाक हो
और कितनी ही सुंदर आख हो, करोगे क्या? दों—चार
दिन में सब भूल जाओगे।
जो चीज
कारण कर निर्भर है, वह टूटेगी। तो यहां प्रिय
का मिलन भी होगा, प्रिय का बिछुड़ना भी होगा, यहा प्रेम की घटना भी घटेगी और फिर प्रेम खट्टा होकर अप्रेम भी बनेगा।
इसलिए प्रेम सब तरह से दुख देता है। प्रैम रहे तो दुख देता है, फिर प्रेम छूट जाए तो दुख देता है। फिर अप्रिय मिल जाए तो कठिनाई हो जाती
है। तो बुद्ध कहते हैं—
मा पियेहि समागज्छि अप्पियेहि कुदाचनं।
'प्रियों का संग न करे, न कभी अप्रियों का संग करे।
इसका
क्या अर्थ हुआ? क्या किसी का संग ही न
करोगे ' प्रियों का देखना दुखद, अप्रियों
का देखना दुखद, तो क्या फिर किसी के साथ ही कभी खड़े न होओगे?
तो बौद्ध भिक्षु भी तो एक—दूसरे के साथ थे! खुद बुद्ध भी तो हजारों
भिक्षुओं के साथ थे!
नहीं, बुद्ध के कहने का इतना ही तात्पर्य है कि बीच में
प्रेम के संबंध खड़े मत करना। साथ रहो, संबंध के सेतु मत
जोड़ो। तुम अलग, दूसरा अलग। तुम अपने स्वात में शिखर, वह अपने एकांत में शिखर। एकांत पर हमला मत करो, स्वात
पर हावी मत होओ, एक—दूसरे के एकात को नष्ट मत करो। एक—दूसरे
के मालिक मत बनो और न एक—दूसरे को अपना मालिक बनाओ। मुक्त रहो। साथ रही तो भी संग
न बनाओ। यही मेरी देशना है।
इसलिए
मैं तुमसे यह भी नहीं कहता कि घर भी छोड़ो। मैं कहता हूं र घर छोड़कर भी कहा जाओगे, आश्रम में रहोगे तो आश्रम घर बन जाएगा। घर से भागने का उपाय क्या है,
कहीं तो रहोगे! वहीं घर बन जाएगा। जहा रहोगे, उसका
नाम घर है। पत्नी को छोड़कर भाग जाओगे,
बेटे को छोड़कर भाग जाओगे,
किसी के साथ तो रहोगे! उसी से संबंध बन जाएंगे लगाव के।
नहीं, इसलिए भागने का कोई सवाल नहीं है। दो व्यक्तियों के
बीच में जो संबंध का सेतु होता है, कड़ी होती है, वह भर गिरा दो। पत्नी के ही साथ रहो, लेकिन अब पति
होकर नहीं। पति का भाव जाने दो। बेटे के साथ रहो, लेकिन बाप
होकर नहीं। बाप का भाव जाने दो। वह तो सिर्फ भाव ही हैं। पानी के बबूले हैं और कुछ
भी नहीं। फूंक मारे से उड़ जाते हैं। जरा से बोध की चोट से टूट जाते हैं।
इंद्रधनुषों जैसे हैं—दिखायी पड़ते हैं बहुत रंगीन, पास जाओ
तो हाथ में कुछ भी नहीं आता। इन बबूलों को गिर जाने दो। रहो साथ, मगर संग न बनाओ।
साथ रहो
और अगर संग न बने, तो न फिर दुख होता है
प्रिय के मिलन से, बिछुड़ने से, न
अप्रिय के मिलन से, न अप्रिय के बिछुड़ने से। फिर तुम सभी
स्थितियों को स्वीकार करने में कुशल हो जाते हो। प्रिय आए तो ठीक, अप्रिय आए तो ठीक। तुम हर हालत में राजी होते हो। तुम्हारी कोई आकाक्षा
नहीं होती कि ऐसा ही हो तभी मैं सुखी होऊंगा। और जब तुम्हारी ऐसी कोई शर्त नहीं
होती, तब तुम्हारे सुख का क्या कहना! तब तुम्हारा सुख महासुख
हो जाता है। तब सभी कारणों के पार, सभी शर्तों के पार तुम
सुखी होते हो, सुख तुम्हारा स्वभाव हो जाता है।
स्वामी
रामतीर्थ सदा कहा करते थे, यूनान के बहुत बड़े
वैज्ञानिक आर्किमिडीज ने कहा था कि यदि मुझे कोई स्थिर आधार, खड़े होने को कोई स्थल मिल जाए, तो मैं दुनिया को
हिला सकता हूं। आर्किमिडीज कहता था कि अगर मुझे कुछ ऐसा एक छोटा सा बिंदु भी मिल
जाए जो स्थिर है, स्थिर बिंदु, जो
हिलता नहीं, तो मैं उस पर खड़े होकर सारी दुनिया को हिला सकता
हूं। किंतु वह बेचारा ऐसा स्थिर बिंदु न पा सका, क्योंकि
संसार में ऐसा कोई स्थिर बिंदु है ही नहीं। स्थिर बिंदु तुम्हारे भीतर है, बाहर नहीं, वह है तुम्हारी आत्मा। उसे पकड़ो और सारा
संसार तुम चलाने लगोगे। अभी तो संसार तुम्हें चलाता है। अभी तो तुम परिस्थितियों
के दास हो। अभी तो जरा सी बात बाहर घटती है और तुम कैप जाते हो। अभी तो कोई भी चीज
तुम्हें सुखी और दुखी कर जाती है। अभी तुम अपने मालिक नहीं हो।
तो
स्वामी रामतीर्थ कहते थे और ठीक कहते थे कि अगर तुम बाहर कोई ऐसा स्थिर बिंदु
खोजने चले हो तो कहीं भी न मिलेगा। ऐसी खोज का नाम ही संसार है—बाहर कोई स्थिर
बिंदु मिल जाए जिसमें सुरक्षा हो, जहां
मैं विश्राम कर सकूं। नहीं, ऐसा कोई स्थिर बिंदु है ही नहीं
बाहर। लेकिन भीतर एक स्थिर बिंदु है, जहा तुम परम विश्राम को
उपलब्ध हो सकते हो। और जहां पहुंच गए व्यक्ति को कोई डिगा नहीं सकता। और जहां
पहुंचा हुआ व्यक्ति चाहे, तो उसके इशारे से सारी दुनिया कपती
है।
वास्तव
में कर्ता भी तुम्हीं हो
और कर्म
भी तुम्हीं
तुम्हीं
आत्मा हो
और
तुम्हीं नाममात्र अनात्मा हो
तुम्हीं
सुंदर गुलाब हो
और
प्रेमी बुलबुल भी तुम्हीं हो।
तुम फूल
हो
और भौंरा
भी तुम
हर एक
चीज तुम हो—
भूत और
प्रेत
देवता और
देवदूत
पापी और
महात्मा
सब
तुम्हीं हो।
यह है
संन्यास का मार्ग। इस बात को जानना कि मेरा संसार मेरे भीतर है, यह है संन्यास का मार्ग। इस बात को जानना कि मेरा सुख
मेरे बाहर है, यह है संसार का मार्ग। अपना केंद्र अपने से
बाहर मत बनाओ, ऐसा कैरने से तुम गिर पड़ोगे। अपना पूर्ण
विश्वास अपने में जगाओ, अपने केंद्र में बने रहो, फिर तुम्हें कोई भी चीज हिला न सकेगी।
जब बुद्ध
कह रहे हैं कि संग—साथ में बहुत अपने को न डुबाए, वे इतना ही कह रहे हैं कि अपने केंद्र तुम स्वयं बनी।
तीसरा सूत्र—
तस्मा पियं न कयिराथ पियापायो हि पापकों।
गंथा तेसं न विज्जन्ति येसं नत्थि पियाप्पियं।।
'इसलिए किसी को अपना प्रिय न बनाओ। प्रिय से वियोग दुखद होता है। और जिनके
प्रिय और अप्रिय नहीं होते, वे निर्ग्रंथ होते हैं। '
यह
निर्ग्रंथ की परिभाषा समझो। जैन महावोर को निर्ग्रंथ कहते हैं। निर्ग्रंथ बड़ा
अनूठा शब्द है। ऐसे तो सीधा—साफ—सुथरा है। निर्ग्रंथ का अर्थ होता है, जिसकी कोई ग्रंथि नहीं, जिसकी
कोई गांठ नहीं। हम कहते हैं न, दो आदमियों का विवाह हो गया,
कहते हैं—गांठ बंध गयी ग्रंथि पड़ गयी। सात चक्कर लगाकर सात गांठें
डाल देते हैं। खोलना ही मुश्किल कर देते हैं। निर्ग्रंथ का अर्थ होता है, जिसकी अब कोई गांठ नहीं, कोई ग्रंथि नहीं, जो कहीं बंधा नहीं है, जो अपने में है। जिसका होना
अपने में है र जिसका होना बाहर नहीं है।
तुमने
बच्चों की कहानियां पढ़ी होंगी। बच्चों की कहानियों में आता है कि कोई राजा था, उसके प्राण एक तोते में बंद थे। तो राजा को मारो तो
नहीं मरता था, जब तक कि तुम तोते की गर्दन न मरोड़ो। तोते की
गर्दन मरोड़ों, राजा फौरन मर जाता
है। ये कहानिया एकदम कहानियां नहीं हैं, ये बड़ी महत्वपूर्ण हैं। ऐसी हमारी हालत है। किसी के
प्राण तिजोड़ी में बंद हैं। तोते इत्यादि तो पुराने पड़ गए, तिजोड़ी!
किसी के प्राण कुर्सी में बंद हैं। तोतो—मोतों का कौन भरोसा करे, उड़ जाएं, कुछ झंझट हो जाए, कुर्सी!
और उस पर बैठे हैं, तो कोई ले जा भी नहीं सकता कुर्सी। और
जोर से उसको पकड़े हैं। मगर कुर्सी तोड़ दो कि प्राण निकल जाते हैं। ऐसा लगता है,
किसी के भी प्राण अपने भीतर नहीं हैं।
जिसके
प्राण अपने भीतर हैं, वह निर्ग्रंथ है। और
जिनके प्राण अपने से बाहर हैं, वे सर्ग्रंथ, उनकी गांठें है। तुम्हारी पत्नी मर जाए तो तुम मरने की सोचने लगते हो।
तुम्हारा बेटा मर जाए तो तुम मरने की सोचने लगते हो। तुम्हारा दिवाला निकल जाए तो
तुम मरने की सोचने लगते हो। छोटी—मोटी बात हो जाती है तो तुम मरने की सोचने लगते
हो। तुम्हारे प्राण छोटी—छोटी चीजों में पड़े हैं। जहा कोई चीज गड़बड़ हुई बाहर कि
तुमने तत्कण सोचा कि मर ही जाऊं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल
है जिसने जीवन में कम से कम दस बार आत्महत्या का विचार न किया हो। और विचार करना
करने के ही बराबर है। क्योंकि जो विचार में हो गया वह हो गया। तुमने बाहर किया या
नहीं, यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। अदालत तुम्हें नहीं पकड़
सकती, लेकिन परमात्मा की अगर कोई अदालत है तो वहा तो तुम
पकड़े गए। पुलिस तुम्हें नहीं पकड़ सकती, तुम अगर बैठे अपने मन
में आत्महत्या का विचार कर रहे, तुम्हें कोई नहीं पकड़ सकता।
जब तक कि तुम करने का उपाय न करो। लेकिन विचार करने में तुम परमात्मा के सामने तो
दोषी हो ही गए। तुम अपने सामने तो दोषी हो ही गए।
तुमने
अपने जीवन की बड़ी सस्ती कीमत आकी। दिवाला निकल गया, दुकान खराब हो गयी, तुम मरने की सोचने लगे! तो
तुम्हारे जीवन का इतना ही मूल्य था, जितना तुम्हारी दुकान का
मूल्य था! तो तुमने जीवन की बड़ी कम कीमत आकी। तो तुम दुकान के लिए जीते थे! तो
दुकान तुम्हारे लिए नहीं थी, तुम दुकान के लिए थे! यह तो
परमात्मा का जो यह विराट दान है, इसका तुमने बहुत अपमान
किया। इसको केहते हैं, ग्रंथि।
निर्ग्रंथ
का अर्थ होता है, जिसकी कहीं कोई गांठ
नहीं। तुमने देखा, महावीर नग्न हो गए। निर्ग्रंथ का एक अर्थ
नग्न होना भी होता है। क्योंकि जिसकी कोई गांठ ही नहीं है, उसके
पास छिपाने को कुछ नहीं है, यह उसका मतलब होता है। गाठें ही
हम छिपाते हैं। किसी को पता न चल जाए गांठ कहां है! नहीं तो लोग गांठ पर चोट करने
लगेंगे।
एक छोटे बच्चे को अस्पताल में लाया गया, उसके हाथ में चोट लग गयी थी। उसके हाथ पर पट्टी
बांधने के पहले, डाक्टर जब उसके हाथ को ठीक करके पट्टी
बांधने लगा तो उसने कहा, रुकिए, दूसरे
हाथ पर पट्टी बांधिए। डाक्टर ने कहा, तू पागल हुआ है! यह
पट्टी तो इसलिए बांध रहे हैं कि स्कूल में कोई बच्चा वगैरह तुझे कोई दुखा न दे।
उसने कहा, इसीलिए तो मैं कह रहा हूं र आप स्कूल के बच्चों को
नहीं जानते। आप इस हाथ में बांधिए जिसमें चोट नहीं है, क्योंकि
जिस हाथ में पट्टी है, वे दुखाके ही। उनको अगर पता चल गया कि
चोट है, तो आप स्कूल के बच्चों को जानते ही नहीं!
यह
दुनिया ऐसी है। यहां अगर लोगों को पता चल गया, कहां तुम्हारी गाठ है, लोग उसी—उसी पर चोट करेंगे।
तो लोग अपनी गांठों को छिपाते हैं। छिपाना पड़ता है। अपनी गांठ की बात ही नहीं करते
लोग। किसी को पता नहीं चलना चाहिए। नहीं तो ये दुष्ट चारों तरफ लोग हैं, ये मजा लेंगे। ये बार—बार तुम्हारी बटन दबाने लगेंगे, और तुम्हारी गाठ दुखेगी, इनको बहुत आनंद आएगा। सताने
में लोगों का रस है।
मेरे
गांव में एक आदमी को लोग सीताराम कहकर चिढ़ाते थे! बस सीताराम कोई कह दे कि वह एकदम
बिगड़ जाएं, डंडा उठा लें, पत्थर मारने लगें। वह कृष्ण—भक्त थे। और सीताराम के बिलकुल विरोधी थे।
यह जब
लोगों को पता चल गया तो उनका गांव में निकलना ही मुश्किल! उनको मैं देखूं कि वह
अपने घर से निकलकर नदी तक स्नान करने गए हैं, फासला मुश्किल से दो मिनिट का है, उसमें उनको कभी
घंटा लग जाए। नदी में नहा रहे हैं और बीच में कोई ने चिल्ला दिया कि सीताराम,
कि वह बाहर निकल आएं, उनको नहाना—वहाना फिर तो
खतम हो गयी बात!
मैंने एक
दिन उनको कहा कि ऐसे तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे। तो उन्होंने कहा, क्या करूं, मुश्किल में तो मैं
हूं ही! आपके पास कोई रास्ता है ' मैंने कहा, ऐसा करो कि तुम खुद ही सीताराम कहने लगो। उन्होंने कहा, इससे क्या होगा? मैंने कहा, तुम
सात दिन मेरा प्रयोग करके देखो। जो कोई दिखायी पड़े कहो, सीताराम!
कोई सीताराम कहे तो तुम और जोर से कहो, सीताराम! और कहो,
ठीक बेटा, और जोर से कहो सीताराम। उन्होंने
कहा, इससे होगा क्या? मैंने कहा,
तुम सात दिन करके देखो।
सात दिन
में गाव सन्नाटा हो गया। कोई उनसे सीताराम न कहे। सार क्या रहा! गांठ ही हाथ के
बाहर हो गयी। वह जो गाठ थी, वह यह थी कि वह सीताराम
में चिढ़ते थे। सीताराम में उन पर चोट लगती थी। जब यह खुद ही आदमी सीताराम कहने लगा
तो अब क्या सार है!
वह मेरे
पास आए और बोले कि बात गजब की है, काम
कर गयी। अब तो मैं निकलता हूं तलाश में। मुझे भी मजा आने लगा है कि कोई कह दे
सीताराम, मगर कोई कहता ही नहीं। जो लोग पहले चिढ़ाते थे वे
ऐसा आख कचाकर निकल जाते हैं, गली—कूचे में से निकल जाते हैं।
नदी पर मैं नहाता रहता हूं कोई नहीं कहता सीताराम!
जैसे ही
लोगों को तुम्हारी गांठ पता चल जाए, लोग सताने लगते हैं। वही—वही करने लगते हैं।
महावीर
नग्न हो गए, इसका अर्थ इतना ही है कि
जब कोई गाठ न रही, तो अब छिपाने को कुछ न रहा। निर्ग्रंथ हो
गए। छोटे बच्चे की भांति खड़े हो गए।
गंथा तेसं न विज्जन्ति…….।
जो न
प्रेम के संबंध बनाता, न अप्रेम के, न मित्र बनाता, न शत्रु, उसकी
सारी ग्रंथियां गल जाती हैं।
अब तुम
समझो।
जीसस
कहते हैं, शत्रु को भी मित्र मानो।
बात ऊंची कहते हैं। मगर इतनी ऊंची नहीं है जितनी बुद्ध की बात है। क्यों ' क्योंकि जीसस कहते हैं, शत्रु को भी मित्र मानो।
लेकिन अगर तुम अभी मित्रता मानते हो, तो शत्रुता से छूट न
सकोगे। क्योंकि मित्रता का अर्थ ही क्या होता है, मित्रता
अर्थहीन है, अगर शत्रुता न हो। अगर कोई आदमी कहे कि सभी मेरे
मित्र हैं, तो इसका मतलब यह हुआ कि कोई मित्र नहीं है।
मित्रता का अर्थ ही तब होता है जब कोई शत्रु भी हो। अगर तुम कहते हो, सभी मेरे मित्र हैं, तो कोई मित्र नहीं है। अगर तुम
कहते हो, मैं सभी को प्रेम करता हूं तो इसका साफ मतलब हुआ,
तुम किसी को प्रेम नहीं करते। क्योंकि प्रेम का मतलब होता है,
चुनाव।
अगर कोई
स्त्री तुमसे पूछे कि क्या आप मुझे प्रेम करते हो? तुम कहो कि जरूर करता हूं क्योंकि मैं तो सभी को प्रेम करता द्रूं?
तो वह स्त्री तुमसे प्रसन्न न होगी। वह कहेगी, रास्ता पकड़ो! सभी को प्रेम करने वाले आदमी से क्या लेना—देना! तुम कुछ ऐसी
बात कहो कि तुम्हीं को प्रेम करता हूं और तुम्हीं को प्रेम करूंगा और सदा तुम्हीं
को किया 1 जन्म—जन्म से तुम्हीं को खोज रहा था और अब जन्म—जन्म तक तुम्हारे साथ ही
रहूंगा। यह संबंध शाश्वत है, अब यह कभी छूटेगा नहीं। हमको
एक—दूसरे को भगवान ने एक—दूसरे के लिए ही बनाया है। तब स्त्री प्रसन्न होगी। तब
लगता है कि तुमने विशिष्टता दी।
अगर तुम
कहो, सभी मित्र हैं, तो तुम्हारे मित्र नाराज हो जाएंगे—शत्रुओं की तो छोड़ो—मित्र कहने लगेंगे,
तो फिर मतलब ही क्या हुआ।
जीसस
कहते हैं, शत्रुओं को मित्र बना लो।
बुद्ध कहते हैं, शत्रु और मित्र दोनों साथ—साथ हैं। जब तक
तुम शत्रु मानते हो, तभी तक मित्र हैं। जब तक तुम मित्र
मानते हो, तब तक शत्रु भी रहेंगे। दोनों को जाने दो। यह
संबंध ही विदा करो। यह संबंध ही ठीक नहीं। इस संबंध से गांठें बनती हैं, गांठें दुख देती हैं।
यह है—ये
गाठें, और गाठों के ऊपर
गांठें—हमारे दुख की व्याकरण।
क्या पढ़ें
दर्द की व्याकरण
जिंदगी
है कटा अवतरण
रूप का, आयु का, सास का
आज होता
न एकीकरण
मोह
किससे कहा तक चले
बंध न
पाते नयन से चरण
सत्य की
बात कैसे कहें
आवरण ही
यहौ आवरण
जो भटकते
रहे उम्र भर
आकते हैं
वही आचरण
रेत है, शंख है, आदमी
धुंध के
बीच खोयी किरण
क्या
पढ़ें दर्द की व्याकरण
जिंदगी
है कटा अवतरण
यहां अगर
तुम जिंदगी को गौर से देखो तो तुम दर्द का व्याकरण समझ जाओगे कि क्या है गांठें
बनाना। और हम गांठें बनाने में बड़े कुशल हैं। हम बड़ी जल्दी गाठें बनाते हैं। हमारी
एक ही कुशलता है कि हम गांठें निर्मित कर लेते हैं, जल्दी से निर्मित कर लेते हैं। और फिर तकलीफ पाते हैं, फिर पीड़ा पाते हैं। ऐसे धीरे—धीरे हमारे पूरे प्राण गांठों से भर जाते
हैं। जगह—जगह पीड़ा होने लगती है, जगह—जगह दर्द होने लगता है।
धर्म का
अर्थ है, धीरे—धीरे गाठों का
विसर्जन; और एक ऐसी निर्ग्रंथ दशा, जहा
तुम हो अपने में मस्त, जहा तुम हो अपने में पर्याप्त। जहा
अगर सारी दुनिया इसी क्षण विदा हो जाए तो भी तुम्हारी मस्ती में कणभर अंतर न
पड़ेगा। तुम्हारी मस्ती ऐसी की ऐसी रहेगी। तो तुम्हारी मस्ती लोगों से मुक्त हो गयी,
तो तुम्हारी मस्ती तुम्हारी अपनी है, तुम्हारी
संपदा है, अब इसे कोई छीन नहीं सकता है। जो छीना जा सके,
उसे संपदा मानना ही मत। वह विपदा है। जो छीनी न जा सके, वही संपत्ति है, शेष सब विपत्ति है।
दूसरा सूत्र, उसके
पहले की कथा—
एक श्रावक का बेटा मर
गया। वह बहुत दुखी हुआ।
श्रावक कहते हैं सुनने वाले को, बुद्ध को सुनता था। अगर सुना होता तो दुखी होना नहीं
था, तो कानों से ही सुना होगा, हृदय से
नहीं सुना था। नाममात्र को श्रावक था, वस्तुत: श्रावक होता
तो यह बात नहीं होनी थी।
जब बुद्ध को पता चला कि उस श्रावक का बेटा मर गया और वह बहुत दुखी है
तो बुद्ध ने कहा अरे तो फिर उसने सुना नहीं। फिर कैसा श्रावक! श्रावक का फिर अर्थ
क्या हुआ। वर्षों सुना और जरा भी गुना नहीं। तो आज बेटे ने मरकर सब कलई खोल दी सब
उघाड़ा कर दिया।
उसका दुख कुछ ऐसा था कि सारे गांव में चर्चा का विषय बन गया।
नित्यप्रति वह श्मशान जाता। बेटा मर गया, जला भी आया मगर रोज जाता उस जगह जहां बेटे को जलाया।
वहां बैठकर रोता। जो बेटा अब नही है उससे बातें करता। वह करीब— करीब विक्षिप्त हो
गया। उसने बुद्ध को सुनने आना भी बंद कर दिया—उसे होश ही न रहा बेटे के शोक ने ऐसा
घेरा बेटे के शोक के बादल ऐसे उसके चारों तरफ घिर गए कि बुद्ध उसे अब दिखायी भी
कहां पड़े। भिक्षु रास्ते पर मिलते तो वह नमस्कार भी न करता।
बुद्ध के पास खबरें
आने लगीं कि वह विक्षिप्त होता जा रहा है। तो बुद्ध एक दिन उसके घर गए।
भगवान ने उससे उसके शोक का कारण पूछा—उपासक क्यूं शोक कर रहे हो? वह बोला भंते पुत्र की मृत्यु से दुखी हो रहा हूं।
जैसे श्रावक शब्द का अर्थ होता है, जो सुनता है, वैसे उपासक का
अर्थ होता है, जो गुरु के पास बैठता है। उप—आसन, जो पास में आसन लगाता है। मगर पास में आसन लगाने से भी कुछ नहीं होता। अगर
गुरु की तरंगों में तरंगित न हुए तो पास कितना ही आसन लगा लो, शरीर ही पास होगा, आत्मा तो दूर की दूर रह जाएगी।
कितना ही सुनो, अगर कानों पर चोट पड़ती रही और तुम सुनते
रहे—क्योंकि तुम बहरे नहीं हो, इसलिए सुनोगे तो ही—लेकिन बात
तो भीतर गयी कि नहीं, इस पर ही सब निर्भर करेगा।
तो न तो वह उपासक था, न वह श्रावक था। फिर भी वर्षों तक बुद्ध के पास आया
था तो उनकी करुणा उन्हें खींच ले गयी।
उससे पूछा क्यूं शोक कर रहे हो? तो उसने कहा भंते पुत्र की मृत्यु से दुखी हो रहा हूं,
क्या आपको पता नहीं चला? क्या आपने सुना नहीं
कि मेरा बेटा मर गया है— एकमात्र इकलौता बेटा मेरे बुढ़ापे की वही तो लकड़ी था मेरे
बुढ़ापे की वही तो ऑख था। मेरे बुढ़ापे का वही तो सहारा था और वह तत्कण छाती
पीट—पीटकर रोने लगा।
बुद्ध ने उससे कहा
मरणधर्मा ही मरा है। जो मरता है वही मरा है। जो नहीं मरता वह नहीं मरा है।
जो मरता ही—आज नहीं कल, कल नहीं परसों—वही मरा है। कुछ अनहोना नहीं हो गया है। तो तूने नष्ट होने
वाले से राग बाध लिया था। अमृत को खोज, बुद्ध ने कहा। फिर से
गौर से देख, बेटे के भीतर जो मरणधर्मा था वही मरा है। तो मरणधर्मा
तो मरेगा ही। जो अमरणधर्मा था, जो अमृत था, जो नहीं मरता है, जो शाश्वत है, सनातन है, तूने उससे जरा भी पहचान न की। और तू भी
मरेगा। तो जल्दी कर, अपने भीतर ही पहचान कर ले, नहीं तो कहीं तू भी यह न सोचते रहना कि तू देह है, शरीर
है, मन है—नहीं तो फिर तडूफेगा। इस अवसर को चूक मत। इस मौके
को ध्यान का एक उपाय बना ले। अपने को पहचानने की कोशिश कर, तेरे
भीतर भी वह है जो कभी नहीं मरता है। उसको पहचानते ही तू बेटे के भीतर भी जो कभी
नहीं मरता उसको पहचान लेगा। और दुख के पार होने का एक ही उपाय है कि मृत्यु के पार
हमें कुछ दिखायी पड़ जाए, अन्यथा हम दुख से कभी मुक्त नहीं हो
सकते हैं।
फिर बुद्ध ने कहा नष्ट हो जाने वाला ही नष्ट हुआ मरने वाला ही मरा
उपासक, किसी को प्रिय बनाओगे तो
शोक और भय उत्पन्न होता ही है अशोक होना है तो प्रिय न बनाओ अप्रिय न बनाओ। राग के
संबंध न जोड़ो। जीवन को बोध में लगाको राग में नहीं! जागने में लगाओ, निद्रा और तंद्रा में नहीं।
ऐसी
परिस्थिति में बुद्ध ने ये सूत्र कहे—
पियतो जायते सोको तण्हाय जायते भयं।
पियतो विप्पमुत्तस्स नत्थि सोको कुतो भयं।।
'प्रिय से शोक उत्पन्न होता है, प्रिय से भय उत्पन्न
होता है। प्रिय से मुक्त पुरुष को शोक नहीं है, फिर भय कहौ?
तण्हाय जायते सोको तण्हाय जायते भया।
तण्हय विप्पमुत्तस्स नत्थि सोको कुतो भयं।।
'तृष्णा से शोक उत्पन्न होता है, तृष्णा से भय
उत्पन्न होता है। तृष्णा से मुक्त हुए पुरुष को शोक नहीं है, फिर भय कहां?
जीवन में
दुख और भय एक साथ जुड़े हैं। जिस चीज से हमें भय उत्पन्न होता है, उसी से हमें शोक उत्पन्न होता है। जैसे मृत्यु हमें
भयभीत करती है, तो मृत्यु से ही हमें शोक उत्पन्न होता है।
और जब तक मृत्यु हमें भयभीत करती है, तब तक मृत्यु से शोक
उत्यन्न होता रहेगा। आज बेटा मरा है, कल बेटी मरेगी, परसों पत्नी मरेगी, नरसों तुम भी मरोगे, और हर बार दुख घना होगा, दुख घना होगा; रोज—रोज दुख घना होता जाता है।
छोटे
बच्चे जीवन में कुछ और क्या कर पाते हैं! सिर्फ दुख की पर्तें इकट्ठी करते चले
जाते हैं और बूढ़े होते जाते हैं। जैसे—जैसे दुख पर पर्तें जमती जाती हैं वैसे—वैसे
आदमी अकेला है आदमी का होता जाता है। कोरे
कागज की तरह आते हैं छोटे बच्चे और फिर लकीरों पर लकीरें दुख की लिखी जाती हैं।
हमारा जीवन दुख की एक कथा है।
हम यह
दुख कैसे लिखते हैं? सारे दुखों के मूल में
मृत्यु है। जहा भी हमें मृत्यु का भय लगता है, वहीं समझ लेना
कि अभी हम दुख की सीमा के भीतर हैं। जिस दिन तुम यह जान लोगे कि तुम्हारे भीतर कुछ
है जो मृत्यु नहीं मिटा सकेगी, चिता नहीं जला सकेगी, जिसे शस्त्र छेद नहीं पाते—कृष्ण ने कहा है : नैनं छिंदति शस्त्राणि,
नैनं दहति पावक:। और जिसे अग्नि नहीं जलाती, और
जिसे शस्त्र नहीं छेदते हैं, जब तक तुम उसे न जान लोगे,
तब तक भय। और जब तक भय, तब तक शोक।
तो बुद्ध
ने कहा, खोज अमृत को। और अमृत की
खोज में जाना हो तो प्रेय से हटो, श्रेय की तलाश करो।
'प्रिय से शोक उत्पन्न होता है। '
बुद्ध यह
कह रहे हैं कि बेटे की मृत्यु के कारण ही तू दुखी नहीं है, तूने उसे बेटा माना इसलिए दुखी है।
इस बात
को समझना।
मैंने सुना
है, एक घर में आग लगी। घर का मालिक
रोने लगा, चिल्लाने लगा, छाती पीटने
लगा। जीवनभर की कमाई जली जाती थी, भयंकर लपटें थीं, बुझने का कोई उपाय न था। तभी एक आदमी भागा आया, उसने
कहा, तुम व्यर्थ रो रहे हो, कल सांझ
मैने तुम्हारे बेटे को बात करते सुना, मकान उसने बेच दिया
है। वह आदमी बोला, सच! उसके आधे बहते आसू सूख गए। मकान अब भी
जल रहा है! मगर अब अपना नहीं है, तो बात खतम हो गयी।
लेकिन
तभी बेटा भागा हुआ आया, उसने कहा कि बात ही चली
थी, बयाना भी नहीं हुआ है, सौदा तो टूट
ही गया समझो। फिर बाप रोने लगा। अभी भी मकान वही का वही है, लेकिन
अब फिर अपना हो गया है।
जैसे ही
कोई चीज मेरी होती है वैसे ही पीड़ा, और जैसे ही मेरी नहीं रही, बात समाप्त हो गयी।
तुम्हारा बेटा मर जाए तो तुम दुखी हो रहे हो, मृत्यु के कारण
नहीं, मेरा था। तुम बेटे को जलाकर घर लौटो और घर तुम्हें कुछ
ऐसे कागज—पत्तर मिल जाएं जिनसे पता चले कि तुम्हारी पत्नी ने तुमसे धोखा किया था,
यह बेटा तुम्हारा था ही नहीं। बस, सब मामला
खतम। न केवल मामला खतम, तुम पत्नी को मारने कौ उतारू हो जाओ।
यह बेटे की मौत तो एक तरफ, यह तो बात ही, तुम तो सोचने लगो—अच्छा ही हुआ, यहं झंझट मिटी। मेरा—तेरा
शोक का जन्मदाता है।
तो बुद्ध
ने कहा, 'प्रिय से शोक उत्पन्न
होता है, प्रिय से भय उत्पन्न होता है। प्रिय से मुक्त पुरुष
को शोक नहीं, फिर भय कहां?'
एक—दूसरे
के पीछे चलती हैं चीजें। मेरा की गांठ बाध ली प्रेय की तलाश में, फिर कहीं गांठ खुल न जाए तो भय पैदा होता है। फिर
कहीं गांठ खुल जाए तो दुख पैदा होता है। एक—दूसरे के पीछे चीजें चलती हैं। तुम एक
कदम गलत दिशा में उठाओ, तो दूसरा कदम अपने आप उठ जाता है।
मैंने
सुना है, एक धर्मात्मा यहूदी
गृहस्थ का नियम था कि हर शुक्रवार को शाम को वे किसी भिक्षुक को शब्बाथ बिताने के
लिए अपने घर लाते थे। एक बार जब वे सज्जन अपने मुहल्ले के सिनागाग से एक भिक्षुक
को लेकर घर की ओर चले, तो उन्होंने देखा कि भिक्षुक के
पीछे—पीछे एक और फटेहाल आदमी भी चला आ रहा है, और उसके पीछे
एक और फटेहाल आदमी चला आ रहा है। उस गृहस्थ ने उस आदमी के बारे में पूछा तो भिक्षु
ने कहा, महाशय, वह मेरा दामाद है। और
मैं उसका पालन—पोषण करता हूं। खुद भिखारी हैं! वह उनके दामाद आ रहे हैं पीछे। और
उन्होंने कहा, उनके पीछे कौन चले आ रहे हैं, वह बोला कि मेरे दामाद का बेटा है। उसके पालन—पोषण का जिम्मा उसके ऊपर है।
ऐसी कतारें
बनती हैं। तुम एक को बुलाकर लाए तोंतुम एक को बुलाकर नहीं लाए, एक के पीछे दूसरा आता होगा! दूसरे के पीछे तीसरा आता
होगा। तुमने एक को बुलाने के लिए द्वार खोला कि तुमने सारे संसार को बुला लिया।
तुमने एक कदम उठाया गलत दिशा में कि हजार कदम उठ गए।
तो बुद्ध
कहते हैं, प्रिय मत बनाना, तो फिर भय भी न होगा, शोक भी न होगा; और अगर प्रिय न बनाया तो जो ऊर्जा प्रेय की दिशा में जाती थी, वह श्रेय की दिशा में जाएगी और तुम जो अमृत के पार है, उसका अनुभव कर सकोगे। अमृत का स्वाद तुम्हारे कंठ में आ जाए, फिर कैसा भय, फिर कैसा शोक!
'तृष्णा से शोक उत्पन्न होता है, तृष्णा से भय
उत्पन्न होता है। तृष्णा से मुक्त पुरुष को शोक नहीं है, फिर
भय कहां?'
सिर चढ़ी
धूल है
शायद
तुम्हें मालूम न हो
एक हसी
भूल है
शायद
तुम्हें मालूम न हो
फूल
खिलते हैं जो
पत्थर की
हथेली पर अलभ्य
हम वही
फूल हैं
शायद
तुम्हें मालूम न हो
तुम तो
सागर हो
बरसती
हैं घटाएं तुम पर
तृष्णा
लघुकूल है
शायद
तुम्हें मालूम न हो
कश्तियां
तट की अब
उद्दाम
तरंगों के बीच
शीर्ष
मल्ल हैं
शायद
तुम्हें मालूम न हो
फूल की
शक्ल—से ये
छद्य
सुदर्शन चेहरे
विष—बुझे
शूल हैं
शायद
तुम्हें मालूम न हो
देह
मंदिर है
तपोवन है
मेरा अंतस्तल
आर्य हम
मूल हैं
शायद
तुम्हें मालूम न हो
हमें
मालूम भी नहीं है कि क्या हो रहा है, क्या चल रहा है। जहा हमें सौंदर्य दिखायी पड़ता है, वहा
आखिर में हम विष—बुझे तीर ही पाते हैं। जहां धन दिखायी पड़ता है, वहां कुछ हाथ नहीं लगता, आखिर में राख हाथ लगती है।
क्या हो रहा है ' कैसा जीवन चल रहा है ' कहां जा रहे हैं? जिसको हम ताज समझकर सिर पर रखे हैं,
वह सब धूल सिद्ध होती है। और हमारे भीतर छिपा बैठा है हमारा श्रेष्ठ
रूप—
देह
मंदिर है
तपोवन है
मेरा अंतस्तल
आर्य हम
मूल हैं
शायद
तुम्हें मालूम न हो
और भीतर, हमारे भीतर वह श्रेष्ठ, चैतन्य,
आर्य—आर्य का मतलब हिंदू नहीं—आर्य का मतलब हमारे भीतर जो श्रेष्ठता
है। हम अनार्य बने बैठे हैं। प्रेय को खोजा तो अनार्य बन जाते हो, श्रेय को खोजा तो आर्य बन जाते हो।
आखिरी सूत्र, उसके पहले की घटना—
भगवान के जेतवन में
विहरते समय एक अनागामी स्थविर मरकर शुद्धावास ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए। मरते समय
जब उनके शिष्यों ने पूछा क्या भंते कुछ विशेषता प्राप्त हुई है? तब निर्मलचित स्थविर ने यह सोचकर कि यह भी क्या कोई
उपलब्धि है या विशेषता है चुप्पी ही साधे रखी। उनकी मृत्यु के पश्चात उनके शिष्य
रोते हुए भगवान के पास जाकर उनकी गति पूछे। भगवान ने कहा भिक्षुओ रोओ मत वह मरकर
शुद्धावास में उत्पन्न हुआ है। भिक्षुओ देखते हो तुम्हारा उपाध्याय कामों से रहित
चित्त वाला हो गया है जाओ खुशी मनाओ।
तब शिष्यों ने कहा पर उन्होंने मरते समय चुप्पी क्यों साधे रखी? हमने तो पूछा था उन्होंने बताया क्यों नहीं? भगवान ने कहा इसीलिए भिक्षुओ इसीलिए क्योकि निर्मल चित्त को उपलब्धि का
भाव नहीं होता।
और तब
उन्होंने यह गाथा कही।
यह घटना
महत्वपूर्ण है। अनागामी का अर्थ होता है बौद्ध परिभाषा में, जो दुबारा न आएगा, अब फिर न
आएगा, जिसका आगमन समाप्त हुआ। यह परम उपलब्धि है। संसार में
फिर न आने का अर्थ है, पक गए। संसार से जो सीखना था सीख लिया
है और संसार में जो होना था हो गए, अब दुबारा आने की कोई
जरूरत न रही। अनागामी आखिरी फल है। स्रोतापत्ति पहला फल है। ध्यान की धारा में
उतरना, पहला कदम। अनागामी हो जाना, तो
सागर में गिर गयी सरिता, मिलन हो गया सत्य से। अनागामी होकर
कोई मरे तो यह परम घटना है, यह परम उपलब्धि है।
भगवान के
जेतवन में विहार करते समय एक अनागामी स्थविर, एक वृद्ध भिक्षु मरकर शुद्धावास ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुए।
ब्रह्म
के साथ जो एक हो गया, वही ब्रह्मलोक। और जहा
शुद्धि परम हो गयी, जहां कुछ भी अशुद्ध न रहा, वही शुद्धावास है।
मरते समय
उनके शिष्यों ने पूछा, क्या भंते, कुछ विशेषता प्राप्त हुई है;
अब बुद्ध
के शिष्यों में जैसे—जैसे शिष्य वृद्ध हो जाते थे, योग्य हो जाते थे, समाधिस्थ हो जाते थे, तो बुद्ध उनको भेजते थे दूर—दूर औरों तक संदेश पहुंचाने को। तो बुद्ध के
जीते ही बुद्ध के बहुत से शिष्यों के भी शिष्य थे, क्योंकि
ये वृद्ध समाधिस्थ पुरुष दूर—दूर जाकर बुद्ध की खबर ले जाते, अनेक लोग इनसे दीक्षित होते। ये उपाध्याय कहलाते थे। ये बुद्ध की तरफ
इशारा करते थे। ये शिक्षण देते थे कि कैसे बुद्ध में लीन हो जाओ। लेकिन ये बीच का
सेतु बनते थे।
तो यह जो
स्थविर वृद्ध भिक्षु की मृत्यु हुई, उनके शिष्यों ने उनसे जाकर पूछा, भंते, कुछ विशेषता प्राप्त हुई है? आप तो जा रहे हैं,
हमें बता तो जाएं कम से कम कि कौन सी घटना घटी है आपके जीवन में।
अतंर्तम में इस समय क्या घट रहा है न आप क्या पाकर जा रहे हैं? आपकी क्या संपदा है? आप क्या होंगे? कहौ पैदा होंगे? पैदा होंगे कि नहीं पैदा होंगे?
लौटेंगे अब कि नहीं लौटेंगे? हमें कुछ कह
जाएं।
बात बड़ी
मीठी है। निर्मलचित्त स्थविर ने यह सोचकर कि यह भी क्या कोई उपलब्धि है या विशेषता
है, चुप्पी ही साधे रखी।
उपलब्धि
तो अहंकार की ही भाषा है। जब तुम कहते हो, यह मैंने पा लिया, तो पाने से भी मैं ही मजबूत होता
है। परम उपलब्धि का तो दावा नहीं किया जा सकता, क्योंकि जब
तक दावेदार है, तब तक परम उपलब्धि नहीं हो सकती। मैं जब तक
है, तब तक तुम कैसे दावा करोगे? और मैं
ही दावेदार है।
तो दावा
तो हो ही नहीं सकता परम उपलब्धि का। परम उपलब्धि के संबंध में
तो चुप रह जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं
है। चुप्पी कोई समझ ले तो समझ ले, न
समझे तो उसकी वह जाने।
इस वृद्ध
स्थविर को साफ दिखायी पड़ रहा है कि अब लौटूंगा नहीं, यह परमदशा आ गयी है—अब तुम यह मत सोचना कि इसका पता कैसे चलेगा? जब परमदशा आती है तो पता चलेगा ही। जैसे अंधेरी रात में एकदम उजेला हो जाए
तो पता नहीं चलेगा! सिर में दर्द होता है तो पता चलता है, दर्द
चला जाता है तो पता चलता है। जीवनभर पीड़ा रही किसी न किसी तरह की, सारी पीड़ा चली गयी, सब तिरोहित हो गयी, एकदम परम आनंद की वर्षा होने लगी भीतर, तो पता नहीं
चलेगा? अंधेरा था जन्मों—जन्मों का, सब
कट गया, आखिरी पर्तें बची थीं वे भी टूट गयीं, आखिरी पर्दा भी उठ गया, तो इस स्थविर को साफ दिखायी
पड़ रहा है कि क्या हो गया। लेकिन सोचा कि यह भी क्या कोई उपलब्धि है!
दो
कारणों से यह उपलब्धि नहीं है। पहली तो बात, उपलब्धि है अहंकार की भाषा। मैंने पा लिया, यह बात
ही उस परम के संबंध में नहीं कही जा सकती। दूसरी बात, यह
उपलब्धि नहीं कही जा सकती, क्योंकि यह हमारा स्वभाव है। यह
हमने पा लिया, ऐसा थोड़े ही, यह तो सदा
से था ही, हम भूल गए थे, बस स्मरण किया
है। इसलिए भी इसको उपलब्धि नहीं कह सकते।
जब बुद्ध
को ज्ञान हुआ और किसी ने पूछा, क्या
पाया? तो बुद्ध ने कहा, पाया कुछ भी
नहीं, जो मिला ही था उसे जाना; जो था
ही, जो सदा से था, हमने आख न डाली थी
अपने खजाने पर, बस इतनी ही भूल थी, खजाना
तो था ही; इसलिए पाया, ऐसा कहना ठीक
नहीं, प्रत्यभिज्ञा हुई, पहचान हुई,
पहचाना, जाना। इसलिए भी इस परमस्थिति को
उपलब्धि नहीं कहा जा सकता।
तो वृद्ध
स्थविर चुप ही रह गए। कुछ बोलना ठीक न लगा। कहें कि अनागामी हो गया हूं अब नहीं
आऊंगा, तो यह भी आने का एक उपाय
हो जाएगा। क्योंकि फिर थोड़ा मैं अभी शेष रह गया। कहें कि बहुत कुछ पा लिया,
पा लिया जो पाना था, तो भी अज्ञान की ही घोषणा
होगी।
उपनिषद
कहते हैं, जो कहे मैंने जान लिया,
जानना कि नहीं जानता है। सुकरात ने कहा है कि जब मैंने जाना तो जाना
कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूं।
तो यह
वृद्ध स्थविर चुप रह गया। लेकिन चुप्पी को तो बहुत कम लोग समझ सकते हैं। शब्दों को
ही कम लोग समझ पाते हैं, चुप्पी को तो कौन समझेगा!
कहो—कहो तब नहीं सुन पाते हैं, तो बिना कही बात तो कौन
सुनेगा! भिक्षु तो बड़े उदास हो गए। और गुरु ऐसे ही मर रहा है खाली हाथ, कुछ भी नहीं बता रहा है कि कुछ मिला कि नहीं मिला, चित्त
में बड़ी तकलीफ भी हुई होगी। मौत की तो तकलीफ हुई ही हुई—गुरु मर रहा है—साथ में यह
भी तकलीफ हुई होगी कि ऐसे आदमी के शिष्य होकर हमको क्या होगा? यह तो मर गए और बिना कुछ पाए मर गए और हम इनके पीछे भटक रहे हैं। हम
व्यर्थ ही परेशान हो रहे हैं।
तो वे
बुद्ध के पास गए। उनका रोना दो कारणों से था। एक तो गुरु मर गया। लेकिन उससे भी
बड़ा कारण यह था कि हम भी किसके चक्कर में पड़े रहे! कुछ इसको मिला ही नहीं था!
भगवान ने
कहा, भिक्षुओं, रोओ मत, तुम्हारा गुरु शुद्धावास में उत्पन्न हुआ
है। परमशुद्धि में जागा है। भिक्षुओ, देखते हो, तुम्हारा उपाध्याय कामों से रहित चित्त वाला हो गया है, अब उसकी कोई कामना नहीं बची है, इसलिए लौटेगा नहीं।
कामना लौटा लाती है। कामना बार—बार खींच लेती है। कामना नीचे उतारती है। कामना ही
अधोगमन है।
तुम्हारा
गुरु ऊर्ध्वगामी हो गया है।
वह मुक्त
हो गया पृथ्वी से। अब पृथ्वी में कोई कशिश उसे खींचने वाली नहीं बची। अब वह उठता
ही जाएगा शुद्धावास में।
जैनों के
पास इसके लिए प्रतीक है, जैसे कि कोई लेकड़ी के
टुकड़े को मिट्टी से खूब लीप—पोतकर पानी में डाल दे, तो
मिट्टी के वजन के कारण लकड़ी का टुकड़ा डूब जाएगा। फिर पानी की धार आती रहेगी,
जाती रहेगी, मिट्टी गलती रहेगी, बहती रहेगी। एक घड़ी आएगी कि सारी मिट्टी बह जाएगी, फिर
लकड़ी का टुकड़ा उठेगा, पानी की सतह पर आकर तैर जाएगा। ऐसा जैन
कहते हैं, सिद्ध पुरुष संसार की सतह पर उठ जाते हैं, लोक की आखिरी सीमा पर पहुंच जाते हैं जहां अलोक शुरू होता है। उसी स्थिति
को बौद्ध भाषा में कहते हैं—शुद्धावास, ब्रह्मलोक।
मनुष्य
के पार हो गए, परमात्मा हो गए, अब लौटने का कोई कारण न रहा। मिट्टी की पकड़ न रही। जब तक तुम समझते हो मैं
देह हूं तब तक मिट्टी की तुम पर पकड़ है, तब तक तुम मिट्टी ही
हो। जिस दिन तुमने समझा कि मैं देह नहीं हूं उसी दिन मिट्टी की पकड़ छूटी। और
धीरे—धीरे मिट्टी बह जाती है, तुम शुद्ध हो जाते हो।
तुम्हारी चेतना ऊर्ध्वगामी हो जाती है। ऊपर उठने लगती है।
जाओ, खुशी मनाओ. तुम्हारा उपाध्याय कामना से मुक्त हो गया
दै, अनागामी हो गया है, बुद्ध ने कहा।
तब शिष्यों ने कहा, पर उन्होंने मरते समय चुप्पी क्यों साधे
रखी? हमें बताया क्यों नहीं?
उन्होंने
तो बताया, चुप्पी से ही बताया। कुछ
बातें चुप्पी से ही कही जाती हैं। कुछ बातें कहो तो खराब हो जाती हैं। कुछ बातें
बिना कहे ही कही जाती हैं। मगर उसके लिए तो बड़ा संवेदनशील बोध चाहिए उसे समझने को,
उस मौन को समझने को। उस इशारे को पहचानने के लिए तो बड़ी ध्यान की दशा
चाहिए।
बुद्ध ने
कहा, इसीलिए भिक्षुओ, इसीलिए, क्योंकि निर्मलचित्त को उपलब्धि का भाव नहीं
होता है।
जहां
उपलब्धि है, वहा उपलब्धि का भाव नहीं
है। जहा परमात्मा से मिलन हुआ, वहां मिलन हो गया है, ऐसी बात भी व्यर्थ हो जाती है। जहां जान लिया, वहा
क्या कहो कि जान लिया है! कहने में कुछ सार न रहा। शब्द तो वहीं तक हैं, वहीं तक कह पाते हैं, जहां तक शब्दों की सीमा है।
शब्द तो
सत्य को कभी नहीं कह पाते हैं। ज्यादा से ज्यादा सत्य के संबंध में कुछ तुतलाते
हैं, कह नहीं पाते। जैसे छोटे
बच्चे तुतलाते हैं। कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन तुतलाते हैं।
मां को समझना पड़ता है कि क्या मतलब है उनका, मतलब लगाना पड़ता
है। ऐसे ही शब्द हैं, सत्य के संबंध में तुतलाते हैं,
कुछ कह नहीं पाते। बुद्ध ने कहा, इसीलिए
भिक्षुओ, इसीलिए, क्योंकि जो उपलब्ध हो
गया, उसे उपलब्धि का भाव नहीं होता है। वहां कोई बचा ही नहीं
जिसको उपलब्धि का भाव हो। नहीं कोई बचा, इसी को तो शुद्ध
अवस्था कहते हैं। जहां कोई मैं नहीं रहा, वहीं तो परम शुद्धि
है। और तब उन्होंने यह अपूर्व सूत्र कहा—
छंदजातो अनक्खातो मनसा व फुटो सिया।
कामेसु च अप्पटिवद्धचित्तो उद्धसोतो बुच्चत्ति।।
'अनख्यात में जिसका रस है, जिसके मन ने उस रस को छू
लिया है—या उस रस ने जिसके मन को छू लिया है—और कामभोगों में जिसका चित्त अब बंधा
नहीं है, वह ऊर्ध्वस्रोता कहा जाता है। '
तुम्हारा
गुरु ऊर्ध्वस्रोता हो गया। समझो।
छंदजातो अनक्खातो.....।
यह बड़ा
प्यारा शब्द है। जो नहीं कहा जा सकता—अनख्यात है, जिसको कहने के लिए भाषा बनी नहीं है, जिसको कहने का
कोई उपाय ही नहीं है, अनख्यात, अनिर्वचनीय—अनक्सातो
छंदजातो; जिसे, जो नहीं कहा जा सकता,
उसमें रस आ गया है। कोई उसे परमात्मा कहता है, कोई उसे निर्वाण कहता है, कोई उसे आत्मा कहता है,
पर ये सब शब्द कामचलाऊ हैं। न तो वह परमात्मा शब्द में समाता है,
न आत्मा शब्द में समाता है, न निर्वाण में,
न मोक्ष में, सब शब्द छोटे पड़ जाते हैं।
क्योंकि शब्दों की सीमा है, वह असीम है, विराट है। शब्द तो छोटे—छोटे आगन हैं, ण्वह तो पूरा
आकाश है।
छंदजातो अनक्खातो........।
व जिसे
उस अव्याख्य में छंद हो गया, रस
हो गया, जिसका हृदय तरंगित होने लगा, लयबद्ध
हो गया जो उस अनख्यात से, जो उस अनिर्वचनीय के साथ संगीत में
बंध गया, छंदोबद्ध हो गया।
छंदजातो अनक्खातो मनसा व फुटो सिया।
और जिसके
मन में उस रस की वर्षा हो गयी, उस
रस ने जिसके मन को डुबा दिया, जो स्नान कर लिया उसमें,
ऐसा व्यक्ति स्वभावत: कामभोगों से मुक्त हो जाता है। क्योंकि परमभोग
जब हो जाए तो क्षुद्र भोगों की कौन कामना करता है। जिसे परमात्मा का भोग मिल गया,
वह फिर क्या चाहेगा और किसी भोग को! फिर सब भोग फीके पड़ गए। छोड़ने
नहीं पड़ते हैं, छूट जाते हैं। व्यर्थ होने के कारण छूट जाते
हैं। जिसको सार हाथ में आ गया, फिर वह असार को नहीं पकड़ता।
ऐसा
व्यक्ति बुद्ध कहते हैं, ऊर्ध्वस्रोता कहा जाता
है।
कामेसु व अप्पटिवद्धचित्तो........।
जो सदा
से बंधा था चित्त कामवासनाओं में, वे
सारे बंधन गिर गए। जंजीरें टूट गयीं, बेड़ियां टूट गयीं। वह
चित्त मुक्त हो गया, वह चित्त मुक्त होकर ऊपर उठने लगा।
कामेसु व अप्पटिवद्धचित्तो उद्धसोतो ति बुच्चति।
ऐसे
चैतन्य को ऊर्ध्वगामी, ऊर्ध्वस्रोता कहा जाता
है। हम सब जब तक कामना से बंधे हैं, अधोगामी, नीचे की तरफ जाने वाले।
देखा
तुमने, पानी नीचे की तरफ जाता है,
वह है अधोगामी। जहा खड्डा हो उसी की तलाश करता है। ऊंचाई से हटता है,
ऊंचाई में उसे रस नहीं। पहाड़ पर गिरेगा तो पहाड़ पर नहीं रुकेगा,
भागेगा एकदम नीचे की तरफ। नदी—झरने बन जाएगा और भागेगा, खाई—खड्ड खोजेगा। छोटे—मोटे खाई—खड्डों से भी उसका मन नहीं भरता, भागता ही रहेगा जब तक कि समुद्र का खड्डा न मिल जाए—बड़ा खड्डा न मिल जाए।
बड़े से बड़े खड्ड में जाकर रुकेगा।
लेकिन
यही पानी जब सूर्य के उत्ताप से तपता है, वाष्प बनता है, भाप बनता है, ऊपर
की तरफ उठने लगता है, आकाश की तरफ, बादलों
की तरफ, ऊर्ध्वगामी हो जाता है। वही पानी भाप बनकर
ऊर्ध्वगामी हो जाता है। पानी वही है। पानी बनकर अधोगामी हो जाता है।
तो
चैतन्य की दो दशाएँ हैं। जिसको हम चित्त कहते हैं, वह पानी है। और जिसको हम आत्मा कहते हैं, वह भाप है।
ये चैतन्य की दो दशाएं हैं। जिसको हम मन कहते हैं, चित्त
कहते हैं, वह पानी है—वह नीचे की तरफ जाता है, वह अधोगामी है। और जिसको हम आत्मा कहते हैं, वह यही
पानी है जो तपश्चर्या से, तप से भाप बन गया, वाष्पीभूत हो गया, उड़ने लगा ऊपर की तरफ, पंख मिल गए जिसे—तों ऊर्ध्वगामी।
नीचे चलो
तो संसार है, ऊपर चलो तो परमात्मा है।
छंदजातो
अनक्खातो.........।
इस
अव्याख्य में जिसको रस आ गया, जो
नाचने लगा मग्न होकर, वह फिर नहीं लौटता। जो मयूर हो गया,
फिर नहीं लौटता।
खिड़की से
उड़ आयी गंध
साथ लिए
रस—भीगे छंद
भीत टंगे
पुष्पों के चित्र
बिखराते
लगते मकरंद
किसी नयी
कविता की पंक्ति
अधरों पर
हो उठी अधीर
परस गयी
फागुनी समीर
जैसे
फागुन आता है न, फूल खिल जाते हैं न,
गंध तैरती, ऐसा ही एक भीतर का फागुन भी है।
खुले खिड़की भीतर की।
खिड़की से
उड़ आयी गंध
साथ लिए
रस—भीगे छंद
भीत टंगे
पुष्पों के चित्र
बिखराते
लगते मकरंद
किसी नयी
कविता की पंक्ति
अधरों पर
हो उठी अधीर
परस गयी
फागुनी समीर
टेसू
लहके पुरवा मारे
रंग भरी
पिचकारी
ढोल—मृदंग
मजीरे चढ़ते
स्वर की
नयी अटारी
एक बरस
के बाद आज
मन सुगना
बहका रे
एक बरस
के बाद आज
आज मन
सुगना बहका रे
बरस—बरस
के बाद
जन्म—जन्म
के बाद
आज फिर
फागुन महका रे
छंदजातो अनक्खातो.........
जिसको उस
अव्याख्य में, निर्वाण में छंद आ गया,
रस आ गया, जो मगन हो गया, मस्त हो गया, जो नाच उठा, जो
गीत—गीत हो गया, जो भूल ही गया अहंकार को, बात ही गयी, मैं का भाव ही न रहा, वही नाचता हुआ चैतन्य, वही भीतर की मदिरा से मस्त चैतन्य
ऊर्ध्वस्रोता हो जाता है।
आज इतना ही।
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