रोम रोम रस पीजिए-(साधना-शिविर)
ओशो
सातवां-प्रवचन
दूसरे पर श्रद्धा आत्म-अश्रद्धा की घोषणा है
अब तक सत्संग के केंद्र में सदगुरु, कोई संत, कोई महात्मा रहा है; सत्संग के केंद्र में गुरु रहा
है; कहीं जहां सत्य मिल सके वहां जाना चाहिए, ऐसा भाव रहा है। लेकिन मेरी दृष्टि में, सत्संग के
केंद्र में गुरु नहीं, वरन शिष्य ही है। यह सवाल नहीं है कि
किससे आप सीखने जाएं, सवाल यही है कि क्या आपमें सीखने की
क्षमता विकसित हुई? यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि आप कहां
जाएं, यह महत्वपूर्ण है कि आपके भीतर सीखने का दृष्टिकोण,
एटिटयूड ऑफ लघनग है या नहीं?
यदि आपके भीतर सीखने की क्षमता है, तो सारा जीवन ही
सत्संग हो जाता है। उठना-बैठना, पक्षी और पौधे भी सत्संग बन
जाते हैं, सामान्य मनुष्य भी सत्संग बन जाते हैं। लेकिन
सीखने की दृष्टि न हो और आप स्वयं परमात्मा के साथ भी निवास करें, तो भी स्मरण रखें, सत्संग नहीं होगा।
सत्संग किसी और
पर नहीं, आपके होने पर निर्भर है, आपके
जीवन के ढंग पर। खुली हुई आंख होनी चाहिए तो पूरा जीवन ही सत्संग है, पूरा जीवन एक शिक्षण है। जन्म से लेकर मृत्यु तक अबाध चारों तरफ जो जीवन
का सागर है, वही, वही बहुत-बहुत अर्थों
में, बहुत-बहुत रूपों में, बहुत सी
दिशाओं से उपस्थित होता है; और अगर हमारे भीतर द्वार हो,
हृदय खुला हो, तो सब भांति उसकी लहरें हमारे
जीवन को कुछ दे जाती हैं।
लेकिन मैं तो यह देखता हूं कि सत्संग का यही खयाल है कि किसी गुरु के
पास जाकर आप बैठें और उससे सीखें। इस धारणा के कारण सीखने वाला तो कम महत्वपूर्ण
हो गया और सिखाने वाला बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। सारी गुरुडम इसी बात से पैदा
हुई है। और वे जो गुरु हैं वे भी यही सिखाते हैं कि बिना गुरु के ज्ञान नहीं होगा, इसलिए आओ और हमें गुरु बनाओ। जब कि सचाई यह है कि जिस आदमी को सत्य का
अनुभव हुआ हो, उसे तो खयाल भी न होगा कि वह आपका गुरु बन
जाए। और अगर आप उससे कहें भी तो उसे हैरानी ही होगी। क्योंकि गुरु बनने की जो दौड़
है, वह कोई सत्य का साक्षात किसी को हुआ हो, किसी के जीवन में प्रकाश उतरा हो, उसके चित्त में
नहीं हो सकती है।
यह गुरु होने की दौड़ भी अधिकार की और शक्ति पाने की दौड़ है। और इसीलिए
तो एक गुरु दूसरे गुरु के विरोध में खड़ा है। एक गुरु अपना घेरा बनाए हुए है, दूसरा गुरु अपना घेरा बनाए हुए है। और वे गुरु यह भी समझाते हैं कि हम ही
सदगुरु हैं, और किसी के पास मत जाना, और
सब मिथ्या गुरु हैं। यह सारा का सारा एक व्यवसाय और धंधा बन गया। और इस धंधे के
केंद्र पर मनुष्य-जाति को बहुत हानि झेलनी पड़ी है।
तो मैं उस केंद्र को ही बदल देने के लिए उत्सुक हूं। गुरु महत्वपूर्ण
नहीं है सत्संग में, सत्संग में महत्वपूर्ण हैं आप, आपकी
सीखने और देखने की दृष्टि, आपका खुला हुआ मन। और तब फिर किसी
व्यक्ति का सवाल नहीं है, जीवन में जहां भी आप हैं, सब तरफ सीखने को बहुत है।
एक मुसलमान फकीर मरने को था। किसी ने उससे पूछा मरते वक्त कि तुमने
किससे सीखा ज्ञान?
उसने कहा, बड़ा कठिन है। किस-किस के नाम लूं? जीवन में एक भी क्षण ऐसा नहीं बीता जब मैंने किसी से कुछ न सीखा हो। एक
बार रास्ते से निकलता था, एक छोटा सा बच्चा हाथ में दीया
जलाए हुए कहीं जा रहा था। मैंने उस बच्चे से पूछा कि क्या बेटे तुम बता सकते हो कि
दीये में जो ज्योति है यह कहां से आई है? मैंने सोचा था कि
छोटा बच्चा है, चकित होकर रह जाएगा, उत्तर
न दे पाएगा। लेकिन उस बच्चे ने क्या किया? उसने फूंक मार दी
और दीये को बुझा दिया और मुझसे कहा कि अब तुम ही बताओ कि ज्योति कहां चली गई है?
मैंने उस बच्चे के पैर पड़ लिए, मुझे एक गुरु
मिल गया था। और मैंने जाना कि छोटे से बच्चे के प्रति भी यह भाव लेना कि वह छोटा
है, गलत है। वहां भी कुछ रहस्यपूर्ण मौजूद हुआ है, वहां भी कुछ जन्मा है। केवल उम्र में पीछे होने से उसे छोटा मान लेना भूल
है। मेरे पास कोई उत्तर न था। तब मैंने जाना कि जो मैंने पूछा था वह बड़ा
अज्ञानपूर्ण था। और तब मैंने जाना कि जहां तक उस प्रश्न के उत्तर का संबंध है,
मैं भी उतना ही बच्चा हूं जितना वह बच्चा है। मेरे बुजुर्ग होने का
भ्रम टूट गया। और यह भ्रम टूट जाना एक अदभुत शिक्षा थी जो एक छोटे से बच्चे ने
मुझे दी थी, वह मेरा गुरु हो गया था।
और एक बार, उस फकीर ने कहा कि मैं एक गांव में ठहरा हुआ था। और
एक औरत भागी हुई आई, उसके कपड़े अस्तव्यस्त थे, उसने बुर्का न ओढ़ रखा था। उसने आकर मुझसे पूछा कि क्या आपने किसी आदमी को
यहां से निकलते देखा है? तो मैंने उससे कहा कि बदतमीज औरत,
पहले अपने कपड़े ठीक कर और फिर मुझसे कुछ पूछ। उस स्त्री ने कहा,
माफ करें, मैं तो समझी कि आप परमात्मा के
दीवाने और प्यारे हैं। मेरा प्रेमी इस रास्ते से निकलने वाला है, मैं उसे खोजने निकली हूं, वर्षों के बाद इधर से वह
आने को है। तो मैं तो उसके प्रेम में इतनी दीवानी हो गई कि वस्त्रों की कौन कहे,
मुझे अपनी देह की भी कोई सुध नहीं! लेकिन तुम परमात्मा के प्रेम में
इतने भी दीवाने न हो सके कि दूसरे के वस्त्र तुम्हें दिखाई न पड़ें!
उस फकीर ने कहा, मैंने उसके पैर पड़ लिए और मैंने
कहा, तेरा प्रेम मुझसे ज्यादा गहरा है। और मैं सोचता था कि
मैं परमात्मा का प्रेमी हूं, तूने बता दिया कि नहीं हूं।
जिसे अभी दूसरों के वस्त्र भी दिखाई पड़ते हैं, वह क्या
परमात्मा का प्रेमी होगा? जो प्रेम में इतना भी नहीं,
इतना भी नहीं डूब पाया जितना कि एक सामान्य स्त्री अपने प्रेमी के
खयाल में डूब जाती है! तो वह स्त्री मेरी गुरु हो गई।
और उस फकीर ने कहा, एक बार एक गांव में मैं आधी रात
भटका हुआ पहुंचा। गांव के सारे लोग सो गए थे, सिर्फ एक आदमी
एक मकान के पास, दीवाल के पास बैठा हुआ मुझे मिला। मेरे मन
में खयाल हुआ कि हो न हो यह कोई चोर होना चाहिए। इतनी रात किसी दूसरे के मकान की
दीवाल से यह कौन टिका है? मेरे मन में यही खयाल उठा कि कोई
चोर होना चाहिए। लेकिन उस आदमी ने मुझसे पूछा, राहगीर,
भटक गए हो? चलो, कृपा
करो, मेरे घर में ठहर जाओ, अब तो रात
बहुत गहरी हो गई और सरायों के दरवाजे भी बंद हो चुके हैं। वह मुझे अपने घर ले गया
और मुझे सुला कर उसने कहा कि मैं जाऊं, रात्रि में ही मेरा
व्यवसाय चलता है। तो मैंने पूछा, क्या है तुम्हारा व्यवसाय?
उसने कहा कि परमात्मा के एक फकीर से झूठ न बोल सकूंगा, मैं एक गरीब चोर हूं।
वह चोर चला गया। और उस फकीर ने कहा कि मैं बहुत हैरान रह गया, इतनी सचाई तो मैं भी नहीं बोल सकता था। मेरे मन में भी कितनी बार चोरी के
खयाल नहीं उठे! और मेरे मन में भी कौन-कौन सी बुराइयां नहीं पाली हैं! लेकिन मैंने
कभी किसी को नहीं कहीं। इतना सरल तो मैं भी न था जितना वह चोर था। और रात जब पूरी
बीत गई तो वह चोर वापस लौटा, धीरे-धीरे कदमों से घर के भीतर
प्रवेश किया ताकि मेरी नींद न खुल जाए। मैंने उससे पूछा, कुछ
मिला? कुछ लाए? उस चोर ने कहा, नहीं, आज तो नहीं, लेकिन कल
फिर कोशिश करेंगे। वह खुश था, निराश नहीं था।
फिर तीस दिन मैं उसके घर में मेहमान रहा और वह तीस दिन ही घर के बाहर रोज
रात को गया और हर रोज खाली हाथ लौटा और सुबह जब मैंने उससे पूछा कि कुछ मिला? तो उसने कहा, नहीं, आज तो नहीं,
लेकिन कल जरूर मिलेगा, कल फिर कोशिश करेंगे।
फिर महीने भर के बाद मैं चला आया। और जब मैं परमात्मा की खोज में गहरा डूबने लगा
और परमात्मा का मुझे कोई कोर-किनारा न मिलता था और मैं थक जाता था और हताश हो जाता
था और सोचने लगता था कि छोड़ दूं इस दौड़ को, खोज को, तब मुझे उस चोर का खयाल आता था जो रोज खाली हाथ लौटा, लेकिन कभी निराश न हुआ और उसने कहा कि कल फिर कोशिश करेंगे। और उसी चोर के
बार-बार खयाल ने मुझे निराश होने से बचाया। जिस दिन, जिस दिन
मुझे परमात्मा की ज्योति मिली, उस दिन मैंने अपने हाथ जोड़े
और उस चोर के लिए प्रणाम किया, अगर वह उस रात मुझे न मिला
होता तो शायद मैं कभी का निराश हो गया था।
ऐसे उस फकीर ने बहुत सी बातें कहीं जिनसे उसने सीखा।
जिंदगी चारों तरफ बहुत बड़ी शिक्षा है। जिंदगी चारों तरफ बहुत बड़ा सत्य
है। जिंदगी चारों तरफ रोज-रोज खड़ी है द्वार पर। हमारी आंखें बंद हैं और हम पूछते
हैं: सत्संग करने कहां जाएं? और हम पूछते हैं: किसके चरण
पकड़ें, किसको गुरु बनाएं? और जिंदगी
चारों तरफ खड़ी है सब कुछ लुटा देने को, सब कुछ खोल देने को,
और उसके प्रति हमारी आंखें बंद हैं और हृदय बंद है।
तो मैं नहीं कहता कि सत्संग करने कहीं जाएं। वैसा हृदय बनाएं अपना कि
चौबीस घंटे सत्संग हो जाए। जिंदगी में सब कुछ ऐसा है कि जिससे सीखा जा सके, पाया जा सके, जाना जा सके। कोई दृष्टि खुल जाए,
कोई अंतर्दृष्टि खुल जाए।
लेकिन ये सत्संग करने वाले लोग, जो कहीं और खोजने चले
जाते हैं, ये कभी न पा सकेंगे, कभी न
पा सकेंगे, इनके पास बंद आंखें थीं। अन्यथा ये जीवन से ही पा
लेते। और बंद आंखें लेकर ये कहीं भी चले जाएं, क्या फर्क
पड़ेगा? कहीं भी जाएं, कहीं भी खोजें,
कुछ भी इन्हें नहीं मिलेगा। क्योंकि जो द्वार खुले चाहिए वे द्वार
तो बंद हैं।
तो मैं नहीं कहता कि सत्संग करने कहीं जाएं। मैं तो यह कहता हूं कि वह
दृष्टि बनाएं खुली हुई जो सीख सकती है। अपने बच्चे से सीखें, अपने नौकर से, अपने घर के बाहर खड़े हुए भिखारी से,
चारों तरफ...दरख्तों से, पौधों से...जो सीख
सकते हैं, जो जान सकते हैं, वे कहीं से
भी जान लेते हैं। एक दरख्त से सूखा गिरा हुआ पत्ता भी दृष्टि को खोल सकता है;
आंख खुल सकती है। लेकिन उसकी तैयारी चाहिए। और इस तैयारी में गुरु
का कोई भी मूल्य नहीं है, इस तैयारी में हमेशा उसका मूल्य है
जो खोज पर निकला है।
तो मैं नहीं कहता कि गुरु जरूरी है ज्ञान के लिए। मैं कहता हूं, सीखने की क्षमता जरूरी है। आध्यात्मिक जीवन में गुरु नहीं होते, केवल शिष्य होते हैं। गुरु नहीं होते, टीचर्स नहीं
होते, केवल डिसाइपल्स होते हैं। और जहां गुरु भी होते हों,
समझना कि वहां धंधा होता होगा धर्म के नाम पर।
लेकिन आज तो हालतें उलटी हो गई हैं। शिष्य तो कोई भी नहीं है, गुरु करीब-करीब सभी हैं।
एक युवक एक आश्रम में पहुंचा था। उसने आश्रम के प्रधान से जाकर कहा, मैं भी इस आश्रम में आया हूं सीखने, सत्संग करने,
सत्य की खोज करने, साधना करने।
तो उस गुरु ने कहा, उस प्रधान ने कहा, हमारे आश्रम में दो तरह के लोग हैं: एक तो शिष्य हैं सीखने वाले और एक
गुरुजन हैं सिखाने वाले। लेकिन शिष्य होना बहुत कठिन है, सीखना
बड़ी तपश्चर्या है, सीखना बड़ा श्रम है, बहुत
कठिनाई होगी। क्या तुम शिष्य बनना चाहते हो?
उसने सारी कठिनाइयां बताईं कि ये-ये कठिनाइयां हैं। उस युवक ने कहा कि
नहीं, ये तो बहुत ज्यादा कठिनाइयां हैं। अब कृपा करके यह
बताइए कि गुरु होने के लिए क्या-क्या करना पड़ता है?
उस प्रधान ने कहा, गुरु होने के लिए कोई विशेष काम
नहीं करना पड़ता, गुरु बनने की तरकीब आनी चाहिए, तो कोई भी गुरु बन सकता है। बोलना आना चाहिए, समझाना
आना चाहिए, तो कोई भी गुरु बन सकता है।
वह युवक बोला, तो फिर मुझे गुरु ही बना लीजिए। बोलना भी मुझे आता है,
समझाना भी मुझे आता है।
वह गया था सत्य की खोज में, लेकिन गुरु बन गया।
अक्सर लोग सत्य की खोज में जाते हैं सत्संग करने और धीरे-धीरे दूसरों को सत्संग
करवाने लगते हैं और यह भूल ही जाते हैं कि वे सत्संग करने आए थे। असल में सीखने की
तो कोई दृष्टि नहीं है, सीखने के लिए जो सरल खुला हुआ हृदय
चाहिए वह नहीं है।
उसी के लिए हम इधर तीन दिनों में कुछ विचार करते हैं कि कैसे सरल हृदय
हो जाए। ज्ञान से भरा हुआ हृदय सरल नहीं होगा, वह मैंने पहले दिन
कहा। कल्पना से भरा हुआ हृदय भी सरल नहीं होगा, वह मैंने आज
सुबह आपसे कहा। कल और कुछ बात करूंगा कि सरल हृदय पूरी तरह कैसे हो जाए। सरल हृदय
हो जाए तो सारा जीवन सत्संग है, सारा जीवन शास्त्र है,
सारा जीवन गुरु है। और सब शास्त्र तो मनुष्य के बनाए हुए हैं,
लेकिन यह जीवन तो परमात्मा का ही बनाया हुआ है। और सब बातें तो
मनुष्य की रची हुई हैं, लेकिन ये पौधे, ये पक्षी, ये पहाड़, ये पर्वत,
ये मनुष्य, यह सब कुछ, ये
चारों तरफ जो फैला है यह, यह तो परमात्मा का ही है। और जो
इससे न सीख सकेगा, जो परमात्मा के शास्त्र से न सीख सकेगा,
वह और कहां सीख सकेगा?
परमात्मा के इस शास्त्र के प्रति अपने हृदय को खोलें। वही खोल सकेगा
जो मनुष्य के शास्त्रों को विदा दे देता है। वही परमात्मा के इस शास्त्र के प्रति
अपने मन को खोल पाता है। और वह खोल ले तो सब जगह सत्संग है।
एक मित्र ने पूछा है कि चेतना का तो स्वभाव है
तर्क करना, कल्पना करना। शून्य होना तो चेतना का कोई स्वभाव नहीं
है। तो आप जो यह कहते हैं कि चित्त शून्य हो जाए, यह तो बड़ी
गैर-कुदरती, बड़ी अस्वाभाविक, अननेचुरल
बात कहते हैं।
जिन्होंने समुद्र को तूफान में देखा हो, उन्हें खयाल करना भी
मुश्किल होगा कि तूफान समुद्र का स्वभाव नहीं है और ऐसे वक्त भी होते हैं जब तूफान
नहीं होता और समुद्र होता है। समुद्र में उठी हुई लहरें समुद्र का स्वभाव नहीं हैं,
समुद्र बिना लहरों के भी होता है।
मन पर उठे हुए विचार और कल्पनाएं, समुद्र पर उठी हुई
लहरों की भांति हैं। और स्मरण रहे: लहर तो समुद्र है, लेकिन
समुद्र लहर नहीं है। लहर में भी समुद्र है, लेकिन समुद्र लहर
ही नहीं है, समुद्र बिना लहर के भी होता है। हालांकि लहर कभी
बिना समुद्र के नहीं होती। ऐसी कभी कोई लहर देखी है जो बिना समुद्र के हो? लेकिन ऐसा समुद्र तो देखा जा सकता है जो बिना लहर के हो।
विचार और तर्क बिना मन के नहीं हो सकते हैं, लेकिन मन बिना विचार और तर्क के हो सकता है। और अगर थोड़ी खोज-बीन करेंगे
तो बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है, कोई शून्य हो जाने की भी
जरूरत नहीं है कि तभी यह पता चले कि चेतना शून्य होती है। अगर अभी और यहीं थोड़ा सा
समझ लाएंगे तो दिखाई पड़ जाएगा।
दो विचार मन में होते हैं, दो विचारों के बीच
में मन में कोई खाली जगह होती है कि नहीं? जैसे मैंने कहा,
राम आया। तो राम और आया शब्द के बीच में क्या है? खाली जगह है या नहीं? अगर दो शब्दों और दो विचारों
के बीच में खाली जगह न हो तो एक विचार दूसरे विचार पर चढ़ जाएगा, पहचानना भी मुश्किल हो जाएगा कि कौन सा विचार कौन सा है। दो विचारों के
बीच में इंटरवल है, गैप है। दो शब्दों के बीच में गैप है। वह
गैप क्या है? वह खाली जगह में कौन है? उस
खाली जगह में चेतना नहीं है? एक विचार चला जाता है, फिर दूसरा आता है। तो फिर बीच में जो थोड़ी सी खाली जगह है, वहां कौन है? वहां चेतना नहीं है?
वहां भी चेतना है। विचार आते हैं और चले जाते हैं, विचार चेतना नहीं हैं। जिस पर विचार आते हैं और जाते हैं वह है चेतना।
विचार धुएं की तरह चेतना पर आते हैं और निकल जाते हैं, पीछे
चेतना है। एक विचार जाता है, दूसरा आता है, बीच में जो खाली जगह है वहां चेतना है, वहां शून्य
है।
तो जब कोई शांत होने की दिशा पर यात्रा करता है, तो धीरे-धीरे विचारों के बीच का स्थान, बीच का
अंतराल बड़ा होता जाता है, गैप बड़ा होता जाता है। उसी गैप से,
उसी खाली जगह से पता चलता है कि भीतर कोई शून्य भी है, कोई सागर भी है जहां कोई लहर नहीं। धीरे-धीरे एक जगह आती है कि सारे विचार
शांत हो जाते हैं, सारी लहरें शांत हो जाती हैं। तब उस सागर
का पूरा अनुभव होता है जो लहरों में दबा था और दिखाई नहीं पड़ता था। लहरें तो उथले
में हैं, सागर बहुत गहरे में है। लहरें ढांक लेती हैं सागर
को और नीचे उसकी गहराई का कोई पता नहीं चलता। उस गहराई का पता तो शून्य में ही
चलता है, जब सब लहरें--चाहे तर्क की, चाहे
कल्पना की, चाहे कोई और--जब सभी लहरें शांत हो जाती हैं।
लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जो शून्य हो जाएगा वह विचार ही न कर
सकेगा।
यह भी किसी ने प्रश्न पूछा है कि शून्य हो जाएंगे तब तो बड़ी मुश्किल
हो जाएगी, फिर तो विचार ही न कर सकेंगे!
नहीं; शून्य हो जाएंगे तभी ठीक से विचार कर सकेंगे। तभी ठीक
से विचार कर सकेंगे जब शून्य हो जाएंगे। लेकिन उस विचार की फिर कोई लहर न बनेगी,
वह विचार हो जाएगी अंतर्दृष्टि, वह विचार हो
जाएगी इनसाइट।
जैसे कोई अंधा आदमी हो, अंधे आदमी को सवाल
उठे कि अब सभा समाप्त हो गई, बैठक समाप्त हो गई, अब जाना है। तो उसे विचार उठेगा कि अब जाना है, किस
रास्ते से जाऊं? कहां है दरवाजा? कौन
सा दरवाजा? किस रास्ते से जाऊं? ये
सारे विचार उसके भीतर उठेंगे। हम उससे अगर कहें कि अगर तुम्हारी आंखें ठीक हो जाएं,
तब भी तुम उठोगे और दरवाजे से निकल जाओगे, लेकिन
तब तुम्हारे भीतर विचार नहीं उठेगा। आंख वाला आदमी उठता है और दरवाजे से निकल जाता
है। वह यह सोचता नहीं कि यह दरवाजा है, निकलने की जगह है,
इसमें से मुझे निकलना है, ऐसा कुछ विचार नहीं
करता। देखता है, दरवाजा दिखता है और निकल जाता है। अगर कोई
खयाल दिलाए तो ही उसे खयाल आएगा कि हां, यह दरवाजा था और मैं
इससे निकला, नहीं तो इसका खयाल भी नहीं आएगा और वह निकल
जाएगा।
विचार तो नहीं पैदा होगा, लेकिन एक दृष्टि,
एक अंतर्दृष्टि होगी और वह काम कर जाएगी। जैसे-जैसे व्यक्ति का
चित्त शांत होता जाता है, उसकी अंतर्दृष्टि प्रखर और स्पष्ट
होती चली जाती है। उसके सामने भी समस्याएं आती हैं, लेकिन
समस्याओं पर वह उस भांति सिर धुन कर विचार नहीं करता है जैसा हम करते हैं।
हमें क्यों विचार करना पड़ता है इस भांति? हमें इसलिए विचार करना पड़ता है कि हमें दिखाई नहीं पड़ता। विचार करना पड़ता
है इसलिए कि आंख नहीं है। आंख होगी तो विचार नहीं होगा, सीधा
दिखाई पड़ेगा समस्याओं के बीच से कि कैसे निकल जाऊं। वह होगी अंतर्दृष्टि। चित्त
शांत और शून्य होता है तो जीवन में आ जाती है अंतर्दृष्टि। वह कोई अंतर्दृष्टि
विचार से छोटी चीज नहीं है, विचार से बहुत बड़ी चीज है।
अंतर्दृष्टि हमेशा विवेकपूर्ण होती है, विचार हमेशा
विवेकपूर्ण नहीं होता। विचार से भूलें होती हैं, अंतर्दृष्टि
से कभी भूलें नहीं होतीं। क्योंकि विचार के सामने ऑल्टरनेटिव होते हैं, च्वाइस होती है, दो विकल्प होते हैं, दस विकल्प होते हैं--कौन सा चुनूं? एक चुनता है,
दूसरे छोड़ देता है। अंतर्दृष्टि के सामने विकल्प नहीं होते, एक ही विकल्प होता है; कोई च्वाइस नहीं होती,
कोई चुनाव नहीं होता, बस एक ही बात होती है।
भूल का कोई सवाल नहीं होता। अंतर्दृष्टि से कभी भूलें नहीं होतीं।
लेकिन शून्य चित्त आदमी कोई विचारहीन नहीं हो जाता है, बल्कि इतना विचारपूर्ण हो जाता है कि उसके भीतर दो विचार नहीं होते,
बस एक ही होता है। और एक जहां होता है वहां कोई नाद पैदा नहीं होता,
कोई संघर्ष पैदा नहीं होता, कोई लहरें नहीं बनती
हैं। जहां बहुत होते हैं, वहां उपद्रव हो जाता है, तूफान हो जाता है। हमारा चित्त, जिसको हम कहते हैं
कि विचार कर रहा है, विचार कम कर रहा है, विक्षिप्त ज्यादा है, पागल ज्यादा है।
कभी अपने चित्त को घड़ी आधा घड़ी के लिए एकांत में जाकर देखें। एक कागज
रख लें और मन में जो चलता हो उसको लिख डालें ईमानदारी से, कुछ भी न छोड़ें जो भी मन में चलता हो। फिर आधा घंटे बाद उस कागज को आप
किसी को दिखाने को राजी होंगे? मैं नहीं समझता हूं कि आप
राजी होंगे। आप कहेंगे कि नहीं, यह मैं किसी को नहीं दिखाना
चाहता। क्योंकि अगर लोगों ने देख लिया तो मुझे पकड़ेंगे और एकदम पागलखाने ले जाएंगे
और मेरा इलाज करवाने लगेंगे कि इनका दिमाग खराब हो गया। यह क्या चल रहा है इनके
दिमाग के भीतर?
कभी दस मिनट लिख कर देखें: क्या चल रहा है आपके दिमाग के भीतर। जिसको
आप कहते हैं विचार! तो आप पाएंगे कि कोई पागल भीतर मौजूद है, असंगत बातें सोच रहा है, व्यर्थ की बातें सोच रहा है,
जिनमें एक-दूसरे से कोई संबंध भी नहीं है वह भी सोच रहा है। कभी
भगवान की बात भी सोच रहा है, कभी दुकान की बात भी सोच रहा है,
कभी सामने जो कुत्ता भौंक रहा है उसकी बात भी सोच रहा है। कभी
बीमारी भी, कभी कुछ, कभी कुछ; और यह सब इतना ज्यादा असंगत, बेमेल इकट्ठा हो जाता
है कि भीतर करीब-करीब मालूम होता है कि कोई पागल है। इस पागल को हम छिपाए रखते
हैं। ऊपर से शांत चेहरा बनाए रखते हैं, भीतर इस पागल को
छिपाए रखते हैं। वह तो मौके, बेमौके कभी-कभी यह पागल बाहर
निकल आता है। घाटा लग जाए, कोई प्रियजन मर जाए, यह पागल बाहर निकल आता है। देर नहीं लगती इसके निकलने में, वह तो भीतर मौजूद है।
विलियम जेम्स नाम का बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक एक दफा पागलखाने गया।
पागलखाने में उसने तरहत्तरह के पागल देखे। मैं आपसे भी निवेदन करूंगा, कभी-कभी पागलखाना देखने जाना चाहिए। क्योंकि पागलों को देख कर आपको अपनी
स्थिति का पता चलेगा--कि मैं कहां हूं और कितनी दूर हूं इनसे?
विलियम जेम्स गया। वहां से लौटा तो एकदम उदास होकर लौटा। गया तो बहुत
प्रसन्न था, बड़ी उत्सुकता से पागलों को देखने, वहां से लौटा उदास। उस रात सो नहीं सका। दूसरे दिन उसके मित्रों ने कहा कि
तुम कल से लौटे हो तो बड़े उदास हो, बात क्या है?
विलियम जेम्स ने कहा कि अब शायद जीवन में मैं कभी प्रसन्न न हो
सकूंगा।
उन्होंने कहा, क्यों? ऐसी क्या बात हो गई?
ऐसा क्या हो गया?
विलियम जेम्स ने कहा कि उन पागलों को देख कर एक बात मेरे खयाल में आई:
मेरे भीतर भी तो यही सब चल रहा है। तो मैं कितने दिन इसको सम्हाले रखूंगा? और जब ये मित्र मेरे नहीं सम्हाल पाए और किसी दिन बात टूट गई और जो भीतर
था बाहर निकल आया, तो किसी दिन यह मेरे साथ भी तो घट सकता
है। जब इनके साथ घट सका है तो मेरे साथ क्यों नहीं घट सकता? मैं
कोई भगवान से कोई विशेष आज्ञा लेकर नहीं आया हूं कि पागल नहीं हो जाऊंगा। तो मैं
घबड़ा गया हूं, मैं भी पागल हो सकता हूं। क्योंकि जो उनके
बाहर दिखाई पड़ रहा है, वह मेरे भीतर भी तो मौजूद है। इससे
मैं डरा हुआ हूं कि कहीं मैं पागल न हो जाऊं!
विलियम जेम्स ने बाद में अपने एक मित्र को पत्र में लिखा कि यह बहुत
अच्छा है कि हमने पागलखाने बना दिए हैं और पागलों को बंद कर दिया है। पागलों के तो
चाहे यह हित में हो या न हो, लेकिन उन लोगों के हित में बहुत
है जो बाहर हैं। क्योंकि उनको पागल दिखाई नहीं पड़ते और वे निश्चिंत रहे आते हैं कि
हम पागल नहीं हैं।
क्या यह हमारे चित्त की स्थिति? इसको हम कहते हैं
विचार? इसको हम कहते हैं थिंकिंग?
काहे का यह विचार, विक्षिप्तता है! विचार तो वहां
होता है जहां चित्त शांत और मौन होता है। वहां दिखाई पड़ती हैं चीजें, वहां होते हैं स्पष्ट जीवन के निर्देश, वहां होते
हैं संकेत साफ, मार्ग स्पष्ट। वहां कोई पश्चात्ताप का और
लौटने का कारण नहीं होता।
लेकिन हम तो एक उलझे हुए हैं भीतर। एकदम उलझाव है भीतर, कोई सुलझाव नहीं। उसको हम कहते हैं विचार। नहीं, यह
कुछ भी विचार नहीं है। चित्त निरंतर चल रहा है--सोए हैं तब चल रहा है, जागे हैं तब चल रहा है, बैठे हैं तब चल रहा है--चल
ही रहा है, अकारण चल रहा है। यह चलता हुआ चित्त पागल है।
हम यहां इतने लोग बैठे हैं। अगर कुछ लोग बैठे-बैठे अपना पैर भी चलाते
रहें, हाथ भी चलाते रहें, तो हम क्या
कहेंगे? हम कहेंगे, इनका दिमाग कुछ
खराब है क्या! बैठे हैं तो पैर चलाने की क्या जरूरत है? चलते
होते तब तो पैर चलाने की जरूरत समझ में आती। अब बैठे-बैठे व्यर्थ पैर क्यों चला
रहे हैं? हाथ क्यों चला रहे हैं?
लेकिन हम जानते हैं कि हम हाथ नहीं चलाते, पैर नहीं चलाते, चुपचाप बैठे रहते हैं। जब चलना होता
है तब पैर चलाते हैं, जब बैठ जाते हैं तो फिर पैर नहीं
चलाते। और हम यह भी नहीं कहते कि अगर पैर नहीं चलाएंगे तो फिर चलते वक्त कैसे
चलाएंगे? जब चलेंगे तब चलाएंगे, जब
बैठेंगे तब रोक लेंगे।
लेकिन मस्तिष्क तो पूरे वक्त चल रहा है, वह तो कभी नहीं
रुकता। जरूर मस्तिष्क की हालत विकृत हो गई है, मस्तिष्क
इसीलिए बीमार हो गया है। यही बीमार मस्तिष्क हमें दुख देता है, पीड़ा देता है, संताप देता है, जीवन
को नरक बना देता है।
और जब चित्त को शून्य करना सीख जाएंगे, तो अगर जरूरत होगी
सोच की, विचार की तो बराबर कर सकेंगे, और
अच्छी तरह से कर सकेंगे। क्योंकि चित्त होगा शांत, और शांत
चित्त में ऊर्जा इकट्ठी होती है, इनर्जी इकट्ठी होती है।
खर्च नहीं होती शक्ति, इकट्ठी होती है। एक समस्या आती है,
समस्या छोटी रहती है, मन के पास बड़ी ताकत रहती
है, समस्या को फौरन खोल लेता है।
हमारी हालत उलटी है। एक छोटी सी समस्या आ जाती है, मन के पास ताकत ही नहीं रहती, वह तो फिजूल दौड़-दौड़
कर शक्ति नष्ट करता रहता है। छोटी सी समस्या आ जाती है, अटक
कर वहीं खड़े रह जाते हैं, रोने लगते हैं, छाती पीटने लगते हैं--क्या करें, क्या न करें?
गुरु को खोजने लगते हैं कि किस गुरु के पास जाएं। उससे पूछें,
शायद वह सहायता दे दे।
अगर मस्तिष्क के पास शांत शक्ति इकट्ठी होती चली जाए, तो किसी गुरु के पास किसी को जाने की जरूरत नहीं है। यह बहुत अपमानजनक है
कि हम छोटी-छोटी समस्याएं लेकर किसी के पास जाएं। यह इस बात की सूचना है कि हमारे
पास, हमारे मन के पास कोई ताकत नहीं बची है जो कि अपनी
समस्याओं को देख सके और हल कर सके। छोटी-छोटी, क्षुद्र-क्षुद्र
बातों को लेकर हम घूमते हैं और किसी से पूछते हैं, यह बहुत
अपमानजनक है। यह इस बात की सूचना है कि मन हमारा दिवालिया है, बैंक्रप्ट है। और बैंक्रप्ट है, दिवालिया है और उसी
को हम कह रहे हैं कि हम विचार कर रहे हैं। ये तरंगें हमारा स्वभाव हैं, ये लहरें हमारा स्वभाव हैं, यह पागलपन हमारा स्वभाव
है।
पागलपन किसी का स्वभाव नहीं है। जैसे आदमी पर बीमारियां आती हैं, लेकिन बीमारियां स्वभाव नहीं हैं; वैसे ही चित्त में
रोग आते हैं, विक्षिप्तताएं आती हैं, लेकिन
वे स्वभाव नहीं हैं। स्वभाव तो है परिपूर्ण शांति। और कैसे हम जानेंगे कि स्वभाव
परिपूर्ण शांति है? जानेंगे इसलिए कि जो आदमी बिलकुल अशांत
है, विचारों से घिरा है, वह भी शांत
होना चाहता है। हम जो होना चाहते हैं वही हमारा स्वभाव है, हम
कभी भी स्वभाव के विपरीत कुछ नहीं होना चाहते। कोई आदमी अशांत नहीं होना चाहता है।
या कि कोई आदमी खोज कर आप ला सकते हैं जो कहे कि हम अशांत होना चाहते हैं? कोई आदमी दुखी नहीं होना चाहता, कोई आदमी पीड़ित नहीं
होना चाहता, चिंतित नहीं होना चाहता। इसका मतलब क्या है?
इसका मतलब यह है कि उसके केंद्र पर, उसके
स्वभाव के जो-जो विपरीत है, वह उसको अस्वीकार करता है। चिंता
को, दुख को, बेचैनी को, अशांति को वह कहता है--हम यह नहीं चाहते। हम होना चाहते हैं शांत, हम होना चाहते हैं आनंदित, हम होना चाहते हैं सुख को
उपलब्ध, हम होना चाहते हैं प्रकाश को उपलब्ध, हम होना चाहते हैं स्वतंत्रता को उपलब्ध। क्यों होना चाहते हैं? हमारा स्वभाव इसकी मांग करता है। और जो हम हो गए हैं, वह कुछ गलत हो गए हैं, उसको अस्वीकार करता है,
उसको इनकार करता है, उसके ऊपर उठ जाना चाहता
है।
शून्य तो स्वभाव है। और शून्य को जो उपलब्ध हो जाता है वह अदभुत विचार
की क्षमता को उपलब्ध हो जाता है, क्योंकि शांत हो जाता है। और
शांति में शक्ति इकट्ठी और संगृहीत होती है। और शांति के केंद्र पर ऊर्जा और शक्ति
इतने अदभुत रूप से इकट्ठी हो जाती है कि उसका जो भी विस्फोट है, वह जीवन को बहुत आलोक से भरता है।
इस संबंध में कल सुबह और हम थोड़ी बात करेंगे। क्योंकि कल शून्य के
संबंध में ही कुछ बात करनी है।
कुछ मित्रों ने अलग-अलग प्रश्नों में यह पूछा है, यह संदेह हुआ है कि आपकी भी सभी बातों में श्रद्धा रखनी चाहिए क्या?
यह संदेह बहुत शुभ है, बहुत स्वागत के योग्य
है। लेकिन शायद मेरी बातों को ठीक से नहीं सुना इसलिए यह संदेह उठा है। क्योंकि
मैं तो निरंतर कह रहा हूं कि किसी की बात पर श्रद्धा नहीं रखनी चाहिए। तो किसी में
मैं भी सम्मिलित हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि और सब की बातों पर श्रद्धा छोड़
दें, विश्वास छोड़ दें और मेरी बातों पर श्रद्धा कर लें। मैं
भी तो पराया हूं, मैं भी तो अलग हूं, मैं
भी तो दूसरा हूं। मैं जो भी कह रहा हूं वह मेरे लिए होगा सत्य, आपके लिए सत्य नहीं हो जाता है। निश्चित ही उस पर संदेह करना है, विचार करना है। निश्चित ही उसको अंधे की तरह मान नहीं लेना है। कोई भी बात
नहीं मान लेनी है किसी की भी। उसमें मैं सम्मिलित हूं, सभी
सम्मिलित हैं।
जब भी हम किसी और पर श्रद्धा करते हैं, तो किसी और पर
श्रद्धा किस बात की सूचना होती है? इस बात की कि हमें अपने
पर श्रद्धा नहीं है। दूसरे पर श्रद्धा आत्म-अश्रद्धा की घोषणा है। जिस व्यक्ति को
अपने पर श्रद्धा नहीं है, वह किसी पर श्रद्धा करता है। और
जिसको अपने पर ही श्रद्धा नहीं है, उसकी दूसरे पर की गई
श्रद्धा का कितना मूल्य है? कितना अर्थ है उसमें?
जीवन में स्वयं की शक्ति की खोज करनी चाहिए; स्वयं के सत्य की भी। और स्वयं पर पूरी श्रद्धा और बल के साथ श्रम करना
चाहिए। उसके अतिरिक्त और कोई संगी-साथी नहीं है, उसके
अतिरिक्त कोई सहारा नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति है अपना सहारा।
लेकिन हजारों साल की शिक्षाओं ने बड़ी दीनता पैदा कर दी है, बड़ी हीनता पैदा कर दी है। और वे सब शिक्षाएं कहती हैं: किसी और पर श्रद्धा
करो। और जब भी कोई आदमी किसी और पर श्रद्धा करने लगता है तो खुद पर उसकी श्रद्धा
क्षीण हो जाती है; हो ही जाएगी। और जब खुद पर वह भीतर से
श्रद्धाहीन हो जाता तो उसके सब कदम कमजोर हो जाते हैं, उसकी
सामर्थ्य टूट जाती है, वह भयभीत हो जाता है, उसका साहस नष्ट हो जाता है। नये की खोज में नये रास्तों पर जाने की उसकी
हिम्मत टूट जाती है। वह अत्यंत दीन-हीन, अत्यंत निःसत्व होकर
किसी के चरणों में पड़ा रह जाता है।
होंगे वे चरण मजबूत, होंगे वे चरण शक्तिशाली, लेकिन उनसे क्या लेना-देना है? अपने ही कमजोर कदम
साथी हैं, दूसरे के मजबूत कदम नहीं। अपने ही कमजोर कदमों से
यात्रा करनी है, किसी और के कदमों से कभी किसी ने यात्रा
नहीं की है। अपनी ही आंखों से देखना है, किसी और की आंखों से
कौन कब देख सका है?
बहुत पुराने दिनों की कहानी है, एक बूढ़े आदमी की
आंखें चली गई थीं। उसके मित्रों ने, उसके परिवार के लोगों ने
कहा, आंखों का इलाज करवा लें। लेकिन वह बूढ़ा आदमी बोला,
क्या जरूरत है मुझे आंखों की? अस्सी वर्ष की
मेरी उम्र हुई। मेरे आठ लड़के हैं, आठ बहुएं हैं, मेरी पत्नी है, घर में चौंतीस आंखें हैं। तो मेरी दो
आंखें न हुईं तो क्या फर्क पड़ता है? क्या चौंतीस आंखें काफी
नहीं हैं एक घर में?
गणित उसका ठीक था, लेकिन जिंदगी के बाबत शायद उसे
पता नहीं था। और अक्सर गणित और जिंदगी का कोई मेल नहीं होता है। जिंदगी बड़ी बेबूझ
है। जिंदगी में दो और दो चार हमेशा नहीं होते। जिंदगी बड़ी बेबूझ है, बड़ी रहस्यपूर्ण है। गणित जैसा साफ हिसाब नहीं है। उसने हिसाब लगा लिया कि
एक घर में छत्तीस आंखें थीं तो काम चल जाता था, तो क्या
चौंतीस आंखों से काम नहीं चलेगा? बात तो उसने ठीक ही सोची थी,
गणित बिलकुल दुरुस्त था। बच्चे भी मान गए, मित्र
भी मान गए कि आठ लड़के हैं, आठ बहुएं हैं, एक पत्नी है, तो बहुत तो आंखें हैं घर में। क्या
फर्क पड़ता है कि दो आंखें न रहें?
लेकिन पंद्रह दिन भी नहीं बीते थे कि पता चला कि दो आंखें नहीं थीं तो
कुछ भी नहीं था। घर में रात आग लग गई। सारे घर के लोग सोए थे। वह बूढ़ा आदमी भी
सोया था। जिनके पास आंखें थीं वे आग से बाहर निकल गए। बूढ़ा भीतर रह गया। उसने बहुत
सोचा कि शायद चौंतीस आंखों में से कोई आए। लेकिन उन चौंतीस आंखों को खयाल भी नहीं
आया, जब तक वे आग के बाहर न निकल गईं। जब वे बाहर निकल गईं
तब उन्हें खयाल आया। निश्चिंतता में जब पहुंच गए वे सारे लोग तो उन्हें खयाल आया
कि अरे बूढ़ा, घर का बूढ़ा व्यक्ति तो घर के भीतर रह गया! अब
क्या हो? लेकिन भीतर जाने का कोई मार्ग न रहा। आंखें बाहर हो
गई थीं; जो बिना आंख का था, भीतर रह
गया था। और तभी उस बूढ़े आदमी को भी पता चला, जब उसका शरीर
जलने लगा और वह कमरे में चीख-पुकार करके भागने लगा और दीवालों से टकराने लगा तब
उसने जाना कि घर में जब आग लगी हो तो अपनी ही आंखें काम पड़ सकती हैं, किसी और की नहीं। लेकिन तब बहुत देर हो गई थी और अब कोई उपाय न था,
वह घर उसकी चिता बन गया।
जिंदगी में भी बहुत आग है और जिंदगी में भी किसी दूसरे की आंख किसी के
काम नहीं आती। बातचीत करनी हो तो अलग है कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, मेरी आंखों से तुम्हारा काम चल जाएगा। बातचीत अलग बात है, जिंदगी, जिंदगी की लपटें और घर में आग लगी हो तो अलग
बात है। और जिंदगी के घर में रोज आग लगी है। लेकिन अधिक लोगों को तभी पता चलता है
जब वक्त निकल जाता है और घर चिता बनने लगता है, तभी पता चलता
है कि अपने पास आंखें नहीं थीं।
कोई कृष्ण की आंखों से चल रहा है, कोई राम की, कोई बुद्ध की, कोई महावीर की, कोई
मोहम्मद की। ये आंखें तो मौजूद भी नहीं हैं अब। इन आंखों से कोई भी चल नहीं सकता
है। हां, पूजा-पाठ करना हो तो बात अलग है। लेकिन जीना हो
जिंदगी तो बात अलग है, अपनी आंख चाहिए।
तो मुझ पर श्रद्धा करने की जरा भी जरूरत नहीं। मेरी बातों पर विश्वास
करने की जरा भी जरूरत नहीं। मेरा निवेदन तो यही है कि भूल कर भी कोई मेरी बातों पर
विश्वास न करे। सोचे, विचारे, समझे। सोचने, विचारने, समझने पर, प्रयोग
करने पर, तटस्थ भाव से खोज करने पर, विश्लेषण
करने पर अगर कोई बात किसी को दिखाई पड़े कि काम की है, तो बात
अलग है। लेकिन वह विश्वास नहीं रहा, वह विज्ञान हो गया,
वह साइंस हो गई। खोजा, परखा, तोड़ा--निष्पक्ष भाव से, बिना विश्वास किए, बिना अविश्वास किए, बिना श्रद्धा किए, बिना अश्रद्धा किए--निष्पक्ष मन से किसी चीज को परखा, जांचा, पहचाना, विवेक की कसौटी
पर कसा, प्रयोग किया। और अगर फिर कोई बात ठीक लगी, खुद के अनुभव और विचार से ठीक लगी, तो फिर वह मेरी
नहीं रह जाती है, वह आपकी हो गई। इतने परीक्षण और प्रयोग से
कोई भी बात आपकी हो गई, फिर वह मेरी नहीं रही, मेरा उससे कोई संबंध नहीं रहा, मेरा उससे कोई नाता
नहीं रहा, मेरी उसके लिए कोई जिम्मेवारी नहीं रही, मैं उसके लिए रिस्पांसिबल नहीं रहा, उत्तरदायी नहीं
रहा। आप जानें, आपका काम जाने।
लेकिन मुझ पर श्रद्धा करने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी पर श्रद्धा
करने की कोई जरूरत नहीं है। विचार की और विवेक की है जरूरत। श्रद्धा के नशे में तो
हम हजारों साल से पले हैं और मनुष्य-जाति कहां से कहां भटक गई है! अब तो जरूरत है
कि हम विवेक के प्रकाश में चलें, खोजें, परीक्षण
करें, जीवन मिला है तो जीएं। क्यों किसी की उधार बातों पर हम
विश्वास करें? कौन हूं मैं जो मेरी बातों पर आप विश्वास करें?
क्या जरूरत है मेरी बातों पर विश्वास करने की?
जो आपसे कहता हो कि मेरी बातों पर विश्वास करो, वह शत्रु है आपका, मित्र नहीं। क्योंकि विश्वास करने
की जो आदत डलवा देता है, वह भीतर विवेक जगने की संभावना को
बंद कर देता है।
मैं आपका शत्रु नहीं हूं, इसलिए मैं कैसे कहूं
कि मुझ पर विश्वास करें? मैं तो कहूंगा: विचार करें, खोजें। मैंने जो कहा है या जो कहूंगा, वह इसलिए नहीं
कह रहा हूं कि कोई उस पर विश्वास कर ले, इसलिए नहीं कह रहा
हूं कि कोई अनुयायी बन जाए, इसलिए नहीं कह रहा हूं कि कोई
शिष्य बन जाए। कुछ भी उसमें प्रयोजन नहीं है। बहुत बचकानी बातें हैं वे सब। कोई
किसी का गुरु बने, कोई किसी का अनुयायी, इससे ज्यादा इम्मैच्योर और चाइल्डिश क्या हो सकता है? क्या बचकानी बातें हैं! बच्चों जैसा खेल है! जिंदगी में कोई इन बातों का
अर्थ है कि कोई किसी को अनुयायी बना ले और कोई नेता बन जाए? इसका
कोई अर्थ है?
छोटे-छोटे बच्चे हैं हम सारे लोग, इसलिए दुनिया में
नेता हैं, इसलिए अनुयायी हैं। अगर दुनिया में थोड़ी प्रौढ़ता
आएगी, चिंतन आएगा, तो न कोई नेता होगा,
न कोई अनुयायी होगा। मित्र होंगे, खोजेंगे,
एक-दूसरे के साथी होंगे, सहयोगी होंगे,
साझेदार होंगे। जो जानेंगे वे दूसरे को कहेंगे। इसलिए नहीं कि कोई
विश्वास कर ले, बल्कि इसलिए कि जो मैंने जाना है, मेरा कर्तव्य हो जाता है कि मैं दूसरों को कह दूं। हो सकता है कि किसी
भांति मेरी कही हुई बात, उसके विचार में, विश्लेषण में अर्थपूर्ण हो जाए। मेरी कही बात, हो
सकता है उसकी खोज में, उसके अनुसंधान में किसी तरह अर्थपूर्ण
हो उठे। तब तो ठीक है, अन्यथा कोई उसके मानने का कोई कारण
नहीं है और न उस पर विश्वास कर लेने की कोई वजह है।
इसलिए नहीं, कृपा करें, कोई विश्वास न करे।
लेकिन एक बात और ध्यान रखें, अविश्वास करने से भी बचना
चाहिए। क्योंकि विश्वास एक तरह की भूल है, अविश्वास दूसरे
तरह की भूल है। मैंने यह नहीं कहा है कि कृष्ण पर, महावीर पर,
बुद्ध पर--अविश्वास करें। मैंने कहा है, विश्वास
न करें।
लेकिन हम तो हमेशा इस भाषा में सोचने के आदी हो गए हैं कि विश्वास न
करें अर्थात अविश्वास करें। नहीं, अविश्वास भी विश्वास का एक
प्रकार है, अविश्वास भी बिलीफ का ही एक रूप है, नकारात्मक रूप है, निगेटिव रूप है। एक आदमी विश्वास
करता है कि ईश्वर है, एक आदमी विश्वास करता है कि ईश्वर नहीं
है। यह भी विश्वास है। इसको हम कहते हैं कि यह अविश्वासी है। एक आदमी कहता है कि
राम जो कहते हैं सत्य है, दूसरा आदमी कहता है कि राम जो भी
कहते हैं असत्य है। ये दोनों विश्वास कर लिए, ये दोनों अंधे
हैं। जो सत्य की खोज में है वह कहता है, मैं नहीं जानता हूं,
इसलिए मैं कैसे करूं विश्वास और कैसे करूं अविश्वास? जानने वाला कर सकता है विश्वास, जानने वाला कर सकता
है अविश्वास। मैं तो जानता नहीं हूं तो मैं सुनूंगा, समझूंगा,
विचार करूंगा, विश्लेषण करूंगा, खोज करूंगा, समझने की कोशिश करूंगा; न विश्वास करूंगा, न अविश्वास करूंगा। सत्य का खोजी
विश्वास और अविश्वास दोनों तटों से बच जाता है और जो नदी है उसमें यात्रा करता है।
तट से बच जाता है--इस किनारे से भी, उस किनारे से भी;
और बीच की जो विवेक की धारा है, जो नदी है,
जो सागर तक ले जाती है, उसमें यात्रा करता है।
नास्तिक एक किनारे से अपनी नौका बांध देते हैं, अविश्वास के किनारे से। आस्तिक दूसरे किनारे से अपनी नौका बांध देते हैं,
विश्वास के किनारे से। विश्वास और अविश्वास के किनारों के बीच में
विवेक की धारा है। जो कहीं भी किसी तट पर रुक जाता है वह डबरा बन जाता है, खो जाता है, उसकी यात्रा बंद हो जाती है।
तो नदी बनें, किनारा नहीं। तट से न बंधें, इससे
भी नहीं, इसके विरोधी तट से भी नहीं; बल्कि
बीच में, दोनों किनारों के मध्य में खोजें यात्रा को,
तो जरूर किसी दिन सागर तक पहुंच जाएंगे। जो किनारे से रुक जाता है
वह तो कभी सागर तक नहीं पहुंचता है। सरोवर न बनें, सरिता
बनें। विश्वासी और अविश्वासी सरोवर बन जाते हैं, तालाब बन
जाते हैं; बंद, सड़ते हैं, फिर उनकी यात्रा नहीं होती, फिर वे कहीं जाते नहीं
हैं।
बहुत कम लोग हैं जमीन पर जो नदियों की भांति मुक्त हैं और किनारों से
बंधते नहीं और किनारों के बीच में यात्रा करते हैं। वे ही थोड़े से लोग सत्य के
सौरभ को, सुगंध को उपलब्ध हो पाते हैं। लेकिन हर एक हो सकता
है। अगर समझ हो, अंडरस्टैंडिंग हो तो तटों से मुक्त हो जाना
कौन सी कठिन बात है? अपने मन से ही तो बंधते हैं, अपने मन से ही मुक्त हो सकते हैं। तो न तो करें विश्वास, न करें अविश्वास। निष्पक्ष मन से देखें, समझें,
सोचें, फिर कुछ उस सोच-समझ से निकलेगा जो जीवन
को पथ देता है, प्रकाश देता है।
अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे।
कुछ और प्रश्न हैं, वे कल दोपहर मैं चर्चा करूंगा। नहीं, कल रात्रि में
मैं चर्चा करूंगा।
थोड़े-थोड़े दूर हट जाएं। कल थोड़े लोग लेटे थे, आज मैं आशा करूंगा और ज्यादा लोग थोड़ी हिम्मत करेंगे और लेटेंगे। कल की
रात तक आशा करेंगे हम कि करीब-करीब सभी लोग लेट जाएंगे।
हां, हट जाएं, रास्ते पर हट जाएं।
रास्ते पर हट जाएं, रास्ता बहुत सुंदर है, साफ है, वहां हट जाएं। पीछे जगह है, पीछे हट जाएं। कोई किसी को छूता हुआ न हो, कोई किसी
का स्पर्श न करे। चाहे बैठें, चाहे लेटें, लेकिन स्पर्श कोई किसी का न करता हो। जल्दी हट जाएं, ताकि प्रकाश बुझा दिए जाएं।
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