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सोमवार, 10 जुलाई 2017

06--मैं अँधेरों को मिटाने आ गया (कविता) -आनंद प्रसाद मनसा



06--मैं अँधेरों को मिटाने आ गया (कविता)


मैं अँधेरों को मिटाने आ गया।
      गीत गा तुमको जगाने आ गया।।
थक गए अब है कदम चलते  नहीं।
बादल दुखों के अब यूहीं छटते नहीं।
फूल जीवन में कहीं खिलते  नहीं।
बीज बंजर  है पड़े   उगते  नहीं।
      शूल पथ के मैं हटाने आ गया।
      गीत गा तुमको जगाने आ गया....

हूं धरा पर पंख नभ के ले लिये।
कल्पनाओं में बहुत हम जी लिये।
कंठ अंगारों से भर-भर पी  लिये।
पैबंद दुखों के दामनों से सी लिये।
      देव धरा को मैं बनाने आ गया।
      गीत गा तुमको जगाने आ गया।


हैं कठि‍न, जीवन नदी भी  है विकट।
हाथ से पतवार को अब न यू झटक।
दो कदम चल देख आगे बस है तट।
तूफ़ानों को देख कर न  डर-सिमट।
      घाट को तीर्थ बनाने आ गया।।
      गीत गा तुमको जगाने आ गया।

प्रीत पथ है एक, पर  राहे अनन्‍त।
सिंधु तट से न  बुझ गी ये जलन।
ध्‍यान के मधुरस में है मीठी छुअन।
आज तुमको है पुकारें  फिर गगन।
      राह फूलों कि सजाने आ  गया।
      गीत गा तुमको जगाने आ गया।

हाय भरम है क्‍यों तुझे अभिमान का।
रह गया तुझको ये दंभ क्‍यों ज्ञान का।
रुला फिरेगा धूल में  सर  आन  का।
बिता कल लौटेगा न पहचान का।
      दीप पथ पर हूं जलाने आ गया।
      गीत गा तुमको जगाने आ गया।।

अपना होना ही है होना एक बस।
सूखे फूलों में भी कहीं होता है रस।
जान ले तूँ मौन मदिरा का कलस।
उससे बूझेगी देख जीवन की झुलस।
      होश अमरत का पिलाने आ गया।
      मैं  अधरों को मिटाने आ  गया।
      गीत गा तुमको जगाने आ गया।।

--स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘मनसा’
     




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