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सोमवार, 10 जुलाई 2017

07--होश के भर दो कदम जब --(कविता)-आनंद प्रसाद मनस


मैं चल बन कर मुसाफिर
बस होश के भ्रर दो कदम जब।
इस तिमिर अंधकार में भी,
बंद आंखों के सहारे,
किस डगर पर,
किस सफर पर,
दौड़ते सब चले जा रहे थे।
किस तरफ ये कौन जाने,
पर समझते थे बेचारे!
पहुंचने को है किनारे।
मैं सिमट कर दूर पथ के,
ताकता रह गया हूं पथ को,
कौन से पथ पर चलू अब,
कितने पथ और कितने पथिक है,

सब ये कहते जा रहे है,
ये ही पथ सच का सफर है,
लोग सब अपने पथों को,
कैसे सजाते और संवारे,
दूर एक वीरान पथ था,
वो बड़ी बीहड़ जगह थी,
कंटक भरी नीरव डगर थी,
वह देखने में अनजान सा था।
क्‍योंकि अभी गुमनाम सा था।
झाड़ झक्‍कड़ उस पर उगे थे,
किन क्षणों ने आन मुझमें,
भर दिया था इक भरोसा,
हाथ पकड़ कर कोई कहने लगा था,
तू चला चल....तू चला चल।
मैं निडर-निस्कंप हो गया,
देखते सब रह गये थे ,
पागल मुझे सब कह रहे थे।
ये क्‍यों भटकना चाहता है?
गुम नाम पथ पर खो रहा है।
भर कर समर्पण, साहस मन में,
मैं चला मदमस्‍त होकर,
उस डगर को चूम, छू कर
होश के वो दो कदम भी,
जीवन में उन्माद भर गये,
एक टूटे साज में वो,
राग और मधु गान दे गये।
गंतव्य हीन भटकने से अच्‍छे,
होश के वो दो कदम थे
ऐ मुसाफिर थकना नहीं अब
तू चला-चल तू चला चल........

--स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मानस’’






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