कुल पेज दृश्य

बुधवार, 7 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-24

फ्रेंंडशिप या मित्रता से उंचा प्रेम:
में तुम्हें फ्रेंडशिप, मित्रता, प्रेम से ऊंची है। किसी ने पहले ऐसा नहीं कहा। और मैं यह भी कहता हूं कि फ्रेंडशिप,मैत्री, मित्रता से भी ऊंची है। किसी ने यह भी कहा। निश्चित ही मुझे यह समझाना पड़ेगा।   
      प्रेम कितना भी सुंदर हो, इस धरातल के ऊपर नहीं उठता। यह पेड़ की जड़ों के समान है। प्रेम अपनी अंतर्निहित विशेषताओं तथा अन्‍य अंशों—शरीर—के साथ धरती के उपर उठने की कोशिश करता है। तो लोग कहते है कि वह प्रेम में गिर गया। अंग्रेजी में कहा जाता है कि फॉलन इन लव। जहां त‍क मुझे मालूम है, सब भाषाओं में प्रेम के लिए इन्‍हीं शब्‍दों का प्रयोग होता है। इसके बारे में अनेक देशों के लोगों से पूछ ताछ कि है मैंने। मैंने सभी दुतावासों को पत्र लि‍ख कर पूछा कि क्‍या उनकी भाषा में भी प्रेम में उठना जैसा शब्‍दों का प्रयोग है। उन सबने कहां नहीं, ऐसे पागलों को कोन उत्तर देगा जो ये पूछ रहा है प्रेम में उठना जैसा मुहावरा है।
 
      किसी भी भाषा में ऐसा प्रयोग नहीं है। और यह सिर्फ संयोगवश नहीं है। अगर एक या दो भाषाओं में न होता तो कोई बात नहीं थी। लेकिन तीन हजार भाषाओं में इनका न होना केवल संयोगवश नहीं हो सकता। और तीन हजार भाषाओं ने मिल कर ऐसा मुहावरा बनाया जिसका हमेशा अर्थ हो  प्रेम में गिरना असल में कारण यह है कि मूलतः: प्रेम इस धरातल का है। चह थोड़ा बहुत कूद सकता है। या जिसको तुम जॅगिंग कहते हो, वह कर सकता है।     
      मैं तुम्‍हें कह रहा था कि कभी-कभी प्रेम थोड़ा कूदता है और उसे लगता हे कि जेसे वह पृथ्‍वी से मुक्‍त हो गया है। लेकिन पृथ्‍वी ज्‍यादा अच्‍छे से जानती है। जल्‍दी ही जब वह धडाम से नीचे गिरता है। तो उसे होश आता है। प्रेम उड़ नहीं सकता। वह मोर जैसा है। उसके पंख बहुत सुंदर है, लेकिन वे उड़ नहीं सकता। हां, मोर जॉगिंग कर सकता है।
      प्रेम तो पार्थिव है। फ्रेंडशिप, मित्रता इससे थोड़ी ऊंची है। इसके पंख तो है, लेकिन तोते जैसे है। तुम जानते हो, तोता कैसे उड़ता है, वह एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर या एक बग़ीचे से दूसरे बग़ीचे या एक झुरमुट से दूसरे झुरमुट तक उड़ान भर सकता है। लेकिन  वे सितारों की और नहीं उड़ते। वे अच्‍छी तरह से उड़ना नहीं जानते।
      फ्रेंडलीनेस, मैत्री सबसे अधिक मूल्‍यवान है। क्‍योंकि मैत्री में कोई गुरुत्वाकर्षण नहीं होता है। इसमें तो केवल ऊपर उठना है। अंग्रेजी में मैं इसको लेविटेशन कहूंगा। मुझे नहीं मालूम कि अंग्रेजी भाषा के पंडित इस शब्‍द को मानेंगे या  नहीं। इसका अर्थ है  गुरूत्‍व के विरूद्ध’, गुरुत्वाकर्षण नीचे की और खींचती है। और लेविटेशन ऊपर की और खींचता है। लेकिन पंडितों की किसे परवाह है। वह तो गुरु गंभीर होते है। उनके पेर कब्र में पहुच गए है।
      मैत्री तो सीगल है—हां, जॉन थान की तरह। यह तो बादलों के भी ऊपर उठती है। जो मैं कह रहा हूं। उससे संबंध जोड़ने के लिए मैं ये सब बातें बोल रहा हैं।
      यह सोच कर मेरी नानी रोने लगी। मुझे मित्र नहीं मिलेंगे। एक प्रकार से वे ठीक थी और एक प्रकार से वे गलत थी। जहां तक मेरा स्‍कूल कालेज और युनिवर्सिटी के दिनों का संबंध है, वे सही थी। लेकिन जहां तक मेरा संबंध है वे गलत थी। अपने स्‍कूल के दिनों में भी यद्यपि सर्वमान्य अर्थ में मेरे मित्र नहीं थे। फिर भी असाधारण अर्थ में मेरे मित्र थे। शंभु बाबू के बारे में मैंने तुम्‍हें बताया। नानी के बारे में भी बताया है। सच तो यह है कि इन दोनों ने ही मुझे बिगाड़। और ऐसा बिगाडा कि मेरे सुधरने की कोई संभवना नहीं रही।
      पहले तो मेरी नानी आती है, समय क्रम के अनुसार भी। हर वक्‍त उनका ध्यान मेरा और रहता। वे मेरा सब बकवास को मेरा इधर-अधर की गप्‍प को इतने ध्‍यान से सुनती कि मुझे भी लगता कि मैं बिलकुल सच बोल रहा हुं।
      दूसरे थे शंभु बाबू, वह तो मरी बात सुनते समय अपनी आंखों को भी झपकाते नहीं थे। मैंने तो और किसी को बिना आँख झपकाए सुनते नहीं देखा। हां, ऐसे एक आदमी को और मैं जानता हुं। और वह मैं हूं। मैं साधारण कारण से फिल्‍म नहीं देख सकता, क्‍योंकि जब मैं देखता हूं तो पलक झपकना भूल जाता हूं। मैं फिल्‍म देखता ही नहीं, कयों‍कि दो घंटे तक पलक न झपकाने के कारण मेरे सिर में दर्द हो जाता है। और आंखें दुख नें लगती है। इतनी दुखती है कि मैं सो नहीं सकता। अगर थकावट बहुत अधिक हो जाए तो सोना भी मुश्किल है। लेकिन शंभु बाबू पलक झपकाए मेरी बातों को सुनते रहते थे। कभी-कभी में उनके कहता, शंभु बाबू, पलक
झपकाए। जब तक आप झपकाएंगे नहीं तब तक में बो लुंगा नहीं। तब वे अपनी पलकों को दो-तीन बार जल्‍दी-जल्‍दी झपकाते और कहते,  अच्‍छा, अब आगे बोलों और बीच में मत रुको।
      बर ट्रेड रसल ने लिखा है कि समय ऐसा आएगा जब मनोविश्लेषण सबसे बड़ा पेशा बन जाएगा। क्‍यों? क्‍योंकि सिर्फ  ये लोग ही बात को ध्‍यान से सुनते है और सभी को कभी-कभी किसी सुनने वाले कि जरूरत होती है। लेकिन अपनी बातें सुनाने के लिए एक आदमी को पैसे देना। जरा एक बेतुकापन को तो सोचो—अपनी बात सुनाने के लिए मनोविश्लेषण को पैसा देना, सुनता तो मनोविश्लेषण भी नहीं है। यह सुनने का बहाना करता है। इसीलिए भारत में मैं पहला आदमी था जिसने लोगों से कहा कि अगर मुझे सुनना है तो इसके पैसे दो। यह तो मनोविश्‍लेषण का ठीक उल्‍टा है। और यह अर्थपूर्ण है। अगर तुम मुझे समझना चाहते हो तो इसके पैसे दो। और पश्चिम में लोग अपनी बात को सुनाने के लिए पैसे देते है।
      सिग्मंड़ फ्रायड ने पक्‍के यहूदी ने नाते दुनिया में सबसे बड़ा जो आविष्‍कार किया वह मनो विश्लेषक का काउच है। सचमुच बहुत बड़ा आविष्कार है। बेचारा मरीज काउच पर लेट जाता है—ठीक वैसे ही जेसे में यहां पर लेट जाता हुं—लेकिन में मरीज नहीं हुं।  यही मुश्किल है। मरीज नोट लिख रहा है। उसका नाम है डाक्‍टर देव गीत। उसको डाक्‍टर कहा जाता है, लेकिन वह सिग्मंड़ फ्रायड जैसा नहीं है। वह यहां पर डाक्‍टर की हैसियत से नहीं है। अजीब है, मेरे साथ तो सब कुछ अजीब ही होता है। डाक्‍टर तो काउच पर लेटा है। और मरीज डाक्‍टर की कुर्सी पर बैठा हुआ है। मेरा अपना डाक्‍टर मेरे पैरों के पास बैठा है। क्‍या तुमने कभी किसी डाक्‍टर को अपने मरीज के पैरों के पास बैठते देखा है ?
      यहां की दुनियां तो निराली है। मेरे साथ तो सब कुछ सही है। में नहीं कह सकता कि सब कुछ उल्‍टा-पुलटा है।
      मैं मरीज नहीं हुं, लेकिन मुझमें बहुत धीरज है। यद्यपि मेरे ड़ाक्टरों के पास डाक्‍टरी की उपाधि है। फिर भी यह डाक्‍टर नहीं है। ये मेरे संन्‍यासी हे, मेरे मित्र है। यही तो कहा रहा हूं कि मैत्री तो चमत्‍कार है। वह तो कीमिया है। मरीज डाक्‍टर बन जाता है और डाक्‍टर मरीज बन जाता है—इसको कहते है कीमिया।
      प्रेम यह नहीं  कर सकता। प्रेम अच्‍छा होते हुए भी पर्याप्‍त नहीं है। अगर किसी अच्‍छी चीज को भी अधिक खाया जाए तो उससे नुकसान होता है—उससे पेट में दर्द होने लगता है। या पेचिश हो जाती है। और न जाने क्‍या-क्‍या। प्रेम सब कुछ  कर सकता है, सिर्फ अपने पार नहीं जा सकता। वह नीचे और नीचे की और ही खिसकता जाता है। प्रेम लड़ाई-झगड़े और कलह में परिवर्ति‍त हो जाता है। हर प्रेम अगर स्‍वाभाविक रूप से अपने तर्कसंगत अंत की और जाए तो उसका अंत तलाक में होगा। अगर तर्कसंगत न हो तो बात अलग है, फिर तुम फंसे। फिर लोग एक दूसरे को झेलते है, एक-दूसरे को सहन करते है। और किसी को फंसे देखना बहुत ही भयानक होता है। तुम्‍हें इसके लिए कुछ कहना चाहिए। लेकिन ये फंसे हुए लोग अगर कोई इनकी मदद करना चाहे तो दोनों जम कर उसका विरोध करते है।
      मुझे याद आया कि अभी कुछ सप्‍ताह पहले एंथनी का एक मित्र संन्‍यास लेने के लिए इंग्‍लैड से आया। और तुम तो जानते हो ही कि अंग्रेज सज्जन कैसे होते है। वह तो गले तक फंसा हुआ था। तुम कुछ नहीं देख सकते थे, वह कीचड़ मैं इतना डूबा हुआ था—तुम सिर्फ उसके थोडे से बाल ही देख सकते थे। थोड़े से ही, क्‍योंकि वह मरी तरह गंजा था। अगर वह पुरी तरह गंजा होता,तो ज्‍यादा अच्‍छा होता कम से कम कोई उसकी और ध्‍यान न देता। मैने उसे बाहर निकालने की कोशिश की। लेकिन किसी आदमी को जिसके सिर्फ थोडे से बाल दिख रहे हो , कोई कैसे कीचड़ से बाहर निकाले? मेरे भी तरीके है।
      मैंने एंथनी और उत्‍तमा से उस बेचारे की मदद करने को कहा। उन्‍होने मुझसे कहा, वह अपनी पत्‍नी से अलग होना चाहता है। मैंने उसकी पत्‍नी को भी देखा था, क्‍योंकि उसने आग्रह किया था कि वह भी उस समय उपस्थित रहेगी जब वह संन्‍यास लेगा। वह देखना चाहती थी कि वह किस प्रकार सम्‍मोहित किया गया है। मैंने उसको यहां पर उपस्थित रहने की इजाजत दे दी थी, क्‍योंकि यहां पर तो सम्‍मोहन किया जा रहा था। वह तो स्‍वंय भी संन्‍यास में उत्‍सुक हो गई। मैंने उसको आमंत्रित करते हुए कहा, ‘’तुम क्‍यों नहीं संन्‍यास ले लेती? उसने कहा: मैं इसके बारे में सोचुगी, मैंने कहा मेरा सिद्धांत तो यह है कि सोचने से पहले ही छलांग लगाओ। लेकिन अगर तूम सोचना चाहती हो तो सोचो। तुम्‍हारे सोच लेने के बाद अगर मैं यहीं पर रहा तो मैं तुम्‍हारी मदद के लिए तैयार रहूंगा।
      लेकिन मैंने एंथनी और उत्‍तमा से कहा—जो दोनों मेरे संन्‍यासी है ओर उन कुछ थोडे से लोगों में से है  जो मेरे बहुत निकट हैं—कि वे अपने मित्र की सहायता करें। मैंने कहा कि उनकी पत्‍नी और बच्‍चों के लिए ऐसी सब व्‍यवस्‍था कर दें जिससे उनको कोई तकलीफ न हो, कोई नुकसान हो लेकिन आध्‍यात्मिक रूप से उसके पति को अब और कष्‍ट नहीं होना चाहिए। अगर उसे अपना सब कुछ भी अपनी पत्‍नी को देना पड़े तो वह दे दे। उसके लिए तो मैं अकेला ही पर्याप्‍त हूं।  
      मैंने उस आदमी को देखा और उसके सौंदर्य को भी देखा। उसमें बच्‍चे जैसी सरलता थी। धरती पर पहली वर्षा होने से जो सोंधी सुगंध आती है और धरती आनंदित होती है। वही सुगंध ओर आनंद उसमें दिखाई दे रहा था वह संन्यासी होने में बड़ा खुश था।
      अभी कुछ दिन पहले मुझे यह संदेश मिला कि वह निरंतर सो ही रहा है। सिर्फ अपनी पत्‍नी के डर की वजह से। वह जागना ही नहीं चाहता। जो ही उसकी नींद खुलती है वह फिर नींद की गोलियां खा लेता है। मैंने एंथनी से कहा कि उसको कहो कि यह नींद उसकी मदद नहीं करेगी। यह उसे मार भी सकती है लेकिन यह उसकी पत्‍नी की मदद नहीं करेगी। उसे सत्य का सामना करना चाहिए।
      बहुत कम लोग सत्‍य का सामना करते है। जिसे वे प्रेम करते है वह जो शारीरि‍क है, निन्यानवे प्रतिशत प्रेम शारीरिक है। मित्रता निन्यानवे प्रतिशत मनोवै‍ज्ञानिक है और मैत्री निन्यानब प्रतिशत आध्‍यात्मिक है। प्रेम में एक प्रतिशत जो बचता है वह मित्रता के लिए है। मित्रता में एक प्रतिशत जो बचता है वह मैत्री के लिए है। और मैत्री में एक प्रतिशत जो बचता है वह उसके लिए हे जिसका कोई नाम नहीं है। उपनिषदों ने उसे कहा है:  तत्व मसि। तुम वही हो। वह , उसे में क्‍या कहूं ?  नहीं, उसको मैं कोई नाम नहीं देता। सब नामों ने मनुष्‍य को धोखा दिया है। सब नाम बिना अपवाद के मनुष्‍य के शत्रु सिद्ध हुए है । इसलिए में उसे कोई नाम नहीं देना चाहता। 
      मैं अपनी अंगुलि से उसकी और केवल इशारा करता हूं। और मैं उसकेा कोई नाम दु या न दूँ, उसका कोई नाम नहीं है। वह अनाम है। सब नाम हमारे ही आविष्‍कार है। कब हम इस सीधी सह बात को समझेंगे ? एक गुलाब, केवल गुलाब, और केवल गुलाब होता है। तुम इसको किसी भी नाम से पुकारों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्‍योंकि गुलाब शब्‍द भी इसका नाम नहीं है। वह बस है। जब तूम अपने और अस्तित्‍व के बीच में से भाषा को हटा देते है तो अचानक विस्‍फोट  होता है......आनंद विरेक।
      प्रेम सहायता कर सकता है, इसलिए में प्रेम के विरूद्ध नहीं हूं। वह तो ऐसा होगा जैसे कि मैं सीढी के उपयोग के विरूद्ध हूं। सीढी अच्‍छी है, लेकिन उस पर सावधानी से चलना चाहिए ,विशेषत: जब वह पुरानी हो। और याद रखना कि प्रेम सबसे प्राचीन है। आदम और ईव इससे गिर गए थे। लेकिन गिरने की कोई आवश्‍यकता नहीं थी। अगर उन्‍होंने खुद इसका चुनाव किया होता—लेकिन गिरने की कोई आवश्‍यकता नहीं थी। लेकिन अपनी स्‍वतंत्रता से गिरना एक बात है और दंड स्‍वरूप गिराना बिलकुल ही दुसरी बात है।
      अगर मैं बाइबिल को दुबारा लिखता तो भरोसा करो, मैं ऐसी मूर्खता न करता। मैं यह कह रहा हूं कि अगर मैं लिखता तो मैं आदम और इव को सज़ा के कारण नहीं बल्कि अपने चुनाव से अपनी इच्‍छा से गिराता।
      प्रेम अच्‍छा है। लेकिन तुम्‍हें  पंख देने के लिए यह पर्याप्‍त नहीं है। उसके लिए मित्रता चाहिए। और प्रेम उसकी इजाजत नहीं देता। तथाकथित प्रेम मित्रता के बहुत विरूद्ध है। वह मित्रता से बहुत डरता है। क्‍योंकि जो  ऊँचा होता है। वह खतरनाक होता है। और मित्रता ऊंची है।
      जब किसी पुरूष या स्त्री की मित्रता से खुशी प्राप्‍त हाथी है, तो पहली बार मालूम होता है कि प्रेम तो धोखा है। तब इस बात का अफसोस होता है। कि समय बर्बाद हो गया है। लेकिन मित्रता तो सिर्फ एक पुल है उसके ऊपर से गुजर जाना चाहिए और उसके ऊपर रहना शुरू नहीं करना चाहिए। पुल रहने के लिए नहीं होता। यह पुल मैत्री पर ले जाता है।
      मैत्री तो शुद्ध सुगंध है, अगर प्रेम जड़ है और मित्रता फूल, तो मैत्री सुगंध है। जिस आँख नहीं देख सकती। उसका स्‍पर्श भी नहीं किया जा सकता, उसे हाथ से पकड़ा नहीं जा सकता। खासकर उसको मुट्ठी में बिलकुल नहीं रखा जा सकता है। हां, खुले हाथ पर उसे रखा जा सकता है। लेकिन बंद हाथ में नहीं।
      प्राचीनकाल में रहस्य दर्शी जिसे प्रार्थना कहते थे, मैत्री वह प्रार्थना है। मैं इसको प्रार्थना नहीं कहना चाहता, क्‍योंकि यह शब्‍द गलत हाथों में गलत लोगों से संबंधित है। यह शब्‍द सुंदर है, लेकिन गलत संगत में पड़ कर खराब हो गया है। संगत का बुरा असर तो पड़ता है ही। जैसे ही प्रार्थना कहते हो वैसे ही सब लोग डर कर सावधान और सजग हो जाते है। मानों किसी जनरल ने अपने सैनिकों को सावधान होने के  लिए कहा हो और सब अचानक मूर्तियों जैसे हो गए हों।     
      क्‍या होता है जब कोर्इ प्रार्थना’, परमात्‍मा  या  स्‍वर्ग जैसे शब्‍दों का उल्‍लेख करता है। इन शब्‍दों को सुनते ही तुम बिलकुल बंद क्‍यों हो जाते हो? ऐसा कह कर में तुम्‍हारी बुराई नहीं कर रहा हूं, मैं तो तुमको यह बताना चाहता हूं कि इन तथाकथित धार्मिक लोगों ने इन सुंदर शब्दों को बहुत गंदा कर दिया है। इन्‍होंने बहुत ही अधार्मिक काम किया है। मैं उन्‍हें क्षमा नहीं कर सकता हूं।
      जीसस कहते है:  अपने शत्रुओं को क्षमा करों। यह मैं कर सकता हूं। लेकिन उन्‍होंने यह नहीं कहा कि अपने पुरोहितों को क्षमा करों। अगर उन्‍होंने यह कहा होता तो भी में उन्‍हें उनसे कहता चुप रहो। मैं पुरोहितों को क्षमा नहीं कर सकता। मैं न तो उन्‍हें क्षमा कर सकता हूं और न ही भूल सकता हूं। अगर में उन्‍हें भूल जाऊँ तो  मिटाएगा कौन ? और अगर मैं उन्‍हें क्षमा कर दूँ तो इन्होंने जो मनुष्यता कर जो नुकसान किया है उसे कौन मिटाएगा। नहीं, जीसस नहीं। शत्रुओं को में समझ सकता हूं, उन्‍हें क्षमा किया जाना चाहिए क्योंकि वह नहीं जानते की वे क्या कर रहे है। लेकिन पंडित-पुरोहित ? मत कहो कि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे है। वे भली भाति जानते है। कि वे क्‍या कर रहे है। इसीलिए न तो मैं उन्‍हें क्षमा कर सकता हूं, न मैं भूल सकता हूं। मैं तो अपनी अंतिम श्‍वास तक लड़ता रहूंगा।    
      प्रेम तो एक कदम है—अगर यह मित्रता की और ले जाये तभी उसको प्रेम कहा जा सकता है। अगर यह मित्रता की और जाता है तो फिर यह वासना है, प्रेम नहीं है। अगर यह मित्रता की और ले जाए तो आभार मानना, लेकिन इसको अपनी स्‍वतंत्रता में बाधा न बनने देना। हां, इससे सहायता अवश्‍य मिली, लेकिन इसको यह अर्थ नहीं है कि अब अड़चल भी डाले। क्‍योंकि नाव ने तुम्‍हें दूसरे किनारे पर पहुंचा दिया है, उसको अपने कंधे पर उठा कर मत ढोआ। बेवकूफी मत करो। माफ। करना देव गीत। यह शब्‍द तो मैने तुम्‍हारे लिए रख छोड़ा है। मैं कहना चाहता था। मूढ़ मत बनो। लेकिन में बार-बार भूल जात हूं और दूसरों के लिए में ‘’‘बेवकूफ’’ शब्‍द का प्रयोग कर देता हूं। प्रेम अच्‍छा है। इसके पार जाओ, क्‍योंकि यह तुम्‍हें अधिक अच्‍छे की और जे जा सकता है, मित्रता की ओ ले जा सकता है। और अगर कोई कवि हो तो यह हाइकू यह रूबाइयात लिखता है। और अगर कोई न संगीतज्ञ हो न कवि,तो वह नाच सकता है, चित्र बना सकता है या चुपचाप बैठ कर आकाश की और देख सकता है। इससे अधिक ओर क्‍या किय जो सकता है। अस्तित्‍व तो कर चुका है।
      प्रेम से मित्रता और मित्रता से मैत्री—बस इसे ही मेरा सारा धर्म कहा जा सकता है। मित्रता तो एक संबंध है, एक प्रकार का बंधन है—बहुत सूक्ष्‍म, प्रेम से भी सूक्ष्‍म,लेकिन है तो। और इसमे ईर्ष्‍या हे और प्रेम की सब बीमारियां है। ये सूक्ष्म ढंग से आ गई है। लेकिन मैत्री में दूसरे से स्‍वतंत्रता है। इसलिए इसमें संबंध का कोई प्रश्‍न ही नहीं उठता।
      प्रेम दूसरे के प्रति होती है। मित्रता भी दूसरे के प्रति होता है। लेकिन मैत्री तो अस्तित्‍व के प्रति तुम्‍हारे ह्रदय का खुल जाना है.... अचानक किसी विशेष क्षण में तुम किसी पुरूष यह स्‍त्री यह पेड़ यह सितारे के प्रति खुल जाते हो। आरंभ में तुम पूरे आस्तित्‍व के प्रति नहीं खुल सकते ।अंत में अवश्‍य तुम्‍हें अपना ह्रदय पूर्ण के प्रति,समग्र के पति खोलना पड़ता है—किसी विशेष को संबोधित किए बिना। वही क्षण हे, वही विशेष क्षण है। इसे सिर्फ  क्षण ही कहने दो    हमें बुद्धत्‍व,समाधि, क्राइस्‍ट-चेतना जैसे शब्‍दों को भूल जाना चाहिए और सिर्फ उसे कहना चाहिए:  वह क्षण‍। इसे बड़े अक्षरों में लीखों ।
      यह बहुत सुंदर रहा। मुझे मालूम है कि अभी समय है, लेकिर यह कितना अच्छा था। कितना सुंदर था। और इससे अघिक की मांग नहीं करनी चाहिए। अधिक तो बरबाद कर देता है।

--ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें