जीवन ही है प्रभु-(साधना-शिविर)
ओशो
साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक
10 दिसंबर, 1969; रात्रि.
प्रवचन-तीसरा
मेरे प्रिय आत्मन् ,
एक मित्र ने पूछा है कि यदि ध्यान से जीवन में
शांति हो जाती है, तो फिर ध्यान सारे देश में फैल क्यों नहीं जाता है?
पहली बात तो यह कि बहुत कम लोग हैं पृथ्वी पर जो शांत होना चाहते हैं।
शांत होना बहुत कठिन है। असल में शांति की आकांक्षा को उत्पन्न करना ही बहुत कठिन
है। और कठिनाई शांति में नहीं है। कठिनाई इस बात में है कि जब तक कोई आदमी ठीक से
अशांत न हो जाये तब तक शांति की आकांक्षा पैदा नहीं होती। पूरी तरह अशांत हुए बिना
कोई शांत होने की यात्रा पर नहीं निकलता है। और हम पूरी तरह अशांत नहीं हैं। यदि
हम पूरी तरह अशांत हो जायें तो हमें शांत होना ही पड़े। लेकिन हम इतने अधूरे जीते
हैं कि शांति तो बहुत दूर, अशांति भी पूरी नहीं हो पाती।
हमारी बीमारी भी इतनी कम है कि हम चिकित्सा की तलाश में भी नहीं
निकलते। जब बीमारी बढ़ जाती है तो चिकित्सक की खोज शुरू होती है। लेकिन हम बचपन से
ही इस भांति पाले जाते हैं कि हम कुछ भी पूरी तरह नहीं कर पाते। न तो हम क्रोध
पूरी तरह कर पाते हैं कि अशांत हो जायें। न ही चिंता पूरी तरह कर पाते हैं कि मन
व्यथित हो जाये। न हम द्वेष पूरी तरह कर पाते हैं, न घृणा पूरी तरह कर
पाते हैं कि मन में आग लग जाये और नर्क पैदा हो जाये। हम इतने कुनकुने जीते हैं कि
कभी आग जल ही नहीं पाती और इसलिए पानी खोजने भी हम नहीं निकलते जो उसे बुझा दे।
हमारा कुनकुना जीना ही, ल्यूक-वार्म-लिविंग ही हमारी कठिनाई
है।
जब कोई मुझसे पूछता है कि जब शांत होना इतना आसान है तो बहुत लोग शांत
क्यों नहीं हो जाते। तो पहली बात तो यह है कि वे अभी ठीक से अशांत ही नहीं हुए
हैं। उन्हें अशांत होना पड़ेगा। शांत तो आदमी क्षण-भर में हो जाता है, अशांत होने के लिए जन्म-जन्म लेने पड़ते हैं, लंबी
यात्रा है। यह इतने जन्मों की हमारी जो यात्रा है, यह शांति
की यात्रा नहीं है, शांति तो क्षण-भर में घटित हो जाती है।
यह इतने जन्मों की यात्रा हमारे अशांत होने की यात्रा है जो हम पूरी तरह अशांत हो
जाते हैं। जब अशांति की चरम अवस्था आ जाती है, क्लाइमेक्स आ
जाता है, तब हम लौटना शुरू करते हैं।
बुद्ध एक गांव में गये--और जो आज मुझसे आपने पूछा है एक आदमी ने उनसे
भी आकर पूछा। और उस आदमी ने उनसे कहा था कि चालीस वर्षों से निरंतर आप गांव-गांव
घूमते हैं, कितने लोग शांत हुए, कितने लोग
मोक्ष गये, कितने लोगों का निर्वाण हो गया? कुछ गिनती है, कुछ हिसाब है? वह
आदमी बड़ा हिसाबी रहा होगा। बुद्ध को उसने मुश्किल में डाल दिया होगा क्योंकि बुद्ध
जैसे लोग खाता-बही लेकर नहीं चलते हैं कि हिसाब लगाकर रखें कि कौन शांत हो गया,
कौन नहीं शांत हो गया। बुद्ध की कोई दुकान तो नहीं है कि हिसाब
रखें। बुद्ध मुश्किल में पड़ गये होंगे। उस आदमी ने कहा, बताइये,
चालीस साल से घूम रहे हैं, क्या फायदा घूमने
का? बुद्ध ने कहा, एक काम करो, सांझ आ जाना, तब तक मैं भी हिसाब लगा लूं। और एक
छोटा-सा काम है, वह भी तुम कर लाना। फिर मैं तुम्हें उत्तर
दे दूंगा। उस आदमी ने कहा बड़ी खुशी से, क्या काम है वह मैं
कर लाऊंगा। और सांझ आ जाता हूं हिसाब पक्का रखना, मैं जानना
ही चाहता हूं कि कितने लोगों को मोक्ष के दर्शन हुए; कितने
लोगों ने परमात्मा पा लिया; कितने लोग आनंद को उपलब्ध हो
गये। क्योंकि जब तक मुझे यह पता न लग जाये कि कितने लोग हो गये हैं, तब तक मैं निकल भी नहीं सकता यात्रा पर। क्योंकि पक्का पता तो चल जाये कि
किसी को हुआ भी है या नहीं हुआ।
बुद्ध ने उससे कहा, कि यह कागज ले जाओ और गांव में
एक-एक आदमी से पूछ आओ, उसकी जिंदगी की आकांक्षा क्या है,
वह चाहता क्या है? वह आदमी गया। उसने गांव
में--एक छोटा सा गांव था, सौ पचास लोगों की छोटी-सी झोपड़ियां
थीं, उसने एक-एक घर में जाकर पूछा। किसी ने कहा कि धन की
बहुत जरूरत है, और किसी ने कहा कि बेटा नहीं है, बेटा चाहिए। और किसी ने कहा--और सब तो ठीक है लेकिन पत्नी नहीं है,
पत्नी चाहिए। किसी ने कहा--और सब ठीक है, लेकिन
स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, बीमारी पकड़े रहती है, इलाज चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। कोई बूढ़ा था, उसने कहा कि उम्र चुकने के करीब आ गयी, अगर थोड़ी
उम्र मिल जाये और तो बस, और सब ठीक है। सारे गांव में घूमकर
सांझ को जब वह लौटने लगा तो रास्ते में डरने लगा कि बुद्ध से क्या कहूंगा जाकर। क्योंकि
उसे खयाल आ गया कि शायद बुद्ध ने उसके प्रश्न का उत्तर ही दिया है। गांव-भर में एक
आदमी नहीं मिला जिसने कहा, शांति चाहिए; जिसने कहा, परमात्मा चाहिए; जिसने
कहा आनंद चाहिए। बुद्ध के सामने खड़ा हो गया। सुबह बुद्ध मुश्किल में पड़ गये कि
सांझ वह आदमी मुश्किल में पड़ गया।
बुद्ध ने कहा, ले आये हो? उसने कहा, ले तो आया हूं। बुद्ध ने कहा, कितने लोग शांति चाहते
हैं? उस आदमी ने कहा, एक भी नहीं मिला
गांव में। बुद्ध ने कहा, तू चाहता है शांति? तो रुक जा। उसने कहा, लेकिन अभी तो मैं जवान हूं,
अभी शांति लेकर क्या करूंगा? जब उम्र थोड़ी ढल
जाये तो मैं आऊंगा आपके चरणों में, अभी तो वक्त नहीं है,
अभी तो जीने का समय है। तो बुद्ध ने कहा, फिर
पूछता है वही सवाल? कि कितने लोग शांत हो गये? उसने कहा, अब नहीं पूछता हूं।
कोई किसी को शांत नहीं कर सकता, लेकिन हम शांत हो
सकते हैं। पर अशांत हो गये हों तभी। असल में हम अशांत ही नहीं हो पाते हैं,
चरम नहीं हो पाती अशांति। बीमारी वहां नहीं पहुंच जाती जहां बीमारी
टूट जाती हो। हमने कुछ भी कभी पूरी तरह नहीं किया है। इसलिए मेरी दृष्टि में हिसाब
और है। मेरी दृष्टि में हिसाब यह है कि आने वाली जो मनुष्यता होगी उसमें हम एक-एक
बच्चे को पूरी तरह क्रोध करना सिखायेंगे। यह नहीं सिखायेंगे बचपन से कि क्रोध बुरा
है। क्योंकि क्रोध बुरा है, इसका सिर्फ एक ही परिणाम होता है,
क्रोध तो नहीं मिटता केवल क्रोध अधूरा लटका रह जाता है। न वह पूरा
हो पाता, न वह मिटता। जिंदगी-भर क्रोध, और क्रोध, और क्रोध--क्रोध भी और पश्चात्ताप भी।
आदमी को हमने बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। क्रोध भी नहीं मिटता और क्रोध के लिए
पश्चात्ताप भी करना पड़ता है। क्रोध एक बीमारी है, पश्चात्ताप
दूसरी बीमारी है। क्रोध करो, फिर दुखी होओ, फिर पछताओ, फिर क्रोध करो। फिर दुखी होओ, फिर पछताओ, फिर एक विसियस सर्कल, एक चक्कर जो जिंदगी-भर चलता है। सुबह क्रोध करो, सांझ
पछताओ, रात-भर में फिर तैयारी करो, सुबह
फिर क्रोध करो, दिन-भर फिर पछताओ। रात-भर में फिर तैयारी करो,
और ऐसा ही जिंदगी भर चलता है। कितनी बार आप पछताये? लेकिन पछताने से क्या बना-बिगड़ा?
पछताने से सिर्फ एक फायदा होता है कि पछताकर आप फिर पुरानी अवस्था में
पहुंच जाते हैं जहां क्रोध के पहले थे ताकि अब फिर क्रोध कर सकें। पछताना सिर्फ
क्रोध को लीपना-पोतना है। रिपेंटेंस, पछतावा, प्रायश्चित, वह जो हमारे अहंकार को चोट लग गयी है।
मैंने किसी को गाली दे दी है, अब मैं क्रोध से भर गया हूं।
मेरे अहंकार को बड़ी चोट लग गयी, क्योंकि मैं अपने को भला
आदमी समझता था, जो गाली नहीं दे सकता। जो क्रोध नहीं कर सकता,
अब क्रोध कर दिया, अब गाली दे दी। अब मैं
पछताकर फिर भला आदमी होने की कोशिश करता हूं। पछताकर मैं कहता हूं, यह कुछ भूल हो गयी, कुछ नासमझी हो गयी। मुझसे कैसे
हो सकता है? कुछ बेहोशी हो गयी। वह तो कुछ स्थिति ऐसी थी कि
मुझ से निकल गया, अन्यथा मुझ से कैसे निकल सकता है। मैं
क्षमा भी मांगता हूं, जाकर हाथ भी जोड़ता हूं कि मुझे माफ कर
दो। मैं असल में अपने बिखरे अहंकार को फिर से जुड़ाने की कोशिश कर रहा हूं। जब मैं
माफ हो जाऊंगा और पछता लूंगा और दुखी हो लूंगा और एक दिन उपवास कर लूंगा, पछतावे में दूसरे दिन मैं फिर पुरानी जगह वापस लौट जाऊंगा। अब मैं फिर
अच्छा आदमी हो गया। जो न गाली देता है, न क्रोध करता है। अब
मैं फिर गाली देने की तैयारी कर लिया। अब मैं गाली दे सकता हूं। अब मैं क्रोध कर
सकता हूं। मैं फिर अच्छा आदमी हो गया। अच्छा आदमी हुआ ही इसलिए कि तब फिर गाली
देने की सुविधा जुटा सकूं।
हम बच्चों को सिखाते हैं, क्रोध बुरा है,
क्रोध पाप है, क्रोध मत करो। परिणाम यह नहीं
होता है कि क्रोध न करते हों। यह तो हो नहीं सकता। सिर्फ क्रोध अधूरा रह जाता है,
कभी पूरा नहीं हो पाता। और कभी वे क्रोध की पीड़ा को पूरा अनुभव नहीं
कर पाते, वे क्रोध की अग्नि ने पूरे गुजर नहीं पाते और तब,
अक्रोध तक पहुंचने का सवाल नहीं उठता। तब शांति की खोज का सवाल नहीं
उठता। अभी जो अशांत ही नहीं हो सका है, वह शांत कैसे हो सकता
है। अभी जिसकी इतनी भी पात्रता नहीं है कि अशांत हो जाये, अभी
उसकी इतनी पात्रता कैसे होगी कि वह शांत हो सके। ये बातें उल्टी लगेंगी देखने में।
लेकिन मैं आपसे यह कह रहा हूं कि जो ठीक से अशांत हो सकता है वही केवल शांति के
मार्ग पर यात्रा करता है। और जो ठीक से क्रोध करके क्रोध को जी लेता है; उसके पूरे जहर को...उसके कांटे-कांटे में छिद जाता है; उसकी आग की लपटों में जल जाता है; जो क्रोध को पूरी
तरह जी लेता है; क्रोध को पूरी तरह पी लेता है--वह फिर
दुबारा क्रोध करने में असमर्थ हो जाता है। वह शांति की यात्रा पर निकल जाता है।
मेरी दृष्टि में बच्चों को सिखाया जाना चाहिए कि ठीक से वे कैसे क्रोध
करें, जोर से, ठीक से, पूर्णता से, ताकि क्रोध का पूरा अनुभव उन्हें बता दे
कि क्रोध करना अपने को जलाना है। ताकि उन्हें दर्शन हो जाये क्रोध का, क्रोध की पूरी प्रतीति हो जाये, क्रोध के कीड़े उनको
दिखायी पड़ जायें और क्रोध की जहरीली लपटें उन्हें चारों तरफ से घेर लें, उन्हें दर्शन हो जाये कि यह है क्रोध। और जिस आदमी ने एक दफे पूरे क्रोध
को देख लिया वह दुबारा क्रोध करने की क्षमता नहीं जुटाता। कौन पागल है जो अपने को
आग में डालता है। लेकिन हम आग में ही नहीं डाल पाये इसलिए निकलने का सवाल नहीं।
हमारे सारे बुनियादी संस्कार गलत हैं और उनकी वजह से हम अशांत ही नहीं
हो पाते तो शांत होने की बात कैसे उठेगी। निश्चित ही ध्यान से शांति उपलब्ध हो
सकती है लेकिन ध्यान की तरफ वे ही आकर्षित होंगे जो अशांत हो चुके हैं। हम अशांत
ही नहीं हुए हैं पूरी तरह से। वहां नहीं पहुंच गये हैं जहां अशांति हमें जिंदगी को
मिटाती हुई मालूम पड़ती हो। हम उस कगार पर नहीं पहुंच गये हैं जहां आगे खड्ड है और
एक कदम उठायेंगे तो अंतहीन खड्ड में गिर जायेंगे। हम वहां नहीं पहुंच गये हैं। अगर
हम वहां पहुंच गये होते तो हम वापस लौटेंगे, कौन गिरेगा उस खड्ड
में जहां अंतहीन गहराइयां हों। और जहां मृत्यु के सिवाय कुछ दिखायी न पड़ रहा हो।
आपने कभी ऐसी अशांति का अनुभव किया है जहां से एक कदम और आगे उठाने पर
सिवाय मृत्यु के कुछ शेष न रह जाये? अगर नहीं किया है तो
अभी आप अशांत ही नहीं हुए हैं। अभी आप अशांति के रास्ते पर भी आधे ही पहुंचे हैं।
और गुरुजन मिल जाते हैं इसी आधे रास्ते पर कहने वाले, कि
चलिए हम आपको शांत होने का मार्ग बताये देते हैं, शांत हो
जाइए। तो आपके कदम तो अशांति की तरफ बढ़ते रहते हैं और आप सोचते हैं कि चलो रास्ते
चलते अगर शांति भी मिलती हो तो दो हाथ उस पर भी मार लिए जाएं। चलते रहते हैं
अशांति की तरफ क्योंकि अभी अशांति का रस ही नहीं ले पाये कि उससे मुक्त हो सकें।
असल में जिस चीज से भी मुक्त होना हो उसके पूरे रस का अनुभव जरूरी है।
अगर बुराई से भी मुक्त होना हो तो बुराई की गहराइयों में उतरना जरूरी है। असल में
पापी हुए बिना कोई कभी महात्मा न हुआ है, न हो सकता है। असल
में जिसे आकाश की ऊंचाइयां छूनी हों, उसे पाताल की गहराइयां
भी छूनी होती हैं। देखे हैं दरख्त, जो आकाश की तरफ उठते हैं
और चांदत्तारों को छूते हुए मालूम पड़ने लगते हैं। वह उनकी जड़ें नीचे पाताल में उतर
जाती हैं, तभी वे ऊपर उठ पाते हैं। जिस दरख्त को आकाश छूना
हो, उस दरख्त को पाताल भी छूना ही पड़ता है। जितनी जड़ नीचे
गहरी जाती है उतना दरख्त ऊपर ऊंचा चला जाता है।
हम कुछ ऐसे लोग हैं कि जड़ें ही पूरी गहरी नहीं जा पातीं, आकाश की तरफ उठने का सवाल कहां है? और ध्यान रहे,
जितनी नीचे गहराई होगी उतनी ही ऊपर ऊंचाई हो सकती है, इससे अन्यथा कोई उपाय नहीं है। तो हमें जो संस्कृति मिली है अधूरी,
इम्पोटेंट, नपुंसक, जो
कुछ भी करना नहीं सिखाती; जो ठीक अर्थों में क्रोध भी करना
नहीं सिखाती--अधूरे, अधजले, न इस पार,
न उस पार, आदमी अटका रह जाता है। मैं तो कहता
हूं, क्रोध करना तो ठीक से करना, एक ही
बार कर लेना ताकि बार-बार करने की जरूरत न रहे। और चिंतित होना हो तो ठीक से
चिंतित हो लेना, और द्वेष करना हो, दुश्मनी
करनी हो तो ठीक से ही कर लेना क्योंकि ठीक से कर लेना ही बाहर हो जाने का रास्ता
है। लेकिन कुछ भी हमने ठीक से नहीं किया। इसलिए मैं कहता हूं, अशांत ही हम नहीं हैं। हां, जो अशांत हैं वे शांत हो
सकते हैं।
इसलिए मुझे लगता है कि पश्चिम के
मुल्कों में शांति की लहरें हर वर्ष बढ़ती चली जाएंगी। क्योंकि पश्चिम के
लोग बड़े खुले दिल से अशांत हुए हैं। आज अमरीका में ध्यान के लिए जैसी अभीप्सा है, जैसी प्यास है, वैसी हमारे भीतर नहीं है। आज यूरोप
में, यूरोप के बुद्धिमान वर्ग में जिस भांति योग की खोज है,
समाधि की खोज है वैसी हमारे बुद्धिमान वर्ग में नहीं है। उसका कारण
है। उन्होंने अगर अशांत भी होना चाहा है तो ठीक से वे अशांत हुए हैं। अगर उन्होंने
भौतिकवादी होना चाहा है तो फिर उन्होंने कुछ बकवास नहीं सुनी, वे ठीक से भौतिकवादी हो गये हैं। और जब कोई आदमी ठीक से भौतिकवादी हो जाता
है तो वह सीमा आ जाती है जहां से अध्यात्म शुरू होता है। लेकिन ठीक से भौतिकवादी
ही कोई नहीं हो पाता हमारे मुल्क में, अध्यात्मवादी होना
असंभव है। पहले कम-से-कम भौतिकवादी तो कोई हो जाये। वह भी नहीं हम हो पाते। तो हम
अधूरे मकान बनाते हैं।
मैंने सुना है, एक फकीर के पास कोई पूछने गया था कि तुम कैसे उपलब्ध
हो गये परमात्मा को? तो उस फकीर ने कहा कि मैंने परमात्मा की
फिक्र ही न की। मैंने संसार की ही पूरी फिक्र की। लेकिन जब मैं संसार में गहरा
उतरा, और गहरा, और गहरा उतरा तो सीमा आ
गयी। और सीमा पर मुश्किल हो गयी, फिर पीछे लौटना जरूरी हो
गया।
उस आदमी ने कहा, मैं समझा नहीं। तो उसने कहा,
आओ मैं तुम्हें पास के एक खेत पर ले चलता हूं। जैसा उस खेत का मालिक
है, ऐसे दुनिया के लोग हैं। वह उसे खेत पर ले गया। उस खेत का
मालिक बड़ा अदभुत होगा, ठीक आप जैसा होगा, हम जैसा होगा। उस खेत के मालिक ने खेत में आठ गङ्ढे खोदे थे कुआं बनाने के
लिए। आठ हाथ पहले एक गङ्ढा खोदा, आधा खोदा, फिर छोड़ दिया; सोचा अब तक पानी नहीं आया, दूसरा गङ्ढा खोदूं। फिर उसने खोदा, सोचा इसमें भी
पानी नहीं आता; उसने तीसरा गङ्ढा खोदा। उसने आठ गङ्ढे खोदे
थे, पूरा खेत खराब हो गया आठ गङ्ढों में, लेकिन अभी कुआं नहीं खुदा था। फकीर ने कहा, देखते हो
इस खेत के मालिक को? यह कभी कुआं न खोद पाएगा। क्योंकि यह
पूरा खोदता ही नहीं है। खोदे तो पानी आ जाये, मिट्टी खत्म हो
जाये। लेकिन अधूरा खोदता है, फिर दूसरा खोदना शुरू कर देता
है, फिर तीसरा खोदना शुरू कर देता है। एक ही कुआं खोदने से
काम हो सकता था, आठ से भी काम नहीं हुआ। क्योंकि कुआं तो आया
नहीं, यह तो बीच से ही लौट आया था। और जितनी खुदायी इसने की
उतनी खुदायी से एक कुआं कभी का खुद गया होता। खुदायी तो इसने काफी की। लेकिन
अलग-अलग जगह की है, एक ही गङ्ढे पर नहीं की।
हम भी उस खेत के मालिक जैसे लोग हैं। हम जिंदगी में जाते हैं, लेकिन कहीं भी हम पूरे नहीं गये। किसी भी आयाम में, किसी
भी दिशा में हमारी गति पूरी नहीं है। अगर एक आदमी धन ही कमा ले पूरी तरह से तो धन
से मुक्त हो जायेगा। लेकिन इधर धन कमाता है, उधर किताब में
पढ़ता है कि धन बिलकुल पाप है। इधर रोज किताब भी पढ़ता है, उस
गुरु के पास भी जाता है जो धन को गाली दे रहा है और दिन भर दुकान में धन कमाता है
और सांझ गुरु के चरणों में बैठकर धन की निंदा सुनता है। ऐसे दोहरे गङ्ढे खोदता है
जो कभी पूरे नहीं हो पाते क्योंकि उलटे गङ्ढे कैसे पूरे हो सकते हैं। इधर
स्त्रियों के पीछे भागता रहता है और उधर किताबों में ब्रह्मचर्य के उपदेश पढ़ता
रहता है। वह उल्टे गङ्ढे खोदता है, वह कभी अर्थ नहीं लाता।
तो दोनों काम साथ चलते हैं। दोनों काम ही साथ चलते रहते हैं।
यह जो हमने अधूरा-अधूरा आदमी पैदा किया है, इसकी वजह से कठिनाई पैदा हो गयी है। इसलिए हम पुरानी संस्कृतियों से दबे
हुए लोग हैं। धार्मिक भी नहीं हो पा रहे हैं। अधार्मिक होने की हिम्मत ही खो दी है
तो धार्मिक होने की हिम्मत तो बहुत बड़ी चीज है। मेरी बात आप समझ रहे हैं? अधार्मिक होने की हिम्मत तक हमारी नहीं है। झूठ बोलने तक की हिम्मत नहीं
है, सच बोलना तो बहुत दूर की बात है। झूठ बोलने में भी
हिम्मत की जरूरत पड़ती है। झूठ भी हर कोई नहीं बोल देता। झूठ बोलने तक में कमजोर हो
गये हैं, और सच बोलने के उपाय खोज रहे हैं। सच बोलना तो बहुत
हिम्मत की बात है। उसका तो मुकाबला ही नहीं है। वह तो पूरी हिम्मत आये तभी कोई सच
बोल सकता है। लेकिन जो झूठ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, उनको
हम कहते हैं कि ये बड़े सच बोलने वाले हैं। जो चोरी करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते
वे अचोर बन गये हैं। और जो हिंसा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते वे अहिंसा के पुजारी हैं। सब हमने विकृत और
उल्टा कर लिया है। और अधूरा करके उल्टा कर लिया है।
मेरी बात इसीलिए बहुत अजीब मालूम पड़ती है, क्योंकि मैं यह कहता हूं कि अगर धार्मिक होना हो तो पहले अधार्मिक होने की
पूरी हिम्मत से यात्रा करो। रुकना मत, किसी के बुलाये मत
रुकना, किसी के चिल्लाये मत रुकना। कहना कि अभी ठहरो,
पहले इस यात्रा को हम पूरा कर ही लें। इसे हम जान लें कि यह अधर्म
का आकर्षण क्या है। तुम कहते हो कि झूठ बुरा है, हम भी देख
लें कि झूठ बुरा है या नहीं। और तुम कहते हो कि धन बुरा है, तो
हम भी देख लें कि धन बुरा है या नहीं। निश्चित ही एक जगह आती है जहां धन मिट्टी हो
जाता है। लेकिन उसके लिए कभी यह जगह नहीं आती जो धन की यात्रा में गया ही नहीं। जो
पहले से ही रोक कर अपने को, साधकर संयम करके खड़ा हो गया हो।
उस संयमी आदमी की बड़ी मुश्किल है।
संयमी आदमी से ज्यादा फजीहत किसी की भी नहीं है। क्योंकि उसका मन होता
है उस तरफ जाने को और विचार होते हैं इस तरफ जाने को। वह ऐसा आदमी है, समझें, ऐसी बैल-गाड़ी है जिसमें दोनों तरफ बैल जोत
दिये हों और बैलगाड़ी को दोनों तरफ खींच रहे हैं। वह बैलगाड़ी कभी कहीं जा नहीं
पाती। कभी दो फीट इधर जाती है, जरा बैल ताकतवर हो गये,
दूसरे बैल सुस्ताने लगे, कभी दो फीट इधर आती
है। वे बैल थक गये और इन बैलों ने खींच लिया। जिंदगी-भर बस बैलगाड़ी इसी तरह हमारी
होती रहती है। इधर थोड़ा अधर्म करते हैं, फिर मन डर जाता है,
थोड़ा धर्म कर लेते हैं, फिर मन ऊब जाता है फिर
थोड़ा अधर्म कर लेते हैं, बस ऐसा चलता रहता है। धर्म और अधर्म
के बीच हम कभी भी एक यात्रा पर नहीं निकले।
मेरी अपनी समझ यह है कि अधर्म का अनुभव ही धर्म में ले जाता है, अशांति का अनुभव शांति में ले जाता है। हिंसा का अनुभव अहिंसा में ले जाता
है। और भौतिकता का अनुभव अध्यात्म में ले जाता है। भोग का अनुभव योग का आधार बनता
है। ये बातें उल्टी दिखायी पड़ती हैं। ये उल्टी नहीं हैं। यह जिंदगी का नियम है।
इसलिए मैं इस प्रश्न के संदर्भ में जीवन का दूसरा नियम भी आपसे कह दूं। जीवन के
गणित का दूसरा नियम यह है कि जो भी करना हो, पूरा करना।
अधूरा करने के अतिरिक्त और कोई पाप नहीं है। अधूरा करने के अतिरिक्त और कोई बुराई
नहीं है। बुराई भी करनी हो तो पूरी करनी है। एक और बहुत मजे की बात इससे निकलती है
और वह यह कि बुराई आप पूरी कर सकते हैं, भलाई आप कभी पूरी
नहीं कर सकते हैं। इसलिए बुराई से मुक्त हो जायेंगे, भलाई से
कभी मुक्त न होंगे। यह कभी खयाल में न आया होगा कि बुराई बड़ी छोटी चीज है, उसका अंत बहुत जल्दी आ जाता है। लेकिन भलाई बहुत अनंत है, उसका अंत आता ही नहीं। इसलिए संसार से कोई ऊपर उठ सकता है, भौतिकवाद से ऊपर उठ सकता है। लेकिन धर्म और अध्यात्म के ऊपर कभी भी नहीं उठ सकता है। उसमें सिर्फ प्रवेश होता है,
फिर अंत आता ही नहीं।
परमात्मा में सिर्फ प्रवेश होता है, अंत कभी नहीं आता।
ऐसा कभी नहीं होता कि एक आदमी यह कह दे कि ठीक है अब, परमात्मा
को भी पूरा जान लिया, अब। अब आगे। नहीं, ऐसा कभी होता नहीं। असल में बुराई वह है जिसका अंत आ जाता है, जिसकी बड़ी छोटी-सी सीमा है।
इसे थोड़ा सोचें। अगर आप एक आदमी से दुश्मनी करें और पूरी दुश्मनी करें
तो ज्यादा से ज्यादा अंत क्या हो सकता है, उस आदमी को मार
डालें। और क्या हो सकता है? दुश्मनी अगर पूरी ही करे कोई
मुझसे और मुझे मार डाले, यही कर सकता है न। आखिरी और क्या कर
सकता है? लेकिन अगर कोई मुझसे मित्रता करे तो बड़ी लंबी
यात्रा है। उसका अंत कभी भी नहीं आयेगा। वह कुछ भी करता चला जाए, कुछ भी करता चला जाये लेकिन अंतिम मित्रता का क्या मतलब हो सकता है।
मित्रता का कोई अंतिम मतलब नहीं हो सकता है। कितना ही करो, फिर
भी करने को बाकी रह जाएगा। कितना ही करो, फिर भी शेष,
फिर शेष रह जाता है। शत्रुता का अंत आ जाता है, मित्रता का कोई अंत नहीं है। अशांत आप हो जायें, फिर
कितनी देर अशांत रह सकते हैं? अगर एक आदमी को हम कहें,
तुम अशांत रहो, कितनी देर अशांत रह सकते हो?
तो आप पायेंगे, घड़ी-आधा घड़ी में शिथिल हो
जायेगा। करेगा क्या? क्योंकि अशांति इतनी शक्ति व्यय करवाती
है कि आप बहुत देर अशांत नहीं रह सकते। न बहुत देर क्रोधित रह सकते हैं, लेकिन शांत होने का कोई अंत है? आप शांत कितने ही रह
सकते हैं, उसका कोई अंत नहीं है। वह अंतहीन है।
अशांति का अंत आ जायेगा, शांति का कोई अंत
नहीं आयेगा। शांत कितना ही रह सकते हैं, अशांत कितना ही नहीं
रह सकते। क्योंकि अशांति एक तनाव है, तनाव में श्रम है,
श्रम में शक्ति का व्यय है। शांति तनाव नहीं है, विश्राम है। शांति में कोई शक्ति का व्यय नहीं है। कोई तनाव नहीं है,
कितना ही शांत रहा जा सकता है। प्रेम का कोई अंत नहीं है, घृणा का अंत है। लेकिन हम घृणा के ही अंत पर नहीं पहुंचे जिसका अंत है;
हम अशांति के ही अंत पर नहीं पहुंचे जिसकी सीमा है। तो हम शांति की
खोज में नहीं निकल पायेंगे।
तो मैं आपसे नहीं कहता हूं कि शांति की खोज पर निकल जाइए, मैं तो यह कहता हूं, ठीक से अशांत ही हो जाइए।
मंद-मंद मत चलिए, धीमे-धीमे मत चलिए, ठीक
से हो जाइए। अशांति ही आपको धक्का दे देगी। कोई गुरु धक्का नहीं दे सकता। अशांति
ही आपको धक्का दे देगी। वह अंतिम धक्का जो शांति की यात्रा पर ले जा सकता है।
ध्यान तो शांति ला सकता है। लेकिन शांति की तरफ वे आते हैं जो अशांत
हो गये हैं। अगर आप अशांत हो गये हैं तो अब कोई उपाय न रहेगा, आपको ध्यान की तरफ जाना ही पड़ेगा। किसी भी द्वार से आप ध्यान की यात्रा
करेंगे ही। बचाव नहीं है कोई।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं कि ईश्वर को खोया नहीं, सिर्फ भूल गये हैं। और आप कहते हैं, ईश्वर से ही हम
आये हैं और ईश्वर में ही चले जायेंगे, और फिर यह भी कहते हैं
कि ईश्वर और हम एक हैं। ये बातें तो बड़ी उल्टी हैं। अगर हम एक ही हैं तो ईश्वर से
आना कैसा और जाना कैसा? ये तो बातें बड़ी उल्टी मालूम पड़ती
हैं।
सागर में लहर उठती है और गिरती है। उठती है तब भी सागर से दूर नहीं
होती और गिरती है तब भी दूर नहीं होती, फिर भी उठती है और
गिरती है। सागर की लहर सागर के साथ एक ही है, सागर से जरा भी
अलग नहीं है। सागर की लहर को आप सागर से अलग करना भी चाहेंगे तो नहीं कर सकेंगे।
यह बड़े मजे की बात है, सागर तो बिना लहर के हो सकता है लेकिन
लहर बिना सागर के नहीं हो सकती। सागर को कोई अड़चन नहीं है कि लहर के बिना न हो सके,
लहर के बिना हो सकता है; लेकिन लहर, लहर सागर के बिना नहीं हो सकती।
इसलिए तीन बातें खयाल रखने जैसी हैं--पहली बात, लहर सागर के बिना नहीं हो सकती। इसलिए सागर मूल है, और
लहर मूल नहीं है। लहर आती है और जाती है, सागर है। सागर न
आता है, न जाता है। लहर कभी जन्मती है, कभी मरती है। सागर न जन्मता है और न मरता है। सागर है। सागर के लिए हम
अतीत या भविष्य का प्रयोग नहीं कर सकते हैं, सागर के लिए सदा
वर्तमान का ही, प्रेजेंट टेंस का ही उपयोग करना पड़ेगा। हम
ऐसा नहीं कह सकते कि सागर था। हम ऐसा नहीं कह सकते कि सागर होगा। हम ऐसा ही कह
सकते हैं, सागर है। क्योंकि था उसको कह सकते हैं जो फिर नहीं
हो जाये। होगा उसको कह सकते हैं जो अभी न हो। हां, लहर को कह
सकते हैं--थी, है, होगी; सागर को नहीं कह सकते। सागर सदा है। सागर सदा वर्तमान है।
ध्यान रहे अतीत, भविष्य और वर्तमान में वर्तमान
परमात्मा का काल है; भविष्य और अतीत हमारे काल हैं। वर्तमान
हमारा काल नहीं है। वर्तमान परमात्मा का है, परमात्मा हमेशा
वर्तमान में है। ईश्वर था, ऐसा कहने का कोई भी अर्थ नहीं
होता। ईश्वर है। ईश्वर होगा, इसका भी कोई अर्थ नहीं होता।
ईश्वर है। सागर से समझने की थोड़ी कोशिश करें। सागर से लहर एक है। लेकिन फिर भी
उठती है और गिरती है। तो परमात्मा से हम एक हैं, और आते हैं
जाते हैं। कठिनाई क्या है? अड़चन क्या है? क्यों नहीं आ सकते और जा सकते? क्यों नहीं उठ सकते
और गिर सकते। लेकिन आने-जाने से हमें ऐसा खयाल आता है कि आने-जाने का मतलब है,
अलग हो गये। लहर जब उठती है तब अलग है सागर से? और लहर नहीं उठती है तब एक है और जब उठती है तब अलग है? नहीं, जब लहर उठती है तब भी एक है। तब भी अलग नहीं
है। हम जब आते हैं तब उसका मतलब इतना ही है कि हम लहर की भांति उठते हैं चेतना के
सागर में। चेतना के सागर में, वह जो कांशसनेस का सागर है,
उसमें हम उठते हैं और गिरते हैं। अलग लेकिन हम नहीं होते हैं। लेकिन
उठने और गिरने में अलग होने का भ्रम पैदा हो सकता है। अगर लहर को भी चेतना हो तो
लहर उठते वक्त सोच सकती है कि मैं हूं क्योंकि लहर अपने भीतर तो देख न सकेगी,
अपने बाहर देखेगी और लहरें दिखायी पड़ेंगी, सागर
तो दिखायी न पड़ेगा। यह भी ध्यान रखें। अगर कोई लहर देख सकेगी तो उसे सागर दिखायी
कभी नहीं पड़ेगा, लहरें दिखायी पड़ेंगी। क्योंकि छाती पर सागर
के लहरें ही होती हैं। सागर तो नहीं होता। और जब एक लहर उठेगी तो आसपास लहरें
उठेंगी क्योंकि कोई लहर अकेली नहीं उठ सकती।
यह भी ध्यान में रख लेना कि कोई लहर अकेली नहीं उठ सकती। मैं अकेला
पैदा नहीं हो सकता हूं, और न आप अकेले पैदा हो सकते हैं। करोड़ों-करोड़ों लहर
के बीच में हमारा होना है। आपके पिता थे इसलिए आप हैं, उनके
भी पिता थे इसलिए वे थे। उनके भी पिता थे, उनके भी पिता थे।
लंबी कहानी है। जिसमें अरबों-खरबों लोगों का हाथ है, एक आदमी
के होने में। अरबों-खरबों लहरों ने धक्के देकर आप की लहर को उठाया है। तो आप कभी
ऐसा मत सोच लेना कि अकेले आप हो सकते हैं। आपके होने का कोई अर्थ ही नहीं है।
जब एक लहर पैदा होती है तो लहर अकेली कभी पैदा नहीं होती, करोड़ों-करोड़ों लहर के जाल में पैदा होती है। उसे चारों तरफ लहरें दिखायी
पड़ती हैं, सागर दिखायी नहीं पड़ता। अगर लहर देख सके तो उसे
सागर कभी दिखायी नहीं पड़ेगा। उसे लहरें दिखायी पड़ेंगी।
हमको भी परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता, प्राणी दिखायी पड़ते
हैं। वे लहरें हैं, जो हमारे चारों तरफ हैं--मनुष्यों की,
पौधों की, पक्षियों की। चारों तरफ लहरें
दिखायी पड़ती हैं, परमात्मा हमें भी दिखायी नहीं पड़ता है।
अब यहां हम इतने लोग बैठे हुए हैं, इतनी लहरें हैं और हम
चारों तरफ देखेंगे, तो परमात्मा कहां दिखायी पड़ेगा, लहरें ही लहरें दिखायी पड़ेंगी। कोई लहरें उठती हुई होंगी, बच्चे होंगे, जवान होंगे। कुछ लहरें गिरती होंगी,
बूढ़े हो गये, विदा हो गये। कुछ लहरें उठ चुकी
होंगी, कुछ जाने के करीब आ गयी होंगी, कुछ
उठ रही होंगी। हमारे चारों तरफ हम देखेंगे तो परमात्मा कहां दिखायी पड़ेगा, लहरें दिखायी पड़ेंगी। सघन लहरों का जाल है।
तो अगर कोई लहर होश से भर जाये तो पहली तो बात यह है कि उसे सागर
दिखायी नहीं पड़ेगा। हमें भी परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता है।
दूसरी बात यह है कि उसे दूसरी लहरें दिखायी पड़ेंगी जिनसे वह भिन्न
मालूम पड़ेगी कि मैं अलग हूं। स्वाभाविक है। एक लहर उठी है सागर पर, वह देखती है कि पड़ोस की लहर तो गिर रही है, मिट रही
है और मैं तो अभी उठ रही हूं तो हम दोनों एक कैसे हो सकते हैं?
एक आदमी पड़ोस में मेरे मर गया है, मैं उससे एक कैसे हो
सकता हूं! अगर एक होता तो मैं भी मर जाता। और अगर एक होता तो उसको भी जिंदा रहना
चाहिए था। हम एक नहीं हो सकते, क्योंकि पड़ोस का तो मर गया और
मैं जिंदा हूं। हम एक नहीं हो सकते। एक लहर गिर रही है, एक
छोटी है और एक बड़ी है, एक बूढ़ी है। लहरों को दिखायी पड़ता है
लहरें अलग-अलग हैं। मैं अलग हूं, चारों तरफ की लहरें अलग
हैं।
ऐसा ही हमें भी दिखायी पड़ता है कि मैं अलग हूं। चारों तरफ के जीवन में
प्राण के स्रोत--मूल स्रोत से टूटे हुए टुकड़े अलग-अलग हैं। और बाहर देखने को बहुत
कुछ है, लहर भीतर क्यों देखे? अगर लहर
भीतर देखे तो शायद सागर मिल जाये क्योंकि भीतर उतरने पर कोई लहरें तो नहीं
मिलेंगी। अगर एक लहर अपने भीतर उतर सके तो सागर मिलेगा उसे, लहरें
नहीं मिलेंगी फिर क्योंकि नीचे सागर है। इसलिए जब कोई अपने भीतर उतरता है तो
परमात्मा का अनुभव कर पाता है। अपने बाहर तो लहरें-लहरें ही दिखायी पड़ती हैं।
ध्यान जो है, वह भीतर उतरने की कला है जिसमें हम बाहर की लहरों की
फिक्र छोड़ देते हैं और उसी लहर में उतर जाते हैं जो मैं हूं। और जैसे-जैसे हम भीतर
उतरते हैं वैसे-वैसे पता चलता है कि लहर नहीं है, सागर है;
लहर नहीं है, सागर है। और जितने भीतर जाते हैं,
पता चलता है, लहर थी ही नहीं, सागर ही था, सागर ही है, सागर
ही होगा। लहर नहीं है। जो व्यक्ति अपने भीतर जाता है उसे सागर का पता चल जाता है।
परमात्मा का पता चल जाता है।
उन मित्र ने पूछा है, लेकिन हम जानें ही क्यों?
अगर उसी से आये हैं और उसी में लौट जाना है तो ठीक है, आ गये और लौट जायेंगे। अब हम इस झंझट में क्यों पड़ें कि हम जानें उसे?
मत पड़ें! कोई कहने नहीं आता कि आप पड़ो। लेकिन पड़े हुए हो। असल में
जीवित होने के साथ ही, जीवन क्या है, वह प्रश्न भी
हमारे भीतर उठ आता है। जीवित होने का यह हिस्सा है कि हम यह भी जानना चाहते हैं कि
जीवन क्या है? कोई नहीं कहता कि आप जानने जायें, लेकिन ऐसा दुनिया में एक आदमी नहीं मिलेगा जो जानने को आतुर नहीं है। अगर
ऐसा आदमी मिल जाये जो जानने को आतुर नहीं है तो बड़ा चमत्कार है। मिल नहीं सकता ऐसा
आदमी। छोटे से बच्चे भी जैसे ही बोलना शुरू करते हैं कि जानने की यात्रा शुरू कर
देते हैं। वे कहते हैं--यह वृक्ष कहां से आया? प्रश्न उनके
उठने शुरू हो जाते हैं। यह पृथ्वी किसने बनायी? यह चांद को
रोज रात कौन जला देता है? यह सूरज सुबह निकल आता है, रात कहां चला जाता है? छोटे बच्चे भी पूछते हैं।
जिंदगी पूछती है, जानना चाहती है क्योंकि जान लें
हम पूरी तरह तो ही पूरी तरह जी सकते हैं। वह जीने की ही खोज का हिस्सा है कि हम
जान लें ताकि हम पूरे जी सकें। अगर मुझे पता चल जाये कि मैं लहर नहीं हूं, सागर हूं, तो मेरे जीने का मतलब ही, अर्थ ही बदल जायेगा। क्योंकि तब मुझे कोई डर न रहेगा मिटने का क्योंकि
सागर कभी नहीं मिटता। तब मौत से मुझे कोई डरवा न सकेगा क्योंकि मैं हंसूंगा,
कहूंगा कि ठीक है, मिटा दो लहर को, क्योंकि मैं तो लहर हूं ही नहीं। तुम जिसे मिटाओगे, वह
मैं नहीं हूं। और तुम मिटा भी न पाओगे और मैं रहूंगा वहीं के वहीं, जहां मैं था। अगर मुझे पता चल जाये कि मैं सागर हूं और लहर नहीं, तो लहर की चिंताएं विदा हो जायेंगी। लहर बड़ी चिंता में पड़ी है। सबसे बड़ी
चिंता तो यह है कि वह विदा हो जायेगी, समाप्त हो जायेगी,
नष्ट हो जायेगी।
हर आदमी मरने से डरा हुआ है। हम डरे हुए हैं कि मर न जायें। यह मरने
का डर इसीलिए है कि हमें पता नहीं है कि नीचे कुछ है जो मर ही नहीं सकता। उसका पता
चल जाये तो यह भय विदा हो जाये।
सिकंदर हिंदुस्तान से लौटता था तो एक फकीर को पकड़ कर ले जाना चाहता
था। उसके मित्रों ने कहा था उससे कि जब हिंदुस्तान से लौटो तो एक संन्यासी को ले
आना। तो उसने खबर की गांव में कि कोई संन्यासी हो तो मैं ले जाऊं। लेकिन गांव के
लोगों ने कहा, बहुत मुश्किल है। संन्यासी तो है, लेकिन संन्यासी को ले जाना बहुत मुश्किल है। सिकंदर ने कहा, तुम इसकी फिक्र मत करो। हमारे पास नंगी तलवारें हैं। हम किसी को भी ले जा
सकते हैं। गांव के लोगों ने कहा, फिर आप संन्यासियों को
जानते नहीं। क्योंकि नंगी तलवार देखकर संन्यासी हंसेंगे और कुछ भी न होगा। सिकंदर
ने कहा, तुम फिक्र ही मत करो। तुम मुझे बता दो कि वह कहां
है। उसने सिपाही भेजे नंगी तलवारें लेकर और कहा कि उसे पकड़ लाओ। वे सिपाही गये और
उन्होंने कहा कि महान सिकंदर की आज्ञा है कि आप हमारे साथ चलें। संन्यासी बहुत
हंसने लगा। उसने कहा, जो खुद ही को महान कहता हो उससे ज्यादा
नासमझ और कौन हो सकता है, उससे ज्यादा पागल और कौन हो सकता
है। कौन कहता है, अपने को महान? वे
सिपाही एक क्षण तो डर गये, क्योंकि उनके महान सिकंदर को कोई
ऐसा कहेगा! एक नंगा फकीर नदी के किनारे खड़ा हुआ, एक बूढ़ा
आदमी। उन सिपाहियों ने कहा, तुम क्या कह रहे हो? गर्दन अलग कर देंगे अगर तुमने इस तरह की बात की। उस फकीर ने कहा गर्दन मैं
बहुत पहले अलग कर चुका हूं। अब अलग करने को कुछ बचा नहीं है। हमने वह काम दूसरों
के लिए छोड़ा ही नहीं। तुम अपने सिकंदर को बुला लाओ। हम तुम्हारे मालिक से ही बात
करेंगे।
वे सिपाही सिकंदर से कहे कि वह बहुत अजीब आदमी है। अपना वश उस पर न
चलेगा, क्योंकि ज्यादा-से-ज्यादा हम मार सकते हैं, बस इतना हमारा वश है और वह आदमी मरने से जरा भी नहीं डरता। सिकंदर ने कहा
फिर भी मैं चलना चाहूंगा। सिकंदर गया उस आदमी के सामने और तलवार उसकी गर्दन पर रख
दी। और कहा कि चलते हो कि गर्दन अलग कर दूं? उस फकीर ने कहा,
गर्दन अलग कर दो। और उस फकीर ने कहा कि बड़ा मजा आयेगा, तुम भी गर्दन को गिरते देखोगे कि गिर गयी और मैं भी देखूंगा कि गिर गयी।
सिकंदर ने कहा, तुम भी देखोगे! उस फकीर ने कहा, मैं भी देखूंगा। क्योंकि यह गर्दन मैं नहीं हूं। यह जब से जान लिया तब से
बात ही खत्म हो गयी। अब मुझे कोई सिकंदर डरा नहीं सकता। तलवार भीतर रख ले। उस फकीर
ने कहा, तलवार म्यान के भीतर रख, बेकार
हाथ थक जायेगा। और सिकंदर का पहला मौका था यह कि किसी के डर में तलवार भीतर रख ली
उसने। क्योंकि यह आदमी बेकार था, इसके सामने तलवार निकालना
खुद ही मूढ़ता मालूम पड़ने लगी। उसने कहा, तू गर्दन काट ही दे,
जरा मजा आ जायेगा। गिर जायेगी तो बहुत अच्छा होगा।
लहर अपने को जान ले कि सागर है तो सब बदल जायेगा। सारी जिंदगी बदल
जायेगी। जिंदगी के रहने का मजा ही और हो जायेगा क्योंकि तब हम लहर की तरह नहीं, सागर की तरह रहेंगे। तब हम आदमी की तरह नहीं, परमात्मा
की तरह रहेंगे। और परमात्मा की तरह रहने का मजा! तब हम पूरे ऐश्वर्य में रहेंगे।
ऐश्वर्य का मतलब? ऐश्वर्य का मतलब बड़ा मकान नहीं होगा।
ऐश्वर्य का मतलब बड़ा मकान, कितना ही बड़ा मकान हो फिर भी छोटा
ही होगा। और धन कितना ही ज्यादा हो फिर भी थोड़ा ही होगा। असल में जो गिना जा सकेगा
वह थोड़ा ही होगा।
ऐश्वर्य का मतलब है, कि यह सारा जगत जिसका मकान हो
गया। सारे चांदत्तारे जिसके घर पर रोशनी देने लगे, और हवाएं
जिसकी बगिया की सेवा करने लगीं, जो सारे जीवन का मालिक हो
गया। मालिक इसीलिए कि उसका मालिक के साथ ऐक्य का अनुभव हो गया। खयाल है आपको,
ईश्वर शब्द ऐश्वर्य से बना हुआ है। ईश्वर शब्द और ऐश्वर्य शब्द एक
ही सत्य के रूपांतरण हैं। ईश्वर का मतलब है मालिक, सब
ऐश्वर्य जिसका है; सारा जगत जिसका है।
संन्यासी वह नहीं है जिसने एक घर छोड़ दिया, संन्यासी वह है जिसके सारे घर अपने हो गये। संन्यासी वह नहीं है, जिसने कि एक बेटा-बेटी, एक मां-बाप छोड़ दिया। जिसका
सब अपना परिवार हो गया--सब।
यह जो अनुभव है ऐश्वर्य का, यह सबको अपना ही हो
जाने का है--यह कैसे होगा? यह होगा लहर भीतर उतरे और जान ले।
बच नहीं सकते हैं, परमात्मा की खोज से। खोज करनी ही पड़ेगी।
गलत भी कर सकते हैं, ठीक भी कर सकते हैं, वह दूसरी बात है। एक आदमी धन खोजकर सोचता है कि ऐश्वर्य को पा लेगा। वह
गलत खोज है। क्योंकि धन कितना ही खोज लो, कितना ही खोज लो
फिर भी गिना जा सकेगा। और जो गिना जा सकेगा वह कभी असीम नहीं हो सकेगा। और धन
कितना ही इकट्ठा कर लो, वह छीना जा सकेगा क्योंकि जो छीना
गया है वह छीना जा सकता है। आखिर मैं भी छीन कर ही इकट्ठा करूंगा। तो जो मैंने
छीना है, वह मुझसे छिन जा सकता है, छिनेगा
ही।
धन खोजकर भी आदमी ईश्वर को ही खोज रहा है, मैं यह कह रहा हूं--गलत ढंग से खोज रहा है। धन खोजकर भी वह ऐश्वर्य की खोज
में गया है लेकिन गलत चला गया है। लहर भीतर की तरफ नहीं गयी है, बाहर की लहरों पर कब्जा करने निकल गयी है, कि मैं
कब्जा कर लूंगी लहरों पर। लहर कहती है, मैं राष्ट्रपति हो
जाऊंगी, चालीस करोड़ लहरों पर कब्जा कर लूंगी। लहर पागल हो
गयी है। सभी राष्ट्रपति पागल हो जाते हैं। वह पागलपन की दौड़ है। और अगर पागलों को
खोजना हो तो पागलखानों में नहीं जाना चाहिए, राजधानियों में
चला जाना चाहिए। वहां वे सब इकट्ठे मिल जाते हैं। लेकिन वे भी ईश्वर की खोज में
लगे हैं, गलती से राजधानी पहुंच गये। वे गलत रास्ते पर जा
रहे हैं ईश्वर को खोजने को।
जो पद को खोज रहा है, वह भी ईश्वर को ही खोज रहा है,
क्योंकि ईश्वर परम-पद है। उसके आगे फिर कोई पद नहीं है। लेकिन गलत
ढंग से खोज रहा है। वह जो धन को खोज रहा है, वह भी ईश्वर को
खोज रहा है; लेकिन गलत ढंग से खोज रहा है। वह जो प्रेम में,
पत्नी में, बेटे में खोज रहा है, वह भी गलत ढंग से खोज रहा है क्योंकि वह इतने छोटे में खोज रहा है कि मिल
नहीं सकता है। इतनी बड़ी आकांक्षा है और इतनी छोटी खोज है। आकांक्षा तो यह है कि
सारे जगत की उपलब्धि हो जाये। सारे विश्व की उपलब्धि हो जाये। इतनी बड़ी आकांक्षा
है तो बिना परमात्मा को खोजे वह पूरी नहीं होगी।
दोनों रास्ते अलग हैं। अगर लहर दूसरी लहरों पर कब्जा करने निकल जाये
तो यह एक रास्ता है जो गलत रास्ता है, और अगर लहर अपने भीतर
उतर जाये और पता पा ले कि कौन है नीचे, तो सारी लहरों पर
कब्जा मिल ही गया क्योंकि सारी लहरें अलग न रहीं। अब कब्जा करने की कोई जरूरत न
रही। वह हम ही हैं। जैसे ही लहर नीचे उतरती है, सागर मिल
जाता है और उसे पता चल जाता है कि सब लहरें सागर की ही हैं। अब झंझट न रही,
जब सागर ही हम हैं तो अब और दूसरी लहर पर कब्जा करने की क्या बात
है। अब सबके भीतर हम ही हो गये।
इसलिए यह तो पूछें मत कि हम झंझट में क्यों पड़ें? कोई नहीं कहता कि पड़ें। लेकिन आप पड़े ही हुए हैं। उपाय नहीं झंझट के बाहर
होने का। झंझट से गुजरेंगे तो बाहर हो भी सकते हैं। जब आप यह पूछते हैं, हम झंझट में क्यों पड़ें, तो ऐसा लगता है जैसे पड़ने
का निर्णय आप कर रहे हैं अब। नहीं, आप पड़े ही हुए हैं। जीवन
में होना ही झंझट में होना है। यह कोई मेरी बात सुनकर आप ईश्वर की खोज पर नहीं चले
गये हैं। ईश्वर की खोज पर चले गये होंगे इसलिए मेरी बात सुनने चले आये हैं। यह कोई
मेरी बातें सुनकर आपके मन में प्रश्न पैदा नहीं हो जायेंगे, प्रश्न
होंगे आपके मन में इसलिए मेरी बातें सुनने आये हैं। खोज है जारी, चल रही है। खोज पूरी हो सकती है अगर हम भीतर की तरफ जायें तो हम पा लेंगे।
और अगर हम बाहर की तरफ खोजते रहें तो और खो देंगे, पाना तो
बहुत दूर है। और खो देंगे। कुछ लोग हैं जो भिखारी ही पैदा होते हैं और भिखारी ही
मर जाते हैं। धन हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यश हो,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पद हो, प्रतिष्ठा हो,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि ये सारी की सारी बाहर की खोजें
हैं जिनकी सीमाएं हैं और असीम की आकांक्षा है मन में। और सीमित से तृप्ति कभी भी
नहीं हो सकती। कोई किसी प्रेमी से तृप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि
प्रेम की आखिरी खोज परम प्रेमी के लिए है। जब तक परमात्मा ही प्रेमी की तरह न मिल
जाये तब तक तृप्ति का कोई उपाय नहीं है। खोज तो चल ही रही है।
उन्होंने यह भी पूछा है कि यह खोज है ही क्यों? इसकी जरूरत ही क्या है?
यह तो कभी परमात्मा मिल जाये तो उससे पूछ लेना क्योंकि इसके लिए सिवाय
उसके और कोई उत्तर नहीं दे सकता। यह है ही क्यों? यह तो परमात्मा मिले
तो उससे पूछ लेना। हालांकि अब तक जितने लोग मिले हैं, पूछ
नहीं पाये। क्योंकि मिलते ही पूछना भूल जाते हैं। अब जिन मित्र ने पूछा है,
खूब पक्का लिखकर रखना कि भूल न जायें। लेकिन है खतरा वही, अब तक कोई नहीं पूछ पाया। क्योंकि जैसे ही वह मिल जाता है, सब मिल जाता है, पूछने का मन ही चला जाता है।
मैंने सुना है, एक समुद्र के किनारे एक मेला भरा हुआ था। बहुत लोग
गये थे। दो नमक के पुतले भी गये थे वहां। लोगों में विवाद होने लगा, सागर की गहराई कितनी है? तो नमक के पुतले गुस्से में
आ गये, तेजी में आ गये। तो उन्होंने कहा, हम अभी कूदकर पता लगा आते हैं। एक पुतला कूद गया। फिर लोग किनारे पर खड़े
देखते रहे। वह नहीं लौटा, नहीं लौटा, नहीं
लौटा। बहुत परेशानी हुई। दूसरे पुतले ने कहा, मैं अभी उसका
पता लगाकर आता हूं। वह भी कूद गया। वह भी नहीं लौटा, नहीं
लौटा, नहीं लौटा। फिर मेला बिछुड़ गया। अब हर साल उसी दिन
मेला लगता है, उस समुद्र के तट पर, इसी
प्रतीक्षा में कि शायद वे नमक के पुतले अब तक लौट आयें। वे लौटते ही नहीं क्योंकि
सागर में नमक का पुतला जायेगा तो घुलेगा, बह जायेगा, मिट जायेगा, खो जायेगा। लौटकर खबर नहीं दे पायेगा।
और भीतर जितना जायेगा उतना मिटता चला जायेगा। ठीक गहराई तक पहुंचते-पहुंचते बचेगा कौन
जो पूछ ले कि गहरे कितने हो? कितनी है गहराई? यह पूछने को बचेगा कौन? ये सब लहर के सुख हैं जो पूछ
रही है। प्रश्न सब लहर के हैं, उत्तर सब सागर में हैं। लेकिन
प्रश्न लहरें पूछती हैं, सागर के पास सब उत्तर हैं। और जब
लहर सागर में उतरती जाती है तो प्रश्न खो जाते हैं, पूछने
को कुछ नहीं रह जाता।
यह जो आप पूछते हैं, यह है ही क्यों? यह जगत क्यों है? यह प्रकृति क्यों है? यह होना क्यों है? यह जीवन क्यों है, हम बने क्यों हैं? यह आप पूछते रहें, पूछते रहें, पूछते रहें, कोई
उत्तर नहीं है। और कोई उत्तर देता हो तो बेईमान है। उत्तर है नहीं। अब तक दिया
नहीं गया, दिया जा सकता नहीं। हां, एक
कोई दे सकता है उत्तर जो नीचे है सबके भीतर फैला, जो सब देखा
है--आना और जाना और होना। अनंत लीला देखी है। वह दे सकता है उत्तर। तो वहां पहुंच
जायें और उससे पूछ लें। लेकिन अभी तक कोई पूछ नहीं पाया। जो जाता है, मिट जाता है। यानी ऐसा कुछ है कि जब हम उसके सामने खड़े होते हैं तो हम मिट
जाते हैं। और जब तक हम होते हैं तब तक वह सामने नहीं होता। मुलाकात सीधी-सीधी नहीं
हो पाती कि सामने खड़े हो जायें और पूछ लें कि क्यों है यह सब?
सच यह है कि यह प्रश्न जो है, एब्सर्ड, यह प्रश्न जो है गलत ही है। गलत क्यों? गलत इसलिए है
कि हम जीवन के अंतिम 'क्यों' का उत्तर
नहीं पा सकते हैं। वह जो अल्टीमेट व्हाई, जो आखिरी 'क्यों' है, उसका उत्तर हम नहीं
पा सकते हैं। क्यों नहीं पा सकते हैं?
इसलिए नहीं पा सकते हैं कि कोई भी उत्तर मिले, हम फिर उसमें 'क्यों' पूछ सकते
हैं। कोई भी उत्तर मिले, 'क्यों' पूछने
में क्या तकलीफ होगी? कोई कहता है, ईश्वर
ने जगत को बनाया और हम पूछते हैं कि ईश्वर को किसने बनाया? अब
कोई कहता है कि 'अ' नाम के आदमी ने
ईश्वर को बनाया? हम पूछते हैं, अ नाम
के आदमी को किसने बनाया? अब यह पूछना चलता रहे, चलता रहे, चलता रहे, तो इसका
अंत कैसे आ सकता है। इसका अंत नहीं आ सकता क्योंकि जो प्रश्न है वह ऐसा है जो हर
उत्तर पर लागू हो जायेगा। कैसा भी उत्तर दिया जाये क्यों फिर भी पूछा जा सकता है,
कि क्यों? इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं,
वे क्यों के संबंध में चुप ही रह गये हैं। क्योंकि उनका कहना है कि
क्यों की बात ही व्यर्थ है। इसमें पूछा ही नहीं जा सकता। इनफिनिट-रिग्रेस, यह अंतहीन हो जायेगी, इसका कोई अर्थ नहीं है।
बच्चों की कहानी पढ़ी होगी। छोटे बच्चे क्यों-क्यों पूछते ही चले जाते
हैं। वे पूछते हैं, और आगे--अगर कोई छोटे बच्चों को कहानी सुनाये और कहे
कि राजा रानी का विवाह हो गया और फिर वे दोनों आनंद से रहने लगे। हालांकि यह
बिलकुल झूठी बात है, विवाह के बाद कोई आनंद से रहता नहीं।
लेकिन, सब कहानियां यही कहती हैं और इसके आगे कुछ भी नहीं
बताती हैं क्योंकि इसके आगे बताना खतरनाक है, वह तो आदमियों
को खुद ही पता चल जाता है कि आगे क्या होता है। इसलिए सब कहानियां यहां खत्म हो
जाती हैं कि उनका विवाह हुआ और वे दोनों आनंद से रहने लगे। आगे बात ही नहीं। फिल्म
भी यहीं खत्म होती है, कहानी, उपन्यास,
सब यहीं खत्म हो जाते हैं। क्योंकि इसके आगे बहुत खतरनाक दुनिया
शुरू होती है जिसको कि बताना ठीक नहीं है। लेकिन बच्चे फिर भी पूछते हैं कि फिर
क्या हुआ? फिर क्या हुआ? बच्चे हैं कि
पूछते ही चले जाते हैं।
मैं एक कहानी पढ़ रहा था बच्चों की। वह कहानी बहुत बढ़िया है। वह आपने
भी सुनी होगी। बच्चों ने तो बहुतों ने जानी है। एक बूढ़ी स्त्री है, वह अपने नाती-पोतों को कहानियां सुनाती है। वे नाती-पोते उसका सिर खाये
जाते हैं। वे पूछते हैं--फिर, फिर क्या हुआ? वह बूढ़ी थक जाती है। थक जाती है, लेकिन वे पूछते हैं
फिर क्या हुआ। फिर उस बूढ़ी ने एक कहानी ईजाद की। उसने कहा--एक वृक्ष है एक सागर के
किनारे। उस पर अनंत पक्षी बैठे हुए हैं। एक पक्षी उड़ा, फुर्र...।
तो उनके बेटों ने पूछा, फिर क्या हुआ? उसने
कहा, दूसरा पक्षी उड़ा, फुर्र..। पूछे,
फिर क्या हुआ? वह बुढ़िया उत्तर देती चली जाती
है। फिर सब बेटे धीरे-धीरे थक जाते हैं। उन्होंने कहा, बस
यही होता रहा? फिर क्या हुआ? वह बुढ़िया
कहती है, एक पक्षी उड़ा फुर्र, और वह
बुढ़िया कहती है, अनंत पक्षी बैठे हैं उस वृक्ष पर इसलिए अब
थकेगी नहीं, यह कहानी, अब खत्म नहीं
होगी, यह कहानी यह चलती रहेगी। फिर सब बेटे थक जाते हैं और
सो जाते हैं।
हम जो क्यों पूछते हैं, वह अंतहीन हो जायेगा,
उसका कोई अर्थ नहीं है। हम पूछते हैं, आदमी
क्यों हुआ? हम बेमानी प्रश्न पूछ रहे हैं। हम कोई भी उत्तर
देंगे, हम फिर पूछेंगे, वह क्यों हुआ?
हमें लगेगा, हम बहुत बुद्धिमानी का प्रश्न पूछ
रहे हैं। बहुत से तथाकथित बुद्धिमान ऐसे प्रश्न पूछते भी रहे हैं। शास्त्र भरे हैं
इस तरह के प्रश्नों से। लेकिन सब बच्चों
के प्रश्न हैं, बुद्धिमानों
के प्रश्न नहीं हैं। क्योंकि बुद्धिमान एक बात समझ लेगा कि क्यों का उत्तर संभव
नहीं है। क्योंकि 'क्यों' हर उत्तर पर
लागू हो सकता है। इसलिए पहले ही क्यों का उत्तर क्यों देना? क्योंकि
उससे कोई मतलब ही नहीं है--आगे, आगे, आगे
होता चला जायेगा।
मैं नहीं देता उत्तर। मैं यह कहता हूं, जीवन है। आना हुआ है,
जाना होगा। क्यों है, मुझे पता नहीं है। किसी
को भी पता नहीं है। लेकिन अज्ञान को स्वीकार करने में भी बड़ी कठिनाई है। सभी
पंडितों को यह खयाल है कि उनको सभी पता होना चाहिए। सभी ज्ञानियों को यह भ्रम है
कि उन्हें सर्वज्ञ होना चाहिए। वे परमात्मा को जानने के लिए कुछ बचने ही नहीं देना
चाहते हैं। वे पूरा खुद ही जान लेना चाहते हैं। लेकिन वे कितना ही जान लें,
आखिरी क्यों का उत्तर आज तक किसी शास्त्र में नहीं है और न किसी
बुद्ध ने दिया, न किसी महावीर ने, न
किसी कृष्ण ने, न किसी क्राइस्ट ने। आज तक आखिरी क्यों का
उत्तर दिया ही नहीं गया है। इसलिए नहीं कि वे लोग नहीं जानते थे, बल्कि इसलिए कि वह दिया ही नहीं जा सकता है। वह अल्टीमेट क्वेश्चन,
आखिरी, अंतिम प्रश्न का अर्थ ही यह होता है कि
उसका उत्तर नहीं है। और अगर आप उसे खोजने जायेंगे तो प्रश्न मिटेगा और साथ ही आप
भी मिट जायेंगे। अगर आप चरम प्रश्न की खोज में गये तो आप भी खो जायेंगे, जैसे नमक का पुतला सागर में खो गया।
कबीर ने कहा है कि बहुत खोजता था; बहुत खोजता था;
खोजते-खोजते फिर खुद ही खो गया। बहुत खोजा, बहुत
खोजा, फिर खोजते-खोजते खुद ही खो गया। और जब खुद खो गया तब
वह मिल गया जिसकी खोज थी। और जब तक खोजता था वह न मिला क्योंकि तब तक मैं था। इन
दोनों का मिलना नहीं होता। वह गली बहुत संकरी है, कबीर कहते
हैं, बहुत संकरी है, क्योंकि उसमें दो
नहीं समाते। उसमें जब तक हम समाये रहते हैं, तब तक वह लापता
रहता है, और जब वह आ जाता है तब अचानक हम पाते हैं कि हम
गये। क्योंकि लहर जब तक लहर की तरह अपने को जानती है, तब तक
अपने को सागर की तरह नहीं जान सकती है। यह दोनों जानना एक साथ कैसे हो सकते हैं कि
एक लहर अपने को लहर की तरह भी जाने और साथ ही अपने को सागर की तरह भी जान ले। जिस
क्षण वह जानेगी कि मैं सागर हूं उस क्षण जानेगी कि अब मैं लहर न रही। और जब तक वह
जानती है, मैं लहर हूं तब वह जानती है, मैं लहर हूं और सागर नहीं हूं। इसलिए लहर की और सागर की कभी मुलाकात नहीं
होती। लहर और सागर का मिलन होता है। मुलाकात नहीं होती। लहर खो जाती है, सागर हो जाती है। लेकिन मुलाकात नहीं होती क्योंकि मुलाकात होने के लिए
लहर को अब भी होना जरूरी है।
इसलिए आदमी और ईश्वर की अभी तक कोई वार्ता, कोई डायलॉग, कोई बातचीत नहीं हुई, आमने-सामने बैठकर कोई बात नहीं हुई। लेकिन अगर कभी हो जाये तो सब हो सकता
है। जीवन इतना रहस्यपूर्ण है कि पता नहीं, क्या हो जाये। कभी
हो जाये तो कागज में ठीक से लिखकर रखना, ताकि वह वक्त पर भूल
न जाओ। वह भूल सकता है। यह ध्यान में रहे कि हमारे अधिकतम प्रश्न, जो जीवन के संबंध में उठते हैं, वे हमारे दुख,
हमारी बेचैनी, हमारी चिंता, हमारी परेशानी के प्रश्न हैं।
जैसे एक आदमी को सन्निपात हो गया, उसे बुखार चढ़ा और
डिग्रियां बढ़ती चली गयीं और थर्मामीटर अपनी आखिरी सीमा बताने लगा और घर के लोगों
से वह आदमी पूछता है कि मेरी खाट उड़ रही है--पूरब उड़ रही है कि पश्चिम उड़ रही है,
मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मुझे बताओ, मेरी
खाट पूरब उड़ती है कि पश्चिम? तो घर के लोग कहते हैं, शांत पड़े रहो, थोड़ी देर में ठीक हो जाओगे। लेकिन वह
आदमी कहता है, ठीक और गलत का सवाल नहीं है। अभी तो सवाल यह
है कि मेरी खाट उड़ रही है, वह पूरब उड़ रही है कि पश्चिम उड़
रही है? अब घर के लोग क्या करें? उसे
उत्तर दें? और क्या कोई ठीक उत्तर दिया जा सकता है? अगर घर के लोग कहें, पूरब उड़ रही है तो भी गलत है
क्योंकि खाट उड़ ही नहीं रही है। अगर घर के लोग कहें पश्चिम उड़ रही है तो भी गलत
है। अगर घर के लोग कहें, उड़ ही नहीं रही है तो सन्निपात वाला
हंसता है। वह कहता है, पागल हो? न उड़
रही होती तो मैं पूछता क्यों? उड़ रही है, यह तो पक्का रहा, इसकी तो बात ही मत उठाओ। सवाल यह
नहीं है कि उड़ रही है कि नहीं उड़ रही है। सवाल यह है कि पूरब उड़ रही है कि पश्चिम
उड़ रही है। तो घर के लोग उसके सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखते हैं, डाक्टर को भागते हैं लेने, क्योंकि घर के लोग उसके
प्रश्न का उत्तर देने नहीं बैठ जाते, क्योंकि वे कहते हैं,
उत्तर देने में खतरा हो सकता है। वह आदमी मरने के करीब है। वे भागते
हैं, वे उससे कहते हैं, जरा ठहरो,
बुखार उतर जाने दो फिर बता देंगे। वह इस आशा में यह कहते हैं कि
बुखार उतर जाने पर वह पूछेगा ही नहीं। बता तो फिर भी न सकेंगे क्योंकि खाट उड़ ही न
रही थी। सिर्फ एक आशा है कि बुखार उतर जायेगा तो वह पूछेगा नहीं। और क्या आप को
खयाल है कि बुखार उतर जाने पर वह पूछेगा? बुखार उतर जाने पर
घर के लोग ही पूछेंगे कि क्या खयाल है? खाट पश्चिम उड़ रही है
कि पूरब? तो वह हंसेगा। वह कहेगा, पागल
हो गये हो? खाट उड़ ही नहीं रही।
हमारे जो प्रश्न हैं--जिनको हम मेटाफिजिकल कहते हैं, बड़े दार्शनिक कहते हैं, बड़े गहरे प्रश्न कहते हैं,
बहुत गहरे-वहरे नहीं हैं। हमारे चित्त की बेचैनी और अशांति से उठे
हुए प्रश्न हैं। क्या आपको पता है कि कभी आपने सुख की हालत में पूछा हो कि सुख
क्यों है? कभी नहीं। एक आदमी ने नहीं पूछा आज तक। जब कोई
आदमी पूरे सुख की हालत में होता है तो वह यह नहीं पूछता कि सुख क्यों है? लेकिन जब दुख की हालत में होता है तो पूछता है कि दुख क्यों है? जब कोई आदमी स्वस्थ होता है तो कभी पूछता है कि स्वास्थ्य क्यों है?
नहीं, लेकिन जब बीमार होता है तो पूछता है कि
बीमारी क्यों है? जब कोई आदमी किसी को प्रेम करता है और
प्रेम में जीता है और प्रेम में होता है तो वह यह नहीं पूछता है कि प्रेम क्यों है?
लेकिन जब प्रेम टूट जाता है और चित्त दर्पण की तरह खंड-खंड होकर
बिखर जाता है तब वह पूछता है कि प्रेम टूट क्यों जाता है? जब
किसी मां का बेटा जिंदा होता है तो वह कभी नहीं पूछती कि बेटा जिंदा क्यों है,
लेकिन जब वह मर जाता है तो वह छाती पीटती है और कहती है कि मेरा
बेटा मर क्यों गया?
कभी आपने सोचा कि यह 'क्यों' हमेशा दुख में ही उठता है? यह क्यों, कभी सुख में नहीं उठता। असल में जीवन हमारा इतने दुख में है कि हम पूरे
जीवन के संबंध में पूछते हैं कि जीवन क्यों है? यह प्रश्न जो
है, मेटाफिजिकल नहीं है, दार्शनिक नहीं
है, साइकोलॉजिकल है, मानसिक है। और
इसका उत्तर दर्शनशास्त्र में नहीं है, इसका उत्तर मनसशास्त्र
में है। मनसशास्त्र यह कहता है कि जब कोई आदमी पूछे किसी चीज के संबंध में कि यह
क्यों है तो उसका उत्तर मत देना, समझना कि उसकी स्थिति गड़बड़ी
में पड़ गयी है। उसका इलाज करना। एक मां पूछती कि मेरा बेटा क्यों मर गया है?
तो हम क्या उत्तर देते हैं। उसने बेटे के होने को तो चुपचाप स्वीकार
किया था, न होने को वह स्वीकार नहीं कर पाती। वह दुख से भर
गयी है, वह पीड़ा से भर गयी है।
हम जब प्रश्न पूछते हैं पूरे जीवन के संबंध में तो उसका मतलब है कि
पूरा जीवन हमारा दुख, चिंता, उदासी और गहरी पीड़ा से
भर गया है। इसलिए प्रश्न उठ रहा है। अगर आनंद से भर जायेगा, प्रश्न
खो जायेगा। जिस दिन, पूरे आनंद को कोई जीता है उस दिन प्रश्न
पूछता ही नहीं। असल में सब दर्शन, सब फिलॉसफी दुख से पैदा
होते हैं। सब दुखी चित्त के जन्म हैं। आनंदित क्यों पूछें, क्यों?
सवाल ही नहीं उठता, खयाल ही नहीं आता। आनंद तो
स्वीकृत हो जाता है। तब क्यों का सवाल
नहीं उठता है।
मैं आपसे यह नहीं कहता हूं कि आप न पूछें, जब तक चित्त दुखी है, पूछेंगे ही। पूछते ही रहेंगे।
लेकिन ध्यान रहे, दुखी चित्त रहेगा, पूछते
रहें, उत्तर नहीं मिलेगा। न दुखी चित्त मिटेगा। इस 'क्यों' को एक सिंबल, एक प्रतीक
समझना दुखी चित्त का और प्रश्नों की खोज में न जाकर दुखी चित्त को मिटाने की खोज
में चले जाना। जिस दिन चित्त आनंद से भर जायेगा उसी दिन प्रश्न विदा हो जायेंगे।
ऐसे गिर जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि कभी थे भी। जो लोग ज्ञान को उपलब्ध हुए
हैं, हम समझते हैं कि उनको सभी प्रश्नों के उत्तर मिल गये
होंगे तो हम बहुत गलत समझते हैं। जो लोग ज्ञान को उपलब्ध हुए हैं वे, वे लोग नहीं हैं जिन्हें सभी प्रश्नों के उत्तर मिल गये। वे, वे लोग हैं, जिनके सभी प्रश्न गिर गये। जिनके पास
कोई प्रश्न ही न रहा।
प्रश्न पूछता है अज्ञान से भरा चित्त। ज्ञान से भरा चित्त प्रश्न नहीं
पूछता। ऐसा नहीं है कि उत्तर मिल जाते हैं। मैंने कहा न, सन्निपात से उतर आया आदमी वापस, तो अब यह थोड़े ही है
कि उसको उत्तर मिल जाता है कि खाट पूरब उड़ती थी कि पश्चिम, उत्तर
नहीं मिलता है, सिर्फ प्रश्न गिर जाते हैं।
यह खयाल रखना, ज्ञान में प्रश्न गिरते हैं उत्तर नहीं मिलते। सिर्फ
प्रश्न गिर जाते हैं। और जिसे मैं ध्यान कह रहा हूं वह प्रश्नों को गिरा देने की
प्रक्रिया है। वहां सब प्रश्न गिर जाते हैं और चित्त उस आनंद में पहुंच जाता है जो
निष्प्रश्न है, जो अनक्वेश्चन्ड है, जो
बिना प्रश्न पूछे भीतर खड़ा होगा और जिसमें हम इस भांति लीन हो जाते हैं कि प्रश्न
पूछकर भी उसका खंडन करने की हिम्मत हम न करेंगे क्योंकि प्रश्न पूछने से बाधा हो
जायेगी। इतने रस में विभोर जब चित्त हो जाता है तो प्रश्न नहीं पूछता क्योंकि डरता
है कि प्रश्न पूछा तो कहीं रस खंडित न हो जाये। कहीं प्रश्न पूछा तो संगीत का बहाव
टूट न जाये, कहीं प्रश्न पूछा...। यह भी सवाल नहीं उठता कि
मैं पूछूं कि न पूछूं। सब खो जाता है। सब चुप हो जाता है, सब
मौन हो जाता है।
उस मौन में हम जानते हैं, उत्तर नहीं, यही कि हमारे सब प्रश्न गलत थे। अज्ञान से उठे थे। यही कि हमने पूछा,
वही भूल थी। और तब हमें गुरुओं पर बहुत हंसी आती है। क्योंकि तब पता
लगता है कि जो हमने पूछा था, वह तो पागलपन था ही, लेकिन जिन्होंने उत्तर दिये थे वे भी गजब के पागल थे।
अब एक आदमी सन्निपात से नीचे उतर आया, अब उसे पता चला कि
खाट उड़ती ही न थी सिर्फ सन्निपात में, प्रतीत होती थी कि उड़
रही है।
अब अगर घर में किसी ने उसको उत्तर दिया होगा कि पूरब उड़ती है तेरी खाट
तो वह आदमी कहेगा, यह आदमी पागल मालूम होता है। मैं तो सन्निपात में था,
यह ठीक। लेकिन इस आदमी ने कहा कि पूरब उड़ती है।
इसलिए मैं कहता हूं, जिस दिन जीवन में वह क्रांति
उतरती है जिसे परमात्मा का मिलन कहें, उस दिन सभी गुरु एकदम
पागल मालूम होते हैं। उस दिन बड़ी हैरानी होती है कि कैसे-कैसे जवाब देने वाले थे।
कोई कहता था सात स्वर्ग हैं, कोई कहता था, सात नरक हैं। कोई कहता था तीन हैं कोई कहता था छः हैं। कोई कुछ कहता था,
कोई कुछ कहता था। हजार उत्तर थे, लाख उत्तर
थे। हजार संप्रदाय थे, लाख गुरु थे। न मालूम कितने-कितने पंथ
थे, न मालूम क्या-क्या जवाब थे। और मजा यह है कि वह जो
प्रश्न पूछा था वह अज्ञान में पूछा गया था। उसका कोई उत्तर ही न था। वह प्रश्न ही
गलत था। असल में अज्ञान में ठीक प्रश्न पूछे ही नहीं जा सकते।
अज्ञान में ठीक प्रश्न कैसे पूछे जा सकते हैं? अंधा आदमी प्रकाश को नहीं जानता तो प्रकाश के संबंध में ठीक सवाल कैसे पूछ
सकता है। और आंख वाला प्रकाश को जानता है इसलिए सवाल ही नहीं पूछता। सवाल पूछने की
कोई जरूरत नहीं है।
अब यह दिक्कत है जीवन की कि आंख वाला सवाल नहीं पूछता प्रकाश के संबंध
में। जो कि पूछे तो कुछ मतलब हो। और अंधा पूछता है जिसके पूछने का कोई मतलब नहीं
है। यहां हालतें ऐसी हैं कि लंगड़े चलने की कोशिश करते हैं और जिनके पैर हैं वे
आराम से बैठे हुए हैं। अंधे रास्ता खोज रहे हैं और जिनके पास आंखें हैं वे विश्राम
कर रहे हैं, वे रास्ता ही नहीं खोजते।
ज्ञानी वह नहीं है जिसको सब प्रश्नों के उत्तर मिल गये। ज्ञानी वह है
जो उस जगह पहुंचा शांति की, जहां उसने पाया सब प्रश्न फिजूल हैं। और चुप हो गया,
और नहीं पूछा, और पा गया सब।
जानना, प्रश्नों का उत्तर नहीं है, जानना,
प्रश्नों का अभाव है, एब्सेंस है, अनुपस्थिति है। ध्यान यही प्रयोग है जहां सब अनुपस्थित हो जाता है और लहर
धीरे से उतर कर सागर के साथ एक हो जाती है। और बहुत से प्रश्न रहे, वह कल मैं बात करूंगा।
सुबह हम यहां ध्यान के लिए बैठ जायेंगे। तो जिनको उस जगह पहुंचना हो
जहां कि उससे प्रश्न पूछा जा सके, परमात्मा से, सागर से, वे सुबह आ जायें। लेकिन सुबह सिर्फ वे ही
लोग आयें जो लहर छोड़कर सागर में उतरने के लिए उत्सुक हों। जो इतने अशांत हो गये
हैं कि अब शांति की तरफ जाने का जिन्हें खयाल आये।
मेरी बातों को इतनी शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत
हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
साधना-शिविर, जूनागढ़; दिनांक १० दिसंबर ,१९६९;
रात्रि.
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