अहंकार की हर जीत हार है—प्रवचन—64
पहला
प्रश्न
समर्पण अनिवार्य
है। फिर चाहे मार्ग भक्ति का हो,चाहे ध्यान का। फर्क ही पड़ेगा कि भक्ति के मार्ग
पर समर्पण पहले है, पहले चरण में, और
ध्यान के मार्ग पर समर्पण है अंतिम चरण में।
भक्ति
कहती है, अहंकार को छोड्कर ही मंदिर में प्रवेश करो। क्योंकि जिसे छोड़ना ही है,
उसे इतने दूर भी क्यों साथ ढोना? छोड़ ही दो।
भक्ति पहले ही क्षण में अहंकार को गिरा देती है। भक्ति को सुविधा है, क्योंकि भगवान की धारणा है। ध्यानी को वैसी सुविधा नहीं है। ध्यानी चलता
है बिना किसी धारणा के। तो अहंकार बचा रहेगा। किसके चरणों में रखें अहंकार को?
ध्यानी तो अनुभव के बाद ही, गहरे अनुभव में
उतरकर ही, आखिरी घड़ी में, जब कुछ और
शेष न रह जाएगा, सिर्फ सूक्ष्म अहंकार मात्र शेष रह जाएगा,
वही पर्दा रहेगा। बहुत झीना पर्दा, इतना झीना,
इतना पारदर्शी कि बहुतो को तो लगेगा कि यह पर्दा है ही नहीं।
जैसे
शुद्ध कांच। जब तक तुम पास ही न आ जाओगे, तुम्हें लगेगा कोई
पर्दा है ही नहीं बीच में। सब साफ दिखायी पड रहा है। लेकिन जब तुम पास आओगे,
तब टकराओगे। उस घड़ी में अहंकार को छोड़ना पड़ता है। अंतिम घड़ी में।
तो
ध्यान—मार्ग भी अंततः कैसे तुम अहंकार को छोड़ोगे उसके लिए व्यवस्था जुटाता है।
जुटानी ही पड़ेगी। यह बुद्ध 'की व्यवस्था है कि उन्होंने त्रि—शरण कहे। बुद्ध
इन्हें त्रि—रत्न कहते हैं। हैं भी ये रत्न। इनसे बहुमूल्य और कुछ भी नहीं,
क्योंकि इन्हीं को खोकर हमने सब खोया है। और इन्हीं को पाकर हम सब
पा लेंगे।
ये
हैं तीन रत्न—
बुद्धं शरणं गच्छामि,
संघं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि।
और
इनके पीछे एक तर्कसरणी है। समझो।
पहले
तो बुद्ध के प्रति। बुद्ध का अर्थ गौतम बुद्ध नहीं है। इस भ्रांति में मत पड़ना।
बुद्ध का अथई है,
बुद्धत्व।
एक
बार बुद्ध से किसी ने पूछा कि आप तो कहते हैं कि किसी की शरण में जाने की जरूरत नहीं
है और लोग आपके सामने ही आकर कहते है—बुद्धं शरणं गच्छामि? आप चुप
रहते हैं। चुप्पी से तो समर्थन मिलता है। यह तो मौन समर्थन हो गया। आपको इकार करना
चाहिए।
तो
गौतम बुद्ध ने कहा,
वे मेरी शरण जाते हों तो मैं इंकार करूं, और
मेरी शरण तो जाएंगे भी कैसे? क्योंकि मैं तो बचा भी नहीं। वे
बुद्धत्व की शरण जाते हैं। जौ बुद्ध हुए हैं अतीत में, जो
बुद्ध आज हैं, और जो बुद्ध कभी होंगे, उन
सभी के सारभूत तत्व का नाम बुद्धत्व है। जो कभी जागे और कभी जागेंगे और जाग रहे
हैं, उस जागरण का नाम बुद्धत्व है।
तो
पूछने वाले ने पूछा,
फिर आपके ही चरणों में आकर क्यों कहते हैं? कही
भी कह दें। तो उन्होंने कहा, वह उनसे पूछो, वह उनकी समस्या है। उन्हें सब जगह दिखायी नहीं पड़ता, उन्हें मुझमें दिखायी पड़ता है। चलो, यहीं से शुरुआत
सही, कहीं से तो शुरुआत हो! झुकना कहीं तो सीखें। आज मुझमें
दिखा है, कल और में भी दिखेगा, परसों
और में भी दिखेगा, फिर उनकी दृष्टि बड़ी होती जाएगी। एक दफा
दिख जाए हीरा, तो फिर तुम्हें बहुत जगह दिखायी पड़ेगा। और एक
बार हीरे की ठीक—ठीक परख आ जाए, तो फिर जौहरी की दुकान पर जो
साफ—सुथरे, निखरे हीरे रखे हैं, उनमें
ही नहीं, खदानों में भी जो हीरे पड़े हैं, जो अभी साफ—सुथरे नहीं हैं, उनमें भी हीरा दिखायी पड़
जाएगा। परख उग्र जाए।
तो
बुद्ध में और साधारण व्यक्ति में इतना ही फर्क है कि साधारण व्यक्ति ऐसा हीरा है
जो अभी खदान में पड़ा है,
और बुद्ध ऐसे हीरे हैं जिसको साफ—सुथरा किया गया, तराशा गया, जिस पर चमक आ गयी है। बुद्ध ने अपने हीरे
के साथ जो करना था कर लिया, तुमने अपने हीरे के साथ जो करना
था अभी नहीं किया। लेकिन जिसको हीरा पहचान में आ गया, उसे तो
तुममें भी हीरा दिखायी पड़ जाएगा।
तो
बुद्ध ने कहा,
अगर मुझमें उन्हें दिखायी पड़ती है बुद्धत्व की झलक, चलो, यही ठीक! आज यहां दिखायी पड़ती है, कल और भी कहीं दिखायी पड़ेगी, फिर दिखायी पड़ती जाएगी।
फिर सब तरफ दिखायी पड़ने लगेगी।
तो
पहला चरण है,
एक के प्रति समर्पण। क्योंकि वहां से, उस
झरोखे से तुम्हें सूरज दिखायी पड़ा। खयाल रखना, जब तुम किसी
झरोखे के पास खड़े होकर सूर्य को नमस्कार करते हो तो तुम झरोखे को नमस्कार नहीं कर
रहे हो। हालांकि चाहे तुम्हें पहले ऐसा ही लगता हो कि इस झरोखे की बड़ी कृपा—इसी से
तो सूरज दिखायी पड़ा न! नहीं तो अंधेरे में ही रहते—तो चाहे तुम झरोखे को धन्यवाद
भी दो, लेकिन झरोखे के माध्यम से तुम धन्यवाद तो सूरज को ही
दे रहे हो। झरोखे ने तो कुछ किया नहीं, सिर्फ द्वार दिया,
बाधा नहीं बना। बुद्ध का इतना ही अर्थ है —जिसके भीतर सब बाधा गिर
गयी है, तुम आर—पार देख सकते हो।
तो
पहली समर्पण की भावना है—बुद्धं शरणं गच्छामि।
दूसरी
समर्पण की धारणा है—संघं शरणं गच्छामि। संघं का अर्थ होता है, उन सबको
जो जागे हैं। उन सबको जो जाग रहे हैं। उन सबको जो जागने के करीब आ रहे। उन सबको जो
करवट ले रहे। उन सबको जिनके सपने में जागरण की पहली किरण पड गयी है। जिनकी नींद
में खलल पड़ गयी है। तो संघ का स्थूल प्रतीक तो यह है कि जिन लोगों ने बुद्ध से
दीक्षा ले ली है, उन समस्त संन्यासियों की मैं शरण जाता हूं।
लेकिन इसका मूल अर्थ तो यही हुआ न कि जिन्होंने स्रोत में प्रवेश कर लिया, जो स्रोतापन्न फल को प्राप्त हो गए। जिन्होंने संन्यास लिया है।
संन्यास
तो अभीप्सा है,
खबर है कि मैं अब अपने जीवन की धारा बदलता हूं। अब नहीं धन होगा
मूल्यवान मेरे लिए। अब होगा ध्यान मूल्यवान मेरे लिए। अब नहीं खोजूंगा स्थूल को,
सूक्ष्म की यात्रा पर जाता हूं। जिसको मृत्यु मिटा देती है, अब उस पर मेरी आंख खराब नहीं करूंगा, अब अमृत की खोज
में जाता हूं। अंधेरे से प्रकाश की तरफ, मृत्यु से अमृत की
तरफ, असत्य से सत्य की तरफ, ऐसी जो
प्रार्थना है वही तो संन्यास है। असतो मा सदगमय।
संघ
का अर्थ है, वे सब जो स्रोत—आपन्न हो गए। वे सब, जिन्होंने
निर्णय लिया है सत्य की खोज का। जो सत्य के अन्वेषण पर निकल गए हैं। उनकी शरण जाता
हूं। थोड़ी दृष्टि बड़ी हुई, अब बुद्ध ही काफी नहीं। बुद्ध में
तो दिखता ही है, लेकिन अब उनमें भी दिखायी पड़ने लगा जो बुद्ध
के पास बैठे हैं।
होना
भी यही चाहिए। जब बुद्ध के पास रहोगे तो उनकी सुगंध पकड़ेगी न तुम्हें। इस बगीचे से
घूमकर निकलोगे,
घर जाकर पहुंच जाओगे अपनी पुरानी गंदगी में, तो
भी तुम पाओगे वस्त्रों में थोड़ी सी फूलों की गंध साथ चली आयी है। बुद्ध के पास
बैठोगे —उठोगे, तो उनका स्वाद लगेगा, उनकी
बूंदें तुम पर बरसेंगी, उनका स्पर्श तुम्हें होगा। जो हवा
उन्हें छुएगी, वही हवा तुम्हें भी छुएगी। बुद्ध के पास उठोगे——बैठोगे,
उनका रंग लगेगा, उनका ढंग लगेगा। बुद्ध के पास
उठोगे —बैठोगे, तो बुद्धत्व संक्रामक है। याद रखना, बीमारी ही थोडे ही लगती है, स्वास्थ्य भी लग जाता
है। पागलपन ही थोड़े ही लगता है; पागलों के साथ रहोगे,
पागल हो जाओगे, मुक्तों के साथ रहोगे तो मुक्त
हो जाओगे—होने लगोगे।
तो
अब दृष्टि थोड़ी बड़ी हुई। अब बुद्ध ही नहीं दिखायी पड़ते, अब बुद्ध
में वे सब दिखायी पड़ने लगे जो उनके आसपास हैं। जो सब बुद्ध की तरफ उन्मुख हैं।
दूर है अभी मंजिल उनकी, चल पड़े हैं। बुद्ध पहुंच गए गंगासागर,
गंगा गिर गयी सागर में, लेकिन गंगा में जो और
लहरें चली जा रही हैं सागर की तरफ भागती हुई, वे भी पहुंच ही
जाएंगी, पहुंचने को ही हैं, आज नहीं कल
की ही बात है, समय का ही भेद है। पहले नमस्कार किया वृक्ष को,
फिर नमस्कार किया बीज को, क्योंकि बीज भी
वृक्ष तो हो ही जाएगा। देर— अबेर के लिए नमस्कार रोकोगे क्या! सिर्फ समय के कारण
नमस्कार को रोकोगे क्या!
और
जब एक बार नमस्कार करने का मजा आ जाता है, जब बुद्ध के चरणों में सिर रखने का
मजा आ गया, तो मन करेगा जितने चरणों में सिर रखा जा सके,
रखो। जब एक बार इतना मजा आया है और एक के पास इतना मजा आया है,
काश, तुम्हारा सिर सभी के चरणों में लोटने लगे
तो आनंद की धार बह उठेगी।
इसलिए, संघं शरणं
गच्छामि।
और
भी एक कदम आगे बात उठती है,
क्योंकि संघ की शरण जाने का अर्थ हुआ, जो सत्य
की खोज कर रहे हैं उनकी शरण जाता हूं। बुद्ध की शरण जाने का अर्थ हुआ, जिसने सत्य पा लिया है उसकी शरण जाता हूं। और धम्मं शरणं गच्छामि का अर्थ
होता है, बुद्ध की शरण भी तो इसीलिए गए न कि उन्होंने सत्य
को पा लिया, और संघ की शरण भी इसीलिए गए न कि वे सत्य की खोज
में जा रहे हैं, तो सत्य की ही शरण जा रहे हो, चाहे बुद्ध की शरण जाओ, चाहे संघ की शरण जाओ। इसलिए,
धम्मं शरणं गच्छामि।
धम्म
का अर्थ होता है सत्य। जो परम सत्य है, वही धर्म है। इसलिए अंतिम रूप में
आखिरी शरण है—धर्म की शरण जाता हूं; उस परम नियम की शरण जाता
हूं जो संसार को चला रहा है; उस ऋत की शरण जाता हूं, ताओ की शरण जाता हूं, जो संसार को धारे हुए है।
धर्म का अर्थ, जिसने संसार को धारण किया है। जिस पर सब खेल
चल रहा है, उस परम में डूबता हूं।
बौद्ध
उसे भगवान नहीं कहते,
क्योंकि भक्त की वह भाषा नहीं है, वे उसे कहते
हैं, धर्म। वह ज्ञानी की भाषा है, ध्यानी
की भाषा है। वे कहते हैं, नियम, परम
नियम, शाश्वत नियम। भक्त इसी को भगवान कहता है, फर्क कुछ भी नहीं है। भक्त कहता है, भगवान ने सबको
धारा हुआ है। और ज्ञानी कहता है, धर्म ने सबको धारा हुआ है।
शब्दों का भेद है। भक्त धर्म को रूप दे देता है, तो भगवान।
प्रतिमा बना लेता है, तो भगवान। इतनी प्रतिमा नहीं बनाता,
नियम को शुद्ध नियम रहने देता है। रूप नहीं देता, व्याख्या नहीं देता।
तो
तीसरा रत्न है—धम्मं शरणं गच्छामि। तीसरी शरण में जाकर तुम समस्त की शरण में चले
गए—सार्वभौम है धर्म। पहले बुद्ध की शरण में गए, वह एक; फिर संघ की शरण में गए, अनेक, फिर
धर्म की शरण में गए, सर्व। सार्वभौम। विसर्जन पूरा हो गया।
इसके पार विसर्जन करने को कुछ है नहीं। तुम उससे एक हो गए, जो
है।
ऐसे
ये तीन रत्न हैं। इनके संबंध में कुछ और बातें भी समझ लेनी चाहिए। पहली बात, बुद्ध की
शरण जाना सबसे सरल है। ऐसा रोज यहां होता है। कोई आकर मुझसे कहता है कि हमने
समर्पण आपको किया है, हम लक्ष्मी की क्यों मानें? तो मैं उनसे कहता हूं मुझे समर्पण करना सरल है। तुम लक्ष्मी को समर्पण
करोगे तो और रस आएगा, और गहरा रस आएगा। मुझे समर्पण करना तो
बहुत सुगम है। क्योंकि तुम मेरे इतने प्रेम में हो। तुम मेरे रस में ऐसे डूबे हो।
कोई
भोजनालय में काम करता है,
दीक्षा से उसकी नहीं बनती, तो मैं उससे कहता हूं, जाकर दीक्षा को समर्पण कर दो। वह कहता है, दीक्षा
को! आपकी शरण में हम आए हैं, दीक्षा की शरण में नहीं। मैं
उनसे कहता हूं, तो मैं ही तो तुमसे कह रहा न! तुम मेरी शरण आ
गए, अब गए हाथ से, अब मैं कहता हूं तुम
जाओ दीक्षा के शरण में, तो मेरी मानोगे या नहीं? कहते हैं, मानेंगे तो जरूर लेकिन दीक्षा की शरण!
दीक्षा तो हमारे ही जैसी है! कठिन हो गया दीक्षा की शरण जाना। लेकिन मैं कहता हूं, जाओ।
मेरी
शरण आना तो बहुत सरल है,
क्योंकि तुम मेरे लगांव में पड़े हो, तुम मेरे
प्रेम में पड़े हो, तुम दीवाने हो, तो
झुक गए। दीक्षा से तुम्हारा कोई ऐसा लगांव नहीं, ऐसा कोई
दीवानापन नहीं, दीक्षा तो लगती ठीक तुम जैसी है, लेकिन अर्थ समझना। जब तक तुम तुम जैसों के शरण में नहीं जाओगे, तब तक तुमने अभी तक अपने को समझा ही नहीं। क्योंकि जो तुम जैसा है,
वह तुम्हें आदर योग्य नहीं मालूम होता, इसका
अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ हुआ कि तुम स्वयं ही अभी अपनी आंखों
में आदर योग्य नहीं हो। जब तुम कहते हो कि अपने ही जैसे की शरण जाएं, तो तुम क्या कह रहे हो, तुमने शायद सोचा नहीं। तुम
यह कह रहे हो कि मैं तो निंदित, पापी, अपराधी,
और मेरे ही जैसे किसी की शरण जाऊं! तो तुम्हारे मन में बड़ी
आत्मग्लानि है। तुम्हारे मन में बडा आत्म—तिरस्कार है। अपमान है अपना।
और
जिसके मन में अपने प्रति अपमान है, वह कैसे आत्मवान हो सकेगा'?
जो अपनी निंदा कर रहा है, जो अभी अपना सम्मान
भी नहीं सीख सका, वह अपने भीतर कैसे प्रवेश कर सकेगा?
जो अभी अपने को प्रेम भी नहीं कर सकता, वह
किसको प्रेम कर सकेगा? कहने वाला तो यही कह रहा है कि शायद
वह दीक्षा का असम्मान कर रहा है यह कहकर कि वह तो मेरे ही जैसी है, उसकी क्या शरण जाना!
लेकिन
वह अपना ही अपमान कर रहा है। वह घोषणा कर रहा है कि मैं दो कौड़ी का, और दीक्षा
मेरे जैसी, तो मैं कैसे शरण जाऊं?
जिस
दिन तुम अपने ही जैसों की शरण जाने लगोगे, उस दिन तुम्हारे जीवन में
आत्म—गौरव आएगा। यह बात तुम्हें बड़ी विरोधाभासी लगेगी कि जिस दिन व्यक्ति समस्त के
चरणों में झुक जाता है, उस दिन वह आत्म—गौरव को उपलब्ध हो
गया। उसने कहा कि निम्नतम के भी शरण में मैं झुक जाता हूं पत्थर के शरण झुक जाता
हूं क्योंकि अस्तित्व महिमावान है, निम्न यहां कोई हो ही
कैसे सकता है! उस दिन उसे अपने भीतर की गरिमा का बोध होगा।
तो
बुद्ध की शरण जाना तो बड़ा सरल है। सरल से शुरू करो मगर सरल पर अटके मत रह जाना।
इसलिए संघं शरणं गच्छामि। संघ का मतलब, दीक्षा, लक्ष्मी,
मैत्रेय, इनकी शरण जाओ, कभी—कभी
अपनी ही शरण. जाओ, कभी—कभी अपने ही पैर छू लो। क्योंकि
तुम्हारे भीतर भी परमात्मा विराजमान है। लगेगा पागलपन, पहले
तो दूसरे के पैर छूने में बड़ा पागलपन लगता है, फिर अपने पैर
छूने में तो निश्चित ही पागलपन लगेगा। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, कभी—कभी अपने भी पैर छुओ। तुम्हारे भीतर भी परमात्मा ही विराजमान है—उतना
ही जितना मेरे भीतर, उतना ही जितना बुद्ध के भीतर, उतना ही जितना महावीर के भीतर।
ऐसा
हुआ एक बार, रामकृष्ण की किसी ने तस्वीर उतारी। वह तस्वीर लेकर आया तो रामकृष्ण ने
झुककर उस तस्वीर के चरण छुए। खुद की तस्वीर! शिष्य जरा बेचैन हुए, उन्होंने कहा कि लोग पागल तो समझते ही हैं इन्हें, अब
और बिलकुल पागल समझेंगे, यह हद्द हो गयी। किसी ने जरा टेहुनी
मारी कि परमहंसदेव, क्या कर रहे? खबर
हो गयी लोगों को तो, लोग पागल मानते ही हैं, अब हद्द हो जाएगी कि अब अपनी ही तस्वीर के पैर छूने लगे। तो उन्होंने कहा
कि मेरी तस्वीर! मेरी तस्वीर तो हो कैसे सकती है! क्योंकि मैं तो देह नहीं हूं।
लेकिन यह जो तस्वीर है, बड़ी समाधि की है। जिसकी भी ली गयी हो
यह तस्वीर, यह आदमी बड़ी समाधि में रहा होगा! तो मैं तो समाधि
को झुक रहा हूं। अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं ही समाधि में था कि कोई और
समाधि में था। समाधि में कहां मैं, कहां तू? समाधि तो समाधि है।
कभी
अपने पैर भी छूना,
और तुम अपूर्व पुलक का अनुभव करोगे। कभी अपने जैसों के भी पैर छूना।
अपने से बड़ों के पैर छूने में तो अहंकार गिरता नहीं। कैसे गिरेगा? जिसको तुम अपने से बड़ा मानते हो, उसके पैर छूने में
कैसे अहंकार गिरेगा? जिसको तुम अपने जैसा मानते हो, या अपने से छोटा मानते हो, उसके पैर छूने में अहंकार
गिरेगा।
मगर
स्वाभाविक है,
पहले तो यात्रा वहां से करनी होती है जो सुगम हो। इसलिए बुद्धं शरणं
गच्छामि। पहले अपने से विराट के चरण छू लो। फिर संघं शरणं गच्छामि। फिर संघ में तो
सब तरह के लोग होंगे, कोई तुम जैसा होगा, कोई तुमसे अच्छा होगा, कोई तुमसे गया—बीता होगा। संघ
की शरण जाने का अर्थ है, अब मैं हिसाब नहीं रखता कि कौन बड़ा,
कौन छोटा, कौन ऊपर, कौन
नीचे, अब तो जो भी सत्य की खोज कर रहे हैं, सब की शरण जाता हूं।
और
तीसरा, धम्मं शरणं। लेकिन संघ की शरण में भी सीमा है। अगर बुद्ध के मानने वाले
बौद्ध भिक्षुओं की शरण जाते हैं, तो वे जैन भिक्षुओं की शरण
तो न जाएंगे, हिंदू संन्यासियों की शरण तो न जाएंगे, मुसलमान फकीरों की शरण तो न जाएंगे, ईसाइयों की शरण
तो न जाएंगे। सीमा है। और जहा सीमा है, वहा अभी हम परमात्मा
से दूर हैं। इसलिए आखिरी कदम उठाया जाता है, सीमा तोड़ दी
जाती है —धम्मं शरणं गच्छामि। अब कौन हिंदू कौन मुसलमान, कौन
ईसाई, कौन सिख, कौन जैन, कुछ भेद न रहा। हिंदू मुसलमान, ईसाई की तो बात ही
छोड़ो; पौधे, पशु, पक्षी, पत्थर, पहाड़, चांद—तारे, सबके भीतर जो एक ही सत्य समाया हुआ है,
हम उसकी शरण जाते हैं।
ऐसे
ये त्रि—रत्न हैं। ये बड़े बहुमूल्य हैं। इनका अर्थ समझोगे, तो इनके
द्वारा कुंजी मिल सकती है।
दूसरा
प्रश्न—
कहते
है कि पारस लोहे के गुण— अवगुण का विचार किए बिना उसे शुद्ध सोना बना देता है। फिर
ऐसा क्यों है कि आपके पास पहुंचकर भी मैं अतृप्त ही बना हूं? क्या आपकी
कृपा के लिए पात्रता प्राप्त करनी होगी?
पहली बात, पारस लोहे
को सोना बना देता है, मिट्टी के ढेले को रखकर देखा पास के
पास? लाख सिर पटके तो मिट्टी का ढेला सोना नहीं बनता। लोहा
तो होना चाहिए न।
और
लोहे में क्या गुण—दोष होते हैं, जरा मुझे बताओ! लोहा लोहा होता है। तुमने नरसी
मेहता का भजन सुना है? —इक लोहा पूजा में राखत, इक रहत बधिक घर परी। तो नरसी मेहता सोचते हैं कि जो हत्यारे के घर पड़ा हुआ
लोहा है, जिससे वह जानवरों की गर्दन काटता है, वह बुरा। और जो लोहा पूजा में रखते हैं, वह भला।
क्योंकि पूजा में रखा है।
यह
बात जंचती नहीं। क्योंकि बुराई अगर होगी तो बधिक में होगी, लोहे में
क्या होगी? लोहा तो लोहा है। चाहे तुम हत्या करो लोहे से,
तो लोहा हत्या नहीं कर रहा है, ध्यान रखना।
इसलिए बुराई लोहे की हो नहीं सकती। यह दुर्गुण लोहे का नहीं है। यह तो जिसके हाथ
में लोहा पड़ गया था, उसका दुर्गुण है। एक ही तलवार है,
उससे तुम किसी की गर्दन काट सकते हो और किसी की कटती गर्दन को कटने
से रोक भी सकते हो। कोई गुंडे हमला किए हुए हैं एक स्त्री पर और बलात्कार करने जा
रहे हों और तुम्हारे हाथ में तलवार हो, तो तुम रोक दे सकते
हो। तो तलवार उस कारण सज्जन न हो जाएगी। और किसी की हत्या कर दो तलवार से तो तलवार
उस कारण दुर्जन न हो जाएगी। तलवार तो बस तलवार है। तलवार को क्या लेना—देना!
तो
चाहे पूजा—घर में रखा हुआ लोहा हो और चाहे हत्यारे के घर रखा हुआ लोहा हो, लोहे में
कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए पारस के पास दोनों लोहे ले आओ तो दोनों ही सोना हो जाते
हैं। लेकिन संत के पास हत्यारे को लाओ और पूजा करने वाले को लाओ तो फर्क पड़ेगा।
दोनों लोहों में तो कोई फर्क था ही नहीं, दोनों लोहे थे।
तुमने लोहे पर झूठे गुण आरोपित कर लिए। हत्यारे का गुण तुमने लोहे पर आरोपित कर लिया।
वह हत्यारे की बात थी।
तो
पहली तो बात तुम ठीक से समझना कि पारस लोहे को सोना कर सकता है, मिट्टी के
ढेले को नहीं। और अगर तुम सोना न बन पा रहे हो तो थोड़ा विचार करना—लोहा हो?
लोहा अगर हो, तो पात्र हो। तो बन जाओगे। अगर
लोहा ही नहीं हो, तब बड़ी मुश्किल है।
तुम्हारा
मन यह होता है कि किसी पर टाल दो जिम्मेवारी। तुम्हारा मन यह कहेगा कि अभी तक नहीं
बने सोना, मतलब साफ है कि जिसको पारस समझा वह पारस नहीं है। यही तो आदमी का मन है,
जो जिम्मेवारियां टालता है। तुम कुछ करना नहीं चाहते, अब तुम प्रतीक्षा करते हो कि अगर हो जाए तो ठीक, न
हो तो पारस की जिम्मेवारी।
इसी
को तो मैं मिट्टी का लोंदा होना कहता हूं। मिट्टी के लोंदे होने का मतलब है, कुछ भी
करने को नहीं, पड़े हैं मिट्टी के लोंदे की तरह—गोबर—गणेश!
लगते हैं गणेश जी जैसे, बिलकुल गणेश जी जैसे लगते, मगर हैं गोबर के। मिट्टी के लोंदे का अर्थ है कि तुमने अपने जीवन को अपने
हाथ में लेना नहीं सीखा। तुम थपेड़ों पर जी रहे हो। कोई कर दे, तुम बस बैठे हो। तुम भिखारी हो। कोई दे दे तो ठीक, कोई
न दे तो गाली—गलौज। लेकिन तुम उठकर कुछ भी करने की तैयारी में नहीं हो। यह तुम
मिट्टी के लोंदे हो। पारस भी तुम्हें कुछ न कर पाएगा।
थोड़ा
उठो। थोड़ा करने में लगो। थोड़ा जीवन को बदलने के लिए श्रम, थोड़ा
ध्यान, थोड़ी प्रार्थना, थोड़ी पूजा।
बुद्ध
ने कल कहा, कि गलत जो मालूम पडे, उस आदत को तोड़ना। जो ठीक मालूम
पड़े, उसके अभ्यास को गहरा करना। और चित्त को रोज—रोज निखारते
जाना ताकि और— और साफ—साफ दिखायी पड़ने लगे कि क्या गलत है, क्या
ठीक है।
अक्सर
लोग सोचते हैं कि जैसे यह कोई मेरी जिम्मेवारी है। अगर तुम भटक गए, तो तुम
भगवान के सामने यह न कह सकोगे कि हम क्या करें, कोई पारस
मिला ही नहीं। तुम यह न कह सकोगे। अगर तुम ठीक से समझो, तो
पारस भी तुम्हारे भीतर पड़ा है, तुम उसे खोजो। बिना खोजे न
मिलेगा। पारस कहीं बाहर नहीं रखा है। पारस भी तुम्हारे भीतर पड़ा है। उस पारस का
नाम ही ध्यान है, सुरति। या जो भी नाम तुम देना चाहो,
समाधि, संबोधि। उस पारस का नाम ही ये सब शब्द
उपयोग किए गए हैं। उस पारस को खोजो, वह तुम्हारी चेतना में
पडा है। तुम्हारी चेतना ही जैसे—जैसे निखार पर आती, शिखर
बनता चेतना का, वैसे—वैसे पारस निर्मित हो जाता है। और चेतना
का पारस निर्मित हो जाए तो जीवन का लोहा तत्क्षण सोना बन जाता है।
मेरे
आधार पर तुम सोना नहीं बन सकते, मेरे आधार पर तुम अपने भीतर का पारस खोज सकते
हो। गुरु तुम्हें, पारस नहीं बन सकता गुरु, लेकिन गुरु ने अपना पारस पा लिया है तो वह जानता है, कैसे पारस को पाया जाता है। वह तुम्हें बता सकता है कि तुम अपने पारस को
कैसे पा सकते हो।
और
अच्छा भी यही है कि गुरु पारस नहीं बनता, नहीं तो तुम तो नपुंसक के नपुंसक
रह जाते। तुम्हारा क्या मूल्य? पारस ने तुम्हें सोना बना
दिया और फिर कहीं कोई एंटी—पारस मिल जाता, तो फिर लोहा का
लोहा कर देता। तुम वही के वही रहे। तुम कहते, अब हम क्या
करें, हमारे हाथ में तो कुछ है नहीं। पारस मिल गया तो सोना
बन गए, एंटी—पारस मिल गए! और ध्यान रखना, दुनिया में दोनों चीजें होती हैं। एंटी—पारस की बात शास्त्रों में नहीं है,
क्योंकि शास्त्रों में बहुत सी बातें तुम्हारे लोभ के कारण लिखी गयी
हैं। क्योंकि तुमने ही लिखी हैं। या तुम जैसों ने ही लिखी हैं। या तुम जैसों ने ही
लिखवा ली हैं। तो एंटी—पारस की कोई बात नहीं है। लेकिन इस जगत में हर चीज का
विरोधी होता है।
अगर
ऐसा है कि पारस से लोहा सोना हो जाता है, तो जरूर कहीं कोई ऐसी कीमिया होगी
जिससे सोना लोहा हो जाए। फिर तो तुम बिलकुल ही नपुंसक हो गए, तुम्हारे हाथ में कुछ भी न रहा।
नहीं, इस तरह
पारस से सोना बनना भी मत! अगर मैं कहूं भी कि मैं बनाने को तैयार हूं, तो कहना, रुको, मुझे खोजने दो
खुद। क्योंकि अपने से बनूंगा तो फिर मुझे कोई मिटा न सकेगा। ऐसे किसी और से बन गया,
तो मिट जाऊंगा। फिर कोई मिटा देगा। तो ऐसे बनने का कोई मूल्य नहीं
है। यह बड़ा सस्ता बनना हुआ। और सत्य इतना सस्ता नहीं मिलता है।
पात्रता
का इतना ही अर्थ होता है कि तुम उठो, आंख खोलो, थोड़ा
चलो, मेरा हाथ तुम्हारा साथ देने को तैयार है, मैं तुम्हें दूर तक ले चलने को राजी हूं, लेकिन उठो,
चलो। तुम सो रहे हो चांदर ताने और तुम कहते हो, मंजिल नहीं मिलती! तुम यहां से हटना भी नहीं चाहते। तुम चाहते हो कोई
स्ट्रेचर में डालकर और तुम्हें मंजिल पहुंचा दे। तो फिर मंजिल न हुई, अस्पताल होगा। फिर मंदिर नहीं होगा, अस्पताल होगा।
अस्पताल जाना हो, तुम्हारी मर्जी! तो कोई स्ट्रेचर में डालकर
और एंबुलेंस गाड़ी को बुलाकर ले जाएगा। तुम मुर्दा हो। तुम अर्थी बनकर जाना चाहते
हो। चार आदमियों के कंधे पर सवार हो गए, अर्थी बन गए और चले!
एक
सूफी फकीर मर रहा था। ठीक मरने के पहले वह उठ खड़ा हुआ अपनी शथ्या से और उसने कहा, मेरे जूते
कहां हैं? तो उसके शिष्यों ने कहा, क्या
करते हैं आप? चिकित्सक कह रहे हैं कि अब आप बचेंगे नहीं। वे
कहते हैं, वह तो मैं भी जानता हूं चिकित्सक के कहने से क्या
लेना—देना है! घड़ी मेरी करीब आ रही है, सूरज डूबने को हो रहा
है, उसी के साथ मैं डूब जाऊंगा, जूते
लाओ जल्दी! पर उन्होंने कहा, अब जूते लाकर करना क्या है,
आप विश्राम करें। उसने कहा, अब विश्राम करके
क्या करना है? मौत तो आ रही है। और मैं किसी के कंधे पर सवार
होकर मरघट नहीं जाना चाहता। जूते ले आओ, मैं मरघट चलता हूं।
अपनी कब्र खुद खोदूंगा। अपना जीवन खुद जीया, अपनी मौत भी खुद
मरूंगा। उधार नहीं।
अजीब
आदमी रहा होगा! वह गया। लोग तो चौंककर देखते रहे, ऐसी घटना तो कभी घटी न थी
कि कोई आदमी खुद ही मरघट जा रहा है। मरघट तो लोग दूसरे के सिर पर चढ़कर जाते हैं।
सदा से पुरानी आदत है। जीए भी दूसरों के सिर पर चढ़कर, मरते
भी दूसरों के सिर पर चढ़कर चले जाते।
वह
गया, उसने कुदाली हाथ में ले ली, उसने अपनी कब्र खोदी। और
लोगों ने कहा, हम साथ दे दें! उसने कहा कि रुको, मेरे काम में बाधा मत डालो, मैं यह न चाहूंगा कि
परमात्मा मुझसे कह सके कि मैंने किसी के कंधे पर किसी तरह की सवारी की। मैं जीवन
अपने ढंग से जीया हूं मरूंगा भी अपने ढंग से। उसने अपनी कब्र खोद ली, वह कब्र में लेट गया और उसने कहा कि नमस्कार, मित्रो!
आंख बंद कर ली और मर गया। अगर उसका वश होता तो वह कब्र पर मिट्टी भी खुद फेंक
लेता।
ऐसा
व्यक्ति ही वस्तुत: प्राणवान है। जीयो अपने ढंग से और मरो भी अपने ढंग से। तो
तुम्हारे जीवन में बडी सुगंध आएगी। यह भी क्या बात कि पारस छू दे और हम सोना बन
जाएं! मिट्टी के लोंदे हो फिर तुम। फिर पारस भी काम न आएगा। बुद्ध ने कहा है, बुद्धपुरुष
केवल मार्ग दिखाते हैं, चलना तो तुम्हीं को पड़ेगा। पहुंचना
भी तुमको पड़ेगा। उनके इशारों को समझ लो और चल पड़ो।
पूछते
हो कि 'मैं अब भी अतृप्त ही बना हूं। '
शायद
यही कारण होगा कि तुम कुछ कर ही नहीं रहे हो। शायद यही कारण होगा कि तुमने मान
लिया है कि अब पहुंच गए भगवान के सान्निध्य में, बात खतम हो गयी। अब और क्या
करने को है! अब करो तुम। अब हम देखेंगे, क्या करते हो! और
बाधा डालेंगे सब तरह की—करने भी न देंगे—करो तुम! सहयोग भी न दे गे, असहयोग भी करेंगे, फिर देखें क्या करते हो? ऐसे भाव से तो यात्रा नहीं होगी, अतृप्ति रहेगी।
तृप्ति
चाहते हो—उठो,
जागो, चलो।
तीसरा
प्रश्न :
मैं
आर्यसमाजी हूं और आपका संन्यास लेने जा रहा हूं। आप अब तक अनेक महापुरुषों के बारे
में बोल चुके हैं,
लेकिन स्वामी दयानंद के बारे में कुछ नहीं बोले हैं। क्या स्वामी जी
ने मानव—कल्याण के लिए कुछ भी योगदान नहीं किया?
पूछा है, ब्रह्मचारी
हरिदेव ने। उत्तर इसीलिए दे रहा हूं क्योंकि संन्यास के पहले तुम्हें यह बात साफ
समझ लेनी चाहिए कि आर्यसमाज को मैं कोई धर्म नहीं मानता हूं। यह एक सामाजिक आंदोलन
है। इसका धर्म से कुछ लेना—देना नहीं। इसका संबंध समाज और राजनीति से है।
दूसरी
बात, स्वामी दयानंद महापंडित थे, महात्मा भी, मगर बुद्धपुरुष नहीं। महापंडित थे, इसमें कोई रत्तीभर
संदेह नहीं है। बहुत कम ऐसे महापंडित हुए हैं, जिनकी ऐसी
स्पष्ट प्रतिभा हो, तर्क हो और शास्त्र के ऊपर जिनकी ऐसी
प्रगाढ़। विश्लेषण की क्षमता हो। बहुत कम। तो उस अर्थ में दयानंद अपूर्व हैं,
मगर महापंडित और महापंडित के प्रति मेरे मन में कोई मूल्य नहीं है।
महापंडित
बुद्धि की बात है। इससे हृदय रूपांतरित नहीं होता। और महापंडित सिर्फ तर्क ही तर्क
में जीता है। उसके जीवन में कोई गहरा अनुभव नहीं होता। तो तर्क तो उनके पास बड़ा था, खंडन—मंडन
की बड़ी क्षमता थी, लेकिन अनुभव कोई भी नहीं था। अगर अनुभव
होता, तो उन्होंने कुछ और ही बात कही होती। फिर वे यह न कहते
कि कुरान वेद के विपरीत है। फिर वे यह न कहते कि महावीर और बुद्ध वेद के विपरीत
हैं। अगर उनका अनुभव होता, तो निश्चित वे जान लेते कि जो
महावीर ने कहा है, भाषा अलग होगी, जो
बुद्ध ने कहा है, उसकी भी भाषा अलग है, और जो मोहम्मद ने कहा है, उसकी भाषा अलग है; जो जीसस ने कहा, उसकी भाषा अलग है; लेकिन जो कहा है, वह वही है जो वेदों ने कहा है।
भिन्न तो कोई कह कैसे सकता है!
तो
उनका सारा जीवन खंडन में गया। बाइबिल गलत है, कुरान गलत है, धम्मपद गलत है, सब गलत हैं, सिर्फ
वेद सही हैं। यह हिंदू राजनीति है। इसका धर्म से कुछ लेना—देना नहीं है।
परमहंस
रामकृष्णदेव ठीक विपरीत आदमी हैं। पंडित बिलकुल नहीं हैं, लेकिन
धार्मिक, संत। जानते कुछ नहीं हैं, दूसरी
क्लास तक मुश्किल से पढ़े हैं। तो मैं रामकृष्ण पर तो बोलता हूं, लेकिन दयानंद को छोड़ता हूं। छोड़ता हूं सिर्फ इसीलिए कि नाहक क्यों किसी
को दुखी करना! दयानंद के मानने वाले जो लोग हैं, वे नाहक
दुखी होंगे, उनको क्यों कष्ट देना! इसलिए छोड़ता हूं। क्योंकि
अगर उनको लूंगा, तो मुझे उनके साथ ठीक—ठीक व्यवहार करना
पड़ेगा। इसलिए छोड़ता हूं। ऐसे बात काटकर निकल जाता हूं।
लेकिन
तुम चूंकि आर्यसमाजी हो और संन्यास भी लेने का सोचा है, इसलिए बात
साफ कर लेनी जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि तुम आर्यसमाजी ही रहते हुए संन्यासी हो
जाओ, तो संन्यास से कुछ परिणाम न होगा। क्योंकि आर्यसमाज
वैसा ही सामाजिक आंदोलन है जैसे और सामाजिक आंदोलन चलते हैं। यह परमात्म—प्रेम में
डूबना नहीं है। इसलिए आर्यसमाज बकवास पैदा करते हैं। बकवासी पैदा करते हैं।
तर्कजाल खूब, लेकिन प्राणों की सुगंध बिलकुल नहीं।
दयानंद
महात्मा भी हैं,
इसमें भी कोई शक नहीं है। लेकिन महात्मा आयोजित बात है। चेष्टा से,
प्रयास से। उनके पास सुंदर चरित्र है, लेकिन
आरोपित। योजना से, ठोंक—ठोंककर उन्होंने अपने चरित्र को खड़ा
किया है। तुम उनके चेहरे पर भी वही भाव देखोगे। सरलता नहीं, बड़ी
कठोरता। बच्चे जैसा भाव नहीं। महात्मा हैं, लेकिन महात्माओं
का भी मेरे मन में कोई बड़ा मूल्य नहीं है। सच तो यह है कि जिसको सच में परमात्मा
का होना हो, उसे दो चीजें छोड़नी पड़ती हैं—महापंडित होना और
महात्मा होना। इन दो को जो छोड़ देता है और सरलचित्त हो जाता है, निर्दोष बच्चे की भांति, वही केवल परमात्मा को पाने
में समर्थ हो पाता है।
तो
तुम सोच लेना। कहीं ऐसा न हो कि संन्यास लेकर फिर तुम्हारे मन में दुविधा खड़ी हो।
कोई जल्दी नहीं है,
और सोच लेना। क्योंकि जब कोई ईसाई संन्यास लेने आता है, तो मैं उसे कभी नहीं कहता कि तुम्हें जीसस को छोड़ना पड़ेगा तो मुझे पाओगे।
नहीं, मैं उससे कहता हूं, अगर तुमने
जीसस को प्रेम किया है तो तुमने मुझे प्रेम किया है। अगर कोई सिख संन्यास लेने आता
है, तो मैं उससे यह नहीं कहता कि तुम्हें नानक को छोड़ना
पड़ेगा। उससे मैं यही कहता हूं कि तुमने अगर मुझको चाह लिया तो मेरी चाह में तुम
नानक को पा लोगे। कोई मुसलमान संन्यास लेने आता है, तो मैं
कभी उसे समझाने की फिकर नहीं करता कि मोहम्मद या कुरान से उसे कुछ नाते तोड़ने हैं।
सच तो यह है कि वह मुझसे नाता जोड़कर जीवित कुरान से नाता जोड लेगा।
लेकिन
आर्यसमाजी के साथ मामला दूसरा है। यह धर्म है ही नहीं। यह तो ऐसे ही है कि जैसे एक
कम्मुनिस्ट मेरे पास आए और कहे कि अब तक मैं कार्ल मार्क्स मानता रहा हूं और
संन्यास लेना चाहता हूं, आप क्या कहते हैं? तो मैं उससे कहूंगा, जरा सोचकर आना। क्योंकि कार्ल मार्क्स बड़ा विचारक, लेकिन
कोई धार्मिक नहीं। कार्ल मार्क्स ने बड़ा सामाजिक आंदोलन पैदा किया और मनुष्य—जाति
का किसी अर्थ में कल्याण भी किया, लेकिन फिर भी वह कल्याण
धार्मिक नहीं है। न ह कल्याण लौकिक है।
दयानंद
ने भी बड़ी सेवा की हिंदू समाज की, लेकिन हिंदू समाज की। वह भी राजनीति है। उठा
लिया हिंदू समाज को, एक संगठन में खड़ा कर दिया, एक नया बल दे दिया, एक नया अहंकार दे दिया हिंदू
समाज को, कि तुम वेदपुत्र हो, अमरतस्य
पुत्र:, कि तुम ऋषि—महर्षियों की संतान हो, ऐसा एक नया अहंकार दे दिया। लेकिन अहंकार तो कोई भी हो वह आदमी को धार्मिक
नहीं बनाता। लोग सम्मान देते हैं इस तरह के लोगों को, क्योंकि
स्वभावत: लोगों में अकड़ आ गयी, लोगो में फिर पुनरुज्जीवन आ
गया। लोगों ने कहा कि ठीक, हम भी अपना गौरव खो बैठे थे,
फिर से हमारा गौरव वापस मिला।
तो
दयानंद ने हिंदू समाज की बड़ी सेवा की। लेकिन हिंदू समाज की सेवा धर्म कि सेवा नहीं
है। अक्सर तो ऐसा होता है कि हिंदू समाज की सेवा, जैन समाज की सेवा, ईसाई समाज की सेवा धर्म—विरोधी होंगी। क्योंकि धर्म की सेवा तो मनुष्य
मात्र कि सेवा है। उसमें हिंदू—मुसलमान—ईसाई का भेद नहीं होता।
तो
तुम पूछते हो कि 'स्वामी जी ने क्या मानव—कल्याण के लिए कुछ भी नहीं किया?
मानव—कल्याण
के लिए तो कुछ भी नहीं किया। हिंदू—कल्याण के लिए बहुत कुछ किया। मगर हिंदू—कल्याण
मानव—कल्याण नहीं है। और अक्सर तो ऐसा होगा कि हिंदू—कल्याण मानव—कल्याण के विपरीत
जाएगा। जाएगा ही। क्योंकि यह धारणा ही कि कोई हिंदू है, मनुष्य—जाति
के विपरीत ले जाती है। यह तुम्हें तोड़ती है, जोड़ती नहीं।
तो
मेरे मन में आर्यसमाज का धर्म की तरह कोई स्थान नहीं है। मैं आर्यसमाज को गिनता
हूं समाजवाद,
कम्यूनिज्य, ब्रह्मसमाज, इस तरह के आंदोलनों में एक। महत्वपूर्ण आंदोलन, मगर
धर्म की दृष्टि से शून्य है उसका मूल्य। समाज और राजनीति की दृष्टि से मूल्य अलग
हैं, लेकिन उन मूल्यों से मुझे कुछ लेना—देना नहीं है।
इसलिए
मैं तुमसे कहना चाहूंगा,
हरिदेव, कि तुम सोच लेना। मेरे पास संन्यस्त
होने का अर्थ होता है कि फिर तुम आर्यसमाजी नहीं रहे। अगर आर्यसमाजी रहना ही,
छोड़ो संन्यास की बात। यह दो टूक है, सीधी—सीधी
बात है। अगर यह साफ न हो तो अभी रुको, जब साफ हो जाए तब
संन्यास ले लेना।
मैं
तुम्हारे जीवन में किसी तरह की दुविधा नहीं डालना चाहता कि तुम्हारा आधा मन आर्य समाजी
बना रहे और आधा मन संन्यासी हो जाए और तुम अड़चन में पड़ जाओ। मैं अड़चन नहीं लाना
चाहता तुम्हारे जीवन में,
मैं तो तुम्हारे जीवन में अड़चन मिटाना चाहता हूं। मैं तो चाहता हूं
कि तुम्हारे जीवन में विश्राम आए, शांति आए, आनंद आए। तो मैं तुम्हें किसी दुविधा में डालना ही नहीं चाहता। मुझे
संन्यासियों की संख्या बढ़ाने का कोई लोभ नहीं है।
इसलिए
इस बात को तुम ठीक से सोच लेना। विचार कर लेना, जब तुम्हारे मन में साफ हो जाए कि
तुममें हिम्मत है सामाजिक, राजनैतिक आंदोलनों की बकवास
छोड्कर वस्तुत: उस परम के सागर में डूब जाने की, जहां न कोई
आर्य है और न कोई अनार्य है; न कोई वेद है, न कोई कुरान है, तो फिर तुम आ जाओ, मेरे द्वार खुले हैं। फिर तुम्हारा स्वागत है।
चौथा
प्रश्न
स्वप्न
अगर सत्य की छाया है, तो क्या स्वप्न के सहारे सत्य को नहीं खोजा जा
सकता है?
स्वप्न निश्चित ही
सत्य की छाया है। इसलिए प्रश्न बड़ा मूल्यवान है कि अगर स्वप्न सत्य की छाया है, तो क्या
स्वप्न के सहारे हम सत्य को नहीं खोज सकते हैं? नहीं,
स्वप्न सत्य की छाया है, स्वप्न को छोड़ोगे
तो सत्य को खोज पाओगे। अगर छोड़ने को सहारा लेना कहते हो, तब
तो ठीक। लेकिन अगर स्वप्न का सहारा लेकर बढ़े तो और स्वप्न में चले जाओगे।
फर्क
समझो! आकाश में चांद है,
शरद पूर्णिमा की रात है, और एक झील में चांद
का प्रतिबिंब बन रहा है, छाया बन रही है। जो झील में चांद बन
रहा है, वह असली चांद की ही छाया है, इसलिए
जुड़ा तो असली चांद से ही है। हालांकि झूठ है। सब झूठ सच से जुड़े होते हैं। नहीं तो
झूठ चलेंगे कैसे? बिना सच के झूठ चल नहीं सकता एक कदम। झूठ
को उधार लेने पड़ते हैं पैर सच के। सच के सहारे ही चलता है। इसीलिए तो हर झूठा आदमी
हर तरह का उपाय करता है कि मैं जो कह रहा हूं? बिलकुल सच है।
क्योंकि अगर वह यह सिद्ध न कर पाए कि यह सच है, तो उसकी झूठ
चलेगी कैसे?
मुल्ला
नसरुद्दीन पर अदालत में मुकदमा था। और गांव का जो सबसे भोला और सरल आदमी था, उसको उसने
लूट लिया था। मजिस्ट्रेट ने कहा कि मुल्ला, थोड़ा तो विचार
कर, यह आदमी गांव का सबसे सीधा, सरल,
साधु चित्त आदमी
है, तुझे यह
मिला लूटने को! इतना बड़ा गांव बेईमानों का पड़ा है, किसी को
भी लूट लेता। उसने कहा, आप भी खूब बात कर रहे हैं! अरे,
इसको न लूटो तो लूटो किसको? यह अकेला ही तो
लुटने को राजी है। क्योंकि यह अकेला ही मुझ पर भरोसा करता है। इस गांव में और तो
कोई मुझ पर भरोसा करने वाला नहीं। और जब तक कोई भरोसा न करे, लूटो कैसे? महाराज, आप भी खूब
बातें कर रहे हैं! यह मैं जानता हूं कि सीधा—सरल है, इसीलिए
तो लूटा। सच पूछो तो यह प्रमाण—पत्र है कि यह आदमी सीधा—सरल है। इसकी साधुता सिद्ध
होती है, क्योंकि मैंने इसको लूटा, और
यह लुट गया। और यह अभी भी मुझ पर भरोसा करता है। अगर अदालत से कभी छूटने का मौका
मिला तो यह फिर मुझे मौका देगा—यह आदमी सच में सरल है।
मगर, सरल को ही
लूटा जा सकता है, यह खयाल किया? लूट के
लिए भी कोई भरोसा करने वाला तो चाहिए न! झूठ के लिए भी कोई माने कि सच है, तो ही तो झूठ चलता है। अन्यथा झूठ नहीं चल सकता। चांद अगर आकाश में न हो
तो झील न में प्रतिबिंब तो नहीं बन सकता न! चांद के बिना तो नहीं बनता—अमावस की
रात तो नहीं बनता। तो एक बात तो तय है कि प्रतिबिंब आकाश के चांद से जुड़ा है।
इसलिए हम प्रतिबिंब का आधार मानकर चांद की खोज कर सकते हैं।
लेकिन
खयाल रखना—अब फर्क समझना होगा—अगर तुमने प्रतिबिंब को आधार माना तो तुम क्या करोगे? पानी में
डुबकी लगाओगे चांद को खोजने के लिए? तब तो चांद तो खो ही
जाएगा, प्रतिबिंब भी खो जाएगा। क्योंकि जैसे ही तुम पानी में
उतरे कि पानी डावाडोल हुआ कि प्रतिबिंब भी बिखर गया। तो प्रतिबिंब का सहारा लेकर
अगर तुम झील के भीतर उतरे, भीतर गए डुबकी मारकर कि देखें
चांद कहां है, तो तुम चांद से बहुत दूर निकल जाओगे।
हां, प्रतिबिंब
का सहारा लेने का इतना ही अर्थ होता है—चूंकि प्रतिबिंब उलटा है, इसलिए उलटे चलो। जहा प्रतिबिंब दिखायी पडता हो, उससे
उलटे चलो, उससे विपरीत चलो, प्रतिबिंब
को छोड़ो, तो तुम सत्य के करीब पहुंचोगे।
जैसे
तुम दर्पण के सामने खड़े हो, दर्पण में दिखायी पड़ रहे हो—छोटे बच्चे धोखा खा
जाते हैं। छोटे से बच्चे को पहली दफा जब दर्पण के सामने रखो, तो वह बड़ा हैरान होता है, टटोलकर देखता है। पीछे भी
जाकर देखता है घसिटकर कि आईने के पीछे कोई बैठा है? उसकी
बिलकुल समझ में नहीं आता कि यह मामला क्या है? वह अपने को
पहचानता भी नहीं, अभी अपनी शक्ल की भी पहचान नहीं कि यह मैं
ही हूं! छूने की कोशिश करता है, खेलने की कोशिश करता है इस
बच्चे के साथ, लेकिन कुछ पकड़ में नहीं आता। घबड़ा भी जाता है,
रोने भी लगता है। और रोने लगता है तो बच्चा भी रोता है, और भी घबड़ाहट बढ़ जाती है। हंसता है तो बच्चा हंसता है। लेकिन छोटा बच्चा
कोशिश करता है कि दर्पण में कोई छिपा है। वैसी ही हमारी कोशिश चल रही है।
हम
नासमझ, अज्ञानी संसार के दर्पण में परमात्मा को खोज रहे हैं जगह—जगह। शायद धन में
छिपा हो, पद में छिपा हो, प्रतिष्ठा
में छिपा हो, मोह—ममता में छिपा हो। खोज रहे हैं। हर जगह
दीवाल से टकरा जाते हैं। कभी कुछ मिलता नहीं, मगर खोज जारी
रहती है। अगर इसका सहारा लेना है तो सहारा लेने का एक ही मतलब होगा, इसके विपरीत चलो, इससे उलटे चलो। क्योंकि प्रतिबिंब
उलटा बना है, इसलिए उलटे जाने से सत्य के करीब आओगे।
धूम—मेघ छाए आकाश
जन्मे हैं जंग लगी चिमनी के गर्भ से
जुड़ न सके पावस के रसमय संदर्भ से
आधी में उड़ते ज्यों फटे हुए ताश
झुलस गए पौधे सब नदी पार खेत के
छूट गए ऊसर में चिह्न किसी प्रेत के
और—छौर फैला है सांवला प्रकाश
इतनी तो कभी न थीं बांहें असमर्थ
खोल नहीं पाती हैं जीने का अर्थ
खोयी प्रतिबिंबों में बिंब की तलाश
धूम—मेघ छाए आकाश
खोयी प्रतिबिंबों में बिंब की तलाश
जिसको
हम खोज रहे हैं,
जिस बिंब को हम खोज रहे हैं, जिस मूल को हम
खोज रहे हैं, वह प्रतिबिंबों में खो गया है।
इतनी तो कभी न थीं बांहें असमर्थ
अब
जब तुम दर्पण के सामने बैठकर अपनी ही छाया को दर्पण में पकड़ोगे तो लगेगा कि बांहें
बिलकुल असमर्थ हैं।
इतनी तो कभी न थीं बांहें असमर्थ
खोल नहीं पाती हैं जीने का अर्थ
खोयी प्रतिबिंबों में बिंब की तलाश
ऐसे
जीवन का अर्थ खुलेगा भी नहीं। प्रतिबिंबों के सहारे सत्य खोजा जा सकता है, अगर तुम
प्रतिबिंबों के विपरीत चलो। इसीलिए तो धन इकट्ठा करने से शायद सत्य के मिलने का
उतना संबंध नहीं जुड़ता, जितना धन को दान कर देने से जुड़ता
है। यह विपरीत चलना हुआ। साधारण मन तो कहता है, धन इकट्ठा
करो। असाधारण मन कहता है, दान कर दो, मौत
तो ले ही लेगी, छीन ही लेगी। इसके पहले कि छीन ले, लुटा दो। जो छिन ही जाएगा, उसको लुटाने का मजा तो कम
से
कम
ले लो। जो मौत ले ही जाएगी..।
एक
अमरीका का बहुत बड़ा करोड़पति मरने के करीब था, तो उसका परिवार सब इकट्ठा हो गया।
उसका वकील आया और उसने कहा, आप अपनी वसीयत करवा दें। तो उस
करोड़पति ने आंख खोली और एक ही लाइन बोला, उसने कहा, वसीयत में लिखो कि मैं होशियार आदमी था, जो भी मैंने
कमाया सब लुटा दिया। अब वसीयत में मेरे पास करने को कुछ है नहीं। जिस तरह मैंने
कमाया, मेरे बच्चे भी उसी तरह कमाएं और जिस तरह मैंने लुटाया,
उसी तरह मेरे बच्चे भी लुटा दें। मैं इतना नासमझ न था कि इकट्ठा
करके और दूसरों के लिए छोड़ जाऊं। जब छोड़। जाना था तो मैंने लुटा दिया।
धन
के संग्रह से शायद सत्य की झलक उतनी नहीं मिलती, जितना धन के त्याग से मिल
जाती है। पद की पकड़ से शायद सत्य की उतनी झलक नहीं मिलती, जितना
पद के त्याग से मिल जाती है।
इसलिए
तो महावीर और बुद्ध सड़क के भिखारी हो गए, सिंहासन छोड़ दिया। तुम्हारे
हिसाब से तो नासमझ ही थे। सिंहासन मिलता कहां ! कितनी मुश्किल से मिलता है!
मिला—मिलाया छोड़ दिया। पागल रहे होंगे। लेकिन छोड्कर कुछ और पाया जो बड़ा था,
उलटे चले। आदमी का मन भीड़— भाड़ में जाने का होता है, जो एकांत में चला जाता है, उसको मिलता। आदमी का मन
तो होता है— भीड़— भाड़, अकेले में तो मन भांय—भांय करता है,
घबड़ाहट होती है। अकेले बैठे नहीं कि चैन नहीं पड़ता है—कहा जाएं,
कहां न जाएं? क्या करें, क्या न करें? किससे मिलें, किसको
बुला लें? कोई तो चाहिए। मित्र न मिले तो दुश्मन सही,
मगर कोई तो चाहिए। अकेले? अकेले में तो बड़ी
घबड़ाहट होती है।
तो
मनुष्य का मन तो भीड़ की तरफ जाता है। भीड़ में तुम परमात्मा को न पा सकोगे। भीड़ तो
प्रतिबिंब देगी। भीड़ के विपरीत। इसलिए जिन्होंने शान को खोजा वे जंगल चले गए, पहाड़ चले
गए, दूर एकांत में गुफाओं में बैठ गए। वे प्रतीक हैं इस बात
के कि उलटे जा रहे हैं।
बुझा—बुझा मन
थका— थका तन
भटका हूं मैं कहां—कहां
किसने दी आवाज मुझे
मैं खिंचा चला आया पीछे
जैसे डोर किसी बंसी की
मछली को ऊपर खींचे
यह अबूझ बेनाम उदासी
यह तन से निर्वासित मन
यह संदर्भहीन पीड़ाएं
दर्पन में प्रतिबिंबित दर्पन
किसी हृदय में किसी नजर में
खटका हूं मैं कहा—कहा
कितना विस्मय है
अपने में ही सीमित रह जाने में
जैसे
दीया लिए हाथों में
उतर रहा तहखाने में
नंगे पांव झुलसते मरुथल में
निर्झर का अन्वेषण आह,
सृजन से पूर्व
मनःस्थितियों के दुर्निवार ये क्षण
कभी भाव पर
कभी बिंब पर
अटका हूं मैं कहां—कहां
बुझा—बुझा मन
थका— थका तन
भटका हूं मैं कहां —कहा
हमारी
सारी भटकन क्या है?
हमारी भटकन यही है कि जो है उसे न खोजकर हम उसकी छाया खोज रहे हैं।
इसीलिए
तो इस देश में ज्ञानियों ने संसार को माया कहा है। माया का अर्थ है, जो नहीं
है और प्रतीत होता है कि है। झील में दिखने वाला चांद है या नहीं है? अगर तुमसे कोई पूछे कि ही और न में जवाब दो, क्या
करोगे? अगर वह कहे, ही और न में जवाब
दो, ज्यादा बातचीत हम चाहते नहीं। झील में दिखायी पड़ने वाला
नाद है या नहीं? तो क्या तुम कहोगे, है?
या तुम कहोगे, नहीं? तुम
कहोगे, भाई, है और नहीं में तो उत्तर
नहीं हो सकता। ही और न में उत्तर नहीं हो सकता, थोड़ी सुविधा
दो मुझे बोलने की। है भी और नहीं भी है। है भी, क्योंकि साफ
दिखायी पड़ रहा है कि है। और मुझे पता है कि जब नहीं होता तब झील अलग ढंग की होती
है। इसलिए है तो। और है भी नहीं, क्योंकि उतरकर बहुत बार
देखा, कुछ पाया नहीं। तो माया है।
माया
बड़ा अदभुत शब्द है। माया का अर्थ यह नहीं होता कि जो नहीं है, माया का
अर्थ होता है, जो नहीं है और फिर भी है जैसा भासता है। जो है
और फिर भी नहीं है। दोनों के मध्य में है माया—होने और न होने के। परमात्मा है और
माया
उसका
प्रतिबिंब है। सिर्फ छाया है।
इसलिए
जब तुम भीड़— भाड़ में भागकर,
धन—पद—प्रतिष्ठा की दौड़ को दौड़कर पाक जाओगे और अपने भीतर उतरने
लगोगे, अपने स्यात में उतरोगे, उलटे
चलोगे —
कितना विस्मय है
अपने में ही सीमित रह जाने में
तब
तुम निश्चित विस्मय से भर जाओगे, अपूर्व आनंद से।
कितना विस्मय है
अपने में ही सीमित रह जाने में
जैसे दीया लिए हाथों में.
उतर रहा तहखाने में
जैसे
कोई दीया लेकर अपने ही भीतर के तहखाने में उतर रहा! उस दीण्र का नाम, बोध,
उस दीए का नाम, ध्यान। उस ध्यान के दीए को
लेकर जब कोई अपने ही भीतर के तहखाने में उतरता है, तब मिलन
होता है उससे, जो है। तब शरद पूर्णिमा , ते चंद्रमा से मिलन
होता है।
कभी भाव पर
कभी बिंब पर
अटका हूं मैं कहां —कहां
बुझा —बुझा मन
थका— थका तन
भटकन हूं मैं कहा—कहा
यात्रा
को उलटाओ। संन्यास और संसार विपरीत यात्राएं। संसार का अर्थ होता ओ?ए?,
धन पर पकड; संन्यास का अर्थ होता है—छोड़ना,
पकड़ छोड़ना। संसार का —भर्थ होता है, मेरा
—तेरा, बहुत आग्रह से। संन्यास का अर्थ होता है, कौन मेरा, कौन तैरा! न कोई मेरा, न कोई तेरा। संसार का अर्थ होता है, क्षुद्र को
इकट्ठा करते रही, घर को बना लो कबाड़खाना, उसी कबाड़खाने में डूबो और मर जाओ। संन्यास का अर्थ होता है, सार को गहो, असार को छोड़ो। आम—आम चूस लो, गुठली—गुठली फेंक दो। संसार का अर्थ होता है, गुठलियां
इकट्ठी करते रहो, आम चूसने की तो फुर्सत कहां है! गुठर्लियां
इकट्ठी करते रहो और फिर सिर मारो और तडूफो और कहो कि —
थका— थका तन
बुझा—बुझा मन
भटका हूं मैं कहा —कहां
और
गुठलियां इकट्ठी कर ली हैं। और हर गुठली के साथ रस भी था। क्योंकि हर माया के साथ
ब्रह्म जुड़ा है। और हर प्रतिबिंब का मूल है। मगर तुम उलटे चले गए
जीने की प्रतिक्रिया में
मिट रहे हैं
जुड़ने की प्रतिक्रिया में
कट रहे हैं
क्यों न अब उलटे चलें हम
मिटें,
ताकि जी सकें हम
कटे,
ताकि जुड़ सकें हम
इस
उलटी यात्रा को ही जिसने समझ लिया, वह सत्य से ज्यादा दूर न रह सकेगा।
आंख तुमने हटा ली झील में बनते हुए प्रतिबिंब से, तो तत्क्षण
तुम्हारी आंख आकाश में दौड़ते चांद को पकड़ लेगी। देर नहीं लगेगी। और आकाश का चांद
कितना ही दूर हो, झील के चांद से पास है।
देखते
नहीं, आदमी आकाश के चांद पर पहुंच गया। आदमी चल लिया आकाश के चांद पर। झील के
चांद पर आदमी कभी नहीं पहुंच सकेगा। क्योंकि जो है ही नहीं 1 भासता मात्र है,
उस पर कैसे चलोगे?
पांचवा
प्रश्न
क्या
सारी जिंदगी हारे ही हारे जीना होगा?
तुम पर निर्भर है।
अगर जीत की बहुत आकांक्षा है तो हारे—हारे ही जीना होगा। अगर जीत की आकांक्षा छोड़
दो तो अभी जीत जाओ। फिर हार कैसी! हार का अर्थ ही होता है कि जीतने की बड़ी अदम्य
वासना है। उसी वासना के कारण हार अनुभव में आती है। कभी खयाल किया, छोटा
बच्चा अपने बाप से कुश्ती लड़ता है, बाप ऐसा थोड़ा दो—चार
हाथ—पैर चलाकर जल्दी से लेट जाता है, छोटा बच्चा छाती पर बैठ
जाता है और चिल्लाता है और प्रसन्नता से नाचता है कि गिराया, बाप को चारों खाने चित्त कर दिया। और बाप नीचे पड़ा प्रसन्न हो रहा है।
चारों खाने चित्त होने में प्रसन्न हो रहा है, बात क्या है!
क्योंकि बाप जानता है, हार स्वीकार की है उसने। तो हार में
भी हार नहीं है।
लेकिन
अगर कोई दूसरा आदमी तुम्हारी छाती पर चढ़ जाए, तो फिर जी
कचोटता
है, हार हार मालूम होती है। हार इसीलिए मालूम होती है, क्योंकि
तुम जीतना चाहते हो। अगर तुम हार को स्वीकार कर लो तो फिर हार कैसे मालूम होगी!
तुम्हें अपमान इसीलिए तो अपमान मालूम होता है, क्योंकि तुम
मान चाहते हो। अगर मान ही न चाहो तो अपमान कैसा!
इसे
थोड़ा समझना! तुम्हें निर्धनता इसीलिए तो सालती है, खलती है, क्योंकि धन का पागलपन चढ़ा हुआ है। अगर धन का पागलपन न हो, तो निर्धनता क्यों सालेगी, क्यों खटकेगी? तुम्हें जो चीज अखरती हो, खयाल कर लेना, उससे उलटे की तुम्हारे भीतर चाह है। फिर तुम्हें अखरती ही रहेगी, फिर तुम्हारे पास कितना ही हो जाए!
अमरीका
का बड़ा करोड़पति एंड्रू कारनेगी मरा तो दस अरब रुपए छोड्कर मरा, लेकिन
मरते वक्त भी बेचैन था और परेशान था। और जब उसकी आत्मकथा लिखने वाले लेखक ने उससे
दो दिन पहले पूछा, कि आप तो प्रसन्न मर रहे होंगे! क्योंकि
आप दुनिया के सबसे बड़े धनी हैं, इतना नगद पैसा किसी के पास
नहीं है जितना आपके पास है! एंड्रू कारनेगी ने कहा, कहां की बातें कर रहे हो? मैं
असफल आदमी! मैं रोता हुआ मर रहा हूं। क्योंकि मैंने योजना बनायी थी सौ अरब रुपए
इकट्ठे करने की और दस ही अरब कर पाया। यह भी कोई जीत है, नब्बे
अरब की हार है।
अब
तुम सोचो, अगर सौ की योजना हो तो स्वभावत: दस अरब रुपए कुछ नहीं मालूम पड़ते। नब्बे
अरब की हार! और अगर तुमने कुछ भी न पाना चाहा हो तो दस पैसे भी बहुत मालूम पड़ते
हैं कि दस पैसे मिल गए। चाहा तो तुमने यह भी नहीं था।
इसलिए
फकीर छोटी —छोटी चीज से प्रसन्न हो जाता है। संन्यासी छोटी—छोटी चीज से प्रसन्न हो
जाता है। मान ही नहीं पाता कि मेरी कोई योग्यता तो थी ही नहीं और इतना मिल गया!
कोई कारण तो न था कि मिले और मिल गया। तो उसे प्रभु की अनुकंपा मालूम होती है, प्रसाद
मालूम होता है।
और
दूसरी तरफ संसारी है,
कितना ही मिलता चला जाए, और उसकी रींगा —झींगी,
उसका रोना— धोना बना रहता है! वह सिर पीटता ही रहता है। कुछ न कुछ
कमी खलती ही रहती है—कुछ और चाहिए, कुछ और चाहिए। चाह का कोई
अंत नहीं है। इसलिए तुम कितना ही पा लो, चाह सदा आगे छलांग
लगा जाती है और रोना जारी रहता है।
तुम
पूछते हो कि 'क्या सारी जिंदगी हारे ही हारे जीना होगा?'
मैं
तुमसे कहता हूं तुम पर निर्भर है। अगर जीतकर जीना है तो जीत की बात ही छोड़ दो।
जीयो, जीत की बात ही छोड़ दो। इसी को तो समर्पण का जीवन कहते हैं। हार को स्वीकार
कर लो। यहां जीत का मतलब ही क्या है! यहां कोई पराया है, जिससे
जीतना है! यहां कोई दुश्मन है! यहां एक ही परमात्मा है, जीतना
किससे है? उसके चरणों में सिर रख दो और तुम जीत गए। इसीलिए
तो कहते हैं कि प्रेम में जो हार जाता है, वह जीत गया। प्रेम
की हार जीत है।
तुम
अहंकार की जीत पाना चाहते हो, हारोगे—हारते ही रहोगे, अहंकार
की हर जीत से नयी हार निकलेगी। और प्रेम की हर हार नयी जीत का द्वार खोल देती है।
इस विरोधाभास को समझना, यह जीवन का परम नियम है, क्योंकि यहां कोई पराया नहीं है। ये वृक्ष, ये
चांद—तारे, ये लोग, ये पशु—पक्षी,
ये सब तुम्हारे हैं, ये तुम हो, यह तुम्हारा ही फैलाव है। तुम इनके हो, ये तुम्हारे
हैं, यहां अलग कौन है! यहां अलग— थलग होने का उपाय क्या है?
किससे जीत रहे हो?
ऐसा
समझो कि सागर की दो लहरें एक—दूसरे से कशमकश कर रही हैं, कुश्तम—कुश्ती
कर रही हैं कि जीतना है और किसी को पता नहीं, दोनों को खयाल
नहीं कि हम एक ही सागर की लहरें हैं, जीतना किससे?
समझो
कि मेरे बाएं और दाएं हाथ कुश्ती करने लगें —चाहो तो करवा सकते हो कुश्ती दोनों
हाथों की, क्या अड़चन है, लड़ा दो! और तब मुश्किल खड़ी हो सकती है
कि कौन जीते, कौन हारे! फिर तुम्हारी मर्जी, चाहे बाएं को जिता लो, चाहे दाएं को जिता लो। मगर
दोनों हालत में बात फिजूल थी। दोनों हाथ तुम्हारे, कैसी हार,
कैसी जीत! यहां दूसरा नहीं है, दूजा नहीं है।
इस
अनुभव का नाम ही समर्पण है कि यहां कोई दूसरा नहीं है, हम ही
हैं। तो न अब कोई हार है, अब न कोई जीत है।
तुम
पर निर्भर है। समर्पण जिसने किया, वह जीत गया। जो हारा, वह
जीत गया।
इस तरह तो दर्द घट सकता नहीं
इस तरह तो वक्त कट सकता नहीं
आस्तीनों से न आंसू पोंछिए
और ही तदबीर कोई सोचिए
यह अकेलापन अंधेरा यह उदासी यह घुटन
द्वार तो हैं बंद, भीतर किस
तरह झांके किरन
बंद दरवाजे जरा से खोलिए
रोशनी के साथ हंसिए, बोलिए
मौन पीले पात सा झर जाएगा
तो हृदय का घाव खुद भर जाएगा
एक सीढी है हृदय में भी महज घर में
नहीं
सर्जना के दूत आते हैं सभी होकर वहीं
ये अहं की श्रृंखलाएं तोड़िए
और कुछ नाता गली से जोडिए
जब सड़क का शोर भीतर आएगा
तब अकेलापन स्वयं मर जाएगा
आइए कुछ रोज कोलाहल भरा जीवन जिएं
अंजुरी भर दूसरों के दर्द का अमृत
पिएं
आइए बाल अफवाहें सुनें
फिर अनागत के नए सपने बुने
यह स्लेटी कोहरा छंट जाएगा
तो हृदय का दर्द खुद घट जाएगा
तुमने
अपने को अकेला मान रखा है,
अलग मान रखा है, इससे तुम पीड़ित हो।
आइए कुछ रोज कोलाहल भरा जीवन जिएं
क्या
मतलब? मतलब कि थोड़ी देर को इस विराट से अपने को जोडे, इन
पक्षियों की चहचहाहट से जोड़े, इन वृक्षों के फूलों से जोडे,
इन चांद—तारों की किरणों से जोड़े।
बंद दरवाजे जरा से खोलिए
रोशनी के साथ हंसिए, बोलिए
थोड़ा
जुडिए। ऐसे अलग— थलग छोटे से द्वीप बनकर मत रह जाइए, महाद्वीपँ' बनिए। थोड़ा जोडिए अपने को। एक क्षण तो अलग जी सकते नहीं, फिर अलग होने का मतलब क्या है?
श्वास
तो प्रतिपल चाहिए न बाहर से, भोजन तो प्रतिदिन चाहिए न बाहर से, जल तो प्रतिदिन चाहिए न बाहर से! जो अभी बाहर था अभी भीतर हो जाता है,
फिर भीतर था, फिर बाहर हो जाता है। बाहर— भीतर,
बाहर— भीतर, लेन—देन पूरे समय चल रहा है। एक
क्षण को तुम बाहर से टूटकर जी कैसे सकते हो? इसलिए न कुछ
भीतर, न कुछ बाहर।
एक सीढ़ी है हृदय में भी महज घर में
नहीं
सर्जना के दूत आते हैं सभी होकर वहीं
जरा
भीतर झांकिए,
एक सीढ़ी है, जहा से हम परमात्मा से जुड़े हैं,
विराट से जुड़े हैं।
यह अकेलापन अंधेरा यह उदासी यह घुटन
द्वार तो हैं बंद, भीतर किस
तरह झांके किरन
नहीं!
इस तरह तो दर्द घट सकता नहीं
इस तरह तो वक्त कट सकता नहीं
आस्तीनों से न आंसू पोंछिए
और ही तदबीर कोई सोचिए
क्या
तदबीर करें कि जीवन हार—हार का न रह जाए? हार जाओ, फिर
कोई हार नहीं। यही तदबीर है। मिट जाओ, फिर तुम्हें कोई न
मिटा सकेगा, मौत भी न मिटा सकेगी। अहंकार को जाने दो। फिर
तुम्हें मिटाने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं, न कोई हराने
की सामर्थ्य किसी में है।
यह
अहंकार ही अपमान करवाता है,
यह अहंकार ही असफलता लाता है, यह अहंकार ही
हराता है, यह अहंकार हजार जहर के घूंट पिलाता है, फिर भी तुम अमृत समझकर पीए जा रहे हो, तो हारोगे,
तो रोओगे, तो तुम्हारा सारा जीवन आंसुओ की एक
लंबी श्रृंखला हो जाएगी।
यह
श्रृंखला फूलों में बदल सकती है। जरा सा रुख बदलिए। जरा द्वार खोलिए। जरा जुडिए, मिलिए।
जरा देखिए कि सब एक है। इस उदघोषणा का नाम ही वेदांत है। इस उदघोषणा का नाम ही
धर्म है। इस उदघोषणा का नाम ही बुद्धत्व है।
छठवां
प्रश्न—
आपके
पास आकर मुझे लगता है कि मैंने जीवन में सब कुछ पा लिया। लेकिन कभी—कभी ऐसा भी
लगता है कि यहां आकर मैंने अपना जीवन गंवा दिया।
दोनों
ही बात सच हैं। और दोनों साथ ही होंगी तो ही हो सकती हैं। यहां आकर कुछ गंवाना
होगा तभी तो कुछ पाओगे न! जितना गवाओगे, उतना ही पाओगे। उसी अनुपात में
पाओगे। जो कुछ भी न गंवाके, वे कुछ भी न पाएंगे। वे खाली हाथ
आएंगे और खाली हाथ जाएंगे। मुझ पर फिर नाराज मत होना। फिर यह मत कहना कि हम गए भी,
आए भी, कितना गए, कितना
आए, कुछ न मिला। गंवाओगे तो ही पाओगे। दाव पर लगाओगे तो ही
पाओगे।
तो
पूछा ठीक है,
गीता ने पूछा है, ' आपके पास आकर मुझे लगता है
कि मैंने जीवन में सब कुछ पा लिया। लेकिन कभी—कभी ऐसा भी लगता है कि यहां आकर मैंने
अपना सारा जीवन गंवा दिया।'
इन
दोनों में विरोध नहीं है। गंवाया, इसीलिए पाया। कुछ थोड़ा—बहुत, गीता, बचा रखा हो, उसको भी
निकाल ले, उसको भी गंवा दे। जरूर थोड़ा—बहुत बचाया होगा,
नहीं तो यह प्रश्न उठता नहीं। अगर बिलकुल ही गंवा दिया होता तो यह
प्रश्न ही नहीं उठता, तुझे खुद ही दिखायी पड़ जाता कि यह तो
गंवाना पाना हो गया। गंवा दो, रत्ती—रत्ती, तोला—तोला, कुछ बचाओ मत, तो
मिल जाएगा सब। क्योंकि यह तो प्रक्रिया ही अपने को खोकर पाने की है। और गंवाकर
पछताओगे न, इतना कहता हूं बचाकर जरूर पछताओगे। फिर मत कहना।
क्योंकि यह हो भी सकता है, यह अवसर आज है, कल न हो। फिर पछताओगे कि गंवा ही क्यों न दिया!
वह तितली कागजी थी
जो कभी मेरे मन—कुसुम को बेध गयी
वह आस्था मृगजल थी
जो आंखों के दर्पण में मोती—सी चमकी
थी
वह विश्वास जो हिमालय—सा अडिग
पानी पर बहता हुआ काठ का टुकड़ा था
वह सत्य शिव सुंदर जो आत्मा से उदभूत
महज एक दिखावा था
मेरी जिंदगी में सभी कुछ जो था या है
झूठ निकला
मित्रो, औरों से तुम ठीक ही कहते
होओगे
मैं मूर्ख निकला
अगर
तुमने न गंवाया तो एक दिन तुम यही पाओगे कि तुमने बड़ी मूढ़ता कर ली। जो बचाया, पानी पर
बहता हुआ काठ का टुकडा था। जो बचाया, आंखों के दर्पण में
मोती—सी चमकी थी, वह आस्था मृगजल थी।
वह तितली कागजी थी
जो कभी मेरे मन—कुसुम को बेध गयी
महज एक दिखावा था
मेरी जिंदगी में सभी कुछ जो था या है
झूठ निकला मित्रो, औरों से
तुम ठीक ही कहते होओगे मैं मूर्ख निकला
गंवा
लो, तो तुम्हें यह पछतावा न होगा। और गवाओगे क्या, तुम्हारे
पास जो है काठ का टुकड़ा है। चाहे तुम सोना समझ रहे होओ। मगर तुम्हारे पास गंवाने
को कुछ वास्तविक संपदा थोड़े ही है।
इसलिए
मैं बार—बार कहता हूं कि जो नहीं है तुम्हारे पास, उसे जाने दो। है ही कहां?
और तब तुम्हारे पास जो है, वह प्रगट हो जाएगा।
इसलिए मैं ऐसा भी कहता हूं कि जो तुम्हारे पास नहीं है, उसे
मुझे छीन लेने दो, ताकि मैं तुम्हें वह दे सकूं जो तुम्हारे
पास है। लेकिन लोग बड़े घबड़ाते हैं। लोग ऐसे हैं कि सपने टूट जाते हैं तो उन पर भी
रोते हैं। छोटे—छोटे बच्चे देखे न, कभी—कभी छोटा बच्चा सुबह
से उठकर रोने लगता है, क्योंकि वह सपने में एक बड़ी
गुड़िया—लिए खेल रहा था—बड़ी सुंदर गुड़िया थी—वह कहता है, कहा
है मेरी गुड़िया? टटोलता है बिस्तर में। मां कहती है, सपना था, मगर वह सुनता नहीं। अभी सपने और सच में उसे
भेद ही नहीं हुआ है।
सपनों
पर भी लोग रोते हैं। बहुत कम लोग हैं जो वस्तुत: मानसिक रूप से प्रौढ़ हो पाते हैं।
अधिक लोग तो सपनों पर ही रोते हैं। किसी का प्रेम था और टूट गया।
परसों
एक युवक आया,
किसी के प्रेम में पड़ गया है। कहने लगा, मर
जाऊंगा अगर यह स्त्री न मिली। तेरी मर्जी! मगर कोई कभी मरता—वरता नहीं। एक आदमी
नें—उससे मैंने कहा—एक स्त्री से ऐसे ही कहा था कि अगर तूने मुझे न चुना, या मेरे साथ विवाह न किया, मैं मर जाऊंगा। मान रखना,
मर जाऊंगा, वक्त नहीं। और निश्चित वह मरा,
साठ साल बाद।
मर
जाऊंगा? यह स्त्री कल तक दिखी भी नहीं थी, तब तक जी रहे थे,
कोई अड़चन न थी इसके न होने से। आज इसके होने से, लगता है अगर न मिली तो मर जाऊंगा। कल फिर इसे भूल जाओगे। ये सपने हैं,
उठते हैं, जाते हैं, टूट
जाते हैं, बबूले हैं। कल फिर भूल जाओगे। कल फिर किसी और
स्त्री के मोह में पड़ जाओगे और यही फिर कहने लगोगे कि मर जाऊंगा अगर न मिली।
मुल्ला
नसरुद्दीन एक स्त्री से कह रहा था कि अगर तू मुझे न मिली तो मर जाऊंगा। तो उस
स्त्री ने कहा,
मुल्ला, सच कहते हो? उसने
कहा, यह मेरी पुरानी आदत है, यह मैं कई
स्त्रियों से कह चुका। यह कोई नया नहीं है, इसका मुझे पुराना
अभ्यास है।
सपने
पर तुम जान दांव पर लगाने को तैयार हो जाते हो। कोई कहता है, अगर पद न
मिला तो मर जाऊंगा। कोई कहता है, अगर धन न मिला तो मर
जाऊंगा। और अगर नहीं मिलते तो लोग बड़े रोते हैं।
छोड़ो भी, क्या
सपनों के शव पर रोते हो
अरे, किरन का अतिथि द्वार पर खड़ा
हुआ
तुम हो कि अंधेरे के स्वागत में लीन
हुए
जीवन का मंगल—गीत बुलावा भेज रहा
तुम हो कि मर्सिया पढ़ते हो गमगीन हुए
पुतलियां दृगों की बांध रहीं नूतन
पलना
तुम हो कि अभी तक पलकों में शव ढोते
हो
छोड़ो भी, क्या
सपनों के शव पर रोते हो
कम हो गया अगर तो नव मोती बींधो
पर न अधूरी छोड़ो जीवन की माला
आंसू पोंछो सब शोक भुला मुस्काओ तुम
वह सुनो प्रभाती गाता पथ में
उजियाला
सपना ही तो टूटा है, नहीं हृदय
टूटा
फिर क्यों जीवन के प्रति —निराश तुम
होते हो
छोड़ो भी, क्या
सपनों के शव पर रोते हो
और
लोग रोते हैं। खूब रोते हैं, जार—जार रोते हैं। जीवन में रोना मिटता ही
नहीं। जब तक सपने साफ—साफ समझ में नहीं आते कि सपने हैं, तब
तक आदमी रोता है। कभी इस सपने के टूट जाने पर, कभी उस सपने
के टूट जाने पर। और सपने तो टूटेंगे ही, सपने तो टूटने को ही
हैं। सपनों को तुम कितना ही सम्हालकर रखो, रख नहीं सकते,
वे टूटेंगे ही। वे बड़े नाजुक हैं। कांच के बर्तन 'हैं। वे टूटेंगे ही, फिर रोओगे।
गीता
से मैं कहना चाहूंगा,
जो तूने छोड़ा उसमें था भी क्या? जो गया,
उसमें था भी क्या? और गीता को मै भलीभांति
जानता हूं, बहुत वर्षों से जानता हूं,
मैंने तो कभी कुछ देखा नहीं कि इसके पास कुछ था। मगर सपने होंगे, सपने बसाए होंगे मन में। स्त्री है, सपने बसाए
होंगे—शादी—विवाह करेगी, किसी धनपति से विवाह करेगी, कोई बड़ा बंगला बनाएगी, केडिलक कार खड़ी करेगी,
ऐसा होगा, वैसा होगा, ऐसे
सपने स्त्रियां बनाती हैं।
स्त्रियों
के सपने, पुरुषों के सपने थोड़े अलग— अलग होते हैं, पर सपने तो
सपने हैं। बच्चे होंगे, ऐसे सपने उसने संजोए होंगे। वही सपने
चले गए और तो कुछ था नहीं जाने को। न तो कोई मकान था, न कोई
केडिलक गाड़ी थी, न कुछ था। और होते भी तो भी उनके होने में
क्या होता है? और फिर भी नासमझ है। क्योंकि मुझे पता है,
उसने पहले विवाह भी किया था, और दुःखी हो गयी,
बहुत दुखी हो गयी। अपने पति को लेकर एक बार मेरे पास आयी थी,
वर्षों बीत गए। तब किसी तरह पति से उसकी झंझट छुड़वायी थी। उसको
मुक्त करवाया था किसी तरह कि छूट जा, अब नहीं बनता दोनों का
तो क्या सार है!
कुछ
था क्या, जो छूट गया हो। है तो कुछ भी नहीं हाथ में, मगर आदमी
मुट्ठी बंद रखता है, सोचता है, भीतर
कुछ है।
दो
पागल बैठे एक —दूसरे से बात कर रहे थे। एक मुट्ठी बांधकर बोला कि अच्छा शर्त लगाता
हूं, बता दे कि मेरी मुट्ठी में क्या है तो यह दस रुपए का नोट। उस आदमी ने
सोचा, उसने कहा कि भाई, कुछ थोड़ा इशारा
तो दो। थोड़े इंगित, मतलब अब एकदम से संसार इतना बड़ा है!
इसमें कौन सी चीज तुम्हारी मुट्ठी में हो, क्या पता! कुछ
इशारा। कम से कम तीन इशारे तो चाहिए ही। मगर पहला पागल बोला कि इशारे अगर चाहते हो
फिर ये दस रुपए नहीं मिलेंगे। ये दस रुपए तो मिलते ही हैं बिना इशारे के अगर तुम
बोल दो। तो उसने थोडा सोचा, उसने कहा कि हो न हो हाथी है
तेरे हाथ में।
उस
पहले पागल ने धीरे से मुट्ठी खोलकर देखी और उसने कहा कि मालूम होता है तूने किसी
तरकीब से देख लिया।
अब
मुट्ठी में हाथी होते नहीं। हो नहीं सकते। मगर मुट्ठी बंद हो, तो कुछ भी
हो सकता है—कल्पना का जाल खुला है। तुमने कभी अपनी मुट्ठी खोलकर देखी, तुम्हारे पास है क्या?
मेरे
पास लोग आते हैं,
वे कहते हैं, सब आपके चरणों में छोड़ते हैं।
मैंने कहा, जरा रुको, यह है क्या?
वह कहते हैं, नहीं, अब
सभी छोड़ते हैं। मगर मैं. जरा हिसाब—किताब तो लगा लें कि है क्या? चिंता, बेचैनी, परेशानी,
क्रोध, लोभ, माया,
मोह, क्या छोड़ रहे हो? और
ये छोड्कर कल ऐसा मत कहना कि देखो, हमने कितना आपके चरणों
में छोड़ दिया। ये सब सांप—बिच्छू छोड़ रहे हो। कुछ और छोड़ने को है भी नहीं। और कल
ऐसे घूमने लगोगे कि सब दान कर आए, सब छोड़ दिया, उनके चरणों में सब रख आए। रखने को क्या है? क्या
छोड़ते हो?
अगर
तुम थोड़ा होश से समझोगे,
मुट्ठी खोलकर देखोगे, तो तुम चरणों में झुकोगे
और कहोगे कि मेरे पास तो चरणों में रखने को कुछ भी नहीं है, अपने
को खाली झुका रहा हूं। लेकिन मुश्किल से कभी कोई आदमी ऐसा कहता है कि अपने को खाली
झुका रहा हूं। वह अपने सपनों को ही संपत्ति मान रहा है।
तो
गीता, क्या था तेरे पास जिसको तू सोचती है कि खो गया? कुछ
नहीं था। कुछ नहीं होने की अवस्था को समझा लेने के लिए कुछ सपने सजा रखे थे,
मान रखा था कि ऐसा—ऐसा है, वे सपने टूट गए। वे
टूट ही जाने चाहिए थे। इसलिए लगता है कि—
'कभी—कभी ऐसा भी लगता है कि यहां आकर मैंने अपना जीवन गंवा दिया।'
जरूर, एक तरह का
जीवन तूने गंवा दिया, पागलपन का जीवन तूने गंवा दिया। एक तरह
का जीवन जो तेरे पिता जीए, पिता के पिता जीए, वह तूने गंवा दिया। लेकिन तेरे पिता ने क्या पाया, तुझे
पता ? मरने के आखिरी दम तक संन्यास की हिम्मत न जुटा सके। आखिरी
बार जब मुझे मिलने आए, मैंने उनसे कहा कि अब ज्यादा देर मत
करो। तो उनको बात समझ में भी आयी, कहने लगे, हौ, शरीर भी कमजोर होता जाता है, लेना तो है संन्यास, मगर जरा ठहरें। अब उनको कुछ
बाधा भी न थी संन्यास लेने में। जरा ठहरें! जरा ठहरे और एक सप्ताह के भीतर तो वे
चले गए। अब ऐसा अवसर उन्हें दुबारा कभी आएगा, कब आएगा,
कहना बहुत मुश्किल है!
अगर
तू मुझसे पूछे गीता,
तो तेरे पिता ने गंवाया, तूने कुछ नहीं गंवाया
है। और जो भूल तेरे पिता ने की, उसके लिए वे पछता के
जन्मों—जन्मों तक। क्योंकि वे आदमी खोजी थे, चाहते थे,
मगर साहस न जुटा पाए। उतरने का मन था, लेकिन
डावाडोल होते रहे। तूने हिम्मत की और डूब गयी। खोया कुछ भी नहीं है। या जो कुछ भी
नहीं जैसा था वही खोया है। और जो तुझे मिला है, उसका तो तू
अभी ठीक—ठीक मूल्यांकन भी नहीं कर सकती कि क्या मिला है। क्योंकि अभी तो प्रत्यभिज्ञा
का उपाय भी तेरे पास नहीं है। धीरे—धीरे, धीरे—धीरे साफ होगा
कि क्या मिला है।
यह
तो ऐसे ही है कि जैसे एक फकीर को हम एकदम से साम्राज्य दे दें, तो उसकी
समझ में ही न आएगा पहले कि क्या मिला। सिंहासन पर बिठा दें तो वह बड़ा बेचैन ही
होगा कि मामला क्या है, यह क्या दरबार, यह क्या राजमहल, यह धन—दौलत, यह
सब क्या है! क्या मिला है, उसको एकदम से समझ में ही नहीं
आएगा। वक्त लगेगा हिसाब—किताब जोड़ने में, पहचान करने में,
इस नयी परिस्थिति में डूबने में वक्त लगेगा।
जो
माया का जगत था,
उससे तेरे थोड़े हाथ छूटे, और जो सत्य का जगत
है, उस तरफ थोड़ी जीवन की यात्रा आगे बढ़ी है। अब पीछे
लौट—लौटकर मत देखो। जो गया, जाने दो। वह कुछ था ही नहीं,
इसीलिए गया। जो अपना है, वह कभी जाता ही नहीं।
इसे कसौटी समझो। जो वस्तुत: अपना है, उसे खोने का उपाय नहीं
है, वह हमारा स्वभाव है। और जो खो जाए, वह अपना था ही नहीं। वह जितनी जल्दी खो गया उतना अच्छा, उतना कम समय व्यर्थ हुआ, प्रभु की अनुकंपा है। ऐसा
मानकर, जो खोता हो उसे खो जाने देना और जो नया आता हो उसके
स्वागत को तैयार रहना।
आखिरी
प्रश्न
धारणा
के बिना कैसे कोई जानेगा कि क्या पथ है और क्या कुपथ; क्या ग्राह्य
है और क्या त्याज्य; क्या पुण्य है और क्या पाप; और अंततः क्या द्रष्टा है और क्या दृश्य?
धारणा के बिना जानने
की जरूरत ही नहीं है। क्योंकि धारणा के बिना तुम हो गए कि तुम जहां हो वहीं पथ
है। तुम जो हो, वहीं द्रष्टा है।
कल
मैं पढ़ता था मिर्जा गालिब के संबंध में। मिर्जा तो पियक्कड़ थे, शराबी थे।
एक आदमी आ गया—पंडिताऊ किस्म का आदमी, धार्मिक किस्म का
आदमी—वह शराब के खिलाफ समझाने लगा। बड़ी बातें करने लगा शराब के खिलाफ। मिर्जा बड़ी
देर तक सुनते रहे, फिर बोले कि भाई, एक
बात तो बता कि अगर कोई शराब पीता ही रहे तो सबसे बड़ा हर्जा क्या है? सबसे बड़ा नुकसान क्या है? तो उस आदमी ने कहा,
सबसे बड़ा नुकसान यह है कि शराबी आदमी कभी परमात्मा की प्रार्थना
नहीं करता, कर नहीं सकता। तो मिर्जा ने जोर से ताली बजायी और
कहा, अरे पागल, शराबी प्रार्थना करेगा
भी किस चीज के लिए? जो चाहिए वह मिला ही हुआ है। यह तो तुम
लोग करो प्रार्थना वगैरह। शराबी को प्रार्थना करने को है ही क्या और!
तुम
पूछते हो कि 'जिसकी धारणा खो गयी हो, वह कैसे जानेगा कि पथ क्या
है?' जानने की जरूरत ही नहीं है। जिसकी धारणा खो गयी उसका
अर्थ है, मन खो गया। क्योंकि मन धारणाओं का संग्रह है। जिसका
मन खो गया, वह पथ पर है। उसी को बुद्ध ने सम्यक पथ कहा है।
ठीक—ठीक मार्ग कहा है। जहां मन न रहा, वहां गैर ठीक होने का
उपाय न रहा।
तुम्हारी
तकलीफ भी मैं समझता हूं। समझो कि एक आदमी चश्मा लगाने का आदी है और कोई उससे कहे
कि तेरी आंख ठीक हो जाएगी,
तू चश्मा छोड़! तो वह कहे मैं चश्मा छोड़ दूं तो फिर देखूंगा कैसे?
हम उसको कह रहे हैं कि तेरी आंख ठीक हो जाएगी, तू चश्मा छोड़! वह कहता है, आंख ठीक हो जाएगी,
वह तो ठीक, लेकिन फिर मैं देखूंगा कैसे?
उसने सदा चश्मे से देखा है। वह सोचता है, चश्मे
के बिना देखना होगा ही कैसे?
मन
से ही हमने सदा जाना है,
क्या ठीक और क्या गलत—हालांकि जान कभी नहीं पाए, मान लिया है कि यह ठीक और यह गलत। हमें कभी दर्शन तो हुआ नहीं ठीक—ठीक कि
क्या गलत है और क्या ठीक है। फिर मन कहता है, यह ठीक,
मगर करते कहां हम! करते तो वही जो मन कहता है कि ठीक नहीं है। करते
कुछ, कहते कुछ, मन की यही तो सब बिबूचन
है, विडंबना है। मन गया कि वही होता है जो होना चाहिए।
व्याख्या नहीं रह जाती, सत्य दिखायी पड़ता है, व्याख्या खो जाती है। व्याख्या और सत्य में बड़ा फर्क है।
एक
गुलाब का फूल खिला,
तुम कहते हो, अगर हमने सुंदर— असुंदर की धारणा
छोड दी तो फिर हम कैसे इसके सौंदर्य का मजा लेंगे। तुमने अभी इसका मजा लिया ही
नहीं है। जब तुम कहते हो, यह सुंदर है, तभी मजा खो गया। एक ऐसा भी मजा है, जब न तो सुंदर का
शब्द उठता है, न असुंदर का। फूल होता है, तुम होते हो, दोनों के बीच अपार लेन—देन होता है,
एक शब्द नहीं उठता, न सुंदर का न असुंदर का।
तब तुम्हें इसके सौंदर्य का वास्तविक अनुभव होता है। कहते नहीं तुम कि सुंदर है,
कहने की जरूरत नहीं है, स्वाद लेते हो। जब तुम
कहते हो, सुंदर है, तब तो तुम सिर्फ
थोथी बात कर रहै हो—तुम्हें कुछ अनुभव नहीं हो रहा है, तुमने
बाप—दादों से सुना है, गांव के लोगों से सुना है, गुलाब का फूल सुंदर होता है, तो तुम कह रहे हो सुंदर
है।
तुमने
देखा, अभी नयी—नयी फैशन दुनिया में चली है—कैक्टस। लोग घर में कैक्टस लगाने लगे।
गुलाब तो गया! अब गुलाब को कौन पूछता है! गुलाब तो पुरानी परंपरा की बात हो गयी।
गुलाब तो हट गए हैं बड़े बंगलों से। यह गुलाब तो दकियानूसी हो गया है। कितने पुराने
दिनों से लोग गुलाब की प्रशंसा कर रहे हैं, हटाओ! कैक्टस आ
गया है। नागफनी! जिसको कभी लोग घर में नहीं लाते थे। गांव के बाहर खेत—खलिहान के
आसपास लगाते थे कि जानवर वगैरह न घुस जाएं। नागफनी को कौन घर में लाता था!
अब
नागफनी सम्राट होकर विराजी है। बैठकघरों में बैठी है! और लोग कहते हैं आकर, आह! कैसी
प्यारी नागफनी है। और इन्हीं लोगों ने कभी इसके पहले नहीं कहा था कि प्यारी
नागफनी! हवा बदल गयी। अब गुलाब की प्रतिष्ठा नहीं रही। नागफनी की प्रतिष्ठा हो
गयी। लोग तो शब्दों से जीते हैं, प्रचार से जीते हैं। जिस
चीज का प्रचार हो जाता है, उसी को सुंदर — असुंदर कहने लगते
हैं, सौंदर्य— असौंदर्य का अनुभव थोडे ही है कुछ।
एक
ऐसा अनुभव भी है जहा शब्द बनते ही नहीं। निःशब्द रहते हैं प्राण। अनुभव इतना सघन
होता है कि शब्द बनाने की फुरसत किसे होती है! सब ठगा और अवाक रह जाता है! तब एक
चीज दिखायी पड़ती है जो वास्तविक है।
मैंने
सुना, एक वैज्ञानिक था—बड़ा वैज्ञानिक। खासकर विद्युत के यंत्रों में उसकी बड़ी
क्षमता थी। वह अपनी लड़की के संबंध में बड़ा चिंतित था, क्योंकि
एक लडका उसकी लड़की के पीछे पड़ा था। पुराने ढंग का बाप होता, डंडे
मारकर निकाल देता। पुराने ढंग का भी नहीं था, आधुनिक आदमी
थी। पर आधुनिकता तो ऊपर रहती है, भीतर तो पुराना ही चलता
रहता है। तो भीतर तो बाप को अड़चन भी होती थी कि यह कहां उसको वह कहता था, वह बंदर कहां है? —वह लड़के को। कि वह फिर आ गया
बंदर। वह उसको बिलकुल बर्दाश्त के बाहर था। और वह घंटों बैठकर लड़की से बैठकखाने
में गपशप करता, आधी—आधी रात तक दोनो बैठे रहते। आखिर उसकी
बर्दाश्त के बाहर हो गया, उसको यह बड़ी बेचैनी रहने लगी कि ये
दोनों करते क्या हैं बैठकर?
आधुनिक
बाप था, तो बीच में जाकर खड़ा भी नहीं हो सकता था, पुराने
जमाने के दिन गए कि बीच में जाकर खड़ा हो जाए। क्योंकि उससे आधुनिकता मरती है कि
लोग कहते हैं—यह. भी क्या बात है, लड़की तो प्रेम करेगी ही!
और बंदर! बंदर तो सभी हैं, डार्विन ने सिद्धे ही कर दिया है,
अब इसमें क्या! सभी बंदर की औलाद हैं, तो यह
भी सही। फिर लड़की को पसंद है तो तुम्हें क्या बाधा?
तो
उसने एक तरकीब बनायी—वैज्ञानिक था बड़ा! उसने जिस कमरे में लड़का और लड़की बैठकर
प्रेमालाप चलाते थे,
उसमें एक छोटा सा यंत्र लगा दिया सीलिंग पर। और अपने कमरे में एक
रडार का पर्दा लगा दिया। उस यंत्र से उसके रडार पर रंग बन जाते। अगर लडका लड़की का
हाथ पकड़ता, तो स्वभावत: लड़का—लड़की जवान, अभी प्रेम में पड़े, तो काफी गर्मी पैदा होती जब हाथ
पकड़ते—तो वह जो गर्मी को पकड़ने वाला यंत्र था, वह जल्दी से
गर्मी पकड़ लेता और रडार के पर्दे पर लाल रंग आ जाता। तो वह समझ जाता कि अच्छा,
हाथ पकड़ा उस बंदर के बच्चे ने! अगर वे एक—दूसरे का चुंबन लेते तो
हरा रंग आ जाता। तो वह बंदर का बच्चा चुंबन ले रहा है लड़की का! या कभी आलिंगन
करते, तो नीला रंग आ जाता। ऐसे उसने रंग बना रखे थे।
एक
दिन वैज्ञानिकों की एक काफ्रेंस चल रही थी तो उसे जाना पड़ा। वह बड़ा बेचैनी में गया, क्योंकि
वह बंदर, जब वह बाहर जा रहा था, वह
अंदर घुस रहा था। तो उसने अपने छोटे बेटे को कहा, सुन बेटा,
तू जाकर अंदर बैठ जा, वहा पर्दा लगा है,
उस पर देखते रहना और यह कागज ले ले, इस पर नोट
करते जाना कि कौन सा रंग किस क्रम से आया। बेटे को कुछ पता नहीं था कि यह रंगों का
मतलब क्या है। बेटा तो समझा कि बाप एक काम दे गया है तो वह बड़ी मुस्तैदी से जाकर
बैठ गया और रंग लिखने लगा कि कौन सा रंग पहले, कौन सा पीछे,
कब क्या आया। और बाप जल्दी से गया काफ्रेंस में, वह किसी तरह खतम करके, उसको तो बेचैनी यही थी कि वहा
रंग कौन से आ रहे हैं? लेकिन इससे पहले कि वह घर आए, बेटा भागता हुआ कांफ्रेंस भवन में पहुंच गया। बाप ने पूछा, क्या हुआ, ऐसा भागा हुआ क्यों आ रहा है? उसने कहा, अरे पिता जी, गजब हो
गया! उसके बाप ने पूछा, क्या हुआ, जल्दी
बोल! अरे, उसने कहा, इंद्रधनुष आया है!
तो उसको कुछ पता नहीं था। सभी रंग एक साथ आ रहे हैं!
इस
बच्चे को कोई व्याख्या तो नहीं है, लेकिन जो है वह तो दिखायी पड़ रहा
है। बाप के मन में व्याख्या है, बाप ने तो सिर पीट लिया। वह
लड़के की तो समझ में नहीं आया, उसने कहा, आप क्यों सिर पीट रहे हैं? अरे, इतना गजब का इंद्रधनुष बना है कि देखते रह जाओ! मैं तो भागा आया कि आप चूक
जाएंगे, चलिए! लड़के की प्रसन्नता।
जब
सारी धारणाएं खो जाती हैं,
जब कोई धारणा नहीं रह जाती—क्या अच्छा, क्या
बुरा, क्या सुंदर, क्या असुंदर,
क्या नीति, क्या अनीति—तब जीवन में जो है,
जैसा है, अपूर्व रूप से प्रगट होता है,
और कोई व्याख्या नहीं होती। तुम होते हो और जीवन का सत्य होता
है—जैसा है, वैसा ही। इसलिए इससे भयभीत न होओ। सब धारणाएं
सीमा बनाती हैं और सब व्याख्याएं क्षुद्र हैं। निर्व्याख्य ही विराट है। एक पंख
सूरज
एक पंख चांद
हवा पर उड़ता है
समय का यान
आओ, इसके पंखों को काटें
गति दें थाम
हारे — थके जीवन को
करने दें विश्राम
दर्पण में रूप है, गंध नहीं
प्यार आकाश पर जीता है
कोई अनुबंध नहीं
दर्पण और अनुबंध
समय की चोट से टूट जाते हैं
गंध और आकाश सदा फैलते हैं
और फैलते ही जाते हैं
सीमाएं
तोड़ो! अनुबंध,
कंडीशन कि परमात्मा ऐसा होगा तो ही परमात्मा है, सत्य ऐसा होगा तो ही सत्य है, प्रेम ऐसा होगा तो ही
प्रेम है, ऐसे अनुबंध तोड़ो। जो है, उसे
जानो। जो है जैसा, उसे जानो।
दर्पण में रूप है, गंध नहीं
प्यार आकाश पर जीता है
कोई अनुबंध नहीं
ऐसी
धारणाओं के दर्पण में जो रूप बनते हैं, उनमें कोई गंध नहीं होती है,
वे निर्जीव हैं, मुर्दा हैं।
प्यार आकाश पर जीता है
कोई अनुबंध नहीं
प्यार
कोई शर्त नहीं है,
खुला मुक्त आकाश है। ध्यान भी बेशर्त है। और ये दो ही चीजें तो हैं
इस जगत में जो बहुमूल्य हैं—या तो प्रेम हो जाए बेशर्त, तो
तुम भक्त हो गए; ध्यान हो जाए बेशर्त, तो
तुम ज्ञानी हो गए।
दर्पण और अनुबंध
समय की चोट से टूट जाते हैं
धारणाएं
तो सब टूटती—फूटती रहती हैं। तुम्हारी बनायी हैं, कब तक चलेंगी?
गंध और आकाश सदा फैलते हैं
और फैलते ही जाते हैं
ऐसा
कुछ करो कि तुम फैलते ही जाओ, सदा फैलते ही चले जाओ। असीम तुम्हारा घर बने।
अलक्ष्य तुम्हारा लक्ष्य हो। अदृश्य में तुम डूबो, डुबकी
लगाओ। अथाह में तुम खोओ, सदा के लिए खो जाओ। उसके लिए धारणा
छोड़नी हो—छोड़नी होगी। मन तोड़ना होगा—तोड़ना ही होगा। आदमी ने जो—जो सोच रखा है,
वह हटाना पड़ेगा, ताकि परमात्मा का जो जैसा है,
बिना हमारी सोच की बाधा के हमें दिखायी पड़ जाए।
इसे
भक्त प्रेम कहता है,
ज्ञानी ध्यान कहता है। तुम्हें जो रुच जाए, उस
तरफ से चलो। मगर मन को तो जाना ही पड़ेगा। जब तक मन है, तब
तक प्रभु नहीं। जब प्रभु आता है। तो मन नहीं।
उसे
बुलाना है तो मन को विदा करो। इस द्वार से मन गया, उस द्वार से प्रभु का
पदार्पण होता है।
आज
इतना ही।
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