सूत्र:
कोधं जहे विप्पजहेय्य
मानं सज्जोजनं सब्बमतिक्कमेय्य।
तं नामरूपस्मि असज्जमानं
अकिज्चनं नानुपातन्ति दुक्खा।।189।।
यो वे उप्पतितं कोध
रथं भन्तं’ व धारये।
तमहं सारथिं ब्रूमि रस्मिग्गाहो
इतरो जनो।।190।।
अक्कोधेन जिन कोधं
असाधुं काधुना जिने।
जिने कदरियं दानेन
सच्चेन अलिकवादिनं।।191।।
सचचं भणे न कुज्झेय्य
दज्जप्पस्मिाम्पि याचितो।
एतेह तीहि ठानेहि
गन्छे देवान सन्तिके।।192।।
सदा जागरमानानं
अहोरत्तानुसिक्खिनं।
निब्बानं अधिमुत्तानं
अत्थं गच्छन्ति आसवा।।193।।
पोराणमेतं अतुल! नेतं अज्जनामिव।
निन्दन्ति तुण्हीमासीनं
निन्दन्ति बहुभाणिनं।
मितभाणिनम्पि निन्दन्ति
नत्थि लोके अनिन्दितो।।194
एक बार भगवान कपिलवस्तु गए। उनके शिष्यों में एक
स्थविर अनिरुद्ध की बहन रोहिणी वहां रहती थी। उसके परिवार के सभी लोग स्थविर
अनिरुद्ध को मिलने आए लेकिन रोहिणी नहीं आयी। अनिरुद्ध चिंतित हुए! उन्होंने बहन को बुलवाया। वह आयी भी तो मुंह ढंककर
आयी। स्थविर अनिरुद्ध तो बड़े चिंतित हुए। उन्होंने उससे पूछा कि पहले तो तू 'आयी नहीं अब आयी भी है तो मुंह ढंककर आयी है इसका कारण क्या है? रोहिणी ने कहा मेरा चेहरा अनायास विकृत हो गया है सारे चेहरे पर फफोले हो
गए हैं। मैं छवि रोग से पीड़ित हूं। इसीलिए पहले आयी नही लज्जावश। आपने बुलाया तो
आयी हूं लेकिन मुंह ढंककर आयी हूं यह मुंह दिखाने योग्य नहीं रहा।
स्थविर अनिरुद्ध ने उससे कहा छोड़ इसकी फिकर। भगवान का आगमन हुआ है
उनके दस हजार भिक्षु गांव में हैं उनके ठहरने के लिए एक विशाल भवन बनवाना है तू उस
भवन को बनाने में लग जा।
रोहिणी के पास इतने रुपए थे भी नहीं? लेकिन उसने अपने सारे जवाहरात अपने सब गहने बेच दिए
और भिक्षुओं के निवास के लिए भवन बनवाने में लग गयी भवन बनाने का काम ऐसा था कि
भूल ही गयी अपने रोग को, और आश्चर्य की घटना घटी कि निवास
बनवाते— बनवाते ही निन्यानबे प्रर्तिशत रोग अनायास ठीक हो गया। लेकिन वह अभी भी
भगवान के दर्शन को नहीं आयी थी।
तब भगवान ने उसे बुलवाया और पूछा क्यों नहीं आयी? उसने कहा भंते, मेरे शरीर में
छवि रोग उत्पन्न हो गया था उसी से लज्जित होकर नहीं आयी। अब स्थविर अनिरुद्ध की दवा
से निन्यानबे प्रतिशत तो ठीक हो गया है लेकिन एक प्रतिशत अभी भी बाकी है। यह कुरूप
चेहरा आपको कैसे दिखाऊं? इसलिए बचती थी आपने बुलाया तो आयी
हूं क्षमा करें।
भगवान ने पुन: पूछा जानती हो यह किस कारण हुआ? नहीं भंते वह बोली? भगवान ने
कहा रोहिणी तेरे क्रोध के कारण। यह अत्यंत क्रोध का फल है। और इसीलिए देख कि करुणा
से अपने आप दूर हो चला है। और क्रोध तो अहंकार का परिणाम है तुझे अपने रूप का बड़ा
अभिमान था! उस अहंकार पर पड़ी चोट के कारण ही क्रोध होता था। भिक्षुओं के लिए भवन
बनाने में तू भूल गयी अपने को। तेरा अहंभाव विस्मृत हो गया। तू ऐसी संलग्न हो गयी
इस करुणा के कृत्य मे कि अहंकार को खड़े होने की बचने की जगह न रही इसलिए देख रोग
अपने आप दूर हो चला है। लेकिन पूरा दूर नहीं हुआ क्योकि अहंकार तेरा छूटा तो,
लेकिन बोधपूर्वक नहीं छूटा है इसलिए एक प्रतिशत रोग बचा है। करुणा
तो तूने की लेकिन करुणा जान—बूझकर नहीं की? मूर्च्छा में की
है; भाई ने कहा है इसलिए की है। तेरे भीतर से सहजस्फूर्त
नहीं है। इसलिए एक प्रतिशत बच रहा है। जाग! जो अभी तू करुणा कर रही है होश से कर!
और जो अहंकार अभी तूने ऐसा काम में भूलकर भुला दिया है उसे जानकर ही त्याग दे। और
कहते हैं इस बात को सुनते— सुनते ही रोहिणी का सारा रोग चला गया। तब भगवान ने ये
गाथाएं कहीं।
आज की
पहली चार गाथाएं रोहिणी को कही गयी थीं।
पहले तो इस कहानी को ठीक से समझ लें। यह
अपूर्व है। इसमें पड़ा हुआ मनोविज्ञान गहरा है। मनस्विद जो अब खोज पा रहे हैं, वे सारे सूत्र इसमें मौजूद हैं।
पहली बात, आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य का मन उसकी
बीमारियों का नब्बे प्रतिशत कारण है। नब्बे प्रतिशत बीमारियों के आधार में मन है।
इसलिए इलाज से बीमारियां बदल जाती हैं, ठीक नहीं होतीं। एक
बीमारी हुई, इलाज कर दिया, दवाओं ने उस
बीमारी को रोक दिया, दूसरी तरफ से बीमारी बहने लगी क्योंकि
मन तो वही है, मन तो बदला नहीं, मन की
तो कोई चिकित्सा हुई नहीं।
समझो यह
रोहिणी किसी डाक्टर के हाथ में पड़ गयी होती—यह तो भला हुआ कि बुद्ध जैसे डाक्टर के
हाथ—में पड़ गयी—यह किसी डाक्टर के हाथ में पड़ती 'तो डाक्टर क्या करता, इसकी चमड़ी का इलाज करता। चमड़ी
में रोग था नहीं, चमड़ी में केवल परिणाम था। रोग मन में था।
मन का रोग चमड़ी पर फफोले होकर निकल रहा था।
तो कोई
चिकित्सक इसके चेहरे के फफोले ठीक कर देता, यह भी हो सकता था प्लास्टिक सर्जरी कर देता, इसके
सारे चेहरे की चमड़ी बदल देता, तो यह रोग कहीं और से प्रगट
होता। हाथों में छाजन हो जाती, कि पैरों में लकवा लग जाता, कि आखें अंधी हो जातीं, कि कान बहरे हो जाते,
यह रोग किसी और दरवाजे को खोज लेता। रोग तो मिटता नहीं, तो दरवाजा तो खोजता। असल में जिसको हम रोग हैं, वह
रोग नहीं है, रोग का लक्षण है। साधारण चिकित्सक लक्षण से
लड़ता है महाचिकित्सक रोग के मूल से लड़ता है।
आधुनिक
मनोविज्ञान कहता है कि जब तक आदमी का मन न बदला जाए, तब तक किसी बीमारी से वस्तुत: छुटकारा नहीं होता।
इसलिए
तुमने भी देखा होगा, एक दफे बीमारी के चक्कर
में पड़ जाओ तो। का रास्ता नहीं दिखता। किसी तरह एक बीमारी से निकल नहीं पाते कि दूसरी
घर कर लेती है, 'कि दूसरे से निकल नहीं पाते कि तीसरी घर कर
लेती है। ऐसा लगता है, एक कतार है बीमारियों की, तुम एक से निपटे कि दूसरी बीमारी पकड़ती है। जब तक ठीक थे, ठीक थे। इसलिए लोग कहते हैं, बीमारी अकेली नहीं आती।
कहावतें कहती हैं, बीमारी अकेली नहीं आती। संग—साथ में और
बीमारियां लाती है। दुख अकेला नहीं आता, साथ में भीड़ लाता
है।
इसका
कारण? इसका कारण न तो दुख है,
न बीमारी है। इसका कारण यह है कि मूल को हम छूते नहीं।
समझो कि
एक वृक्ष की जड़ों में रोग लग गया है और पत्ते विकृत होकर आने लगे हैं। पूरे खिलते
नहीं, पूरे खुलते नहीं, हरियाली खो गयी है। तुम पत्ते काटते रहो, या पत्तों
पर मलहम लगाते रहो, या पत्तों पर जल का छिड़काव करते
रहो—गुलाब जल का छिड़काव करो, तो भी कुछ बहुत होगा नहीं। जड़ जब
तक आमूल स्वस्थ न हो तब तक कुछ भी न होगा।
मनुष्य
की जड़ उसके मन में है। मनुष्य शब्द ही मन से बना है। मनुष्य यानी जो मन में रुपा
है, मन में गड़ा है। उर्दू का शब्द है,
आदमी, वह उतना महत्वपूर्ण नहीं। उसमें बहुत
गहरा अर्थ नहीं है। उसमें जो अर्थ भी है, वह छिछला है। आदम
का अर्थ होता है, मिट्टी। 'जो मिट्टी
से बना है, उसको कहते आदमी। क्योंकि भगवान ने पहले आदमी को
मिट्टी से बनाया और फिर उसमें श्वास फूंक दी, इसलिए उसका नाम
आदम। फिर आदम के जो बच्चे हुए, उनका नामे आदमी। आदमी मिट्टी
से बना है, मतलब आदमी देह है।
हमारी पकड़
इससे गहरी है। हम कहते है, मनुष्य। अंग्रेजी का मैन
भी संस्कृत के मन का ही रूपांतर है। वह भी महत्वपूर्ण है। हम कहते हैं, मनुष्य। हम कहते हैं, मिट्टी नहीं है आदमी, आदमी है मन, आदमी है विचार, आदमी
है उसका मनोविज्ञान। जैसे ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी आदम को
पहला आदमी मानते हैं, हम नहीं मानते। क्योंकि आदम होना तो
आदमी का ऊपरी वेश है, वह असली बात नहीं है। असली बात तो भीतर
छिपा हुआ सूक्ष्म रूप है।
मनुष्य
का अर्थ ही होता है, जिसकी जड़ें मन में गड़ी
हैं। लेकिन आधुनिक खोजें इस सत्य के करीब आ रही हैं। आधुनिक खोजें इस बात को
स्वीकार करने लगी हैं कि आदमी शरीर पर समाप्त नहीं है। न तो शरीर पर शुरू होता है,
न शरीर पर समाप्त होता है। शरीर तो घर है जिसमें कोई बसा है। फिर हम
यह भी नहीं कहते कि आदमी मन पर समाप्त हो जाता है, हम कहते
हैं, मन में गड़ा है। है तो मन से भी पार। इसलिए आदमी है तो
आत्मा।
अब इन
तीन शब्दों को ठीक से लेना—आत्मा, मन,
देह। मन दोनों के बीच में है। मन को तुम शरीर से जोड़ दो तो संसारी
हो जाते हो और मन को तुम आत्मा से जोड़ दो तो संन्यासी हो जाते हो। मन के जोड़ का
सारा खेल है। आत्मा भी तुम्हारे भीतर है, शरीर भी तुम्हारे
पास है, बीच में डोलता हुआ मन है। इसलिए मन सदा डोलता है।
डांवाडोल रहता है। मध्य में लहरें लेता रहता है। अगर तुम्हारा मन शरीर की छाया
होकर चलने लगे तो तुम संसारी, अगर तुम्हारा मन आत्मा की छाया
होकर चलने लगे, तुम संन्यासी। कुछ और फर्क नहीं है। मन अगर
अपने से नीचे की बात मानने लगे तो संसारी, मन अगर अपने ऊपर
देखने लगे तो संन्यासी।
संन्यास
की धारणा इस देश में पैदा हुई, क्योंकि
हमें यह बात समझ में आ गयी कि मन दो ढंग से काम कर सकता है। मन तटस्थ है। मन की
अपनी कोई धारणा नहीं है। मन यह नहीं कहता, ऐसा करो। तुम पर
निर्भर है। तुम चाहो तो मन को शरीर के पीछे लगा दो, तो वह
शरीर की गुलामी करता रहेगा। मन तो बड़ा अदभुत गुलाम है। उस जैसा आज्ञाकारी कोई भी
नहीं। तुम उसे आत्मा की सेवा में लगा दो, वह आत्मा की सेवा
में लग जाएगा। तुम उसे लोभ में लगा दो, वह लोभ बन जाएगा। तुम
उसे करुणा में लगा दो, वह करुणा बन जाएगा।
सारे
धर्म की कला इतनी ही है कि हम मन को नीचे जाने से हटाकर ऊपर जाने में कैसे लगा
दें। और खयाल रखना, जो सीढ़ियां नीचे ले जाती
हैं वही सीढ़ियां ऊपर ले जाती हैं। सीढ़ियां तो वही हैं। ऐसा भी हो सकता है कि दो
आदमी बिलकुल एक जैसे हों, एक जगह हों, और
फिर भी एक संन्यासी हो और एक संसारी हो।
ऐसा समझो
कि किसी मकान की सीढ़िया तुम चढ़ रहे हो। एक आदमी ऊपर से नीचे उतर रहा है, तुम ऊपर चढ़ रहे हो। तीस सीढ़ियां हैं। पंद्रहवीं सीढ़ी
पर तुम दोनों का मिलना हो गया, तुम ऊपर की तरफ जा रहे हो,
कोई नीचे की तरफ आ रहा है। पंद्रहवीं सीढ़ी पर तुम खड़े हो, दोनों एक ही जगह खड़े हो, लेकिन फिर भी एक जैसे नहीं
हो, क्योंकि एक नीचे जा रहा है और एक ऊपर जा रहा है। दोनों
बिलकुल एक जैसे लगोगे, कोई तो फर्क नहीं होगा, क्योंकि सीढ़ी तो पंद्रहवीं होगी, स्थान तो वही होगा।
लेकिन फिर भी गहरे में फर्क है—एक ऊपर जा रहा है, एक आ रहा
है, दिशा में फर्क है, उन्यूखता
भिन्न—भिन्न है।
जब मन
देहोगख होता है, तो संसार। और जब मन
आत्मोन्यूख हो जाता है, रामोगख हो जाता है, तो संन्यास। तो कभी—कभी ऐसा भी हो सकता है कि संसारी और संन्यासी बिलकुल
एक जैसा लगे, एक ही सीढ़ी पर खड़ा हुआ मालूम पड़े, फिर भी अगर उनकी दिशाएं अलग हैं, उनकी आखें अगर अलग
दिशाओं में देख रही हैं, तों वे भिन्न हैं, मौलिक रूप से भिन्न हैं।
आधुनिक
मनोविज्ञान कहता है कि जब तक हम मन को स्वस्थ न कर लें, तब तक शरीर की बहुत सी बीमारियां ठीक हो ही नहीं
सकतीं। इसलिए पश्चिम में एक ही तरह की चिकित्सा पैदा हो रही है—साइकोसोमेटिक। शरीर
और मन, दोनों का इलाज साथ—साथ होना चाहिए। और शरीर से भी
ज्यादा महत्वपूर्ण है मन का इलाज। बीमारी अगर मन में हो और शरीर पर केवल उसकी छाया
पड़ती हो, तो हम छाया को पोंछते रहो, मिटाते
रहो, इससे कुछ भी न होगा। मन से हट जाए, तो शरीर तत्कण स्वस्थ हो जाएगा।
इस कहानी
का पहला तो यही अदभुत अर्थ कि यह जो रोहिणी है, यह अत्यंत अहंकारी रही होगी। अहंकार स्त्री को होता है तो रूप का होता है।
आदमी को अहंकार होता है तो नाम का होता है। दो ही अहंकार हैं—नाम, रूप। इसलिए माया के सारे संसार का हमने एक ही अर्थ किया है—नाम—रूप। रूप
का अर्थ होता है, देह। नाम का अर्थ होता है, सूक्ष्म मन। मनुष्य का, अगर वह पुरुष है तो बहुत
लगाव होता है नाम से—प्रतिष्ठा, पद, पदवी,
यश, धन, शान, त्याग—कहीं नाम। स्त्री का आग्रह होता है रूप पर। सौंदर्य।
मुल्ला
नसरुद्दीन मुझसे बोला कि मुझे नौकरी मिल गयी है, एक ब्यूटी पारलर मे। एक सौंदर्य—प्रसाधन की दुकान में नौकरी मिल गयी है।
मैंने उसे उस दुकान के सामने खड़ा कई बार देखा, तो पूछा कि तू
वहा खड़ा ही तो रहता है, नौकरी क्या मिली? बाहर खड़ा रहता है! उसने कहा, यही मेरी नौकरी है।
मैंने कहा, तेरा काम क्या है ' उसने
कहा, काम भी बड़ा सरल है—ऐसे बड़ा सूक्ष्म। फिर भी, मैंने कहा, मुझे कहो काम तेरा क्या है, मैं जब देखता हूं वहीं तू खड़ा है बाहर। तो उसने कहा, काम मेरा यह है कि जो स्त्रियां सौंदर्य—प्रसाधन के लिए आती हैं, जब वे भीतर जाती हैं तो मेरा काम है उपेक्षा दिखलाना। नजर भी नहीं डालना,
देखना ही नहीं कि कौन जा रहा है, कौन आ रहा
है। और जब वे सज—धजकर, बाल ठीक करवाकर बाहर निकलती हैं,
तो सीटी बजाना। यह मेरा काम है, यह मेरी नौकरी
है। इससे दुकान खूब चल रही है। क्योंकि स्त्रियों को समझ में एक बात आ जाती है कि
अभी गयी थी और यह आदमी देखा तक नहीं और अब बाल—वाल संवारकर बाहर आ रही हूं तो सीटी
बजा रहा है—वही आदमी! तो जरूर सुंदर होकर लौटी हूं।
स्त्री
का सारा आकर्षण रूप में है। इसलिए स्त्री को बहुत फिकर नहीं होती नाम की। इसलिए
स्त्रिया कोई ऐसे बहुत काम नहीं करतीं जिनसे नाम मिले, कि कोई बड़ी किताब लिखनी, कि
मूर्ति बनानी, कि पेंटिंग बनानी, कि
महाकाव्य लिखना, कि दुनिया की कोई ख्याति मिल जाए। कुछ
लेना—देना नहीं। स्त्री को सारा प्रयोजन है सौंदर्य से।
रोहिणी
सुंदर स्त्री रही होगी। स्त्री थी, सौंदर्य पर उसकी पकड़ रही होगी। और यह जो अहंकार हो—जैसा भी हो अहंकार,
चाहे रूप का, चाहे नाम का, जहा अहंकार है वहा क्रोध है। क्योंकि क्रोध का अर्थ ही होता है, अहंकार को लगी चोट। तुम सोचते हो कि तुम बड़े शानी हो, किसी ने कह दिया कि क्या तुममें रखा है ज्ञान—वान—चोट लग गयी। तुम सोचते
हो कि तुम बड़े सज्जन हो और किसी ने कह दिया कि काहे के सज्जन, चोर, बेईमान; तुम सोचते हो
साधु हो, किसी ने कह दिया असाधु; तुमने
सोचा कि सुंदर हो और किसी ने कह दिया असुंदर; तो चोट लग गयी।
तुम्हारी मान्यता को चोट लग जाए तो क्रोध पैदा होता है। तुम्हारी मान्यता को जो
साथ दे दे, उस पर बड़ा लगाव आता है।
यही तो
प्रशंसा से तुम इतने प्रशंसित होते हो। कोई कह दे कि ही, तुम जैसा सुंदर और कौन! तुम बाग—बाग हो जाते हो।
तुम्हारी सब पखुडियां खिल जाती हैं, तुम खुश हो जाते हो।
किसी ने तुम्हारे अहंकार को फुसलाया, राजी कर लिया।
कुरूप से
कुरूप स्त्री को भी कह दो कि तुम सुंदर हो तो वह भी इनकार नहीं करेगी। वस्तुत: वह
कहेगी कि तुम्हीं पहली दफे पारखी मिले, अब तक कोई पहचान ही न पाया। मैं तो जानती ही थी, लेकिन
पारखी चाहिए न! हीरे तो पारखी होते तो पहचानते। तुम बुद्ध से बुद्ध आदमी से कह दो
कि तुम बुद्धिमान हो, बड़े बुद्धिमान हो, तो वह भी नहीं कहता कि देखो, नाहक चापलूसी मत करो
मैं तो बुद्ध हूं। वह भी नहीं कहेगा। पागल से पागल को कह दो कि तुम जैसा जागरूक,
शात चित्त आदमी और कहा है? वह भी अंगीकार करता
है।
अहंकार
के अनुकूल जो पड़ता है, वह हम स्वीकार करते हैं।
और अहंकार को जो भरता है, उसको हम मित्र कहते हैं—यद्यपि वह
है तो शत्रु। क्योंकि वह तुम्हें उस जगह ले जा रहा है जहा से तुम बुरी तरह गिरोगे।
जहं। से ऐसे गिरोगे कि फिर सम्हलना मुश्किल हो जाएगा। वह तुम्हें ऐसी जगह उठा रहा
है जहा से गिरना सुनिश्चित है। अहंकार पर कोई भी घिर होकर रह नहीं सकता। वह जगह
बारीक है, तुम्हें सम्हाल न पाएगी, वहा
से तुम गिरोगे ही। और आज जितने अहंकार से तुम्हारी तृप्ति हुई है, कल और तुम मांगोगे, और ज्यादा, और ज्यादा। आखिर कब तक यह होगा? एक घड़ी आएगी कि तुम
अपने ही अतिशय से गिरोगे, बुरी चोट खाओगे।
जो जितने
ऊपर अहंकार की चोटी पर चढ़ेगा, उतनी
ही बड़ी खाई में गिरने का खतरा मोल ले रहा है। आज नहीं कल, कल
नहीं परसों, गिरती आने वाली है। और तुम चकित होओगे कि
जिन्होंने प्रशंसा की थी, वे ही निंदा में मुखर हो जाते हैं।
वे बदला लेंगे। जब प्रशंसा की थी तब भी बेमन से की थी, तब भी
करनी पड़ी थी, कोई प्रयोजन था इसलिए की थी, तुमसे कुछ लाभ था, तुमसे कुछ निकालना था इसलिए की
थी। बदला तो लेंगे।
कोई भी
प्रशंसा प्रशंसा की तरह थोड़े ही करता है, उसका कोई प्रयोजन है, उसे तम्हारा शोषण करना है।
उसका काम निपट जाएगा तो वही बदला लेगा। जिसने तुम्हें आकर खूब आल्हादित किया था,
वही तुम्हें गालियां देगा। तब दिल को और भी चोट लगेगी। अपने ही पराए
हो गए, ऐसा लगेगा। मित्र शत्रु हो गए, ऐसा
लगेगा। और कहावतें कहती हैं दुनिया की कि जिसके साथ नेकी करो वही बदी करता है।
नेकी
इत्यादि तुमने की भी नहीं है। उसने तुम्हारी प्रशंसा की थी, तुमने कुछ उस प्रशंसा के कारण कर दिया था, वह नेकी नहीं थी। वह सिर्फ सौदा था। और उस आदमी को तुम्हारी प्रशंसा करनी
पड़ी थी, तुम्हारे सामने झुकना पड़ा था, इसलिए
त्त्रह तुम्हें कभी क्षमा तो कर नहीं सकेगा। वह इसका बदला तो लेगा। जब भी अवसर आ
जाएगा, ठीक समय होगा, वह बदला लेगा।
तो
रोहिणी को रूप का दंभ था। रूप के दंभ के कारण बहुत चोटें लगी होंगी, क्रोधित होती थी। अगर तुम्हें चोटें लगती हों तो एक
बात खयाल में ले लेना, चोट लगने का लक्षण, अर्थ यही कि तुम्हारे भीतर अहंकार का घाव बहुत गहरा है, जरा सी बात भी अखर जाती है। अगर तुम्हारे मन में सम्मान की इच्छा है और
अपमान से बचने का भाव है, तो तुम अहंकार का पोषण कर रहे हो।
फिर इन
क्रोध और अहंकार के बीच में उसे छवि रोग हो गया। चेहरा विकृत हो गया। मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि चमड़ी के रोग तो निन्यानबे प्रतिशत मानसिक होते हैं। सभी रोग नब्बे
प्रतिशत मानसिक होते हैं, लेकिन चमड़ी के रोग तो
निन्यानबे प्रतिशत मानसिक होते हैं। क्योंकि चमड़ी बड़ी संवेदनशील है। और चमड़ी हमारी
सबसे बड़ी इंद्रिय है।
कान छोटा
सा है। कान पर चोट करनी हो तो निशाना ठीक—ठीक लगाना पड़े तो ही चोट होगी। आख छोटी
सी है। आख पर चोट करनी हो तो निशाना ठीक लगना चाहिए। जीभ भी छोटी सी है। लेकिन
चमड़ी तुम्हारे पूरे शरीर को घेरे हुए है, यह तुम्हारी सबसे बड़ी इंद्रिय है। स्पर्श की इंद्रिय सबसे बड़ी इंद्रिय है।
इस पर चोट बड़ी आसानी से लग सकती है, निशाना लगाने की जरूरंत
ही नहीं है।
इसलिए मन
की चोटें आंख पर भी लगती हैं, कान
पर भी लगती है, जीभ पर भी लगती हैं, लेकिन
इनकी मात्रा बहुत छोटी—छोटी है। लेकिन शरीर की चमड़ी का फैलाव बहुत है। उस फैलाव के
कारण चमड़ी पर सर्वाधिक मन की चोटें पड़ती है। और चमड़ी का कोई भी रोग किसी इलाज से
ठीक नहीं होता। लेकिन मानसिक इलाज से ठीक होता है।
चमड़ी इस
अर्थ में भी विचारणीय है कि तुम्हारी और जो इंद्रियां हैं, वे चमड़ी के ही विशिष्ट रूप हैं। कान है क्या? चमड़ी का ही एक विशिष्ट रूप है। और आंख है क्या? आंख
भी चमड़ी का ही एक विशिष्ट रूप है। चमड़ी ने ही अपने एक हिस्से को देखने में कुशल
बना लिया है, वह आंख हो गयी है। और चमड़ी ने ही एक दूसरे
हिस्से को स्वाद लेने में कुशल बना लिया है, वह तुम्हारी जीभ
हो गयी है। और चमड़ी ने ही एक दूसरे हिस्से को विशेषज्ञ बना लिया है, नाक हो गयी तुम्हारी, सुगंध के लिए विशेषज्ञ। ये
एक्सपर्ट हैं, ये चमड़ी की विशेषताएं हैं। लेकिन हैं सब चमड़ी
के ही खेल।
बच्चा जब
पहली दफा पैदा होता है मां के पेट में बढ़ता है, तो पहले तो चमड़ी आती है। फिर चमड़ी में ही धीरे—धीरे आंख उभरती, फिर चमड़ी में ही धीरे—धीरे कान उभरता, फिर चमड़ी में
ही जननेंद्रिय उभरती, फिर चमड़ी में ही जीभ, नाक, सब उभरते जाते। लेकिन सबसे पहले तो चमड़ी होती।
तो चमड़ी बहुत मूल है। और इसीलिए स्पर्श बड़ा महत्वपूर्ण है।
इसीलिए
जब हम किसी के प्रेम में पड़ते हैं तो तत्थण स्पर्श करना चाहते हैं, हाथ में हाथ लेना चाहते हैं, गले
से गले लगाना चाहते हैं, आलिंगन करना चाहते हैं। जब हम किसी
के प्रेम में पड़ते हैं तब हम स्पर्श करना चाहते हैं। और जिससे हमारा प्रेम नहीं है,
उसके स्पर्श से हम बचते हैं।
मनोवैज्ञानिकों
ने इस पर काफी शोध की है और उन्होंने पाया है कि लोग जिनसे बचना चाहते हैं, अपने बीच और उनके बीच एक खास तरह की दूरी रखते हैं।
ट्रेन में ही चाहे लोग खड़े हैं, कितनी ही भीड़ है, तो भी तुम पाओगे, हर आदमी अपने में सिकुड़ा खड़ा है,
दूसरे को छूना नहीं चाहता। और जिससे तुम्हारा प्रेम नहीं है,
अगर उसे तुम छू लो, तो तुम कक्का क्षमा मागते
हो। क्यों न छू लेने का अर्थ हुआ कि तुमने उसकी सीमारेखा में प्रवेश कर दिया,
जो कि नहीं करना चाहिए, ट्रेसपास हुआ। तुम
दूसरे के घर में बिना आशा मतो घुस गए। जिससे तुम्हारा प्रेम नहीं है उसको छू लेते
हो, तुम तत्सण क्षमा मांगते हो कि माफ करना, भूल हो गयी, जानकर नहीं किया है। और अगर कोई पुरुष
या कोई स्त्री तुम ट्रेन में खड़े हो और तुमसे सटकर खड़ा हो जाए और क्षमा भी न मांगे
और ऐसा भाव दिखलाए कि बड़े प्रेम में तुमसे खड़ा है, तो तुम
अत्यंत नाराज हो जाते हो। तुम अत्यंत क्रोधित हो जाते हो, तुम
इसे बर्दाश्त नहीं कर पाते।
इसलिए
ट्रेन या बस में इकट्ठे खड़े हुए लोग भी इस तरह खड़े होते हैं कि अगर शरीर भी छू रहे
हैं, तो भी उनके मन नहीं छू
पाते, वे अपने को सिकोड़े खड़े होते हैं। कम से कम इतना
प्रदर्शन तो करते हैं कि हम तुम्हें छू नहीं रहे हैं, अगर छू
रहा है शरीर तो मजबूरी है—हम नहीं छू रहे हैं। और हम एक सीमा बांधकर रखते हैं।
तुमने
देखा कभी, किसी के साथ तुम खड़े होकर
बात कर रहे हो, तो सदा तुम जाचोगे कि एक सीमा तक तुम उस आदमी
को बर्दाश्त करते हो, अगर वह उससे ज्यादा करीब आ जाए तो तुम
पीछे हट जाते हो। एक सीमा होगी, समझो कि बारह इंच, तो बारह इंच तक वह आदमी अगर तुम्हारे करीब आ जाए, तुम्हें
कोई चिंता पैदा नहीं होती, कोई बेचैनी पैदा नहीं होती। बारह
इंच के भीतर आना शुरू हो जाए—हा, तुम्हारा बेटा हो तो ठीक,
तुम्हारी पत्नी हो तो ठीक, तुम्हारा पति हो तो
ठीक, लेकिन जिनसे तुम्हारा कोई गहरा नाता नहीं है, कोई संबंध नहीं है, वे अगर बारह इंच या दस इंच के
भीतर आने लगें, तुम तत्कण पीछे हट जाओगे। वहं। तुम्हारी एक
अज्ञात सीमा है। चमड़ी का एक अज्ञात क्षेत्र है, जहा तक उसकी
तरंगें फैलती है। उन तरंगों के भीतर कोई भी आ जाए तो हम पसंद नहीं करते हैं।
अशिष्ट मालूम होती है यह बात।
स्पर्श
की इंद्रिय बड़ी से बड़ी इंद्रिय है और हमारे पूरे शरीर को घेरे हुए है। इस स्मर्श
की इंद्रिय पर मन के प्रभाव सर्वाधिक होते हैं।
तुमने
कभी एक बात देखी, अगर बूढ़ा आदमी भी किसी
जवान युवती के प्रेम में पड़ जाए, तो उसकी चमड़ी पर एक रौनक आ
जाती है। उसके चेहरे पर एक तरह की जवानी आ जाती है, जैसे दस
साल उम्र कम हो गयी। पश्चिम में लोग अगर उगदा जी रहे हैं, तो
उस ज्यादा जीने में एक कारण यह भी है कि बुढ़ापे तक लोग प्रेम में पड़ते हैं। तो
बुढ़ापे को सरकाते चले जाते हैं। क्योंकि चमड़ी बार—बार जवान हो जाती है। पूरब के
मुल्कों में लोगों की उम्र कम है, क्योंकि एक बार तुम्हारा
प्रेम हो गया किसी से, फिर तुम थिर हो गए, फिर बात खतम हो गयी, फिर तुम्हारे जीवन में दुबारा
प्रेम के माध्यम से चमड़ी के नए होने का कोई उपाय नहीं है।
एक उगदमी
जिसके जीवन में कोई प्रेम नहीं है, उसके चेहरे को तुम गौर से देखो, तुम एक तरह की धूल
जमी हुई पाओगे, एक तरह की उदासी। और एक आदमी जिसके जीवन में
प्रेम है, तुम अचानक पाओगे एक तरह की त्वरा, ताजगी, उरभी—अभी जैसे नहाया हो, एक गति, गत्यात्मकता, एक
तेजस्विता।
हमने तो
महापुरुषों के आसपास आभामंडल बनाया है। बुद्ध की प्रतिमा हो, कि कृष्ण की, कि राम की,
हम आभामंडल बनाते हैं। वह उगभामंडल अर्थपूर्ण है। वह यह कह रहा है
कि अब इनकी चमड़ी की जो आभा है, मन के द्वारा उस आभा को कोई
खंडन नहीं हो रहा है, मन उसमें बाधा नहीं डाल रहा है। इनकी
आभा जैसी होनी चाहिए वैसी है। इनके आसपास एक प्रकाश का वर्तुंल है। जब साधारण
प्रेम में आदमी के चेहरे पर आभा आ जाती है, तो परमात्मा के
प्रेम में तो आ ही जानी चाहिए। जब साधारण प्रेम से आदमी जवान हो जाता है, तो परमात्मा के प्रेम से तो सदा जवान रहना ही चाहिए।
इसलिए
हमारी कथाओं में कोई उल्लेख नहीं है कि राम के हुए, कि कृष्ण के हुए, कि बुद्ध के हुए। के तो हुए,
लेकिन तुमने बुद्ध की कोई बूढ़ी प्रतिमा देखी? तुमने
राम की कोई की प्रतिमा देखी कि लकड़ी टेककर चल रहे हों?
के तो
निश्चित हुए होंगे, यह तो कोई सवाल नहीं है
कि बूढ़े नहीं हुए। बुद्ध के संबंध में तो साफ उल्लेख हैं कि के हुए, अस्सी साल के हुए, कृष्ण भी अस्सी—बयासी के हुए।
लेकिन हमने कोई चित्र भी नहीं बनाया उनके बुढ़ापे का, क्योंकि
हमने एक बात सम्हालकर रखनी चाही कि इनके भीतर कुछ ऐसा प्रेम घटा था, कि एक अर्थों में ये जवान ही रहे।
इसलिए
हमारे पास बूढ़े कृष्ण की कोई कथा नहीं है। के बुद्ध की कोई कथा नहीं है। के महावीर
की कोई कथा नहीं है। ये सब के हुए, क्योंकि शरीर का धर्म है, का तो होगा ही। इन सबके
बाल भी सफेद हुए होंगे, लेकिन तुमने कोई प्रतिमा देखी,
या कोई चित्र देखा, जिसमें बुद्ध के बाल सफेद?
नहीं, क्योंकि हमने बुढ़ापे को स्वीकार नहीं
किया। हमने कहा, यह बात हो नहीं सकती। हो गयी है तो शरीर पर
हो रही है, लेकिन इनकी आभा सदा जवान थी। हमने उस आभा पर ही
ध्यान रखा। ये चिर युवा थे। इनकी चमड़ी' पर बुढ़ापे ने कोई
शिकन न डाली। इनका मन एक ऐसे शाश्वत जीवन से संयुक्त हो गया, जहा बुढापा आता ही नहीं।
तुमने
सुना है कभी कि देवदूत बूढ़े होते हैं? कि स्वर्ग की अप्सराएं की होती हैं? नहीं, वे सब जवान ही रहते हैं। वहा बुढ़ापा होता ही नहीं। अर्थ इसका सीधा—सादा
है। एक ऐसी भी घटना है जब मन आत्मा से जुड़ जाता है। जब तक मन शरीर से जुड़ा है,
तब तक तो सब होगा जो शरीर में हो रहा है। लेकिन जैसे ही मन आत्मा से
जुड़ गया, शरीर में होता रहेगा, लेकिन
मन में अब कुछ भी न होगा। और जब मन में कुछ न होगा, तो हमने
सारी कथाएं तो उसी गहराई की लिखी हैं।
यह
रोहिणी छवि रोग से पीड़ित हो गयी। अभिमानी रही होगी, मानी रही होगी। भाई बुद्ध का बड़ा भिक्षु है—अनिरुद्ध के भी पांच सौ शिष्य
थे, अनिरुद्ध काफी महत्वपूर्ण शिष्यों में एक था—वह गांव में
आया है, सारा गांव उसके दर्शन करने को आया है, सारा परिवार गया और रोहिणी नहीं गयी। तो सोचा होगा अनिरुद्ध ने कि बहन को
क्या हुआ? आयी क्यों नहीं? खबर भिजवायी
होगी। आयी भी तो पर्दा करके आयी। घूंघट बड़ा डाल लिया होगा। उसने पूछा कि मुझसे
घूंघट! भाई से घूंघट! भिक्षु से घूंघट! यह बात क्या है, तेरा
दिमाग तो खराब नहीं हो गया है। तो उसने सारी कथा कही। उसने कहा कि मैं छवि रोग से
पीड़ित हूं। मेरी छवि विकृत हो गयी है। चेहरे पर फफोले पड़ गये हैं, चमड़ी कुरूप हो गयी है, और मैं इस चेहरे को तुम्हें न
दिखाना चाहूंगी। मुझे बड़ी लज्जा आती है।
यह भी
अहंकार है। लज्जा भी अहंकार की ही छाया है। लज्जा क्या, जैसा है वैसा है! लज्जा का अर्थ ही यह होता है कि
जैसा होना चाहिए वैसा नहीं है। जैसा मैं चाहता, वैसा नहीं
है। और जैसा है, वैसा मैं चाहता नहीं। वैसा मुझे स्वीकार
नहीं, अंगीकार नहीं। लज्जा में ही विरोध है, जो तथ्य है उसका विरोध है। और सपना, और कल्पना,
कोई होना चाहिए था वह नहीं है।
तो उसने
कहा, मुझे बड़ी लज्जा आती है।
तुम
आमतौर से सोचते हो कि लज्जालु व्यक्ति सज्जन होता है। वह भी अहंकारी होता है।
लज्जा साधु को होती ही नहीं। इसीलिए तो मीरा ने कहा, सब लोक. लाज खोयी। परम साधु को कैसी लोक—लाज? लज्जा
का तो अर्थ ही होता है कि अभी चल रही है भीतर अहंकार की धारणा।
पूरब में
हम कहते हैं, हमारी स्त्रियां अत्यंत
लज्जालु हैं। और लज्जा को हमने गाग माना है। पश्चिम की स्त्रियों में वैसी लज्जा
नहीं है तो हम सोचते हैं, यह बात तो निर्लज्ज। इनमें कोई
लज्जा नहीं है।
लेकिन
इसे तुम समझना, लज्जा का मतलब अहंकार है।
पूरब की स्त्रिया ज्यादा —अहंकारी हैं। उन्हें अपने शील, सौंदर्य,
चरित्र, सतीत्व का बड़ा गहन घमंड है। पश्चिम की
स्त्री इस अर्थ में सीधी—सरल है। उसे कोई लज्जा नहीं है। अहंकार के ही भाथ लज्जा
आती है। वह अहंकार की ही सजावट है। अहंकार पर ही सोना मढ़ दिया। तो हम खूब प्रशंसा
करते हैं कि देखो, फलां आदमी कैसा लज्जालु है। हम बुरे आदमी
को कहते हैं, बेशर्म, अच्छे आदमी को
कहते हैं, शर्म वाला। फिर मीरा क्या कह रही है? सब लोक—त्नाज खोयी? सब शर्म खो दी?
सच्चा
आदमी न तो बेशर्म होता है, न शर्म वाला होता है।
सच्चा आदमी बस सच्चा होता है। उसमें कोई लज्जा नहीं होती और न निर्लज्ज होता है।
निर्लज्ज होने की भी कोई जरूरत न रही, वह भी लज्जा का ही रूप
है। वह भी लज्जा को तोड़ता है तब कोई निर्लज्ज होता है। लेकिन जिसके पास लज्जा है
ही नहीं, वह तोड़ेगा क्या? बीस होगा तो
बांसुरी बज सकती है, बांस ही न होगा तो बांसुरी कैसे बजेगी?
एक ऐसी चित्त की दशा है, जो लज्जा—अतीत।
तो
रोहिणी आयी भी तो चेहरे पर घूंघट डालकर आयी। दूसरों से तो आदमी लज्जा करता ही, अपनों से भी करता है—जितना अहंकार हो उतनी ही लज्जा
बढ़ती चली जाती है। भाई को आयी थी मिलने! और भाई भी कोई साधारण भाई न था। बुद्ध के
बड़े शिष्यों में एक था। पहुंचे हुए सिद्ध पुरुषों में एक था। पूछा भाई ने, क्या कारण? कहा, छवि रोग हुआ
है। फिर भाई ने कुछ और न कहा उस संबंध में। उसने कहा, तू एक
काम कर, इतने भिक्षु आए गाव में, इनकी
सेवा में लग। एक बड़ा भवन बनाना है। ये दस हजार भिक्षु टिकेंगे कहां? वर्षा आती है करीब, इनको रहने का इंतजाम करना है,
छप्पर लगवाना है।
उसके पास
रुपए भी न थे। लेकिन भाई ने कभी कुछ इसके पहले कहा भी न था! मानिनी स्त्री रही
होगी। सब जेवर—जवाहरात बेच दिए। यह मान पर चोट पड़ गयी होगी—यह भी कह न सकी कि मेरे
पास रुपए भी नहीं हैं, इतना मैं कहां कर सकूंगी।
किया, नहीं कर सकती थी तो भी किया। लेकिन करने में डूब गयी।
इस बात
को खयाल में रखना। तुम्हारे जीवन के श्रेष्ठतम क्षण वे ही होते हैं जब तुम अपने को
भूल जाते हो, कुछ भी करने में भूल जाते
हो। चित्रकार चित्र बनाने में भूल जाता है, या कि मूर्तिकार
मूर्ति बनाने में भूल जाता है, या कि नर्तक नाचने में भूल
जाता है, या कि गीतकार गीत में भूल जाता है। जब तुम भूल जाते
हो, किसी भी क्षण जहां तुम्हें विस्मरण हो जाता है अपना,
उसी घड़ी जीवन में परम क्षण उतर आता है। जहां तुम अपने को भूले,
वहां अहंकार हट गया। एक घड़ी को बादल छंट गए, सूरज
निकला, एक घड़ी को अंधेरा टूटा और रोशनी उतरी। एक घड़ी को
वर्षा हो गयी तुम पर अमृत की।
इसलिए
जीसस ने सेवा पर बहुत जोर दिया है। सेवा का यही अर्थ है, इतना ही अर्थ है कि तुम दूसरे में अपने को डुबा देना।
तो तुम्हारे जीवन में थोड़ी देर को निरअहंकारिता की भावदशा पैदा होगी। उससे स्वाद
लगेगा। और जब तुम्हें यह पता चल जाएगा कि क्षणभर को मूलने में इतना स्वाद आता है,
इतनी मिठास, तो तुम फिर सदा के लिए यह अहंकार
छोड़ देना चाहोगे। चाहोगे ही, यह तर्कयुक्त होगा। स्वाद लग
जाए तो तुम फिर चाहोगे कि पूरा ही स्वाद मिल जाए। जब अहंकार भुलाने में इतना रस है,
तो अहंकार को बिलकुल गिरा देने में कितना रस न होगा।
लग गयी
काम में। खड़ी रहती होगी भरी धूप में। भूल ही गयी अपने रूप को।
भूल ही गयी अपने मान को। भूल ही गयी अपनी
बीमारी को। चिकित्सक भी कहते हैं कि जो आदमी अपनी बीमारी को नहीं भूल पाता, उसकी बीमारी ठीक होना असंभव है। इसीलिए अगर कोई आदमी
बीमार है, तो जो पहली बात चिकित्सक चाहता है, वह यह कि वह किसी तरह सो जाए। बीमार आदमी अगर सोए न, तो इलाज हो नहीं सकता। क्योंकि वह भूलता ही नहीं, वह
खरोद—खरोदकर बीमारी को देखता रहता है। तुम्हारे पेट में दर्द है, तो तुम बार—बार, बार—बार वहीं—वहीं जाते। तुम्हारे
जाने से दर्द पर चोट पड़ती खै और घाव बड़ा होता जाता है। तुम्हें भूलना जरूरी है।
मैंने
सुना है, बर्नार्ड शा फोन किया
अपने डाक्टर को कि मेरे हृदय में बड़ी तेज धड़कन है और बहुत घबड़ाहट है, ऐसा लगता है कि हार्ट अटैक आप जल्दी आएं। कोई आधी रात की बात।
चिकित्सक
आया, सीढ़ियां चढ़कर ऊपर आया,
ऊपर आते ही से उसने एकदम से अपना बैग नीचे पटक दिया और आरामकुर्सी
पर आंख बंद करके पड़ गया। बर्नार्ड शा ने कहा, क्या हुआ?
उसने कहा, मालूम होता है—हार्ट अटैक। का
चिकित्सक था।
बर्नार्ड शा तो भूल ही गया अपने हार्ट
अटैक को, बिस्तर पर लेटा था,
एकदम उठ आया, कि कहीं मर न जाए। हवा की,
पंखा किया, पानी पिलाया, पूछा कि अब कैसी तबीयत है—कोई दस मिनट बाद। उसने कहा कि अब बिलकुल ठीक है।
वह उठकर चलने लगा तो उसने कहा, मेरी फीस। तो बर्नार्ड शा ने
कहा, काहे की फीस, फीस तो मुझे मांगनी
चाहिए। उस डाक्टर ने कहा, मुझे कुछ हुआ नहीं कोई हार्ट अटैक
वगैरह, यह तो तुम्हें तुम्हारी बीमारी भुलाने के लिए। अब
देखो तुम भले—चंगे हो बिलकुल, पहले बिस्तर पर पड़े थे।
तुम्हारे
सामने किसी को हार्ट अटैक हो जाए तो तुम भूल ही जाओगे कि तुम्हें कुछ तकलीफ हो रही
है। बर्नार्ड शा उठ गया, दस मिनट में भूल ही गया
है सब ठरपनी बात।
अक्सर
ऐसा हो जाता है कि जब भी तुम किसी दूसरे में लीन हो जाते हो, तुम अपने को भूल जाते हो। और बीमारी दूर ही तब होती
है जब तुम अपने को भूल जाते हो। बीमारी अगर बचानी हो तो भूलना मत।
इसलिए
कुछ लोग बीमारी को बचाने में बडे कुशल होते हैं। वे भूलते ही नहीं, सुबह से सांझ तक बीमारी—बीमारी की बात करते हैं। जब
मौका मिलेगा तब बीमारी की बात करेंगे। जो मिल जाएगा उससे बीमारी की बात करेंगे। ये
जो प्ताइपोकांड्रियाक, इस तरह के जो लोग होते हैं, जो बीमारी में रस लेते हैं, इनको ठीक करने का कोई
उपाय नहीं, कोई उपाय ही नहीं है। क्योंकि ये बीमारी को
कुरेदते जाते हैं, ये घाव को सूखने नहीं देते, ये घाव को फिर—फिर खोल देते हैं।
महीनों
लगे होंगे, गर्मी के दिन रहे
होंगे—क्योंकि वर्षा के लिए बुद्ध आए थे—जल्दी ही वर्षा आने को होगी, अषाढ़ के दिन करीब आते होंगे, बादल घिरते होंगे,
जल्दी छप्पर डलवा देना था, दस हजार भिक्षुओं
का इंतजाम करना था रहने का, रोहिणी बिलकुल भूल गयी होगी,
डूब गयी होगी काम में। कथा प्यारी है, कहती है
कि निन्यानबे प्रतिशत रोग दूर हो गया। फिर भी वह बुद्ध के पास न गयी। अभी भी एक
प्रतिशत बचा था। जाती—जाती पूंछ बची होगी—हाथी निकल गया होगा, पूंछ बची होगी। आखिरी छाया बीमारी की चेहरे पर रही होगी।
फिर
बुद्ध ने उसे बुलवाया और बुद्ध ने पूछा उससे कि जानती हो यह किस कारण हुआ है? उसने कहा, नहीं भंते।
अनिरुद्ध
ने इलाज कर दिया बिना उसे बताए। अनिरुद्ध चिकित्सक रहा होगा। बिना कुछ कहे इलाज कर
दिया। शायद कहने से गड़बड़ भी हो जाती। शायद कहने से सचेतन हो जाती रोहिणी, फिर शायद इतनी आसानी से इलाज न हो पाता। कई बार
चिकित्सक को तुम्हें बिना बताए इलाज करना होता है।
तुमने
देखा न, चिकित्सक जब प्रिस्किपान
लिखती है तो तुम पढ़ नहीं पाते, वह एकदम जरूरी है कि तुम न पढ़
पाओ। तुम पढ़ लो तो इलाज होने में मुश्किल पड़ जाए। क्योंकि कभी—कभी तो वह ऐसी चीजें
लिखता है जो तुम जानते ही हो—इनमें रखा क्या है! तुम खुद ही जानते हो।
इसलिए
एलोपैथी लैटिन और ग्रीक नाम चुनती है दवाइयों के। वह एकदम उचित है। अगर तुम्हारी
ही भाषा में नाम हो तो तुम कहोगे, अरे!
समझो कि अजवाइन का सत्व, वह लैटिन और ग्रीक में हो तो तुम
जाकर पांच रुपया या दस रुपया दे आते हो केमिस्ट को, वह अगर
हिंदी में हो, तुम दो आना देने को राजी न होओगे। और अजवाइन
का सत्व! अजवाइन के सत्व से कहीं कोई ठीक हुआ है! यह तो बड़े—बूढ़े घर में कहते ही
रहे हैं। यह पत्नी तुम्हारी कह ही रही थी कि अजवाइन ले लो, पेट
में दर्द है, गैस है, फला—ढिकां,
अजवाइन ले लो। उसकी तो तुमने सुनी भी नहीं थी, अजवाइन ली भी थी तो कोई परिणाम भी नहीं हुआ था। लेकिन यह डाक्टर का नाम,
बड़ी डिग्री, बड़ी तख्ती, बड़ी
भीड़, इसके बैठकखाने में दो घंटे तक प्रतीक्षा, यह सब दवा का हिस्सा है। फिर इसका प्रिस्किपान, इसकी
लिखावट पढ्ने में नहीं आती...।
मुल्ला
नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था कि डाक्टर ने जो मुझे प्रिस्किपान दिया था, बड़ा काम आया। मैंने पूछा, क्या
काम आया? उसने कहा, दवा तो उससे ले ही
ली थी, दो महीने तक रेल में सफर किया बता—बताकर कि यह पास
है। क्योंकि कोई उसको पढ़ नहीं सकता, तो वह चेकर भी कुछ कहे
नहीं, कि ठीक है, झंझट मिटाओ। वह तो
बड़े काम की चीज है, उसको जहां भी झंझट आती है मैं बता देता
हूं एकदम। उसको कोई पढ़ तो सकता नहीं और कोई यह मानने को राजी है नहीं कि पढ़ नहीं
सकता। इसलिए कहता है, बिलकुल ठीक है, आगे
बढ़ो।
तुम अगर
उसको फिर से डाक्टर के पास ले जाओ तो शायद तुम्हारा डाक्टर भी उसे न पढ़ सके।
अनिरुद्ध
ने ठीक ही किया कि कहा नहीं। चुपचाप एक प्रक्रिया बता दी।
मेरे पास
लोग आते हैं, कोई कहता है, क्रोध से परेशान हैं। मैं कहता हूं ठीक, क्रोध की
तुम फिकर न करो, ध्यान करो। उनको अच्छा नहीं लगता। क्योंकि
वे तो आए थे क्रोध के लिए और मैं कहता हूं र ध्यान करो। वे समझते हैं कि उनकी
बीमारी को तो मैंने छुआ ही नहीं।
तुम्हारी
क्रोध की बीमारी को छूने की जरूरत ही नहीं है। तुम अगर किसी तरह न्यान में उतर जाओ, थोड़ी देर अपने को भूलने लगो विस्मरण करने लगो नाच में,
गीत में, गान में, ध्यान
में, भक्ति में, भाव में, क्रोध की क्षमता अपने आप क्षीण हो जाएगी।
कोई आता
है, कहता है, मुझमें
बड़ा अहंकार है, प्रज्वलित, दग्ध अंगारे
की तरह, क्या करूं, कैसे बुझाऊं?
मैं कहता हूं तुम ध्यान करो। उसको भी बात ठीक नहीं लगती। क्योंकि
उसे लगता है कि वह तो इतनी बड़ी बीमारी लेकर आया और मैंने उसे ऐसे टाल दिया,
कहा कि ध्यान करो। वह सोचता है, शायद मैंने
टाल ही दिया। और फिर उसे यह भी हैरानी होती है कि कोई भी बीमारी लेकर आओ, मैं कहता हूं ध्यान करो! कहीं सब बीमारियों की एक दवा हो सकती है!
मैं
तुमसे कहता हूं? हो सकती है। क्योंकि सब
बीमारियों के पीछे एक मन है। और सब दवाओं के पीछे एक ध्यान है। ध्यान यानी मनरहित
दशा। और तो क्या ध्यान का अर्थ होता है! ध्यान रामबाण है। उससे सब शत्रु मारे जाते
हैं। क्योंकि शत्रु के नाम कुछ भी हों, सब मन के ही नाम हैं।
अनिरुद्ध
ने ठीक ही किया कि रोहिणी को कहा कि तू जा, इस काम में लग जा। उसने उसकी बीमारी की चर्चा ही न उठायी, उसका विश्लेषण भी न किया। कभी—कभी विश्लेषण महंगा पड़ जाता है।
मनोचिकित्सक
विश्लेषण करते हैं। तो बीमार को तीन—तीन, चार—चार साल, पांच—पांच साल लग जाते हैं। रोज जाओ,
घंटेभर विश्लेषण चलता है। पांच साल मन का विश्लेषण चलता है, फिर भी कुछ खास परिणाम होते, ऐसा दिखायी नहीं पड़ता।
विश्लेषण थोड़ा जरूरत से ज्यादा हो गया। निदान ही निदान चलता रहता है, औषधि का मौका ही नहीं आता। असली बात तो औषधि है। निदान तो चिकित्सक कर ले
अपने भीतर, निदान की तुम्हें बताने की भी जरूरत नहीं।
अनिरुद्ध
ने देख लिया होगा कि मामला कग है। अनिरुद्ध की बहन थी, बचपन से जानता होगा कि इसका असली रोग क्या है। इसका
असली रोग है रूप की आकांक्षा। इसका असली रोग है दंभ, घमंड।
वही रोग इसे खाए जा रहा है। यह अपने को भुला नहीं पाती यह अपनी देह को नहीं भुला
पाती। उसने चुपचाप एक विधि दे दी।
यह काम
ऐसा था कि कठिन था, पैसा था नहीं पास,
गहने बेचने पड़ेंगे। और गहना अगर कोई सुंदर स्त्री बेचने को राजी हो
जाए, तो उसने अपने सौंदर्य को सजाने का आधा काम तो बंद कर ही
दिया। आखिर गहने का लोभ ही क्या था? गहने में अर्थ ही क्या
था? वही अर्थ था कि ज्यादा सुंदर दिखे। हीरे—जवाहरात का
सौंदर्य भी मेरे सौंदर्य में जुड़ जाए, और मुझे चमकाए,
और दीप्तिवान करे।
अनिरुद्ध
ने ऐसी तरकीब की कि सब गहने बिक गए। शायद कीमती साड़ियां भी बेच दी होंगी। तो उस
रूप को सजाने का जो उपाय था, वह
तोड़ दिया अनिरुद्ध ने, जड़ से काट दिया।
और फिर
बड़ी बात यह की कि यह काम ऐसा था, जल्दी
करना था, वर्षा आती थी, और बड़ा काम था,
और यह रोहिणी बिलकुल उलझ गयी होगी। सुबह से साझ तक थकी—मांदी काम
में लगी रहती होगी, रात बेहोश होकर पड़ जाती होगी, सुबह फिर भागकर जाती होगी। यह काम इतना बड़ा था, बुद्धद्वींर
पर खड़े थे, वर्षा सिर पर आती थी, इतना
बड़ा काम उसके ऊपर आ पड़ा था, उसे पूरा करके दिखलाना था।
पुरानी मानिनी स्त्री थी, इतना बड़ा दायित्व मिला था, उसे पूरा करना ही है। इस सब में भूल गयी होगी।
तो बुद्ध
ने—जब वह बुद्ध के पास गयी—तब बुद्ध ने कहा, जानती हो किस कारण हुआ? नहीं भंते।
हम रोग
से पीड़ित हैं, और हम ही रोग के जन्मदाता
हैं, और हमें पता भी नही कि कैसे हम रोग को पैदा करते हैं।
अब तुम इलाज भी कर लो तो क्या होगा! अगर तुम रोग को पैदा करते ही चले जाओगे,
तो कितना ही इलाज करो कुछ हल न होगा। एक हाथ से इलाज करोगे, दूसरे हाथ से रोग पैदा करोगे, तो कब अंतिम परिणाम
आने वाला है? कभी नहीं।
लेकिन अब
घड़ी आ गयी थी। अब एक प्रतिशत बीमारी बची थी। अब विश्लेषण किया जा सकता है। और इस
सोयी हुई स्त्री को जगाया जा सकता है। बुद्ध ने यह मौके को देखकर कहा, रोहिणी, तेरे क्रोध के कारण।
तेरा क्रोध ही तेरे रूप पर कुरूपता बन गया है।
तुमने
कभी देखा कि सुंदर से सुंदर व्यक्ति भी जब क्रोध करता है तो कुरूप हो जाता है। काश, तुम्हें पता हो कि तुम कितने कुरूप हो जाते हो जब तुम
क्रोध करते हो, और तुम कितने सुंदर हो जाते हो जब तुम प्रेम
करते हो, तो शायद तुम इसी कारण क्रोध करना छोड़ दो।
कभी आईने
के सामने खड़े होकर क्रोध की मुद्रा बनाना, क्रोध को जगाना, वीभत्स चेहरा खड़ा करना और देखना कि
क्या हालत तुम्हारे चेहरे की हो जाती है। अपना चेहरा तो क्रोध में दिखता नहीं,
इसलिए तुम्हें पता ही नहीं चलता कि क्रोध में जब तुम आते हो तो क्या
तुम्हारी गति हो जाती है! कैसा नरक तुम्हारे चेहरे पर उतर आता है! कैसी हिंसा!
कैसी हत्या! तुम कैसे पशुवत मालूम होने लगते हो! तुम्हारी आखें खून से भर जाती
हैं। तुम्हारी मुट्ठियां भिंच जाती हैं। तुम्हारे दात पिसने लगते हैं। यह पशु की
अवस्था है।
तुम्हें
पता है न कि पशु जब क्रोध से भरता है तो दो ही काम कर सकता है—एक तो अपने नाखून, अंगुलियों से नोच सकता है, इसलिए
मुट्ठियां भिंच जाती हैं; और दूसरा अपने दांतों से चीर—फाड़
कर सकता है। और तो कोई पशु के पास हथियार होते नहीं। आज भी आदमी जब क्रोध करता है,
तो डार्विन सही है, यही सिद्ध करता है,
तब तुम्हारी मुट्ठियां भिंचने लगती हैं। तुम एकदम नोचने को तैयार हो
जाते हो। और तुम्हारे दात काटने को तैयार हो जाते हैं। तुम गिर गए पशु—तल पर। तुम
आदमी न रहे क्रोध के क्षण में। और स्वभावत:, उस अवस्था में
अगर तुम्हारे चेहरे पर पाशविकता उभर आती है, एक हैवानी
स्थिति बन जाती है, तो कुछ आश्चर्य नहीं।
काश, तुम देख सको अपने चेहरे को क्रोध में! लेकिन दूसरे
देखते हैं। तुम दूसरों का देखते हो। अपना कोई भी नहीं देख पाता। अपना जो देखने लगे,
वह धीरे—धीरे मुक्त हो जाता है। उसे होना ही पड़ेगा।
तो
कभी—कभी आईने के सामने क्रोध में खड़े हो जाना। क्रोध को उभारना, एक कल्पना खड़ी करना, एक नाटक
खेलना। अपने दुश्मन का स्मरण करना, जिसको तुम मार ही डालना
चाहते हो, और सोचना कि मारने को बिलकुल तत्पर हो गया हूं अब
मेरी कैसी चित्त की दशा होगी और मन कैसा होगा, आखें कैसी
होंगी, चेहरा कैसा होगा—और देखना अपनी कुरूपता। शायद तुम फिर
कभी क्रोध न कर पाओ।
फिर कभी
करुणा का भाव जगाकर भी देखना, क्योंकि
क्रोध के विपरीत है करुणा। तब तुम अचानक पाओगे कि तुम्हारे चेहरे में बुद्धत्व उभर
आता है। तुम्हारे चेहरे में छिपा हुआ बुद्ध प्रगट होने लगता है। तुम्हारे चेहरे
में कुछ एक अपूर्व प्रसाद 'भी छिपा है। जैसा पशु छिपा है, वैसा परमात्मा भी
छिपा है। जब तुम करुणा भरकर खड़े होओगे, तब तुम अचानक अपने
भीतर परमात्मा को प्रगट होते पाओगे। उसकी तम्हें जरा भी झलक मिल जाए तो तुम्हारे
जीवन में क्रांति सुनिश्चित है।
बुद्ध ने
कहा, तेरे क्रोध के कारण। यह
अत्यंत क्रोध का फल है और इसीलिए देख कि करुणा से अपने आप दूर हो चला।
तू इन
दीन—दरिद्र भिक्षुओं के लिए, भिखारियों
के लिए, घर—विहीन अनागरिकों के लिए इतनी आतुरता से छप्पर डाल
रही है, मकान बना रही है, इस करुणा के
कारण यह रोग अपने से दूर हो गया है। क्रोध के कारण पैदा हुआ था, करुणा के कारण दूर हो गया। क्रोध के कारण जो बीमारी है, करुणा उसका इलाज है। हिंसा के कारण जो बीमारी है, प्रेम
उसका इलाज है। अहंकार के कारण जो बीमारी है, विनम्रता उसका
इलाज है।
लेकिन, बुद्ध ने कहा, पूरा दुख दूर
नहीं हुआ। क्योंकि करुणा तेरी अभी जाग्रत करुणा नहीं। ऐसा तूने किया, लेकिन सोए——सोए किया। अभी इसमें भी थोड़ा अहंकार बचा है। थोड़ा सा अहंकार कि
देखो, कितना बड़ा काम कर रही हूं। कोई नहीं कर सका कपिलवस्तु में,
वह मैं कर रही हूं। अभी इसमें एक शुभ अहंकार, जिसको
कृष्णमूर्ति कहते हैं—पायस इगोइजम, एक पवित्र अहंकार। पर
अहंकार तो अहंकार है, चाहे कितना ही पवित्र हो। जहर तो जहर
है, चाहे कितना ही शुद्ध हो। अर्सालेयत तो बात यह है कि
जितना शुद्ध हो उतना ही खतरनाक होगा। अशुद्ध जहर में उतना खतरा नहीं है।
मुल्ला
नसरुद्दीन मरना चाहता था। जहर लाकर पीकर सो गया। सुबह बड़ा हैरान हुआ जब दूध वाले
की आवाज सुनायी पड़ने लगी, उसने कहा, हइ हो गयी, क्या यहौ. मरकर भी दूध वाले आते हैं! और
जब उसका बेटा बस्ता लिए उसके पास से निकला, उसने धीरे से आंख
खोलकर देखी; उसने कहा, हद्द हो गयी,
क्या यह बेटा भी मेरे साथ ही आ गया और स्कूल जा रहा है! और जब उसने
पत्नी की आवाज सुनी तब तो वह चौंककर बैठ गया, उसने कहा,
यह नहीं हो सकता! क्योंकि जिससे बचने को मैं मर रहा था, अगर वह भी साथ आ गयी तो मरने का फायदा क्या! आंख खोलकर सब देखा तो अपना ही
कमरा है। बड़ा नाराज हुआ, भागा गया दुकानदार के पास जिससे
खरीदकर लाया था, कि क्या मामला है?
दुकानदार
ने कहा, साहब, अब क्या करें? हर चीज में मिलावट है। शुद्ध जहर आजकल
मिलता कहां है! यह कलियुग चल रहा है। सतयुग की छोड़ो, बड़े
मिया। शुद्ध चीज मिलती कहां है!
अशुद्ध
जहर उतना खतरनाक नहीं है। शुद्ध जहर की मात्रा थोड़ी भी होगी तो बहुत खतरनाक हौ
जाएगी। यद्यपि जहर इतना शुद्ध है कि अब शरीर पर उसके परिणाम नहीं पड़ रहे हैं, क्योंकि शरीर पर तो अशुद्ध चीज के परिणाम ज्यादा पड़ते
ऐएं। इसलिए तुम फर्क देखना, एक असात्विक अहंकारी का रोग शरीर
पर प्रगट होने लगेगा, और सात्विक अहंकारी का रोग शरीर पर
प्रगट नहीं होगा। उसको अगर देखना है तो तुम्हें जरा गहरी आंखों से खोका होगा। वह
भीतर होगा, बड़ा सूक्ष्म होगा। संसारी का अहंकार कोई भी पकड़
ले, संन्यासी का अहंकार पकड़ने के लिए आखें चाहिए। भोगी का
अहंकार कोइ भी पकड़ ले, त्यागी का अहंकार पकड़ने के लिए आखें
चाहिए।
बुद्ध ने
कहा कि देख, करुणा से लाभ तो हुआ,
लेकिन अभी करुणा तेरी सोयी—सोयी, मूर्च्छित है,
इसे जगा। जागकर कर, जो तू कर रही है। तेरा
अहंकार सूक्ष्म होकर मौजूद है। अब इसे भी जाने दे। और तब उन्होंने ये गाथाएं कहीं—
कोधं जहे
विप्पजहेय्य मानं सज्जोजनं सबमतिक्कमेथ्य।
तं नामरूपम्मि
असज्जमानं अकिज्वनं नानुपातन्ति दुक्खा।।
यो वे उप्पतितं कोधं
रथं भत्तं’ व धारयो।
तमहं सारथि ब्रूमि
रम्मिग्गाहो इतरो जनो।।
अक्कोधेन जिने कोधं असाधुं
साधुना जिने।
जिने कदरियं दानेन
सच्चेन अलिकवादिन।।
सच्चं भणे न
कुच्झेय्य दज्जाप्पम्मिम्पि याचितो।
एतेह तीहि ठानेहि
गच्छे देवान— सन्तिके।
'क्रोध को छोड़े; अभिमान को त्याग दे सारे संयोजनों के
पार हो जाए। इस तरह नाम—रूप में आसक्त न होने वाले तथा अकिंचन पुरुष को दुख संतप्त
नहीं करते। ''जो चढ़े हुए क्रोध को भटक गए रथ की भाति रोक
लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूं; दूसरे
तो केवल लगाम थामने वाले हैं।
अक्रोध
से क्रोध को जीते। असाधु को साधु से जीते। कृपण को दान से जीते। और झूठ बोलने वाले
को सत्य से जीते।
'सच बोले। क्रोध न करे। मांगने पर थोड़ा भी अवश्य दे। इन तीन बातों से
मनुष्य देवताओं के पास पहुंचता है!
ऐसी
सूत्र में गाथाएं बुद्ध ने रोहिणी को कहीं। इनमें कुछ शब्द बड़े महत्वपूर्ण है, उनको अलग खयाल में ले लें।
'क्रोध को छोड़े अभिमान को त्याग दे; सारे संयोजनों के
पार हो जाए।
सारे
संयोजनों के पार हो जाए। कल के लिए आयोजन बनाकर न जीए। सहज जीए। जो होगा कल, होगा। जैसा होगा वैसा होगा। हम तो मौजूद होंगे तो जो
बन सकेगा कल, कल कर लेंगे। संयोजन न बनाए।
अहंकार
बड़ी योजनाएं बनाता है। अहंकार कल के लिए बडे सेतु बनाता है। अहंकार कल में ही जीता
है। इसलिए जी ही नहीं पाता। कल और परसों, न केवल इस संसार में, बल्कि परलोक में भी विचार रखता
है कि कैसा—कैसा इंतजाम करना है। क्या पुण्य करूं, क्या न
करूं, ताकि परलोक में भी जगह परमात्मा के मकान के बिलकुल बगल
में मिले। यह जो संयोजन है, यह जो प्लानिंग है, इसको बुद्ध कहते हैं, यह बंधन छै। सहज होकर जीए।
तुम्हारे
सारे संयोजन काल्पनिक हैं। लियो तालस्ताय की मैं एक कहानी पढ़ रहा था। एक गरीब आदमी
एक बगीचे में' ककडिया चुराने घुसा। खूब
ककडियां लगी थी। अभी ककडिया उसने तोड़ी नहीं थीं, लेकिन
ककड़ियों को देखकर उसका मन बड़ी कल्पनाओं से भर गया। उसने कहा कि आज तो गजब हो गया!
सारी ककडिया ले जाऊंगा। बेचकर जो पैसा आएगा उससे मुर्गिया खरीद लूंगा। अंडे
बेचूंगा। अंडों से जो पैसे मिलेंगे तो एक भैंस खरीद लूंगा। फिर दूध बेचूंगा,
फिर दही बेचूंगा, फिर घी बेचूंगा, फिर पैसे आते जाएंगे, तो मैं भी इससे अगर दस गुना
बगीचा लगाकर न दिखलाया तो मेरा नाम मेरा नाम नहीं। ककडिया ही ककडियां पैदा करूंगा।
और यह
ध्यान रखना, उसके मन में खयाल आया कि
जिस तरह मैं चोरी करने आया हूं र कोई अगर चोरी करने आ गया तो? तो उसने कहा, ध्यान रखना, इस
तरह का मेरे बगीचे में न चलेगा। अब वह सोचने लगा जोर—जोर से कि यह भी हो सकता है,
चोरी हो जाए। उसने कहा, इस तरह मेरे बगीचे में
न चलेगा, एक पहरेदार रख दूंगा। और रख ही नहीं दूंगा पहरेदार,
क्योकि पहरेदारों का आजकल क्या भरोसा, खुद ही
मिल जाएं चोरों से, तो बीच—बीच में जाकर चिल्लाकर आवाज देता
रहूंगा—सावधान, होशियार रहना। इतने जोर से निकल गयी यह
बात—सावधान, होशियार रहना—कि वह माली आ गया भागकर, यह पकड़े गए बुरी तरह। ककड़ी अभी तोड़ी भी न थी! संयोजन बहुत कर लिया। संयोजन
जरूरत से ज्यादा हो गया। संयोजन में जीता है संसारी मन। संयोजन के. बिना जीता है
संन्यासी मन। संन्यास यानी सहज होकर जीना।
'जो चढ़े हुए क्रोध को भटक गए रथ की भांति रोक लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूं। '
बुद्ध
कहते हैं, क्रोध न आया, क्रोध की परिस्थिति न बनी और तुमने क्रोध न किया, यह
थोड़े ही कोई गुण है। किसी ने गाली न दी तो तुमने क्रोध न किया, किसी ने बुरा— भला न कहा तो तुमने क्रोध नहीं किया, तो
यह थोड़े ही कोई गुण है।
'चढ़े हुए क्रोध को जो भटक
गए रथ की भांति रोक लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूं। '
किसी ने
गाली दी और तुमने क्रोध न किया, किसी
ने जूता फेंक दिया और तुमने क्रोध न किया...।
'जो चढ़े हुए क्रोध को भटक गए रथ की भांति —रोक लेता है, उसी को मैं सारथी कहता हूं दूसरे तो केवल लगाम थामने वाले हैं। '
कभी—कभी
ऐसा होता है न, तुम्हारा छोटा बेटा भी रथ
में बैठा हो और लगाम थाम लेता है। अब रथ तो चले गए, कभी—कभी
तुम्हारी कार में बैठो हो, तो स्टीयर्रिग व्हील सम्हाल लेता
है। हालाकि तुम बिलकुल नहीं छोड़ देते, तुम पकड़े रहते हो,
हिसाब रखते हो, मगर वह थामकर बड़ा मजा लेने
लगता है। मगर वह सिर्फ लगाम थामने वाला है। अड़चन आ जाएगी तो उससे कुछ गाड़ी सम्हलने
वाली नहीं है। सम्हालनी तुम्हें ही पड़ेगी। वह कोई सारथी नहीं है।
तो बुद्ध
कहते हैं, 'क्रोध को अक्रोध से जीते,
असाधु को साधु से जीते। '
हमारे
भीतर क्रोध पड़ा है, उसे अक्रोध से जीतना है।
और हमारे भीतर असाधु पड़ा है, उसे साधु से जीतना है। और हमारे
भीतर कृपणता पड़ी है, उसे दान से जीतना है। और हमारे भीतर झूठ
पड़ा है, उसे सच से जीतना है।
ऐसा जो
करने में सफल हो जाए, वह मनुष्य देवताओं के पास
पहुंच जाता है। वह मनुष्य देवता हो जाता है। उस मनुष्य के भीतर भगवत्ता प्रगट होने
लगती है।
दूसरी कथा—
राजगृह के
श्रेष्ठी की पूर्णा नामक एक दासी थी। एक रात वह धान कूटती हुई पसीने से भीगकर बाहर
आकर खड़ी हो गयी। आधी रात थकी—मांदी अपने प्रेमी की प्रतीक्षा कर रही थी प्रेमी को
आता न देख बड़ी दुखी भी होने लगी। थकी—मांदी भी थी और कामातुर भी। प्रेमी को आता न
देख स्वाभाविक था कि उसके मन में दुख पैदा हो? दिनभर धान कूटती रही इसी आशा में कि रात प्रेमी आएगा।
चिंता के कारण सो भी न सकती थी। दो—चार बार बिस्तर पर भी गयी फिर लौट—लौट बाहर आ
गयी कि कहीं ऐसा न हो कि मैं नीदं में सो जाऊं और प्रेमी आए और द्वार पर दस्तक दे
और मुझे सुनायी भी न पड़े थकी — मांदी इतनी हूं कि अगर डूब गयी नीदं में तो दस्तक
सुनायी न पड़ेगी तो बार— बार लौटकर बाहर आ जाती है।
तभी उसने देखा कि पास के आम्रकुंज में जहां बुद्ध का निवास था जहां
बुद्ध ठहरे थे जहां बुद्ध का विहार चल रहा था और उनके हजारों भिक्षु ठहरे हुए थे
उसने देखा अनेक भिक्षु शांत बैठे हैं अनेक भिक्षु खड़े हैं अनेक भिक्षु चल—फिर रहे
हैं। उसे बड़ी हैरानी हुई। उसने सोचा इतनी रात गए ये भिक्षु यहां क्या कर रहे हैं? क्यों जाग रहे हैं? उसने सोचा
मैं तो धान कूटती हुई जागी हूं ये क्यों जाग रहे हैं? ये
क्या कूट रहे हैं? और उसने सोचा मैं तो अपने प्रेमी की
प्रतीक्षा करती जागी हूं ये किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं? फिर
हंसी और अपने आप ही बोली अरे सब भ्रष्ट हैं ढोंगी हैं पाखंडी हैं। ये भी अपने
प्रेमियों और प्रेयसियों की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। अन्यथा आधी रात को जागने का
क्या प्रयोजन है?
दूसरे दिन सुबह भगवान उसके द्वार पर भिक्षाटन के लिए गए। वह तो बहुत
चौकी। भगवान को वह इनकार करना चाहकर भी इनकार न कर सकी पाखंडियों का ही गुरु है तो
होना तो पाखंडी ही चाहिए। इनकार तो करना चाहती थी लेकिन सामने खड़े हुए इस शांतमुद्रा
व्यक्ति को इनकार कर भी न सकी तो उसने भगवान को किसी तरह भोजन कराया। भोजनोपरांत
भगवान ने उससे कहा पूर्णे क्यों तू मेरे भिक्षुओं की निंदा करती है? उसे तो भरोसा न आया क्योकि उसने यह बात किसी से कही न
थी? वह बोली भंते निंदा? मैं तो नहीं
करती मैने कब की निंदा? भगवान ने कहा रात की सोच रात तूने
क्या सोचा था?
पूर्णा बहुत शर्मिंदा हुई और फिर उसने सारी बात कह सुनायी शास्ता ने
उससे कहा ओं तू अपने दुख से नही सोयी थी मेरे भिक्षु अपने आनंद के कारण जागते थे? तू विचारों— विकारों के कारण नहीं सोती थी मेरे
भिक्षु ध्यान कर रहे थे निर्विचार के कारण नहीं सोते थे। नीदं और नीदं में भेद है
पूर्णे और जागरण और जागरण मे भी। यह नया जागना सीख पागल पुराना जागना कुछ बहुत
जागना नहीं है। सोए— सोए तो सब गंवाया ही गंवाया अब कुछ कमा भी ले। और तब उन्होंने
यह गाथा कही—
सदा जागरमानानं अहोरत्तानुसिक्सिनं।
निबानं अधिमुतानं अत्थं गच्छन्ति आसवा।।
'जो सदा जागरूक रहते हैं और दिन—रात सीखते रहते हैं तथा निर्वाण ही जिनका
एकमात्र उद्देश्य है, उनके ही आश्रव नष्ट होते हैं। '
पहले तो
इस कथा को ठीक से समझ लें।
पहली बात, हम दूसरों के संबंध में वही सोचते हैं जो हम अपने
संबंध में जानते हैं। स्वाभाविक भी है। और तो हमारे पास नापने का कोई' मापदंड भी नहीं। तो चोर सारे संसार को चोर की तरह देखता है। और साधु खोजता
भी है तो असाधु को नहीं खोज पाता। क्रोधी सारे संसार में क्रोधी ही देखता है और
बेईमान बेईमान ही देखता है। क्योंकि हम जो देखते हैं, वह
हमारे दृष्टिकोण का ही प्रतिफलन है।
ऐसा समझो
कि जैसे जगत तो दर्पण है, हम अपना ही चेहरा देख
लेते हैं। हर चेहरे में अपना ही चेहरा देख लेते हैं। दूसरे का चेहरा देखने की
कुशलता, दूसरे का चेहरा जैसा है वैसा देखने की कुशलता तो
केवल जागरूक पुरुषों में हो सकती है। सोए—सोए, नींद से भरे,
बेहोश हम देखना भी चाहें दूसरे का चेहरा तो हम देख नही सकते। हमारी
आखें धारणाओं से बंधी हैं। और हमारी आंखों पर बड़ा धुआ है।
अब यह
स्त्री अपने प्रेमी की कामातुर होकर प्रतीक्षा कर रही है। यह जानती है कि आधी रात
जागने का क्या कारण है। ये भिक्षु क्यों जाग रहे हैं? इसे तो कभी सपने में भी खयाल न आया होगा कि जागने का
कोई और कारण भी हो सकता है। ये क्यों जाग रहे हैं? ये भी
जरूर मेरी तरह किसी उलझन में पड़े हैं, सो नहीं पा रहे,
इनको भी कोई चिंता पकड़े हुए है। कोई बेचैनी इनके ऊपर भी सवार है।
कोई भूत इन्हें भी सता रहा है, जैसे मुझे सता रहा है। तो
सोचा उसने, ये सब पाखंडी, अरे ढोंगी,
भ्रष्ट!
खयाल
रखना, जब तुम दूसरे के संबंध
में कोई निर्णय लो तो तुम अपने संबंध में खबर देते हो। तुम जो निर्णय दूसरे के
संबंध में लेते हो, वह दूसरे के संबंध में सही हो न हो,
तुम्हारे संबंध में निश्चित ही सही होता है। दूसरे के संबंध में निर्णय
लेने से सावधान रहना। लेना ही मत।
इसलिए
जीसस ने कहा, जज यी नाट, दूसरे के संबंध में न्यायाधीश ही' मत बनो। तुम हो
कौन! दूसरे के भीतर क्या घट रहा है, तुम्हें कहौ पता!
तुम्हें अपने भीतर क्या घट रहा है, इसका भी पता नहीं चलता
है। तुम अपने ही भीतर नहीं गए, तुम दूसरों के भीतर जाने की
बात ही मत सोचो।
मगर यह
होता है। जहां हम हैं, उससे ऊपर हम किसी को मान
नहीं सकते। इससे अहंकार को बड़ी चोट लगती है। यह पूर्णा दासी है, यह कैसे मान सकती है कि इससे ऊपर भी कोई मनुष्य का रूप हो सकता है। आधी
रात को लोग ध्यान भी करने के लिए जाग सकते हैं, यह तो बात ही
उठती नहीं। ध्यान करने! ध्यान तो उसने कभी किया नहीं। यह ध्यान शब्द तो कोरा है,
इसमें तो कुछ अर्थ नहीं।
यहां लोग
आ जाते हैं, वे लोगों को यहां ध्यान
करते देखते हैं संन्यासियों को, उन्हें भरोसा नहीं आता। वे
सोचते हैं, ये सब पागल हो गए। स्वाभाविक। पागल ही हो गए
होंगे, क्योंकि उन्होंने तो ऐसा कभी किया नहीं। एक बात पक्की
है कि वे जानते हैं, ऐसा वे तभी करेंगे जब पागल हो जाएंगे,
इसलिए वे सोचते हैं कि ये पागल हो गए हैं। इस निर्णय में वे अपने
संबंध में सूचना दे रहे हैं। यह तो वे मान ही नहीं सकते कि लोग किसी आनंद में
डूबकर रसलीन होकर नाच रहे हैं। वे तो यही मान सकते हैं कि किसी ने सम्मोहित कर
लिया होगा, हिम्मोटाइज कर दिया होगा। बेचारे! उनको बड़ी दया
आती है।
फिर वे
यह भी नहीं मान सकते कि मनुष्य उनसे ऊपर जा सकता है, कोई भी मनुष्य उनके ऊपर जा सकता है। इसलिए जब भी उनको खबर मिलती है,
कोई मनुष्य ऊपर गया, वे तत्सण उसकी निंदा में
तत्पर हो जाते हैं। निंदा के द्वारा वे अपने उरहंकार की सुरक्षा करते हैं। निंदा
के द्वारा वे उस मनुष्य को नीचे ले आते हैं। अपने से जब तक नीचे न ले आएं, तब तक उन्हें चैन नहीं, बेचैनी रहती है। कोई उनसे
आगे निकल गया! यह तो बर्दाश्त के बाहर है। वे ही श्रेष्ठतम हैं, दूसरे उनसे निकृष्ट ही हो सकते हैं, उनसे पीछे ही हो
सकते हैं।
तो यह
दासी सोचने लगी, सब पाखंडी, सब ढोंगी। ये रात जागकर क्या कर रहे हैं?
दूसरे
दिन भगवान ने उसके द्वार पर भिक्षाटन के लिए आकर आवाज दी। तो त्वह बहुत हैरान हुई।
रात ही तो उसने सोचा था और यह पाखंडियों का गुरु दरवाजे पर खड़ा है! इनकार करना भी
चाहा, लेकिन इनकार न कर सकी।
कभी ऐसे क्षण आते हैं जीवन में जब तुम्हारे अहंकार से निकली हुई आवाज किसी के
व्यक्तित्व के प्रभाव में क्षीण पड़ जाती है, दब जाती है,
टूट जाती है। चाहती तो यह यही थी कहना कि हट जाओ, कहीं और जाओ, कहीं और मांगो, मैं
इस पाखंड में सम्मिलित नहीं होना चाहती। मैं क्यों दूं? मगर
बुद्ध की मौजूदगी, उनका वह सौम्य रूप, उनका
वह समत्व, उनका वह प्रसाद, उनके चारों
तरफ बरसती हुई करुणा, वह अपने बावजूद देने को मजबूर हो गयी।
उसने सोचा कि दे ही दो। चुपचाप विदा कर दो, कौन झंझट करे!
कहीं—कहीं उसे लगने लगा कि शायद आदमी ठीक हो ही।
उसी
व्यक्ति को तुम गुरु जानना, जो तुम्हारे बावजूद
तुम्हें ठीक लगने लगे। गुरु का इतना ही अर्थ होता है कि तुम तो इनकार ही करना
चाहते थे, लेकिन इनकार कर न पाए। तुम्हारा पूरा मन कहता था
कि भागो यहां से, यह भी कहां की बातों में पड़ गए हो, लेकिन फिर किसी चीज ने अटका लिया। उलझ गए, रुक गए।
भागना चाहकर न भाग सके। ऐसा कोई व्यक्ति मिल जाए तो जानना कि गुरु मिल गया है,
जिससे भागकर भी न भाग सके। जिससे छुड़ाने की अपने को सब चेष्टा की और
सब चेष्टा व्यर्थ हो गयी। जिसके विरोध में सब सोचा, लेकिन
कुछ काम न आया। सब सोचा—विचारा टूट—टूट गया और जिसकी धारा तुम्हें खींचती ही गयी,
बुलाती ही गयी। जिसकी आवाज तुम्हारे भीतर के कोलाहल को पार करके
तुम्हारे भीतर आतरिक केंद्र तक पहुंचने लगी। तुम्हारे कोलाहल को पार करके भी जिसका
स्वर—संगीत सुनायी पड़ने लगा—यद्यपि कठिनाई से, क्योंकि
कोलाहल है, लेकिन जिसका संगीत सुनने को मजबूर होना पड़ा।
जिसके चरणों में तुम अपने बावजूद झुके, वही गुरु है।
जिसके
चरणों में तुम सरलता से झुक गए, तुम्हें
कोई अड़चन न आयी, वह कोई गुरु नहीं है। वह तुम्हारी मान्यताओं
का परिपोषक होगा। वह तुम्हारी धारणाओं का परिपोषक होगा। वह पुजारी होगा, पंडित होगा, लेकिन गुरु नहीं। तुम जैसा मानते थे
वैसा ही वह भी मानता है, तो तुम झुक गए। तुमसे ज्यादा जानता
है, लेकिन तुमसे ज्यादा उसका अस्तित्व नहीं है। शास्त्र उसने
ज्यादा पढ़े हैं, तर्क ज्यादा है, बुद्धिमान
ज्यादा है, मगर है वहीं जहां तुम हो और तुम जैसा ही है।
मुसलमान
मौलवी के सामने झुक जाता है। हिंदू ब्राह्मण के सामने झुक जाता है। जैन जैन—मुनि
के सामने झुक जाता है। यह झुकना कोई गुरु का पा लेना नहीं है। गुरु की तो पहचान ही
यही है, जिसके सामने तुम्हें अपने
बावजूद झुकना पड़े। तुम नहीं झुकना चाहते थे, लेकिन अवश,
कोई झुका गया। एक झोंका आया और तुम्हें झुक जाना पड़ा।
पूर्णा
ने किसी तरह भोजन कराया। भोजनोपरात भगवान ने उससे कहा, तें, क्यों तू मेरे भिक्षुओं की
निंदा करती है? वह बोली, भंते, मैं और निंदा! नहीं—नहीं, कभी नहीं। मैं क्यों निंदा
करूंगी? भगवान ने कहा, रात की सोच। रात
तूने क्या सोचा था? पूर्णा शर्मिंदा हुई और फिर उसने सारी
बात कह सुनायी। शास्ता ने उससे कहा, पूर्णा, तू अपने दुख से नहीं सोती थी, मेरे भिक्षु आनंद के
कारण जागते थे। तुम्हें पता है कि कभी—कभी दुख की उत्तेजना में तुम नहीं सो पाते
और कभी—कभी आनंद की उत्तेजना—अगर तुम्हारे जीवन में एकाध क्षण भी ऐसा आया है कि जब
तुम आनंदित थे, पुलकित थे, तो क्या
तुमने नहीं पाया है कि नींद असंभव हो गयी? जो आनंदित है,
वह सोना भूल जाएगा। जो दुखी है, वह सोना चाहे
भी तो भी सो न सकेगा; और जो आनंदित है, वह सोना भूल जाएगा।
इसलिए
संन्यासी की धीरे—धीरे नींद कम होती जाती है। कम करने को मैं नहीं कहता हूं। मैं
तुमसे कहता नहीं कि तुम नींद कम कर लेना। लेकिन संन्यासी की नींद धीरे—धीरे कम
होती जाती है। कृष्ण तो कहते हैं कि योगी जागता ही रहता है, जब सारा संसार सोया होता है। नींद की जरूरत धीरे—धीरे
कम हो जाती है। जैसे—जैसे तुम्हारे भीतर की चेतना जागरूक होने लगती है, वैसे—वैसे शरीर सो भी जाए तो भी तुम नहीं सोते हो। और आधी रात से बेहतर
समय ध्यान के लिए कोई हो नहीं सकता। क्योंकि संसार का कोलाहल हट गया, उपद्रवी सब सो गए, सब राजनीतिज्ञ गहरी नींद में पड़
गए, अब न कहीं कोई चुनाव चल रहा है, न
कहीं कोई उपद्रव है, न कोई शोर—शराबा है, कुछ भी नहीं है, सब सन्नाटा हो गया है। तो आधी रात
से ज्यादा सुंदर कोई क्षण नहीं है। यह पृथ्वी सो जाती है। पौधे सो जाते, पक्षी सो जाते। उस सन्नाटे में जागने की बड़ी सुविधा है।
तो कुछ
भिक्षुओं को उसने देखा बैठे हैं, लेकिन
जागे हुए हैं। कुछ धीरे—धीरे चल रहे हैं। कुछ खड़े हैं। ये क्या कर रहे हैं?
इनका दिमाग खराब हो गया? संसारी जागता है,
ठीक—चिंता, बेचैनी—इनको क्या हो रहा है?
अरे, सब भ्रष्ट हैं!
बुद्ध ने
उससे कहा, तू अपने दुख से नहीं सोती
थी, ये भिक्षु अपने आनंद के कारण जागते थे। तू विचारों में
डूबी थी, चिंताओं में, विकारों में,
ये ध्यान में डूबे थे। ध्यान में नींद कहो! नींद और नींद में भेद है,
पूर्णे।
जब
ध्यानी सोता है, तो भी सोता नहीं, और तुम तो जागते भी हो तो क्या खाक जागते हो।
और जागरण
और जागरण में भी भेद है, तें। अब तू नया जागरण
सीख।
आखिर
बुद्ध ने इतनी करुणा क्यों की इस स्त्री पर? ऐसा इसका कुछ पुण्य तो नहीं था। निंदा ही की थी न! प्रश्न उठेगा, क्यों बुद्ध इसके द्वार गए? क्या उस नगर में कोई और
द्वार न था? लेकिन तुम्हें एक मनोविज्ञान की बात स्मरण दिला
देनी जरूरी है, जिसके मन में निंदा उठी है, उससे संबंध जुड़ गया। जिसने इतना भी कहा है कि ये भिक्षु पाखंडी हैं,
उसने कुछ तो रस लिया। और जिसके मन में घृणा है, उसके मन में प्रेम पैदा किया जा सकता है। लेकिन जिनके मन में घृणा भी नहीं
है, उपेक्षा है, उनके मन में प्रेम कभी
पैदा नहीं किया जा सकता।
मैं भी
तीन तरह के लोगों को जानता हूं। एक, जिनके मन में मेरे प्रति प्रेम है, स्वभावत: उनको
बड़ा सहारा दिया जा सकता है। एक, जो मुझसे नाराज हैं, जिनके मन में मेरे प्रति विरोध है, घृणा है, उनको भी सम्हाला जा सकता है। और तीसरे वे, जिनको
उपेक्षा है। जिनको कुछ लेना—देना नहीं। उनके साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता।
बुद्ध का जाना सूचक है। इस स्त्री ने कम
से कम घृणा तो जाहिर की। इसने कुछ तो किया। अगर इसने उपेक्षा की होती तो बुद्ध ने
द्वार पर दस्तक न दी होती। इसने
इतना तो श्रम उठाया कि कहा कि सब पाखंडी।
जरूरी है कि इसको जाकर कहा जाए कि सब पाखंडी नहीं हैं। जरूरी है कि इसे जगाया जाए।
यह जाग सकती है।
एक यहूदी
फकीर ने किताब लिखी और जो यहूदियों का सबसे बड़ा धर्मगुरु था उसके पास भेजी। जिसके
हाथ भेजी, उससे कहा, एक बात खयाल रखना, वह जो भी कहे, खयाल रखना और आकर मुझे बता देना।
वह युवक
गया किताब लेकर। वह फकीर की किताब थी, फकीर से धर्मगुरु नाराज था—धर्मगुरु फकीरों से सदा नाराज रहे।
उस
धर्मगुरु ने जैसे ही देखा कि किताब फकीर की है, उसने उसे उठाकर दरवाजे के बाहर फेंक दिया। उसने कहा, हटाओ, इस किताब को भीतर मत लाओ, क्या मेरे घर को अपवित्र करना है त्र लेकिन उस धर्मगुरु की पत्नी ने कहा,
ऐसी भी क्या बात, हजारों किताबें अपने घर में
हैं, यह भी रखी रहती। और अगर फेंकना ही था तो इस आदमी के
जाने के बाद फेंक सकते थे। नहीं पढ़ना था तो नहीं पढ़ते, कितनी
किताबें पड़ी हैं जो तुमने कभी नहीं पढ़ी, यह फ़ई पड़ी रहती। मगर
ऐसा असदव्यवहार करने की क्या जरूरत?
उस युवक
ने यह सब बात सुनी, वह लौटा। फकीर को उसने
कहा कि धर्मगुरु ने तो किताब एकदम फेंक दी, एकदम आगबबूला हो
गया, मुझे ऐसा लगा कि मुझ पर हमला न कर बैठे, जैसे हाथ में अंगारा रख दिया हो। लेकिन उसकी पत्नी बड़ी भली है। उसने कहा
कि ऐसा न करो, किताब रख दो घर में, इतनी
किताबें हैं, न पढ़नी हो मत पढ़ना, कितनी
तो हैं जो तुमने कभी नहीं पढ़ी, और अगर फेंकना ही हो तो पीछे
फेंक देना, ऐसा असदव्यवहार क्यों करते हो?
वह फकीर
उस युवक से बोला, नासमझ, उस धर्मगुरु को तो मैं किसी न किसी दिन बदल लूंगा, लेकिन
उसकी पत्नी को बदलना असंभव है। उसकी पत्नी में उपेक्षा है। वह कहती है, पड़ी रहने दो, एक कोने में पड़ी रहेगी, क्या हर्जा है। इतनी किताबें पड़ी हैं, यह भी पड़ी
रहेगी। और फेंकना हो तो पीछे फेंक देना। इतनी गरमागरमी क्या! फकीर कहने लगा,
ध्यान रख, उस धर्मगुरु को तो मैं बदल लूंगा,
वह तो मेरे पीछे आज नहीं कल आ जाएगा—इतनी गरमागरमी है न! इतनी गरम
नाराजगी है! तो यही नाराजगी प्रेम भी बन सकती है। शत्रु मित्र बन सकता है, मित्र शत्रु बन सकते हैं। लेकिन जो तटस्थ हैं, वे न
तो मित्र बनते हैं न शत्रु बनते हैं।
बुद्ध
उसके द्वार पर इसलिए गए। और यह अपूर्व गाथा उन्होंने कही—
'जो सदा जागरूक रहते हैं और दिन—रात सीखते रहते हैं तथा निर्वाण ही जिनका
एकमात्र उद्देश्य है, उनके ही आश्रव नष्ट होते हैं। '
उनके ही
पाप नष्ट होते हैं, उनका ही अंधेरा टूटता है,
उनका ही अजान गिरता है।
'जो सदा जागरूक...। '
सदा जागरमानानं……..।
'और जो दिन—रात सीखते रहते हैं।
जिनका
शिष्यत्व पूर्ण है, जो सीखने में चूकते ही
नहीं, दिन हो कि रात, सुबह हो कि सांझ,
अपना हो कि पराया, शत्रु हो कि मित्र, कोई घृणा करे कि प्रेम, कोई गाली दे कि सम्मान,
जो सीखते ही रहते हैं, जो हर चीज को अपने लिए
शिक्षण में बदल लेने की कला जानते उसी का नाम तो शिष्य है। मैंने तुमसे कहा,
गुरु वह ?? सामने तुम्हें विवश, अपने बावजूद झुकना पड़े : और शिष्य वह जो हर स्थिति में सीख ले। ऐसी कोई
स्थिति न हो जिसमें वह कहे, इसमें सीखने को कुछ भी नहीं है।
ऐसी स्थिति होती ही नहीं। सभी स्थितियों में सीखा जा सकता है।
अहोरत्तानुसिक्सिनं।
दिन हो
कि रात, सफलता हो कि असफलता,
जय हो कि पराजय, जन्म हो कि मृत्यु—
अहोरतानुसिक्सिनं।
हर
स्थिति में जो सीखता रहे, जागा हुआ रहे।
'निर्वाण ही जिसका एकमात्र उद्देश्य है। '
जो किसी
भी तरह हो, शरीर और मन की सीमाओं से
मुक्त होकर आत्मा के विशाल आकाश में लीन हो जाना चाहता है, जो
अपनी बूंद को सागर में गिराने को रप्सुक है, ऐसा ही व्यक्ति
अंधेरे के पार जाता है।
और आखिरी सूत्र—प्यारी घटना है।
श्रावस्ती का
अतुल नामक एक व्यक्ति पांच सौ और व्यक्तियों के साथ भगवान के संघ में धर्मश्रवण के
लिए गया। वह क्रमश: स्थविर रेवत स्थविर सारिपुत्र और आयुष्मान आनंद के पास जा फिर
भगवान के पास पहुंचा।
ऐसी ही व्यवस्था थी। बुद्ध के जो बड़े शिष्य थे, पहले लोग उनको सुनें, समझें, कुछ थोड़ी पकड़ आ जाए, कुछ थोड़ा समझ आ जाए तो फिर
भगवान को वे जाकर पूछ लें।
भगवान से उसने कहा भंते मैं इतनी प्रबल आशा से धर्मश्रवण के लिए आया
धा, लेकिन रेवत स्थविर कुछ
बोले ही नहीं चुपचाप बैठे रहे। यह कोई बात हुई!। अकेला भी नहीं पांच सौ लोगों के
साथ आया था। हम दूर से यात्रा करके आए थे। बड़ा नाम सुना था रेवत का कि ज्ञान को उपलब्ध
हो गए हैं आपके बड़े शिष्य हैं। यह क्या बात हुई हम बैठे रहे और वे चुपचाप बैठे रहे
कुछ बोले नहीं? यह तो बात कुछ जंची नहीं।
फिर हम सारिपुत्र के पास गए। सारिपुत्र बोले
लेकिन इतना बोले कि सब हमारे सिर पर से बह गया जरूरत से ज्यादा बोल गए। और ऐसी
सूक्ष्म— सूक्ष्म बातें कहीं कि हमारी पकड़ में ही न आयीं। ऐसी हालत आ गयी कि बैठे—बैठे
ऊब आने लगी उबकाई आने लगी झपकी लग गयी कई बार तो सो भी गए। यह भी कोई बात हुई? भगवाना इतना बोलना चाहिए। इस तरह सूक्ष्मता की बातें
कहनी चाहिए! हमारी समझ में जो पड़े वह कहो और जितना समझ में पड़े उतना कहो। तुमने
इतना ज्यादा कह दिया कि जो थोड़ा— बहुत समझ में पड़ता वह भी बह गया तुम्हारे पूर
में। यह सारिपुत्र तो पूर की तरह मालूम होते हैं बाढ़ आ गयी। एक चुपचाप बैठे रहे
उनसे एक बूंद न मिली। एक सज्जन थे कि ऐसे बरसे मूसलाधार कि कुछ हाथ न लगा!
और फिर हम उन्हें सुनने के बाद आनंद स्थविर के पास गए। उन्होंने बहुत
थोड़ा कहा। अत्यंत सूत्ररूप जो कुछ पकड़ में आया नहीं। यह भी कुछ बात हुई? भगवान! अरे कुछ फैलाकर कहो
समझाकर कहो कुछ दृष्टांत से कहो कुछ दोहराकर कहो कि हमारी समझ में पड़ जाए सूत्ररूप
दोहरा दिया। तो सूत्र तो बड़े कठिन हैं—बीजरूप हमारी पकड़ में न आए। अब हम आपके पास
आए हैं। हम तो उनके पास से क्रुद्ध होकर लौटे हैं।
भगवान ने अतुल की बात सुनी हैसे और बोले अतुल यह प्राचीन समय से होता
आ रहा है। मौन रड़ने वाले की भी निंदा होती है बहुभाषी की भी निंदा होती है
अल्पभाषी की भी निंदा होती है। संसार में निंदा नियम है। प्रशंसा तो लोग मजबूरी
में करते हैं। असली रस तो निंदा में ही पाते हैं। प्रशंसा भी लोग निंदा के आयोजन
में ही करते हैं। पृथ्वी सूर्य और चंद्र तक की निंदा करते हैं किसी की निंदा करने
से नहीं चूकते। मेरी ही देखो कितनी निंदा चलती है भगवान ने कहा। लेकिन मूड क्या
कहते हैं यह विचारणीय नहीं है। और तब उन्होंने यह गाथा कही—
पोराणमेतं अतुल! नेतं अज्जनामिव।
निन्दन्ति तुम्हीमासीनं निन्दन्ति बहुमाणिनं।
मितभाणिनम्पि निन्दन्ति नत्थि लोके अनिन्दितो।।
'हे अतुल, यह पुरानी बात है, यह
कोई आज की नहीं, कि लोग चुप बैठे की निंदा करते हैं, बहुत बोलने वाले की निंदा करते हैं, मितभाषी की भी
निंदा करते हैं; लोक में अनिदित कोई भी नहीं है। '
आदमी बड़ा
अजीब है। आदमी निंदा के रस में बड़ा डूबा है। तुम कोई न कोई बहाना निंदा करने का
खोज ही लोगे। अब कोई चुप बैठा है तो निंदा। क्योंकि बोलते क्यों नहीं? कोई बोल रहा है तो निंदा। क्योंकि ज्यादा बोल रहा है।
कोई अल्प बोल रहा है तो निंदा। क्योंकि समझाकर नहीं बोल रहा है।
तुमने
कहानी सुनी? एक आदमी अपनी पत्नी के
साथ अपने गधे को लेकर कहीं जा रहा था। राह में कुछ लोग मिले। दोनों पैदल चल रहे थे,
क्योंकि दो गधे थे नहीं, एक गधा था। और गधा
कमजोर था और दो को सम्हाल नहीं सकता था। उन आदमियों ने कहा, हइ
के मूरख मालूम होते हो, गधे को किसलिए लिए हो, और बैठते क्यों नहीं! यह गधे को काहे के लिए चल रहे हो? यात्रा पर जा रहे हो, गधे पर बैठो। तो उस आदमी ने
कहा कि म्लू बनने से तो यही बेहतर है, गधे पर बैठ जाएं;
तो वह गधे पर बैठ गया, पत्नी उसकी नीचे
साथ—साथ चलने लगी।
दूसरी
भीड़ मिली, उन्होंने कहा, हइ हो गयी, यह मूरख देखो, पत्नी
को चलवा रहा है पैदल, खुद गधे पर बैठे हैं! अरे मर्द बच्चा
होकर चलता नहीं है नीचे! स्त्री को ऊपर बिठा! उसने कहा, यह
बात भी ठीक है। तो वह नीचे चलने लगा, स्त्री को ऊपर बिठा
दिया।
फिर कुछ
लोग मिले, उन्होंने कहा, यह देखो मजा! आ गया कलियुग, स्त्री गधे पर बैठी है,
पति नीचे चल रहा है! अरे, पति परमात्मा है! तो
उन्होंने कहा, अब क्या करना, बड़ी
मुसीबत; तो कहा, दोनों ही बैठ जाओ। तो
दोनों गधे पर बैठ गए। थोड़ी देर बाद फिर लोग मिले, उन्होंने
कहा। देखो मार डालोगे गधे को; तुम गधे मालूम होते हो,
गधे की जान निकली जा रही है, कमर झुकी जा रही
है, दो—दो चढ़े बैठे हो! शरम नहीं आती? आखिर
पशुओं में भी प्राण हैं!
तो
उन्होंने कहा, अब क्या, करना क्या! तो उन्होंने कहा, अब एक ही उपाय बचा है
कि हम गधे को लेकर चलें, क्योंकि और तो सब उपाय कर देखे। तो
एक रस्सी में गधे को बांधकर, उसकी टागों में रस्सी डालकर,
डंडा पिरोकर कंधे पर रखकर दोनों चले।
थोड़ी दूर गए थे कि फिर लोग मिल गए।
उन्होंने कहा, यह क्या कर रहे हो?
होश है? हमने आदमी देखे गधे पर चढ़े, मगर गधा आदमी पर चढ़ा नहीं देखा, तुम कर क्या रहे हो?
यह
पुरानी पंचतंत्र की कथा है। मगर सार्थक है। ऐसी ही दशा है। यहां अगर तुम लोगों की
मानकर चलते रहो तो तुम जीवन में कभी भी थिर न हो सकोगे। चुप हुए तो लोग निंदा
करेंगे, बोले तो निंदा करेंगे।
कुछ भी करो, लोग निंदा करेंगे। इस सूत्र का अर्थ क्या है?
इस सूत्र का अर्थ है कि निंदा का रस जिसको लेना है वह कारण खोज
लेगा। इसलिए तुम निंदा करने वालों की चिंता मत करना।
इसलिए
बुद्ध कहते है, मूढ़ क्या कहते हैं,
इस पर ध्यान देने की जरूरत भी नहीं
है। मूढ़ तो मूढ़ता की बातें कहते रहेंगे।
तुम तो वही करना जो तुम्हारी प्रज्ञा तुम्हें करने को कहे। तुम्हें अगर चुप बैठना
ठीक लगे तो चुप रहना, चाहे लोग कुछ भी कहें।
तुम्हें बोलना ठीक लगे तो बोलना, चाहे लोग कुछ भी कहें।
तुम्हें अल्पभाषण ठीक लगे तो अल्पभाषण करना, और तुम्हें धारा
बहानी हो बाहर की तो धारा बहाना। तुम लोगों की चिंता मत लेना कि लोग क्या कहते
हैं।
तुम अपने
जीवन के मालिक हो। तुम अपने जीवन को अपने ढंग से जीना। तुम तुम हो, और तुम इसकी फिकर मत करना कि लोगों का मत क्या है। मत
की फिकर की, तो तुम्हें वे पागल बनाकर छोड़ेंगे।
जिसने
लोगों के मत की फिकर की, वह दो कौड़ी का होकर मरता
है। लोगों के मतों की फिकर ही मत करना। तुम अपने भीतर की शांति से, अपने भीतर के आनंद से अपने भीतर के बोध से जीना। जो तुम्हें ठीक लगता हो,
उसे करना। और उसे रोज—रोज बदलना भी मत।
अगर
बदलना भी कभी पड़े तो अपने ही भीतर के बीध से बदलना, लोगों के बोध के कारण नहीं। लोग क्या कहते हैं, इस
चिंता में मत पड़ना। तो ही तुम कहीं पहुंच पाओगे। नहीं तो तुम कहीं भी न पहुंच
पाओगे।
तुम
दक्षिण गए, लोग कहेंगे, कहां जा रहे हो, दक्षिण में क्या रखा है? तुम उत्तर गए, लोग मिल जाएंगे, कहेंगे, उत्तर में क्या रखा है, कहां जा रहे हो? तुम पश्चिम जाओ तो लोग मिल जाएंगे,
पूरब जाओ तो लोग मिल जाएंगे। सब दिशाओं में लोग हैं, और सब दिशाओं के पक्षपाती और सब दिशाओं के खिलाफ कोई न कोई मिल जाएगा।
तुम्हें कुछ भी न करने देंगे लोग।
तुम्हें
अगर जीवन में कुछ पाना हो, कोई सिद्धि, कोई उपलब्धि, अगर जीवन के रस से तुम्हें कुछ निचोड़ना
हो, कोई सुगंध, तो तुम अपनी धुन में
रमे रहना। एक बात इस सूत्र से निकलती है।
और दूसरी बात—कि दूसरे क्या कर रहे हैं, इसका तुम निर्णय मत करना। तुम इस निंदा में मत पड़ना
कि वे ठीक कर रहे हैं कि गलत कर रहे हैं, कौन जाने! वे जानें,
उनका जानें। न तो तुम दूसरों को बाधा देने देना अपने काम में,
और न दूसरों के काम में बाधा देना। दुनिया काफी सुंदर हौ सकती है,
अगर लोग एक—दूसरे के कामों में बाधा न दें, मंतव्य
न दें, निर्णय न दें।
प्रत्येक
व्यक्ति को स्वयं होने का अधिकार है। और प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जीवन—दिशा खोजने
का जन्मसिद्ध अधिकार है। होना चाहिए।
तुम
दोनों बातों का स्मरण रखना। न तो दूसरे पर बाधा देना कि तुम क्या कर रहे हो, कैसा कर रहे हो, तुम्हें ऐसा
नहीं करना चाहिए—तुम किसी के नियंता नहीं हो, मालिक नहीं हो।
उसे अपने ढंग से जीने दो, उसे परमात्मा को अपने ढंग से खोजने
दो। और न तुम किसी को अपना मालिक बनाना। कोई तुम्हारा मालिक नहीं है।
इस प्ररम स्वतंत्रता में जो जीता है, वही एक दिन अपने भीतर के दीए को खोज
पाता है, जला पाता है।
उसी को बुद्ध ने कहा है—अप्प दीपो भव, अपने दीए बनो।
आज इतना ही।
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