साक्षी की साधना-(साधाना-शिविर)
ओशो
सातवां प्रवचन
बहुत से प्रश्न मेरे समक्ष हैं। सबसे पहले तो यह
पूछा गया है कि मेरी बातें अव्यावहारिक मालूम होती हैं। ठीक प्रतीत होती हैं, लेकिन अव्यावहारिक मालूम होती हैं।
यह ठीक से समझ लेना जरूरी है--मनुष्य के इतिहास में जो-जो हमें अव्यावहारिक
मालूम पड़ा है, वही कल्याणप्रद सिद्ध हुआ है। और जिसे हम व्यावहारिक
समझते हैं, उसने ही हमें आश्चर्यजनक रूप से दुख में, हिंसा में और पीड़ा में डाला है। निश्चित ही जो आप कर रहे हैं वह आपको
व्यावहारिक मालूम होता होगा, प्रेक्टिकल मालूम होता होगा,
लेकिन उसका परिणाम क्या है आपके जीवन में? व्यावहारिक
जो आपको मालूम पड़ता है, आप कर रहे हैं, लेकिन उसका परिणाम क्या है? उसका परिणाम तो सिवाय
दुख और चिंता के कुछ भी नहीं। निश्चित ही उससे भिन्न कोई भी बात एकदम से
अव्यावहारिक मालूम होगी। इसलिए नहीं कि वह अव्यावहारिक है, बल्कि
इसलिए कि जिसे आप व्यावहारिक समझते रहे हैं, वह उससे भिन्न
और विपरीत है, अपरिचित है।
और कोई भी अज्ञात जीवन-दिशा में
प्रवेश करने के पूर्व परिचित भूमि छोड़नी पड़ती है। जिस परिचित को हम जानते हैं,
ज्ञात और नोन, उसको छोड़ना पड़ता है तो ही
अज्ञात में प्रवेश होता है। निश्चित ही थोड़ा अव्यावहारिक होने को कभी न कभी तैयार
होना चाहिए।
जैसे उदाहरण को यह बात बिलकुल ही व्यावहारिक मालूम होती है कि कोई
मुझे गाली दे, तो मैं दुगुने वजन की गाली उसे दूं। यह बात
व्याावहारिक मालूम होती है, कोई मुझे ईंट मारे, तो मैं पत्थर से जवाब दूं। क्राइस्ट ने जब लोगों को कहा कि तुम अपना बायां
गाल भी उनके सामने कर देना जो दाएं पर चोट करे, तो बात
बिलकुल अव्यावहारिक लगेगी।
लेकिन ईंट के जवाब में पत्थर से मारना, इस अव्यावहारिक बात
पर ही तीन हजार वर्ष में साढ़े चार हजार युद्ध हुए हैं। तीन हजार वर्षों के
मनुष्य-जाति के इतिहास में साढ़े चार हजार युद्ध इस व्यावहारिक बात पर हुए हैं कि
तुम ईंट का जवाब पत्थर से देना और जो तुम्हारी एक आंख फोड़े, तुम
दोनों फोड़ देना। सोचें थोड़ा सा, अगर तीन हजार वर्षों में
साढ़े चार हजार बार मनुष्य-जाति पागल हो जाती हो, इस मनुष्य-जाति
की व्यावहारिकता में कुछ न कुछ बुनियादी भूल होनी चाहिए। और यह पागलपन कुछ थोड़ा
नहीं है, पिछले दो महायुद्धों में दस करोड़ लोगों की हत्या की
है हमने। फिर भी हम कहते हैं कि हम जो सोचते हैं वह व्यावहारिक है। और अब तो हम उस
समय के करीब आ रहे हैं कि हो सकता है पूरी मनुष्य-जाति समाप्त हो जाए, लेकिन फिर भी हम कहेंगे कि हम जो सोचते हैं वह व्यावहारिक है।
सारा जीवन नरक हो गया है, लेकिन हम कहते हैं कि
हम व्यावहारिक आधारों पर नरक में खड़े हैं। और जो कोई भी बात इस नरक से बाहर
निकालने की हो, वह अव्यावहारिक मालूम होती है। जरूर होगी,
होनी ही चाहिए। अगर वह आपको अव्यावहारिक मालूम न होती, तो आपने कभी का उसे कर लिया होता और जीवन बदल गया होता।
इसलिए कृपा करके अपनी व्यावहारिकता पर थोड़ा संदेह करें। आपकी
व्यावहारिकता घातक है, आपके जीवन में और सारी जाति के जीवन में। थोड़ा उस पर
शक करें, थोड़ा विचार करें कि वह व्यावहारिकता कहां ले आई है?
जरूर क्राइस्ट की बात बिलकुल अव्यावहारिक मालूम होती है। क्राइस्ट ने
कहा: उन्हें क्षमा कर देना जो तुम्हें चोट
करे। बिलकुल अव्यावहारिक बात है। क्राइस्ट को जिस दिन सूली दी गई, वे सूली पर लटकाए गए, लटकाने वाले लोगों ने कहा कि
कुछ अंतिम बात कहनी हो तो कहो? तो उन्होंने कहा: हे परम पिता! इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं! यह तो नहीं कहना था,
भगवान से प्रार्थना करनी थी कि जला कर इन सबको खाक कर देना और
सातवें में नरक में डालना और अग्नि में चढ़ाना और कड़ाहियों में डालना और इनको सताना
दुष्टों को। लेकिन उन्होंने बड़ी अव्यावहारिक बात कही कि इन्हें माफ कर देना,
क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं! इन्हें अपने करने का
भी कोई पता नहीं है, होश नहीं है।
जरूर यह बात अव्यावहारिक लगती है। लेकिन अव्यावहारिक होने से कोई बात
न तो गलत होती है और न वस्तुतः जीवन में न उतारने योग्य हो जाती है। तो मेरा
निवेदन है, अगर कोई बात ठीक लगती हो और अव्यावहारिक मालूम होती
हो, तो यही समझना ज्यादा उचित होगा कि जिसे हम व्यावहारिक
समझते रहे हैं वह हमारी समझ भूल है। रह गई बात यह कि नये प्रयोग तो जीवन में शुरू
करते वक्त अजनबी होंगे, लेकिन यदि उन्हें कोई करेगा, तो वे क्रमशः परिचित होते जाते हैं। और ठीक उलटी बात घटती है।
एक छोटी सी घटना कहूं।
चंपारन में गांधी थे। किसी अंग्रेज चाय बगीचे के मालिक ने, गांधी ने वहां कुछ आंदोलन चलाया, एक चाय बगीचे के
मालिक अंग्रेज ने किसी गुंडे को कहा: पांच
हजार रुपये देंगे, गांधी को मार डालो। अदालत में मुकदमे से
घबड़ाना मत, हमारी अदालतें हैं, उसमें
भी हम बचा लेंगे।
यह खबर गांधी के मित्रों को लगी, उन्होंने गांधी को
जाकर कहा कि ऐसी-ऐसी खबर है। रोज सुबह चार बजे उठ कर आप अंधेरे में घूमने जाते हैं,
ठीक नहीं। कल से इतने जल्दी न जाएं, सूरज निकल
आए तब जाएं, कोई भी खतरा हो सकता है।
रोज गांधी चार बजे उठते थे, उस दिन तीन बजे ही उठ
आए। मित्र सोते थे, चार बजे के खयाल में थे कि उठेंगे तब वे
भी उठ आएंगे। गांधी तीन बजे उठे और उस आदमी के घर पहुंच गए, जिसके
बाबत यह खबर थी कि वह पांच हजार रुपये देकर मरवाना चाहता है। तीन बजे रात गांधी को
देख कर उसे विश्वास ही नहीं आया, दो-चार दफे उसने आंख मींड़ी
होंगी, साफ की होंगी कि अंधेरे में सपना तो नहीं देखता रात में,
कहां गांधी सामने खड़े हैं। गांधी ने जाकर कहा कि तुम्हारी बड़ी कृपा
है, क्योंकि इस शरीर के लिए मर जाने पर पांच हजार देने को
कोई भी राजी नहीं होगा, आदमी के शरीर की कीमत बहुत कम है।
शायद आपको पता न हो, दुनिया में किसी भी जानवर की
बजाय आदमी के शरीर की कीमत बहुत कम है। एक जानवर का शरीर बिकता है, तो उससे कुछ पैसा मिल सकता है, आदमी के शरीर में कुछ
भी नहीं है। हिसाब लगाया जाए, तो मुश्किल से कोई साढ़े चार,
पांच रुपये का सामान निकलता है आदमी के शरीर में से, इससे ज्यादा का नहीं। अब थोड़ा जमाना महंगा है, तो
साढ़े सात का, आठ का निकलता होगा, इससे
ज्यादा का नहीं।
तो गांधी ने उनको कहा कि पांच हजार बहुत हैं, मुझे इतना दाम देने को कोई राजी नहीं होगा, और फिर
मुझे जरूरत भी है हरिजन फंड में, तो ये पांच हजार रुपये
मुझको दे दें और गोली मार दें, और यहां कोई भी मौजूद नहीं है,
इससे कोई सवाल भी नहीं उठेगा, कोई झंझट भी
नहीं उठेगी, कोई परेशानी भी खड़ी नहीं होगी।
वह आदमी तो घबड़ा गया, यह विश्वास करना संभव नहीं हुआ,
ऐसी अव्यावहारिक बात पर कोई विश्वास करता है, तो
बहुत घबड़ा गया, क्या करे, क्या न करे,
उसकी समझ न आया, सिवाय इसके कि गांधी के पैर
छुए। उसने गांधी के पैर छुए और कहा कि मैं अब तक सोचता था कि यह जीसस क्राइस्ट की
सारी घटना काल्पनिक है, आपने आज मेरे द्वार पर उपस्थिति होकर
स्पष्ट कर दिया कि क्राइस्ट भी हुआ होगा, और फांसी पर लटके
हुए उसने कहा होगा कि क्षमा कर दे इनको, क्योंकि इन्हें पता नहीं
कि ये क्या कर रहे हैं! आपने मुझे क्रिश्चियन बना दिया।
गांधी तो वापस लौट आए, लेकिन वह आदमी बदल
गया, वह दूसरा आदमी हो गया।
निश्चित ही कोई भी व्यावहारिक आदमी इस तरह का काम करने को राजी नहीं
होगा। लेकिन दुनिया उन लोगों से आगे बढ़ती है, जो थोड़े से अव्यावहारिक
होते हैं। और उन लोगों से तो रोज गङ्ढे में गिरती है, जिनको
हम व्यावहारिक कहते हैं। आपकी बड़ी कृपा होगी, अपने पर भी और
दूसरों पर भी, अगर आप अपने थोड़ी व्यावहारिकता से हटें और
थोड़े अव्यावहारिक होने की भी हिम्मत करें। स्मरण रखें, अव्यावहारिक
होने की थोड़ी सी भी चेष्टा जीवन में क्रांति ला सकती है।
तो मैं जो कह रहा हूं, ऐसे तो जीवन के
मूलभूत सूत्रों से संबंधित है, अव्यावहारिक उसमें कुछ भी
नहीं है। जो भी करेगा, वह पाएगा, उससे
ज्यादा सम्यक व्यवहार और कोई भी नहीं हो सकता। लेकिन हम बहुत होशियार लोग हैं,
हम जो करते हैं, उससे न हटने के लिए हजार
बहाने खोजते हैं। और सबसे बड़ा बहाना यह होता है कि हम किसी बात को कह दें कि बात
तो बिलकुल ठीक है, लेकिन अव्यावहारिक है। कहीं ठीक बातें भी
अव्यावहारिक होती हैं? बड़ी हैरानी की बात है! अगर ठीक बातें
अव्यावहारिक होती हैं, तो फिर गलत बातें व्यावहारिक होती
होंगी। तब तो फिर ठीक और अव्यावहारिक बातें ही चुनना उचित है बजाय गलत और
व्यावहारिक बातों के। क्योंकि चुनाव हमेशा ठीक और गलत के बीच है। जो आपको ठीक
मालूम होता हो, उसे चुनने का साहस होना चाहिए। थोड़ी तकलीफ भी
होगी ठीक को चुनने में, थोड़ी असुविधा भी होगी। लेकिन जो सत्य
जीवन के लिए थोड़ी असुविधा और तकलीफ भी उठाने को राजी न हो, जो
इतना भी मूल्य न चुकाना चाहता हो, उसका जीवन सत्य नहीं हो
सकता, असत्य ही रहेगा।
तो इसलिए यह मेरी कोई भी बात अव्यावहारिक मालूम होती हो, उसे थोड़ा सोचें, समझें, विचारें,
थोड़ा प्रयोग करें, नहीं पाएंगे कि वह
अव्यावहारिक है। क्योंकि अव्यावहारिक बातें करने से फायदा भी क्या है? अर्थ भी क्या है? प्रयोजन भी क्या है? मेरी तरफ से मैं कोई अव्यावहारिक बात आपसे नहीं कह रहा हूं। आपकी तरह से
अव्यावहारिक दिखाई पड़ती हो, तो थोड़ा विचार करें, तो थोड़ा प्रयोग करें, देखें। प्रयोग करते ही पता
चलेगा कि हम जो कर रहे थे, वही अव्यावहारिक था।
और भी कुछ प्रश्न पूछें हैं। ऐसे तो एक ही प्रश्न
ऐसा होता है कि उसे और गहरे में जाया जाए, तो वह लंबा हो,
लेकिन फिर सब प्रश्नों के उत्तर संभव नहीं होंगे।
कल या आज सुबह मैंने कहा कि जिन्होंने कहा है, स्त्री नरक का द्वार है, उन्होंने गलत कहा है,
तो किसी ने पूछा है कि हम तो ऐसा ही अनुभव करते हैं कि किसी स्त्री
के चक्कर में पड़ गए कि फिर नरक का दरवाजा खुला। और फिर जन्म-मरण का सिलसिला शुरू
हो जाता है। तो आप यह किस आधार पर कहते हैं कि स्त्री नरक का द्वार नहीं है?
यह इन्होंने बड़ी सीधी और साफ बात पूछी है। लेकिन वे यह भी तो सोचें कि
जो स्त्री आपके चक्कर में पड़ गई है, उसका नरक का दरवाजा
आपने खोल दिया कि नहीं? आप ही स्त्री के चक्कर में पड़े हैं
यह बड़ी कमजोर बात होगी, स्त्री भी आपके चक्कर में पड़ गई है।
लेकिन इस बात को आप चक्कर में पड़ना क्यों समझते हैं? इस बात
को चक्कर में पड़ना समझते हैं, शायद इसलिए नरक का द्वार खुल
जाता है। हम जीवन को सहजता से लेते ही नहीं, हमारा चित्त
बहुत जटिल हो गया और हम जीवन को बड़ी दुरूहता से लेते हैं, बड़ी
कठिनाई से लेते हैं। हमने जीवन की सारी निसर्गता को, सारी
सहज स्वाभाविकता को झूठे सिद्धांतों, झूठी मान्यताओं से इस
भांति दबा रखा है कि हम अदभुत रूप से मूर्खतापूर्ण चिंतन में उतर गए हैं और सारे
जीवन को खराब किया हुआ है।
मैं एक घर में मेहमान था, उस घर की गृहिणी ने
मुझसे कहा कि मैं पति को बहुत सम्मान देती हूं, लेकिन फिर भी
रोज कलह हो जाती है। आदर करती हूं, जैसा मुझे सिखाया कि
परमात्मा समझो पति को, वैसे ही समझने की कोशिश करती हूं,
लेकिन फिर भी चौबीस घंटे कलह चलती है, बहुत
मुश्किल हो गया, नारकीय जीवन हो गया। मैंने उन महिला को कहा
कि शायद तुम्हें यह पता न हो कि इस नारकीयता में उन्हीं लोगों का हाथ है, जो नरक-स्वर्ग की बहुत बातें करते हैं। वह बोली, कैसे?
मैंने उनको कहा कि हम बहुत छोटे से बच्चों को भी सेक्स के प्रति
घृणा सिखाते हैं, कंडेमनेशन सिखाते हैं, निंदा सिखाते हैं, सेक्स को एक पाप बतलाते हैं। बीस
वर्ष की युवती हो जाती है, तब वह विवाहित होती है या बीस
वर्ष, बाईस वर्ष का युवक हो जाता है, तब
वह विवाहित होता है। बीस वर्ष तक जिस लड़की ने काम की वृत्ति को पाप और घृणित समझा
हो, जब विवाह के बाद पति उसके निकट आए, तो यह आदमी उसे पापी मालूम पड़े, इसमें कोई आश्चर्य
नहीं है। और इस आदमी के प्रति उसके मन में अनादर और घृणा का भाव आए, यह भी आश्चर्यजनक नहीं है। जिस देश में सेक्स के प्रति निंदा का भाव हो,
उस देश में पत्नी पति का आदर नहीं कर सकती और न पति पत्नी का आदर कर
सकता है। दोनों के मन में घृणा है, तीव्र घृणा। और किस बात
के प्रति घृणा है?
काम की शक्ति समस्त सृजन का मूल है, सारा जीवन उसी से
विकसित होता है, उसी केंद्र से। पौधे और पशु और पक्षी और फूल
और मनुष्य सभी उसी से पैदा होते हैं। अगर परमात्मा की कोई भी शक्ति काम कर रही है
विश्व के निर्माण में, तो वह काम की शक्ति है, वह सेक्स की शक्ति है, वह सेक्स एनर्जी है। जो भी
सृष्टि हो रही है, जो भी सृजन हो रहा है, वह उससे हो रहा है। उस मूल शक्ति को जब हम निंदा के भाव से देखते हैं,
तो जीवन में कुंठा पैदा हो जाए, दुख पैदा हो
जाए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। और जब हम उसे निंदा के भाव से
देखते हैं, घबड़ाहट से देखते हैं, परेशानी
से देखते हैं, तो उससे लड़ते भी हैं और वह वृत्ति हमारे
प्राणों के केंद्र पर काम भी करती है, तो हम उससे आकर्षित भी
होते हैं, उससे भागते भी हैं, उसके
निकट भी जाते हैं, उससे दूर भी होना चाहते हैं और इस
खींचत्तान में, इस कांफ्लिक्ट में अगर जीवन नरक बन जाता हो,
तो न तो इसमें स्त्री का कोई कसूर है, न पुरुष
का कोई कसूर है।
जीवन में जो निसर्ग है, जो प्रकृति है,
उसे हमने सहजता से लेना ही छोड़ दिया। हमने उसे सहजता से लिया ही
नहीं। और बड़े आश्चर्य की बात है, अगर हम उसे सहजता से ले
सकें, और अगर हम--पति पत्नी को प्रेम दे सके, पत्नी पति को प्रेम दे सके, अबाध, अनकंडीशनल; किसी शर्त के कारण नहीं, किसी बाधा के कारण नहीं, सहज और उन्मुक्त प्रेम दे
सके, तो सबसे जो महत्वपूर्ण बात है, वह
यह है कि जितना प्रेम गहरा और घना होगा, उतना ही सेक्स,
काम का संबंध विलीन होता चला जाएगा। काम की सारी शक्ति प्रेम में
परिवर्तित हो सकती है। और किसी चीज में कभी परिवर्तित नहीं होती। और जो लोग सेक्स
से लड़ाई शुरू कर देते हैं, उनका जीवन अत्यधिक कामुक हो जाता
है, अत्यधिक मानसिक व्यभिचार से भर जाता है। मन में व्यभिचार
करते हैं, ऊपर से डरते हैं, घबड़ाते हैं,
लड़ते हैं। और तब निरंतर एक नरक पैदा हो जाए तो इसमें आश्चर्य कौन सा
है!
न तो पत्नी नरक पैदा करती है, न बच्चे नरक पैदा
करते हैं, न पति नरक पैदा करता है, कोई
नरक पैदा नहीं करता। जीवन को देखने का हमारा ढंग अगर बुनियादी रूप से गलत है,
तो नरक पैदा हो जाता है। नरक पैदा होता है जीवन के देखने के ढंग से।
और हम जिस तरह के देखने के आदी हो जाते हैं, फिर जीवन वैसा
ही हो जाता है। और जब जीवन को हम गलत ढंग से देखते हैं, और
वह गलत होता चला जाता है, घबड़ाहट बढ़ती चली जाती है, बेचैनी बढ़ती चली जाती है। तो हर आदमी दूसरे पर दोष देता है, अपने पर तो दोष नहीं देता। पति पत्नी पर दोष देता है, पत्नी पति पर दोष देती है। और यह दोष देने की दूसरे पर थोपने की प्रवृत्ति
इतनी जघन्य है, इतनी अपराधपूर्ण है, जिसका
कोई हिसाब नहीं। और तब निंदा का एक आदान-प्रदान चलता है जिसमें कोई हल नहीं हो
सकता, समाधान नहीं हो सकता।
तो आप गालियां दे रहे हैं स्त्रियों को, स्त्रियां शास्त्र
लिखेंगी, तो वे भी आपको गालियां देंगी, अभी उन्होंने लिखे नहीं हैं, अभी उन्होंने कोई
शास्त्र तैयार नहीं किए, अभी वे आपके शास्त्र ही पढ़ती हैं और
उन्हीं को मानती हैं। तो इसलिए आपकी बातों में वे भी सहमत हैं, लेकिन वे दिन दूर नहीं, जब स्त्रियां शास्त्र
लिखेंगी और वे उसमें लिखेंगी कि ये सब पुरुषों के कारण सारा जगत नष्ट हो गया,
सारा आवागमन चल रहा है और यह सारा का सारा नरक का द्वार ये पुरुष ही
हैं। और जब स्त्री और पुरुष एक-दूसरे को नरक का द्वार समझ लें, तो दुनिया अगर नरक बन जाए--तो क्या बनेगी और क्या बनेगा फिर दुनिया?
हम जिंदगी को जैसा लेना शुरू करते हैं, वैसी जिंदगी हो जाती
है। हम जैसा जिंदगी को देखना शुरू करते हैं, वैसी जिंदगी हो
जाती है।
मेरी दृष्टि यह है कि जो आदमी वस्तुतः सरल और शांत होना चाहता है, वह जीवन की जो प्रकृति है, वह जो नेचर है, वह जो निसर्ग है, उसको अत्यंत धन्यता से स्वीकार
करेगा, अत्यंत धन्यता से, अत्यंत
थैंकफुल होगा, धन्यवाद से भरा होगा। कहां है गलत? कहां है कुछ गलत? कुछ भी गलत नहीं है। फूल पैदा होते
हैं बीज से, कभी आपने जाकर यह कहा कि यह बीज नारकीय है,
इससे फूल पैदा होते हैं। नहीं, आपने कभी नहीं
कहा। और आपको पता नहीं कि फूल से भी बीज उसी तरह पैदा होते हैं जिस तरह मनुष्य,
मनुष्य पैदा होता है। उसी तरह सेक्स वहां भी काम कर रहा है फूलों
में भी।
लेकिन हम अजीब लोग हैं, हम जाएंगे तो फूल को
कहेंगे, बहुत सुंदर। और तितलियां उड़ रही हैं और फूलों पर से
पराग ले जा रही हैं और दूसरे फूलों तक पहुंचा रही हैं। वे सब जन्म के बीजांकुर
हैं। और फूल उड़ रहे हैं हवाओं में, उनका पराग उड़ रहा है और
दूसरे फूलों तक जा रहा है, वे सब बीज हैं, वह सब सेक्सुअल एक्टिविटी है। लेकिन हम फूलों के लिए प्रसन्न हैं और
तितलियों के लिए गीत लिखते हैं और फूलों के लिए गीत लिखते हैं और मनुष्य के जीवन
में जब बच्चे का जन्म होता है, तो जिस अदभुत व्यवस्था से
बच्चे का जन्म होता है, उसकी निंदा करते हैं।
आपको पता है कि जब, जब भी प्रेम से कोई स्त्री और
पुरुष का मिलन होता है, तो उस क्षण वे दोनों मिट जाते हैं और
उनके दोनों के भीतर परमात्मा के सृजनात्मक शक्ति काम करने लगती है और एक बच्चे का
जन्म होता है, एक नया जीवन पैदा होता है। इससे बड़ी मिस्ट्री,
इससे बड़ा कोई रहस्य नहीं है। लेकिन इस सबसे बड़े रहस्य को जहां से
जीवन के अंकुर बढ़ते हैं, बड़े होते हैं, जहां से जीवन फैलता है, न मालूम किन नासमझों ने
कुंठित किया हुआ है, निंदित किया हुआ है और निंदा भर दी है
इस बात के प्रति। और जब निंदा हमारे मन में होगी, तो
स्वाभाविक है कि बच्चे विकृत पैदा होंगे। इस बात को आप समझ लें, दुनिया में मनुष्य-जाति का जो पतन हो रहा है, वह इस
बात से हो रहा है कि जब मां-बाप दोनों का हृदय काम के संबंध के प्रति, मैथुन के प्रति घृणा से भरा हुआ हो, तो उन दोनों से
जो बच्चे पैदा होंगे, वे पवित्रता में पैदा नहीं हो सकते
हैं। वे बच्चे कंसीव ही नहीं होते पवित्रता में।
मैं तो मानता हूं कि अगर जीवन के बाबत हमारी समझ गहरी होगी, तो हम सेक्स के प्रति उतना ही पवित्रता की धारणा और दृष्टि रखेंगे,
जैसे हम मंदिर में प्रार्थना के प्रति रखते हैं, उससे भी ज्यादा। उससे भी ज्यादा इसलिए कि मंदिर में हो सकता है पत्थर की
मूर्ति हो, परमात्मा न हो, लेकिन सेक्स
के संबंध में, मैथुन में तो परमात्मा की स्पष्ट शक्ति काम कर
रही है, जीवन का जन्म हो रहा है। पत्नी के पास पति वैसे जाएगा,
जैसे उसे मंदिर के पास जाना चाहिए। पत्नी पति के पास वैसे जानी
चाहिए, जैसे अत्यंत प्रार्थनापूर्ण हृदय से भरी हुई। अगर
पत्नी और पति के बीच का संबंध अत्यंत प्रार्थना, पवित्रता और
ध्यान से भरा हुआ हो, तो जो बच्चे पैदा होंगे, वे कुछ और ही तरह के पैदा होंगे, उस पवित्रता से
पवित्रता का जन्म होगा, उस प्रेम और प्रार्थना से कुछ और तरह
की आत्माएं विकसित होंगी, लेकिन इस घृणित संबंध से जो भी
पैदा होगा वह बहुत श्रेष्ठ नहीं हो सकता। मनुष्य-जाति का पतन इसलिए हुआ है।
मनुष्य-जाति रोज पतित होती जा रही है। और उसके पतन के पीछे यह कारण
नहीं है कि भौतिकवाद है और पश्चिम के वैज्ञानिक हैं, और ये हवाई जहाज
बनाने वाले, मोटर बनाने वाले लोग हैं और अच्छे कपड़े बनाने
वाले लोग हैं। ये लोग नहीं हैं पतन के पीछे, न ये फिल्में
हैं पतन के पीछे और न कोई और है पतन के पीछे, पतन के पीछे
सेक्स के प्रति हमारा जो निंदा का भाव है, वह मनुष्य-जाति को
बीजों से नष्ट कर रहा है, उसके भीतर से जन्म जहां से शुरू
होता है वहां से विकृत और कुरूप कर रहा है। दोनों की भावनाएं नये बच्चे को निर्मित
करती हैं। अगर दोनों की भावनाएं ऐसी कुंठित हैं, एक-दूसरे को
नरक समझ रहे हैं, कलह समझ रहे हैं और मजबूरी में, जबरदस्ती में एक-दूसरे से मिल रहे हैं, तो स्वाभाविक
है कि जो पैदा होगा, वह कोई श्रेष्ठ नहीं हो सकता, वह सुंदर नहीं हो सकता, वह सत्य और शिव नहीं हो
सकता। सेक्स के संबंध में मेरी अत्यंत आदरपूर्ण, अत्यंत
पवित्रता की भावना है, उससे ज्यादा पवित्र कुछ भी नहीं है।
हम मां को आदर देते हैं, लेकिन हमको पता नहीं,
हम पिता को आदर देते हैं, लेकिन हमें पता नहीं,
मां और पिता से भी गहरे में जो सृजन का मूल है वह कौन है? और मां को आप कैसे आदर देंगे जब आप सेक्स की निंदा करेंगे? और पिता को कैसे आदर देंगे? और बहुत गहरे में जब आप
सृजन को ही निंदा कर रहे हैं, तो स्रष्टा को कैसे आदर देंगे?
यह मेरी समझ में नहीं आता कि कौन सा तर्क है? कौन
सा गणित है? कहते हैं, स्रष्टा को हम
आदर देंगे, परमात्मा को, सृजन का जो
मूलस्रोत है उसको आदर देंगे, तो फिर सृजन की इस मूल-क्रिया
को कैसे अनादर करेंगे आप? मेरी दृष्टि में सृजन का मूलस्रोत
अनादर के योग्य नहीं, अत्यंत आदर के योग्य है। एक और ही तरह
का दांपत्य जीवन विकसित होना चाहिए। यह दांपत्य जीवन बिलकुल रुग्ण और गलत है। और
इसे गलत करने में तथाकथित धार्मिक साधु-संतों के उपदेशों का हाथ है। और एक खतरनाक
षडयंत्र कोई दोत्तीन हजार वर्ष से चल रहा है मनुष्य-जाति को अदभुत रूप से विकृत
करने में। और उनके हाथों से चल रहा है जिनसे हम सोचते हैं कि जीवन ऊंचा उठेगा।
उनकी ही बातें और उनकी खतरनाक और घातक बातें जीवन को नीचे ले जा रही हैं। क्या
इसका यह अर्थ है कि मैं आपसे यह कह रहा हूं कि आप सब भांति सेक्स में डूब जाएं,
नहीं, यह मैं आपसे नहीं कह रहा हूं। मैं तो
आपसे यह कह रहा हूं कि सृजन का जो मूल केंद्र है उसके प्रति अनादर और निंदा का भाव
न रखें।
फिर क्या होगा? जब आप अत्यंत प्रेम और पवित्रता से उस केंद्र को
देखना शुरू करेंगे, उस वृत्ति को, तो
आप खुद हैरान हो जाएंगे। अगर एक पति अपनी पत्नी को अत्यंत आदर और प्रेम से देखना
शुरू करे, नरक का द्वार न समझे और वैसा ही पत्नी न समझे,
और जिस संबंध के कारण वे एक-दूसरे का नरक बन गए हैं उस संबंध को प्रेम
और आदर और सम्मान से स्वीकार करें, तो आप बहुत हैरान हो
जाएंगे, जैसे-जैसे यह प्रेम गहरा होगा और यह पवित्रता गहरी
होगी और यह प्रार्थना गहरी होगी, वैसे-वैसे सेक्स की जो
सृजनात्मक शक्ति है वह और ऊपर उठ कर प्रकट होनी शुरू हो जाएगी, वह नये सृजन के रूप ले लेगी। हो सकता है आपसे फिर बच्चे ही पैदा न हों,
एक गीत पैदा हो, कविता पैदा हो, एक मूर्ति बने, सेवा निकले, सत्य
का जन्म हो, सौंदर्य का जन्म हो, आपसे
कुछ और नये तल पर सृजन शुरू होगा। आपका जीवन सृजनात्मक और क्रिएटिव हो जाएगा।
जब कोई व्यक्ति जीवन में श्रेष्ठतर सृजन के मार्ग खोज लेता है तो उसके
भीतर से अपने आप सृजन की शक्ति नये-नये द्वारों से प्रकट होने लगती है। और जिन्हें
हम बच्चों का जन्म कहते हैं, उस द्वार से विलीन हो जाती है।
एक ट्रांसफॉरमेशन होता है, एक परिवर्तन हो जाता है, एक बिलकुल ही नया परिवर्तन हो जाता है। इसलिए जिन लोगों के जीवन में सृजन
के नये द्वार होते हैं, प्रेम के नये द्वार होते हैं,
प्रार्थना और पवित्रता की नई दिशाएं खुल जाती हैं, उन लोगों के जीवन में अनायास ही ब्रह्मचर्य का प्रवेश हो जाता है।
ब्रह्मचर्य ठोक-ठोक कर लाना नहीं पड़ता, और जो ठोक-ठोक कर लाया
जाता हो, और जबरदस्ती लाया जाता हो, वह
ब्रह्मचर्य झूठा है, उस ब्रह्मचर्य में कोई भी अर्थ नहीं है।
और उस तरह के ब्रह्मचर्य से स्वस्थ, सामान्य काम का जीवन,
सेक्स का जीवन ज्यादा उचित और योग्य है। इन बातों को सुनेंगे,
समझेंगे, आग्रह मेरा नहीं है कि मान लेंगे,
क्योंकि मैं जो कह रहा हूं वह तो हजारों वर्ष से जो कहा गया है उससे
इतना भिन्न और विरोधी है कि मैं यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि वह एकदम से आपकी समझ
में भी आ जाएगा। लेकिन आज नहीं कल मनुष्य-जाति को समझना होगा, क्योंकि कुछ भूल हुई है और कहीं कोई बुनियादी रुग्णता हमको पकड़ ली है।
यह मैं आपसे कहूं कि सेक्स को छोड़ कर कोई व्यक्ति ब्रह्मचर्य को
उपलब्ध नहीं होता। हां, जो व्यक्ति सृजन के नये द्वार खोज लेता है, वह अनायास ही ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो जाता है।
यह चित्त की दशा कैसे विकसित हो, उसके लिए मैं सारी
बात कर रहा हूं। ध्यान है। आज मैंने कुछ तीन सूत्र कहे हैं, कल
कुछ कहा है, कल कुछ और आपसे कहूंगा। अगर इन सारे सूत्रों पर
चित्त शांत और सरल होता जाए, तो अदभुत रूप से आपके जीवन से
सेक्स विलीन हो जाएगा। इसका यह अर्थ नहीं है कि आपके जीवन से समस्त सृजन विलीन हो
जाएगा। नहीं, आपके जीवन में सृजन के नये द्वार खुल जाएंगे।
नये, नये मार्ग, नये आयाम खुल जाएंगे।
आपसे बहुत सृजन हो सकेगा, बहुत कुछ चीजें आपसे पैदा हो
सकेंगी। लेकिन यह इस भांति नहीं हो सकेगा जिस भांति हम सोचते रहे हैं।
इसी संबंध में एक प्रश्न और पूछा हुआ है कि
विवेकानंद ने या किसी ने कहा है कि वीर्य को संरक्षित करो, उससे ओज पैदा होगा।
ये जो इस तरह की जो बातें हमें शिक्षा में दी गई हैं, ये भी बहुत आश्चर्यजनक रूप से गलत हैं। जीवन में ओज का विकास हो, तो वीर्य अपने आप संरक्षित होता है, लेकिन वीर्य के
संरक्षण से ओज का विकास नहीं होता। वीर्य के संरक्षण से विक्षिप्तता आ सकती है,
ओज नहीं, पागलपन आ सकता है, ओज नहीं। लेकिन ओज का विकास हो जीवन में, तो वीर्य
अपने आप संरक्षित होता है।
इसलिए जोर इस बात पर जहां भी दिया जाता हो कि वीर्य को संरक्षित करो, यह घातक शिक्षा है। और इसका कुल परिणाम इतना हो सकता है कि ओज तो पैदा न
हो, और जीवन अत्यंत कुंठित और कुरूप और दमित हो जाए, सप्रेस्ड हो जाए। जिन कौमों ने इस तरह की बातें सोची हैं, जो कि उलटी हैं। मुझे दिखाई यह पड़ता है, जैसे कि यह
सब ऐसा ही मामला है जैसे मैं आपसे कहूं कि इस घर में बहुत अंधेरा है, अंधेरे को निकाल बाहर करो तो दीया अपने आप जल जाएगा, कोई ऐसा कहे, तो हम कहेंगे, यह
बड़ी गड़बड़ बातें कह रहा है। अंधेरे को तो बाहर निकाला ही नहीं जा सकता। अगर हम
अंधेरे को बाहर निकालने लगेंगे, तो हम टूट जाएंगे, अंधेरा तो वही रहेगा। अंधेरा निकाल कर दीया नहीं जलता, हां, दीया जल जाए तो अंधेरा अपने आप बाहर निकल जाता
है। अंधेरे को निकालने से दीया नहीं जलता, दीये के जलने से
अंधेरा पाया ही नहीं जाता है।
तो मैं आपसे यह कह रहा हूं, ओज को जलाओ, ओज को जगाओ, वीर्य अपने आप संरक्षित हो जाएगा। लेकिन
हम फिक्र करते हैं वीर्य को संरक्षित करने की, और वीर्य
संरक्षण में आप क्या करेंगे? जिस व्यक्ति के जीवन में ओज ही
नहीं जगा, जिस व्यक्ति के जीवन में कोई आंतरिक शांति की और
प्रकाश की ज्योति नहीं जगी, वह क्या करेगा? वह करेगा यह कि उसके भीतर जितनी भी काम की भावनाएं होंगी उनको दबाएगा,
लड़ेगा उनसे, उनको जबरदस्ती रोकेगा। इस रोकने
में, दबाने में उसका चित्त विकृत होगा, खंडित होगा, इस दबाने में घबड़ाहट और भय पैदा होगा,
इस दबाने में निरंतर डर होगा कि कब यह दमन छूट जाए, कब कहीं यह संयम थोड़ा सा शिथिल हो जाए, तो मुश्किल
खड़ी हो जाए, विस्फोट हो जाए, चीजें टूट
जाएं। और यह विस्फोट होगा। और इस विस्फोट को बचाने के वह जो भी उपाय करेगा उसमें
उसका जीवन नष्ट होगा और कुछ भी नहीं होगा।
मैं पढ़ता था, एक घटना पढ़ता था। एक महिला एक होटल में आकर ठहरी। वह
ब्रह्मचारिणी थी, कोई पचास वर्ष उसकी उम्र हो गई थी। उसने
धर्म की शिक्षा में अपने जीवन को संयमित किया था। वह सातवें मंजिल पर ठहरी और थोड़ी
ही देर बाद नीचे उसने मैनेजर को फोन किया कि एक आदमी यहां आकर मेरे साथ बहुत बुरा
दर्ुव्यवहार कर रहा है। वह मेरे सामने बिलकुल ही करीब-करीब उघाड़ा खड़ा हुआ है।
मैनेजर घबड़ा गया कि कौन आदमी उसके पास पहुंच गया? वहां क्या
हो गया? अकेला जाना उसने भी ठीक नहीं समझा। वह दो पुलिस के
आदमियों को लेकर भागा हुआ ऊपर पहुंचा। वह महिला वहां अकेली थी। उसने पूछा, वह दूसरा आदमी कहां? उसने कहा: आप देखते नहीं, वह सामने।
लेकिन सामने तो खिड़की थी, और कोई आधा मील तक कोई दूसरा मकान
भी नहीं था। मैनेजर ने कहा: कोई हमें
दिखाई नहीं पड़ता, कहां? उसने कहा: वह सामने वाले मकान में देखिए। आधा मील दूर एक
मकान था, वहां तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। उस मैनेजर ने
कहा: हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता। वहां से
ही उसने टेबल पर से दूरबीन उठाई और कहा:
दूरबीन से देखिए, वह आदमी छत पर बिलकुल उघाड़ा खड़ा हुआ
है। मैनेजर हैरान हुआ कि कैसी पागल औरत है! उसने नीचे खबर की कि एक आदमी मेरे साथ
बहुत दर्ुव्यवहार कर रहा है।
यह जो स्त्री है इसने मन में सेक्स की भावनाओं को निरंतर दबाया होगा, तो अब यह दूरबीन लगा-लगा कर देख रही है कि कौन-कौन इसके साथ दर्ुव्यवहार
कर रहा है, कौन-कौन इसके संयम को तोड़ने की कोशिश कर रहा है,
कौन-कौन इसे नरक के रास्ते पर ले जाने के लिए चेष्टारत है। दूर मकान
पर कोई आदमी व्यायाम कर रहा था अपनी छत पर, वह आदमी उघाड़ा
होकर हाथ-पैर हिला रहा है, इसको देख कर ही, अपनी दूरबीन से देख कर समझ रही है।
यह दमित चित्त है, यह कोई ब्रह्मचर्य को उपलब्ध
चित्त नहीं है। और ऐसे दमित चित्त बड़े खतरनाक हैं, और ऐसे
दमित चित्त ही सेक्स के संबंध में जो निंदा का प्रचार करते हैं, वही आमजन पकड़ लेते हैं और दोहराते हैं। और यही चिल्लाते रहते हैं कि फलां
नरक है, ढिकां नरक है, यह बात बुरी है,
वह बात बुरी है। इनको भारी चिंता लगी रहती है, भारी चिंता। और इनकी चिंता बड़ी आश्चर्यजनक है, इनको
तो चिंता होनी नहीं चाहिए।
अभी दिल्ली में हिंदुस्तान के बहुत से बड़े साधु इकट्ठे हुए और
उन्होंने कहा कि अश्लील पोस्टर नहीं लगने चाहिए, अश्लील पोस्टर
दीवालों पर नहीं होने चाहिए, अश्लील फिल्में नहीं होनी चाहिए,
अश्लील उपन्यास नहीं होने चाहिए। मैंने उनसे पूछा कि आप इनको पढ़ते
कैसे हैं? इन पोस्टरों को देखते कैसे हैं? साधु होकर आपको इनसे प्रयोजन कहां है? ये आपको दिखाई
कैसे पड़ जाते हैं? और आपको इनकी चिंता इतनी क्यों? जरूर इनको आपसे ज्यादा दिखाई पड़ते होंगे, जब एक साधु
सड़क से निकलता होगा, तो जो फिल्म का पोस्टर लगा है, शायद आपने न भी देखा हो, उसको जरूर दिखाई पड़ता है,
वह दूरबीन लगा कर देखता है। देखना बिलकुल स्वाभाविक है, उसने चित्त में जिन-जिन वृत्तियों को दबा कर रखा है, वे ही उखड़-उखड़ कर उसके सामने आ जाती हैं।
आपने सुना होगा, साधु-संन्यासी जब बड़ी तपश्चर्या
करते हैं, तो स्वर्ग की अप्सराएं आकर उनको डिगाती हैं। आप
पागल हो गए, स्वर्ग की अप्सराओं ने कोई धंधा खोल रखा है कि
इनको डिगाने आएंगी। और यह क्या पागलपन है? नहीं, कोई अप्सराएं नहीं आतीं, इनके चित्त में ही दमित जो
वासनाएं हैं, जब चित्त शिथिल होता है और मन कमजोर होता है,
वे ही वासनाएं अप्सराएं बन कर खड़ी हो जाती हैं। कोई वहां है नहीं,
अगर आप जाओगे तो आपको कोई अप्सरा न दिखाई पड़ेगी। लेकिन वे मरे जा
रहे हैं, आंख दबा-दबा कर डरे जा रहे हैं, अप्सराएं नाच रही हैं उनके आस-पास। ये अप्सराएं रुग्ण चित्त से पैदा हुई
कल्पनाएं हैं, ये कहीं कोई स्वर्ग-वर्ग से आतीं नहीं। नहीं
तो स्वर्ग में किसने धंधा खोल रखा होगा ये सब काम को करने का? और किसको प्रयोजन है कि इनको डिगाए? इनकी तपश्चर्या
से कौन परेशान है? लेकिन कथाएं यह कहती हैं कि इंद्र का आसन
डांवाडोल हो जाता है इनकी तपश्चर्या से, तो वे अपनी अप्सराएं
भेजते हैं इनको बिगाड़ने के लिए, बर्बाद करने के लिए। ये
बिलकुल ही पागल चित्त से पैदा हुई आकृतियां हैं, ये आकृतियां
कहीं हैं नहीं। लेकिन इन्होंने जो-जो दबाया है वह इनके सामने रूप लेकर खड़ा हो जाता
है, अति दमित स्थिति में चीजें रूप लेकर खड़ी होने लगती हैं।
यह हजारों साल से चलता रहा है और हमने इसका कोई खयाल नहीं किया कि यह
बात क्या है? नहीं तो जो व्यक्ति शांति से, प्रेम
से और आनंद से भर गया है, जिसके चित्त में काम की वासना
परिवर्तित, रूपांतरित होकर प्रेम की अभिव्यक्ति बन गई है,
उसे न तो कोई अप्सराएं आने का सवाल है, न उसके
सपनों में स्त्रियों के खड़े होने का सवाल है, न अगर वह
स्त्री हो तो दूर छतों पर से दूरबीन देखने की कोई जरूरत है कि वहां कोई पुरुष
दर्ुव्यवहार कर रहा है। चित्त जैसे-जैसे शांत होता चला जाएगा, ये सारी विकृतियां विलीन हो जाएंगी।
एक बात, जैसे ही प्रेम गहरा होगा, वैसे
ही सेक्स विलीन हो जाएगा। जितना गहरा हृदय में प्रेम होगा, उतना
ही सेक्स विलीन हो जाएगा। और जितना हृदय में गहरा प्रेम होगा, जीवन उतने ही ओज से भर जाएगा। प्रेम के अतिरिक्त और कोई ओज नहीं है,
प्रेम के अतिरिक्त और कोई तेजस्विता नहीं है, प्रेम
के अतिरिक्त और कोई सौंदर्य नहीं है। प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी परमात्मा का
नहीं है। लेकिन ये जो तथाकथित ब्रह्मचारी और ये वीर्य के संरक्षण करने वाले और ये
सब जो बातें हैं, ये सारे के सारे लोग प्रेम से बहुत भयभीत
हैं, ये प्रेम से बहुत डरे हुए हैं। और जहां भय है, वहां ओज क्या होगा? जहां भय है, वहां ओज कैसे होगा? ओज तो वहां होता है जहां
फियरलेसनेस है, जहां अभय है। इनकी स्थिति तो बड़ी कमजोर है।
इनकी स्थिति तो बड़ी कमजोर है। और ये जिन चीजों से लड़ रहे हैं, जिन चीजों को दबा रहे हैं, वे ही चीजें इनके जीवन का
संघर्ष बन गई हैं, वे ही इनके जीवन के प्राणों को सोखे जा
रही हैं।
और मैं सैकड़ों साधुओं को जानता हूं, जब वे मुझसे सबके
सामने मिलते हैं, तो आत्मा-परमात्मा की बातें पूछते हैं,
कि आत्मा है या नहीं, परमात्मा है या नहीं,
ईश्वर ने दुनिया बनाई या नहीं, लेकिन जब वे
मुझे अकेले में, एकांत में मिलते हैं, तो
सिवाय सेक्स के और कोई दूसरी बात नहीं पूछते। जब वे सबके सामने बातें पूछते हैं,
तो आत्मा-परमात्मा की; जब अकेले में पूछते हैं
तो कहते हैं, यह सेक्स के साथ क्या किया जाए? यह तो हमारे प्राण खाए जा रहा है, यह तो निरंतर हमको
सताए हुए है। यह स्वाभाविक है। इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है, यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह होगा, यह होना निश्चित
है।
जीवन सरलता से विकसित होता है, दमन से, सप्रेशन से नहीं। जिस चीज को भी हम दबा लेते हैं, वही
चीज घातक रोगाणुओं की तरह भीतर इकट्ठी होने लगती है, आज नहीं
कल उसका विस्फोट होगा और चित्त दिक्कत में पड़ जाएगा।
मैं एक छोटी सी कहानी निरंतर कहता रहा हूं, वह मैं आपसे कहूं। फिर उसके बाद मैं दूसरा प्रश्न लूं।
दो भिक्षु, कोरिया की कहानी है, दो भिक्षु
एक नदी को पार कर रहे हैं, पहाड़ी नदी को। एक युवती नदी के
किनारे खड़ी है, उसे भी नदी पार होना है। लेकिन युवती अकेली है,
पहाड़ी नदी है अपरिचित और बिना सहारे के उसकी हिम्मत नहीं पड़ रही कि
वह पार हो जाए। वृद्ध भिक्षु आगे-आगे आया है, उसके मन में
हुआ कि मैं इसे हाथ का सहारा दे दूं और नदी पार करा दूं। उसने कोई तीस वर्ष से
किसी स्त्री का स्पर्श नहीं किया है, अपने को दूर-दूर रखा है,
दीवालें खड़ी कर रखी हैं, निरंतर दूर भागता रहा
है। उसके मन में खयाल आया, हाथ का सहारा दे दूं, कोई सत्तर वर्ष की उसकी उम्र है। लेकिन यह खयाल ही मन में आते से कि हाथ
का सहारा दे दूं और कल्पना में ही हाथ का हाथ से स्पर्श होते ही उसके मन में तो
तीस साल से सोई हुई वासना जाग पड़ी, जिसको मंत्रों से दबाया
हुआ था, जप करके दबाया हुआ था, वह
मौजूद है, वह जा नहीं सकती कहीं, वह
जाग उठी, उसे एक तरह का रस मालूम हुआ, तभी
वह घबड़ा भी गया, उसे याद आया अपने संयम, अपने वैराग्य का कि मैं यह क्या कर रहा हूं, तीस साल
की तपश्चर्या, जरा सा हाथ छूकर नष्ट हो जाएगी। और ऐसी
तपश्चर्या का मूल्य भी कितना है जो एक स्त्री के हाथ छूने से नष्ट हो जाए और ऐसी
तपश्चर्या कहीं मोक्ष ले जाएगी? कैसे पागलपन का मन है?
लेकिन उसने सोचा कि यह तो बड़ा सब गड़बड़ हो जाएगा। उसने आंखें बंद कीं,
वह नदी पार होने लगा।
उस युवती को तो पता भी नहीं है कि साधु बेचारा स्वर्ग से नरक तक पहुंच
गया इतने जल्दी, मोक्ष छीना जा रहा है, आवागमन
का मार्ग फिर से खोला जा रहा है। उसे पता भी नहीं, वह अपने
किनारे खड़ी है। यह तो इन्होंने अपने मन में ही सब हिसाब-किताब लगाया है। वह आंख
बंद किए नदी पार करने लगा, लेकिन आंख बंद करने से कुछ होता
है? आंख बंद करने से स्त्री और भी सुंदर हो जाती है। खुली
आंख से देखने पर स्त्री में क्या सौंदर्य है या पुरुष में क्या सौंदर्य है। और आंख
अगर और भी गहरी हो, तो सिवाय हड्डी और मांस के क्या रह
जाएगा। और अगर आंख और भी एक्सरे वाली हो, तब तो बहुत घबड़ाहट
हो जाएगी। लेकिन आंख अगर बंद हो, तो फिर बहुत सुंदर हो जाता
है, सब बहुत सुंदर हो जाता है। बंद आंख में सब सपने हो जाते
हैं, जो स्त्री कभी इतनी सुंदर नहीं, बंद
आंख में बहुत अलौकिक रूप सी होकर प्रकट होने लगती है, अप्सरा
बन जाती है सामान्य स्त्री आंख बंद करते से।
तो मैं कहता हूं, आंख खोलो और स्त्री को ठीक से
देख लो, तो मुक्त हो सकते हो। आंख बंद किया तब तो स्त्री से
छुटकारा मुश्किल है, या स्त्री के लिए कहूं तो पुरुष से
छुटकारा मुश्किल है।
वह आंख बंद करके बढ़ा, स्त्री और भी सुंदर होकर प्रकट
होने लगी। एक साधारण सी गांव की लड़की थी, जो वहां खड़ी थी।
उसका मन बार-बार डोलने लगा कि पीछे जाऊं सहारा दे ही क्यों न दूं, इसमें क्या बिगड़ने वाला है और यहां कोई देखने वाला भी तो नहीं। कोई गुरु
को भी खबर करने वाला नहीं है, कोई खास बात भी नहीं, लेकिन फिर मन में दोहरा द्वंद्व खड़ा हो गया कि तीस साल की तपश्चर्या है,
जरा सी बात में खत्म कर रहा हूं, अरे यह असार
संसार है इसकी बातों में पड़ना नहीं चाहिए, यह तो सब, यही तो नरक का द्वार है, सोचा होगा, इसी में तो चक्कर हो जाएगा। वह किसी तरह नदी पार हुआ। वह उस पार पहुंचा,
बहुत थका-मांदा था, क्योंकि जो चित्त इतनी
कांफ्लिक्ट में पड़ जाए, इतनी दुविधा में, द्वंद्व, वह थक ही जाता है। तभी उसे खयाल आया कि
उसके पीछे ही पीछे थोड़ी दूर पर उसका युवक साथी भी आ रहा है एक दूसरा भिक्षु,
वह अभी अनजान है, अनुभवी भी नहीं है, कहीं वह भी इसी दया के झंझट में न पड़ जाए जिसमें मैं पड़ा, कहीं उसे भी दया न आ जाए इस युवती पर, उसे नदी पार
करने का खयाल न सोचने लगे। उसने पीछे लौट कर देखा, देख कर
हैरान हो गया! वह युवक भिक्षु उस लड़की को कंधे पर लिए उतर रहा है। उसके प्राणों
में तो आग लग गई। आग के कई कारण थे। एक तो कारण था कि वह खुद वंचित रह गया उस लड़की
को कंधे पर लेने से, बुनियादी तो यही था। दूसरा उपदेश देने
से वंचित रह गया। तीसरा चित्त में बहुत क्रोध आया कि मुझसे बिना आज्ञा लिए मेरी
मौजूदगी में और यह युवक क्या कह रहा है?
सभी बूढ़ों को आता है। युवक को कुछ न करने देंगे वे बिना आज्ञा लिए। और
सभी वृद्धजनों को एकर् ईष्या पकड़नी शुरू होती है युवकों से, क्योंकि युवक जो कर रहे हैं उसमें से वे बहुत कुछ वे नहीं कर पाए और न कुछ
करने की स्थिति में अब हो गए।
बहुत कठिनाई हो गई उसे, अब कोई विकल्प भी न
रहा। लेकिन उसने सोचा कि आज जाकर गुरु से कहूंगा और इसको या तो निकाल कर बाहर
करवाऊंगा आश्रम से, यह तो हद्द पाप की बात हो गई। इतनी देर
से खुद उसी पाप को करने का विचार करता था, वह भूल गया। यह तो
हद्द पाप की बात हो गई। गुस्से में आगे-आगे चला, पीछे-पीछे
वह युवक भी आया। दोनों द्वार पर मिले, उस बूढ़े आदमी ने कहा
कि सुनते हो, यह बर्दाश्त के बाहर है। बात छिपाई नहीं जा
सकती, मुझे गुरु से कहना ही होगा, नियम
उल्लंघन हुआ है, भिक्षु जीवन का नियम खंडन हुआ है। तुमने उस
लड़की को कंधे पर क्यों उठाया?
उस युवक ने कहा: मैं बहुत
आश्चर्य में हूं। मैं तो उस लड़की को कोई दो मील पीछे कंधे से उतार भी आया, आप उसे अब भी कंधे पर लिए हुए हैं। उस युवक ने कहा: मैं उसे कंधे से उतार भी आया, आप उसे अब भी कंधे पर लिए हुए हैं। और कंधे से केवल वही उतार सकता है,
जिसने कभी लिया ही न हो। स्मरण रखें, कंधे से
केवल वही उतार सकता है, जिसने कभी कंधे पर लिया ही न हो। और
केवल इतने से कि हमने कंधे पर नहीं लिया है, इस भ्रम में कोई
न रहे कि वह कंधे पर नहीं है। जैसे-जैसे चित्त दमन करता है, वैसे-वैसे
चीजें सिर पर चढ़ती चली जाती हैं। चीजों को सहजता से लें, चीजों
को सहजता से जानें, चीजों के प्रति अत्यंत स्वाभाविक रूप से
जागरूक हों, तो कोई कारण नहीं है कि जीवन धीरे-धीरे सभी
बंधनों से मुक्त हो जाए और एक परम मुक्ति की अवस्था, चेतना
को उपलब्ध हो सके। लेकिन जिन लोगों ने दमन किया है वे कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं।
दमन ही उनका बंधन बन जाता है।
तो मैं तो आपसे कहूंगा, निवेदन करूंगा,
जीवन को बहुत सहजता से लें, उसके निसर्ग को
बहुत सहजता से स्वीकार करें। और जीवन को देखें आंख खोल कर, आंख
बंद करके कभी कोई देख नहीं सकता। पूरी आंख खोल कर देखें। और जो चीज जितनी आकर्षक
मालूम होती है, उतने निकटता से उसका निरीक्षण करें, आप पाएंगे, आकर्षण विलीन हो गया। अगर स्त्रियां
आकर्षक मालूम होती हैं पुरुषों को, तो स्त्रियों से भागे न।
अगर स्त्रियों को पुरुष आकर्षक मालूम होते हैं, तो पुरुषों
से भागे न। भागने से तो आकर्षण सदा के लिए स्थायी हो जाएगा। आकर्षण भीतर एक फोड़े
की तरह बैठ जाएगा।
मैं देखता हूं कि जिन चीजों को हम उनकी पूरी नग्नता में और पूरी
सत्यता में जान लेते हैं उनसे हम मुक्त हो जाते हैं। तो जिस जीवन के बंधन से सच
में ही मुक्त होना हो, उस बंधन को उसकी पूरी सच्चाई में और सहजता में देखें
और जानें और मन में कोई दुविधा और द्वेष और द्वंद्व खड़ा न करें। जरूर जीवन के
अनुभव से, निरीक्षण से, बोध से,
अमर्ूच्छित होकर देखने और समझने से, एक वक्त
आपके जीवन में आएगा जिसमें स्त्री और पुरुष के बंधन और फासले टूट जाएंगे और विलीन
हो जाएंगे और उस आत्मा का दर्शन होगा, जो न स्त्री है और न
पुरुष है। देह से दृष्टि उठ सकती है, लेकिन जितना दबाएंगे
उतना देह से दृष्टि बंध जाएगी। जितना रोकेंगे, उतना बंधेंगे;
जितना भागेंगे, उतना भयभीत होंगे; जितने भयभीत होंगे, उतनी ही छायाएं पीछा करेंगी,
जो कि अगर रुक जाएं, तो पीछा नहीं करतीं,
ठहर जाएं, वे भी आपके पीछे दौड़ना बंद कर देती
हैं। खुली आंख से देखें, तो पता चलता है, शैडोज, छायाएं हैं, उनमें कोई
भी प्राण जैसा तत्व नहीं। न भय का कोई कारण, न भागने का कोई
कारण है।
जो पलायन करता है, वह बंधता चला जाता है, जो चित्त का परिवर्तन करता है, वह मुक्त हो जाता है।
तो इस पर सोचें। अन्यथा जो हो रहा है अनेक-अनेक लोगों के जीवन में जो दुख, वह आपके जीवन में भी होगा और जो नरक वे पैदा कर रहे हैं अपनी गलत
दृष्टियों से, वह आप भी पैदा कर लेंगे। नरक कहीं है नहीं,
हर आदमी अपना पैदा करता है।
एक फकीर हुआ, उसका एक शिष्य बहुत बार उसके पीछे पड़ गया कि आप
नरक-स्वर्ग की बहुत बातें करते हैं, कभी मुझे भी तो दिखलाए?
वह फकीर टालता रहा। लेकिन जब नहीं माना युवक, तो
उसने कहा: आज तुम आ ही जाओ, आज अमावस की रात है, आज मैं तुम्हें दिखला ही दूं।
वह युवक आया, उसे एक कोठरी में उसने बंद किया और कहा: आंख बंद कर लो, मैं बाहर
बैठा रहूंगा और कहूंगा कि जाओ, नरक पहुंच जाओ, तुम नरक में पहुंच जाओगे, गौर से देख लेना वहां क्या
दिखाई पड़ता है। फिर मैं तुम्हें वापस लौटाऊंगा, कहूंगा,
वापस लौट आओ। फिर आज्ञा दूंगा, स्वर्ग में चले
जाओ, तुम स्वर्ग पहुंच जाओगे, स्वर्ग
को भी देख लेना। उसने युवक को बिठाया और कहा कि देखो, आंख
बंद कर लो अंधेरे में। उसने आंख बंद कर लीं। उसने कहा: जाओ, नरक में पहुंच जाओ।
फिर उसने कहा: वापस लौट आओ। और कहा: स्वर्ग में पहुंच जाओ। फिर थोड़ी देर बाद उसने
कहा: वापस लौट आओ, आंखें
खोलो, मुझे बताओ क्या देखा? उसने
कहा: मैं तो बड़ा मुश्किल हो गया, न तो नरक में मुझे कुछ दिखाई पड़ा और न स्वर्ग में मुझे कुछ दिखाई पड़ा। और
आप तो कहते थे कि नरक में आग की लपटें जल रही हैं और स्वर्ग में कल्पवृक्ष खड़े हैं
जिनके नीचे सब कामनाएं पूरी हो रही हैं, वह तो मुझे कुछ भी
नहीं दिखाई पड़ा। तो वह फकीर हंसने लगा, उसने कहा कि वह तो तब
दिखाई पड़ेगा जो तुम अपने साथ ले जाओगे वही दिखाई पड़ेगा। अगर तुम नरक अपने साथ ले
जाओगे तो तुम्हें नरक दिखाई पड़ेगा, अपने साथ स्वर्ग ले जाओगे
तो स्वर्ग दिखाई पड़ेगा। अभी तो तुम कोरे कागज हो, अभी
तुम्हारे पास न नरक है, न स्वर्ग, तो
दिखाई क्या पड़ेगा? उस फकीर ने कहा कि वह तो तुम्हें अपने साथ
ले जाना पड़ेगा, जो वहां देखना है उसे। अगर नरक की कड़ाहियां
देखनी हैं जलती हुई आग की, तो अपने साथ ले जानी पड़ेंगी;
और अगर स्वर्ग के फूल और सुगंध देखनी है, तो
वे भी अपने साथ ले जानी पड़ेंगी।
स्वर्ग और नरक मन की अवस्थाएं हैं और हम उन्हें निर्मित करते हैं। हम
उनमें जाते नहीं, हम उन्हें बनाते हैं, वे हमारे
साथ हैं, वे कहीं दूर नहीं हैं, कोई
ज्याग्रफीकल, कोई भूगोल में कहीं नरक और स्वर्ग नहीं हैं।
स्वर्ग है कहीं तो साइकोलाजिकल है, मानसिक है, अंतःकरण में है। तो अगर आपको इस तरह के स्वर्ग-नरक दिखाई पड़ते हों दुनिया
में, तो आप समझ लेना कि आप उनको बना रहे हैं। यही जमीन है,
ये ही लोग हैं, यही सब कुछ है, ये ही चांदत्तारे हैं, जो आदमी ठीक से देखने में
समर्थ हो जाता है, उसे यहां स्वर्ग उपलब्ध हो जाता है,
यहीं परमात्मा के दर्शन होने लगते हैं, यहीं
वह मुक्त हो जाता है और जो आदमी गलत ढंग से देखने की आदत में ग्रसित हो जाता है,
यही फूल, यही जमीन, यही
चांदत्तारे, यही लोग नरक हो जाते हैं और यहीं वह गहरे बंधन
पड़ जाता है।
और बहुत से प्रश्न हैं, उनकी मैं बाद में बात
करूं। कल बात कर लूंगा। अभी तो हमें रात्रि के ध्यान के लिए बैठना पड़ेगा।
यहां मैंने जान कर उधर से तकलीफ दी और यहां बुलाया कुछ कारणों से। एक
तो इस कारण से कि वहां आस-पास प्रकृति की कोई ध्वनि नहीं है जहां हम बैठते थे।
यहां बहुत ध्वनियां हैं, यहां बहुत छोटे-छोटे आवाजें गूंज रही हैं। तो ध्यान
के लिए वहां बहुत कम आवाजें थीं। जब मन शांत होने लगे तब तो वहां भी बहुत सी धीमी
ध्वनियां सुनाई पड़ सकती हैं। लेकिन जब तक न हो, तब तक यहां
बहुत बड़ा म्यूजिक, बहुत बड़ा संगीत चारों तरफ है। यह संगीत
बहुत गहरे में ले जाएगा। फिर वहां हम एक पंडाल के नीचे बैठते थे, जो आदमियों के द्वारा ठोका और खींचा गया है। और आदमियों ने सब तरह के
पंडाल खींचे हैं, शास्त्रों के, धर्मों
के और उनके नीचे हम बैठे हैं। उससे भी मुझे जरा घबड़ाहट हो रही थी। यहां हम
परमात्मा के पंडाल के नीचे बैठेंगे। यहां आदमी का खींचा हुआ कुछ भी नहीं है। ऊपर
दरख्त हैं और ऊपर आकाश है, और ऊपर चांद है और बड़ी दुनिया है
और विराट पंडाल है उसके निकट हम होंगे। जब हम छोटी-छोटी दीवालों में बंद होते हैं,
तो मन भी सिकुड़ जाता है और छोटा हो जाता है। जितने विस्तार पर हम होंगे
उतना मन विस्तीर्ण होता है और यात्रा करता है। अगर कोई व्यक्ति रोज थोड़ी देर आंख
खोल कर आकाश को ही देखता रहे, तो उसकी आत्मा बड़ी होने लगेगी।
लेकिन हम तो आदमियों के छोटे-छोटे छप्परों को देखते हैं और उन्हीं में जीते हैं।
लंदन में पीछे एक सर्वे हुआ, और वहां के बच्चों से
पूछा गया, तो पता चला, पंद्रह लाख
बच्चे ऐसे हैं लंदन में जिन्होंने खेत नहीं देखा। दस लाख ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने
गाय नहीं देखी। इन बच्चों के जीवन में क्या होगा? इन बच्चों
का जीवन तो विकृत हो जाएगा। जिन्होंने गाय नहीं देखी, जिन्होंने
खेत नहीं देखे, तो इन बच्चों ने सिर्फ मकान देखे हैं,
सड़कें देखी हैं, भागती हुई मोटरें और धुआं
देखा और ट्रेनें देखीं, यही सब देखा, तो
इनका चित्त मनुष्य के निर्मित जो दुनिया है उससे ऊपर नहीं उठ सकता।
तो इसलिए मैंने चाहा कि वहां से हम यहां आएं, यहां ऊपर दरख्त हैं, चांदनी है और बहुत अदभुत दुनिया
है। और फिर यह चारों तरफ प्राण की गूंजती हुई आवाज है, तो
यहां ध्यान में जाना बहुत, बहुत सरलता से, बहुत अदभुत रूप से हो सकेगा। हम जिनके करीब रहते हैं वैसे ही हो जाते हैं।
अगर आप फूलों के करीब बहुत दिन रहें, तो फूलों की गंध आपमें
प्रविष्ट हो जाएगी। अगर आप दरख्तों के पास बहुत दिन रहें, तो
आपका चित्त भी उन्हीं जैसा मौन होने लगेगा। अगर आप सागर के किनारे बैठें, तो वैसे ही विस्तार तरंगें आपके हृदय को भी छुएंगी। अगर आप झरनों के पास
बैठे हैं, तो झरने आपमें प्रविष्ट हो जाएंगे। हम जिन चीजों के
करीब रहते हैं निरंतर, वे चीजें हममें प्रविष्ट होने लगती
हैं।
लेकिन हम निरंतर मनुष्यों के निकट रहते हैं और मनुष्य जो सोचते हैं
उसे ही सुनते हैं, मनुष्य जो विचार करते हैं उसी को जानते हैं, और मनुष्य क्या विचार करते हैं? वे या तो सुबह से
अखबार पढ़ते हैं और चुनावों की बातें करते हैं, या हड़तालों की
बातें करते हैं, या अनशनों की बातें करते हैं, या कहां दंगा-फसाद हो गया उसकी बात करते हैं, या
कहां हिंदू धर्म खतरे में है या कहां मुसलमान धर्म खतरे में है उसकी बातें करते
हैं, या ताश खेलते हैं, या शराब पीते
हैं, या जुआ खेलते हैं, या विवाद करते
हैं, इस तरह के कुछ काम हैं। मनुष्य के पास जितने ज्यादा हम
रहते हैं, उतने ही हम छोटे होते चले जाते हैं। लेकिन हमें
अपना छोटा होना पता नहीं चलता, क्योंकि हमारे चारों तरफ भी
उसी तरह के छोटे लोग रहते हैं और हमें यह तृप्ति रहती है कि और लोग भी तो ऐसे ही
हैं। यह जो हमारे मनुष्य को छोड़ कर चारों तरफ फैला हुआ विराट विश्व है, इस विराट विश्व ने अभी भी परमात्मा से संबंध नहीं छोड़ा है। ये पौधे अब भी
परमात्मा के हमसे ज्यादा निकट हैं, ये चांदत्तारे अब भी
ज्यादा निकट हैं, ये छोटे-छोटे कीड़ों की झंकार अब भी हमसे
ज्यादा निकट हैं, अब भी यह पहाड़ियों की साइलेंस और सन्नाटा
हमसे ज्यादा निकट है परमात्मा के। मनुष्य सर्वाधिक अपने ही द्वारा निर्मित कोलाहल
में बंद हो गया है। मनुष्य को हटा दें जमीन से, अब भी
साइलेंस है। अब भी अदभुत सन्नाटा है, अदभुत संगीत है। तो
इसलिए मैंने चाहा कि इधर हम होंगे और थोड़ी देर इस शांति में और सन्नाटे में
बैठेंगे।
ध्यान के लिए तो मैंने आपको कहा:
बहुत सरल सी बात है। अभी हम सब लोग थोड़े-थोड़े एक-दूसरे से दूर बैठें। इस
रात का पूरा उपयोग करें। कुछ हो सकता है, भीतर कुछ पैदा हो
सकता है। थोड़ा-थोड़ा दूर बैठें, न तो सर्दी की फिकर करें और न
किसी और चीज की। थोड़े फासलों पर बैठ जाएं और इस रात का जो भी फायदा मन को मिल सकता
है उसे मिलने दें। देखें, एक-दूसरे को न छुएं। आदमी आदमी से
थोड़ा बचें, आदमी बड़ा खतरनाक प्राणी है, थोड़ा सा मोह छोड़ें उसके फासले का। जरा थोड़ा सा हट जाएं। देखें, थोड़ा हटें, यहां तो काफी भीड़-भाड़ किए बैठे हैं। इतने
भी नहीं हटेंगे तो मैं इतनी जो बातें कर रहा हूं उसमें कहां हटेंगे, मुश्किल है। थोड़ा जमीन ही नहीं छोड़ते!
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