साक्षी की साधना-(साधना-शिविर)
ओशो
नौवां प्रवचन
मैं बंद किए हुए हूं, उनकी मैं चर्चा करूंगा। क्योंकि
दिखाई पड़ना शुरू हो जाए, पहला तो यह जरूरी है कि दीवाल दिखाई
पड़े भीतर, दिखाई पड़े तो फिर टूट सकती है। अब जिस कैदी को यही
भूल गया हो कि मैं कैदी हूं, फिर तो मुश्किल हो गया, फिर कैद से छुटकारे का कोई रास्ता न रहा। पहली तो बात यह कि यह दिखाई पड़े,
अनुभव में आए कि हम भीतर कैद में घिर गए हैं, एक
बिलकुल एक कारागृह में बंद हैं। और खुद ही उसे सम्हाले हुए हैं, खुद ही उसके ईंटें रखते हैं, खुद ही उसकी दीवालों पर
जहां-जहां द्वार है वहां-वहां बंद कर देते हैं, रोशनी भीतर न
पहुंचे इसके सब उपाय करते हैं और फिर चिल्लाते हैं कि हे परमात्मा! हम अंधकार में
खड़े हुए हैं, हम क्या करें?
यानी हमारी स्थिति ऐसी है कि हम चारों तरफ से दरवाजे बंद करके अंधकार
में खड़े हो जाते हैं और फिर चिल्लाते हैं, हे परमात्मा! हम क्या
करें? बहुत अंधकार है। परमात्मा से चिल्लाने की कोई जरूरत
नहीं है, उसकी रोशनी हमेशा चारों तरफ मौजूद है। हमें देखना
और जानना होगा कि हम खुद ही तो अपने दरवाजे बंद किए हुए नहीं खड़े हैं? और जैसा मैं देखता हूं, मुझे दिखता है, हम दरवाजे बंद किए हुए हैं।
तो आज की सुबह तो मैं यही पहली बात आपसे कहूं: संतुष्टि की दौड़ व्यर्थ
है, इसे देखने की आग पैदा करिए। जब भी मन किसी संतोष की तलाश में लगे, तो स्मरण रखिए कि संतोष की चीज तो मिल जाएगी, लेकिन
संतोष नहीं मिलेगा। जब भी कोई दौड़ कामना की और वासना की मन को पकड़े, तो खयाल में बोधपूर्वक देखिए कि वह मिल भी जाएगी तो भी कुछ मिलेगा नहीं।
दौड़ हो जाएगी, समय व्यतीत होगा, शक्ति
क्षीण होगी, लेकिन कुछ भीतर उपलब्धि नहीं होगी। सब
उपलब्धियां बाहर की मिल कर भी भीतर कुछ उपलब्ध नहीं करती हैं, यह आपको दिखाई पड़ना चाहिए। और ऐसे देखने के लिए बाहर चारों तरफ जिनकी
उपलब्धियां हैं, उन पर ध्यान करिए, उनको
देखिए। चारों तरफ जिनके पास सब कुछ है, उनके असंतोष को
देखिए। जिनके पास बहुत कुछ है, उनकी पीड़ा और संताप को अनुभव
करिए। आंख खोलिए और चारों तरफ देखिए। अपने, दूसरे के अनुभव,
इनके प्रति बोधपूर्वक स्मरण, इनका निरीक्षण,
इनका ठीक-ठीक ऑब्जर्वेशन, आपके भीतर संतुष्टि
का जो भ्रम है, उसे तोड़ देगा। ठीक है कि संतुष्टि की कामना
है, लेकिन अगर संतुष्टि के प्रति आंख आ जाए, तो कामना विलीन हो जाएगी।
तो मैं संतुष्टि की कामना से लड़ने को नहीं कह रहा हूं, यह स्मरण रखें, मैं केवल बोध के लिए कह रहा हूं। अगर
उससे आप उससे लड़ने लगे, तो आप एक और नये पागलपन में पड़
जाएंगे। एक तरफ गृहस्थ हैं, जो संतुष्टि के पीछे दौड़ रहे
हैं। एक तरफ संन्यासी हैं, जो संतुष्टि से लड़ रहे हैं। इन
दोनों को ही मैं गलत समझता हूं। ये एक-दूसरे की प्रतिक्रियाएं हैं, एक-दूसरे के रिएक्शंस हैं। गृहस्थ जो गलती कर रहा है, ठीक उसके विरोध में दूसरी गलती संन्यासी करता है। एक संतुष्टि के पीछे भाग
रहा है, एक संतुष्टि से भाग रहा है। एक आदमी है जो धन के
पीछे दौड़ रहा है, उसकी लार टपकी जा रही है, एक आदमी है जो कहता है धन मुझे न छू ले, उसके
हाथ-पैर कंपते हैं, डर लगता है कि धन कहीं छू लेगा, तो क्या होगा? लेकिन दोनों का विश्वास धन में हैं,
दोनों धन को मातने हैं, दोनों धन के उपयोग और
धन की गरिमा को और धन के प्रभाव को स्वीकार करते हैं।
यानी वह आदमी जो धन के पीछे भाग रहा है, उतना ही धन से ग्रस्त
है जितना वह आदमी जो धन को छोड़ कर भाग रहा है, वह भी धन से
ग्रस्त है। दोनों के पास आंखें नहीं हैं। ये दो अंधे हैं, जो
दोनों एक-दूसरे के विरोध में भाग रहे हैं। जो गृहस्थ है और जो तथाकथित संन्यासी है,
इन दोनों को मैं एक ही बीमारी के दो छोर मानता हूं। तीसरा व्यक्ति
मैं उसको मानता हूं, जिसको बोध आना शुरू होता है। संतुष्टि
से लड़ने का खयाल नहीं रह जाता, संतुष्टि व्यर्थ हो जाती है।
लड़ता तो वह है जिसे अभी संतुष्टि सार्थक हो।
एक बहुत बड़े संन्यासी सारे यूरोप, अमेरिका में बड़ा
प्रभाव छोड़ कर भारत वापस लौटे। बड़ा उनका नाम था, बड़ी उनकी
ख्याति थी, हजारों लोगों ने उनको सम्मान दिया, आदर दिया, बातें उनकी बहुमूल्य थीं। क्योंकि बातें
बहुमूल्य करना बहुत आसान बात है। बहुमूल्य बात करना कोई बड़ी कठिन बात नहीं है।
क्योंकि बातें तो उपलब्ध हैं--ग्रंथ हैं, शास्त्र हैं,
शिक्षा है; सब सीखा जा सकता है और किया जा
सकता है। फिर वे भारत आए। कहते थे, सारा जगत जो है माया है;
कहते थे, सारा जगत व्यर्थ है; कहते थे, सब असार है। यहां आए, जब भाग कर गए थे, तो अपनी पत्नी को छोड़ कर चले गए थे,
वह पत्नी उनसे मिलने आई, तो उन्होंने दरवाजा
बंद कर लिया और अपने शिष्यों से कहा कि उससे कह दो कि मैं नहीं मिल सकता हूं।
तो उनके एक शिष्य ने कहा: मैं
हैरान हूं! आप कहते हैं, जगत सब झूठा है, सब असार है,
और मैंने आपको देखा, आपने किसी स्त्री के लिए
कभी नहीं कहा कि द्वार बंद कर दो, उसे भगा दो, इस स्त्री को क्यों भगा रहे हैं? जरूर इसे आप अपनी
स्त्री मानते हैं? इस स्त्री के प्रति आपकी दृष्टि जो है वह
सामान्य नहीं है, जैसी और स्त्रियों के प्रति है। इस इस
स्त्री में कुछ सार जरूर कहीं न कहीं है। नहीं तो इतनी घबड़ाहट क्या है? जहां सार होता है, वहां आकर्षण होता है। अगर आकर्षण
के विरोध में चले जाएं, तो घबड़ाहट शुरू हो जाती है। जो आदमी
अपने आकर्षण के विरोध में जाएगा, वह घबड़ा जाएगा। जिस चीज से
वह लड़ेगा, उससे डरेगा, क्योंकि कहीं वह
जीत न जाए।
तो एक भोगी है, जो स्वीकार कर लेता है संतुष्टि को, एक तथाकथित त्यागी है, जो उसके विरोध में खड़ा हो
जाता है। मैं कोई त्यागी का पक्षपाती नहीं हूं। मेरे लिए वह अंधेपन का दूसरा शिकार
है। मैं पक्षपाती हूं उसका, प्रबुद्ध चेतना का। होश होना
चाहिए। अगर होश आ जाए, तो संतुष्टि विलीन हो जाती है,
लड़ने का सवाल नहीं है। क्योंकि जिस व्यक्ति को दिखाई पड़ने लगे
संतुष्टि का भ्रम, वह संतुष्टि से लड़ेगा कैसे? लड़ने का कोई सवाल नहीं रह जाता।
जीवन में लड़ने का प्रश्न नहीं, जागने का प्रश्न है।
जो नहीं जाग पाता, वह लड़ता है। और जो लड़ता है, वह आज नहीं कल हार जाएगा। क्योंकि वह एक ऐसे दुश्मन से लड़ रहा है, वह एक शत्रु से लड़ रहा है जो है ही नहीं। अगर शत्रु हो, तो उससे हम जीत भी सकते हैं। लेकिन जो शत्रु है ही नहीं, उससे जीतेंगे कैसे?
जैसे एक आदमी अपनी छाया से लड़ने लगे, तो कौन जीतेगा?
छाया जीतेगी। क्योंकि छाया इसलिए नहीं जीतेगी कि ताकतवर है, छाया इसलिए जीतेगी कि वह है ही नहीं। तो जो इल्युजन से लड़ता है वह आदमी
हार जाता है। जो भ्रम से लड़ता है वह आदमी हार जाता है। क्योंकि भ्रम को हरा ही
नहीं सकते आप, वह है ही नहीं, हराएंगे
क्या? लेकिन लड़ेंगे खुद, तो अपनी ताकत
तो क्षीण करेंगे ही लड़ने में, धीरे-धीरे आप टूट जाएंगे और
नष्ट हो जाएंगे और भ्रम जीत जाएगा, जो कि नहीं था।
संसार में संतुष्टि की खोज में जाना वाला आदमी भ्रम में है। संतुष्टि
के विरोध में जाना वाला आदमी और भी बड़े भ्रम में है। छाया को मानने वाला आदमी भ्रम
में है। छाया का विरोध करने वाला आदमी और भी बड़े भ्रम में है। गृहस्थ अज्ञान में
है, तथाकथित संन्यासी और भी गहरे अज्ञान में है। सवाल लड़ने का नहीं है,
सवाल जागने और देखने का है, सवाल दृष्टि के
खुलने का है। और दृष्टि के खुलते ही छाया विलीन हो जाती है। ज्ञात होता है वह थी
ही नहीं। और तब दिखाई पड़ता है कि एक गलती संन्यासी कर रहा है, एक गलती गृहस्थ कर रहा है। जो छाया नहीं है, एक उससे
हाथ जोड़ कर प्रार्थना कर रहा है कि मुझे मिल जाओ और एक तलवार लिए खड़ा है कि मैं
तुझे नष्ट कर दूंगा। तब जब आपको दृष्टि मिलती है, आप देखते
हैं, ये दोनों पागल हैं। दोनों पागल हैं, संन्यास और गृहस्थ, ये जो तथाकथित भोगी और तथाकथित
योगी।
दुनिया में दो तरह के पागल हैं, दो टाइप हैं: एक भोग
के पीछे जाने वाला, एक भोग के विरोध में जाने वाला। ये दोनों
कोई मार्ग नहीं हैं। मार्ग इनके बहुत बीच में है: न विरोध में है, न भोग में है। मार्ग दृष्टि में है, दर्शन में है।
वह जितनी सम्यक दृष्टि होगी, जितना राइट एटिट्यूड होगा,
जितना ठीक-ठीक बोध होगा, उसमें सारी बात है।
वह बोध के बाबत हम धीरे-धीरे विचार करेंगे।
अभी सुबह की चर्चा तो मैं पूरा करता हूं, इस खयाल में कि आप सोचेंगे, संतुष्टि के बाबत देखना
शुरू करेंगे, तब आपमें कोई सत्य की आकांक्षा पैदा होनी शुरू
होगी।
सुबह के ध्यान के संबंध में दो-चार बातें आपसे कह दूं। और फिर हम सुबह
के ध्यान के लिए बैठें।
दिन में दो बार इस शिविर में हम ध्यान करेंगे, सुबह और रात्रि को। तो ध्यान के संबंध में थोड़ी बात समझा दूं।
बड़ी सरल सी बात है, आमतौर से समझा जाता है कि ध्यान
का अर्थ है किसी पर ध्यान करना। उसको मैं ध्यान नहीं कहता। आमतौर से समझा जाता है,
ध्यान का मतलब है किसी पर ध्यान करना--कृष्ण पर, राम पर, बुद्ध पर, महावीर पर;
किसी नाम पर, किसी मंत्र पर, किसी रूप पर, किसी आकार पर, ये
कोई भी ध्यान नहीं है। ये सबके सब विचार हैं। विचार की ही एकाग्र स्थितियां हैं।
ध्यान किसी पर नहीं करना होता, ध्यान की मेरी जो परिभाषा है
वह यही है कि जब आपके चित्त में कोई नहीं होता है तो आप ध्यान में होते हो। ध्यान,
जब आपके चित्त में कोई नहीं होता है--राम भी नहीं, कृष्ण भी नहीं, संसार भी नहीं, दुकान भी नहीं, मंदिर भी नहीं, कोई शास्त्र भी नहीं, कोई भजन, कुछ भी नहीं, जब आपके चित्त में कुछ भी नहीं होता है,
आप हीं अकेले रह जाते हो, तो वह जो स्टेट ऑफ
माइंड है, वह ध्यान है।
किस भांति आप अपने भीतर बिलकुल अकेले रह जाओ कि वहां कोई भी न रहे
आपके सिवाय, कोई पड़ोसी न रह जाए, तो आप
ध्यान में हो। जब तक कोई पड़ोसी भीतर है तब तक आप ध्यान में नहीं हो। क्योंकि जब तक
पड़ोसी भीतर है, तब तक आपका ध्यान उस पड़ोसी पर रहेगा। जब तक
कोई भी चीज आपके भीतर है, तब तक आपका ध्यान उस चीज पर रहेगा,
उस ऑब्जेक्ट पर रहेगा। और जब तक किसी चीज पर ध्यान रहेगा, तब तक स्वयं पर नहीं रहेगा। ध्यान एक ही तरफ रह सकता है।
अगर आप यहां बैठे हैं, और आपका ध्यान मेरी
तरफ है, फिर आपका ध्यान आपकी तरफ नहीं रह जाएगा। ठीक ही है।
ध्यान की दिशा एक ही तरफ होती है।
तो अगर स्वयं पर जाना है और स्वयं की सत्ता और जीवन को देखना है, पहचानना है कि कौन है वहां, क्या है, तो सब तरफ से ध्यान-शून्य हो जाना चाहिए।
आमतौर से लोग कहेंगे, यह तो ठीक है, सब तरफ से ध्यान-शून्य हो जाएं, तो हम उसे कहां
लगाएं? बस आपने लगाने का पूछा कि आप फिर किसी तरफ लगाने की
बात पूछने लगे। मैं कह रहा हूं, सब तरफ से; तो स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि यह तो ठीक है, आप
कहे रहे हैं, लेकिन हम उसे कहां लगाएं? जब आपने पूछा, कहां लगाएं, फिर
आप पूछने लगे कि फिर, फिर वह, फिर कोई
चीज आप चाहते हैं जिस पर लगाया जाए।
नहीं; मैं कहता हूं, ध्यान को कहीं न
लगाएं, तो आप ध्यान में हो जाएंगे। इसे थोड़ा सा समझ लें,
फिर प्रयोग हम करेंगे, उससे थोड़ा अनुभव शायद
होगा कि ऐसी स्थिति है जब कि ध्यान कहीं न लगा हो। क्योंकि ध्यान तो ताकत है।
मैं यहां बैठा हूं, अभी नहीं दौड़ रहा हूं, तो भी दौड़ना मेरे भीतर है। दौड़ने की शक्ति के लिए दौड़ना जरूरी नहीं है।
नहीं तो फिर जो बैठे हैं वे कभी दौड़ ही नहीं सकेंगे। फिर जो दौड़ रहे हैं, वे कभी बैठ ही नहीं सकेंगे। दौड़ने की शक्ति मेरे भीतर इस क्षण भी है,
जब कि मैं नहीं दौड़ रहा हूं। जब आपका ध्यान किसी चीज पर नहीं है तब
भी ध्यान की शक्ति आपके भीतर होती है।
ध्यान की शक्ति अलग बात है और किसी चीज पर ध्यान होना उसका प्रयोग है।
दौड़ने की शक्ति अलग बात है, दौड़ना उसका प्रयोग है, इंप्लिमेंटेशन
है। वह तो उसका उपयोग है।
तो अभी हम जो कर रहे हैं, वह ध्यान का उपयोग कर
रहे हैं। अगर उपयोग छोड़ दें, तो शुद्ध ध्यान रह जाएगा। अगर
सब उपयोग छूट जाए, तो ध्यान की शक्ति मात्र रह जाएगी। वह जो
ध्यान की शक्ति मात्र है, उसको मैं ध्यान कह रहा हूं। उस
क्षण में जब आप कुछ भी नहीं जान रहे हैं, स्वयं का जानना
शुरू होता है। जब आपके ज्ञान में कुछ भी नहीं आ रहा है, तब
आप अपने ज्ञान में आने प्रारंभ हो जाते हैं। और जब तक आपके ज्ञान का कोई उपयोग हो
रहा है, कहीं न कहीं कोई चीज उससे आ रही है, तब तक आपका ज्ञान उसे पकड़े रहता है और अपने पर आने में असमर्थ होता है।
ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं है कि किसी एक चीज पर उसे लगा देना है।
ध्यान का अर्थ है: चित्त कहीं न लगा हो, कहीं भी न लगा हो,
नो व्हेयर, वह जो नो व्हेयर की, कहीं भी न होने की स्थिति है, वह स्वयं में होने की
स्थिति है। जब आप कहीं भी नहीं होते, तब आप स्वयं में होते
हैं। और जब आप कहीं भी होते हैं, तब आप स्वयं में नहीं होते।
यह जो स्थिति है कहीं भी न होने की, यह आत्म-स्थिति है। और
कहीं भी होने की स्थिति मानसिक स्थिति है।
ध्यान आत्मिक दशा है। यह आत्मिक दशा बड़ी सहज है, अगर बात ठीक-ठीक अंडरस्टैंडिंग में और समझ में हो। अन्यथा इससे कठिन और
कोई चीज नहीं है। यह दुनिया में फिर सबसे कठिन बात है। यह फिर सबसे कठिन बात है।
फिर एवरेस्ट पर चढ़ना बहुत आसान है और चांद पर पहुंचना बहुत आसान है और स्वयं के
भीतर जाना बहुत कठिन है। इसलिए जो लोग समुद्र की पांच-पांच मील की गहराइयों में
उतर जाते हैं, उनसे भी कहो कि अपने भीतर उतरो, तो वे कहेंगे, बड़ा मुश्किल है, अपने भीतर कैसे उतरें? जो लोग एवरेस्ट चढ़ गए हैं,
उनसे कहो, अपने भीतर, तो
वे कहेंगे, बड़ा कठिन है। फिर यह जो अत्यंत निकट है यह कठिन
है, अगर बात ठीक से बोध में न हो। और अगर बात बोध में हो,
तो एक कदम उठा कर बाहर जाना बहुत कठिन बात है, भीतर आना बहुत सरल बात है। क्योंकि भीतर आने के लिए कहीं भी जाना नहीं है।
जाने में तो कुछ कठिनाई हो सकती है, भीतर आने के लिए कहीं भी
नहीं जाना है। कैसे यह सबसे सरल और सबसे कठिन बात संभव हो सकती है, उसकी हम सुबह और सांझ को प्रयोग करेंगे।
और मेरा मतलब समझ लें, मतलब है, बिलकुल ही खाली और शून्य हो जाना। उसके लिए कुछ आर्टिफिसियल, कुछ बड़ा कृत्रिम उपाय प्रारंभ में, बाद में तो उसका
कोई अर्थ नहीं है, छूट जाना चाहिए। लेकिन प्रारंभ में थोड़ा
सा एक कृत्रिम उपाय करेंगे।
और वह कृत्रिम उपाय यह है, सुबह के लिए, और रात्रि के लिए अलग उपाय करेंगे।
सुबह के लिए अभी हम सारे लोग थोड़े-थोड़े फासले से बैठ जाएंगे, ताकि कोई एक-दूसरे को छूता हुआ न हो, कोई पड़ोसी न रह
जाए, आप अकेले हो जाएं।
तो सारे लोग थोड़े-थोड़े फैल जाएं, अगर बाहर भी फैल जाना
पड़े, तो कोई हर्जा नहीं, आवाज मेरी
पहुंच सकेगी। जहां-जहां छाया हो वहां-वहां हट जाएं। लेकिन यहां भी थोड़े-थोड़े फैल
जाएं, कोई किसी को छूता हुआ न हो, ताकि
दूसरे को आपका खयाल न रह जाए, आपको लगे आप अकेले ही बैठे हुए
हैं। ................
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