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गुरुवार, 8 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-29

    पागल बाब और रहस्‍य


      सारी रात हवा पेड़ों में से सरसराती हुई बहती रही। यह आवाज इतनी अच्‍छी लगी कि मैंने पन्‍ना लाल घोष के संगीत को सुना। उन बांसुरी वादकों में से जिनको पागल बाबा ने मुझसे परिचित करवाया था। अभी-अभी मैं उनके संगीत को सुन रहा था। उनका बांसुरी बजाने का ढंग अपना ही है। उनकी प्रस्‍तावना बहुत लंबी होती है। गुड़िया ने जब मुझे बुलाया तो अभी भूमिका ही चल रही था—मेरा मतलब है कि तब तक उन्‍होने अपनी बांसुरी को बजाना आरंभ नहीं किया था। सितार और तबला उनकी बांसुरी के बजने की पृष्‍ठभूमि तैयार कर रहे थे। पिछली रात शायद दो साल के बाद मैंने उनके संगीत को दुबारा सुनी।
      पागल बाबा की बात परोक्ष‍ रूप मैं ही करनी पड़ती है। उनकी यही विशेषता थी। वे सदा अदृश्‍य से ही बने रहते थे। उन्‍होंने मेरा परिचय अनेक संगीतज्ञों से कराया। और मैं सदा उन से पूछता था कि वे ऐसा क्‍यों करते है। वे कहते थे: ‘’ एक दिन तुम संगीतज्ञ बनोगें।‘’
      मैने कहा: ‘’ पागल बाबा, कभी-कभी ऐसा लगता है कि लोग ठीक कहते है कि आप पागल हो। मैं संगीतज्ञ नहीं बनने बाला हूं। उन्‍होंने हंस कर कहा: ‘’ मुझे मालूम है। फिर भी मैं यह कहता हूं कि तुम संगीतज्ञ बनोगें।‘’
      अब उनकी इस बात से क्‍या समझा जाए, मैं संगीतज्ञ तो नहीं बना। लेकिन फिर भी एक अर्थ में उनकी बात ठीक थी। मैंने संगीत के किसी यंत्र को तो नहीं बजाया,लेकिन मैंने हजारों लोगो की ह्रदय तंत्री को बजाया है। बिना किसी साज के, बिना किसी तकनीक के मैने जो संगीत बजाया है, वह साज के संगीत से कहीं अधिक गहरा और मर्मस्पर्शी है।
      मुझे वे तीनों बांसुरी वादक अच्‍छे लगते थे, कम से कम उनका संगीत अच्‍छा लगता  था। लेकिन उन में से कुछ एक ही मुझे पसंद करते थे। हरि प्रसाद मुझसे बहुत प्रेम करते थे । उनको कभी यह खयाल नहीं आया कि मैं बच्‍चा हूं, और वे मुझसे बड़े है, और संसार के सुविख्‍यात संगीतज्ञ है। वे मुझसे प्रेम ही  नहीं वरन मेरा आदर करते थे एक बार मेंने उनसे पूछा कि हरी बाबा, आप मेरा आदर क्‍यों करते हो। उन्‍होंने उत्‍तर दिया: ‘’ अगर बाबा तुम्‍हारा आदर करते है तो आदर करते है तो मैं क्‍यों न करूं। मेरा पागल बाबा पर पुरा विश्‍वास है। और अगर वे तुम्‍हारे पैर छूते है, और तुम छोटे से बच्‍चे हो, तो इसका मतलब है कि उनके जो मालुम है उसको समझने में या जानने में अभी मैं असमर्थ हूं। पर वह गौण है, मेरे लिए इतना ही काफी है कि वे जानते है। वे भक्‍त थे।     
      पिछली रात जिस संगीतज्ञ को मैंने सुना ओर यहां आने से पहले दुबारा जिसे सुनने की कोशिश कर रहा था, वे है पन्‍ना लाल घोष। वे मुझे न पंसद करते थे,न नापंसद करते थे। वे बहुत ही सपाट आदमी थे—दूर तक फैले हुए सपाट मैदान की तरह जिसमें न कोई पहाड़ी थी। न कोई घाटी थी। उनकी पसंद और नापसंद में कोई गहराई नहीं थी। लेकिन उनका बांसुरी बजाने का जो अपना ढंग था। वह अनोखा था उनके जैसी बांसुरी न पहले किसी ने बजाईं न बाद में कोई बजाएगा। अपनी बांसुरी पर तो वे शेर की तरह गरजते थे।
      एक बार मैंने उनसे पूछा: ‘’ अपने जीवन में तो आप ठीक बंगाली बाबू हो—भेड़ जैसे। वे बंगाल के थे और भारत में कायर आदमी को बंगाली कहा जाता है। क्‍योंकि बंगाली आक्रमक नहीं होता।) आप सच्‍चे बंगाली बाबू हो। लेकिन जब आप बांसुरी बजाते हो तो आपको क्‍या हो जाता है। आप तो शेर बन जाते हो।‘’
      उन्‍होंने कहा: ‘’ कुछ तो अवश्‍य होता है। मैं वही नहीं रहता अन्‍यथा मैं वही बंगाली बाबू रहूँ ठीक वही दब्बू और डरपोक, लेकिन कुछ होता है, मुझ पर सवार हो जाता है। ठीक यही शब्‍द उन्‍होंने उपयोग किए थे। मैं आवेशित हो जाता हूं, मैं नहीं जानता कि मुझे पर क्‍या छा जाता है। शायद तुम जानते होगें। नहीं तो पागल बाबा मन में तुम्‍हारे लिए इतना आदर क्‍यो  होता। मैंने उनको कभी किसी के पैर छूते नहीं देखा, लेकिन वे तुम्‍हारे पैर छूते है। बड़े-बड़े संगीतज्ञ उनके  पास आते है उनके आशीर्वाद को प्राप्‍त करने के लिए और उनके पैर छूने के लिए।
      पागल बाबा ने मुझे केवल बांसुरी वादकों से ही नहीं और भी अनेक लोगों से परिचित करवाया था। शायद मेरी कहनी के किसी दौर में उनका भी जिक्र आएगा। लेकिन पन्‍ना लाल घोष ने जो कहा वह बहुत महत्‍वपूर्ण है।
      उन्‍होंने कहा: ‘’ मैं आवेष्टित हो जाता हूं, एक बार मैं बजाना शुरू करता हूं तो मैं पन्‍ना लाल घोष नहीं होता। कुछ और ही हो जाता हूं,  मैं उनके शब्‍दों को शब्‍दों को उद्धृत कर रहा हूं। उसके बाद उनहोंने कहा, इसीलिए असली धुन को बजाने से पहले मुझे बहुत देर तक स्‍वरों की लंबी भूमिका तैयार करनी पड़ती है। बांसुरी वादक इतनी लंबी भूमिका प्रस्‍तुत नहीं करते। इसीलिए लोग मेरी आलोचना करते है।
      वे बांसुरी के क्षेत्र के बर्नार्ड शॉ थे। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की पुस्‍तक अगर नब्बे पृष्ठों की होती है तो उसकी भूमिका तीन सौ पृष्ठों की होती है। पन्‍ना लाल घोष ने कहा, लोग तो समझ नहीं सकते। लेकिन में तुम्‍हें बताता हूं कि मुझे तब तक इंतजार करना पड़ता है जब तक मैं आवेष्टित न हो जाऊँ। लंबी भूमिका का यही कारण है। जब तक यह आंतरिक स्‍वयं नवन जाए, मैं बजाने में लीन नहीं हो सकता।
      ये शब्‍द है प्रमाणिक कलाकार के। केवल प्रामाणिक कलाकार ही ऐसा कह सकता है। पत्रकार के ढंग का कलाकार संगीत के बारे में लिखते है, लेकिन स्‍वयं उनको इसका कोई अनुभव नहीं होता। वे कविता के बारे में लिखते है, जब कि स्‍वयं उन्‍होंने कभी एक कविता नहीं लिखी। वे राजनीति के बारे में लिखते है, जब कि राजनीति के संघर्ष का उन्‍हें कोई अनुभव नहीं होता। आफिस में बैठ कर ये पत्रकार हर विषय के बारे में लिख देते है। एक ही व्‍यक्‍ति एक सप्‍ताह संगीत के बारे में लिखता है। दूसरे सप्‍ताह काव्‍य के बारे में  और तीसरे सप्‍ताह राजनीति की चर्चा करता है1 लेकिन  इन सब विषयों पर वह एक ही नाम से नहीं वरन विभिन्‍न नामों से लिखता है।
      एक बार मुझे भी आवश्‍यकतावश पत्रकार बनना पड़ा था। अन्‍यथा मुझे यह कष्‍ट सहन न करना पड़ता। मेरे पास पैसे नहीं थे और मेरे पिता मुझे विज्ञान पढ़ने के लिए भेजना चाहते थे। मुझे विज्ञान में कोई दिलचस्‍पी नहीं थी। न अब है न तब थी। और वे इतने गरीब थे कि मुझे लगा कि वे बहुत बड़ा जोखिम उठा रहे है। मेरे परिवार में किसी ने भी उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त नहीं कि थी। मेरे पिता ने मेरे एक चाचा को विश्वविद्यालय में पढ़ने भेजा था, लेकिन वहां का खर्च वहन न कर सकने के कारण उनको वापस बुलाना पडा था।
      अब मेरे पिताजी मुझे विश्‍वविद्यालय भेजने को तैयार थे। इसके लिए उन्‍हें बहुत बड़ा त्‍याग करना पड़ता। वे इसे व्‍यावसायिक ढंग से  करना चाहते थे। वे सोच रहे कि अगर वक मेरी शिक्षा पर पैसा लगाएंगे तो आगे चल कर इससे अधिक उनको वापस मिल जाएगा। मैंने उनसे कहां: यह मेरी शिक्षा का प्रश्‍न है या आप की पूंजी का निवेश का। आप मुझे इंजीनियर या डाक्‍टर बनाना चाहते है ताकि मैं अधिक कमा सकूं। लेकिन मैं तो कभी कुछ नहीं कमाना चाहता,सदा अधिक से अधिक सीखते रहना चाहता हूं। और फिर मैंने उनसे कहा: मैं तो होबो(आवारा घुमक्कड़)बना रहूँगा। उन्‍होंने कहा: क्‍या होबो, मैंने कहा: अच्‍छे शब्दों में एक संन्‍यासी। वे तो स्‍तब्‍ध रह गए। उन्‍होंने कहा: अगर तुम्‍हें संन्‍यासी ही बनना है तो विश्‍वविद्यालय में पढ़ने की क्‍या जरूरत है।
      मैंने कहा:  मुझे इन प्रोफेसरों से धृणा हैं, लेकिन उनकी निंदा करने के लिए, उनकी आलोचना करने के लिए यह जरूर है कि पहले उनके पेशे से अच्‍छी तरह से परिचित हो जाऊँ।   
      उन्‍होंने कहा: यह तो और अजीब बात है कि तुम विश्‍वविद्यालय इसलिए जाना चाहते हो ताकि बाद में उनकी निंदा कर सको। मैं पैसा उधार लेकर या अपने मकान को गिरवी रख कर, अपने व्‍यापार को जोखिम में डाल कर तुम्‍हें विश्‍वविद्यालय भेजूं ताकि तुम इन्‍हीं प्रोफेसरों की बुराई कर सको। यह काम तुम विश्‍वविद्यालय में जाए बिना क्‍यों नहीं कर सकते हो।
      मैंने पिताजी के लिए एक छोटा सा पत्र लिख कर घर छोड़ दिया। मैंने लिखा कि मैं आपकी भावनाओं को समझ सकता हूं और मैं आपकी आर्थिक स्‍थिति को भी जानता हूं। न आप मुझे समझ सकते है और न मैं आप को समझ सकता हूं। हम दोनों अलग-अलग दुनिया के है। कम से कम अभी हम दानों के बीच कोई पुल नहीं है। इसकी कोई जरूरत भी नहीं है। आपने मेरे लिए जो कुछ भी करना चाहा उसके लिए धन्‍यवाद,लेकिन वह एक पूंजी निवेश था और आपने व्‍यापार में मैं आपका भागीदार नहीं बनना चाहता। आपसे बिना मिले मैं जा रहा हूं और अब शायद मैं आपसे तभी मिलुंगा जब मैं आर्थिक रूप से स्‍वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा हो जाऊँगा।
      इसलिए मुझे पत्रकार का काम करना पडा। यह सबसे खराब काम है, लेकिन उस समय और कोई काम उपलब्ध नहीं था। तो मजबूरी में मुझे यही काम करना पडा। भारत में पत्रकारिता तीसरे दर्जे का निम्‍नतम काम है। तीसरे दर्जे का ही नहीं, संसार का सबसे खराब काम है। मैंने इसे किया तो सही लेकिन बहुत अच्‍छी तरह से न कर सका। मैं कुछ भी अच्‍छी तरह से नहीं कर सकता। अच्‍छी तरह से करना तो दूर रहा। मैं तो कुछ भी नहीं कर सकता। यह में अपने प्रति शिकायत नहीं कर रहा, केवल स्‍वीकार कर रहा हूं।
      और वह नौकरी तो जल्‍दी ही समाप्‍त हो गई। क्‍योंकि जब मालिक, प्रधान संपादक आया, तो मैं मेज पर पैर रख कर सो रहा था—ठीक जैसे अभी मैं हूं। उसने मुझे देखा और मुझे झकझोरा। मैंने अपनी आंखें खोली, उसको देखा और कहा, यह कैसी अशिष्‍टता है। मैं गहरी नींद सो रहा था और सुंदर सपना देख रहा था। आपने उसे भंग कर दिया। उस सपने को दुबारा देखने के लिए मैं अमूल्‍य निधि दे सकता हूं। मैं पैसे देने को तैयार हूं, अब बताइए कि उस सपने के आगे कैसे बढ़ाऊ।
      उसने कहा:  मुझे तुम्‍हारे सपने से कोई सरोकार नहीं है। भाड़ में जाए तुम्‍हारा सपना। लेकिन यह समय मेरा है और इसके लिए तुम्‍हें पैसे दिए जाते है। इसलिए तुम्‍हें नींद से उठाने का मेरा अधिकार है।
      मैंने कहा:  अच्‍छा, तो फिर यहां से चले जाने का अधिकार मेरा है। इतना कह कर मैं बाहर चला गया। उसने गलत बात नहीं कही थी, लेकिन मैं गलत जगह पहुंच गया था। वह स्‍थान मेरे लिए नहीं था। मैं पत्रकारों के साथ तीन वर्ष तक रहा। वह नरक था। पत्रकार बहुत ही घटिया लोग होते है।
      हां, तो मैं कह रहा था, मैं तुम लोगों को चेक कर रहा हूं।
      आप बता रहे थे कि आपके पिता आपकी आर्थिक सहायता नहीं कर सकते थे इसलिए आपको पत्रकारिता का काम करना पडा।
                उसके पहले?
      जब तुम सचमुच में प्रामाणिक कलाकार होते हो तो तुम आविष्‍ट हो जाते हो।
      ठीक।  
      पत्रकारिता के ढंग का नहीं।
      ठीक-ठीक और सही नोट लिखना चालू रखो। तुम अच्‍छे लेखक बन गए हो।    
      मेरे पिता को बहुत आश्‍चर्य होता थ जब भी पागल बाबा आकर मेरे पैर छूत थे। वे पागल बाबा के पैर छूते थे। बड़ा मजेदार दृश्‍य होता था। और चक्र को पूरा करने के लिए मैं अपने पिताजी के पैर छूता था। पागल बाबा इतने जोर से हंसने लगते थ कि सब लोग चुप हो जाते थे, मानेा कुछ विशेष घट रहा हो। और मेरे पिता को संकोच होता।
      पागल बाबा बार-बार मुझे यह समझाने की कोशिश करते कि संगीतज्ञ बनना मेरा भविष्‍य है। मैं कहता, नहीं। और जब मैं नहीं कहता हूं तो सच्‍चे अर्थों में नहीं होता है।
      बचपन में मेरा नहीं बहुत स्‍पष्‍ट रहा है। हां, तो मैं कभी-कभी कहता हूं। यह हांशब्‍द इतना अमूल्य, इतना पवित्र है कि इसका प्रयोग केवल  दिव्‍य की उपस्‍थिति में ही होना चाहिए चाहे वह प्रेम हो या सौंदर्य.....इस समय तो गुलमोहर के पेड़ पर खिले हुए असंख्‍य घने फूल—जैसे कि समूचे वृक्ष से आग की लपटें निकल रही हों। जब कोई चीज तुम्‍हें पावनता की याद दिलाए तब हां शब्‍द का प्रयोग करना चाहिए—तब वह प्रार्थना से भरा हुआ होता है। नहीं का अर्थ होता है कि मैं अपने आप को प्रस्‍तावित गतिविधि से अलग कर लेता हूं। मैं तो सदा से नहीं कहने वाला रहा हूं। मुझसे हां कहलाना बहुत मुशिकल था।
      पागल बाबा संबुद्ध माने जाते थे। मुझे उन दिनों में भी वे अनोखे दिखाई देते थे। मुझे समाधि के बारे में कुछ मालूम नहीं था। उस समय मेरी वही स्‍थिति थी जो आज है—नितांत अज्ञानी, लेकिन उनकी उपस्‍थिति तेजस्‍वी थी। हजारों लोगों में वे आसानी से पहचाने जा सकते थे।
      वे पहले आदमी थे जो मुझे कुंभ के मेले में ले गए। प्रयाग में कुंभ का मेला हर बारह वर्ष में लगता है। सारी दुनिया में शायद ही किसी और जगह पर इतनी बड़ी संख्‍या में लोग जमा होते होंगे। प्रत्‍येक हिंदू कुंभ के मेले को देखने का सपना देखता है। हिंदू सोचता है कि कुंभ के मेले में सम्‍मिलित हुए बिना जीवन सार्थक नहीं होता। इस मेले में कम से कम एक करोड़ लोग तो होते ही है और अधिकतम संख्या ती करोड़ की होती है।
      मुसलमान भी इसी प्रकार सोचते है कि अगर मक्‍का जाकर हज नहीं की और हाजी ने बने तो सारा जीवन व्‍यर्थ हो गया। हज का अर्थ है:  मक्‍का की यात्री—जहां पर मोहम्‍मद रहे और जहां उनकी मृत्‍यु हुई। सारी दुनिया के मुसलमानों का एकमात्र सपना यहीं है कि कम से कम एक बार मक्‍का ही यात्रा करनी चाहिए। हिंदू प्रयाग जाना चाहते है। ये स्‍थान उनके इजराइल है। ऊपरी सतह पर तो सब धर्म अलग-अलग दिखाई देते है, लेकिन जरा कुरेदने पर सबके भीतर वही कचरा भरा हुआ है। हिंदू, मुसलमान, यहूदी, ईसाई से कोई फर्क नहीं पड़ता।
      कुंभ मेले की विशेषता अलग ही है। तीन करोड़ लोगों का एक स्‍थान पर एकत्रित होना ही अपने आप में एक दुर्लभ अनुभव है। सारे हिंदू साधु-संन्‍यासी वहां आते है। और उनकी संख्‍या कम नहीं होती—पाँच लाख होती है। और रंग-विरंग लोग होते है। तुम कल्‍पना भी नहीं कर सकत कि कैसे-कैसे संप्रदाय होते है, तुम भरोसा नहीं कर सकते कि ऐसे लोग भी होते है। और ये सब विचित्र लोग वहां पर एकत्रित होते है। 
      पागल बाबा मुझे जीवन में पहली बार कुंभ के मेले में ले गए। इसके बाद भी एक बार मैं गया था। लेकिन पागल बाबा के साथ जाने का अनुभव बहुत ही ज्ञान वर्धर्क था। क्‍योंकि वे मुझे सभी महान और तथाकथित महान संतों के पास ले गए और उनके सामने ही, हजारों की भीड़ में वे मुझसे पूछते, क्‍या ये आदमी सच्‍चा संत है। मैं कह देता,  नहीं’, लेकिन पागल बाबा भी मेरी ही तरह जिद्दी थे। उन्‍होंने उम्‍मीद नहीं छोड़ी, वे मुझे हर संभव संत के पास ले गए जब तक कि एक आदमी के लिए मैंने हीं नहीं कहा। पागल बाबा ने हंस कर कहा:  मुझे मालूम था कि तू सच्‍चे आदमी को पहचाने लेगा, तुमने इसको पहचान लिया। यह समाधिस्‍थ और संबुद्ध व्‍यक्ति है, लेकिन इसको कोई नहीं जानता। यह आदमी एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठा हुआ था। और उसके पास कोई अनुयायी नहीं था। तीन करोड़ लोगों की भीड़ में शायद वह बिलकुल अकेला था। बाबा ने पहले मेरे पैरों को छुआ और फिर उसके पैरों को छुआ। उस आदमी ने कहा:  इस बच्‍चे को तुमने कहां से खोज लिया, मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि एक बच्‍चा मुझे पहचान लेगा। मैंने तो अपने आप को बहुत अच्‍छी तरह से छिपा रखा है। तुम्‍हारा मुझे पहचानना तो ठीक है, लेकिन यह कैसे पहचान सका।
      बाबा ने कहा:  यही तो पहेली है। इसीलिए तो मैं इसके पैर छूता हूं। अब तुम इसके पैर छुओ।
      अब निन्यानवे साल के इस वयोवृद्ध आदमी की आज्ञा को कौन टाल सकता था । वे इतने तेजस्‍वी और रोबीला थे। उस आदमी ने तुरंत मेरे पैरों को छुआ।
      पागल बाबा इसी प्रकार मुझे सब प्रकार के लोगों से परिचित कराते थे। इस दौर में तो मैं अधिकतर संगीतज्ञों की ही चर्चा कर रहा हूं, क्‍योंकि संगीत से उनको विशेष प्रेम था। वे मुझे भी संगीतज्ञ बनाना चाहते थे। लेकिन मैं उनकी इस इच्‍छा को पूरी नहीं कर सका, क्‍योंकि मेरे लिए संगीत केवल एक प्रकार का मनोरंजन है। मैंने उनसे यही कहा था:  पागल बाबा संगीत काफी निम्‍न कोटि का ध्यान है, मुझे इसमें कोई दिलचस्‍पी नहीं है।
      उन्‍होंने कहा:  हां, मुझे मालूम है। मैं तुमसे सुनना चाहता था। लेकिन ऊंचे उठने के लिए संगीत एक अच्‍छी सीढ़ी है। उसे पकड़े नहीं रहना चाहिए या उसी पर अटके नहीं रहना चाहिए। सीढी का काम है किसी दूसरी जगह पहुंचना।
      इसी लिए मैंने अपनी समस्‍त ध्‍यान-विधियों में संगीत का उपयोग एक सीढी की तरह किया है—उस असली संगीत, नाद हीन संगीत के लिए। नानक कहते है,  एक ओंकार सत्नाम। अर्थात  परमात्मा या सत्‍य का एक ही नाम है और वह है की नाद हीन नाद, स्‍वरहीन स्‍वर। शायद ध्‍यान का जन्‍म संगीत से हुआ हो या संगीत ध्‍यान की मां है। लेकिन अपने आप में संगीत ध्‍यान नहीं है। यह सिर्फ एक इशारा हो सकता है। केवल एक संकेत हो सकता है......
     

      चिरंतन तालाब
      मेढक उसमें छलांग लगाता है,
      स्‍वरहीन स्‍वर.......
     
      इसका अनुवाद कई तरह से किया गया है। एक तो यह है  स्‍वरहीन स्‍वर प्‍लाप इससे भी अच्‍छा है लेकिन हिंदी का शब्‍द और भी अच्‍छा और अर्थपूर्ण है। जब मेढक तालाब में कूदता है तो उसकी आवाज होती है—तुम उसे प्‍लाप कह सकते हो, लेकिन हिंदी का शब्‍द इसकी आवाज को ठीक उसी तरह से प्रकट करता है, वह शब्‍द है: छपाक। अब तुम मेढक बन कर तालाब में कूदो, तो तुम्‍हें मालूम हो जाएगा कि छपाक क्‍या है।
      अंग्रेजी में लिखना मुशिकल होगा। अच्‍छा होगा, मैं तुम लोगों को बता दूँगा, नहीं तो तुम कुछ गलत लिख दोगे। छपाक को अंग्रेजी में इन अक्षरों में लिखना पड़ेगा: सी एँच एँच ए पी ए के। अंग्रेजी में  के लिए कोई अक्षर नहीं है। इस लिए हमें इस प्रकार लिखना पड़ेगा।
      अंग्रेजी में केवल छब्बीस अक्षर है। तुम्‍हें जान कर आश्‍चर्य होगा कि हिंदी या संस्‍कृत की वर्णमाला की संख्‍या इससे दुगुनी है—बावन अक्षर है। बहुत बार अनुवाद करना या रोमन लिपि में लिखना भी मुश्‍किल हो जाता हे। अंग्रेजी में  ध्‍वनि ही नहीं है। और बिना छ के न मेढक होगा, ना छपाक होगा, और ऐसी हजारों चीजों से चूक जाओगे।
      एक ओंकार सत्नाम, सत्‍य का वास्‍तविक नाम तो नाद हीन नाद है। इसको संस्‍कृत में लिखने के लिए हमने जो अक्षर विहीन प्रतीक बनाया वह केवल ध्‍वनि है। नाद है, यह संस्‍कृत वर्णमाला का हिस्‍सा नहीं है। ओम सिर्फ एक ध्‍वनि है, नाद है। और बहुत महत्‍वपूर्ण नाद है। यह बनता है। अ उ और म से। और ये संगीत के तीन बुनियादी स्‍वर है। सारा संगीत इन तीन स्‍वरों पर निर्भर करता है। अगर ये तीनों एक हो जाते है तो मौन होता है। मौन। अगर ये तीनों भिन्‍न हो जाते है तो ध्वनि होती है। अगर सब स्‍वर सम हो तो मौन।
      तुमने हर हिंदू मंदिर में घंटे को  देखा होगा। लेकिन तुमने कोई कलात्‍मक घंटा नहीं देखा होगा। इसके लिए तो तुम्‍हें किसी अजायबघर के तिब्‍बती विभाग को देखना चाहिए। तिब्‍बती घंटी बहुत सुंदर होती हे। यह अजीब घंटी अनेक धातुओं के मेल से बनाई जाती है। इसका आकार एक प्‍याले जैसा होता है जिसके साथ लकड़ी का हैंडल बना हुआ होता है। उस हैंडल को अपने हाथ में ले कर प्‍याले के भीतर गोल-गोल घुमाया जाता है। ऐसा एक निश्‍चित संख्‍या में किया जाता है। जैसे सत्रह बार—और फिर घंटी के भीतर लगे निशान पर चोट की जाती है। यही आरंभ है ओ यही अंत है। वहीं से फिर तुम गोल-गोल घुमाना शुरू करते हो और अंत में एक चोट करते हो। और बड़ी विचित्र बात तो यह है कि वह घंटी पूरे तिब्‍बती मंत्र को दोहराती है। पहली  बार सुनने पर तो यह विश्‍वास ही नहीं होता कि घंटी तिब्‍बती मंत्र को दोहराती है। लेकिन इसी उदेश्‍य के लिए इस घंटी को बनाया गया है।
      एक तिब्‍बती लामा ने मुझे इस प्रकार की घंटी दिखाई थी। घंटी द्वारा पूरे मंत्र को दोहराए जाते सुन कर बड़ा ही सुखद विस्‍मय हुआ। तुम मंत्र को जानते हो। मैंने तुम्‍हें बताया है। मंत्र कोई विशेष नहीं है, उसका कोई अर्थ नहीं है। लेकिन वह संगीत पूर्ण है, बहुत ही संगीत पूर्ण है। इसी लिए इसका सृजन कर सकती है। अगर यह अर्थपूर्ण होता तो घंटी इसे दोहरा नहीं सकती थी। आखिर घंटी इसे दोहरा नहीं सकती थी। आखिर घंटी तो केवल घंटी है।
      मणि पद्य हूम—घंटी इसे इतने स्‍पष्‍ट स्‍वर में दोहराती है कि सुनने बाले को संदेह हो जाता है कि होती घोस्‍ट कहीं छुपा हुआ है। लेकिन वहां पर कुछ नहीं है। न कोई होली घोस्‍ट है, न कुछ और केवल एक लकड़ी की डंडी से उसको गोल-गोल घुमाना पड़ता है और एक खास जगह पर उसे मारना पड़ता है। तब वह घंटी उस मंत्र को अनुगुंजित करती है।
      भारत, तिब्‍बत, चीन या बर्मा के मंदिरों में लगा हुआ घंटा बहुत अर्थ पूर्ण है। यह आपको याद दिलाता है कि जैसे घंटे पर चोट करने से यह आवाज करता है और फिर धीरे-धीरे वह आवाज कम होती चली जाती है। फिर समाप्‍त हो जाती हे। तब नाद हीन नाद प्रवेश करता है। ठीक ऐसे ही तुम भी मौन हो सकते हो। जो जोग केवल आवाज सुनते है वे घंटे को नहीं सुन पाते। तुम्‍हें दूसरे भाग को भी सुनना चाहिए। जब आवाज कम होने लगती है, खो रही होती है। तब स्‍वरहीन स्‍वर प्रकट होने लगता है। जब ध्‍वनि पूरी तरह से खो जाती है तब नाद हीन नाद होता है, मौन छा जाता है। और वह ध्‍यान है।                                    
      मैं संगीतज्ञ नहीं बनने बाला था। पागल बाबा को भी मालूम था, लेकिन वे स्‍वयं संगीत के प्रेमी थे, और वे चाहते थे कि मैं श्रेष्‍ठ संगीतज्ञों से परिचित हो जाऊँ, शायद मैं कभी उस और आकर्षित हो जाऊँ। उन्‍होंने मुझे अनेक संगीतज्ञों से मिलाया—उन सबके नाम भी याद रखने मुश्‍किल थे। लेकिन कुछ नाम बहुत प्रसिद्ध हैं, सारी दुनिया में विख्‍यात है। उदाहरण के लिए ये तीन।
      पन्‍ना लाल घोष को उत्‍कृष्‍ट बांसुरी वादक माना गया है। और यह गलत नहीं हे। लेकिन मुझे वे पसंद नहीं थे। वे शेर की भांति गरजते हैं, लेकिन आदमी चूहे जैसे है। और यही मुझे पसंद नहीं है। एक चूहा शेर की तरह ग़रजे, यह पाखंड है। फिर भी वे अच्छी तरह से निभा लेते थे। यह कठिन काम है, लेकिन वे करीब-करीब ठीक से कर लेते है। मैं कहता हूं, करीब-करीब, क्‍योंकि वे मेरी आंखों को धोखा नहीं दे सकते/। मैंने उससे कहा भी और उन्‍होंने कहा:  मैं जानता हूं। वे मेरी पसंद नहीं थे।
      दूसरे व्‍यक्‍ति दक्षिण के है। आरंभ से ही मुझे वे अच्‍छे नहीं लगे। हां,उनकी बांसुरी मुझे बहुत प्रिय है—और किसी में शायद इतनी गहराई नहीं है जितनी उनमें है। लेकिन हम दोनों एक दूसरे को सहन नहीं कर सकते थे। न ही मुझे वे पसंद आए न ही उनका नाम। वे मेरी पसंद नहीं है। यह आदमी—मैं उनका नाम बता चुका हूं। उसे फिर नहीं दोहराऊंगा। लेकिन इसमें कोर्इ संदेह नहीं कि सदियों से उनके जैसी बांसुरी सुनी नहीं गई। फिर भी एक बार काफी है। न ही मुझे वे पसंद आए नहीं उनका नाम। वे मेरी पसंद नहीं है, क्‍योंकि वह आदमी मुझे अच्‍छा नहीं लगता था। अगर मैं व्‍यक्‍ति को पसंद न करूं तो उनकी बांसुरी भले ही कितनी मधुर बजती हो, मैं उन्हें इसमें प्रथम नहीं मान सकता।
      मेरी पसंद हरि प्रसाद। वे बहुत ही विनम्र हैं। न वे चूहे जैसे है, न वे शेर जैसे है। वे ठीक बीच में है। इसे कहा जाता है, मज्झम। पन्‍ना लाल घोष और इस दक्षिणी बांसुरी बादक में, जिसका मैं दुबारा नाम नहीं लुंगा, जो संतुलन, खो गया था वह उन्‍होंने संतुलन पैदा कर दिया है। हरि प्रसाद एक संतुलन आए है, बहुत अच्‍छा संतुलन, रस्‍सी पर चलने बाले जैसा संतुलन।
       पागल बाबा का नाम मुझे बार बार लेना पड़ेगा, क्‍योंकि उनहोंने अनेक लोगों से मुझे परिचित कराया था। जब उनकी चर्चा करता हूं तो यह स्‍वाभाविक है कि उनके साथ पागल बाबा का भी उल्‍लेख हो। उनके द्वारा एक पूरी दुनिया खुल गई । मेरे लिए तो वे किसी विश्‍वविद्यालय से भी अधिक मूल्य वान थे। क्‍योंकि उन्‍होंने हर संभव क्षेत्र के श्रेष्ठतम से मुझे परिचित करवाया।
      वे आंधी की तरह मेरे गांव आते थे और मुझे पकड लेते थे। मेरे माता-पिता उनको न नहीं कहा सकते थे, यहां तक कि मेरी नानी भी उनको मना नहीं कर सकती थी। जैसे ही मैं पागल बाबा का नाम लेता, वैसे ही वे हां कह देते। क्‍योंकि उनको मालूम था कि अगर वे मुझे इनकार करेंगे तो पागल बाबा घर में आकर बहुत गड़बड़ कर देंगे—वे चीजें तोड़ सकते थे या लोगों की मार-पिटाई कर सकते थे। और वे इतने आदरणीय थे कि कोई उन्‍हें तोड़-फोड़ करने से रोकता नहीं था। इसलिए सब जानते थे कि समझदारी इसी में है कि हाँ कहा दिया जाए। अगर पागल बाबा तुम्‍हें अपने साथ ले जाना चाहते है तो तुम जा सकते हो। और वह कहते कि हमें मालूम है कि पागल बाबा के साथ ले जाना चाहते है तो तुम जा सकते हो।
      गांव में मेरे दूसरे रिश्‍तेदार मेरे पिता से कहते थे,  अपने बेटे को इस पागल आदमी के साथ भेज कर आप ठीक नहीं कर रहे।
      मेरे पिता कहते,  आपको इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। मेरा बैटा तो ऐसा है कि मुझे उसकी नहीं बल्‍कि उस पागल आदमी की ज्‍यादा चिंता होने लगती है।
      पागल बाबा के साथ मैंने अनेक स्‍थानों की यात्रा कि । वे मुझे बड़े-बड़े कलाकारों और संगीतज्ञों से पास ही नहीं ले गए वरन कई प्रसिद्ध स्‍थानों पर भी ले गए। उनके साथ ही मैंने सबसे पहले ताज महल और अजंता-एलोरा की गुफाएं देखी। उनके साथ ही मैंने पहली बार हिमालय देखा। मैं उनका बहुत अधिक आभारी हूं। और मैंने कभी उनके प्रति धन्‍यवाद तक प्रकट नहीं किया। मैं कर भी नहीं सकता था। क्‍योंकि वे मेरे पैर छूते थे। धन्‍यवाद के लिए अगर मैं उनसे कभी कुछ कहता तो वे तुरंत अपने होठों पर हाथ रख कर कहते, चुप रहो। कभी धन्‍यवाद मत कहना। तुम मेरे प्रति आभारी नहीं हो। मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूं।
      एक रात जब हम अकेले थे तो मैंने उनसे पूछा:  आप मेरे क्‍यों आभारी हो। मैंने तो आपके लिए कुछ नहीं किया। और आपने मेरे लिए बहुत कुछ किया है। फिर भी आप मुझे आपको धन्‍यवाद नहीं करने देते।
      उन्‍होंने कहा:  एक दिन तुम समझ जाओगे। पर अभी तुम सो जाओ। और फिर कभी इसका जिक्र मत करना। कभी नहीं, कभी नहीं। जब समय आएगा तो तुम्‍हें मालूम हो जाएगा।
      जब तक मालूम हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी- तब तक वे इस दुनिया से जा चुके थे। मुझे मालूम तो हुआ लेकिन बहुत देर में। अगर उनके जीवन काल में उनको यह पता लग जाता की मैं इसका करण जान गया हूं तो उनको बहुत कठिनाई होती। क्‍योंकि पिछले किसी जन्‍म में उन्‍होंने मुझे विष दिया था। जब कि मैं बच गया था। वे अपनी सामर्थ्‍य अनुसार मेरे साथ जो भी अच्‍छा कर सकते थे कर रहे थे और अब वे क्षतिपूर्ति करने की कोशिश कर रहे थे। वे उसको साफ करने कह कोशिश कर रहे थे। वे मेरे साथ आवश्‍यकता से अधिक अच्‍छा व्‍यवहार करते थे। लेकिन अब मैं जान गया हूं कि क्‍यों,क्‍योंकि वे संतुलन लाने की कोशिश कर रहे थे।
      पूरब में इसको  कर्म कहते है, कर्म का सिद्धांत कहते है। तुम जो भी करते हो, याद रखना, तुम्‍हारे कृत्‍य से चीजों में जो असंतुलन हो गया है उसको फिर से तुम्‍हें संतुलित करना होगा। अब मैं जान गया हूं कि वह एक बच्‍चे के साथ इतना अच्‍छा व्‍यवहार क्‍यों कर रहे थे। वे दुबारा संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे थे। और इसमें वे सफल हो गए। एक बसरा तुम्‍हारे सब कृत्‍य बिलकुल संतुलित हो जाएं तो तुम विलीन हो सकते हो। तभी तुम उस चक्र को रोक सकते हो। सच तो यह है कि चक्र अपने आप ही रूक जाता है, तुम्‍हे उसको रोकना भी नहीं पड़ता।

--ओशो




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