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गुरुवार, 8 मार्च 2018

स्वर्णिम बचपन-(ओशो आत्मकथा)-सत्र-28

पन्‍न लाल घोष और सचदेवा
      अभी-अभी मैं फिर सुन रहा था—हरी प्रसाद चौरासिया को नहीं, बल्‍कि एक दूसरे बांसुरी वादक को। भारत मैं बांसुरी के दो आयाम है: एक दक्षिणी और दूसरा उत्‍तरी। हरी प्रसाद चौरासिया उत्‍तरी बांसुरी वादक है। मैं ठीक इसके उलटे, आयाम, दक्षिणी को सुन रहा था। इस आदमी से भी मेरा परिचय पागल बाबा ने ही करवाया था। मेरा परिचय देते हुए उन्‍होंने उस संगीतज्ञ से कहा: शायद यह तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा कि मैं इस लड़के से तुम्‍हारा परिचय क्‍यों करा रहा हूँ। अभी तो तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा, लेकिन शायद एक दिन प्रभु-इच्‍छा से तुम समझ जाओगे।
      यह आदमी भी वैसी ही बांसुरी बजाता है, लेकिन बिलकुल दूसरे ढंग से। दक्षिण की बांसुरी बहुत ही तीखी और भीतर चुभनें वाली होती है। वह सुनने वाले के अंतर को झकझोर देती है। उत्‍तर भारतीय बांसुरी बहुत ही मधुर होती है, लेकिन थोड़ी सपाट होती है—उत्‍तर भारत की तरह सपाट।
      उस आदमी ने मुझे हैरानी से देखा। एक क्षण के लिए कुछ सोचा, फिर उसने कहा: ‘’ बाबा, अगर आप मुझे इससे परिचित करा रहे है तो अवश्‍य कोई कारण होगा, जिसे अभी में अपनी असमर्थता के कारण नहीं समझ रहा हूं। लेकिन मेरे प्रति आप जो असीम प्रेम दिखा रहे है उसे लिए मैं आपका आभारी हूं। यह आपकी कृपा है कि आप मुझे वर्तमान से ही नहीं वरन भविष्‍य से भी परिचित करा रहे है।   
      मैंने उन्‍हें केवल कुछ बार ही सुना है, क्‍योंकि हमारा कभी भी सीधा संबंध नहीं हुआ। मैं उन्‍हें पागल बाबा के माध्‍यम से ही जानता था। वे बांसुरी वादक उनसे आते थे। अगर संयोगवश मैं भी वहीं पर होता तो वह मुझे हेलो कह देते। बाबा हमेशा हंसते और कहते, ‘’ इस लड़के को हेलो कहने से काम नहीं चलेगा। मूर्ख, उसके पैर छुओ।‘’ उन्‍होंने बड़े संकोच से झिझकते हुए मेरे पैर छुए। मैं उनकी झिझक को देख सका। इसीलिए मैं उनका नाम नहीं बता रहा। वे अभी भी जीवित है और शायद उनको बुरा लगे, क्‍योंकि उन्‍होंने प्रेम वश मेरे पैरो को नहीं छुआ था। पर क्‍योंकि पागल बाबा ने आदेश दिया था। इसलिए उनको मेरे पैर छूने पड़े। मैं हंस पडा और मैंने कहा: ‘’ बाबा,क्‍या मैं इसे मार सकता हूं?                                               उन्‍होंने कहा: ‘’ हां, जरूर।‘’ और तुम भरोसा कर सकते हो कि वह मेरे पैर छू रहा था तो मैंने उसके मुंह पर एक थप्‍पड़ मारा।
      इससे देव गीत ने जो पत्र मुझे लिखा है उसकी याद आ गई। मुझे मालूम था कि वह रोएगा। मुझे मालूम था। उसके पत्र लिखने से पहले ही मुझे कैसे मालुम हो गया? अगर वह मुझे नहीं भी लिखता तो भी मुझे पता था। मैं अपने लोगों को जानता हूं, मुझसे जो प्रेम करते है उनको तो मैं अच्‍छी तरह से जानता हूं—चाहे वे कुछ बोले या न बोले। और उसके शबद मेरे ह्रदय को  छू गए। उसने कहा: ‘’ आप चाहे जितना मुझे मारे, मेरी पिटाई  करें—इससे मुझे कोई पीड़ा नहीं होगी। पीड़ा तो तब होती है जब मैं नहीं हंसता तब भी आप कहते है कि देव गीत, मुझे धोखा देने की कोशिश मत करो, यह सुन कर मुझे बहुत दुःख होता है। यह ऊपरी तौर से अन्‍याय है ओर इसी से मुझे पीड़ा होती है।‘’ उसने लिखा था: ‘’ ऊपरी तौर से अन्‍याय। गुड़िया, मैं सोचता हूं यही शब्‍द है—ऊपरी तौर से अन्‍याय। क्‍या मैं ठीक कह रहा हूं गुड़िया ?
      ‘’हां, ओशो।‘’
      ठीक है, क्‍योंकि गुड़िया को ही वह पत्र मुझे पढ़ कर सुनाना पडा। मैंने तो बरसों से कुछ नहीं पढ़ा, क्‍योंकि ड़ाक्टरों ने कहा था कि अगर मैं पढ़ना चाहूंगा तो मुझे चश्‍मा लगाना पड़ेगा। और मुझे चश्मे से नफरत है। मैं तो कल्‍पना भी नहीं कर सकता कि मुझे चश्‍मा लगा हुआ है। इससे तो अच्‍छा है कि में अपनी आंखों को बंद रखूं। मैं अपने और चारों और के वातावरण के बीच में कोई बाधा नहीं खड़ी करना चाहता। चाहें वह पारदर्शी कांच ही क्‍यों न हो। इसलिए दूसरे को मुझे पढ़ कर सुनाना पड़ता है।
      ये शब्‍द  उपरी तौर से अन्‍याय उसके ह्रदय को प्रतिबिंबित करते है। उसे मालूम है कि बाहर से ऐसा ही दिखाई देता है। सचमुच यह अन्‍याय ही मालूम होता है। कि जब वह हंसता नहीं होता तब भी मैं कहता हूं कि देव गीत, हंसों मत। स्‍वभावत: इन शब्‍दों को सुन कर वह स्‍तंभित हो जाता है। और बेचारा देव गीत तो उस समय चुपचाप नोट लिख रहा होता है।
      फिर मुझे पागल बाबा की याद आई, क्‍योंकि आज सुबह ही मैं उनकी बात कर रहा था और मैं उसे जारी रखूंगा। वे ऊपरी तौर से लोगों से अनर्गल वाक्‍य बोलते थे। और इतना ही नहीं, कभी-कभी तो उनको मार भी देते थे। मेरी तरह नहीं—वे सचमुच मारते थे। मैं सचमुच नहीं मारता। ऐसा नहीं की मैं मारना नहीं चाहता। पर इसलिए कि मैं बहुत आलसी हूं। एक-दो बार मैंने कोशिश की, लेकिन तब मेरा हाथ दुखाने लगा। इससे उस आदमी को कोई नसीहत हुई या नहीं, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन मेरे हाथ ने कहा, कृपा करके दुबारा ऐसा मत करना।‘’
      लेकिन पागल बाबा तो आकारण ही मार बैठते थे। कोई उनके पास चुपचाप बैठा होता और वे उसको एक थप्‍पड़ मार देते। उस आदमी ने न कुछ किया था और न ही कुछ कहा था, फिर भी......     
      कभी-कभी लोग आपत्‍ति करते कि यह अन्‍याय है और पागल बाबा से कहते, बाबा, आपने उसको क्‍यो मारा? वे हंस कर कहते, ‘’ तुम्‍हें मालूम है कि मैं पागल हूं।‘’ बस यहीं उनके लिए पर्याप्‍त स्‍पष्‍टीकरण था। अब मैं इस प्रकार के स्‍पष्‍टीकरण नहीं दे सकता। मैं तो इतनी पागल हूं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान भी नहीं समझ पाते कि यह कैसा पागलपन है। पागल बाबा तो सीधे-सादे पागल थे। मैं बहुआयामी पागल हुं।
      इसलिए कभी तुम लोगों को ऐसा लगे कि ऊपरी तौर से अन्‍याय हो रहा है तो ऊपरी तौर से शब्‍द को याद रखना। मैं अन्‍याय नहीं कर सकता। खासकर जो लोग मुझसे प्रेम करते है। उनके प्रति मैं अन्‍याय कैसे कर सकता हूं। प्रेम अन्‍यायपूर्ण कैसे हो सकता है। लेकिन बहार से कई बार ऐसा दिखाई देगा। अब मेरे जैसे लोगों का क्‍या ठिकाना कि कब क्या कर बैठे? हो सकता है कि मैं पिटाई तो आशु कि कर रहा हूं  और असल में लक्ष्‍य मेरा देवराज हो। यह बहुत ही जटिल मामला है। इसे कंप्‍यूटराराइज्‍ड नहीं किया जा सकता है। यह इतनी जटिल है कि कोई भी कंप्‍यूटर इसका मास्‍टर नहीं बन सकता। कंप्‍यूटर कुछ भी बन सकता है—इंजीनियर, डाक्‍टर या दाँत का डाक्‍टर—सब संभव है। और मनुष्‍य से अधिक कुशल हो सकता है। लेकिन दो बातें है जो कंप्‍यूटर नहीं कर सकता। एक तो वह जीवित नहीं हो सकता है। वह मशीन की आवाज में गुनगुना सकता है। लेकिन वह जीवित नहीं हो सकता। वह जीवन के बारे में कुछ नहीं जान सकता। दुसरी बात पहली का ही परिणाम है। वह गुरु नहीं बन सकता।
      जीवन को जानने का अर्थ है गुरु बनना। सिर्फ जीवित होना एक बात है। जीवित तो सब लोग हैं। लेकिन अपनी और मुडना,अपने होने की और मुड़ना, देखने वाले को देखना, जानने बाले को जानना—यही मेरा तात्‍पर्य है। अपनी और मुडना या लौटने का मेरा अभिप्राय यहीं है तब कोई मास्‍टर बनता है। अब कंप्‍यूटर तो अपनी ओर  मुड़ नहीं सकता। यह संभव नहीं है।
      देव गीत, तुम्‍हारा पत्र बहुत सुंदर था—और तुम रोंए। मुझे इस बात की खुशी है। जो कुछ भी प्रामाणिक होता है वह मार्ग  पर सहायक होता है। और आंसुओं से अधिक प्रामाणिक तो और कुछ भी नहीं हो सकता है। हां, पेशेवर रोने वाले भी होते है। लेकिन वे कई प्रकार कि चालाकी करते है।
      भारत में जब कोई मरता है तो यह होता है। कोई बूढा व्‍यक्‍ति, जिसकी किसी को जरूरत नहीं थी, और सच में जिसके मर जाने से सब खुश होते है। लेकिन कोई अपनी खुशी दिखा नहीं सकता—तब वे पेशेवर रोने वालों को बुलाते है। खासकर बंबई, कलकत्‍ता, मद्रास और नई दिल्‍ली जैसे बड़े शहरों में। उनकी अपनी संस्‍था भी होती है। तुम उनको फोन करके बता सकते हो कि कितने रोने बाले चाहिए और वे सब आ जाते है। ओ वे खूब रोते हैं। किसी भी असली रोने बाले को वे हरा सकते है। और वे बहुत कुशल होते है और उनको सारी चालाकी मालूम होती है। वे कुछ खास दवाई का उपयोग करते है, उसे अपनी आँख क नीचे लगाते है और उससे आंखों से पानी बहना शुरू हो जाता है। और यह बड़ी अजीब बात है जब आंसू बहने लगते है तो आदमी उदास हो जाता है।
      मनेाविज्ञान में बहुत दिनों से एक बहस चल रहीं है। जिसका अभी तक कोई निर्णय नहीं हुआ। विवादास्‍पद विषय यह है कि पहले क्‍या होता है। डर के कारण आदमी दौड़ने लगता है या दौड़ने के कारण डरने लगता है। इस दोनों स्‍थितियों को प्रतिपादित करने वाले लोग है। एक पक्ष के लोग कहते है कि डर के कारण दौड़ना पड़ता है और दूसरा पक्ष कहता है कि दौड़ने से डर पैदा होता है। बात तो एक ही है। दोनों बातें एक साथ होती है।
      जब तुम उदास होते हो तो आंसू आ जाते है। अगर किसी कारण आंसू आ जाएं—चाहे वे कृत्रिम आंसू ही क्‍यों न हों—तब भी अपनी स्‍वाभाविक प्रवृति के कारण तुम उदास हो जाते हो। मैंने इन पेशेवर रोने वालों का ह्रदय-विदारक रोना देखा है। और तब यह नहीं कहा जा सकता कि वे दूसरों को धोखा दे रहे है। हां, वे अपने आप को अवश्‍य धोखा देते है।
      प्रेम के आंसुओं का अनुभव सबसे अधिक मूल्‍यवान है। तुम रोंए....मैं खुश हूं....क्‍योंकि तुम नाराज भी हो सकते थे, लेकिन तुम नाराज नहीं हुए। तुम गुस्‍सा हो सकते थे, चिड़चिड़ा सकते थे। लेकिन तुमने यह नहीं किया, तुम रोंए, और ऐसा ही होना चाहिए था।
      लेकिन याद रखना कि मैं बार-बार यहीं करूंगा, क्‍योंकि मुझे अपना काम करना है। डेंटिस्‍ट होने के कारण तुम्‍हें मालूम है की कितनी पीड़ा होती है। लेकिन फिर भी तुम्‍हें अपना काम तो करना ही पड़ता है। तुम पीड़ा पहुंचाना चाहते इसलिए अनास्तेसिया जैसा दवाओं से तुम पूरे शरीर को या शरीर के किसी अंग को बेहोश कर देते हो, जड़ बना देते हो।
      लेकिन मेरे पास तो ऐसा कुछ नहीं है। मुझे तो अपने सारे आपरेशन बिना अनास्तेसिया के ही करने पड़ते है। बिना बेहोश किए अगर किसी आदमी के पेट या दिमाग को खोल दिया जाए तो क्‍या होगा। उसे इतनी अधिक पीड़ा होगी कि या तो उसके कारण को खोल दिया वह पागल हो जाएगा या अपनी खोपड़ी को वहीं पर छोड़ कर वह टेबल से कूद कर अपने घर भाग जाएगा। यह भी हो सकता है कि वह डाक्‍टर को ही मार डाले। लेकिन मेरा काम ऐसा ही है। इस काम को किसी दूसरे ढंग से किए जाने की संभावना ही नहीं है।
      ऊपर से तो यह सदा ‘’अन्‍यायपूर्ण’’ ही दिखाई देगा। मुझे यह जान कर संतोष हुआ कि यद्यपि इससे तुम्‍हें पीड़ा होती है, दुःख होता है। तथापि तुम मेरे प्रेम को समझ सकते हो। तुम भूल न जाओ इसलिए मैं बार-बार कहूंगा कि मैं ऐसा कहता ही रहूंगा।
      तुम बहुत डर गए होगें, क्‍योंकि तुमने ‘’ पुनश्‍च‘’  लिखा है और फिर ‘’ पुनश्‍च पुनश्‍च’’ लिखा है जिससे तुम कहते हो कि, ‘’ मैंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं आपके इतना निकट आऊँगा, अथवा यह काम मुझे दिया जाएगा। मुझे नोटस लेना बहुत अच्‍छा लगता है। फिर पुनश्‍च पुनश्‍च: ‘’ कृपया, इस काम को कभी मत रोकिए गा।‘’
      उसे डर लगा होगा कि मैं उसे इस काम से रोक दूँगा य सोच कर कि इससे उसे पीड़ा पहुँचती है। आशु को भी पीड़ा होती हैं। लेकिन उसने अभी पत्र नहीं लिखा है। लेकिन मैं भविष्‍यवाणी करता हूं कि एक दिन वह लिखेगी—चाहे की ही लिख दे। मैं तो दांए-बाएं मारता ही रहता हूं। क्‍योंकि तुम दोनों मेरे दोनों ओर रहते हो। इसलिए यह स्‍वभाविक है  कि तुम दोनों को सबसे अधिक मान मिलती है। मेरा तो सदा यही ढंग रहा है। जो लोग मेरे निकटतम होते है उनको सबसे अधिक पिटा जाता है। लेकिन इससे उनका विकास होता है। जैसे-जैसे उन्‍होंने हर आघात को आत्‍म सात किया वैसे-वैसे वे अधिक सघन और अखंड होते गए। यह तो वे भाग जाते या वे विकसित होते। करो या मरो। अगर तुम करो—सघनता और अखंडता से मेरा यही अर्थ है—तभी जीवित हो सकते हो। नहीं तो आदमी पशु की तरह मरता है आदमी हर क्षण मर रहा है।
      यह पत्र कई अर्थों में बहुत सुंदर था। गुड़िया,बाद में इस पत्र को उसे वापस दे देना, ताकि वह उसके  नोट का फुट नोट बन सके या जो अनेक परिशिष्‍ट लिखें जाएँगे यह उनका ही भाग बन जाएगा।
      फिर पागल बाबा.... इसी को तो मैं कहता हूं  चक्‍करों में घूमना। उन्‍होंने मुझे केवल इन बांसुरी वादकों से ही नहीं वरन अन्‍य संगीतज्ञों से भी परिचित किया। वे तो संगीतज्ञों के भी संगीतज्ञ थे। साधारण लोगों को तो यह मालूम नहीं था, लेकिन महान संगीतज्ञ यह जानते थे कि वह किसी चीज से भी संगीत पैदा कर सकते थे। मैंने देखाथा एक कंकड़ से अपने कमंडल को बजा कर वे अत्‍यंत मधुर स्‍वर उत्पन्न कर लेते थे। हिंदू संन्‍यासी भोजन और पानी को भी सितार की तरह बजाते थे। बाजार में बच्‍चों के लिए बिकने वाली बांसुरी—जो एक रूपये में एक दर्जन मिल जाती थी—उनके हाथ में आकर ऐसी उत्‍कृष्‍ट स्‍वर लहरी का सृजन करती थी कि संगीतज्ञ भी आश्‍चर्य से भर जाते थे। और सोचते कि क्‍या ये संभव है, आरंभ में मैं जिस दक्षिण के बांसुरी वादक का उल्लेख किया था उसका नाम तुम्‍हें बताना चाहता हूं। ताकि मैं ठीक वैसा ही हो जाऊँ जैसा मैं आया था। मैं अपने हाथ कुछ भी लेकर नहीं आया था—एक स्‍मृति भी नहीं1 मेरे इस संसमरणों का मुख्‍य उदेश्‍य यही है कि में वैसा ही कोरा हो जाऊँ जैसा आया था। उस बांसुरी बादक का नाम था, सचदेवा। दक्षिण भारत में उसका नाम बहुत प्रसिद्ध था। पागल बाबा ने मुझे जहां ती बांसुरी वादकों से परिचित किया था। एक थे हरि प्रसाद चौरासिया। जो उत्‍तर भारत के थे। जहां अलग तरह  का संगीत होता है। दूसरे बंगाल के पन्‍ना लाल घोष। वे अलग तरह की बांसुरी बजाते है। उनकी बांसुरी बड़े जोर से बजती है और बड़ी ओजस्वीनी है। उसमे ओज गुण की प्रधानता है। और सचदेवा की बांसुरी ठीक इसके विपरीत थी—मधुर, स्‍त्रैण, गुण प्रधान, प्राय: मौन। उनके नाम का उल्लेख करने के बाद अब मैं हलका महसूस कर रहा हूं। अब उन पर निर्भर है कि वह इसे कैसे ग्रहण करते है।
      अपने पत्र में देव गीत कहता है: ओशो, मुझे आप पर भरोसा है।
      यह तो मुझे मालूम है, इसमें कोई शक नहीं है, नहीं तो मैं इतना क्‍यों मारता। और याद रखो कि एक बाद जब मैं किसी पर विश्‍वास कर लेता हूं तो फिर कभी अविश्‍वास नहीं करता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह मेरे साथ क्‍या करता है। दूसरा आदमी कुछ भी करे, मेरा विश्‍वास नहीं टूटता।  
      विश्‍वास सदा बेशर्त होता है। मैं तुम्‍हारे प्रेम को अच्‍छी तरह से जानता हूं और मैं तुम सब पर विश्‍वास करता हूं। अन्‍यथा यह काम तुम्‍हें नहीं दिया जाता। लेकिन याद रखना,इसका यह मतलब नहीं है कि मैं किसी भी तरह बदल जाउुंगा। पत्र लिखों या न लिखों,  पुनश्च लिखों या न लिखों—मैं तो जैसा हूं वैसा ही रहूंगा। मैं कभी भी कह दूँगा: देव गीत। क्‍यों हंस रहे हो। अभी इस समय तो तुम हंस रहे हो और मैं तुम्‍हें मार नहीं रहा। कभी तुम्‍हें रुला भी दूँगा। यही मेरा काम है।
      तुम अपना काम जानते हो। मैं अपना काम जानता हूं। और मेरा काम कही अधिक कठिन है। यह सिर्फ ड्रिलिंग ही नहीं है। यह तो अनास्तेसिया दिया बिना कि जाने वाली ड्रिलिंग है। पेन किलक, दर्द मारने वाली दवा तक नहीं दी  जाती। यह केवल दाँत की ड्रिलिंग नहीं है। यह तो तुम्‍हारे अंतरतम, की तुम्‍हारे भीतर की ड्रिलिंग है। इससे दर्द तो होता है, बहुत पीड़ा होती है। माफ करना, लेकिन कभी भी मुझसे अपने दांव पेंच बदलने को मत कहना। और अपने पत्र में तुमने ऐसा कहा भी नहीं है। यह तो मैं यहां उपस्थित दूसरे लोगों के फायदे के लिए कह रहा हूं।
      आशु, कल मैं तुम्‍हारे पत्र की प्रतीक्षा करूंगा। देखें क्‍या होता है। तब देव गीत सचमुच हंसे गा।

प्‍यारे सदगुरू,
मैं यहां ‘’ नोआज़ आर्क’’ में बैठ कर रो रहा हूं और सोच रहा हूं कि क्‍या करूं?
जब आप यहां होते है और मैं खाली होता हूं तो आपके शब्‍द और आपकी उपस्‍थिति मेरे भीतर प्रवेश करने लगती है। इससे बड़ी परिपूर्णता मैंने कभी जानी नहीं।

फिर एकाएक आप चोट करते है। आप कहते है कि मैं हंस रहा हूं,....जब कि उदाहरण के लिए, आज सुबह में अपनी छींक को रोक रहा था। उन दूसरे दिनों मेरे होठों से उच्‍छवास निकला... क्‍या करूं? आप जब नजदीक होते है तो मैं ठंडी श्‍वास लेता हूं.....फिर आप कहते है कि मैं हंस रहा हूँ। जब आप मुझ पर यह इलजाम लगाते है कि आपके  नेाट्स न लिखने का बहाना करके मैं आपको धोखा दे रहा हूं तो यह बरदाश्‍त के बहार हो जाता है।

ये नोटस लिख कर मुझे जितनी खुशी हाथी है उतनी खुशी जीवन में और कुछ भी करने से नहीं मिलती। इन्‍हें लिखने में मुझे बड़ा आनंद मिलता है। मेरा मन इससे अधिक सुंदर उपहार की कल्‍पना भी नहीं कह सकता।

आपने मुझे बेवकूफ कहा—यह तो स्‍पष्‍ट ही है—शायद पहले से भी अधिक अब। लेकिन मैं पूरी तरह आपका बेवकूफ हूं। मैंने आपको कभी धोखा नहीं दिया। कभी आपके प्रति विश्‍वासघात नहीं किया, आपको धोखा देने के लिए न कभी हंसा,न कभी फुसफुसाया और हमेशा आपके प्रति अधिक से अधिक समर्पित होने की कोशिश करता हूं। और वह पीड़ा आपकी मार से नहीं होती बल्‍कि बाहर से जो अन्‍याय जैसा दिखाई देता हे, उससे होती है।

प्‍यारे सदगुरू, मैं आपका ‘’ बेवकूफ हूं’’—और इस पल से बढ़ कर तो कभी नहीं।
मुझे आपसे प्रेम है,
देव गीत

प्‍यारे सदगुरू,

पुनश्‍च: मुझे मिटाने के लिए धन्‍यवाद। इससे आपके प्रति प्रेम और भी गहन हो गया है।
देव गीत
पुनश्‍च पुनश्‍च: कृपया, कृपया इस भले काम को चालू रखिए.....हमेशा के लिए।


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