तंत्र—(प्रवचन—बारहवां)
दिनांक 16 नवंबर 1970, क्रास मैदान, बंबई
प्रश्नोत्तर :
आचार्य श्री, काम-ऊर्जा को ध्यान
और समाधि की दिशा में रूपांतरित करने की साधना में तंत्र का क्या योगदान है?
कृपया इसकी रूप-रेखा प्रस्तुत करें।
तंत्र अद्वैत दर्शन है। जीवन को उसकी
समग्रता में तंत्र स्वीकार करता है--बुरे को भी, अशुभ को भी, अंधकार को भी। इसलिए नहीं कि अंधकार
अंधकार रहे, इसलिए नहीं कि बुरा बुरा रहे, इसलिए नहीं कि अशुभ अशुभ रहे, बल्कि इसलिए कि अशुभ
के भीतर भी रूपांतरित होकर शुभ होने की संभावना है। अंधकार भी निखर कर प्रकाश हो
सकता है। और जिसे हम पदार्थ कहते हैं, वह भी अपनी परम
गहराइयों में परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
तंत्र
अद्वैत है। उस एक की ही स्वीकृति है। वह जो बुरा है, वह भी उस एक का ही रूप है। वह जो अशुभ है, वह भी उस
एक का ही रूप है। तंत्र के मन में निंदा किसी की भी नहीं है। कंडेमनेशन है ही
नहीं।
जी.एम.एन.टारेल
ने एक किताब लिखी है, "ग्रेड्स आफ
सिग्नीफिकेंस', महत्ता की सीढ़ियां या महत्ता के सोपान। तंत्र
की दृष्टि में जीवन में जो फर्क हैं, वह महत्ता के सोपानों
के फर्क हैं। लेकिन पहली सीढ़ी भी मंदिर की अंतिम सीढ़ी का ही हिस्सा है। यदि पहली
सीढ़ी हटा दी जाये तो मंदिर की अंतिम सीढ़ी तक पहुंचने का कोई उपाय नहीं है। जमीन के
नीचे छिपी हुई कुरूप जड़ें भी आकाश में खिले हुए फूलों के प्राण हैं। और अगर कुरूप,
अंधकार में डूबी हुई जड़ों को काट दिया जाये, तो
आकाश में खिलनेवाले सुंदर फूलों की कोई संभावना नहीं। मंदिर की बुनियाद में पड़े
हुए बेढंगे पत्थर ही मंदिर के शिखर पर चढ़े हुए स्वर्ण-कलश को संभाले हुए हैं।
उन्हें इनकार कर दिया जाये, तो स्वर्ण-कलश भी जमीन पर
धूल-धूसरित होकर गिर पड़ता है।
तंत्र, जीवन को उसकी समग्रता में स्वीकार करता है। इस बात को
पहले समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इसी आधार पर तंत्र ने काम-ऊर्जा के रूपांतरण के
विज्ञान को विकसित किया है। तंत्र की दृष्टि में काम-ऊर्जा दिव्य-ऊर्जा का
पार्थिवीकरण है। तंत्र की दृष्टि में सेक्स एनर्जी, काम-ऊर्जा,
ब्रह्म की ही पहली सीढ़ी है।
इसका
अर्थ यह नहीं है कि तंत्र चाहता है कि व्यक्ति काम में डूबा रहे। इसका इतना ही
अर्थ है कि हम जहां खड़े हैं, यात्रा वहीं से करनी
पड़ेगी; और हम जहां खड़े हैं अगर वह भूमि, उस भूमि से नहीं जुड़ी है जहां हमें पहुंचना है, तो
फिर यात्रा का कोई उपाय नहीं। मनुष्य काम में खड़ा है।
मनुष्य
काम में, काम की भूमि में, मौजूद है। जहां हम अपने को प्रकृति की तरफ से पाते हैं, वह बिंदु काम का, सेक्स का बिंदु है। प्रकृति हमें
वहीं खड़ा किए हुए है। कोई भी यात्रा इस बिंदु से ही होगी। अब इस बिंदु से हम दो
तरह की यात्रा कर सकते हैं।
एक, जो साधारणतः लोग करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कभी कर नहीं पाते, वह यह कि हम अपनी स्थिति से
लड़ना शुरू कर दें। हम जहां खड़े हैं, उस भूमि के दुश्मन हो
जायें, अर्थात हम अपने ही दुश्मन हो जायें और अपने को ही दो
हिस्सों में खंडित कर लें। एक वह हिस्सा, जिसकी हम निंदा
करते हैं, जो हम हैं। और एक वह हिस्सा जिसकी हम प्रशंसा करते
हैं, जो हम अभी नहीं हैं, जो हम होना
चाहते हैं। हम अपने को दो हिस्सों में तोड़ लें: जो है और जो होना चाहिए।
और जब भी
कोई व्यक्ति अपने को ऐसे दो खंडों में तोड़ता है तो पहली तो बात यह समझ लेनी चाहिए
कि जिसे वह इनकार कर रहा है वही वह है, और जिसे वह स्वीकार कर रहा है वही वह नहीं है। उसका सारा जीवन अब एक बहुत
बेहूदे, एब्सर्ड संघर्ष में उतर जाएगा। जो वह नहीं है,
समझना चाहेगा कि मैं हूं, और जो वह है उसे
इनकार करना चाहेगा कि वह मैं नहीं हूं। ऐसे व्यक्ति केवल विक्षिप्त हो सकते हैं।
तंत्र की दृष्टि में यह अंतर-कलह है।
अगर कोई
ब्रह्मचर्य तक पहुंचना चाहता है तो काम से लड़कर नहीं, क्योंकि तंत्र कहता है कि स्वयं से लड़कर तो हम कहीं
भी नहीं पहुंच सकते हैं। लड़ेगा कौन? लड़ेगा किससे? हम एक हैं। लड़ने का अर्थ है, अपने को दो खंडों में
बांटना होगा। वह सीजोफ्रेनिक है। इस तरह व्यक्ति दो खंडों में टूटकर विक्षिप्त
होगा। उससे स्प्लिट पर्सनाल्टी पैदा होगी। सिर्फ हमारे भीतर खंड-खंड छितर जाएंगे।
तंत्र कहता है कि काम को ही रूपांतरित करना है ब्रह्मचर्य तक, काम की ही शक्ति को ले जाना है ब्रह्म तक। वही काम की शक्ति जो दूसरे तक
दौड़ती है, उसे पहुंचाना है स्वयं तक। वही काम की शक्ति जो
दूसरे की आकांक्षा करती है, उससे ही आकांक्षा करवानी है
स्वयं की गहराइयों की। वही काम की शक्ति जो छुद्र सुख को खोजती है, उसी काम-शक्ति को मोड़ देना है विराट, अनंत आनंद की
ओर, शाश्वत की ओर, मुक्ति की ओर। तंत्र
की इस दृष्टि को मैं अद्वैत की दृष्टि कहता हूं।
वे सारे
लोग जो जीवन को कलह की भाषा में, कांफ्लिक्ट की भाषा
में देखते हैं, द्वैतवादी हैं, डुआलिस्ट।
वे मानते हैं कि जीवन में दो तत्व हैं, और दोनों को लड़ाना
है। शरीर को लड़ाना है आत्मा से, परमात्मा को लड़ाना है
प्रकृति से, काम को लड़ाना है ध्यान से। लड़ाने की ही भाषा में
उनके सारे चिंतन का जाल फैलता है। ऐसे लड़ानेवाले लोग जीवन के सत्य को नहीं जानते।
तंत्र
कहता है, लड़ाना नहीं है, रूपांतरित करना है, ट्रांसफार्म करना है, जो हमारे पास है। आज विज्ञान भी तंत्र की बात से सहमत है। क्योंकि विज्ञान
ने अगर इधर तीन सौ वर्षों में कुछ भी मौलिक सिद्धांतों की घोषणा की है तो उनमें एक
सिद्धांत यह है कि ऊर्जा का हनन नहीं हो सकता। एनर्जी को नष्ट नहीं किया जा सकता।
ऊर्जा को नष्ट करने का कोई उपाय ही नहीं है। हम सिर्फ बदल सकते हैं, विनष्ट नहीं कर सकते। एक रेत के छोटे-से कण को भी विज्ञान की महत्तम से
महत्तम शक्ति नष्ट नहीं कर सकती, जो उस रेत के कण में छिपा
है। हां, उसे रूपांतरित कर सकती है; उसे
दूसरा रूप दे सकती है। दूसरा फार्म, दूसरी आकृति, दूसरा जीवन, दूसरा जगत, सब कुछ
बदला जा सकता है, लेकिन उस रेत के छोटे से कण में जो ऊर्जा,
जो एनर्जी छिपी है उसे नष्ट नहीं किया जा सकता। विज्ञान कहता है,
इस जगत में कुछ भी विनष्ट नहीं होता है।
इसका
दूसरा पहलू भी है। इस जगत में किसी भी चीज की सृष्टि नहीं होती। न कुछ मिटता है, न कुछ बनता है, सिर्फ
रूपाकृतियां बदलती हैं। बीज था, वृक्ष हो जाता है। बीज मिट
जाता है, लेकिन हमारे देखने की कमी के कारण। बीज मिटता नहीं,
बीज में छिपी ऊर्जा वृक्ष बन जाती है। फिर कल वृक्ष मर जाता है,
मिट जाता है, और हजारों बीजों को अपने पीछे
फिर छोड़ जाता है। ऊर्जा सिर्फ रूप बदलती रहती है, ऊर्जा नष्ट
नहीं होती है। न कुछ बनता है जगत में, न कुछ मिटता है।
इसलिए जो
लोग बनाने-मिटाने की भाषा में सोचते हैं, वे अवैज्ञानिक ढंग से सोचते हैं। सेक्स को मिटाया नहीं जा सकता, लेकिन एक अर्थों में सेक्स बिलकुल विदा हो सकता है, जैसे
बीज विदा हो गया। आज कहां है वह बीज जो कल था? अब वह वृक्ष
है। अगर बीज को खोजने जाएंगे तो कहीं भी उसे खोज नहीं सकेंगे। कहा जा सकता है,
बीज मिट गया। लेकिन गलत होगी वह भाषा। बीज मिटा नहीं, रूपांतरित हो गया। क्योंकि जहां बीज था, वहां अब
वृक्ष है; जो बीज था, वही अब वृक्ष है।
ब्रह्मचर्य
सेक्स का विनाश नहीं है, ब्रह्मचर्य वहां है
अब, जहां कल काम था। जहां कल काम की ऊर्जा बाहर की तरफ दौड़
रही थी, आज वहां वही ऊर्जा ब्रह्मचर्य बनकर भीतर की तरफ दौड़ी
चली जा रही है। जहां कल तक जिस ऊर्जा की गति बहिर्गामी थी, वही
ऊर्जा की गति अब अंतर्गामी हो गई है। जो ऊर्जा केंद्र से परिधि की तरफ दौड़ती थी,
अब परिधि से केंद्र की तरफ दौड़ने लगी है। लेकिन ऊर्जा वही है। ऊर्जा
विनष्ट नहीं होती है। तंत्र ने इस घोषणा को विज्ञान की आधुनिक समझ के बहुत पहले
मनुष्य को दिया है।
तंत्र
कहता है, किसी शक्ति को नष्ट करने के
पागलपन में मत पड़ जाना, अन्यथा स्वयं ही टूटोगे, बिखरोगे, शक्ति को नष्ट नहीं कर पाओगे। इसलिए जो लोग
भी काम से लड़ेंगे, वे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होते,
सिर्फ विकृतियों को, परवर्सन को उपलब्ध होते
हैं। जो व्यक्ति भी अपने काम से संघर्षरत हो जायेगा, शत्रुता
पाल लेगा...और हममें से अधिक लोग काम से शत्रुता पाले हुए हैं।
असल में
हम या तो शत्रुता पालना जानते हैं या मित्रता पालना जानते हैं। दोनों के बीच में
ठहरना हम नहीं जानते। या तो हम पागल की तरह मित्र बन जाते हैं या हम पागल की तरह
शत्रु बन जाते हैं, लेकिन हमारा पागलपन
कायम रहता है। हम कभी भी तटस्थ होकर नहीं देख पाते।
तंत्र
कहता है, काम को तटस्थ होकर देखना पहला
सूत्र है। काम को मित्र की तरह मत देखो, शत्रु की तरह मत
देखो; काम को भोगने योग्य की भांति मत देखो, काम को त्यागने योग्य की भांति मत देखो। काम को देखो एक शुद्ध ऊर्जा की
भांति, एक प्योर एनर्जी की भांति। वह सत्य भी है। मित्रता,
शत्रुता हमारे दृष्टिकोण हैं, तथ्य नहीं हैं।
मित्रता, शत्रुता हमारी व्याख्याएं हैं, इंटरप्रिटेशन्स हैं, तथ्य नहीं हैं। तथ्य तो इतना ही
है कि वह एक ऊर्जा, एक विराट ऊर्जा, जो
बाहर की तरफ फैलती चली जाती है, जो दूसरे की मांग करती है,
जो विरोधी की मांग करती है, इस ऊर्जा को ऊर्जा
की तरह देखें। तंत्र का यह पहला सूत्र है।
और इसे
ऊर्जा की तरह देखते ही सारी दृष्टि बदल जाती है। क्योंकि तब न हम भोगने को आतुर
हैं, न हम त्यागने को आतुर हैं। जो
त्यागने को आतुर है, वह हारा हुआ भोगी है, थका हुआ भोगी है, ऊबा हुआ भोगी है, परेशान हुआ भोगी है। वह भोगी ही है, जो अब त्याग की
बात कर रहा है। लेकिन जब भोग से ऊब गया आदमी तो त्याग पर कितने दिन रुकेगा कि न ऊब
पाये?
जो भोग
से ऊब गया है, वह जल्दी ही त्याग से भी ऊब
जाएगा। जब भोग तक से ऊब रहे हैं, तो त्याग से कैसे बच सकेंगे
ऊबने से? त्याग उसी भोग का दूसरा पहलू है, वह उसी सिक्के की दूसरी तस्वीर है। जब एक पहलू से ऊब गए हैं, तब दूसरे पहलू से भी ऊब जाएंगे।
इसे थोड़ा
समझ लेना जरूरी है, क्योंकि यह काम-ऊर्जा
के रूपांतरण के लिए अनिवार्य समझ बनेगी।
प्रत्येक
काम के कृत्य के दो पहलू हैं। प्रत्येक कृत्य के ही दो पहलू हैं। काम-कृत्य के भी
दो पहलू हैं। उदाहरण से समझें कि भूख लगी है, खाने के लिए आतुर हैं, पागल हैं, सब दांव पर लगा सकते हैं। फिर भोजन कर लिया है। फिर भोजन करने के बाद भोजन
को बिलकुल भूल जाते हैं, फिर भोजन की कोई याद नहीं रह जाती।
और अगर ज्यादा भोजन कर लिया तो जिस भोजन के लिए पागल थे, उसी
भोजन को वोमिट करने की, वमन करने की इच्छा पैदा हो जाती है।
जिस भोजन के लिए दीवाने थे, उसी से अरुचि पैदा हो जाती है।
जिस भोजन के लिए सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार थे, अब
उसी के प्रति मन में बड़ा तिरस्कार और निंदा पैदा हो जाती है। चित्त की प्रत्येक
वृत्ति, भूख और प्यास के दो पहलू हैं--प्यास की स्थिति और
फिर प्यास के पूरे हो जाने की स्थिति।
ठीक ऐसे
ही काम जब मांग करता है मन में, तब आदमी विक्षिप्त और
पागल होकर काम के पीछे दौड़ता है। फिर काम एक शिखर तक ले जाता है, जहां सिर्फ शक्ति क्षीण होती है, और व्यक्ति वापस
उदासी के गङ्ढे म? गिर जाता है। उस उदासी के गङ्ढे में अब वह
काम के विरोध में सोचता है। ऐसा भोगी खोजना मुश्किल है जो भोग के बाद त्याग की
भाषा में न सोचता हो।
त्याग जो
है वह काम की ही पृष्ठभूमि में सोचा गया खयाल है। त्याग जो है वह काम का ही
पश्चात्ताप है, रिपेंटेंस है। त्याग
जो है वह खोयी गई शक्ति के लिए किया गया दुख है। सभी भोगी काम की तृप्ति के बाद
त्याग का, रिनंसिएशन का, विषाद का,
उपेक्षा का, तिरस्कार का अनुभव करते हैं। पति
पत्नी की तरफ पीठ करके जब सो जाता है तो वह पीठ बड़ी सूचक है। पत्नी उस पीठ की
सूचना को भी समझती है, इसलिए पत्नी पीठ के पीछे निरंतर रोती
है। क्योंकि क्षण भर पहले यही व्यक्ति पागल था और यही व्यक्ति क्षण भर के बाद पीठ
कर लिया है। और यही व्यक्ति अब ऐसा उदास और थका और परेशान है, जैसे दोबारा अब इसकी यह मांग नहीं उठनेवाली है। चौबीस घंटे में, अड़तालीस घंटे में, शक्ति और उम्र के अनुसार मांग फिर
पकड़ लेगी, फिर भोग का चित्त खड़ा हो जाएगा, और वह पिछला सब पश्चात्ताप भूल जाएगा जो उसने कल तक किये थे। और फिर
पश्चात्ताप, और पश्चात्ताप के क्षण में वह भोग की सब
आकांक्षाएं, स्वप्न, सुख की कामनाएं,
सब भूल जायेगा जो उसने जिंदगी भर की हैं।
त्याग और
भोग एक सिक्के के दो पहलू हैं। प्रत्येक व्यक्ति चौबीस घंटे में निरंतर त्याग और
भोग के पेंडुलम में घूमता रहता है। कुछ लोग फिर इसमें से एक को पकड़ लेते हैं। कुछ
लोग भोग को पकड़ लेते हैं तो वे वेश्यागृहों में पड़े रह जाते हैं। कुछ लोग इसमें से
दूसरे सिक्के को, पश्चात्ताप को पकड़
लेते हैं, तो मोनेस्ट्रीज में, आश्रमों
में बैठ जाते हैं। लेकिन ये दोनों ही उस सिक्के के एक-एक हिस्से को पकड़े हुए हैं
जिसमें दूसरा पहलू पीछे छिपा है।
इसलिए
मोनास्ट्री में भागा हुआ व्यक्ति, आश्रम में भागा हुआ
व्यक्ति अपने चित्त में रोज-रोज काम की तरंगों को उठता हुआ अनुभव करेगा। पुकार आती
रहेगी उस दूसरे पहलू से, जिसको छोड़ा नहीं गया, सिर्फ दबाया गया है। सिक्के के दोनों पहलू एक साथ छोड़े जा सकते हैं,
एक पहलू कभी भी नहीं छोड़ा जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा हम एक पहलू
को नीचे कर सकते हैं, दूसरे को ऊपर कर सकते हैं। लेकिन अगर
हाथ में सिक्का है, तो दूसरा पहलू भी हाथ में है। इसलिए
त्यागी निरंतर भोग का आकर्षण अनुभव करता है, और इसलिए त्यागी
निरंतर भोग के खिलाफ बोलता रहता है। वह आपको नहीं समझा रहा है, वह अपने को ही समझा रहा है।
इसलिए
दुनिया के समस्त त्यागियों ने भोग को ऐसी गालियां दी हैं कि शक होता है कि उनके
चित्त में जरूर ही भोग का आकर्षण रहा होगा, अन्यथा इस तरह की गालियों का कोई प्रयोजन नहीं है। अगर भोग छूट ही गया हो
तो उसको गाली देने में भी रस नहीं रह जाएगा। लेकिन अगर त्यागियों के ग्रंथ उठाकर
देखें तो बड़ी हैरानी होगी। जिस तरह भोगी प्रशंसा कर रहे हैं, उसी तरह त्यागी निंदा कर रहे हैं।
भोगी
क्यों प्रशंसा कर रहा है? भोगी अपने
पश्चात्तापों को मिटाने के लिए प्रशंसा किये चला जा रहा है। वह अपने को समझा रहा
है कि पश्चात्ताप व्यर्थ थे। क्षण की कमजोरी थी, बेकार थी।
आकर्षण बहुत है, रस बहुत है, स्वर्ग
बहुत है। वह अपने पश्चात्तापों को धो डालने के लिए प्रशंसा कर रहा है। और ऐसी
प्रशंसा कर रहा है जो सत्य नहीं है। प्रशंसाएं कभी सत्य नहीं होतीं। और त्यागी
उससे उलटा निंदा कर रहा है। वह अपने भोग के क्षणों में पाए गए सुख की स्मृतियों को
झुठलाने की कोशिश में लगा है। वह कह रहा है, सब गलत है। मन
से कह रहा है, झूठ हैं ये बातें, नर्क
हैं बिलकुल। मन स्वर्ग की स्मृतियां दिलाता है। वह नर्क कह-कह कर उन स्मृतियों को
नष्ट करने में लगा है। लेकिन ये दोनों ही दमन कर रहे हैं। भोगी त्याग का दमन कर
रहा है, त्यागी भोग का दमन कर रहा है। ये दोनों ही सप्रेसिव
माइंड हैं।
यह बात
भी खयाल में ले लेनी जरूरी है। आमतौर से हम त्यागी को दमनकारी कहते हैं, लेकिन भोगी को हम कभी दमनकारी नहीं कहते। यह गलत बात
है। त्यागी भी दमन करता है, भोग का दमन करता है। भोगी भी दमन
करता है, अपने पश्चात्तापों, अपने
त्यागों का दमन करता है। दोनों ही दमन करते हैं।
तंत्र
कहता है, दमन मत करो, देखो, जानो, पहचानो। इन दोनों
के द्वंद्व से बचो। यह द्वैत गलत है। न तो प्रशंसा करो, न
निंदा करो। क्योंकि अभी प्रशंसा करोगे तो थोड़ी देर बाद निंदा करोगे। जैसे दिन के
पीछे रात और रात के पीछे दिन, ऐसे ही प्रशंसा के पीछे निंदा
और निंदा के पीछे प्रशंसा उनका वर्तुल घूम रहा है। तो तंत्र कहता है कि तुम देखो
कि दोनों ही व्यर्थ हैं। ऊर्जा को तटस्थ देखो। समस्त ऊर्जा तटस्थ है। न शुभ है,
न अशुभ है। न त्यागने योग्य है, न भोगने योग्य
है।
अगर कोई
व्यक्ति अपनी जीवन-ऊर्जा को इस दोहरे द्वंद्व से बचाकर देख पाये, तो क्या परिणाम होगा? तो तंत्र
कहता है, जैसे ही जीवन-ऊर्जा को कोई ऊर्जा की भांति, जस्ट ऐज एनर्जी, बिना किसी वैल्युएशन के, बिना किसी मूल्यांकन के देखता है, वैसे ही ऊर्जा ठहर
जाती है। न तो वह आगे की तरफ जाती है, न तो वह पीछे की तरफ
जाती है। न वह बाहर की तरफ जाती और न वह भीतर की तरफ जाती है। क्योंकि ऊर्जा को हम
ले जाते हैं; प्रशंसा से बाहर की तरफ ले जाते हैं, निंदा से भीतर की तरफ ले जाते हैं।
घड़ी के
पेंडुलम को हमने घूमते देखा है, लेकिन एक सूत्र खयाल
में न आया होगा और वह यह कि जब घड़ी का पेंडुलम बायीं तरफ जाता है तब वह दायीं तरफ
जाने की शक्ति अर्जित करता है। और जब वह दायीं तरफ जाता है तब वह बायीं तरफ जाने
की शक्ति इकट्ठा करता है। असल में दायीं तरफ जाकर वह बायीं तरफ जाने की तैयारी
करता है और बायीं तरफ जाकर दायीं तरफ जाने की तैयारी करता है। उसी हिसाब से वह
घूमता रहता है।
जब आप
अपनी काम-ऊर्जा की प्रशंसा कर रहे हैं, तब आप निंदा की तैयारी कर रहे हैं; और जब आप निंदा
कर रहे हैं तब आप प्रशंसा की तैयारी कर रहे हैं। यह उलटा खयाल एकदम से समझ में
नहीं आता। यह ला आफ रिवर्स इफेक्ट है। यह आदमी के मन में विरोधी ऊर्जा इकट्ठी होती
रहती है।
मैंने
सुना है, एक यहूदी फकीर हसीद ने एक किताब
लिखी है। वह किताब एक क्रांतिकारी किताब थी और यहूदियों का जो आर्थाडाक्स, रूढ़िग्रस्त वर्ग था, वह बहुत कुपित था उस किताब पर।
तो उसने अपने एक भक्त को, अपने एक प्रेमी को वह किताब देकर
कहा कि यहूदियों का जो सबसे बड़ा रब्बी है, उसको भेंट कर आओ।
वह भक्त बहुत घबराया। उसने कहा, पता नहीं, वह कैसा व्यवहार करे? हसीद फकीर ने कहा, तुम उनके व्यवहार का उत्तर मत देना। वह जो भी व्यवहार करे, उसे ठीक-ठीक आकर मुझे बता देना। और ध्यान रखना कि तुम उनके व्यवहार को
रिएक्ट मत करना, नहीं तो तुम ठीक-ठीक खबर न दे पाओगे। तुम
सिर्फ देखना कि वह क्या व्यवहार करते हैं। तुम कुछ करने मत लग जाना। अगर वे गाली
दें तो तुम गाली का उत्तर मत देना, अगर वह क्रोध करें तो तुम
समझाने की कोशिश मत करना। तुम सिर्फ विटनेस, साक्षी रहना,
ताकि तुम ठीक-ठीक खबर मुझे दे सको। तुम्हें मैं एक गवाह की तरह वहां
भेज रहा हूं।
वह आदमी
गवाह की तरह वहां गया। सांझ थी और रब्बी अपनी पत्नी के साथ बगीचे में बैठा था।
भक्त ने उसे वह किताब दी और कहा कि फलां फकीर ने आपके लिए भेंट भेजी है। नाम सुनते
ही रब्बी ने किताब को उठाकर जोर से फेंक दिया और कहा कि दरवाजे के बाहर रखो। ऐसी
अधार्मिक किताबें इस मकान के भीतर भी प्रवेश नहीं कर सकतीं। लेकिन उस आदमी को कहा
गया था कि वह सिर्फ गवाह की तरह रहेगा, एक क्षण तो उस आदमी को हुआ कि कुछ करे, एक क्षण तो
हुआ कि कुछ कहे, लेकिन उसे कहा गया था कि उसे भागीदार,
पार्टीसिपेंट नहीं होना है, उसे सिर्फ गवाह
होना है। तो वह खड़ा रहा। तभी रब्बी की पत्नी ने कहा, ऐसा भी
क्या क्रोध कर रहे हैं! घर में हजारों किताबें रखी हैं, लाइब्रेरी
की रैक पर इसको भी रख दें, और फेंकना भी हो तो पीछे फेंक
सकते हैं, इस बेचारे आदमी को इतना दुख देने की भी क्या जरूरत
है? मन हुआ कि वह धन्यवाद दे उसकी पत्नी को, लेकिन फिर खयाल आया कि वह सिर्फ गवाह की तरह भेजा गया है। उसे कुछ करना
उचित नहीं है। वह खड़ा देखता रहा।
फिर उसने
पूछा, मैं जाऊं? रब्बी
और उसकी पत्नी दोनों ने पूछा, लेकिन आपने कुछ भी कहा नहीं।
उसने कहा, मैं सिर्फ गवाह की तरह भेजा गया हूं। मुझे खबर दे
देनी है, जो हो रहा है। मुझे कहा गया है कि मुझे भागीदार
नहीं होना है। लेकिन चलते वक्त उसने कहा कि एक खबर आपको जरूर दे जाऊं कि जिंदगी
में यह पहला मौका है कि मैं किसी चीज में सिर्फ गवाह था, और
मेरा पहला मौका है कि अपनी पूरी जिंदगी के लिए मेरा चित्त हंस रहा है। काश,
मैं पूरी जिंदगी ऐसा गवाह हो पाता!
वह वापस
चला आया। फिर हसीद फकीर ने पूछा, क्या हुआ? तो उसने कहा, ऐसा-ऐसा हुआ। हसीद फकीर ने पूछा,
तुमने कोई प्रतिक्रिया तो नहीं की? उसने कहा,
नहीं, मैंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। हसीद
फकीर ने पूछा कि अब तुम्हारा क्या खयाल है? अगर तुम उस वक्त
प्रतिक्रिया करते तो क्या खयाल होता और अब अगर प्रतिक्रिया करो तो क्या खयाल है?
तो उस आदमी ने कहा कि बिलकुल हालत बदल गयी। अगर उस वक्त मैं
प्रतिक्रिया करता तो मैं समझता कि वह रब्बी दुश्मन है और उसकी पत्नी मित्र है।
लेकिन गवाह की तरह देख आया तो अब मैं कह सकता हूं कि रब्बी आज नहीं कल मित्र बन
सकता है, पर उसकी पत्नी के मित्र बनने की कोई उम्मीद नहीं
है। हसीद ने पूछा, क्यों? तो उसने कहा
कि रब्बी ने इतने जोर से किताब क्रोध में फेंकी कि आज नहीं कल उसे किताब पढ़नी ही
पड़ेगी, आज नहीं कल वह पछताएगा। लेकिन पत्नी ने बड़े ठंडे दिल
से इतना कहा कि रख दो लाइब्रेरी में, हजार किताबें रखी हैं,
यह भी रखी रहेगी। उससे कोई उम्मीद नहीं है कि वह पढ़े। तो अब मैं कह
सकता हूं कि रब्बी की पत्नी ही दुश्मन है। रब्बी तो मित्र बन सकता है। वह हसीद
हंसने लगा। उसने कहा कि तुम घड़ी के पेंडुलम के सिद्धांत को समझ गए हो।
जिंदगी
बड़ी उलटी प्रतिक्रियाएं इकट्ठी करती है। भोगी रोज-रोज त्याग की कसमें खाता है, त्यागी रोज-रोज भोग की आकांक्षाओं में लिप्त होता है।
तंत्र कहता है, दोनों व्यर्थताएं हैं। एक ही सिक्के के दो
पहलू हैं। तंत्र कहता है, ऊर्जा सिर्फ ऊर्जा है। मत देखो
भोगने की तरह, मत देखो त्यागने की तरह। देखो ही मत कुछ करने
की तरह। सिर्फ ऊर्जा के गवाह बन जाओ, जस्ट बी ए विटनेस। और
जैसे ही ऊर्जा का कोई गवाह बने, ऊर्जा न बाहर जाती है,
न भीतर जाती है, ऊर्जा खड़ी रह जाती है। और
जैसे ही ऊर्जा खड़ी रह जाए, वैसे ही ऊर्जा में रूपांतरण शुरू
हो जाता है।
और एक
बड़े मजे का एक दूसरा नियम आपसे कहूं। इस जगत में कोई भी चीज खड़ी नहीं रह सकती। इस
जगत में कोई भी चीज ठहर नहीं सकती। इस जगत में कोई भी चीज या तो बाहर जाएगी या
भीतर जाएगी। इस जगत में कोई भी चीज या तो आगे जाएगी या पीछे जाएगी। इस जगत में
ठहराव नहीं है, यहां कुछ भी ठहरा
नहीं रह सकता। प्रत्येक चीज प्रतिपल आगे-पीछे हो रही है। अगर ऊर्जा खड़ी हो जाए,
न भीतर जाए, न बाहर जाए, तो एक क्षण को ऐसा दिखाई पड़ेगा कि ऊर्जा खड़ी हो गई, क्योंकि
उसका बाहर जाना तत्काल बंद हो जायेगा। आप कुछ न करें, सिर्फ
गवाह बने रहें, तो आप पाएंगे कि ऊर्जा ने भीतर जाना शुरू कर
दिया। ऊर्जा जीवंत है, रुक नहीं सकती, कहीं
जाएगी ही। अगर नीचे न जाएगी तो ऊपर जाएगी।
इसलिए
तंत्र कहता है, बाहर ले जाने के लिए
मनुष्य को बड़े उपाय करने पड़ते हैं। भीतर ले जाने के लिए सिर्फ निरुपाय हो जाना
पड़ता है। बाहर ले जाने के लिए बड़े एफर्ट करने पड़ते हैं, क्योंकि
बाहर ले जाना अस्वाभाविक है। भीतर ले जाने के लिए उपाय नहीं करने पड़ते हैं। भीतर
ले जाने के लिए एक ही उपाय करना पड़ता है, बाहर ले जाने वाले
उपाय छोड़ देने पड़ते हैं। और भोगी और त्यागी दोनों ही बाहर लड़ते रहते हैं। एक ऊर्जा
को भीतर की तरफ खींचता है। जितना भीतर की तरफ खींचता है, ऊर्जा
उतना बाहर की तरफ धक्का देती है। दूसरा, जितना बाहर की तरफ
धक्के देता है, ऊर्जा भीतर की तरफ जाने की चेष्टा करती है।
जैसे गेंद को दीवाल पर फेंक कर मारा गया हो और गेंद आपकी तरफ लौट आती हो, ठीक ऐसे ही शक्ति के साथ हमारा संघर्ष एब्सर्डिटीज में ले जाता है,
असंगतियों में ले जाता है।
तंत्र
कहता है, ठहर जाओ। गवाह बन जाओ। साक्षी बन
जाओ। देखो, निर्णय मत लो, व्याख्या मत
करो, पक्ष-विपक्ष मत चुनो, प्रशंसा
नहीं, निंदा नहीं। खड़े रह जाओ। बस एक बार देख लो। स्टैंड
स्टिल। और जैसे ही कोई एक क्षण को खड़ा हो गया, तत्काल एक
क्षण को लगता है कि ठहर गई, क्योंकि बाहर जाना तत्काल बंद हो
जाता है, और दूसरे क्षण पता चलता है कि धारा भीतर की तरफ
बहने लगी।
बाहर की
तरफ बहना नीचे की तरफ बहना है। भीतर की तरफ बहना ऊपर की तरफ बहना है। भीतर और ऊपर
पर्यायवाची हैं, इस अंतर्यात्रा में।
बाहर और नीचे पर्यायवाची हैं, इस साधना में। और जैसे ही
ऊर्जा भीतर की तरफ बहती है तो अंतर्मैथुन शुरू होता है। वह तंत्र की अपनी अदभुत
कला की बात है अंतर्मैथुन।
एक संभोग
है जो व्यक्ति दूसरे से करता है, एक रति है, एक संबंध है जो व्यक्ति अपने विरोधी से, अपोजिट
सेक्स से निर्मित करता है। पुरुष स्त्री से या स्त्री पुरुष से। लेकिन जब भीतर की
तरफ यात्रा शुरू होती है तो अपने ही भीतरी केंद्रों पर संबंध निर्मित होने शुरू हो
जाते हैं। एक मूलाधार जब दूसरे मूलाधार से संबंधित होता है तो यौन घटित होता है।
वे भी दो चक्र हैं। उनके मिलन से यौन घटित होता है। क्षण भर का सुख घटित होता है।
जैसे ही मूलाधार से शक्ति भीतर के दूसरे चक्र की तरफ बहनी शुरू होती है, दूसरे चक्र पर मिलन घटित होता है। दो चक्र फिर मिलते हैं, लेकिन यह अंतर-चक्रों का मिलन है, और तंत्र शुरू हो
गया। अंतर्मैथुन शुरू हुआ।
ऐसे सात
चक्र हैं और प्रत्येक चक्र पर जब ऊर्जा पहुंचती है तो और गहरे आनंद और गहरे आनंद
का अनुभव होता है, और सातवें चक्र पर
ऊर्जा के बहने पर परम आनंद का विस्फोट, एक्सप्लोजन हो जाता
है। उसके बाद कोई चक्र नहीं है। उसके बाद ऊर्जा परम ब्रह्म से एक हो जाती है।
ये जो
अंतर-चक्र हैं व्यक्ति के अपने भीतर, इनसे ही मिलन-ऊर्जा का नाम अंतर्मैथुन है। यह सुख...तंत्र कहता है इसे
महासुख, क्योंकि सुख कहना ठीक नहीं है। सुख तो वह है जो हमने
दूसरों से मिलकर जाना है। हालांकि दूसरे से हम कभी मिल नहीं पाते। मिल भी नहीं
पाते कि बिछुड़ना शुरू हो जाता है। मिलना हो भी नहीं पाता कि टूटना हो जाता है। मिल
भी नहीं पाते कि ऊर्जाएं अलग हो जाती हैं। इसलिए दूसरे से सिर्फ मिलने की कामना ही
होती है, घटना नहीं घटती। घट भी नहीं पाती कि मिट जाती है।
लेकिन अपने ही भीतर तो टूटने का कोई सवाल नहीं। मिलन गहरा होने लगता है, शाश्वत होने लगता है, और जैसे-जैसे गहरे चक्रों पर
व्यक्ति पहुंचता है वैसे-वैसे महासुख की धारा बहने लगती है। लेकिन यह महासुख की
धारा यौन-ऊर्जा का ही रूपांतरण है।
तो पहली
तो बात गवाह होना जरूरी है। तटस्थ दृष्टि होनी जरूरी है। यौन की दुश्मनी नहीं, मित्रता नहीं, सहज भाव होना
जरूरी है। और दूसरी बात, यह जो तटस्थ क्षण है, यह जो रुक जाने का, ठहर जाने का क्षण है, इस क्षण में बड़ी गहरी प्रतीक्षा और धैर्य चाहिए। क्यों? क्योंकि हमारी जिंदगी में यौन का जो अनुभव है वह एक क्षण का अनुभव है।
क्षण के भी हजारवें हिस्से का अनुभव है। और जैसे ही वह क्षण पूरा भी नहीं हो पाता
कि चित्त वापस लौट जाता है। विरोध में लौट जाता है। इसलिए आदतवश जब यह ठहरने का
क्षण भी आता है तंत्र में, तब भी चित्त तत्काल वापस लौटने
लगता है। यह उसकी पुरानी आदत है।
इसलिए
बड़े धैर्य की जरूरत है। जब भीतर के चक्रों पर ऊर्जा प्रवाहित हो, तब जरा धैर्य रखने की जरूरत है। सुख बहुत मिलेगा,
लेकिन वापस मत लौट जाइए। पहले सुख का अनुभव यौन-सुख जैसा ही होता है,
संभोग जैसा ही होता है। इसलिए जल्दी से वापस मत लौट जाइए। पुरानी
आदत जोर करेगी। आपको पता भी नहीं चलेगा और आप पायेंगे कि आप वापस लौट गये हैं।
क्योंकि चित्त हमारा मेकेनिकल हैबिट से चलता है। उसकी सारी बंधी हुई आदतें हैं। वह
अपनी आदतों से ही जीता है। जैसी आदतें हैं वह वैसे ही किए चला जाता है। स्वाभाविक
भी यही है, क्योंकि चित्त के पास आदत के अतिरिक्त और कोई
ज्ञान नहीं है। उसका जो ज्ञान है वह यही है, वह अपनी आदत को
दोहरा लेगा।
इसलिए
तंत्र की ध्यान-साधना में बड़ी से बड़ी जो बात है जानने की वह यह है कि पहले क्षण का
पहले चक्र पर अनुभव संभोग जैसा होगा, तब मन एकदम लौट जाना चाहेगा। उस वक्त धैर्य और प्रतीक्षा, पेसेंट अवेटिंग की जरूरत है। उसमें जल्दी मत लौट जाइये। कठिनाई होगी,
दस-पांच दफा वापिस लौट ही जाइयेगा, लेकिन उस
वक्त धैर्य रखिये, उसे देखते रहिए, देखते
रहिए। एक-एक क्षण लंबा मालूम होगा, कि बहुत टाइमलेस है,
कि कब पूरा होगा। क्योंकि मन की आदत क्षण के सुख की ही है। अगर
महासुख उतरेगा तो भी घबराकर वापस लौट जाता है। इस क्षण में ही तपश्चर्या की जरूरत
है। इस क्षण में धैर्य की जरूरत है। रुक जायें, और भीतर,
और भीतर डूबते जायें। यह जो महासुख का अनुभव है, यह मृत्यु जैसा मालूम होगा। इतनी घबराहट होगी।
असल में
यौन का मृत्यु से गहरा संबंध है। सेक्स और डेथ बहुत गहरे रूप से जुड़े हैं। आदमी भी
अपने प्रत्येक संभोग में कुछ मरता है। प्रत्येक संभोग में उसकी जीवन-शक्ति क्षीण
होती है। और अगर हम कुछ प्राणियों की तरफ नजर डालें तब तो बहुत हैरानी हो जाएगी।
कुछ प्राणी तो एक ही संभोग में मर जाते हैं। अपनी मादा के ऊपर से उन्हें मुर्दा ही
उतारा जाता है। वह जिंदा नहीं लौटते। एक ही संभोग उनकी मृत्यु बन जाती है। और भी
कुछ प्राणी हैं जिनके संभोग को समझकर तो और भी हैरानी होगी। फर्क नहीं है हमारे और
उनके संभोग में। सिर्फ टाइम-गैप का, समय का फर्क है।
एक
अफ्रीकी मकड़ा संभोग करता रहता है, और उसकी मादा उसको
ऊपर से चबाना और खाना शुरू कर देती है। जब तक संभोग पूरा होता है तब तक उसका आधा
शरीर खा लिया गया होता है। लेकिन दूसरे मकड़े यह देखते हुए भी फिर भी संभोग में
उतरते ही रहेंगे। यह दिखाई पड़ रहा है, लेकिन प्रत्येक मकड़ा
उसी तरह सोचता है जैसे प्रत्येक मनुष्य सोचता है। प्रत्येक मकड़ा इसी तरह सोचता है
कि यह उसके साथ घट रहा है, मैं तो अपवाद हूं, मैं एक्सेप्शन हूं। मेरे साथ क्यों घटेगा!
प्रत्येक
आदमी के भी सोचने का ढंग यही है। मकड़ों और मनुष्यों के तर्कों में बहुत फर्क नहीं
है। तर्क वही हैं। प्रत्येक आदमी सोचता है कि मैं अपवाद हूं। जब कोई आदमी सड़क पर
मरता है तो ऐसा खयाल नहीं आता कि मैं भी मरूंगा। ऐसा खयाल आता है, बेचारा...! ऐसा खयाल नहीं आता है कि इधर जो है वह भी
बेचारा है, और इस आदमी के मरने की खबर, मेरे मरने की खबर है।
अगर हम
प्राणी-जगत में यौन के सारे के सारे अनुभवों को देखने जायें तो बहुत हैरान हो
जाएंगे। अधिक जगह यौन और मृत्यु साथ ही घटित हो जाते हैं। जहां साथ ही घटित नहीं
होते, वहां भी प्रत्येक यौन की घटना
मृत्यु को निकट लाती चली जाती है। यह जोड़ गहरा है। इसलिए संभोग के बाद जो
पश्चात्ताप है, वह असल में थोड़ा-सा मर जाने का पश्चात्ताप भी
है। थोड़ा आदमी मर गया। अब वह वही नहीं है जो संभोग के पहले था। कुछ खो गया है,
कुछ नष्ट हो गया है, कुछ टूट गया है, पश्चात्ताप है। जीवन-ऊर्जा क्षीण हुई है।
इसलिए
पहली दफा जब अंतर-चक्रों पर ऊर्जा पहुंचेगी या पहले चक्र पर पहुंचेगी तो ऐसा ही डर
लगेगा कि कहीं मैं मर न जाऊं। इसलिए ध्यान की गहराइयों में मृत्यु का भय बड़ी
मुश्किल में ला देता है, बड़ी मुश्किल पैदा कर
देता है, ऐसा लगता है कि मैं मर न जाऊं! उस वक्त तैयारी
दिखानी पड़ेगी कि ठीक है। मौत का भी स्वागत है। राजी हूं। जैसे संभोग में सदा राजी
रहे हैं, और मौत का स्वागत करते रहे हैं, ऐसे ही उस अंतर्मैथुन के पहले क्षण में भी मौत के लिए राजी होना पड़ेगा। और
जो वहां मौत के लिए राजी हो जाता है, उसे तत्काल पता चल जाता
है कि वह अमृत में प्रवेश कर गया है।
बाहर
प्रत्येक मैथुन मृत्यु में प्रवेश है। भीतर प्रत्येक मैथुन अमृत में प्रवेश है।
बाहर प्रत्येक संभोग की घटना मरने की घटना है। भीतर प्रत्येक संभोग की घटना अमृत
के आस्वाद की घटना है। वह जो कबीर चिल्लाते हैं कि अमृत बरस रहा है तालू से, चिल्लाते हैं कि साधुओ, अमृत की
वर्षा हो रही है, वह कुछ बाहर नहीं बरस रहा है कहीं। वह भीतर
के चक्रों पर जब जीवन ऊर्जा चढ़ती है तो अमृत का स्वाद बरसना शुरू हो जाता है। अब
अमृत कोई चीज नहीं है कि बरसेगी। मृत्यु कोई चीज है कि बरसती है! मृत्यु एक घटना
है, ऐसे ही अमृत भी एक घटना है, वह
अंतर्र्घटना है।
और दूसरा
भी पहलू आप से कह दूं, कि जैसे दूसरे के साथ
संभोग करके हम दूसरे व्यक्ति को जन्म देते हैं, ऐसे ही स्वयं
के चक्रों पर संभोग स्वयं का नया जन्म बनता है। भीतर नया व्यक्ति पैदा होने लगता
है। रोज नया व्यक्ति पैदा होने लगता है। असल में जिसे हम "द्विज' कहते थे, वह उस व्यक्ति का नाम था जिसने दूसरा जन्म
लिया।
एक जन्म
तो मां-बाप से मिलता है। वह जन्म दूसरों के द्वारा मिला है। एक और जन्म है जो
स्वयं से मिलता है। वह तंत्र का ही जन्म है। ट्वाइस बार्न। इसलिए द्विज कहेंगे उस
आदमी को जो अपने भीतर के चक्रों पर जीवन-ऊर्जा को लेकर नए जन्म को उपलब्ध हो गया
है। बाहर के सब जन्मों के पीछे मृत्यु है। भीतर के सब जन्मों के पीछे अमृत है।
तंत्र की
यह रूप-रेखा खयाल में आ जाये तो काम-ऊर्जा को ब्रह्मचर्य तक पहुंचा देने में जरा
भी कठिनाई नहीं है। लेकिन तंत्र की यह दृष्टि समझ में आना कठिन है, क्योंकि हम सबके मन में काम-ऊर्जा के प्रति शत्रुता
के भाव बहुत गहरे हैं। हालांकि शत्रुता से हम शत्रु नहीं हो जाते। शत्रुता पाल-पाल
कर रोज मित्रता में उतरते चले जाते हैं। इधर गाली देते रहते हैं, उधर भोगते चले जाते हैं। इधर निंदा करते चले जाते हैं, उधर चरण उठाये चले जाते हैं। वही पेंडुलम बायें से दायें, दायें से बायें घूमता चला जाता है।
जिस
व्यक्ति को भी काम-ऊर्जा को ऊपर ले जाना है, उसे जानना चाहिए कि काम की ऊर्जा भी परमात्मा की ही ऊर्जा है, इसलिए निंदा व्यर्थ है, इसलिए भोगने की बात व्यर्थ
है। उसे जानने की बात सार्थक है, जीने की बात सार्थक है। न
भोग में जीना है, न त्याग में जीना है।
काम-ऊर्जा
जितनी भीतर जाये उतनी जीवंत होती चली जाती है। और जितनी ऊपर चढ़े उतना मेरे जीवन का
हिस्सा होती चली जाती है। और जो भीतर एम्पटीनेस का अनुभव होता है, रिक्तता का, खालीपन का, जैसे ही काम-ऊर्जा भीतर दौड़ती है वह भर जाती है, फुलफिलमेंट
हो जाता है। आदमी कह पाता है कि अब मैं भरा-पूरा हूं। अब कोई जगह खाली नहीं है।
आचार्य श्री, आपने अभी-अभी कहा है
कि संभोग में स्त्री और पुरुष दोनों की ऊर्जा क्षीण होती है, लेकिन सामान्य मान्यता यह है कि संभोग के वीर्य से स्त्री को पुष्टि मिलती
है। कृपया इसे स्पष्ट करें।
सामान्य मान्यताएं ऐसी ही होती हैं।
जैसे सामान्य मान्यता यह है कि सूरज उगता है; पृथ्वी चपटी है। सामान्य मान्यताएं अक्सर ही गलत होती हैं। क्योंकि
सामान्य का अर्थ है ऊपर से देखी गई, जिसमें गहरे नहीं जाया
गया। सूरज उगता दिखाई पड़ता है। अब हम भलीभांति जानते हैं कि सूरज नहीं उगता,
नहीं डूबता। लेकिन सूर्योदय और सूर्यास्त शब्दों से छुटकारा मनुष्य
का कभी भी नहीं हो सकता है। ये शब्द जारी रहेंगे। जमीन चपटी दिखाई पड़ती है,
कहीं भी गोल दिखाई नहीं पड़ती। हजारों-लाखों साल तक आदमी मानता चला
आया कि चपटी है। आज गोल मानना पड़ता है तो कठिनाई होती है, सामान्य
मन को बड़ी तकलीफ होती है कि गोल कैसे मानें, जब दिखाई चपटी
पड़ती है।
सामान्य
मान्यताएं अक्सर गलत होती हैं, क्योंकि सामान्य
मान्यताएं दो चीजों पर आधारित होती हैं। एक, जैसा ऊपर से
दिखाई पड़ता है। और दूसरा, जैसा हम मानना चाहते हैं वैसा हम
मान लेते हैं। सामान्यतया हम सत्य को नहीं मानना चाहते। हम जो मानना चाहते हैं,
उसे सत्य बना लेते हैं। आदमी रेशनल प्राणी कम, रेशनलाइजिंग प्राणी ज्यादा है। ऐसा नहीं कि वह बहुत बुद्धिमत्ता से विचार
करता है, बल्कि ऐसा कि वह जो भी विचार करता है, उसको बुद्धिमत्ता की शकल दे देता है। यह ज्यादा आसान पड़ता है।
हम संभोग, यौन, काम को भोगना चाहते हैं तो
रेशनलाइजेशन जोड़ते हैं। स्त्री शक्तिशाली होगी, पुरुष
शक्तिशाली होगा, स्वस्थ होगा, मेडिकली
ठीक होगा, ये सारी बातें हम जोड़ लेंगे। और अगर हम इनकार करना
चाहेंगे तो हम सारी विरोधी बातें जोड़ लेंगे। और जमीन पर सामान्य आदमी सभी
स्थितियों से गुजर चुका है।
अगर मध्य
युग के यूरोप की किताबें देखें डाक्टरों की भी, तो उन्होंने जो बातें कही हैं वह आज का डाक्टर बिलकुल नहीं कह रहा है।
मध्य युग के डाक्टर्स कह रहे हैं, बड़ा खतरनाक है काम,
क्योंकि मध्य युग का आदमी काम-विरोधी रुख अख्तियार किए हुए था। आज
का डाक्टर कह रहा है कि बिलकुल खतरनाक नहीं है, एकदम शुभ है,
क्योंकि आज का आदमी शुभ मानना चाह रहा है। कोई आश्चर्य नहीं कि
स्थिति कल फिर बदल जाए। फैशन विचार में भी बदलते रहते हैं।
इस जमीन
पर आदमी ने हजार बार उन्हीं बातों को लौटा लिया है, जिन बातों को उसने छोड़ा है या जिनसे ऊब गया है। फिर उनसे विपरीत बातों को
पकड़ लेता है, फिर उनसे भी ऊब जाता है। फिर उनसे विपरीत बातों
को पुनः पकड़ लेता है। रोज आदमी गये-बीते सत्यों को फिर से जिंदा कर लेता है,
फिर उनसे भी ऊब जाता है।
और मजा
यह है कि हर युग के बुद्धिमान आदमी सामान्य आदमी की बात का समर्थन कर देते हैं।
क्योंकि उनके बुद्धिमान बने रहने के लिए भी यह जरूरी है कि सामान्य आदमी के सत्यों
को वे सत्य स्वीकार करें। दुनिया में ऐसे नासमझ लोग कम ही होते हैं जो सामान्य
आदमी की मान्यताओं को चुनौती दें। यद्यपि ऐसे ही लोग इस जगत में थोड़े-बहुत सत्य को
खोजने का कारण बनते हैं। लेकिन साधारणतः हम सब स्वीकृति देते हैं जो सामान्य आदमी
मानता है। सामान्य आदमी की मान्यता मन को समझाने की मान्यता है।
जब मैं
यह कह रहा हूं कि स्त्री और पुरुष दोनों ही शक्ति खोते हैं, तो दो बातें समझ लेनी जरूरी हैं कि मैं क्या कह रहा
हूं। एक तो मैं यह कह रहा हूं कि जिस शक्ति की मैंने कल बात की, काम-ऊर्जा की--जीव-ऊर्जा की नहीं, बायोलाजिकल नहीं,
साइकिक--उस काम-ऊर्जा को तो दोनों खोते हैं। दोनों ही खोते हैं। इसे
कुछ समझने में कठिनाई नहीं पड़ेगी। इसे तो हम मेडिकली भी जांच-परख कर सकते हैं।
काम के
क्षण में श्वास तीव्र हो जाएगी। ठीक वैसे ही जैसे आदमी सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ हांफ
रहा हो। ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा, पसीना छूट जाएगा,
काम के क्षण के बाद आदमी थक जाएगा। घंटे भर में वापस उसे संभोग करने
को कहें, तो पता चल जाएगा कि शक्ति मिली कि घटी। अब उसको फिर
चौबीस घंटे, अड़तालीस घंटे लगेंगे। एक आदमी के बाबत किसी ने
खबर दी है, पता नहीं कहां तक सच है, कभी
रेयर घटनाएं होती हैं, कि वह एक रात में बारह संभोग कर सका।
लेकिन इस तरह की कहानियां अक्सर तो अलीबाबा चालीस चोर वाली कहानियां होती हैं। यह
संभव नहीं है।
अगर आदमी
शक्ति इकट्ठा करता है तब तो पहले संभोग के बाद दूसरे संभोग में उसकी शक्ति बढ़ जानी
चाहिए। लेकिन पहले संभोग में जितना वीर्य-कण वह छोड़ता है, अगर दो-चार घंटे के भीतर दूसरा संभोग करे तो मात्रा
आधी हो जाएगी। और तीसरे संभोग में मात्रा और गिर जाएगी और चौथे संभोग में और कम हो
जाएगी। चौथे संभोग में आदमी पाएगा कि वह वृद्ध हो गया है, उसमें
अब कोई शक्ति नहीं है।
स्त्री
के संबंध में थोड़ी भ्रांति होती है, क्योंकि स्त्री के पास पैसिव सेक्स है। शक्ति वह भी खोती है, लेकिन स्त्री आक्रामक नहीं है। स्त्री स्वभावतः पैसिविटि में कम शक्ति
खोती है। आक्रमण में शक्ति ज्यादा खोती है। पुरुष पहल करता है, आक्रमण करता है। स्त्री आक्रमण नहीं करती, सिर्फ आक्रमण
झेलती है। कहना चाहिए सिर्फ डिफेंस करती है, सिर्फ रक्षा
करती है। स्त्री की शक्ति पुरुष से कम समाप्त होती है।
इसलिए
स्त्री-वेश्याएं पैदा हो सकीं। पुरुष-वेश्याएं पैदा होने में बहुत कठिनाई है। अभी
इंग्लैंड और फ्रांस में कुछ पुरुष-वेश्याएं पैदा हुई हैं। लेकिन उनके दाम बहुत
ज्यादा हैं। क्योंकि एक पुरुष-वेश्या एक रात में एक ही बार अपने को बेच सकता है।
वैश्य नहीं कह रहा हूं, कहीं कोई नाराज न हो
जाए। इसलिए पुरुष-वेश्या कह रहा हूं। स्त्री पैसिव है, लेकिन
वह भी शक्ति खोती है।
दूसरा
कारण, स्त्री के बाबत इसलिए पता नहीं
चलता कि स्त्री अक्सर आरगाज्म को उपलब्ध नहीं होती। असल में पुरुष और स्त्री की
पीक्स भिन्न-भिन्न हैं। स्त्री के पास जो काम की व्यवस्था है, वह बहुत धीमी विकसित होती है। अक्सर तो ऐसा होता है कि पुरुष काम के क्षण
के बाहर हो जाता है और स्त्री किसी ऊंचाई पर पहुंचती नहीं। उसमें कुछ क्षीण नहीं
होता। स्त्री और पुरुष की जो गति है संभोग के क्षण में, वह
समान नहीं है।
इसलिए
अक्सर स्त्री का कुछ भी क्षीण नहीं होता। पुरुष जल्दी से क्षीण होकर संभोग के बाहर
हो जाता है। इसलिए स्त्री को भ्रम हो सकता है। लेकिन अगर स्त्री को भी आरगाज्म
उपलब्ध हो, अगर उसका भी रजपात हो तो शक्ति
क्षय होगी। शक्ति क्षय होनी ही है। शक्ति क्षय करने में ही तो रस आ रहा है। इसलिए
आमतौर से स्त्री को संभोग में उतना रस नहीं होता है जितना पुरुष को होता है।
क्योंकि किन्से ने अभी दस साल की मेहनत के बाद जो रिर्पोट दी है, वह यह कहती है कि सौ में से सत्तर प्रतिशत स्त्रियों को संभोग के शिखर की
कोई अनुभूति नहीं है। बच्चे पैदा हो जाते हैं, लेकिन
काम-ऊर्जा के जो स्खलन का अनुभव है, वह स्त्री को मुश्किल से
हो पाता है। इसलिए स्त्रियां बहुत जल्दी अरुचि से भर जाती हैं। पुरुष अरुचि से
नहीं भरता। रोज-रोज उसकी रुचि फिर वापस लौट आती है।
यह जो
मैंने कहा कि दोनों की शक्ति क्षीण होती है। शक्ति तो क्षीण होती ही है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि
शक्ति को जबरदस्ती दबाकर कोई बड़ा शक्तिशाली बन जाएगा। अगर जबरदस्ती शक्ति को दबाया
तो दबाने में भी शक्ति क्षीण होती है। अगर जबरदस्ती दबाया, तो
जितना भोगने में क्षीण होती है कभी तो उससे भी ज्यादा दबाने में क्षीण होती है।
उसके दो कारण हैं, वह दबाई हुई शक्ति आज नहीं, कल निकल जाएगी, अनेक मार्ग निकलने के खोज लेगी। वह सपने
में बह जाएगी। और दबाने में जो शक्ति लगायी थी, वह व्यर्थ हो
जाएगी।
इसलिए
दबाने के पक्ष में मैं नहीं हूं। जो चिकित्सक या जो शरीर-शास्त्री इस बात को कहते
हैं कि यह स्वाभाविक है, स्वस्थ है, उनका कुल प्रयोजन इतना है कि कोई आदमी दबाने के पागलपन में न पड़े। दबायेगा
तो विकृत हो जाएगा, परवर्ट होगा, और
उपद्रव पैदा हो जाएंगे। नहीं, दबाने से शक्ति नहीं बचेगी,
दबाने से शक्ति और भी गलत, अस्वाभाविक मार्ग
लेगी, जो कि और भी घातक हो सकते हैं।
मैं
दबाने के लिए नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि और भी इस शक्ति की गति के
मार्ग हैं। और अगर एक बार उस मार्ग का दर्शन हो जाये तब आपको पता चलेगा कि कितनी
शक्ति आपने खोयी है। क्योंकि हमें पॉजिटिव उपलब्धि का कोई पता ही नहीं है। इसका
हमें पता चले तभी हम तौल कर सकते हैं।
मैं एक
घर में ठहरा था। जिन मित्र के घर ठहरा था वे परेशान थे और नींद आनी बंद हो गई थी।
तो मैंने पूछा, बात क्या है? उन्होंने कहा, बहुत नुकसान लग गया है। कोई पांच-सात
लाख रुपए का नुकसान लग गया। मैंने उनकी पत्नी से पूछा कि मामला क्या है कि इतना
नुकसान और इतने परेशान! तो उसने कहा, सच पूछिए तो मेरी समझ
में नहीं आता कि नुकसान लग गया है। असल बात यह है कि दस लाख कमाने की उनकी आशा थी
किसी काम में, लेकिन चार ही लाख कमा पाए। तो वे पांच-सात लाख
रुपए का नुकसान बता रहे हैं। मुझे तो दिखता है कि चार लाख का लाभ हुआ। लेकिन
उन्हें लगता है कि पांच-सात लाख रुपए का नुकसान हो गया। अब कौन उनको समझाये!
असल में
तब तक आपको पता नहीं लगेगा कि नुकसान हो रहा है जब तक कि आपको किसी लाभ की दिशा का
पता न हो। तो तौलेंगे कैसे? हिसाब क्या है?
मापदंड क्या है? नुकसान ही नुकसान हुआ है
जिंदगी में। तौल के लिए कोई उपाय भी तो नहीं है। तौल तो उसी दिन शुरू होती है जिस
दिन काम-ऊर्जा लाभ की दिशा में, ऊपर की दिशा में बढ़ती है। तब
आपको पता लगता है कि जिंदगी में कितना नुकसान हुआ है। इस नुकसान को तौलने के लिए
थोड़े लाभ के तराजूवाले पलड़े पर भी तो कुछ होना चाहिए। एक ही पलड़ा है हमारे पास,
जिसमें हम नुकसान ही रखते चले गए हैं। वही नुकसान, वही नुकसान। उसे लाभ कहिए, नुकसान कहिये, जो कहना है वह कहिए। हमारा कोई दूसरा अनुभव नहीं है। जिंदगी में सारे
अनुभव सापेक्ष हैं।
इसलिए
मैं कहूंगा कि मेरी बात खयाल में तभी पूरी आ सकती है जब आपकी जिंदगी में लाभ का
कोई कण पैदा हो जाये। तब आप समझेंगे कि नुकसान क्या हुआ है, नहीं तो कैसे समझ सकते हैं कि नुकसान क्या हुआ है।
नुकसान ही हुआ है केवल, तो उसी में हम लाभऱ्हानियां सोच लेते
हैं। अगर किसी नुकसान में क्षण भर के लिए जरा ज्यादा सुख मिला हो तो लगता है लाभ
हुआ है। और किसी नुकसान में क्षण भर को कम सुख मिला हो तो लगता है नुकसान हुआ है।
किसी में जरा ज्यादा देर के लिए संभोग की प्रतीति हुई हो तो लगता है लाभ हुआ। और
किसी में नहीं प्रतीत हुई हो तो लगता है नुकसान हुआ। ये सब नुकसान हैं। इन्हीं में
हम तौल कर लेते हैं। ये सब हारे हुए बटखरे हैं हमारे, जिनको
हम तौल लेते हैं।
लेकिन जब
पहली दफा जिंदगी में ऊर्जा ऊपर उठती है तब पता चलता है कि इस जन्म में ही नहीं, अनंत जन्मों में कितना अनंत नुकसान हुआ है। उसका हमें
कोई अनुभव तब तक नहीं हो सकता जब तक विपरीत तौल का अनुभव न हो जाये।
तो जब
मैं कह रहा हूं कि दोनों ही व्यक्ति ऊर्जा खोते हैं, तो मैं किन्हीं दस लाख के लाभ हो सकते हैं उस खयाल से कह रहा हूं। मगर
उन्हें कुछ पता नहीं है। उन्हें चार लाख में भी लाभ मालूम पड़ रहा है, तब बात दूसरी है। छह लाख की हानि हो रही है! छह लाख की चाहे दस लाख की हो
रही है, अरबों की हो रही है, यह तो तब पता
चले जब लाभ का द्वार खुल जाये।
इसे थोड़ा
प्रयोग कर के देखें। ऊर्जा को थोड़ा ऊपर जाने दें, फिर आप कहेंगे कि क्या हुआ है। समस्त जीवन सापेक्षताओं में है। और जब मैं
कहता हूं कि दोनों ऊर्जा खोते हैं, तो दोनों ही संभोग के बाद
सोचें तो उनको पता चल जाएगा। कुछ समय के बाद ऊर्जा फिर वापस भर दी जाएगी। शरीर तो
एक यंत्र है। आप ऊर्जा खत्म करते हैं, शरीर ऊर्जा पैदा करके
फिर भर देता है। अगर शरीर ऊर्जा न भरे रोज तब आपको पता चलेगा कि ऊर्जा खोयी है।
असल में ऐसा है कि वर्षा हो रही है। आप गङ्ढे से पानी निकाल लेते हैं। गङ्ढा फिर
भर जाता है। आप कहते हैं, कौन कहता है कि पानी निकाला,
गङ्ढा फिर भरा हुआ है।
अमरीका
की कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी में एक छोटा-सा प्रयोग किया गया। तीस युवकों को तीस
दिन के लिए भूखा रखा गया। तीन दिन के बाद ही उनका जो सेक्स अट्रेक्शन और सेक्स
अपील है वह खत्म होनी शुरू हो गई। तीन दिन के बाद मनोवैज्ञानिकों ने देखा कि नंगी
तस्वीरों की मैगजीनें पड़ी रहीं, पर अब वे कम उलटाते
हैं। सात दिन के बाद मैगजीन खोलकर सामने भी रख दो तो भी नजर नहीं डालते। दस दिन के
बाद उनसे बहुत चर्चा करना चाहो, गंदा मजाक करना चाहो,
उन्हें कुछ सुनाई नहीं पड़ता। वे कहते थे, बेकार
की बातें मत करो। पंद्रह दिन के बाद उनका सेक्स में कोई भी रस नहीं रह जाता है।
तीस दिन पूरे होतेऱ्होते, उनको सब तरफ से स्टिमुलेंट दो,
सब तरफ से उनको जगाओ, नंगी फिल्में दिखाओ,
नंगी तस्वीरें रखो, पोस्टर लगाओ उनके सामने,
वे ऐसे बैठे हैं जैसे उन सबसे उन्हें कोई मतलब नहीं। क्या हो गया है?
असल में शरीर तीस दिन में शक्ति को पूरा नहीं कर रहा है। गङ्ढे खाली
रह गए हैं। चित्त में अब कोई रस नहीं है।
फिर खाना
दिया जाता है। तीन दिन में फिर गङ्ढे भरने लगते हैं। अब रस वापस आ गया है। मैगजीन
अब जोर से पलटी जाने लगी हैं। सात दिन ठीक भोजन मिला है। अब वे फिर गंदी बातें
करने लगे हैं। फिर वे मजाक करने लगे हैं। अब उनकी बातचीत का ज्यादा हिस्सा
स्त्रियों के बाबत फिर शुरू हो गया है। पंद्रह दिन ठीक भोजन, और वे वापिस वैसे ही युवक हो गए हैं। और उनको
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तुम बड़े त्यागी हो गए थे, बड़ी
उपेक्षा से भर गए थे। वे कहते हैं, त्यागी कुछ भी नहीं,
हम सिर्फ भूखे थे।
इसलिए
दुनिया में बहुत-से त्यागी भूखे रहकर अगर त्यागी बने बैठे हैं तो बहुत भूल में मत
पड़ना। शरीर सब्सटीटयूट नहीं कर रहा है। जो शक्ति खाली रह गयी है, वह खाली रह गयी है। शरीर नहीं भरेगा शक्ति को तो आप
बाहर सो जायेंगे। शरीर चौबीस घंटे में आपको वीर्य-ऊर्जा वापस दे देता है। इसलिए
आपको लगता है कि क्या खर्च हो गया है, कुछ भी खर्च नहीं हुआ
है।
लेकिन
बड़े मजे की बात है कि चौबीस घंटे खाना-पीना, दुकान, नौकरी, मजदूरी, मेहनत, पढ़ना-लिखना, सब कुछ
वीर्य-कणों को पैदा करने के लिए हो रहा है। और इन सबको करने के बाद उन वीर्य-कणों
का क्या करना? उन वीर्य-कणों को फेंक देना है और फिर सुबह से
उसी सिलसिले में लग जाना है। किसलिए लगें! वीर्य-कण इकट्ठे करने में!
अगर
बायोलाजिस्ट से पूछें तो वह कहेगा कि आदमी का कुल फंक्शन इतना है, उसके शरीर का पूरा काम इतना है: मेहनत करे, खाना कमाये, खाना खाये, खाना
पचाये, खून बनाये, वीर्य बनाये और
वीर्य को फेंक दे और फिर उसी काम में लग जाये। यह कुल जमा आदमी का बायोलाजिकल
सर्किल है।
क्या
पूरी जिंदगी हम इतने काम के लिए हैं? अगर इस बात को कोई ठीक से समझ ले कि बस इतना ही काम है मेरा, तो जिंदगी में क्रांति घटित हो जाती है। जब वह आदमी सोचता है लौटकर कि यह
मुझसे क्या करवाया जा रहा है? यह मुझसे क्या हो रहा है?
इतना ही मेरा फंक्शन है! कुल जमा इतनी ही बात है बस! अगर इतनी ही
जिंदगी है तो फिर जिंदगी क्या खाक है! फिर कुछ भी नहीं है।
नहीं, जिंदगी में और भी द्वार हैं, जो
अनजाने और अपरिचित हैं। परंतु हम एक चक्कर में पड़ गए हैं और उसी चक्कर में घूमते
हुए नष्ट हो जाते हैं। इस चक्कर से शक्ति बचे तो उस नए द्वार पर भी चोट की जा सकती
है। लेकिन यह वीसियस सर्किल तेज है और तेजी से घूम रहा है, और
कभी हमें मौका भी नहीं मिलता है कि क्षण भर ठहर कर हम सोच लें कि हम जिंदगी में
क्या कर रहे हैं। शक्ति तो खोती है, लेकिन पता तभी चलेगा जब
शक्ति से कुछ पॉजिटिव, कुछ विधायक उपलब्धि होने लगे। उसके
पहले पता नहीं चलता है।
आचार्य श्री, आपने कुछ दिन पहले
कहा है कि संभोग में सूक्ष्म हिंसा है। तो क्या जिस संभोग से महावीर, कृष्ण, क्राइस्ट तथा बुद्ध जैसे लोगों का जन्म होता
है, उसमें भी हिंसा का आधार है? यदि
नहीं है तो क्यों नहीं है? और क्या ऐसे भी संभोग संभव हैं
जिनमें जरा भी हिंसा न हो?
हिंसा से रहित संभोग असंभव है। महावीर
पैदा हों, कि बुद्ध पैदा हों, कि कृष्ण पैदा हों, वह हिंसा होगी ही। न्यूनतम हो,
यह दूसरी बात है। लेकिन हिंसा होगी ही। हिंसा के बिना जन्म नहीं हो
सकता। इसलिए जन्म की आकांक्षा भी हिंसा है। महावीर के जन्म में भी हिंसा घटित होगी
ही।
अब
महावीर अगर पिछले जन्म में, जन्म लेने की थोड़ी सी
भी आकांक्षा से भरे रह गए हों, तभी जन्म होगा। महावीर पर भी
उस हिंसा का आरोपण है। महावीर के माता और पिता पर तो है ही, लेकिन
महावीर भी उस हिंसा के भागीदार हैं। क्योंकि जन्म लेने की उनकी भी आतुरता है। माता
और पिता तो सिर्फ अवसर, सिचुएशन पैदा कर रहे हैं। वह सिचुएशन
तो...।
अभी एक
पश्चिम के वैज्ञानिक डैनियल ने घोषणा की है, हम टेस्ट-टयूब में पैदा कर देते हैं। अब जीवन यहीं पैदा हो सकेगा, हो जाएगा। कोई कठिनाई नहीं है। महावीर के माता-पिता तो सिर्फ एक परिस्थिति
पैदा कर रहे हैं जिसमें महावीर की आत्मा प्रवेश करती है। माता और पिता हिंसा कर
रहे हैं वह तो ठीक ही है, महावीर भी थोड़ी-सी हिंसा कर रहे
हैं। जन्म लेने की आकांक्षा भी हिंसा है। बुद्ध ने कहा है, जीवेषणा
हिंसा है। वह जीवन की जो आकांक्षा है, लस्ट फार लाइफ,
कि मैं जीऊं, मैं जन्म लूं, उसमें भी हिंसा है। महावीर की भी तो थोड़ी हिंसा तो है ही। इसलिए महावीर की
जब यह हिंसा भी समाप्त हो जाती है, तो इसके बाद फिर उनका कोई
जन्म नहीं हो सकता।
महावीर
के साथ एक बड़ी मीठी बात है। समस्त जैन तीर्थंकरों के साथ है। जैन-परंपरा कहती है
कि तीर्थंकर गोत्र भी एक बंध है। तीर्थंकर भी, आदमी किसी कर्मबंधन के कारण होता है। वह आखिरी बंधन है, स्वर्ण-बंधन है, श्रेष्ठतम बंधन है, लेकिन बंधन तो है ही। तीर्थंकर भी किसी गहरी आखिरी आकांक्षा के कारण पैदा
होता है। उसने जो जाना है या जान रहा है, उसे दूसरों को देने
की आकांक्षा से पैदा होता है।
ऐसी
आकांक्षा भी जीवन की ही आकांक्षा है। वही तीर्थंकर-बंध है। वैसा आदमी बिना टीचर
हुए नहीं रह सकता है। उसे शिक्षक होना ही पड़ेगा। उसकी भीतर कामना में कहीं गहरे
शिक्षक मौजूद है। वह उस शिक्षक को एक जन्म जरूर लेना ही पड़ेगा। यह जन्म, यह शिक्षक होने की आकांक्षा भी हिंसा है।
तो चाहे
महावीर पैदा हों, चाहे कृष्ण पैदा हों,
जिसे पैदा होना है उसे हिंसा से गुजरना ही पड़ेगा। और जिस दिन इतनी
हिंसा भी नहीं रह जाएगी, उस दिन महावीर के जन्म क्षीण हो
जाएंगे, समाप्त हो जाएंगे, शून्य हो
जाएंगे। महावीर अब लौट नहीं सकते। अब लौटने का कोई उपाय न रहा। क्योंकि लौटने की
आखिरी इच्छा भी समाप्त हो गई है। वह दूसरे को सिखाने की बात ही समाप्त हो गयी है।
इसलिए
मैं नहीं कहता कि जन्म हिंसा नहीं है, हिंसा है। मेरे जन्म में हिंसा है, आपके जन्म में
हिंसा है, महावीर के जन्म में हिंसा है, हिंसा होगी ही। कम-ज्यादा हो सकती है; कितनी तीव्र
इच्छा है जन्म लेने की, उस मात्रा में हिंसा हो जाएगी। बहुत
कम रही होगी महावीर की इच्छा, क्योंकि इसके बाद फिर दुबारा
जन्म नहीं हुआ है। आखिरी रही होगी, लेकिन रही है। उसके बिना
तो जन्म नहीं हो सकता।
यह समझ
लेना जरूरी है कि जन्म हिंसा है, जीवन हिंसा है,
मृत्यु हिंसा है। हम बिना हिंसा के जी नहीं सकते। एक आदमी मांस न
खाये तो कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता, साग- सब्जी तो खाएगा ही।
साग-सब्जी में भी उतना ही प्राण है, उतनी ही हिंसा हो रही
है। पानी तो पीयेगा ही। पानी में भी प्राण है। हिंसा तो होगी ही। श्वास तो लेगा ही,
श्वास में भी प्राण है, जीवन है। हिंसा तो
होगी ही। एक शब्द मैं बोलता हूं, ओंठ एक बार खुलते हैं और
बंद होते हैं, तो लाखों कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। हिंसा तो
होगी ही। महावीर रात में एक ही करवट सोते थे, करवट नहीं
बदलते थे, क्योंकि रात में दो-चार दफे करवट बदलें तो दो-चार
दफे करवट के नीचे कुछ जीव जरूर दबेंगे और नष्ट होंगे। मगर एक करवट भी सोये,
तब भी एक करवट के नीचे भी जीव दबते ही हैं। इतनी हिंसा तो हो जाएगी।
महावीर न्यूनतम हिंसा में हैं, यह दूसरी बात है, लेकिन हिंसा के बाहर जीवन नहीं है। चलेंगे, कदम
रखेंगे, श्वास लेंगे, उठेंगे, बैठेंगे, हिंसा होगी।
यह सारा
का सारा जीवन हिंसा पर खड़ा है, यह सारा का सारा जीवन
हिंसा के सागर में डोल रहा है। हम हिंसा के सागर में मछलियां हैं। कम-ज्यादा की
बात दूसरी है। जितना कम होता जाये, उतना शुभ है, लेकिन जीते-जी अहिंसा पूरी तरह नहीं हो सकती। पूरी करने की कोशिश बहुत शुभ
है। लेकिन पूरी अहिंसा तो जीते-जी नहीं हो सकती, हिंसा कुछ न
कुछ बाकी रह जाएगी। आखिरी श्वास भी जब मैं लूंगा तब भी थोड़ी हिंसा बाकी रह जाएगी।
लेकिन
अगर जीवन भर मैं हिंसा को कम से कम, कम से कम करता चला गया हूं, हिंसा की आकांक्षा को
क्षीण करता चला गया हूं, हिंसा के रस को तोड़ता चला गया हूं,
तो आखिरी क्षण में मैं उस जगह होऊंगा जहां मेरी आखिरी श्वास मेरी
आखिरी हिंसा हो जाएगी। और जिस दिन मेरी आखिरी श्वास मेरी आखिरी हिंसा है, उसके बाद मेरी पहली श्वास फिर शुरू नहीं होगी। फिर बात समाप्त हो जायेगी।
इसलिये
बुद्ध ने निर्वाण के दो रूप कहे हैं। बुद्ध ने कहा है कि जब मुझे ज्ञान मिला बोधि
वृक्ष के नीचे, तो वह निर्वाण था।
लेकिन अभी महानिर्वाण होने को है। महानिर्वाण उस दिन होगा, जिस
दिन मेरी आखिरी श्वास छूटेगी। ज्ञान होना और आखिरी श्वास छूटने के बीच चालीस साल
का फासला है। महावीर के लिए चालीस-बयालीस साल का फासला है। इन बयालीस वर्षों के
पहले भी हिंसा थी, ज्ञान की घटना के बाद भी हिंसा है। लेकिन
दृष्टिकोण में फर्क पड़ गया। पहले जो हिंसा थी, अनजानी थी,
अब जान कर है। पहले जो हिंसा थी, वह मूर्च्छित
थी, अब होशपूर्वक है, इसलिए कम से कम
है।
महावीर
अपनी तरफ से अब हिंसा नहीं कर रहे हैं। जितनी हिंसा मात्र जीवित होने से होती है, उतनी हो रही है। उसमें भी जितनी न्यूनता वे ला सकते
हैं, लाते हैं। सोयेंगे तो ही, तो एक
करवट सो सकते हैं तो वे एक ही करवट सोते हैं। भोजन तो करेंगे ही। अगर एक ही बार कर
सकते हैं तो एक ही बार कर लेते हैं। अगर दो दिन में एक बार तो फिर दो दिन में एक
बार कर लेते हैं। भोजन तो करना ही पड़ेगा। मांस नहीं लेते हैं। सब्जी ही ले लेते
हैं। सब्जी भी, अगर सूखी हुई मिल जाए, फल
भी सूखा हुआ ले लेते हैं बजाय हरे के लेने के। क्योंकि हरे को तोड़ना पड़ेगा तो कहीं
तो पीड़ा होगी। सूखा अपने से गिर गया है। लेकिन सूखे के भीतर भी अनेक जीवन हैं,
उनकी तो हिंसा होगी ही।
महावीर
ज्ञान के बाद जिस हिंसा से गुजरे हैं, वह मजबूरी है। उस हिंसा में महावीर को कोई रस नहीं है, मजबूरी है। आखिरी श्वास के साथ वह मजबूरी भी टूट जाएगी। आखिरी श्वास के
साथ परम निर्वाण होगा। फिर वह यात्रा और होगी। तब बिना शरीर का जीवन होगा। तब
शुद्ध आत्मा का जीवन होगा। शुद्ध आत्मा का जीवन ही पूर्ण अहिंसा का जीवन हो सकता
है।
इस
पृथ्वी पर सभी चीजें अशुद्ध होंगी। अशुद्धि कम-ज्यादा हो सकती है। इस पृथ्वी पर
एब्सोल्यूट कुछ भी नहीं होता, पूर्ण कुछ भी नहीं
होता। इस पृथ्वी पर जिसको हम पूर्णतम कहते हैं, उसमें भी
थोड़ी-सी न्यूनता शेष रह जाती है। इस पृथ्वी पर राम, कितने ही
बड़े राम हो जायें, थोड़ा-सा रावण उनके भीतर शेष रह ही जाता
है। और इस पृथ्वी पर रावण कितना ही बड़ा रावण हो जाये, उसके
भीतर भी थोड़ा-सा राम सदा मौजूद रहता है। असल में रावण के भीतर थोड़ा-सा राम ही उसके
विकास की संभावना है। और राम के भीतर थोड़ा-सा रावण ही उनके जन्म की संभावना है।
राम के भीतर वह जो थोड़ा सा रावण है, वही उनके जीवन का आधार
है। और रावण के भीतर वह थोड़ा सा जो राम है, वही उसकी विकास की
यात्रा के लिए उपाय है। यह होगा ही।
इस जगत
में पापी से पापी के भीतर संत होगा, इस जगत में संत से संत के भीतर थोड़ा-सा पापी होगा। लेकिन संत वही है जो इस
छोटे से पापी को भी जानता है, और इसे नेसेसरी इविल की तरह
स्वीकार करता है। वह मानता है कि यह अनिवार्य है, जीवन के
साथ है। जब कोई संत कह दे कि अब मैं इस पृथ्वी पर पूर्ण हूं तो समझना कि थोड़ी चूक
हो गई। वह अपने भीतर कुछ हिस्सा देखने से इनकार कर रहा है। वह इनकार नहीं किया जा
सकता, वह रहेगा ही। ऐसा असंभव है कि हम पापियों के साथ
पृथ्वी पर रहें और थोड़े-से पाप के भागीदार न हों। यह असंभव है।
यह
जिंदगी एक शेयरिंग है। यहां यह हो सकता है कि आप अमीर हैं और मैं गरीब हूं, लेकिन मेरी और आपकी अमीरी और गरीबी दोनों जुड़ी होंगी।
आपके पास करोड़ रुपए हो सकते हैं, मेरे पास एक कौड़ी हो सकती
है, लेकिन मेरे पास भी एक कौड़ी है। असल में कहना यों चाहिए,
मैं बहुत थोड़ा अमीर हूं, आप बहुत थोड़े गरीब
हैं। इस जिंदगी में सभी चीजें सापेक्ष हैं।
महावीर, बुद्ध और कृष्ण, उनके जीवन में
भी हिंसा है, जन्म में भी हिंसा है। लेकिन वह हिंसा बिलकुल
मजबूरी और आखिरी मजबूरी है, द लास्ट बैरियर। जिस दिन वह गिर
जाता है उसके बाद उनका दूसरा जन्म असंभव है।
आचार्य श्री, इसी संबंध में एक और
प्रश्न है। बुद्ध, महावीर और क्राइस्ट जैसे लोग ज्ञानोपलब्धि
के बाद भी क्या गर्भाधान करवा सकते हैं? और वे पुनः संभोग
क्यों नहीं करते ताकि श्रेष्ठ आत्मा को जन्म दे सकें? और
क्या गर्भाधान दो अज्ञानी व्यक्तियों के बीच की ही संभावना है?
साधारणतः गर्भाधान दो अज्ञानी
व्यक्तियों के बीच की ही संभावना है। यह समझने जैसा है। महावीर या बुद्ध जैसे
व्यक्ति जन्म देने को राजी न होंगे। दो कारणों से। एक तो वे किसी भी व्यक्ति को
जीवन-मरण की यात्रा पर भेजने की तैयारी नहीं दिखा सकते। वे किसी भी व्यक्ति के
जीवन और मृत्यु की लंबी यात्रा के लिए कारण नहीं बन सकते।
असल में
महावीर और बुद्ध जैसे व्यक्ति तो हम सबको ऐसे जगत में भेजने के लिए उत्सुक हैं
जहां से लौटना न हो, जहां से फिर जीवन न
हो। वे तो आवागमन से मुक्त कराने के लिए आतुर व्यक्ति हैं। हम सब लोगों को आवागमन
से मुक्त कराने के लिए आतुर व्यक्ति हैं। हम किसी को इस पृथ्वी पर लाना चाहते हैं,
महावीर और बुद्ध किसी को इस पृथ्वी से मुक्त करना चाहते हैं। महावीर
और बुद्ध भी कहीं जन्म देना चाहते हैं, लेकिन वह मोक्ष है,
जहां वे जन्म देना चाहते हैं। कहीं पहुंचाना चाहते हैं जहां शरीर
नहीं है, जहां दुख नहीं है, जहां पीड़ा
नहीं है। वे भी जीवन भर दौड़ रहे हैं आपके किसी नए जन्म के लिए, लेकिन आपके शरीर के जन्म के लिए उनकी आतुरता नहीं है।
बुद्ध के
जीवन में एक मीठी घटना है, वह आपसे कहूं तो समझ
में आ सके।
बुद्ध
बारह वर्ष बाद घर लौटे हैं। तो वे अपने पुत्र राहुल को सिर्फ एक दिन का छोड़ कर भाग
गए थे। अब वह बारह वर्ष का हो गया है। उसकी मां स्वभावतः बुद्ध पर नाराज रही है।
और अपने बेटे को भी उसने बुद्ध के खिलाफ बहुत बातें कही होंगी। अपने बेटे को भी
उसने काफी तैयार कर रखा है कि जब बुद्ध आयें, तो उनसे झगड़ना ही है। फिर बुद्ध आए तो उसने अपने बेटे से कहा, अपने हाथ फैलाकर इस भिखारी बाप से मांग ले कि बेटे के लिए वसीयत क्या है?
बेटे के लिये क्या है? जन्म दिया था सिर्फ,
अब जीवन के लिए पाथेय भी दे दें।
मजाक था, क्रूर मजाक था। व्यंग्य था और अत्यंत गहरा था। लेकिन
क्षमा किया जा सकता है यशोधरा को। क्योंकि बिना पूछे बुद्ध उसे छोड़कर चले गए थे।
उसका क्रोध स्वाभाविक ही है। कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह घटना घटेगी।
बुद्ध ने
आनंद से कहा, आनंद, मेरा
भिक्षा-पात्र कहां है? राहुल को मेरा भिक्षा-पात्र दे दो और
इसे संन्यास में दीक्षित करो। वह यशोधरा तो छाती पीटकर रोने लगी। उसने कहा,
यह क्या कर रहे हैं। बुद्ध ने कहा, जिस परम धन
को मैंने पाया है, वसीयत में वही मैं अपने बेटे को भी देना
चाहता हूं। जिस परम आनंद की यात्रा पर मैं गया हूं और जिन खजानों को मैंने खोज
लिया है, वही तो मैं अपने बेटे को भी दे देना चाहता हूं।
राहुल
दीक्षित कर लिया गया। बारह साल का छोटा-सा लड़का संन्यासी हो गया। बुद्ध को औरों ने
भी कहा, ऐसा मत करें। बुद्ध के पिता ने
भी कहा कि तू घर छोड़कर गया और जो हमारी आंखों का एकमात्र तारा है, तू उसको भी हटा रहा है। फिर इस राज्य का मालिक कौन होगा? तो बुद्ध ने कहा कि मैं एक और बड़े महाराज्य की खबर लाया हूं। यह बहुत छोटा
राज्य है और इसके लिए उसको छोड़ना बड़ा महंगा सौदा है। मैं एक महाराज्य की खबर लेकर
आया हूं और उस महाराज्य का महासम्राट बनाता हूं इसे। पिता ने दुख में ही बुद्ध को
कहा कि फिर हमें भी तू दीक्षा दे दे। बुद्ध ने कहा, इससे शुभ
और क्या हो सकता है! और अपने पिता को भी दीक्षा दे दी। फिर यशोधरा चिल्लाने लगी,
मुझे यहां अकेला किस लिए छोड़ देते हैं, तो
मुझे भी दीक्षा दे दें। बुद्ध ने कहा, इससे शुभ और क्या हो
सकता है। फिर वह पूरा घर दीक्षित हो गया।
अब यह
बुद्ध जैसा व्यक्ति भी जन्म दे रहा है, किसी और महाराज्य में, किसी और जीवन में। इस शरीर की
कैद में किसी आत्मा को लाने के लिए बुद्ध और महावीर जैसे व्यक्ति, ज्ञान के बाद राजी नहीं हो सकते।
ऐसा ही
समझें कि एक जेलखाना है। जेलखाने में रहने वाले लोगों को कुछ भी पता नहीं है कि
बाहर भी एक दुनिया है फूलों की, सूरज की, चांदत्तारों की, खुले हुए आकाश की, आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की। उन्हें कुछ भी पता नहीं है। वे सदा से
वहीं हैं। वे वहीं पैदा हुए हैं।
फिर एक
दिन ऐसा आता है कि एक आदमी जेल की दीवार पर चढ़ कर एक खुला आकाश, चांदत्तारे, सूरज, पक्षियों के गीत आदि को देख लेता है। और उस आदमी से उसकी पत्नी कहती है कि
और लोग बच्चे पैदा कर रहे हैं, तुम बच्चे पैदा नहीं करोगे?
तब वह आदमी कहता है कि इस कारागृह में मैं किसी को भी जन्म न देना
चाहूंगा। मेरा बच्चा तो कम से कम इस कारागृह में नहीं हो सकता है। अब अगर जन्म ही
देना है तो उस खुले आकाश की यात्रा में जन्म दूंगा।
लेकिन उस
जेल के भीतर कौन समझेगा इस बात को? ये कैदी कहेंगे, पागल हो गए हो, लौट आओ अपने घर। अपने घर मतलब अपनी सेल, अपनी कोठरी।
और वह आदमी कितना ही कहे कि चांद, सूरज, फूल वहां होंगे, वे कुछ भी न समझेंगे। क्योंकि
उन्होंने न चांद देखा, न सूरज देखा, न
फूल देखे। उन्होंने सिवाय अंधकार के और जंजीरों के कुछ भी नहीं देखा है। हो सकता
है जैसे हम आज यहां पूछ रहे हैं, वैसे ही वे लोग भी पूछेंगे,
क्या कोई आदमी कारागृह की दीवालों पर बैठने के बाद एक बार लौटकर
बच्चे को जन्म दे सकता है? या कि केवल वे ही लोग बच्चों को
जन्म देते हैं जो कभी दीवाल पर चढ़कर नहीं खड़े हुए हैं? ठीक
वैसा ही हमारा सवाल है।
बुद्ध और
महावीर जिस जगत को, जिस जीवन को, जिस महाजीवन को देख रहे हैं, उस जीवन का हमें कुछ भी
पता नहीं। हम इस शरीर में, इस छोटे-से शरीर के कारागृह में
बंद हैं। जिंदगी भर इस कारागृह को लिए घूमते रहते हैं। हम सोचते हैं, बड़ा जीवन यहीं है। तो हम सोचते हैं कि इसमें और आत्माओं को जन्म दो न,
और अच्छी आत्माओं को लाओ न। बुद्ध और महावीर इस कोशिश में लगे हैं
कि यहां से बुरी आत्माओं को भी भेज दें, छुटकारा दिला दें।
और हम इस कोशिश में लगे हैं कि और अच्छी आत्माओं को यहां ले आयें। हमारी और उनकी
दृष्टि में, हमारे और उनके डायमेंशन में, आयाम में बुनियादी फर्क है। इसलिए हमें खयाल में नहीं आ सकता।
ज्ञान को
उपलब्ध व्यक्ति जन्म नहीं दे सकता है। नहीं दे सकता है इसलिए कि किसी को कारागृह
में डालने की जिम्मेवारी नहीं ले सकता है। हां, वह जन्म दे सकता है किसी और विराट मुक्ति के जीवन में, किसी परम स्वतंत्रता में। लेकिन वह जन्म शरीर का जन्म नहीं, आत्मा का जन्म है। वह जन्म दिखाई पड़नेवाले का जन्म नहीं, अदृश्य का जन्म है। ज्ञात का नहीं, अज्ञात का जन्म
है।
महावीर
और बुद्ध ने ऐसे बहुत जन्म दिए हैं। महावीर के पचास हजार संन्यासी थे। महावीर इनके
लिए पिता से क्या कम हैं? निश्चित ही ज्यादा
हैं! बुद्ध के हजारों संन्यासी थे। बुद्ध क्या इनके लिए पिता से कम हैं? पिता से बहुत ज्यादा हैं। पिताओं ने क्या दिया है जो इन्होंने दिया है।
लेकिन वह जिन्हें मिला है, केवल वे ही जान सकते हैं। हमारी
अपनी कठिनाइयां हैं, हमें कुछ भी पता नहीं, इसलिए हम ऐसे सवाल उठा सकते हैं। इसलिए समझ लेना उचित है कि ऐसे सवालों को
भी हम समझ लें।
आज के लिए इतना काफी, शेष कल!
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