अप्रमाद—(प्रवचन—तेरहवां)
दिनांक 17 नवंबर 1970, क्रास मैदान, बंबई
प्रश्नोत्तर :
आचार्य श्री, अचेतन, समष्टि अचेतन और ब्रह्म अचेतन में जागने की साधना से गुजरते समय साधक को
क्या-क्या बाधाएं आ सकती हैं तथा उनके निवारण के लिए साधक क्या-क्या सावधानियां रखें?
कृपया इस पर प्रकाश डालें।
जैसे कोई आदमी सागर की गहराइयों में
उतरना चाहता हो और तट के किनारे बंधी हुई जंजीर को जोर से पकड़े हो और पूछता हो कि
सागर की गहराई में मुझे जाना है, सागर की गहराई में
जाने में क्या-क्या बाधाएं आ सकती हैं? तो उस आदमी को कहना
पड़ेगा कि पहली बाधा तो यही है कि तुम तट पर बंधी हुई जंजीर को पकड़े हुए हो। दूसरी
बाधा यह होगी कि तुम स्वयं ही सागर की गहराई में जाने के खिलाफ लड़ने लगो, तैरने लगो, बचने का उपाय करने लगो। और तीसरी बाधा यह
होगी कि गहराई का अनुभव मृत्यु का अनुभव है। जितनी गहराई में जाओगे उतने ही खो
जाओगे। अंतिम गहराई पर गहराई रह जाएगी, तुम न रहोगे। इसलिए
यदि अपने को बचाने का थोड़ा-सा भी मोह है तो गहराई में जाना असंभव है।
जगत
हमारे चारों ओर फैला हुआ है। उस जगत में बहुत कुछ हम जोर से पकड़े हुए हैं। वह जोर
से जो हमारी पकड़ है, वही स्वयं के भीतर की
गहराइयों में उतरने में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए इस जगत के संबंध में कुछ सूत्र
समझ लेने जरूरी हैं।
बुद्ध
कहा करते थे अपने भिक्षुओं से कि जीवन एक धोखा है। और जो इस धोखे को समझ लेता है, उसकी पकड़ जीवन पर छूट जाती है।
इस पहले
सूत्र को समझने की कोशिश करें--जीवन एक धोखा है। यहां जो जैसा दिखायी पड़ता है वह
वैसा नहीं है। और यहां जैसी आशा बंधती है वैसा कभी फल नहीं होता है। यहां जो मानकर
हम चलते हैं, उपलब्धि पर उसे कभी वैसा नहीं
पाते। खोजते हैं सुख और मिलता है दुख। खोजते हैं जीवन, आती
है मौत। खोजते हैं यश, अपयश के अतिरिक्त अंत में कुछ भी हाथ
नहीं बचता है। खोजते हैं धन, भीतर की निर्धनता बढ़ती चली जाती
है। चाहते हैं सफलता और पूरी जिंदगी असफलता की लंबी कथा सिद्ध होती है। जीतने
निकलते हैं, हारकर लौटते हैं। इस पूरी जिंदगी के धोखे को ठीक
से देख लेना जरूरी है उस साधक के लिए, जो स्वयं के भीतर जाना
चाहता है। यदि पहचान ले कि जीवन धोखा है, तो उस पर से उसकी
पकड़ छूट जाती है। तट पर बंधी हुई जंजीर से हाथ मुक्त हो जाता है।
हम जानते
हैं, फिर भी देखते नहीं हैं। शायद
देखना यही चाहते हैं कि जीवन शायद धोखा नहीं है। हम अपने को धोखा देना चाहते हैं।
जीवन तो निमित्त मात्र है। क्योंकि वही जीवन किसी के जागने का कारण भी बन जाता है
और वही जीवन किसी के सोने का आधार हो जाता है।
ठीक ऐसे
ही है जैसे राह पर चलते हुए, अंधेरे में कोई रस्सी
सांप जैसी दिख जाये। रस्सी को सांप जैसा दिखने की कोई आकांक्षा भी नहीं है। रस्सी
को कुछ पता भी नहीं है। लेकिन मुझे रस्सी सांप जैसी दिख सकती है। रस्सी सिर्फ
निमित्त हो जाती है। मैं उसमें सांप को आरोपित कर लेता हूं। फिर भागता हूं,
हांफता हूं, पसीने से लथपथ, भयभीत। और वहां कोई सांप नहीं है। लेकिन मेरे लिए है। रस्सी ने धोखा दिया,
ऐसा कहना ठीक नहीं। रस्सी से मैंने धोखा खाया, ऐसा ही कहना ठीक है। पास जाऊं और देखूं, रस्सी दिखाई
पड़ जाये तो भय तत्काल तिरोहित हो जायेगा। पसीने की बूंदें सूख जायेंगी। हृदय की
धड़कनें वापस अपनी गति ले लेंगी। खून अपने रक्तचाप पर लौट जायेगा। और मैं हंसूंगा
और उसी रस्सी के पास बैठ जाऊंगा, जिस रस्सी से भागा था।
परंतु
जिंदगी में उलटी हालत है। यहां हमने रस्सी को सांप नहीं समझा है, सांप को रस्सी समझ लिया है। इसलिए जिसे हम जोर से
पकड़े हुए हैं, कल अगर पता चल जाये कि वह सांप है तो छोड़ने
में क्षण भर की भी देर नहीं लगती। इसलिए जीवन को उसकी सचाई में, उसके तथ्यों में देख लेना जरूरी है।
बच्चा
रोता है जब पैदा होता है, और हम सब बैंड-बाजे
बजाकर हंसते हैं, और प्रसन्न होते हैं। कहते हैं, सिर्फ एक बार भूलचूक हुई है इस जगत में, सिर्फ एक
बार ऐसा हुआ कि एक बच्चा जरथुस्त्र पैदा होते वक्त हंसा था। अब तक कोई बच्चा पैदा
होते वक्त हंसा नहीं है। और तब से हजारों लोगों ने पूछा है कि जरथुस्त्र पैदा होते
वक्त क्यों हंसा? अब तक कोई उत्तर भी नहीं दिया गया है।
लेकिन मुझे लगता है जरथुस्त्र हंसा होगा उन लोगों को देखकर जो बैंड-बाजे बजाते थे
और खुश हो रहे थे। क्योंकि हर जन्म मृत्यु की खबर है। हंसा होगा जरथुस्त्र जरूर!
वह उन लोगों पर हंस रहा था, जो सांप को रस्सी समझकर पकड़ रहे
थे। वह उन लोगों पर हंसा होगा, जो जिंदगी को उसके चेहरे से
पहचानते हैं और उसकी आत्मा से नहीं पहचानते।
हम भी
जिंदगी को उसके चेहरों से ही पहचान कर जीते हैं। ऐसा नहीं है कि जिंदगी की आत्मा
बहुत बार दिखाई नहीं पड़ती। हमारे न चाहते हुए भी जिंदगी बहुत बार अपना दर्शन देती
है, लेकिन तब हम आंख बंद कर लेते
हैं। जब भी जिंदगी प्रगट होना चाहती है, तभी हम आंखें बंद कर
लेते हैं।
मेरे एक वृद्ध
मित्र हैं। उनका पुत्र मर गया तो वे रोते थे छाती पीटकर। मैं उनके घर गया था। वे
कहने लगे, यह कैसे हो गया कि मेरा जवान
लड़का मर गया! मैंने उनसे कहा कि ऐसा मत पूछें। ऐसा पूछें कि यह कैसे हुआ कि आप
अस्सी साल के हो गए हैं और अभी तक नहीं मरे हैं। यहां जवान का मरना आश्चर्य नहीं
है। यहां मृत्यु आश्चर्य नहीं होनी चाहिये। क्योंकि मृत्यु ही अकेली सर्टेंटी है।
और सब आश्चर्य हो सकता है, पर मृत्यु एकमात्र निश्चय है,
जिसके संबंध में आश्चर्य की कोई भी जरूरत नहीं है।
लेकिन
मृत्यु हमें सबसे ज्यादा आश्चर्य दिखती है। इस जगत में सब कुछ अनिश्चित है, मृत्यु भर निश्चित है। सब कुछ हो रहा है, सब कुछ हो सकता है, सब कुछ बदल जाता है, बस वह एक मृत्यु ध्रुवतारे की तरह बीच में खड़ी रहती है। लेकिन उसको हम
बहुत आश्चर्य से लेते हैं। और जब हम सुनते हैं कि कोई मर गया तो ऐसे लगता है कि
कोई बहुत बड़ी आश्चर्य की घटना घट गयी, कुछ अनहोनी घट गयी है।
लोग कहते हैं, मृत्यु अनहोनी है। नहीं होनी चाहिए थी,
ऐसी है। पर सच यह है कि मृत्यु की होनी भर निश्चित है, बाकी सब अनहोनी है। बाकी न हो तो हम कहीं भी पूछने न जा सकेंगे कि क्यों
नहीं हुआ। अगर मृत्यु न हो तो सारे जगत को आश्चर्य से भर जाना चाहिए। लेकिन
निश्चित को हम झुठलाये हुए हैं। जीवन में हम सभी सत्यों को झुठलाये हुए हैं।
जीवन
अनिश्चित है। जीवन की सारी की सारी व्यवस्था असुरक्षा है, इनसिक्योरिटी है। लेकिन हम बड़े सिक्योर जीये चले जाते
हैं। हम ऐसे जीते हैं कि सब ठीक है। लेकिन हमारा वह सब ठीक वैसा ही है जैसे सुबह
कोई मिलता है और आपसे पूछता है, कैसे हैं? और आप कहते हैं, सब ठीक है। सब कभी भी ठीक नहीं है।
कुछ भी ठीक हो, यह भी संदिग्ध है। सब सदा गैर ठीक है।
लेकिन
आदमी का मन अपने को धोखा दिये चला जाता है। और कहे चला जाता है कि सब ठीक है। जहां
कुछ भी ठीक नहीं है, जहां पैरों के नीचे
से रोज जमीन खिसकती चली जाती है, और जहां हाथ में जीवन की
रेत रोज कम होती चली जाती है, और जहां सिवाय मृत्यु के और
कुछ पास आता नहीं मालूम होता है...।
बुद्ध
अपने भिक्षुओं को कहते थे कि जिंदगी को देखना है तो जाकर मरघट पर देखो। लेकिन हम
अगर मरघट पर भी जाते हैं तो वह जो मर गया है, उसकी मृत्यु की चर्चा में समय को झुठला देते हैं। उसकी मृत्यु की चर्चा
में यह कहते लौटते हैं कि उस बेचारे के साथ अनहोनी घट गई है, बिना इसकी चिंता किये कि हर मृत्यु की खबर, हमारी
मृत्यु की खबर है। हर मृत्यु की घटना, हमारी मृत्यु की पूर्व
सूचना है। हर मृत्यु मेरी ही मृत्यु है।
अगर हम
जीवन को उसके इस वास्तविक रूप में देख पायें तो उस पर पकड़ कम हो जाती है। लेकिन
हमने मरघट गांव के बाहर बनाए हैं, जानकर कि वह हमें
दिखाई न पड़े। हम मरघट सुंदर बनाने में लगे हैं, कि हम मरघट
के फूलों में मौत को छिपा दें। हम जिंदगी के इस पूरे भवन को एक प्रवंचना, एक डिसेप्शन की भांति खड़ा करते हैं।
भीतर
जिसे जाना है, अचेतन में जिसे उतरना है,
गहराइयां जिसे छूनी हैं, उसे बाहर की पकड़ को
शिथिल करना पड़ेगा। वह पकड़ तभी शिथिल हो सकती है जब हम देखें कि क्या है।
तो पहली
बात ध्यान में रखें कि इस जगत में जैसा दिखाई पड़ता है, वैसा नहीं है। हमने कितनी बार सुख चाहा है और कितनी
बार सुख पाया है? नहीं, हम गणित करने
नहीं बैठते हैं। दिन में आदमी कितना कमाता है, कितना गंवाता
है, सांझ इसका सब हिसाब कर लेता है। लेकिन जिंदगी में कितना
हम कमाते हैं और गंवाते हैं, उसका हम किसी सांझ कोई हिसाब
नहीं करते। और आज सोते वक्त पांच मिनिट सोच लेना जरूरी है कि दिन भर में कितना सुख
पाया है! और कल जितने सुख सोचे थे कि आज मिलेंगे, उनमें
कितने मिल गये हैं! और कल जिन दुखों को कभी नहीं सोचा था कि मिलेंगे, आज उनमें से कितने अचानक घर में मेहमान हो गये हैं!
काश, हम थोड़े दिनों तक सांझ को इसे सोचते रहें, तो कल के लिए सुख की आशा बांधनी बहुत मुश्किल हो जाएगी। और जब आदमी में
सुख की आशा बंधनी एकदम असंभव हो जाती है तब उस व्यक्ति की अंतरऱ्यात्रा शुरू होती
है। उस व्यक्ति की अंतरऱ्यात्रा कभी शुरू नहीं होती जिसे सुख की आशा बाहर बनी रहती
है। सुख बाहर है तो व्यक्ति कभी गहराई में नहीं उतर सकता है। सुख बाहर नहीं है,
तो सिवा भीतर की गहराई में उतरने के और कोई उपाय नहीं रह जाता।
इसलिए
पहली बात, जीवन एक धोखा है, जिसे हम देखते हैं और जानते हैं वह जीवन। जिसे हमने जीवन समझा है, वह एक डिसेप्शन है। लेकिन यह डिसेप्शन, यह धोखा जब
टूटता है तब उसका कोई प्रयोग, उपयोग नहीं किया जा सकता है।
मौत के आखिरी क्षण में टूटता है, लेकिन तब करने को कुछ भी
नहीं बच रहता है। और तब भी मुश्किल है कि टूटता हो। अक्सर तो ऐसा होता है कि
मृत्यु के आखिरी क्षण में भी हम उन्हीं कामनाओं को भीतर दोहराये चले जाते हैं,
कल की आशाओं को भीतर बांधे चले जाते हैं, भविष्य
के सुखों को चाहते चले जाते हैं। और इसलिए वह मृत्यु फिर नया जन्म बन जाती है। और
फिर वही चक्कर जो हमने पीछे पूरा किया था, फिर शुरू हो जाता
है। महावीर और बुद्ध ने एक अदभुत, अनूठा प्रयोग किया था। और
वह प्रयोग था कि जब भी कोई साधक आता तो वे उससे कहते कि पहले तुम अपने पिछले
जन्मों के स्मरण में उतरो। उस स्मरण को महावीर "जाति स्मरण' कहते थे। उसे ध्यान में उतारते कि पहले तुम अपने पिछले जन्म जान लो। नए
साधक आते और कहते कि पिछले जन्म से हमें कोई प्रयोजन नहीं, हम
शांत होना चाहते हैं, हम आत्मा को जानना चाहते हैं, हम मोक्ष पाना चाहते हैं। तो महावीर कहते कि वह तुम न पा सकोगे, न जान सकोगे। पहले तुम अपने पिछले जन्म को देख लो। उनकी समझ में भी नहीं
आता कि पिछले जन्म देखने से क्या होगा। लेकिन महावीर कहते कि पिछले जन्म के स्मरण
दो-चार तुम कर ही लो। और उन्हें पिछले जन्मों की प्रक्रिया से गुजारते।
वर्ष
लगता, दो वर्ष लगता और व्यक्ति पिछले
जन्मों की स्मृति ले आता और फिर महावीर पूछते, अब क्या खयाल
है? तो वह आदमी कहता, धन मैं बहुत बार
पा चुका और फिर भी कुछ नहीं पाया। प्रेम मैं बहुत बार पा चुका, फिर भी खाली हाथ रहा। यश के सिंहासन पर और भी कई जन्मों में पहुंच चुका,
पर मौत के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला। तो महावीर कहते, अब ठीक है। अब इस जन्म में तो यश पाने का खयाल नहीं है?
पिछला
जन्म हमें भूल जाता है। इसलिए जो हमने कल किया था, उसे ही हम आज किये चले जाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। आदमी इतना अदभुत है,
इतना एब्सर्ड है। ऐसा नहीं है कि यदि पिछले जन्म याद हों, फिर भी जरूरी नहीं कि हम बदल जायें। आपको अच्छी तरह मालूम है कि कल आपने
क्रोध किया था, अच्छी तरह याद है। और क्या पाया था, वह भी याद है। आज फिर क्रोध किया है, कल भी आप क्रोध
करेंगे! इसकी ही संभावना ज्यादा है। कल भी सुख चाहा था, और
मिला क्या? अच्छी तरह याद है। लेकिन आज फिर उसी तरह सुख
चाहेंगे। कल भी उसी तरह चाहेंगे। रोज सुख चाहेंगे, रोज दुख
मिलेगा। फिर भी आदमी को अपने को धोखा देने की सामर्थ्य अनंत मालूम पड़ती है। रोज
कांटे चुभते हैं, फूल कभी हाथ लगते नहीं, लेकिन फिर भी फूलों की खोज जारी हो जाती है।
आदमी को
देखकर ऐसा लगता है कि आदमी शायद सोचता ही नहीं है। शायद सोचने से डरता है कि कहीं
ऐसा न हो कि जैसे बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ रहे हैं, वैसे ही कहीं मैं भी सुख की तितलियों के पीछे दौड़ना
बंद न कर दूं! शायद घबराता है कि रुकूं तो वह कहीं दौड़ छूट न जाये। शायद डरता है
कि कहीं जिंदगी को देख लूं तो कहीं बदलाहट न करनी पड़े।
लेकिन
जिन्हें साधना के जगत में उतरना है, अप्रमाद में, जागरण में, चेतना
में, उन्हें स्मरणपूर्वक पहले सूत्र को चौबीस घंटे खयाल में
रखना जरूरी है। उठें सुबह, तो स्मरण- पूर्वक ध्यान करें कि
कल भी उठे थे, परसों भी उठे थे, पचास
वर्ष हो गए हैं उठते हुए। क्या वही आकांक्षाएं आज फिर पकड़ेंगी जो कल पकड़े हुए थीं।
कुछ करें मत, सिर्फ स्मरण करें। जस्ट रिमेंबर। कसम मत खाएं
कि आज कल जैसा नहीं करूंगा। कसम खाने का तो मतलब यही हुआ कि कल से कोई समझ नहीं
मिली, इसलिए कसम खानी पड़ रही है। कल का स्मरण भर करें। यह मत
कहें कि अब नहीं करूंगा। यह मत कहें कि अब क्रोध नहीं करूंगा। इतना ही कहें कि कल
भी क्रोध किया था, बस इतना ही स्मरण रखें। परसों भी क्रोध
किया था। कल भी पछताया था, परसों भी पछताया था। आज के लिए
कोई निर्णय न लें। केवल कल का स्मरण आज आपके पीछे छाया की तरह घूमता रहे।
तो क्रोध
असंभव हो जाएगा। सुख की दौड़, पागलपन हो जाएगी।
दूसरे से कुछ मिल सकता है, इसकी आशा क्षीण हो जाएगी। और
जिंदगी पर पकड़ रोज-रोज ढीली होने लगेगी। मुट्ठी खुलने लगेगी। जैसे ही जीवन पर पकड़
कम होती है, भीतर प्रवेश शुरू हो जाता है। इसलिए पहला सूत्र
कि जीवन एक धोखा है, इसका स्मरण रखें।
दूसरा
सूत्र, यह शरीर मरणधर्मा है। इसे स्मरण
रखें। यह शरीर मृत्यु की ही काया है। यह डेथ एंबाडीड है। नार्मन ब्राउन ने एक
किताब लिखी है, लव्स बाडी--प्रेम की काया। मेरा मन होता है
कि कभी कोई एक किताब लिखे, डेथ्स बाडी--मृत्यु की काया। यह
शरीर सिर्फ मृत्यु की तैयारी है। इस शरीर से मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ मिलनेवाला
नहीं है।
पहले तो
जगत एक धोखा है, इससे बाहर के जगत से
मुट्ठी ढीली हो जाएगी। फिर हमारे शरीर पर हमारी इतनी पकड़ है कि शरीर ही हमारा सब
कुछ मालूम होता है। और जिसे शरीर ही सब कुछ मालूम होता है, वह
भीतर न जा सकेगा। उसने शरीर के किनारे की खूंटी जोर से पकड़ रखी है। यह छोड़नी पड़ेगी,
यह नाव खोलनी पड़ेगी। भीतर जाने के लिए इस खूंटी से हाथ ढीले करने
पड़ेंगे। यह शरीर मृत्यु है, यह स्मरण...।
फिर ऐसा
भी समझाना नहीं है अपने को कि यह शरीर मरेगा, और मैं तो अमर हूं। ऐसा मत समझाना अपने को। आपको मैं कौन हूं इसका तो कोई
पता नहीं है, इसलिए यह मत समझाना कि शरीर तो मरेगा और मैं
अमर हूं। वह अमर होने की आकांक्षा आप अपने साथ खड़ी मत कर लेना। अभी इतना ही जानना
कि यह शरीर मरता है और मुझे मेरा कोई पता नहीं है। क्योंकि अगर आपने कहा कि मैं
अमर हूं, आत्मा अमर है, शरीर ही मरेगा,
तो आप भीतर नहीं जा पायेंगे। क्योंकि ये शब्द आपने बाहर से उठा
लिये। ये शब्द उपनिषद और गीता से सुन लिये। ये शब्द कुरान और बाइबिल के हैं,
ये आपके नहीं हैं। भीतर जाना नहीं होगा। ये शब्द ज्यादा से ज्यादा
बुद्धि में अटका देंगे आपको। वह भी एक खूंटी है, जो भीतर
जाने के लिए तोड़नी पड़ती है। उसकी बात मैं तीसरे सूत्र में आपसे करना चाहता हूं।
शरीर
मरणधर्मा है, इतना स्मरण काफी है। आत्मा अमर
है, कृपा करके यह दूसरा हिस्सा आप मत जोड़ें, इसका आपको पता नहीं है। इसका किसी दिन पता चला सकता है, लेकिन जिस दिन पता चलेगा उस दिन दोहराने की जरूरत न रह जाएगी। अभी इतना ही
जानें कि शरीर मरणधर्मा है। और इस जानने में कोई भी बाधा नहीं है। आत्मा अमर है,
इसमें संदेह उठेंगे। आत्मा अमर है या नहीं, इसमें
मन में शंकायें खड़ी होंगी। इसलिए कोई भी आदमी बिना जाने, आत्मा
अमर है, ऐसी निस्संदिग्ध स्थिति को उपलब्ध नहीं होता है,
ऐसी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता है। जब तक जान न ले तो ऊपर से
थोपता रहे कि आत्मा अमर है, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। भीतर
वह जानता है कि मैं मरूंगा।
शरीर
मरणधर्मा है, यह जरूर सत्य है। यह सारी
मनुष्य-जाति का, यह सारे जीवन का अनुभूत सत्य है। इसके लिए
किसी पर विश्वास करने की कोई भी जरूरत नहीं है। यह शरीर मर ही रहा है। यह शरीर
बच्चा था, यह जवान हो गया, यह बूढ़ा हो
रहा है, यह मर ही रहा है। यह एक-एक कदम मौत के ही उठा रहा
है। यह जन्मने के बाद मरने के अतिरिक्त दूसरा काम ही नहीं कर रहा है। यह मरता ही
चला जा रहा है। जिसे हम शरीर की जिंदगी कहते हैं, वह
धीरे-धीरे क्रमशः मरने की स्थिति है, वह ग्रेजुअल
डेथ-प्रोसेस...वह मरता जा रहा है।
लोग गलत कहते
हैं कि आदमी सत्तर साल में मर गया। सत्तर साल में मरने की क्रिया सिर्फ पूरी होती
है। उस क्षण कोई मरता नहीं है। मरता ही रहता है, मरने का काम चलता रहता है, लेकिन हम तो आखिरी हिस्से
देखते हैं। हम कहते हैं कि सौ डिग्री पर पानी भाप बन गया। जैसे सौ डिग्री पर पानी
भाप बनता है लेकिन एक डिग्री पर, दो डिग्री पर, वह भाप बनने की तैयारी करता रहता है और गर्म होता रहता है, निन्यान्बे डिग्री पर वह पूरा तैयार होता है, सौ
डिग्री पर छलांग लगा जाता है--हम जिंदगी भर मरने की तैयारी करते हैं। जिसे हम
जिंदगी कहते हैं वह सिर्फ मरने का उपक्रम है। शरीर की तरफ यह स्मरण गहरा हो जाये,
तो शरीर से पकड़ छूटनी आसान हो जाती है।
स्मरण
रखें कि जिसे आपने समझा है कि मैं हूं और जब दर्पण के सामने खड़े हों तो देखें कि
सामने मौत खड़ी है, आप नहीं खड़े हैं।
लेकिन चेहरा आपको अपना दिखाई पड़ रहा है, यह मौत का चेहरा
दिखाई नहीं पड़ रहा है। हालांकि जिस जमीन पर आप बैठे हैं, उसमें
ऐसा मिट्टी का एक कण भी नहीं है जो कभी न कभी किसी आदमी को अपना चेहरा होने का
भ्रम नहीं दे चुका है। जिस जगह आप बैठे हैं वहां कम से कम दस आदमियों की कब्र बन
चुकी है। जमीन पर एक इंच जमीन नहीं है जहां कम से कम दस आदमियों की राख न मिल चुकी
हो। आदमियों की कह रहा हूं, पशु-पक्षियों का हिसाब लगाना तो
मुश्किल है, कीड़े-मकोड़ों का हिसाब लगाना तो मुश्किल है,
पौधों का हिसाब लगाना तो मुश्किल है। वे भी जीये हैं। जिस जगह आप
बैठे हैं वहां न मालूम कितने वे ही लोग भ्रमपूर्वक जीये हैं, जिन्होंने दर्पण में समझा है कि जिसे मैं देख रहा हूं यह मैं हूं, आज वे सिर्फ राख में पड़े हैं। आपके और उनके राख में पड़ जाने में सिर्फ
टाइम गैप का फर्क पड़ेगा, थोड़े से वक्त की देर है, आप भी उसी क्यू में खड़े हैं जिसमें वे आगे खड़े थे। थोड़ी देर में क्यू वहां
पहुंच जायेगा। और क्यू पूरे वक्त बढ़ रहा है। जब एक आदमी मरता है तो क्यू में थोड़ी
जगह आगे सरक गयी। लेकिन आप बड़ी उत्सुकता से आगे बढ़ते हैं कि जगह खाली हुई, आगे बढ़ने का मौका मिला। जगह खाली नहीं हुई, मौत ने
एक कदम और आपकी तरफ बढ़ाया है या आप एक कदम और मौत की तरफ बढ़ गये हैं।
सुबह जब
उठें, तो अपने शरीर को गौर से देख लें
और जानें कि शरीर मृत्यु है। सांझ को जब सोने लगें तब भी शरीर को गौर से देख लें
और जानें कि शरीर मृत्यु है। स्नान जब करें तब शरीर को गौर से देख लें और जानें कि
शरीर मृत्यु है। भोजन जब करें, तब शरीर को गौर से देख लें और
जानें कि शरीर मृत्यु है। दिन में दस-बीस मौकों पर, शरीर
मृत्यु है, इसका स्मरण माला के गुरियों की तरह आपके भीतर
प्रविष्ट हो जाये, तो आपके शरीर से खूंटी टूट जाएगी, बहुत ज्यादा देर नहीं लगेगी। जैसे ही दिखने लगेगा कि शरीर मृत्यु है,
तो शरीर के भीतर जो हमारे तादात्म्य हैं, आइडेंटिटी
हैं कि यह मैं ही हूं, यह छिन्न-भिन्न हो जाएगा। उसे
छिन्न-भिन्न करना पड़ेगा, उसे मिटा ही डालना पड़ेगा। वह
आइडेंटिटी, वह तादात्म्य टूटना ही चाहिए। वही खूंटी है,
जो शरीर को बांधे हुए है।
और तीसरा
सूत्र, जिसे हम मन कहते हैं, बुद्धि कहते हैं, विचार कहते हैं, इससे हम सत्य को कभी भी न जाने सकेंगे। इससे कभी सत्य जाना नहीं गया है।
इससे हम केवल ज्यादा अपीलिंग असत्यों का निर्माण करते हैं। मनुष्य ने हजार-हजार
दर्शन, हजार-हजार फिलासफीज खड़ी की हैं, अनेक शास्त्र-सिद्धांत निर्मित किए हैं। जिंदगी का क्या है सत्य, इसको बतानेवाले न मालूम कितने-कितने सिस्टम्स बनाए हैं। पर फिलासफी हार गई,
अब तक कोई उत्तर नहीं मिला।
बर्ट्रेंड
रसेल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि बचपन में जब मैं युनिवर्सिटी में
दर्शनशास्त्र पढ़ने गया था तो मैंने सोचा था कि जीवन में कम से कम जरूरी-जरूरी
सवालों के जवाब तो मिल ही जाएंगे। फिलासफी का मतलब ही यही है, दर्शन का मतलब ही यही है कि जिंदगी जो सवाल पूछती है,
उसके जवाब होने चाहिए। बर्टें्रड रसेल ने मरने के पहले, अपने नब्बे वर्ष के अनुभव के बाद लिखा है, लेकिन अब
मैं बूढ़ा होकर यह कह सकता हूं कि फिलासफी से मुझे नए-नए सवाल तो मिले, लेकिन जवाब बिलकुल नहीं मिले। और हर जवाब, जिसे
मैंने अपनी नासमझी में जवाब समझा, थोड़े ही दिन में नए सवालों
का पिता सिद्ध हुआ, और कुछ भी नहीं हुआ।
हर जवाब
नये सवालों को पैदा करता रहा है। बुद्धि से दर्शन हार गया, इसलिए आज दर्शन पर कोई नई किताब नहीं लिखी जा रही है।
अब दर्शन-शास्त्री सारे विश्वविद्यालयों में सारी दुनिया के दर्शन के नए सिद्धांत
निर्मित नहीं कर रहे हैं। वे केवल पुराने दर्शन गलत थे, इसी
को सिद्ध कर रहे हैं। एक वैक्यूम, एक शून्य खड़ा हो गया है।
दर्शन के पास कोई उत्तर नहीं है।
धर्मशास्त्रों
ने उत्तर दिए हैं, लोग उनको कंठस्थ कर
लेते हैं। बुद्धि उनसे तृप्त होने की कोशिश करती है, पर कभी
तृप्त नहीं हो पाती। क्योंकि जीवन तब तक तृप्त न होगा जब तक जान न ले। विश्वास
तृप्ति नहीं दे पाता। बुद्धि विश्वासों से भर जाती है। कोई ईसाई है, कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई जैन है, कोई बौद्ध है। ये सब विश्वासों के फासले
हैं और ये सब बुद्धि में जीनेवाले लोगों के ढंग हैं।
सत्य अब
तक बुद्धि से मिला नहीं, मिलेगा भी नहीं।
क्योंकि जब बुद्धि नहीं थी, तब भी सत्य था; और जब बुद्धि नहीं होगी तब भी सत्य होगा। क्योंकि सत्य इतना विराट है और
बुद्धि इतनी छोटी है। आदमी की इस छोटी-सी खोपड़ी में एक छोटा-सा कंप्यूटर ही है। अब
तो उससे बेहतर कंप्यूटर बनने शुरू हो गए हैं, लेकिन कोई
कंप्यूटर यह नहीं कह सकता कि मैं सत्य दे दूंगा। कंप्यूटर इतना ही कह सकता है कि
जो तुमने मुझे फीड किया, जो सूचनाएं तुमने मुझे पिला दीं और
खिला दीं, मैं उनको जब वक्त पड़े तब दोहरा दूंगा। बुद्धि भी
कंप्यूटर से ज्यादा नहीं है। यह नेचुरल कंप्यूटर है। बुद्धि ने जो-जो इकट्ठा कर
लिया उसे जुगाली करके दोहरा देती है।
जब मैं
आपसे पूछता हूं, ईश्वर है? तो आप जो उत्तर देते हैं वह आप नहीं दे रहे हैं। सिर्फ आपकी बुद्धि का
दिया गया उत्तर है। और बुद्धि वापस रि-ईको कर देती है, प्रतिध्वनित
कर देती है। अगर आप जैन घर में पैदा हुए हैं तो बुद्धि कह देगी कि कैसा ईश्वर?
कोई ईश्वर नहीं है। आत्मा ही सब कुछ है। अगर आप हिंदू घर में पैदा
हुए हैं तो कहेंगे कि हां, ईश्वर है। अगर कम्युनिस्ट घर में
पैदा हुए हैं तो कहेंगे, कोई ईश्वर नहीं है, सब बकवास है। लेकिन ये सभी उत्तर कंप्यूटराइज्ड हैं, ये सभी उत्तर बुद्धि ने पकड़ लिए हैं, उनको दोहरा रही
है। बुद्धि सिर्फ रिप्रोडयूस करती है, बुद्धि कुछ जानती
नहीं। बुद्धि ने अब तक कुछ भी नहीं जाना है, न धर्म, न दर्शन, न विज्ञान।
लेकिन
विज्ञान के संबंध में सोचते वक्त ऐसा लगता है कि विज्ञान ने तो कुछ जान लिया है।
वह भी बड़ी भ्रांति मालूम पड़ती है। क्योंकि न्यूटन जो जानता था, आइंस्टीन उसको गलत कर जाता है। आइंस्टीन जो जानता था,
वह आइंस्टीन के बाद की पीढ़ी गलत किये दे रही है।
अब इस
दुनिया में कोई वैज्ञानिक इस आश्वासन से नहीं मर सकता है कि मैं जो जानता हूं वह
सत्य है। वह इतना ही कह सकता है कि पिछले असत्य से मेरा असत्य अभी ज्यादा अपीलिंग
है, ज्यादा आकर्षक है। आनेवाले लोग
उसे असत्य कर देंगे। वे दूसरे असत्य को पकड़ा देंगे। या इसको कहने का एक वैज्ञानिक
का जो ढंग है, वह कहता है, अप्रोक्सिमेट
ट्रुथ है। वह कहता है, करीब-करीब सत्य है।
लेकिन
करीब-करीब कहीं सत्य होता है? या तो सत्य होता है
या असत्य होता है, करीब-करीब का मतलब ही यही है कि वह असत्य
है।
अगर मैं
आपको कहूं कि मैं करीब-करीब आपको प्रेम करता हूं, तो इसका क्या मतलब होता है? इसका कोई मतलब नहीं
होता। इससे तो बेहतर है कि आपको कहूं कि मैं आपको घृणा करता हूं, क्योंकि वह सच तो होगा। करीब-करीब प्रेम का कोई मतलब नहीं होता है। या तो
प्रेम होता है या नहीं होता है। जिंदगी में करीब-करीब बातें होतीं ही नहीं।
विज्ञान
कहता है, करीब-करीब सत्य, लेकिन सब सत्य रोज गड़बड़ हो जाते हैं। सौ वर्षों में विज्ञान के सब सत्य
डगमगा गए। सौ वर्ष पहले विज्ञान बिलकुल आश्वस्त था कि मैटर है, पदार्थ है। सौ वर्ष में पता चला कि पदार्थ ही नहीं है, और कुछ भी हो सकता है। अब वे कहते हैं कि मैटर है ही नहीं। सौ साल पहले
विज्ञान कहता था कि पदार्थ ही सत्य है, ईश्वर सत्य नहीं है।
आज वैज्ञानिक कहता है कि पता नहीं ईश्वर हो भी सकता है, क्योंकि
अभी तक हम उसे असिद्ध नहीं कर पाये कि नहीं है। लेकिन पदार्थ तो सिद्ध हो गया है
कि नहीं है। अब वे कहते हैं, एनर्जी है, सिर्फ ऊर्जा है। कितने दिन कहेंगे, कहना मुश्किल है।
बहुत ज्यादा देर नहीं चलेगी यह बात, क्योंकि कोई चीज ज्यादा
देर नहीं चलती है। आदमी के सब सिद्धांत ओछे पड़ जाते हैं, सत्य
बड़ा पड़ जाता है। सत्य रोज बड़ा सिद्ध होता है।
इसलिए
तीसरा सूत्र स्मरण रखना जरूरी है साधक को, कि मन के किन्हीं सत्यों को सत्य मत समझ लेना। मन के पास कोई भी सत्य नहीं
है, मन के पास केवल सत्य के खयाल हैं, सत्य
के सिद्धांत हैं। सत्य के लिए दिए गए शब्द हैं। मन के पास ईश्वर "शब्द'
है, ईश्वर बिलकुल नहीं है। मन के पास शब्दों
की भीड़ है। मन शब्दों से आदमी को धोखा दे देता है। और यह धोखा गहरे से गहरा है।
बाहर के जगत का धोखा जल्दी टूट जाता है, शरीर के धोखे को भी
बहुत देर नहीं लगती टूटने में, पर मन का धोखा टूटने में सबसे
ज्यादा देर लगती है। इसलिए तीसरी बात, साधक को निरंतर स्मरण
रखना है कि मन जो भी कह रहा है वह मन की कल्पना है, इमेजिनेशन
है। वह मन की मान्यता है, सत्य नहीं है। मन को सत्य का पता
नहीं है, पता हो भी नहीं सकता है।
यह तीसरा
स्मरण अगर बना रहे तो धीरे-धीरे मन सिद्धांतों से खाली हो जाता है, शास्त्रों से मुक्त हो जाता है, और धीरे-धीरे दर्शन, धर्म और वाद से मुक्त हो जाता
है। और ये तीन घटनाएं अगर घट जायें तो व्यक्ति की तत्काल छलांग अपने अचेतन मन में
लग जाती है। वह अपने भीतर उतर जाता है। खूंटियां टूट गयीं। अचेतन मन में उतरते ही
क्रांति शुरू होती है। अचेतन मन में उतरते ही हम अपने जीवन के गहरे तलों से पहली
दफा संस्पर्शित होते हैं, उनके स्पर्श में आते हैं। पहली बार
हम जीवन को भीतर से अनुभव करते हैं।
लेकिन
अचेतन पहला ही कक्ष है। और अचेतन में फिर इन तीन बातों को स्मरण रखना पड़ेगा। अचेतन
का भी अपना शरीर है। अचेतन का शरीर उसके पिछले जन्मों के समस्त कर्माणुओं से बना
हुआ है, उसकी अपनी बाडी है, बाडी आफ द अनकांशस।
आज
मनोवैज्ञानिक अचेतन की बात करते हैं, अनकांशस की। चाहे जुंग हो, चाहे फ्रायड हो और चाहे
एडलर हो और चाहे दूसरे, वे सारे के सारे लोग अचेतन की बात
करते हैं। लेकिन उन्हें उस तरह के अचेतन की कोई खबर नहीं है जिस तरह की खबर साधक
को है। अचेतन को उन्होंने चेतन को समझने के लिए एक सिद्धांत की तरह उपयोग किया है।
जिन्होंने अचेतन को साधक की तरह जाना है, वे कहते हैं कि
अचेतन के पास अपना शरीर है, वह कर्माणुओं का शरीर है। वह जो
अनंत-अनंत जन्मों में कर्म किए गए हैं, उनकी देह है, उनकी बाडी है, उनकी अपनी काया है।
अचेतन
में उतर कर स्मरण रखना पड़ेगा कि यह जो कर्मों की सूक्ष्म देह है, यह भी मैं नहीं हूं, यह भी
मरणधर्मा है। यद्यपि हमारा यह शरीर, जो दिखायी पड़ता है पुदगल
पदार्थ से बना हुआ, यह एक जन्म में मर जाता है। पर कर्मों की
देह सिर्फ एक बार मरती है, मुक्ति के क्षण में, लेकिन वह भी मरणधर्मा है। जो हमने बाहर के शरीर के लिए स्मरण रखा है,
वही अचेतन में, भीतर के शरीर के लिए स्मरण
रखना पड़ेगा। और जो हमने बाहर के मन और विचारों के लिए स्मरण रखा, वही अचेतन में अचेतन के विचार, कल्पनाओं और कामनाओं
के लिए स्मरण रखना पड़ेगा। अचेतन की देह पिछले जन्मों से निर्मित देह है, और अचेतन का मन समस्त पिछले जन्मों की स्मृतियों का जोड़ है। उसमें सब छिपा
पड़ा है।
मन का एक
अदभुत नियम है कि मन एक बार भी जिस बात को याद कर ले उसे कभी भूलता नहीं। आप
कहेंगे, ऐसा नहीं मालूम होता। बहुत-सी
बातें हमें भूल जाती हैं। वह सिर्फ आपको लगता है कि आप भूल गए, आप भूल नहीं सकते। स्मरण किया जा सकता है। सिर्फ अस्तव्यस्त हो गया होता
है।
कभी कोई
आदमी कहता है कि बिलकुल जबान पर रखा है आपका नाम, लेकिन याद नहीं आ रहा है। यह आदमी बड़े मजे की बात कह रहा है। वह यह कह रहा
है कि जबान पर रखा है और याद नहीं आ रहा है! दोनों का क्या मतलब है? ये दोनों कंट्राडिक्टरी हैं। अगर जबान पर रखा है तो कृपा करके बोलिये।
कहता है, जबान पर तो रखा है लेकिन याद नहीं आ रहा है। असल
में उसे दो बातें याद आ रही हैं। उसे यह याद आ रहा है कि मुझे याद था, और यह भी याद आ रहा है कि फिलहाल याद नहीं आ रहा है।
वह बगीचे
में चला गया है, गङ्ढा खोद रहा है,
सिगरेट पी रहा है, कुछ और काम में लग गया है।
अखबार पढ़ने लगा है, रेडियो खोल लिया है, और अचानक बबल-अप हो जाता है, अचानक याद आ जाता है।
वह जो याद नहीं आ रहा था, एकदम भीतर से उठ आता है। वह कहता
है, हां याद आ गया।
ठीक ऐसे
ही अचेतन में उतरते ही पिछले जन्मों का सब कुछ याद आना शुरू हो जाता है, लेकिन वह भी मन है। अगर उस मन का भी स्मरण रखें,
कि इस मन से भी नहीं पा सकूंगा सत्य को, तो
आदमी की दूसरी छलांग लग जाती है। वह दूसरी छलांग है कलेक्टिव अनकांशस में, समष्टि अचेतन में।
यह जो
पहली छलांग थी, अपने व्यक्तिगत अचेतन
में थी, इंडीविजुअल अनकांशस में थी, मैं
अपने अचेतन में उतरा था। और जिस दिन अपने अचेतन से छलांग लगती है, उस दिन मैं सबके अचेतन में उतर जाता हूं। उस दिन दूसरा आदमी सामने से
गुजरता है तो दिखाई पड़ता है कि यह आदमी किसी की हत्या करने जा रहा है। उस दिन दूसरा
आदमी आया भी नहीं और पता चल जाता है कि यह आदमी क्या पूछने आया है। उस दिन कोई
आदमी आंख से गुजरता दिखाई पड़ता है और उसी क्षण पता चल जाता है कि इसकी मौत तो करीब
आ गई है, यह मरने के करीब है। उस दिन व्यक्ति समष्टि अचेतन
में उतर जाता है। उस गहराई में हम सबसे जुड़ जाते हैं, सबके
अचेतन से जुड़ जाते हैं।
वह बड़ा
विराट अनुभव है, वह बड़ा गहरा अनुभव
है। क्योंकि सारा जगत भीतर से एक मालूम होने लगता है, पूरा
जीवंत-जगत एक मालूम होने लगता है। सब जीवन अपना ही मालूम होने लगता है।
लेकिन
यहां से भी छलांग लगानी है। यह भी परम स्थिति, अल्टीमेट नहीं है। इसकी भी देह है। इसमें समस्त लोगों के कर्मों की जो देह
है, वह मेरी देह बन जाती है। इस स्थिति में आदमी अपने को
करीब-करीब ईश्वर जैसा अनुभव करता है। इसलिए बहुत-से लोग जो घोषणा कर देते हैं कि
मैं ईश्वर हूं, उसका कारण वही है। जैसे कि मेहर बाबा की
घोषणा थी कि मैं ईश्वर हूं, मैं अवतार हूं।
इसलिए
समष्टि अचेतन में जो व्यक्ति उतर जाता है, वह आपको धोखा नहीं देता। ऐसा उसे लगता है कि वह ईश्वर है, क्योंकि सबकी चेतना का सब कुछ उसे अपना मालूम होने लगता है। हमें लगता है
कि कोई आदमी अपने को ईश्वर कहे तो कैसा पागलपन है। गहरे में पागलपन है। असल में यह
भी कोई आखिरी स्थिति नहीं है। इसमें सबकी चेतना, सबके चेतन
कर्म अपने मालूम होने लगते हैं। इसलिए मेहर बाबा कह सकते हैं...कि गांधी मरे तो वह
कह देते हैं कि मैंने उन्हें अपने में लीन कर लिया। नेहरू मरे तो वह कह देते हैं
कि मैंने उन्हें अपने में लीन कर लिया है।
कुछ लोग
कहेंगे कि यह आदमी चालाक, धोखेबाज मालूम पड़ता
है। जहां हम जीते हैं, वहां से यह धोखेबाजी मालूम होगी। धोखा
है, धोखेबाजी नहीं है। धोखा मेहर बाबा को है, आपके लिए धोखेबाजी नहीं कर रहे हैं वे। ऐसा लगता है! जब समष्टि, सारे लोगों का अचेतन मन, मेरा ही मन मालूम पड़ने लगता
है, तो जिसकी भी देह छूटती है, लगता है
वह मुझ में ही लीन हो गया। सबकी देह, सबके कर्मों की देह,
मेरी देह हो गई। और सबके मनों के विचार मेरे विचार हो गए। लेकिन अभी
भी, अभी भी "मैं' मौजूद हूं।
इसलिए मेहर बाबा कह सकते हैं कि मैं अवतार हूं। और जब तक "मैं' मौजूद है तब तक परम सत्य की उपलब्धि नहीं है।
अगर हम
यहां भी स्मरण रख सकें कि यह मेरी ईश्वर जैसी देह भी देह ही है, और यह मेरा ईश्वर जैसा मन, यह
डिवाइन माइंड भी मन ही है, यह सुपरामेंटल भी मन ही है,
अगर यहां भी हम स्मरण रखें उन्हीं सूत्रों का, तो एक और छलांग लग जाती है और व्यक्ति कास्मिक अनकांशस में, ब्रह्म अचेतन में उतर जाता है। ब्रह्म अचेतन में वह कह पाता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। तब ये चांदत्तारे
उसे अपनी देह के भीतर घूमते मालूम पड़ने लगते हैं।
स्वामी
राम निरंतर कहा करते थे कि चांदत्तारे मेरे भीतर घूमते हैं, सूरज मेरे भीतर उगता है! अगर हम मनोवैज्ञानिक से
कहेंगे तो वह कहेगा कि यह आदमी न्यूरोटिक है, साइकोटिक है।
इस आदमी का दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि चांदत्तारे सदा बाहर हैं, चांदत्तारे भीतर कैसे हो सकते हैं।
मनोवैज्ञानिक
के कहने में भी सचाई है। जहां तक उसकी समझ है, वह ठीक कह रहा है। लेकिन उसे रामतीर्थ जैसे व्यक्ति के अनुभव का पता नहीं
है। रामतीर्थ जैसे व्यक्ति का विस्तार कास्मिक बाडी का हो गया है। इस विश्व की जो
अनंत सीमाएं हैं वही अब उनकी सीमाएं हैं। इसलिए सब उन्हें अपने भीतर घूमता हुआ
मालूम पड़ेगा। चांदत्तारे उसे अपने भीतर घूमते हुए मालूम पड़ेंगे। ऐसा व्यक्ति कह
सकता है कि मैंने जगत को बनते देखा और मैंने जगत को मिटते देखा, और मैं चांदत्तारों को जन्मते देखता हूं और चांदत्तारों को मिटते देखता
हूं। ऐसे व्यक्ति की स्मृतियां कास्मिक मेमोरी से आनी शुरू हो जाती हैं।
जिन
लोगों ने दुनिया में सृष्टि के जन्म की बातें कहीं हैं उनमें से अधिक लोग ऐसे हैं
जिन्हें कास्मिक अनकांशस का अनुभव हुआ है। इसलिए वे इस तरह की बात कहते हैं कि
परमात्मा ने कब दुनिया बनाई, कब पृथ्वी बनी,
कब चांदत्तारे बने। उनकी तारीखों में भूल- चूक हो सकती है, क्योंकि उस क्षण में तारीखों का हिसाब रखना बहुत मुश्किल है। लेकिन उन
व्यक्तियों के अनुभव आथेंटिक हैं। अनुभव आथेंटिक हैं, अल्टीमेट
नहीं; प्रामाणिक हैं, पर अंतिम नहीं।
तीसरे, इस कास्मिक अनकांशस में, इस
ब्रह्म अचेतन में भी अगर व्यक्ति उन्हीं सूत्रों का स्मरण रख सके--और सूत्र वही
रहेंगे कि यह शरीर भी विराट ब्रह्म का शरीर ही है। शरीर छोटा हुआ, छह फुट का हुआ, कि अनंत-अनंत योजन विस्तारवाला हुआ,
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। विचार मेरे हुए कि परम ब्रह्म के हुए,
इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता। यह सिर्फ मात्राओं के फर्क हैं--अगर
यहां भी वह स्मरण रखे तो चौथी छलांग लग जाती है और व्यक्ति महानिर्वाण में प्रवेश
कर जाता है। जहां मन समाप्त हो जाता है, जहां मैं समाप्त हो
जाता है, वहां वह यह भी नहीं कहता कि मैं ब्रह्म हूं। बुद्ध
जैसा व्यक्ति भी यह नहीं कहता कि मैं ब्रह्म हूं। वह यह भी नहीं कहता कि मैं ईश्वर
हूं। वह यह भी नहीं कहता कि मैं आत्मा हूं।
इसलिए
बुद्ध को समझना बहुत मुश्किल पड़ा है। क्योंकि वे कहते हैं कि आत्मा भी नहीं है, वे कहते हैं कि ईश्वर भी नहीं है, वे कहते हैं कि ब्रह्म भी नहीं है। फिर जो बच जाता है वही है, दैट व्हिच रिमेन्स। अब वह क्या बच जाता है? शून्य बच
जाता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है। शून्य बच जाता है, जिसमें कोई विचार की तरंग नहीं है। शून्य बच जाता है, जिसमें कोई सेंटर नहीं है, कोई ईगो नहीं है। शून्य
बच जाता है। कहना चाहिए कुछ भी नहीं बच जाता है।
यह जो सब
कुछ का खो जाना है, वही सब कुछ का पाना
भी है। यह परम है, यह आखिरी है। इसके पार? इसके पार का उपाय नहीं है। क्योंकि अब कुछ पार भी किसी के जा सको, वह भी नहीं बच जाता है। कास्मिक अनकांशस से, ब्रह्म
अचेतन से जो छलांग लगती है, वह शून्य में, परम में, सत्य में, महानिर्वाण
में, मोक्ष में, उसे जो भी हम नाम देना
चाहें, दे सकते हैं। असल में सब नाम व्यर्थ हैं। सब भाषा
व्यर्थ है। इसी में बाधाएं हैं। पहली बाधाएं तो हमारी अपनी हैं, इसलिए मैंने उनकी विस्तार से चर्चा की।
हमारी मुख्य
बाधाएं तीन हैं--बाहर के जगत में सुख की आशा, शरीर के जगत में अमृतत्व की आशा, मन के जगत में सत्य
की आशा। तीन बाधाएं हैं। फिर ये तीन बाधाएं प्रत्येक तल पर वापस पुनरुक्त होती
हैं। लेकिन आपको उससे बहुत लेना-देना नहीं है। इन तीन बाधाओं को पार कीजिए तो परमात्मा
आपको नई तीन बाधाएं दे देगा। उनको पार कीजिए तो और गहरे तल पर नई बाधाएं होंगी।
बाधाएं यही होंगी, सिर्फ उनका रूप और तल बदलता जाएगा। और यह
अंत तक पीछा करेंगी। और जब कोई भी बाधा न रह जाये, जब लगे कि
अब कुछ बचा ही नहीं, तभी आप जानना कि जाना उसे, जिसे जानने को उपनिषद के ऋषि प्यासे हैं; जाना उसे,
जिसे जानने को कृष्ण गीता में कहते हैं; जाना
उसे, जिसके लिए जीसस सूली पर लटक जाते हैं; जाना उसे, जिसके लिए चालीस वर्ष तक बुद्ध और महावीर
गांव-गांव एक-एक आदमी का द्वार खटकाते फिरते हैं। लेकिन इसे जानने के लिए स्वयं को
बिलकुल ही मिट जाना पड़ता है। शरीर की तरह, आत्मा की तरह,
ईश्वर की तरह, ब्रह्म की तरह भी स्वयं को मिट
जाना पड़ता है। जीसस के एक वचन से मैं इस बात को पूरा करूं।
जीसस ने
कहा है, धन्य हैं वे जो अपने को खोने में
समर्थ हैं, क्योंकि केवल वे ही उसे पा सकेंगे जो स्वयं को खो
सकते हैं। और अभागे हैं वे जो अपने को बचाने में लगे हैं, क्योंकि
जो अपने को बचायेगा, वह सब कुछ खो देता है।
ये तीन
सूत्र, आप जहां हैं वहां से शुरू करें,
और आगे की यात्रा अपने आप खुलती चली जाएगी। ये ही तीन सूत्र निरंतर
प्रयोग करने पड़ेंगे उस समय तक, जब तक कि कुछ भी बाकी रहे। और
जब कुछ भी बाकी न रह जाये, आप भी बाकी न रह जायें और सूत्र
भी खो जायें। कोई वक्तव्य देने का उपाय न रह जाये। मेहर बाबा की तरह कहने की जगह न
रहे कि मैं ईश्वर हूं। राम तीर्थ की तरह कहने की जगह न रहे कि चांदत्तारे मुझमें
घूमते हैं। अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा की भी जगह न रह जाये। क्योंकि किसको घोषणा
करनी? कौन घोषणा करेगा? जब सब शब्द
शून्य हो जायें, सब वाणी गिर जाये, सब
व्यक्तित्व खो जाये, तब जो शेष रह जाता है वही परम, वही द अल्टीमेट, वही सब धर्मों की खोज, वही सब प्राणों की प्यास, वही सब आत्माओं की
आकांक्षा है। वही है अमृत।
जहां तक
आकार है, वहां तक मृत्यु है; जहां निराकार है, वहीं अमृत है, वहीं है आनंद। क्योंकि जहां तक दूसरा है, वहां तक
दुख है; जहां दूसरा नहीं है, वहीं आनंद
संभव है, वहीं है शांति। क्योंकि जहां तक "मैं' हूं, वहां तक अशांति है, जहां
"मैं' भी नहीं हूं वहीं शांति है। सत-चित-आनंद वहां है।
कहने को नहीं, अनुभव में; बोलने को
नहीं, जानने में; बताने को नहीं,
हो जाने में। वहां ऐसा नहीं कि सत-चित-आनंद जाना जाता है, बल्कि ऐसा कि वहां हम सत-चित-आनंद हो गए।
आचार्य श्री, अप्रमाद की साधना के
संदर्भ में कृपया समझाइए कि साक्षी, सजगता और तथाता की साधना
में क्या-क्या समानताएं और भिन्नताएं हैं।
साक्षी, सजगता और तथाता, इन तीनों शब्दों को अप्रमाद की
साधना के लिए समझ लेना उपयोगी है। साक्षी पहला चरण है। साक्षी का मतलब है कि जीवन
में मैं एक गवाह की तरह गुजरूं। साक्षी का मतलब है कि मैं एक विटनेस की तरह,
एक देखने वाले की तरह, द्रष्टा की तरह जिंदगी
में जीऊं। अगर आप मुझे गाली दें तो मैं अपने को अनुभव न करूं कि मुझे गाली दी गई।
मैं ऐसा जानूं कि मैंने जाना कि आपने इसको गाली दी। आप पत्थर मारें तो मैं ऐसा न
जानूं कि आपने पत्थर मारा और मैं मारा गया, वरन ऐसा जानूं कि
आपने मारा और यह मारा गया ऐसा मैंने जाना। मैं निरंतर त्रिकोण के तीसरे कोने पर
खड़ा रहूं। मैं निरंतर दो के बीच में अपने को न बांटूं, तीसरे
पर उचक कर खड़ा हो जाऊं, तीसरे पर छलांग लेता रहूं। घर में आग
लग जाए तो मैं ऐसा न जानूं कि मेरा घर जल रहा है, ऐसा जानूं
कि इसका घर जल रहा है और मैं देख रहा हूं।
जिंदगी
को तीन हिस्से में तोड़ना साक्षी की साधना का उपक्रम है। हम जिंदगी को दो हिस्से
में तोड़ते हैं--यहां मैं और तू है। आप हैं गाली देनेवाले, मैं हूं गाली लेनेवाला। बस दो ही हैं, तीसरा वहां नहीं है। साक्षी में हम तीसरे को जोड़ते हैं निरंतर हर स्थिति
में, मैं दूसरा न बनूं, बल्कि मैं
तीसरा रहूं। और जैसे-जैसे यह तीसरा कोना स्पष्ट होता चला जाता है, वैसे-वैसे दोनों ही हंसने योग्य मालूम होने लगते हैं--वह जिसने गाली दी,
और वह जिसको गाली दी गई।
राम
न्यूयार्क में थे। कुछ लोगों ने उन्हें पत्थर मारे, कुछ लोगों ने उन्हें गालियां दीं। लौटकर उन्होंने अपने मित्रों से कहा,
आज राम बड़ी मुश्किल में फंस गए। लोग बड़ी गालियां देने लगे। कुछ लोग
पत्थर भी मारने लगे। बड़ा मजा आया। तो उन मित्रों ने कहा, आप
किस तरह की बात कर रहे हैं? आप ही को तो गाली दी थी
उन्होंने! राम ने कहा, मुझे कैसे गाली देंगे? क्योंकि मेरा नाम तो मुझे भी पता नहीं है, तो उन्हें
पता कैसे हो सकता है? वे राम को गाली दे रहे थे। उन लोगों ने
पूछा, क्या राम आप नहीं हैं? तो राम ने
कहा, अगर मैं राम होता तो फिर मजा न ले पाता, फिर बहुत कष्ट लेकर लौटता। मैं खड़ा देख रहा था कि कुछ लोग गाली दे रहे हैं
और बेचारा राम गाली खा रहा है। और मैं खड़ा देख रहा था, मैं
कह रहा था कि राम आज अच्छी मुश्किल में फंसे।
यह जो
तीसरा बिंदु है, इसे उघाड़ा जा सकता
है। साधक के लिए पहला चरण साक्षी से ही शुरू होता है। यह आसान है। इन तीनों शब्दों
में सबसे ज्यादा आसान साक्षी है। इसे देखते रहें। खाना खा रहे हैं, तब देखते रहें कि खाना खाया जा रहा है। जिसको आप अब तक "मैं' समझते रहे हैं, वह खा रहा है। और अब तीसरा--पीछे खड़े
होकर जरा देखें टेबल के किनारे से--आप देख भी रहे हैं, खाना
खाया जा रहा है। खाना खा रहा है कोई, और आप देख भी रहे हैं।
जैसे-जैसे
यह तीसरा बिंदु उभरेगा, वैसे-वैसे आपकी
जिंदगी में दुख क्षीण होने लगेगा, क्योंकि साक्षी को दुख
नहीं दिया जा सकता। साक्षी को दुख दिया ही नहीं जा सकता, सिर्फ
कर्ता को दुख दिया जा सकता है। जब आपको लगता है, मैं खाना खा
रहा हूं, तब आपको दुख दिया जा सकता है। जब आप कहते हैं,
मैं प्रेम कर रहा हूं, तब आपको दुख दिया जा
सकता है। लेकिन जब आप कहते हैं कि एक प्रेम कर रहा है, दूसरा
प्रेम झेल रहा है, और आप तीसरे देखने वाले हैं, तो आपको दुख नहीं दिया जा सकता है। आपको चिंतित नहीं किया जा सकता।
अगर आप
दिन में दस-पांच बार साक्षी का स्मरण कर लें तो रात आपके सपने खत्म हो जाएंगे। रात
आपके सपने एकदम कम हो जायेंगे। क्योंकि सपने उसको आते हैं जो दिन भर कर्ता रहा है, रात में भी कर्ता रहता है। क्योंकि दिन भर की करने की
आदत रात में एकदम से कैसे छूट जाये। दिन भर दुकान चलाता है तो रात भी चलाता रहता
है। दिन भर अदालत में झगड़ता है तो रात में भी अदालत में खड़ा हो जाता है। दिन में
युनिवर्सिटी में परीक्षा देता है तो रात भी परीक्षा देता रहता है। वह जो दिन में
कर्ता है, वह रात में भी कर्ता बन जाता है। जो दिन में
साक्षी है, वह रात में भी साक्षी बन जाता है।
अब यह
बड़े मजे की बात है कि दिन में आप साक्षी हो जायेंगे तो दुकान बंद नहीं हो जाएगी।
दुकान तो चलती रहेगी, लेकिन आपके भीतर
दुकान चलनी बंद हो जाएगी। दुकान बाहर चलती रहेगी, लेकिन रात
अगर सपने में आप साक्षी हो गये तो सपना बंद हो जायेगा। क्योंकि सपने की दुकान कोई
दुकान नहीं है, सिर्फ खयाल है। आप साक्षी हुए कि वह विदा
हुआ। बाहर की दुकान तो चलती रहेगी, सपने की दुकान एकदम खो
जाएगी। अगर साक्षी हो गए तो चिंता असंभव हो जाएगी।
इसलिए
जिस मुल्क में जितना ही इस बात का खयाल है कि मैं कर रहा हूं, उस मुल्क में उतनी ही चिंता बढ़ जाती है। आज अमरीका
में सबसे ज्यादा चिंता है, क्योंकि वहां सबसे ज्यादा खयाल है
कि मैं कर रहा हूं। जो भी है, उसके पीछे "मैं' खड़ा है। अतीत की दुनिया में चिंता बहुत कम थी। इसका कारण यह नहीं था कि
चीजें कम थीं, इसका कारण यह नहीं था कि लोग बैलगाड़ी में चल
रहे थे और हवाई जहाजों में नहीं चल रहे थे। अतीत में चिंता कम थी तो उसका कारण
बिलकुल ही और था।
अतीत में
कर्ता के साथ एक तीसरा कोण भी था साक्षी का, जिसकी हम निरंतर कोशिश करते थे कि वह विकसित हो। और जिस दिन साक्षी थोड़ा
भी विकसित हो जाता था, आदमी चिंता से बाहर हो जाता था। वह
देखता था कि चीजें हो रही हैं, मैं नहीं कर रहा हूं। वह उसको
कई ढंग से कहता था। कभी कहता था, ईश्वर कर रहा है। यह उसका
एक ढंग था कहने का कि मैं करने वाला नहीं हूं। कभी कहता था, भाग्य
कर रहा है। यह भी उसका एक ढंग था कहने का कि मैं करने वाला नहीं हूं। कभी कहता था
कि जो लिखा है वह हो रहा है। यह भी उसका एक ढंग था कहने का कि करने वाला मैं नहीं
हूं।
लेकिन हम
पागल लोग हैं। हमने उनके कहने के ढंगों को इतना गलत पकड़ा कि वे जिस लिए कह रहे थे, वह बात तो खो गई, और जो कही जा
रही थी, वह जोर से पकड़ ली गई। अब भी हम कहते हैं कि जो भाग्य
में हो रहा है, वह हो रहा है। लेकिन हम ज्योतिषी के पास
पहुंच जाते हैं हाथ दिखाने कि कोई उपाय हो तो मैं कुछ यज्ञ-हवन करूं जिससे कि
भाग्य बदल जाये। अब भी हम कहते हैं, जो ईश्वर कर रहा है,
वह हो रहा है। लेकिन सिर्फ कहते हैं। इसकी हमारे प्राणों में कहीं
कोई जगह नहीं है। कहीं कोई जगह नहीं है, शब्द रह जाते हैं
हाथों में, ये सारे के सारे शब्द सिर्फ कहने के ढंग थे। इनके
पीछे जो असली बात थी वह तीसरा कोण था--साक्षी का, कर्ता से
अलग।
इसलिए
कृष्ण अर्जुन से कह पाते हैं कि तू लड़, तू यह फिक्र ही क्यों करता है कि तू लड़ रहा है। लड़ानेवाला मैं रहा। कृष्ण
उसे कह सकते हैं कि तू मार, तू फिक्र ही क्यों करता है कि तू
मार रहा है। क्योंकि जिनको तू सोच रहा है कि तू मार रहा है, वह
पहले ही मारे जा चुके हैं। वह अर्जुन की समझ में नहीं आता। क्योंकि वह अपने को
कर्ता समझे बैठा है। वह कहता है कि मैं कैसे अपने प्रियजनों को मार डालूं? ये मेरे हैं। नहीं, नहीं, इनको
मैं कैसे मार सकता हूं। उसकी चिंता कर्ता की चिंता है। अगर गीता के राज को समझना
हो तो गीता का राज दो शब्दों में है। अर्जुन को कर्ता होने का भ्रम है और कृष्ण
पूरे समय साक्षी होने के लिए समझा रहे हैं। इससे ज्यादा गीता में कुछ भी नहीं है।
वह कृष्ण कह रहे हैं, तू सिर्फ देखनेवाला है, द्रष्टा है, करनेवाला नहीं है। यह सब पहले ही हो
चुका है। यह सिर्फ कहने का ढंग है कि पहले ही हो चुका है। वह सिर्फ यह कह रहे हैं
कि तू करने वाला है, इतनी बात भर तू छोड़ दे। इतनी बात भर
तुझे भटका देगी और वंचना में डाल देगी। इतनी बात तुझे चिंता में डाल रही है,
मोह में डाल रही है।
साक्षी, साधक के लिए पहला कदम है। यह सरलतम है। ऐसे सरलतम
नहीं है, और जो आगे के कदम हैं, उनकी
दृष्टि से सरल है। जो हम करने जा रहे हैं, उस दृष्टि से तो
वह बहुत कठिन है। लेकिन थोड़ा प्रयोग करें तो इतना कठिन नहीं है। नदी में तैरते हुए
कभी देखें जरा कि आप देख रहे हैं कि तैर रहे हैं। रास्ते पर चलते वक्त देखें कि आप
देख रहे हैं कि चल रहे हैं।
कठिन
नहीं है। कभी-कभी उसकी झलक आने लगेगी। और जैसे ही तीसरे कोण की झलक आएगी, आप अचानक पाएंगे कि पूरी दुनिया बदल गई। सब कुछ बदल
गया, चीजों ने और रंग ले लिया। क्योंकि सारा जगत हमारी
दृष्टि है। दृष्टि बदली कि जगत बदला।
दूसरी
साधना सजगता की है। वह साक्षी से और गहरा कदम है। साक्षी में हम दो को मानकर चलते
हैं--तू और मैं। और इन दोनों को मानकर इनके प्रति हम अलग खड़े हो जाते हैं, कि मैं तीसरा हूं। साक्षी में हम तीन में जगत को तोड़
देते हैं। ट्रायंगल बनाते हैं। वह त्रय है। साक्षी त्रय है। सजगता में हम त्रय
नहीं बनाते। हम यह नहीं कहते कि किस चीज के प्रति जाग्रत हैं। हम कहते हैं,
हम सिर्फ जागे हुए जीएंगे। हम यह नहीं कहते कि मैं देख रहा हूं कि
मैं चल रहा हूं। हम यह कहते हैं कि हम चलते हुए होश रखेंगे कि चलना हो रहा है और
इसका मुझे पूरा पता रहे। यह बेहोशी में न हो जाये। यह ऐसा न हो कि मुझे पता ही न
रहे कि मैं चल रहा हूं।
ऐसा रोज
हो रहा है। आप खाना खाते हैं, आपको पता ही नहीं
होता कि आप खाना खा रहे हैं। आप जब अपनी कार को अपने घर की तरफ मोड़ते हैं तो आपको
पता नहीं रहता कि आप कार को बायें मोड़ रहे हैं। यह सिर्फ मेकेनिकल हैबिट की तरह
गाड़ी मुड़ जाती है, आप अपने घर पहुंच जाते हैं। आप अपने बच्चे
के सिर पर हाथ रख देते हैं कि कहो बेटा, ठीक हो? और आपको बिलकुल पता नहीं होता कि आप क्या कर रहे हैं। यह आपने कल भी कहा
था, परसों भी कहा था। आप ग्रामोफोन रेकार्ड हो गए। पत्नी को
देखकर आप मुस्कुराते हैं। वह आप नहीं मुस्कुरा रहे हैं, वह
ग्रामोफोन रेकार्ड है। वह मुस्कुराने की आपने आदत बना रखी है। असल में वह डिफेंस
मेजर है, वह रक्षा का उपाय है कि पता नहीं, पत्नी अब क्या करेगी, तो आप मुस्कुराते हैं। पत्नी
भी जो जवाब दे रही है, वह जवाब जानकर नहीं दे रही है। वह सब
बिलकुल आदत के हिस्से हो गए हैं। इसलिए हम मिलते ही नहीं कभी। क्योंकि सजग लोग ही
मिल सकते हैं। सोये हुए लोग सिर्फ मिलते हुए मालूम पड़ते हैं। वे वही बातें कहे चले
जाते हैं, कहे चले जाते हैं--रेकार्ड की तरह!
मेरे एक
प्रोफेसर थे। मैं जब भी किसी किताब के बाबत पूछता कि आपने वह पढ़ी है? वे कहते, हां पढ़ी है, बहुत अच्छी किताब है। ऐसे उनकी बातचीत से मुझे कभी नहीं लगा था कि
उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ा है। एक दिन मैंने एक झूठी किताब का नाम उनसे लिया। न तो
वैसा कोई लेखक है, न वैसी किताब कभी लिखी गई है। मैंने उनसे
पूछा, आपने फलां-फलां लेखक की किताब पढ़ी है? उन्होंने कहा, अरे, बहुत बढ़िया
किताब है। बहुत ही अच्छी किताब है। जो वे सदा कहते थे, उन्होंने
कहा।
मैं उनकी
आंखों की तरफ देखता रहा। मैं थोड़ी देर चुप बैठा रहा। तब उन्होंने कहा, क्या मतलब? वे थोड़े बेचैन हुए।
उन्होंने पूछा, चुप क्यों बैठे हो? क्या
मैंने गलत कहा? किताब ठीक नहीं है? हो
सकता है, अपनी-अपनी पसंद है, आपको पसंद
न पड़ी हो। मैं फिर भी चुप रहा और उनकी आंखों की तरफ देखता रहा, तब उनकी घबराहट और बढ़ गई। और उन्होंने कहा, क्या
मतलब है? दो में से एक ही तो बात हो सकती है! आपको पसंद न
आयी हो, हो सकता है, लेकिन आप चुप
क्यों हैं?
मैंने
कहा, मैं इसलिए चुप नहीं हूं, मैं इसलिए चुप हूं कि शायद आपको अभी भी याद आ जाए। उन्होंने कहा, क्या मतलब? मुझे अच्छी तरह याद है। लेकिन अब उन्हें
याद आ गया है। उनका पूरा चेहरा बदल गया। मैं फिर भी चुप रहा।
उन्होंने
कहा, माफ करना, यह
मुझे बड़ी गलत आदत पड़ गई है। इसे मैं कह ही देता हूं। मैंने कई दफा तय किया कि यह
बात मुझे नहीं कहनी चाहिए। लेकिन पता नहीं, जब तक मुझे पता
चलता है तब तक तो बात हो ही चुकी होती है। मैं कह ही चुका होता हूं। न मालूम कैसी
कमजोरी है कि मैं यह कभी कह ही नहीं पाता कि यह किताब मैंने नहीं पढ़ी। नहीं,
मैंने यह किताब नहीं पढ़ी। लेकिन लाइब्रेरी में देखी जरूर है,
उन्होंने कहा। ऐसे ही निकलते वक्त नजर पड़ गई होगी, बाकी मैंने पढ़ी नहीं है। मैंने उनसे कहा, आप वापस
लौट रहे हैं, क्योंकि यह किताब है ही नहीं लाइब्रेरी में।
देखी भी नहीं जा सकती।
ऐसा आदमी
का मन है मूर्च्छित। वह क्या कह रहा है, क्या कर रहा है, कहां जा रहा है, कुछ भी पता नहीं है। सजगता का अर्थ है, प्रत्येक
कृत्य होशपूर्वक हो कि मैं क्या कर रहा हूं। साक्षी में तीसरे बिंदु को उभारना है।
और जो साक्षी बन गया उसके लिए सजगता आसान होगी। क्योंकि साक्षी में, उसे साक्षी होने के लिए तो सजग होना पड़ता है। लेकिन सजगता में प्रत्येक
कृत्य को सजग रूप से करना है। ऐसा नहीं देखना है कि कोई और कर रहा है, और मैं अलग हूं। नहीं, अलग कोई भी नहीं है। जो हो
रहा है, उस होने के भीतर एक दीया जल रहा है होश का। वह बिना
होश के नहीं हो रहा है। पैर भी उठा रहा हूं, तो मैंने
होशपूर्वक उठाया है। एक शब्द भी बोला है, तो वह मैं होशपूर्वक
बोला हूं। मैंने हां कही है, तो मेरा मतलब हां है। मैंने
होशपूर्वक कही है। और मैंने नहीं कही है, तो मेरा मतलब नहीं
है। और मैंने होशपूर्वक कही है।
एक-एक
कृत्य होश से भर जाये तो जीवन में जो व्यर्थ है, वह तत्काल बंद हो जाता है, क्योंकि होशपूर्वक कोई भी
व्यर्थ कुछ नहीं कर सकता। और जीवन में जो अशुभ है, वह तत्काल
क्षीण होने लगता है। क्योंकि होशपूर्वक कोई अशुभ नहीं कर सकता। जीवन में बहुत-सा
जाल, व्यर्थ का जाल, जो हम मकड़ी की तरह
गूंथते चले जाते हैं और आखिर में खुद ही उसमें फंस जाते हैं, और निकल नहीं पाते हैं, वह एकदम टूट जाता है।
हम सभी
गूंथ रहे हैं। एक झूठ आप बोल देते हैं, फिर जिंदगी भर उस झूठ को संभालने के लिए आप दूसरे झूठ बोले चले जाते हैं।
फिर आपको पता ही नहीं रहता कि पहला झूठ आप कब बोले थे। वह इतने पीछे दब जाता है कि
आपको भी सच मालूम होने लगता है। क्योंकि आप इतनी बार बोल चुके और इतनी बार सुन
चुके अपने ही मुंह से कि दूसरे भला भरोसा न करें, लेकिन आप
तो भरोसा कर ही लेते हैं। फिर एक जाल फैलता चला जाता है जिसमें हम रोज ऐसे कदम
उठाये चले जाते हैं जो हमने कभी उठाने नहीं चाहे थे। ऐसे रास्तों पर चले जाते हैं
जिन पर हम जाना न चाहते थे। ऐसे संबंध बना लेते हैं जो हम बनाना न चाहते थे। ऐसे
काम कर लेते हैं जिनके लिए हमने कभी कामना न की थी। और तब सारी जिंदगी एक
विक्षिप्तता बन जाती है।
सजगता का
अर्थ है, जो भी मैं कर रहा हूं, करते समय पूरा होश, पूरी अवेयरनेस है। इसका भी थोड़ा
प्रयोग करें तो उससे भीतर अपूर्व शांति उतरनी शुरू हो जाती है।
तीसरी
बात--तथाता--और भी कठिन है। सजगता को कोई साधे तो ही तथाता को साध सकता है। तथाता
का मतलब है, सचनेस, चीजें
ऐसी हैं। तथाता का अर्थ है, परम स्वीकृति। तथाता का अर्थ है,
कोई शिकायत नहीं। तथाता का अर्थ है, जो भी है,
है; और मैं राजी हूं। साक्षी में हम द्रष्टा
हैं, जो हो रहा है। हो सकता है, हम
राजी न हों। सजगता में हम जाग गए हैं। जो नहीं होना चाहिए वह धीरे-धीरे गिर जायेगा,
जो होना चाहिए वही बचेगा। तथाता में जो भी है, हम उसके लिए राजी हैं। दुख है, मृत्यु है, प्रिय का मिलन है, बिछोह है, जो
भी है, उसके लिए हम पूरे के पूरे राजी हैं। हमारे प्राणों के
किसी कोने से कोई शिकायत, कोई इनकार, कुछ
भी नहीं है।
तथाता
परम आस्तिकता है। वह आदमी आस्तिक नहीं है, जो कहता है कि मैं ईश्वर को मानता हूं। वह आदमी आस्तिक नहीं है, जो कहता है कि मैं भरोसा करता हूं, विश्वास करता
हूं। आस्तिक वह आदमी है जो शिकायत नहीं करता। जो कहता है, जो
भी है, ठीक है। कहीं भी, प्राणों के
किसी कोने में मेरा कोई भी विरोध नहीं है। मैं राजी हूं। उसकी श्वास-श्वास राजीपन
की श्वास है। वह टोटल एक्सेप्टिबिलिटी उसके हृदय की धड़कन- धड़कन है। जो भी है,
यह जगत जैसा भी है...।
आस्तिक
भी ऐसा नहीं मानता था। वोल्तेयर ने कहीं लिखा है कि हे परमात्मा, तुझे तो हम कभी स्वीकार कर भी लें, लेकिन तेरे जगत को स्वीकार नहीं कर पाते। कोई है जो जगत को स्वीकार कर
लेता है, लेकिन ईश्वर को स्वीकार नहीं कर पाता है। सुख को तो
हम सभी स्वीकार कर लेते हैं, दुख को कौन स्वीकार कर पाता है!
और दुख तब तक रहेगा जब तक स्वीकृत न हो जाये। शायद इस जीवन के आध्यात्मिक विकास
में दुख का यही मूल्य है। जीवन की इस योजना में दुख की यही सार्थकता है कि जिस दिन
दुख भी स्वीकृत होता है, उसी दिन जीवन में परम आनंद की वर्षा
हो जाती है। फूल तो कोई भी स्वीकार कर लेता है, सवाल तो
कांटों को स्वीकार करने का है। जीवन तो कोई भी स्वीकार कर लेता है, आलिंगन कर लेता है, सवाल तो मृत्यु को आलिंगन करने
का है।
तथाता का
अर्थ है: सब, द टोटल, उसमें
इंच भर भी हम कुछ निकाल नहीं देना चाहते, सब पूरे की
स्वीकृति। ऐसी स्वीकृति पूरी सजगता में ही हो सकती है। ऐसी स्वीकृति साक्षी के बाद
ही हो सकती है। ऐसी स्वीकृति जब किसी के प्राणों में बस जाती है तो उसके प्राणों
में अनंत आनंद का नृत्य शुरू हो जाता है। उसके जीवन में बांसुरी बजने लगती है उस
संगीत की, जो शून्य है। उसके जीवन में वह वीणा बजने लगती है,
जिस पर कोई तार नहीं है। उसके जीवन में वह नृत्य आ जाता है, जिसके लिए कोई ताल नहीं है। उसके जीवन में ऐसी सुगंध फूटने लगती है,
जिसमें कोई फूल नहीं है पीछे।
लेकिन
तथाता बहुत कठिन है। तथाता का भाव ही बहुत कठिन है। उससे बड़ी आर्डुअस उससे ज्यादा
कठिन और कोई बात नहीं है। उसका मतलब है, जो भी आ जाये...।
एक
भिक्षु एक वृक्ष के नीचे से गुजर रहा है। एक आदमी उसे लकड़ी मार गया है। घबड़ाहट में
लकड़ी मारी तो लकड़ी हाथ से छूट गई और गिर पड़ी। वह भिक्षु लौटा। उसने लकड़ी उठायी। वह
आदमी तो घबराहट में भाग ही गया मारकर। पास की दुकान पर जाकर उस भिक्षु ने कहा, यह लकड़ी रख लेना, शायद वह
बेचारा वापस लौटकर लकड़ी खोजने आये। उस दुकान के मालिक ने कहा, आप आदमी कैसे हैं! उसने लकड़ी मारी है।
उस भिक्षु
ने कहा, एक बार एक वृक्ष के नीचे से मैं
गुजरता था, तब वृक्ष से एक शाखा मेरे ऊपर गिर पड़ी। जब मैंने
वृक्ष को स्वीकार कर लिया, तो यह आदमी वृक्ष से तो कम से कम
अच्छा ही होगा।
ऐसा
समझें कि नदी में आप एक नाव चला रहे हैं। एक खाली नाव दूसरी तरफ से आकर आपकी नाव से
टकरा जाये, आप कुछ भी न कहेंगे। कुछ भी न
कहेंगे, आप स्वीकार कर लेंगे और आगे बढ़ जाएंगे। लेकिन भूल से
अगर उस नाव में एक आदमी बैठा हो, तब कलह हो जाएगी। नाव को
माफ कर सके, लेकिन आदमी को माफ न कर सकेंगे। नाव को इसलिए
माफ कर सके, कि स्वीकार कर सके, क्योंकि
अस्वीकार करने का उपाय नहीं है। आदमी को माफ नहीं कर सके, क्योंकि
उसे स्वीकार करना मुश्किल पड़ा।
लेकिन
तथाता का अर्थ है कि नाव खाली टकराये, कि नाव में आदमी बैठा हो तो टकराये, आपके मन में
दोनों बातें एक सी हों तो तथाता है। अगर जरा सा भी फर्क पड़ जाये तो तथाता चूक गई।
एक आदमी आपके ऊपर फूल फेंक जाये और एक आदमी आपके ऊपर पत्थर डाल जाये, और दोनों बातें एक-सी स्वीकृत हो जायें, भेद ही न हो,
तो तथाता है। अगर जरा सा भी भेद हो जाये तो तथाता चूक गई।
तथाता का
अर्थ है, इस जगत में जो हो रहा है,
उसमें मेरे मन में उससे अन्यथा हो, अदरवाइज हो,
ऐसी कोई आकांक्षा नहीं। सागर में लहरें उठ रही हैं। हवाओं में तूफान
आ रहे हैं। वृक्षों पर फूल लग रहे हैं। आकाश में तारे चल रहे हैं। कोई आदमी
गालियां दे रहा है। कोई आदमी गीत गा रहा है। यह जो सारा का सारा विराट है, अंतहीन है, यह सारा अंतहीन विराट जैसा है, ऐसा का ऐसा, मैं राजी हूं, तो
तथाता है। तथाता साधक की तीसरी बात है।
अप्रमाद
की साधना में साक्षी से शुरू करें और तथाता पर पूर्ण करें। शुरू करें तीसरे कोण पर
खड़े होने से, फिर जागें, सजग हों, और फिर स्वीकार को उपलब्ध हो जायें। पहले
कर्ता से तोड़ें अपने द्रष्टा को। फिर अपने कर्म से जोड़ें अपने ज्ञान को। और फिर
समस्त से जोड़ें अपनी स्वीकृति को। इन तीन चरणों में अप्रमाद धीरे-धीरे गहरा होता
चला जाता है। और जिस दिन पूर्ण अप्रमाद, पूरा जागा हुआ मन
होता है, किन शब्दों में कहा जाये कि उस दिन क्या होता है!
तथाता का
एक खयाल और मुझे आया वह आपसे मैं कहूं। एक झेन फकीर ने एक छोटा-सा गीत लिखा है। उस
गीत में लिखा है कि आकाश में हंस उड़ते हैं। उनकी कोई इच्छा नहीं होती कि नीचे की
शांत झील में उनका प्रतिबिंब बने। लेकिन प्रतिबिंब बन जाता है। नीचे की नीली झील
पर से ऊपर जब हंस उड़कर निकलते हैं, झील की कोई इच्छा नहीं होती कि हंसों का प्रतिबिंब पकड़े, लेकिन प्रतिबिंब पकड़ लिये जाते हैं। फिर हंस उड़ जाते हैं और प्रतिबिंब भी
उड़ जाते हैं। न हंसों को पता चलता है कि झील में प्रतिबिंब पकड़े गए थे, न झील को पता चलता है कि हंसों के प्रतिबिंब उसकी छाती में कुछ कुतूहल,
कुछ हलचल, कुछ उपद्रव पैदा किये हैं। तथाता का
अर्थ है ऐसा व्यक्तित्व। चीजें हो जाती हैं। सब के लिए राजी है। कुछ करना भी नहीं
चाहता, कोई शिकायत भी नहीं है।
इसलिए
बुद्ध का एक नाम तथागत है। बुद्ध को उस नाम से बहुत प्रेम था। खुद भी वह कहते थे, तो कहते थे कि तथागत एक गांव से गुजरे। तथागत का मतलब
है, तथाता को उपलब्ध। तथागत का मतलब है, दस केम, दस गान। जैसे हंस आए झील पर और गए, ऐसा ही जो आया और गया। न कोई चाह थी कि यहां कुछ कर जाये, न कोई चाह थी कि यहां जो हो रहा है, उससे अन्यथा हो
जाये। जो हुआ, हुआ। जो नहीं हुआ, नहीं
हुआ। कोई हिसाब न रखा, कोई किताब न रखी। कोई आशा न रखी,
कोई निराशा न बनायी। कोई सफलता न चाही, किसी
असफलता को ग्रहण न किया। कोई जीत न मानी, किसी हार का कारण न
बनाया। ऐसा जो आया हंस की तरह, पानी पर बने बिंब, और मिट गए।
जापान
में तो झेन फकीर कहते हैं कि बुद्ध कभी हुए ही नहीं। मजाक करते हैं गहरी, और सिर्फ गहरे फकीर ही गहरी मजाक कर सकते हैं। जापान
का रिंझाई कहा करता था कि बुद्ध कभी हुए नहीं, कहां की
कहानियां कहते हो! और रोज बुद्ध की प्रार्थना करता सुबह, मूर्तियों
के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता और कहता कि बुद्धं शरणं गच्छामि। उसके शिष्यों ने
उसको पकड़ा और कहा कि खूब धोखा दे रहे हैं। हमसे कहते हैं बुद्ध कभी हुए नहीं,
और खुद मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर कहते हैं, बुद्धं
शरणं गच्छामि।
तो
रिंझाई ने कहा, इसीलिए तो कहता हूं।
अगर जरा भी हुए होते तो कभी उनके चरणों में जाने की बात न करता। हुए ही नहीं,
थे ही नहीं। पानी पर खिंची लकीर जैसे थे, खिंच
भी नहीं पाई और खो गई। कहना चाहिये--पानी पर खिंची लकीर भी जरा ज्यादा बात हो गई,
वह हंस वाली बात ठीक है--प्रतिबिंब बना और खो गया। वह कहता कि हुए
ही नहीं, इसीलिए तो उनकी मूर्ति बना कर बैठा हूं। इसी आशा
में कि किसी दिन मैं भी उस जगह पहुंच जाऊं जहां होना और न होना बराबर हो जाता है।
जहां हूं या नहीं, सब बराबर है। जहां जीवन और मृत्यु एक ही
अर्थ ले लें। जहां अस्तित्व और अनस्तित्व समान, पर्यायवाची
हो जाते हैं। इसीलिए तो कहता हूं, बुद्धं शरणं गच्छामि। इसका
मतलब केवल इतना ही है, वह रिंझाई कहने लगा, कि मैं भी तुम्हारे चरणों में आता हूं, जिनके कोई
चरण नहीं। मैं भी तुम्हारी शरण में आता हूं, तुम, जो हो ही नहीं। मैं भी तुम्हारे जैसा हो जाना चाहता हूं, तुम, जो कि कभी हुए ही नहीं हो। तुम हो ही नहीं।
एक शून्य
व्यक्तित्व है तथाता। भीतर एक जीता-जागता शून्य, वायड एंबाडीड कहना चाहिए। एक शून्य जिसके चारों तरफ हड्डी-मांस-मज्जा है।
भीतर सब शून्य है। इस शून्य की तरह जो हो जाता है, चौथी
स्थिति में भी पहुंच जाता है। तथाता--वही मैंने जो पहले उत्तर में आपको
कहा--कास्मिक अनकांशस से वह जो ब्रह्म अचेतन है, उसमें छलांग
है।
साक्षी
में हम बाहर के जगत से भीतर आते हैं, व्यक्ति अचेतन में प्रवेश हो जाता है। सजगता से व्यक्ति अचेतन से पार होता
है, समष्टि अचेतन में प्रवेश हो जाता है। समष्टि अचेतन में
तथाता की साधना शुरू करनी पड़ती है तो ब्रह्म अचेतन में प्रवेश हो जाता है। और
ब्रह्म अचेतन के बाद तो कोई साधना नहीं बचती। तथाता फिर साधना नहीं होती। तथाता
फिर स्वरूप हो जाता है, फिर कुछ साधना नहीं पड़ता। फिर वह
इफर्टलेस है, फिर तीर चलाने नहीं पड़ते, चलते हैं; जैसे श्वास लेनी नहीं पड़ती है और ली जाती
है। फिर हृदय की धड़कन जैसे चलती है, चलानी नहीं पड़ती;
ऐसा ही जीवन का सब चलता है, चलाना नहीं पड़ता।
फिर भीतर चलाने वाला खो गया। मैं खो गया। फिर भीतर वह जो व्यक्ति था, वह खो गया है।
तथाता
परम उपलब्धि है, वह जीवन की अनंततम
गहराई में, एबिस में, अनंत गहराई में
उतर जाना है। धर्म द्वार है। योग उस द्वार पर चढ़नेवाली सीढ़ियों की विधि है। तथाता
उस मंदिर में विराजमान देवता है।
एक आखिरी सवाल और!
आचार्य श्री, आपने कहा है अप्रमाद
के प्रसंग में कि प्रमादी आदमी कुछ करता नहीं है, चीजें घटित
होती हैं बिना उसकी इच्छा अथवा चुनाव के। तो कृपया बताइए कि सोए हुए कर्ता,
और जागे हुए कर्ता में क्या अंतर है? गुरजिएफ
कहते हैं कि जागा हुआ आदमी क्रिस्टलाइज्ड हो जाता है, इसका
क्या अर्थ है? और क्या जागे हुए आदमी का अहंकार क्रिस्टलाइज
होने के बदले विसर्जित नहीं हो जाता है?
सोया हुआ आदमी करता नहीं है, उस पर भी चीजें होती हैं। लेकिन सोया हुआ आदमी समझता
है कि मैं कर रहा हूं। सोया हुआ आदमी भी करता नहीं है, समझता
है कि करता हूं। जागा हुआ आदमी भी करता नहीं है, लेकिन समझता
है कि करता नहीं हूं।
बस इतना
ही फर्क पड़ता है। सोया हुआ आदमी सोचता है, मैं करता हूं। करता कुछ भी नहीं है, होता है। जागा
हुआ आदमी भी कुछ नहीं करता है, सब होता है, लेकिन जागा हुआ आदमी यह जानता है, सब होता है,
मैं करता नहीं हूं। सोए हुए और जागे हुए आदमी के करने में फर्क नहीं
है, जानने में फर्क है। उनके कृत्य में फर्क नहीं है,
उनके कर्तृत्व के बोध में फर्क है।
बुद्ध भी
चलते हैं, अबुद्ध भी चलते हैं। होश से भरा
हुआ आदमी भी चलता है, गैर होश से भरा हुआ आदमी भी चलता है।
गैर होश से भरा हुआ आदमी चलता है मैं के केंद्र पर--मैं हूं। होश से भरा हुआ चलता
है शून्य के केंद्र पर--मैं नहीं हूं, वह चलने की क्रिया है।
साथ ही
आपने पूछा है कि जार्ज गुरजिएफ कहता था कि जागा हुआ आदमी क्रिस्टलाइज्ड हो जाता
है। उसके भीतर इंडीविजुएशन, व्यक्ति पैदा हो जाता
है। जुंग भी इंडीविजुएशन की यही बात कहता है जो गुरजिएफ कहते हैं, कि जितना आदमी जागता है भीतर, उसका व्यक्ति उतना
मजबूत हो जाता है। इससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या जागे हुए आदमी का
व्यक्ति मजबूत होता है, या समाप्त होता है? अहंकार बनता है या विसर्जित होता है?
भाषा के
भेद हैं और कुछ भेद नहीं। गुरजिएफ जिसे क्रिस्टलाइजेशन कहता है, गुरजिएफ जिसे व्यक्ति का पैदा होना कहता है, उसे ही मैं शून्य का पैदा होना कह रहा हूं। असल में शून्य होकर ही व्यक्ति
पहली दफा पैदा होता है। क्योंकि शून्य होकर ही पहली दफा विराट जीवन का व्यक्तित्व
उसे मिलता है। शून्य होकर ही, मिटकर ही, पहली दफा व्यक्ति व्यक्ति होता है।
लेकिन यह
कठिन होगा। यह उन विरोधों में से एक है जो धर्म रोज बोलते हैं और हम समझ नहीं
पाते। जैसे कि बूंद सागर में गिर जाती है तो कोई कह सकता है कि बूंद खो गई, अब कहां है? बूंद मिट गई! और
कोई यह भी कह सकता है कि बूंद सागर हो गई, अभी तक कहां थी,
अब पहली दफा हुई है। अभी तक बूंद ही थी, क्या
था, कुछ भी न था, अब सागर हो गई है। ये
दोनों बातें कही जा सकती हैं। कोई कह सकता है कि बूंद खो गई, अब नहीं है, शून्य हो गई। कोई कह सकता है कि बूंद
सागर हो गई। अब है, पहले क्या थी, न
कुछ थी, अब पहली दफा सागर हुई है। यह निगेटिव और पॉजिटिव के
बोलने के फर्क हैं।
गुरजिएफ
और जुंग कहते हैं इंडीविजुएशन, क्रिस्टलाइजेशन।
व्यक्ति पहली दफा हुआ है। यह उसी अर्थ में कहते हैं वे जैसे बूंद सागर हो गई है।
महावीर भी कहते हैं, आत्मा। वह गुरजिएफ के साथ उनकी भाषा का
मेल है। शंकर कहते हैं, ब्रह्म। उनका भी गुरजिएफ की भाषा से
मेल है। वे सभी पॉजिटिव टर्म्स का, विधायक शब्दों का उपयोग
कर रहे हैं।
सिर्फ एक
आदमी हुआ बुद्ध, जिसने निषेधात्मक
शब्द का प्रयोग किया। उसने कहा, अनात्मा। आत्मा हुई नहीं,
समाप्त हो गई। अब कोई आत्मा वगैरह नहीं है, अब
कोई ब्रह्म वगैरह नहीं है, अब तो वही रह गया जिसको कोई भी
शब्द कहनेवाला नहीं है। वह यह कह रहे हैं कि बूंद नहीं रह गई, अब छोड़ो बातचीत। वह कहेंगे कि तुम यह भी कहते हो कि बूंद सागर हो गई,
तो फिर भी तुम बड़ी बूंद ही बना रहे हो। सागर भी बड़ी बूंद है,
उसकी भी सीमा तो होगी ही। कितना ही बड़ा सागर हो, कल्पना करें। कितना ही बड़ा सागर हो, उसकी सीमा तो
होगी ही।
तो बुद्ध
कहते हैं कि जब भी तुम विधायक शब्द का उपयोग करोगे तब सीमा बन जाएगी। हालांकि आम
आदमी के मन में विधायक शब्द जल्दी पकड़ में आता है। अगर उससे कहा जाये कि तुम मिट
जाओ बस, फिर पूछो मत। तो वह कहेगा,
किस लिए मिट जायें, बनेंगे क्या? उससे कहो, ईश्वर बन जाओगे, तब
बात समझ में आती है। उससे कहो, ब्रह्म बन जाओगे, तब बात समझ में आती है।
इसलिए
बुद्ध के पैर इस देश में न जम सके। न जमने का कारण था। विधायक भाषा के हम आदी थे।
बुद्ध ने पहली दफा मनुष्य-जाति के इतिहास में निषेधात्मक भाषा का ठीक-ठीक प्रयोग
किया। और सच तो यह है कि परम सत्य के संबंध में सिर्फ निगेटिव स्टेटमेंट ही हो
सकते हैं, क्योंकि सब विधायक वक्तव्य सीमा
बनाएंगे।
इसलिए
उपनिषद कहते हैं, नेति-नेति। वह
नकारात्मक वक्तव्य है। वह कहते हैं, नाट दिस, नाट दैट; न यह, न वह। अगर तुम
कहो कि ब्रह्म ऐसा है तो यह भी नहीं, और तुम कहो कि ब्रह्म
वैसा है तो वह भी नहीं। और अगर उपनिषद के ऋषि से पूछो, तुम
क्या कहते हो? तो वह कहेगा, नेति-नेति।
यह भी नहीं, वह भी नहीं। और आगे मत पूछो, आगे जो बच जाये वही।
बुद्ध भी
नकारात्मक भाषा का उपयोग करते हैं। बुद्ध कहते हैं, कुछ भी नहीं, शून्य। इसलिए जो शब्द उन्होंने उपयोग
किया है निर्वाण, वह बड़ा अर्थपूर्ण है। निर्वाण कहते हैं
दीये के बुझ जाने को। एक दीया है, फूंक मार दी, बुझ गया। अब हम पूछें कि कहां गई ज्योति? कहेंगे,
खो गई। बूंद तो सागर हो जाती है, ज्योति क्या
हो गई? तो कहेंगे, ज्योति खो गई। या
अगर कहना ही हो तो यह कह सकते हैं कि ज्योति अब सब हो गई, सबके
साथ एक हो गई, अब कोई सीमा नहीं रही उसकी।
तो बुद्ध, या वे सारे लोग जिन्हें ठीक-ठीक कहना है, नकारात्मक ढंग से कहेंगे। ऐसा नहीं कि महावीर को पता नहीं, ऐसा नहीं कि शंकर को पता नहीं। लेकिन लोग आतुर होते हैं कि बूंद अगर खोने
को भी राजी होगी तो सागर के लोक में राजी होगी। बूंद अगर खोने को राजी होगी तो तभी
राजी होगी जब पता चले कि कोई हर्जा नहीं। बूंद ही खोयेगी न, सागर
हो जाएगी। लेकिन बुद्ध कहते हैं कि अगर सागर होने के मोह में कोई बूंद सागर में
गिरेगी तो सागर न हो पाएगी। क्योंकि यह लोभ ही उसे बूंद बनाये रखेगा। यह लोभ ही,
यह तृष्णा ही, उसका व्यक्तित्व ही चारों तरफ
से बांधे रखेगा।
इसलिए
मैंने शून्य शब्द का प्रयोग किया इस अर्थ में कि उस परम की कोई सीमा नहीं है।
व्यक्ति बस खो जाता है। गुरजिएफ कहते हैं क्रिस्टलाइजेशन, मैं तो कहूंगा टोटल डीक्रिस्टलाइजेशन। मैं तो कहूंगा
पूर्ण विसर्जन, पूर्ण समर्पण, टोटल
सरेंडर, कुछ बचता ही नहीं, रेखा भी
नहीं बचती। हंस उड़ गए और झील पर अब प्रतिबिंब भी नहीं बनता है। बूंद नहीं खो गई,
दीये की ज्योति बुझ गई। और अब अनंत में भी खोजने पर भी कहीं उसका
आकार नहीं मिलता है।
फिर भी
आपकी पसंद की बात है। अगर मन डरता हो निषेध से तो विधायक शब्दों का प्रयोग करें।
हिम्मत जैसे-जैसे बढ़ जाए वैसे-वैसे विधायक शब्द को छोड़ते जायें। और एक दिन तो
हिम्मत जुटानी चाहिए नहीं में कूदने की। और जो नहीं में कूदने को राजी है, वही पूर्ण को उपलब्ध होता है। जो शून्य होने को राजी
है, वह पूर्ण का अधिकारी हो जाता है।
ये बातें
इतने प्रेम और शांति से इन दिनों में सुनीं, अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं,
मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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