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गुरुवार, 10 मई 2018

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-14

शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-चौदहवां
साध्य ओर साधन
प्रश्नः ओशो, टुडे आई वुड लाइक टु आस्क यू अबाउट मीन्स एण्ड एण्ड्स। सर, इनफेक्ट दिस इस्यू हैज बीन वेरी मच कनफ्यूजिंग फॅर दि वल्र्ड एट लार्ज। मैनी-मैनी स्कॉलर्स फ्रॉम मिडिवियल टु दि प्रेजेंट हैव टेकन दिस इस्यू फ्रॉम मैनी साइड्स गिविंग डिफरेंट डेफिनिशंस एण्ड व्यूज। फॉर इंस्टांस पोलिटिकल फिलॉसफर्स हैव नेम्ड इट फंडामेंटल ट्रूथ एण्ड डिप्लोमेटिक ट्रूथ। सोसियल फिलॉसफर्स हैव यूज्ड इट एज एन इथिकल ट्रूथ एण्ड सोसियल ट्रूथ। सेप्टिकल फिलॉसफर्स हैव यूज्ड इट एज एक्चुअल ट्रूथ एण्ड रिलेटिव ट्रूथ। साइंस फिलॉसफर्स हैव यूज्ड इट एज साइंटिफिक लिविंग एण्ड आर्ट ऑफ लिविंग। बट इफ आई एम नॉट मिस्टेकन सर, दे डील विद आल दि नाइन बेसिक इस्यूज ऑफ लिविंग ईदर सब्जेक्टिवली ऑर ऑब्जेक्टिवली व्हिच आर एज अंडरः
...बट सेकेंड इ.ज इग्नोरेंस मीन्स नॉन-कनिंगनेस, थर्ड इ.ज फूड, फोर्थ इ.ज शेल्टर मीन्स सिक्योरिटी। फिफ्थ इ.ज क्लोथिंग मीन्स प्रोटेक्शन। सिक्स्थ इ.ज दि सेक्स मीन्स वे ऑफ लिविंग। सेवंथ इ.ज सिकनेस। एट्थ इ.ज ओल्ड एज एण्ड नाइंथ इ.ज डेथ। वुड यू प्लीज एनलाइटन आन दि सब्जेक्ट मैटर?
प्रश्नः

सबसे पहले तो साध्य और साधन के संबंध में समझना चाहिए। ऐसा हमेशा समझा जाता रहा है कि साधन अलग हैं और साध्य अलग हैं--एण्ड्स एण्ड मीन्स अलग-अलग बातें हैं। यह बुनियादी भ्रांति की बात है। उन्हें अलग मान कर सोचने से कभी भी ठीक नतीजे पर कोई नहीं पहुंच सकता है।
असल में साधन ही विकसित होकर साध्य बन जाता है। मीन्स ही विकसित होकर एंड् बन जाता है। ये दो चीजें नहीं हैं, जैसे बीज और वृक्ष दो चीजें नहीं हैं। और जन्म और मृत्यु भी दो चीजें नहीं हैं। एक ही चीज विकसित होती है और दूसरी बन जाती है। लेकिन दोनों के बीच में समय का बड़ा अंतर है। यह टाइम गैप से भ्रांति पैदा होती है कि वे दो चीजें हैं।
और तब ऐसे सवाल उठने लगते हैं कि क्या हम गलत साधनों से ठीक साध्य तक पहुंच सकते हैं? यह प्रश्न इसीलिए उठता है कि हमने साध्य और साधन को अलग स्वीकार कर लिया है। कोई यह नहीं पूछता कि क्या हम कड़वे बीज से मीठे फल तक पहुंच सकते हैं? क्योंकि हमें ज्ञात है कि बीज और फल एक ही यात्रा के दो पहलू हैं, एक ही चीज की दो स्थितियां हैं। बीज एक स्थिति है और फल दूसरी स्थिति है। तो कोई भी यह नहीं पूछता कि हम मुर्गी के अंडे से आदमी तक पहुंच सकते हैं या नहीं पहुंच सकते हैं। मुर्गी के अंडे से हम मुर्गी तक पहुंच सकते हैं, जो उसमें छिपा है, वही प्रकट हो जाएगा। अंडा और मुर्गी में जो फर्क है वह दो चीजों का नहीं है। वह फर्क इतना है कि अंडे में जो छिपा है, मुर्गी में वह प्रकट हो गया है। बीज और वृक्ष में भी वही फर्क है, साधन और साध्य में भी इतना ही फर्क है।
इसलिए गलत साधन कभी ठीक साध्य तक ले जाने वाले नहीं हो सकते हैं, क्योंकि साधन ही यात्रा करते-करते अंत में साध्य बन जाता है। तो कोई यह सोचता हो कि मैं घृणा के साधन उपयोग करके प्रेम के साध्य को पा लूं तो वह गलती में है। वह घृणा के साधनों से चल कर अंततः और बड़ी घृणा पर ही पहुंचेगा। और कोई यह सोचता हो कि मैं हिंसा के साधन का उपयोग करके अहिंसा की दुनिया बना लूं तो वह गलती में है। हिंसा के साधन और बड़ी हिंसा में ही ले जाएंगे।
लेकिन साध्य और साधन के बीच इतना फासला है कि यह भ्रांति अक्सर हो जाती है। और ऐसा लगता है कि हम किन्हीं भी साधनों से किन्हीं भी साध्यों तक पहुंच सकते हैं, यह बिलकुल ही असंभव है। एक विशिष्ट साधन एक विशिष्ट साध्य तक पहुंचा सकता है। और इसलिए साध्य उतना विचारणीय नहीं है, जितना साधन विचारणीय है। क्योंकि साध्य तो कल होगा, साधन आज है। और जो हम आज चुनेंगे, वही कल प्रकट होगा। वृक्ष और फल उतने विचारणीय नहीं हैं, जितना बीज विचारणीय है, क्योंकि बीज आज हमें चुनना है, और वृक्ष और फल इसी बीज से विकसित होंगे। इसलिए साधन का प्रश्न अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
लेकिन हमेशा मनुष्य-जाति के इतिहास में अधिक लोगों ने साध्य को महत्वपूर्ण समझा है--एण्ड को महत्वपूर्ण समझा है। और वे मानते हैं कि मनुष्य के जीवन में ऊंचा साध्य होना चाहिए, ऊंचा उद्देश्य होना चाहिए, अंतिम लक्ष्य श्रेष्ठ होना चाहिए और उनकी सबकी यह दृष्टि है कि अगर हमने श्रेष्ठ साध्य चुन लिया तो फिर सब ठीक हो जाएगा। यह एंफेसिस, यह जोर ही गलत है। साध्य इतना महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो साधन ही है, क्योंकि वह हमें आज चुनना है। और जो हम आज करेंगे, वह हम कल हो जाएंगे। साध्य का मूल्य इतना ही है कि वह हमें साधन चुनने में अर्थपूर्ण होगा।
 यदि एक व्यक्ति को अपने जीवन को प्रेम से भरना है--साध्य का इतना ही मूल्य है कि अब वह ऐसे साधन चुने जो प्रेम से शुरू होते हों। असल में प्रेम से ही शुरू होंगे साधन तो प्रेम तक पहुंचा देंगे, नहीं तो नहीं पहुंचा पाएंगे।
पहला कदम ही हमारा अंतिम कदम है। क्योंकि दूसरा कदम पहले कदम से निकलेगा, तीसरा कदम दूसरे कदम से निकलेगा, और अंतिम कदम हमारा पहले कदम की ही शृंखला का हिस्सा होगा। 
तो मैं साध्य से भी ज्यादा मूल्यवान साधन को कहता हूं, इसलिए कि साधन जो हम चुनेंगे वह कल साध्य हो जाएगा। लेकिन मनुष्य ऐसी भूल करता रहा है और पूरा इतिहास इस भूल से भरा हुआ है। कुछ लोग जो दुनिया में धर्म चाहते हैं, वे भी धर्म लाने के लिए अधार्मिक साधन का उपयोग करते हैं। कोई शिक्षक बच्चे को शिक्षा देना चाहता है, लेकिन दंड का, भय का उपयोग करता है। कोई पिता, कोई मां अपने बच्चों को अच्छा बनाना चाहते हैं, लेकिन अच्छा बनाने के लिए जो वे करते हैं, वह चूंकि बुरा है, इसलिए बच्चे अंततः बुरे हो जाते हैं। यह अगर हमें ठीक से खयाल में आ जाए तो साध्य के संबंध में इतनी चिंता करनी जरूरी नहीं रह जाती। जरूरी हो जाता है साधन को हम साधन चुनते वक्त निर्णय करें।
तो पहली तो बात यह है, ध्यान में लेना चाहिए कि साध्य और साधन को मैं एक ही मानता हूं, इसलिए ऐसा प्रश्न ही नहीं है कि हम गलत साधनों से ठीक साध्य पर पहुंच सकते हैं या नहीं पहुंच सकते हैं।
अब दूसरी बात--जितने लोगों ने भी जीवन को दो हिस्सों में तोड़ दिया है--सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव, जिन लोगों ने कहा है कि एक जीवन भीतर का है और एक जीवन बाहर का है, उन लोगों ने भी नुकसान पहुंचाया है। वस्तुतः जीवन समग्र है, इंटिग्रेटेड है। यहां बाहर और भीतर जैसी दो टूटी हुई चीजें नहीं हैं। जैसे मेरी श्वास बाहर गई, मुझे पता भी नहीं चल पाता है कि वह बाहर गई कि उसका भीतर आना शुरू हो जाता है। और यह बोध मुझे होता है कि श्वास भीतर गई कि मैं पाता हूं कि वह बाहर जानी शुरू हो गई। और जो श्वास भीतर जाती है, वह वही है, जो बाहर थी। और जो भीतर है, वह थोड़ी देर बाद बाहर हो जाएगी। बाहर और भीतर इतने ही जुड़े हुए हैं, जैसे श्वास बाहर और भीतर हो रही है।
असल में, हमारे देखने के ढंग पर निर्भर करता है। बाहर और भीतर एक ही जीवन के दो छोर हैं। एक जीवन भीतर और एक जीवन बाहर है, ऐसे दो जीवन नहीं हैं। जीवन तो एक है। और उस जीवन के दो छोर हैं, उसका फैलाव है यह--भीतर तक और बाहर तक। और यह संयुक्त है और इकट्ठा है। इसलिए अंततः बाहर और भीतर ऐसी दो सीमाएं नहीं हैं, दो खंड नहीं हैं! न सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव ऐसे दो खंड हैं! जिन लोगों ने जीवन को इन दो हिस्सों में तोड़ा, उन्होंने भी भारी नुकसान पहुंचाया है। क्योंकि अंततः इस तोड़ने का फल यह हुआ कि कुछ लोगों ने कहा कि असली जीवन बाहर है।
जैसे दुनिया भर के भौतिकवादी हैं, मैटीरियलिस्ट हैं, सुखवादी हैं, हेडोनिस्ट हैं, आज का वैज्ञानिक है--उन सबकी दृष्टि यह है कि बाहर ही जीवन है। भीतर कुछ भी नहीं है। दूसरे कुछ लोग हुए--धार्मिक लोग, योगी, दार्शनिक, मिस्टिक--उन्होंने जोर दिया कि जीवन भीतर है, बाहर कुछ भी नहीं है। और इन दोनों ने ही जीवन को नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि जीवन दोनों ही है। जिन्होंने जोर दिया कि भीतर ही जीवन है, उन्होंने कहा, बाहर को छोड़ो और भीतर को पकड़ो। और बाहर को छोड़ते-छोड़ते वे उस जगह पहुंचे हैं, जहां भीतर पकड़ने को कुछ भी नहीं बचता है। क्योंकि जिसे वे भीतर कहते हैं, वह बाहर से ही जुड़ा हुआ है। और इस तरह बाहर छोड़ते-छोड़ते, छोड़ते-छोड़ते सिवाय मृत्यु के और जड़ हो जाने के और कुछ भी शेष नहीं रह जाता। तो ऐसे लोग सुसाइडल सिद्ध हुए, आत्मघाती सिद्ध हुए। छोड़ने-छोड़ने-छोड़ने में उन्होंने अंततः पाया कि सब चला गया, कुछ भी नहीं बचा। बच ही नहीं सकता, क्योंकि दो चीजें नहीं हैं कि हम एक को छोड़ सकें। जैसे एक रुपये के दो पहलू हैं और मैं कहूं कि मैं एक हिस्से को तो बचाऊंगा और दूसरे हिस्से को फेंक दूंगा। तो मैं दूसरे हिस्से को फेंकूं तो पूरा रुपया फिंक जाएगा और मेरे हाथ में कुछ भी न रह जाएगा।
तो भीतर को बाहर के विरोध में सोचने वाले लोगों ने बाहर को छोड़ने में सब खो दिया, भीतर भी कुछ न बचा। एक रिक्तता, एक एंप्टीनेस पीछे रह गई--जो जीवन का अभाव है।
दूसरी तरफ वे लोग हैं, जिन्होंने कहा, बाहर ही जीवन है! तो उन्होंने कहा कि भीतर कुछ भी नहीं है, भीतर को छोड़ो। और भीतर को जो जितना छोड़ते चले गए, उन्होंने पाया कि बाहर भी कुछ न बचा, सिर्फ मीनिंगलेसनेस, सिर्फ अर्थहीनता बची। क्योंकि वह जो जीवन है, वह इकट्ठा है, भीतर को अलग करने में, वह बाहर भी अलग हो गया। जीवन बचता है तो पूरा, जाता है तो पूरा।
इसलिए एक इंटिग्रेटेड व्यू चाहिए, जहां ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव, बाहर और भीतर दो नहीं हैं, बल्कि एक हैं।
तो इन पुरानी चिंतनाओं के ये दो पहलुओं ने भी बहुत नुकसान पहुंचाया है। इन्होंने इस तरह नुकसान पहुंचाया है कि जीवन को दोनों तरफ से नष्ट किया। एक स्थिति में रिक्तता रह गई, दूसरी स्थिति में अर्थहीनता रह गई। अगर हम पूरब के मुल्कों की, जिन्होंने भीतर को जोर दिया है, सारी किताबें उठा कर देखें तो एक ही बात दिखाई पड़ती है कि जीवन व्यर्थ है, जीवन दुख है, जीवन असार है। और जीवन से कैसे छूटें, बस यही एक कामना दिखाई पड़ती है। सब छोड़ दिया बाहर, उसमें सब जीवन भी छूट गया। अगर आज हम पश्चिम की पूरी मनःस्थिति के भीतर प्रवेश करें तो दिखाई पड़ता है कि जीवन अर्थहीन है। किसी चीज में कोई अर्थ नहीं है, सब एब्सर्ड है। यह करना भी ठीक है, वह करना भी ठीक है; न इस करने में कुछ फायदा है, न उस करने में कुछ फायदा है। सब धन व्यर्थ है, सब शक्ति व्यर्थ है, सब साधन व्यर्थ हैं। पश्चिम ने एक दूसरा प्रयोग करके देख लिया है कि जीवन बाहर है और भीतर को छोड़ दिया तो सब अर्थहीन हो गया।
मेरी दृष्टि में जीवन एक तरलता है, एक लिक्विडिटी है। एक लहर है, जो भीतर और बाहर के दोनों छोरों को छूती रहती है। और जो इसको, दोनों को इकट्ठा पकड़ेगा, वही जीवन के परम साध्य को उपलब्ध हो सकता है। जिन लोगों ने बाहर और भीतर में बांटा, उन्होंने साध्य और साधन को भी बाहर-भीतर में बांट दिया। उन्होंने कहा कि बाहर का जीवन उपलब्ध करना है तो बाहर के साधन हैं, और भीतर का जीवन उपलब्ध करना है तो भीतर के साधन हैं। उन्होंने यह भी कहा कि बाहर के साधनों का भीतर उपयोग नहीं होगा, उन्होंने यह भी कहा कि भीतर के साधनों का बाहर उपयोग नहीं होगा।
अब जिस आदमी को आत्मा को पाना है, उसे भोजन की क्या जरूरत है? क्योंकि भोजन तो बाहर का साधन है। और जिस आदमी को आत्मा को पाना है उसे मकान की क्या जरूरत है? और जिस आदमी को आत्मा को पाना है, उसे कपड़ों की क्या जरूरत है? ये सब तो बाहर की चीजें हैं। जिन लोगों ने भीतर पर जोर दिया, उन्होंने बाहर जो भी है, सबको इनकार कर दिया, चाहे वे कपड़े हों, चाहे मकान हों, चाहे संबंध हों, मित्रता हो, प्रेम हो, समाज हो, सब इनकार कर दिया। वे एक कसौटी मान कर चले कि जो भीतर का नहीं है, उसे जाने दो, उससे क्या लेना-देना है? अंततः उनके हाथ खाली रह गए, भीतर कुछ भी नहीं।
भीतर जैसा कुछ है ही नहीं अलग, बाहर से। भीतर, आइसोलेटेड, बाहर से तोड़ कर, अलग खंड करके कुछ है ही नहीं। इन सारे लोगों ने बाहर की सारी चीजों को छोड़ने पर जोर दिया। स्वभावतः समाज एक बहुत गरीबी, दुख, दरिद्रता और दीनता में पड़ गया। क्योंकि कपड़े, मकान बाहर हैं, ऐसा कहना गलत है। जब मैंने कहा कि जीवन इकट्ठा है तो जीवन में जो बाहर है और जो भीतर है, वह भी इकट्ठा है।
अब जैसे मेरा मानना है कि कपड़े भी एकदम बाहर नहीं हैं, क्योंकि कपड़े भी हमारा एक्सटेंशन है, वह भी हमारा फैलाव है। कपड़ों के द्वारा भी हमने अपने शरीर को और फैलाया है। अब यह जान कर हैरानी होगी कि जो आदमी नग्न रहता है, और जो आदमी पूरे कपड़े पहनता है, नग्न आदमी को चालीस प्रतिशत भोजन की ज्यादा जरूरत पड़ेगी, क्योंकि नग्न आदमी का शरीर इतनी शक्ति व्यर्थ वायुमंडल में खो देता है। इसलिए उसे चालीस प्रतिशत ज्यादा भोजन की जरूरत है। जो आदमी ठीक से पूरे कपड़े पहने हुए है, उसका कम भोजन में काम चलेगा।
और एक और मजे की बात है। जो आदमी ठीक से पूरे कपड़े पहने हुए है, उसे सेक्स की ज्यादा जरूरत पड़ेगी और भोजन की कम। इसलिए पश्चिम में जहां कपड़े बहुत विकसित हुए हैं, सेक्स ज्यादा हो गया है और भोजन की जरूरत कम हो गई है। जरूरत कम हो गई है भोजन की और सेक्स की जरूरत बढ़ गई है। उसका कारण है कि उसके पास इतनी शक्ति इकट्ठी हो जाती है कि उसे सेक्स में उस शक्ति से मुक्ति चाहिए। अब कपड़ा इतनी बाहर की चीज नहीं रह गई, क्योंकि कपड़ा भोजन भी तय करेगा, सेक्स भी तय करेगा। और भोजन और सेक्स मन को भी तय करेगा और मन भीतर घुसता चला जा रहा है। कोई चीज इतनी बाहर नहीं है।
मकान भी जिसे हम कहते हैं, वह भी इतना बाहर नहीं है। सच तो यह है कि अगर व्यक्ति को ठीक बोध हो, किसी व्यक्ति को, वह किसी के भी मकान में जाकर उस आदमी के संबंध में इतना जान सकता है, जितना उस आदमी के भीतर जाकर जान सकना संभव हो सकता है। एक आदमी के मकान में जाकर हम उस आदमी के संबंध में कुछ जानते हैं एकदम, क्योंकि अंततः वह मकान उस आदमी का बड़ा शरीर है। वह उस मकान में गंदगी से रह रहा है तो हम जानते हैं कि वह आदमी भीतर, गंदगी के प्रति उसका कोई विरोध नहीं है। अगर वह आदमी कुरूपता में रह रहा है तो हम जानते हैं, अग्लीनेस और कुरूपता के प्रति उसका कोई विरोध नहीं है। सौंदर्य का कोई भाव उसके भीतर नहीं है। अब सौंदर्य का भाव तो भीतर है और मकान बाहर है। मैं यह कह रहा हूं, ये सब चीजें इतनी अलग नहीं हैं। अगर हम उसके घर में जाते हैं और हम वहां जाकर देखते कि उसने फूल लगा रखे हैं, और हम देखते हैं उसके घर में एक ताजगी है, एक सुगंध है, और हम देखते हैं कि उसके घर में सफाई है, और हम देखते हैं कि उसके घर में दो चित्र लटके हुए हैं, तो वे उस आदमी के बाबत हमें सारी खबर देते हैं। हम जाकर देखते हैं कि उसके घर में क्या है? क्योंकि अंततः वह उसी आदमी ने रखा है। और हमारा कोई एक्ट, हमारी कोई क्रिया हमसे मुक्त नहीं है। और हमारी कोई भी क्रिया हमको प्रकट करती है और खोलती है।
एक घटना मैं कहूं--विवेकानंद अमरीका जाने को थे। रामकृष्ण तो मर गए थे, तो वह शारदा मां से आशीर्वाद लेने गए तो शारदा उस समय अपने चैके में खाना बनाती थी। विवेकानंद ने कहा कि मैं जाता हूं अमरीका, मुझे आशीर्वाद दें। तो शारदा ने पूछा, किसलिए जाते हो? तो विवेकानंद ने कहा कि प्रेम का एक संदेश पहुंचाने। शारदा ने कहा, अच्छा, वह छुरी जो पड़ी है, वह उठा कर मुझे दे दो। विवेकानंद ने छुरी सहज ही उठा कर दे दी। उनकी कल्पना में भी यह न था कि मेरे आशीर्वाद का और छुरी के देने-उठाने से कोई संबंध है। मेरे आशीर्वाद मांगने का इससे कोई संबंध हो सकता है। लेकिन विवेकानंद ने फलक छुरी का हाथ में पकड़ा और डंडा शारदा मां की तरफ किया। शारदा ने हंस कर वह छुरी रखी और कहा कि मेरा आशीर्वाद है, जाओ, तुमसे किसी का अहित नहीं होगा। तब विवेकानंद को एकदम खयाल आया और उन्होंने पूछाः क्या छुरी उठाने से कोई संबंध था? शारदा ने कहाः निश्चित! क्योंकि तुम जो करते हो उसमें तुम मौजूद हो। मैं देखती थी कि तुम छुरी का फलक मेरी तरफ पकड़ाते हो या तुम खुद पकड़ते हो। क्योंकि जिस आदमी के मन में प्रेम हो, वह छुरी का फलक खुद पकड़ेगा कि कहीं दूसरे को चोट न लग जाए।
अब यह बहुत हैरानी की बात है--आमतौर से ही किसी भी आदमी को हम छुरी उठाने को कहेंगे तो वह फलक हमारी तरफ करेगा और डंडा अपने हाथ में पकड़ेगा। यह बिलकुल सहज है, शायद खयाल में भी उसे नहीं आएगा। न हमें भी खयाल में आएगा। लेकिन उस आदमी के बाबत खबर मिल रही है। उसके इस छोटे से कृत्य में, इस छुरी के उठाने में भी वह पूरा मौजूद है।
ध्यान रहे कि हमारे छोटे से छोटे कृत्य में भी हम पूरे मौजूद होते हैं--पूरे! उसमें जरा सा भी हिस्सा हमारा पीछे नहीं रह जाता। आंख के एक छोटे से इशारे में और हाथ के उठने और गिरने में भी हम पूरे मौजूद होते हैं। हमारा सब छोटे से छोटा काम भी हमारे पूरे व्यक्तित्व को समाहित रखता है। इसलिए क्या बाहर है, और क्या भीतर है! यह छुरी उठाना तो बाहर है, कैसे उठाना है, यह आदमी के भीतर है। अब इन दोनों में कहां से फर्क करेंगे, हम कहां तय करेंगे कि कौन सी चीज बाहर होगी और कौन सी भीतर होगी?
इसलिए मैं कहता हूं कि जीवन की कोई भी चीज एकदम ऐसी नहीं है कि उसे बाहर कह दें, और ऐसी भी नहीं है कि उसे भीतर कह दें। वे दोनों संयुक्त हैं, जुड़े हैं। और जीवन एक सेतु है जो बाहर और भीतर के बीच प्रतिपल कंपित होता रहता है।
तो जिन लोगों ने इनकार कर दिया बाहर को, उन लोगों ने बाहर की भी चीजों को इनकार कर दिया। कपड़े और मकान सब गए, संबंध और मित्रता सब गई। उन्होंने कहा, व्यक्ति अकेला हो जाए, बस उतना ही बचे, जितना भीतर है। उतना ही बच जाए, जितना भीतर है। एक ऐसी दौड़ शुरू हुई जिसमें सब इलिमिनेट करना है, काटना है, काटना है, काटना है, यह भी बाहर, यह भी बाहर, आखिर में आदमी पाता है कि सब कट गया है, और सब खो गया है और जीवन भी गया! और कुछ भी पीछे नहीं बच जाता है। इस स्थिति को मैं मोक्ष नहीं कहता हूं। इस स्थिति को मैं सिर्फ मृत्यु कहता हूं। और चूंकि यह स्थिति अपने ही हाथ से लाई गई है, इसलिए इसको मैं आत्मघात कहता हूं, सुसाइड कहता हूं।
अब एक दूसरी दौड़ है, जिसमें बाहर ही सब कुछ का भाव है। तो उसमें चिंता नहीं है भीतर के आदमी की। तो मकान कैसा हो, इसकी चिंता है, सारी चिंता इसकी है कि मकान कैसा हो। रहने वाले का भी कोई संबंध नहीं है मकान से, रहने वाला तो है ही नहीं, क्योंकि भीतर हम कुछ मानते नहीं। तो मकान कैसा हो, यह विचारणीय है। तो सारा विचार मकान बनाने में लगा दो, चाहे मकान बनाने में मकान बनाने वाला खत्म हो जाए। सारा विचार इसका है कि कपड़े कैसे हों, तो कपड़े अच्छे से अच्छे पैदा कर लो। चाहे कपड़े पैदा करने में, इकट्ठा करने में कपड़े पहनने वाले का पता रहे या न रहे।
तो एक ठीक इससे उलटी अति पर एक दूसरी दौड़ है, जो सारी चीजों पर जोर देती है--कपड़ा कैसा हो, मकान कैसा हो, भोजन क्या हो, क्या न हो, कितना धन हो, कितना धन न हो। यह दौड़ भीतर के आदमी को इनकार करती है। वह जब किसी आदमी को इस दौड़ का आदमी मिलता है तो पूछता है कि तुम्हारा बैंक-बैलेंस कितना है? क्योंकि तुम्हारा धन कितना है तिजोरी में या बैंक में, उसी से तुम्हारा पता चलता है कि तुम कौन हो? यानी यह बाहर की तरफ जोर देने वाला यह कभी नहीं पूछता कि तुम्हारा बीइंग क्या है! यह पूछता है तुम्हारी हैविंग क्या है?
तुम क्या हो, यह सवाल नहीं है! तुम्हारे पास क्या है? तुम्हारे पास अगर कीमती कार है तो तुम आदमी कीमती हो। क्योंकि भीतर तो कुछ है ही नहीं। कीमती कार से पता चलता है कि तुम कीमती आदमी हो। तुम्हारे कपड़े कीमती हैं, तो तुम कीमती आदमी हो। यह जरूरी नहीं है कि कीमती कपड़े के भीतर कीमती आदमी हो ही। यह भी जरूरी नहीं है कि कीमती कार के भीतर कीमती आदमी हो। यह भी जरूरी नहीं है कि कीमती पद के ऊपर कीमती आदमी ही हो। यह बिलकुल जरूरी नहीं है।
बल्कि अगर हम इस भांति भीतर के आदमी को बिलकुल इनकार कर दें और इन्हीं चीजों पर सारा जोर दे दें तो इस बात की संभावना यह है कि कीमती आदमी इन जगहों पर मिले ही नहीं। क्योंकि कीमती आदमी इतना जोर इन चीजों पर नहीं दे सकता है। एक कीमती आदमी बीइंग पर जोर देगा, हैविंग पर जोर नहीं होगा उसका। क्या मेरे पास है, यह उतना मूल्यवान नहीं होगा उसके लिए, मैं क्या हूं, वह इसकी फिकर करेगा। वह इसकी फिकर न करेगा कि मैं राष्ट्रपति हो जाऊं तो ही मैं कुछ हूं। राष्ट्रपति होना अत्यंत गौण बात होगी। वह राष्ट्रपति हो भी सकता है, या नहीं भी हो सकता है। यह उसकी दौड़ नहीं हो सकती। अगर उसके जीवन की सहज धारा में यह होना आ जाए तो वह हो भी सकता है, न आए तो इसकी वह चिंता भी नहीं कर सकेता है। शायद ऐसा ही आदमी तो कीमती हो सकता है।
जिसके लिए पद कीमती है, वह आदमी कीमती नहीं हो सकता। आदमी कीमती हो तो पद दो कौड़ी का ही होने वाला है। और कीमती आदमी पद पर होने के लिए पागल नहीं हो सकता। क्योंकि वह पागलपन सिर्फ हीन आदमी को ही पैदा होता है, इनफिरिआरिटी कांप्लेक्स हो तो ही पैदा होता है। और जिस आदमी के भीतर कोई हीनता का भाव न हो वह किसी भी पद से ऐसे उतर कर जा सकता है, जैसे कुछ बात नहीं थी।
फिर यह जो बाहर पर इतना जोर है, बाहर पर ही अकेला जोर है और भीतर के आदमी को हम बिलकुल इनकार करते हैं तो चीजें बच जाती हैं, जीवन नष्ट हो जाता है। और चीजों का उपभोक्ता नष्ट हो जाता है। तो ऐसा हुआ है कि जिसको हम कहें, उपभोग की सामग्री तो बढ़ती चली गई है, लेकिन कंज्यूमर, वह जो उपभोग कर सकता था, वह धीरे-धीरे विदा हो गया है। चीजें बढ़ती चली गई हैं, उनका ढेर लग गया है। और जिस आदमी के लिए हमने ढेर लगाया था उसका कहीं पता नहीं चलता है कि वह आदमी कहां है, और किसलिए हमने यह ढेर लगाया था! और ध्यान रहे, जैसा मैंने कहा कि चीजें इतनी जुड़ी हैं कि बाहर पर अगर इतना जोर होगा तो यह चूंकि चीजें बाहर ही नहीं हैं, इनका अंतिम परिणाम भीतर होने वाला है। छोटी-छोटी घटनाओं का परिणाम है।
मैंने सुना है कि अफ्रीका के एक गांव में यूनेस्को की तरफ से नल लगाए गए, पानी के नल लगाए गए। उस गांव में अब तक सिर्फ एक कुआं था। लेकिन कुछ ही दिन बाद गांव के बूढ़ों ने आकर खबर की कि हम क्षमा चाहते हैं, यह पाइप अलग कर दिया जाए, क्योंकि हमारी गांव की सारी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो गई है। तो वे तो लोग बहुत हैरान हुए। जो लोग वहां व्यवस्था कर रहे थे, उन्होंने कहाः क्या पागलपन की बात कर रहे हो? उन्होंने कहाः बिलकुल अस्त-व्यस्त हो गई है। कुआं तो हमारा प्राण था। वहां हम मिलते थे। वहीं सुबह हमारी सारी स्त्रियां मिलती थीं, सांझ हमारा गांव भी वहीं बैठ कर गप-शप करता था। वह कुआं तो बरबाद हो गया। वहां अब कोई नहीं रहा। अब तो हरेक के घर में पानी पहुंच गया तो वहां कोई आता ही नहीं। तो हमारी तो पूरी कम्युनिटी फीलिंग खत्म हो गई। यानी हमारा तो जो एक समूह था, हम जो एक साथ जीते थे, वह खत्म ही हो गया। एक-एक आदमी अलग-अलग हो गया। हम तो ये जो पाइप है, बिलकुल नहीं चाहते हैं।
मैं यह कह रहा हूं कि पाइप जैसी बाहरी चीज भी एक समाज की जीवन-व्यवस्था पर, एक आदमी के चित्त पर फर्क लाएगी, लाने ही वाली है। हमें खयाल में नहीं होता। क्योंकि चीजें कोई बाहर नहीं हैं। अब मैं यह नहीं कहता कि वह गांव के लोग ठीक ही कह रहे हैं। मैं कहता हूं, यह परिणाम हुआ। मेरा तो मानना यह है कि इसका फायदा उन्हें लंबे अर्से में पता चलेगा, क्योंकि जब तक कुआं है, तब तक व्यक्ति पैदा नहीं हो सकते उस गांव में। तब उस गांव में कम्युनिटी भर होगी, इंडिविजुअल्स नहीं होंगे। लेकिन जब घर-घर में नल पहुंच जाएंगे तो व्यक्ति पैदा होने शुरू हो जाएंगे।
यह बड़े मजे की बात है कि पुरानी दुनिया में व्यक्ति थे ही नहीं, या कभी होते तो बहुत मुश्किल मामला था--समाज ही था। क्योंकि जो इंतजाम था, वह ऐसा था कि उसमें, समाज में ही आपको जीना पड़ता। जैसे, एक जमाना था कि अगर एक आदमी गड़बड़ करता तो उसका कुएं से पानी निकालना बंद कर दिया जाता। वह आदमी मर जाता। वह आदमी जी नहीं सकता था, क्योंकि कुएं से पानी जाना, उसके लिए मनाही हो गई। गांव ने निर्णय दे दिया कि वह आदमी कुएं से पानी नहीं पी सकता। तो आदमी मर जाता। कुएं के बिना तो जीना मुश्किल था। आज वह गांव से पूछने नहीं जाता कि आप पानी दोगे कि नहीं दोगे। कुएं से कोई लेना-देना नहीं है। उसके पास अपनी व्यक्तिगत व्यवस्था है। आज उसके पास अपना नल है।
यह मैं नहीं कहता। मैं यह कह रहा हूं कि बाहर की कोई भी व्यवस्था भीतर की व्यवस्था को छुएगी और बदलेगी, क्योंकि भीतर और बाहर दो अलग चीजें नहीं हैं। अब हमें पता ही नहीं है कि कितनी छोटी-छोटी चीजें बाहर की, भीतर में फर्क ले आती हैं।
एक कनफ्यूशियस के जीवन में उल्लेख है--कि कनफ्यूशियस एक गांव के पास से गुजर रहा है। एक बगीचे में दोपहर को रुका तो बड़ा हैरान हुआ। क्योंकि बगीचे में एक बूढ़ा माली है। अपने जवान बेटे को दोनो बैल की तरह मोठ में जोते हुए है और पानी खींच रहे हैं, जहां कि बैल और घोड़े जोते जाने लगे थे। तो कनफ्यूशियस ने सोचा कि शायद इस बूढ़े को अभी तक पता नहीं चला है कि यह तो बात बदल गई है। अब कहां का पुराना तरीका अख्तियार किए हुए है, अब तो घोड़े और बैल जोत कर काम चल सकता है। और अगर घोड़े और बैल भी न जोतने हों तो भी ढेंकी का एक उपाय हो गया है। एक बड़ा पत्थर लटका कर पानी बाहर खींचा जा सकता है, आदमी को श्रम करने की जरूरत नहीं है।
कनफ्यूशियस उस बूढ़े के पास गया और उससे जाकर कहा कि मेरे मित्र, क्या तुम्हें अभी तक पता नहीं चला कि अब तो घोड़े और बैल जोते जाने लगे हैं, और अब तो हम बड़ा पत्थर बांध कर भी ढेंकी से पानी खींच सकते हैं। लेकिन मैं सोचता हूं शायद तुम्हें पता नहीं चल पाया, शायद तुम्हें मालूम नहीं है। उस बूढ़े आदमी ने कहा, सब मुझे मालूम है, लेकिन जरा धीरे बोलो, मेरा जवान लड़का न सुन ले। तो कनफ्यूशियस ने कहाः इसमें क्या डर की बात है? तुम्हारा जवान लड़का सुन ले तो!
तो उस बूढ़े आदमी ने कहा कि इसके बहुत डर के कारण हैं। मैं तो बूढ़ा आदमी हूं, लेकिन अगर मेरे जवान लड़के को अभी से खयाल आ जाए कि बैल जोतने हैं तो वह अभी से बूढ़ा हो जाएगा, आलसी हो जाएगा, प्रमादी हो जाएगा। यह बात मत करो। और फिर उस बूढ़े ने कहा कि मेरा यह भी मानना है कि जो लोग पत्थर इत्यादि बांध कर पानी खींचते हैं, जो लोग भी किसी यांत्रिक व्यवस्था का उपयोग करते हैं, यंत्र के साथ धीरे-धीरे वे भी यंत्र हो जाते हैं। उनका हृदय कठोर हो जाता है। और धीरे-धीरे जो लोग इस तरह की चालाकियों को--क्योंकि उसमें कई चालाकियां हैं, कनिंगनेस है--जो इस तरह की चालाकियों का उपयोग करते हैं, वे आदमी बेईमान हो जाते हैं। तो हम ठीक हैं, हम दिन भर मेहनत कर लेते हैं, बाकी हम ठीक हैं!
यह बूढ़ा जो कह रहा है, यह ठीक हो या न हो, इससे हम राजी हों या न हों--मैं खुद भी इससे राजी नहीं हूं, लेकिन यह जो कह रहा है, उसमें एक सार की बात तो कह रहा है कि जो बाहर होता है, उसके संबंध भीतर से जुड़े हैं। सच तो यही है कि मनुष्य का जितना आविष्कार हुआ है, लोग कहते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है, नेसेसिटी इ.ज दि मदर ऑफ इनवेंशन। मैं नहीं कहता। मैं तो कहता हूं, आलस्य आविष्कार की जननी है। मनुष्य को कितना कम श्रम करना पड़े, यही सारे आविष्कारों का जन्मदाता है। मैं बिना चले कैसे आपके घर पहुंच जाऊं, इससे गाड़ी आती है, कार आती है, जेट आता है। मेरे बिना कुछ किए कैसे--कुछ हो जाए! आदमी श्रम नहीं करना चाहता। मैं इसको बुरा भी नहीं कहता, इसको मैं बुरा भी नहीं कहता!
मैं श्रम-भक्त नहीं हूं, मैं इसको बुरा भी नहीं कहता। इसको मैं ठीक ही कहता हूं, क्योंकि मेरा मानना यह है कि आलस्य में कुछ कारण हैं और यह ठीक आलस्य ही नहीं है! असल में आदमी जितना बचना चाहता है व्यर्थ से, उतनी ही सार्थक दिशा में गति कर सकता है। और इस दुनिया में जो भी श्रेष्ठतम हुआ है, चाहे संगीत, चाहे साहित्य, चाहे दर्शन, चाहे धर्म, चाहे साधना वह उनके द्वारा हुई है जो ली.जर में थे, विश्राम में थे। यह कोई गड्ढा तोड़ने वाले, पत्थर तोड़ने वाले मजदूर ने न तो कोई संगीत पैदा किया है, न करने का सवाल है। न उसने कोई बुद्ध पैदा किए हैं, न कोई क्राइस्ट पैदा किए हैं, न करने का सवाल है। यह तो ली.जर क्लास, वह जो विश्राम में एक वर्ग पहुंच जाता है, या कोई व्यक्ति विश्राम में पहुंच जाता है, तो उस विश्राम में जहां कि व्यर्थ श्रम से बच जाता है वह--तो उसकी चेतना नये आयाम छूना शुरू करती है।

बट आचार्य जी, आई हैव लर्नड दैट देयर आर फोर टाइप्स ऑफ मोशन्स। वन इ.ज काॅल्ड फिजिकल मोशन, इंटलेक्चुअल मोशन, इमोशनल मोशन एण्ड द अदर इज वि.जडम। मे बी दि डिमांड हू हैज मीनिंग इन दि लेटेस्ट स्टेट ऑफ ली.जर, हिज इंटलेक्चुअल कैपेसिटीज ऑर इमोशनल कैपेसिटीज मे बी स्टिमुलेटेड, सो दैट ही मे शिफ्ट फ्रॉम वन प्लान एण्ड मे गो टु द अदर प्लान?

यही मैं कह रहा हूं, यही मैं कह रहा हूं कि मनुष्य को उसकी शक्तियां कितने ऊंचे आयामों में, हायर डाइमेन्शंस में गति कर सकें, इसके लिए जरूरी है कि उसे नीचे के आयामों से मुक्ति मिल जाए। तो मैं यह नहीं कहता कि उस बूढ़े आदमी ने कनफ्यूशियस को जो उत्तर दिया वह ठीक था। मैं बूढ़े से राजी नहीं होता। हालांकि मैंने सुना है कि कनफ्यूशियस उससे राजी हुआ। मैं उस बूढ़े से राजी नहीं होता। गांधी होते तो उससे राजी होते। मैं उससे राजी होने वाला नहीं था, क्योंकि मेरा मानना यह है कि वह बूढ़ा अपने बेटे को हो सकता है प्रमाद से बचा ले, लेकिन प्रमाद से बचा कर भी क्या करेगा! वह बेटा बैल की जगह जुता-जुता मर जाएगा। और हो सकता है, वह यह सोच रहा है कि अगर यंत्र से बेटा उपाय करेगा तो यंत्र हो जाएगा, तो वह बैल की जगह बैल की तरह जुत कर बैल नहीं हो जाने वाला है? यह उसको खयाल में नहीं है। और मेरा मानना है कि यंत्र का उपयोग करना भी किसी पशु के लिए संभव नहीं है, वह सिर्फ आदमी के लिए संभव है, सिर्फ आदमी के लिए संभव है। इसलिए बैल होने की बजाय यंत्र का उपयोग सार्थक है, अर्थपूर्ण है।
फिर यह भी मैं मानता हूं कि उस बूढ़े बाप का अपने बेटे पर बहुत भरोसा नहीं है। यानी वह मान यह रहा है कि बेटे को अगर इतनी निम्न चीजों में लगाया जा रखे तो ही उसे ठीक रखा जा सकता है। इससे मुक्त होते ही उसकी कोई श्रेष्ठ गति नहीं हो सकती। शायद गांधी जी को भी इस तरह का भरोसा नहीं है, आदमी पर इनका भरोसा नहीं मालूम होता है। क्योंकि अगर आदमी पर भरोसा है तो यह मानना चाहिए कि हम उसे जितनी स्वतंत्रता, जितनी श्रम-मुक्ति देंगे, उतना ही ज्यादा आदमी विकसित हो सकेगा--आदमी के विकास में! उसके पास सीमित शक्ति है, उसको हम व्यर्थ खोने का कारण न बनें, उसे हम संरक्षित करें।
मैं जो कह रहा था, जिस संदर्भ में यह बात कह रहा था वह मैं यह कह रहा था कि बाहर हम जो भी करते हैं, वह भी अंततः भीतर प्रविष्ट हो जाता है। भीतर जो हम करते हैं वह बाहर चला जाता है।
असल में भीतर-बाहर जैसी कोई सीमा नहीं है। यहां भीतर और बाहर एक ही जीवन-धारा के दो हिस्से हैं। इसलिए जिन लोगों ने इस तरह के भीतर-बाहर, सब्जेक्टिव-ऑब्जेक्टिव, स्प्रिचुअल-मैटीरियल, इनर और आउट, इस तरह के जो भेद किए हैं वे भेद गलत हैं। और उन भेदों की वजह से एक लंबी भ्रांति की परंपरा पैदा हुई है। उसमें कुछ ने बाहर के सब साधनों का इनकार कर दिया है, क्योंकि वे कहते हैं, हमें भीतर का साध्य पाना है। और भीतर का कोई साध्य नहीं है, बाहर का कोई साध्य नहीं है। साध्य हैं और साधन हैं।
जिन लोगों ने कहा, भीतर है ही नहीं, उन्होंने कहा, भीतर के साधनों से हमें कोई मतलब नहीं है। प्रेम का हम क्या करेंगे? करुणा से हमें क्या प्रयोजन है? आत्मा, परमात्मा और प्रार्थना का क्या मतलब है? हमारे लिए सवाल है बाहर के साध्य। बहुत धन पैदा करना है। तो बहुत धन पैदा करने में प्रार्थना क्या करेगी और बहुत धन पैदा करने में करुणा क्या करेगी? बहुत धन पैदा करना है तो गणित सीखो। बहुत धन पैदा करना है तो मशीन बनाओ। बहुत धन पैदा करना है तो महत्वाकांक्षी बनो। और महत्वाकांक्षी वह बन सकता है जो करुणावान न हो।
अगर करुणावान हो तो महत्वाकांक्षी कैसे होगा, क्योंकि महत्वाकांक्षा में दूसरों को पीछे घसीटना पड़ेगा; दूसरों की गर्दन पर, उनके सिर पर पैर रख कर सीढ़ी बनानी पड़ेगी और दूसरों के ऊपर से गुजरना पड़ेगा। दूसरों को साधन बनाना पड़ेगा, करुणा क्या करोगे?
तो जिन्होंने कहा कि बाहर के साध्य हैं, समृद्धि है, सफलता है, सुख है--यह जिन्हें पाना है, उनको भीतर-वीतर की बातें छोड़ देनी चाहिए, भीतर कुछ भी नहीं है। और इस तरह मनुष्य को इस भांति खंडित किया कि न वह बाहर रह गया, न वह भीतर रह गया, वह दोनों जगह से मर गया। भीतर बचाने वाले लोगों ने भीतर मार डाला, बाहर बचाने वाले लोगों ने बाहर मार डाला।
आदमी के साथ अब तक दुव्र्यवहार हुआ है। इसलिए मैं कह रहा हूं कि साध्य ही साधन है, और अब हमें इस भाषा में सोचना चाहिए कि यह अखंड है। ऐसा कोई साधन नहीं है--जो चाहे बाहर हो, चाहे भीतर हो--और ऐसा कोई साध्य नहीं है, जो चाहे बाहर हो, चाहे भीतर हो--जो कि अंतर-निर्भर नहीं है, इंटर-डिपेंडेंट नहीं है! वे सब जुड़े हुए हैं!
हम क्या करते हैं, वह हमारे भीतर से आता है और हम क्या भीतर हैं, वह हमारे करने को प्रभावित करता है। ये दोनों बातें एक-दूसरे पर निर्भर और एक साथ उपयोगी हैं। सच कहना चाहिए तो ऐसा कि ये दोनों बातें एक ही चीज के दो हिस्से हैं और इनको अलग नहीं किया जा सकता। इसलिए भी मैं कहना चाहूंगा कि यह फासला भीतर का और बाहर का मत करें--और साध्य और साधन का भी मत करें, इंटिग्रेटेड एटिट्यूड इस तरह के कोई फासले नहीं मानता और विज्ञान और धर्म का भी फासला मत करें, क्योंकि वे सब फासले उसी तरह के हैं। धर्म का मतलब है कि भीतर के साध्यों की दुनिया का हिसाब; विज्ञान का मतलब है, बाहर के साध्यों की दुनिया का हिसाब। ऐसा कुछ भी नहीं है! मेरी दृष्टि में जैसे-जैसे आदमी विकसित होगा, समझ बढ़ेगी, वैसे-वैसे ज्ञान रह जाएगा, ज्ञान, वि.जडम रह जाएगी। वह ज्ञान बाहर का होगा तो हम उसे विज्ञान कहते रहेंगे, वह भीतर का होगा तो उसको अंतज्र्ञान कहते रहेंगे। बहिज्र्ञान होगा, अंतज्र्ञान होगा। ये सब कामचलाऊ खंड होंगे।
धर्म कहें, विज्ञान कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--लेकिन ज्ञान रह जाएगा, और ज्ञान जो है, वह सारे जीवन को घेरेगा। वह छोटी सी बाहर की चीज से लेकर भीतर की बड़ी से बड़ी चीज तक, भीतर के छोटे से विचार से लेकर बाहर के बड़े से बड़े आकाश तक; इन सबको जोड़ कर एक साथ ही देखेगा।
चूंकि आदमी की समझ इतनी कम है कि इतना विराट फैलाव नहीं कर पाता है आदमी; उसके मस्तिष्क की पकड़ इतनी कम है कि इतने बड़े को वह कंसीव नहीं कर पाता--इसलिए सारी कठिनाई पैदा होती है, और वह उसको पकड़ पाए इसलिए हम उसे टुकड़ों-टुकड़ों में तोड़ देते हैं और धीरे-धीरे वे टुकड़े ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं। और वह समझता है, सब टुकड़े अलग-अलग हैं।
जैसे इस कमरे के पास एक छोटा छेद हो और उस छेद में से एक आदमी भीतर झांके और एक छोटे से हिस्से में उसको कुछ इस कमरे के भीतर दिखाई पड़े तो वह इसको पूरा कमरा समझ ले। एक दूसरा आदमी दूसरे छेद से झांके उसे कमरे का दूसरा हिस्सा दिखाई पड़े। वह इसे सब कुछ मान ले। अब तक दुनिया में ऐसा ही हुआ। जिन लोगों ने जिस छेद से झांका, उन्हें जो दिखाई पड़ गया उन्होंने उसे टोटेलिटी मान लिया, उन्होंने कहा, सब कुछ यही पूरा है।
खंड दिखाई पड़े, अखंड मान लिए गए, और यह अखंड मान लेना महंगा पड़ गया। अब मेरा कहना है कि कोई खंड अखंड नहीं है। तब एक उपाय दूसरा भी चला। तब यह चला कि जितने लोगों को यह खंड-खंड दिखाई पड़े, उन सब को जोड़ लो तो इससे अखंड बन जाएगा। जैसा गांधी जी कहते हैं कि कुरान भी ठीक है, बाइबिल भी ठीक है, गीता भी ठीक है--यह सब ठीक कहते हैं! कृष्ण ने देखा वह भी ठीक, मोहम्मद ने देखा वह भी ठीक, क्राइस्ट ने देखा वह भी ठीक। अब तीनों को जोड़ लो, तो यह पूरा ठीक हो जाएगा। इन तीनों को जोड़ने से जो बनेगा वह पूरा ठीक हो जाएगा। अब मेरा मानना यह है कि वह खंड-खंड तो ठीक हैं ही नहीं, वह तो अधूरे हैं ही, लेकिन फिर भी सार्थक हैं। क्योंकि एक आदमी ने जितना देखा, उतना देखा है और पच्चीस खंडों को जोड़ने से अखंड नहीं बनता! पच्चीस खंडो को जोड़ने से अखंड नहीं बनता।
असल में अखंड किसी खंड को जोड़ने से नहीं बनता। अखंड तो पूरा दिखाई पड़े तो सब खंड उसमें दिखाई पड़ जाएंगे। वह बिलकुल दूसरी बात है, लेकिन खंड-खंड जोड़ने से अखंड नहीं बनता, बल्कि खंड-खंड जोड़ने से और गड़बड़ हो जाता है।
यह ऐसा ही है जैसे कि हम देखें कि एक आदमी हैं, जिसमें हाथ भी हैं, पैर भी हैं, सिर भी है, इसमें यह भी है। एक सिर ले आओ किसी का काट कर, क्योंकि वह सिर भी वहां चलता हुआ मालूम पड़ रहा था, बोल रहा था। एक आदमी का पैर काट लाओ, एक आदमी का हाथ काट लाओ, एक की नाक काट लाओ, एक की आंख ले आओ--और यह सब जोड़ कर कि सब खंड जोड़ कर हम एक अखंड आदमी बनाते हैं। तो सिर्फ एक लाश बनेगी, कोई अखंड वहां पैदा नहीं होगा। ये सब खंड हैं जरूर, लेकिन खंडों के जोड़ने से अखंड नहीं बनता। अखंड के ये ऑर्गेनिक पार्ट हैं। ये अखंड में सम्मिलित हैं।
तो मेरा मानना है, ये समन्वयवादी हैं, जो कहते हैं, सब जोड़ लो; इक्लेक्टिक जो हैं, जो कहते हैं, यह भी जोड़ लो, यह भी जोड़ लो, यह भी जोड़ लो, सब जोड़ लो--तो यह ज्यादा करीब पहुंच जाएगा सत्य के; यह जितना खंड पहुंच रहा था, उतना भी नहीं पहुंचेगा, क्योंकि इस आदमी ने किसी छेद से नहीं झांका। इसने पच्चीस छेद से झांकने वालों के खयालों को जोड़ कर उस कमरे की नकल बना रहा है यह। यह ऐसे ही होगा जैसे कि समझ लें कि मैं जबलपुर आऊं और आप भी जबलपुर आएं और एक और मित्र जबलपुर आएं, और फिर हम तीनों मिलें। मैंने भी कुछ देखा जबलपुर में, आपने भी कुछ देखा, उसने भी कुछ देखा, फिर हम तीनों जोड़ लें और तीनों को जोड़ कर कहें कि अब यह पूरा जबलपुर हो जाएगा। यह कुछ भी नहीं होगा! यह कुछ भी नहीं होगा! बल्कि एक-एक ने जितना देखा था, वह ऑथेंटिक था, यानी कम से कम उसने देखा था। लेकिन अब यह जो तीनों का घोल तैयार होगा, जो मिक्सचर तैयार होगा, उसमें वह सचाई भी रहने वाली नहीं है। जो इस घोल को पकड़ लेगा, वह बहुत मुश्किल में पड़ जाने वाला है, क्योंकि उसकी समझ के बाहर हो जाएगा कि यह क्या है। इन तीनों के मेल का सवाल नहीं है।
तो मेरा कहना यह है कि सभी सत्य उस अखंड से आते हैं, लेकिन किन्हीं सत्यों को जोड़ कर अखंड को वापस नहीं बना सकते हैं। एक फूल खिला है, उसमें सारी पंखुड़ियां लगी हुई हैं, पत्ते लगे हुए हैं, कांटे लगे हुए हैं और फूल जिंदा है, वृक्ष जिंदा है। हम सारे पत्ते तोड़ डालें, हम सारे फूल की पंखुड़ियां काट लें, फिर हम जोड़ें। ये जरूर जुड़े थे और एक का हिस्सा थे, लेकिन अब जुड़ कर ये एक का हिस्सा होने वाले नहीं हैं। अब जो जोड़ बनेगा, यह बात ही और होगी, इसका उस फूल से कोई संबंध नहीं होगा, जो था--जो असलियत में था। तो मेरा कहना है कि इन सबको जोड़ भी नहीं लेना है। ऐसा नहीं करना है कि विज्ञान और धर्म को जोड़ दो। मैं यह कह नहीं रहा हूं, न मैं यह कह रहा हूं, बाहर-भीतर को जोड़ दो। मैं यह कह रहा हूं कि ये अलग हैं ही नहीं। जोड़ने की बात भी जो कर रहा है, वह भी अलग मान कर चल पड़ा है। उसने भी बहुत गहरे में यह स्वीकार कर लिया है कि अलग हैं।
जैसे एक आदमी कहता है--जैसे गांधी जी निरंतर कहते हैं, अल्ला-ईश्वर तेरे नाम। यह वह मान कर चल रहे हैं। यह वह मान कर चल रहे हैं कि अल्लाह एक नाम है, ईश्वर भी एक नाम है, ये दो नाम हैं और ये दोनों एक ही हैं--अब इसकी कोशिश में लगे हुए हैं। मेरा कहना है कि अब यह कहने की कोई जरूरत ही नहीं है, अगर यह दिखाई पड़ गया। तो अब इन दोनों को भी एक करने की जरूरत नहीं क्योंकि ये अलग हैं नहीं। अलग होने का भाव जब हम मान लें--जब हम कहते हैं कि हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई, तो हमने मान लिया कि झगड़ा शुरू हो चुका है, नहीं तो इसकी बात उठाने की जरूरत नहीं थी। जब अलग होना पक्का हो गया तो भाई-भाई का नारा शुरू हो गया। जब दुश्मनी साफ हो गई तब भाई-भाई की बातें शुरू हो गईं। अब यह बड़े मजे की बात है कि जब तक दुश्मनी नहीं उठी थी तब तक भाई-भाई की कोई बात नहीं करता। अगर पड़ोसी से आपका झगड़ा नहीं है तो कभी नहीं कहते कि हम भाई-भाई हैं। तब ठीक है, बात खत्म हो गई, इससे कोई संबंध नहीं है बात का। लेकिन जब झगड़ा शुरू होता है तब आप कहते हैं कि पड़ोसी तो भाई-भाई हैं, पड़ोसियों को भाई-भाई की तरह रहना चाहिए।
ये सारी बातें किसी झूठ पर खड़ी हो रही हैं। तो मेरा कहना यह है कि जोड़ना नहीं है बाहर और भीतर को--बाहर और भीतर अलग नहीं हैं। ये दोनों बातें बिलकुल ही अलग हैं। डाइमेट्रिकली भिन्न हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि इनको हम जोड़ कर एक कर लें, इसका मतलब यह है कि हम जानें कि यह भेद गलत है। एक ही है और वही फैला हुआ है।

आई मीन देयर शुड बी ए एजुकेशन, वे आई थिंक, आचार्य जी, एज आई हैव अंडरस्टूड दैट यू मीन। दैट न्यू एजुकेशन शुड बी क्रिएटड, सो दैट पिपल शुड अंडरस्टैंड दीज डिविजंस देयर बाई दीज कनफ्यूजंस ऑफ सब्जेक्टिविटी एण्ड ऑब्जेक्टिविटी कुड बी वाइप्ड आउट। हैव आई लर्नड करेक्टली?

ठीक है, ठीक है न। ऐसी एक संस्कृति की जरूरत है जो बचपन से ही भेद पैदा न करवाती हो, अभेद की तरफ ले जाती हो। सच तो यह है कि बच्चे के मन में पहले भेद नहीं होते। भेद हम सिखाते हैं। यहां तक सच है कि बच्चे को सपने में और सत्य में भी भेद नहीं होता। रात बच्चा सपना देख लेता है तो सुबह रोता है। रात उसके पास खिलौना था सपने में, वह कहां है! अभी बच्चे को यह भी पता नहीं है कि जो सपने में देखा है, वह सपना है, यह जो बाहर देख रहा है यह और है। अभी बच्चे को जो दिखाई पड़ता है, वह एक है। अभी तो बच्चे को कोई भी आदमी दिखाई पड़ता है तो वह अगर अपने पिता को पिता कहता है तो उसको पिता कहेगा। अभी उसे इसका फर्क करना मुश्किल है कि वह पिता नहीं है। अभी इसे यह भी पता नहीं है कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है। अभी उसे कुछ भी पता नहीं है। अभी वह अभेद की दुनिया में है लेकिन यह अभेद अज्ञानपूर्ण है।
एक संत फिर इसी दुनिया में प्रविष्ट होता है, लेकिन तब वह अभेद ज्ञानपूर्ण है। यह अज्ञानपूर्ण है, इसलिए हम इसे खंडित कर देंगे। संत के भेद-अभेद को हम फिर खंडित नहीं कर पाएंगे, क्योंकि वह ज्ञान से आया है। बच्चे अभेद से आते हैं और भेद सिखाया जाता है। जरूरी है, कुछ भेद सिखाने जरूरी हैं। जीवन के लिए उपयोगी है। बताना जरूरी है कि क्या जहर है और क्या अमृत है, और बताना जरूरी है कि कहां दरवाजा है और कहां दीवार है, और यह भी बताना जरूरी है कि कहां हानि है और कहां लाभ है। ये सब भेद बताने जरूरी हैं।
लेकिन इन सब भेद के पीछे भी अभेद का एक भाव उसमें विकसित होता रहे। यानी उसे यह भी पता हो, कभी-कभी जहर अमृत भी होता है और कभी-कभी अमृत जहर भी हो जाता है। उसे यह भी पता हो कि ऐसे वक्त भी हैं जब जहर देने से आदमी बच जाता है, और ऐसा भी हो जाता है कि अमृत भी ज्यादा आ जाए तो जान ले ले। बच्चा बड़ा होगा तो कुछ भेद सिखाने पड़ेंगे। लेकिन वे भेद कामचलाऊ हैं, इसका बोध भी विकसित होना चाहिए और वे भेद हम मनुष्य की सीमाओं को देख कर कर रहे हैं, इसका बोध भी होना चाहिए। और उन भेद के भीतर एक अभेद धारा भी बह रही है। चीजें भीतर से जुड़ी हैं, यह भी उसको विकसित होना चाहिए।
हमारी जिंदगी का इम्पैक्ट आने वाले बच्चे पर इस भांति का होना चाहिए कि उसे जीवन अखंड मालूम पड़े। जैसे उसे यह बाहर और भीतर, सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव ऐसा न मालूम पड़े--ऐसा मालूम पड़े, एक ही जिंदगी है। वह जो मैं खाना खाता हूं तो वही आदमी हूं; जब मैं प्रार्थना करता हूं, तब भी वही आदमी हूं और मेरी प्रार्थना किसी न किसी गहरे मार्ग से मेरे खाने से जुड़ी है, अलग नहीं हो सकती। यह अंतस-सूत्र, उसका बोध में आने लगे उसे, यानी उसे यह पता चलना चाहिए और इस पता चलने में कठिनाई नहीं है, क्योंकि बच्चे को असल में होता ही यह है कि वह खाना खाते वक्त भी वही है और प्रार्थना करते वक्त भी वही है। उसे देख कर अड़चन यह होती है कि पिता खाना खाते वक्त और आदमी होता है, दुकान पर दूसरा आदमी होता है, प्रार्थना करते वक्त तीसरा आदमी हो जाता है। घर में आता है तो और तरह का आदमी हो जाता है और नौकर के सामने और तरह का आदमी हो जाता है। उसकी समझ के यह बाहर होता है।
अगर एक बच्चे को कहा गया है कि पिता को आदर करो, क्योंकि वे वृद्ध हैं, तो वह बूढ़े नौकर को भी आदर करना चाहता है। क्योंकि अगर वार्धक्य, वृद्धावस्था आदर की बात है तो फिर बूढ़ा नौकर भी आदर की बात है। यह हम बड़े की समझ के बाहर हो जाता है। और हम कहते हैं, नहीं ऐसा नहीं है--वृद्ध पिता, यानी अपने पिता को आदर करना है। वह तो नौकर है! और तब हम एक भेद खड़ा कर रहे हैं।
और यह भेद नौकर और पिता में खड़ा नहीं हो रहा है, यह भेद उस बच्चे के भीतर दो चेहरे बना रहा है कि नौकर के साथ और चेहरा रखना है, पिता के साथ और चेहरा रखना है। मंदिर में और ढंग से खड़े होना है, दुकान में और ढंग से बैठना है। दुकान में चालाकी चाहिए, मंदिर में सरलता चाहिए। तो हम उसको इस तरह के खंड सिखा रहे हैं। और इस तरह की पर्तें उसके पास खड़ी होती चली जाएंगी, तो उसे भी धीरे-धीरे ये भेद बड़े पक्के मालूम होने लगेंगे।
असल में इस भांति की व्यवस्था होनी चाहिए सारे शिक्षण की, बचपन से, मां बाप के पास से लेकर स्कूल-युनिवर्सिटी तक, कि उसे निरंतर बीच में चीजें जुड़ी हुई हैं, इसका भाव बना ही रहे! बना ही रहे! हर दो विरोध के बीच भी कोई चीज जुड़ी हुई है भीतर, वह उसे दिखाई पड़ता रहे। और एक बात तो उसके सामने साफ ही हो जानी चाहिए कि मैं अखंड हूं। मेरा बाहर, और मेरा बाहर और भीतर ऐसी दो चीजें नहीं हो सकतीं हैं। जो मैं बाहर हूं, वही मैं भीतर हूं। जो मैं भीतर हूं, वही मैं बाहर हूं। और तब उसके भीतर, जिसको हम कहें अखंड व्यक्तित्व, एक इंडिविजुअलिटी, इंटिग्रेटेड--असल में इंडिविजुअल का मतलब ही यह होता है, इकट्ठा, जो डिविजिबल नहीं है, जिसके खंड-खंड नहीं हैं।
हमारी जो समाज व्यवस्था है, वह पर्सनैलिटी बना देती है, इंडिविजुअलिटी पैदा नहीं कर पाती। वह व्यक्ति को, व्यक्तित्व तो दे देती है, लेकिन व्यक्ति नहीं बना पाती। व्यक्तित्व का मेरा मतलब है और एक व्यक्तित्व नहीं होता, उसके बहुत व्यक्तित्व होते हैं, क्योंकि उसको बहुत खंड बताए गए हैं। और सब खंडों में वह अलग-अलग होता है। और वह सब बाहर से उसके कई परसोना.ज कई तरह के व्यक्तिओं के चिपकाए रखता है वह अपने चारों तरफ। जब जैसी जरूरत होती है, तब वह वैसा आदमी हो जाता है। भीतर उसके पास कोई एक व्यक्ति नहीं होता जो सब स्थितियों में, जो सब परिस्थितियों में, जो सब रूपों में बाहर, भीतर, मंदिर में, दुकान में एकरूप रखता हो।

आई थिंक सर, वी हैव दिस वेरी ओल्ड कल्चर। वी हैव बीन टीचिंग अवर जनरेशंस सिन्स लास्ट मिलियंस ऑफ इयर्स कीपिंग द व्यू ऑफ एम इन लाइफ। नॉउ हाउ इट विल बी पाॅसिबल दैट वी शैल स्टार्ट फ्रॉम दि मीन्स? विल यू प्ली.ज थ्रो सम लाइट ऑन दैट?

ऐसा ही हम सदा से यही करते रहे हैं। लक्ष्य, उद्देश्य, साध्य को प्रथम मानते रहे हैं और उससे हमने आदमी को बहुत तरह की परेशानियों में डाला। पहली तो बात यह है कि साध्य है भविष्य में और हम हैं वर्तमान में। और हम जब भी होंगे, तब वर्तमान में होंगे और साध्य जब भी होगा, तब भविष्य में होगा। साध्य कभी वर्तमान में नहीं हो सकता--होगा ही भविष्य में। और हम भविष्य में नहीं हो सकते, हम जब होंगे, तब वर्तमान में होंगे। तो एक ऐसा टेंशन हम पैदा कर रहे हैं, जिसका कभी मिलन होने वाला नहीं है। और एक ऐसी आदमी के भीतर पागल एंग्जाइटी पैदा कर रहे हैं, जो कभी हल नहीं होगी। क्योंकि उसका साध्य सदा कल होगा और वह आज होगा। और कल और आज का कहीं कोई मेल नहीं होता, क्योंकि कल जब आएगा, तो आज बन जाएगा और साध्य और आगे कल चला जाएगा। और तब एक व्यक्ति जिंदगी भर जैसा है, वैसा ही जीएगा और वह जो साध्य का खयाल है, वह भी साथ में उसको टार्चर करेगा और परेशान करेगा।
अगर एक आदमी हिंसक है तो वह हिंसक रहेगा। और अहिंसा साध्य होगी। और वह कहेगा कि कभी अहिंसक हो जाना है। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, कभी न कभी अहिंसा को उपलब्ध करना है। रहेगा हिंसक, क्योंकि जीना तो आज है और अहिंसा तो कल हो सकती है। तो कल होने वाली अहिंसा को वह कल पर छोड़ता रहेगा, पोस्टपोन करता रहेगा।
तो साध्य ने एक तो खूबी की बात यह की कि हर आदमी को जीवन में जो महत्वपूर्ण है, उसको स्थगित करने की तरकीब दे दी। वह कहता है अहिंसक आज तो हो नहीं सकते, मैं तो हिंसक हूं अभी तो! तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे कोशिश करूंगा, साधना करूंगा, प्रार्थना करूंगा, योग करूंगा, संन्यास लूंगा। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, नहीं तो फिर और अगले जन्म में, तब कहीं जाकर अहिंसक हो पाऊंगा। कोई छोटी चीज तो है नहीं कि आज हो जाए!
तो कल पर टालने की एक सुविधा मिल गई। और जब साध्य कल पर टल गया तो मैं जो आज हूं, वही रहूंगा, मैं क्या कर सकता हूं! इसमें मेरा कसूर भी नहीं है। साध्य आज तो होता नहीं पूरा! तो मैं जो हूं हिंसक, हिंसक रहूंगा। तो इसका मतलब यह हुआ कि आदमी हिंसक है, हिंसक रहेगा, अहिंसा साध्य रहेगी--जिसको अपने मंदिर में लिखेगा, अहिंसा परमो धर्मः--यह परम धर्म है, इसको उपलब्ध करना है। इसको पुराने तीर्थंकर उपलब्ध कर चुके हैं, इसको हमें भी उपलब्ध करना है। वह कहानी भी ऐसी ही लिखता है कि महावीर भी जन्मों-जन्मों में, जन्मों-जन्मों में श्रम करके फिर अहिंसा को उपलब्ध होते हैं। वह अहिंसा जो है वह है भविष्य सदा। और हिंसक मैं हूं अभी। अब मेरा कहना यह है कि साध्य की दृष्टि पहले तो स्थगन देती है, पोस्टपोनमेंट देती है, जो बहुत खतरनाक है।
दूसरी बातः साध्य की दृष्टि एक तरह का सप्रेशन देना शुरू करती है आदमी को, एक तरह का दमन देना शुरू करती है मैं हिंसक हूं और अहिंसक होना है। तो अब मैं क्या करूं? तो हिंसा को दबाऊं, अहिंसा को ओढूं, और क्या उपाय हो सकता है? फिर चूंकि मैं हिंसक हूं तो अहिंसा ओढ़ने में भी मेरी हिंसा तो मौजूद रहेगी। यानी यह बड़े मजे की बात है कि मैं अहिंसक होने में भी हिंसा का पूर्ण उपयोग करूंगा। अगर मुझे अहिंसक होना है, और मुझे लगता है कि पत्नी की वजह से अहिंसक नहीं हो पा रहा हूं तो पत्नी को छोड़ कर भाग जाऊंगा। और पत्नी भूखों मर जाएगी, बच्चे सड़क पर भीख मांगेंगे और मैं अहिंसक हो रहा हूं। और मजा यह है कि मैंने जो यह हिंसक व्यवहार किया है अहिंसक होने के लिए, इसका कोई सवाल नहीं है!
एक बड़े जैन मुनि थे उनकी पत्नी को छोड़ कर, कोई बीस वर्ष बाद वे काशी में हैं। उनकी पत्नी मर गई तो उन्हें वहां खबर मिली, उनको तार मिला, तो उन्होंने कहा, चलो, झंझट खत्म हुई! उनकी जीवन-कथा में यह लिखा हुआ है कि वे महान तपस्वी आदमी थे कि पत्नी के मरने पर भी उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा, कोई दुख प्रकट नहीं किया! इतना ही कहा कि चलो, झंझट मिटी!
तो मुझे कोई उनकी जीवन-कथा देने आया था तो मैंने कहा कि मुझे बड़ी हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि जब बीस साल पहले उस पत्नी को छोड़ कर तुम चले गए थे तो झंझट शेष कहां थी--झंझट कहां शेष थी? यह आदमी बीस साल पहले छोड़ कर चला आया है, इसको झंझट अभी बाकी थी? जिस पत्नी को तुम छोड़ ही चुके, उससे तुम्हारी क्या झंझट थी? और उसके मरने से तुम्हारी झंझट मिटी, तो मैं मानता हूं कि तुम बीस साल निरंतर उसके मरने के लिए भी सोचते रहे होओगे। यह असंभव है। यह आदमी वाइलेंट है, यानी यह आदमी पत्नी को मार भी सकता था, ऐसे इसने मारने की कोशिश भी की है। उसको मरी हुई हालत में छोड़ कर भाग ही आया है और अब बीस साल बाद मरती हुई उस स्त्री के लिए भी यह कहता है कि झंझट मिटी। यह आदमी अति हिंसक भाव का आदमी है। यानी इस मरने के क्षण में भी इसके मन में न करुणा है, न दुख है, न पीड़ा है, न संवेदना है। इसे कुछ भी नहीं है। यह जो बात कह रहा है, यह अत्यंत हिंसा से भरी है और यह आदमी बीस साल से अहिंसक होने की साधना में लगा हुआ है।
हिंसक आदमी अहिंसक होने की कोशिश में करेगा क्या बेचारा? यही कर सकता है कि वह हिंसा का ही उपयोग करेगा। दूसरों के साथ भी हिंसा करेगा, अपने साथ भी कर सकता है। और अक्सर कठिनाई हो जाती है कि जब हम दूसरों के साथ हिंसा करते हैं, तब तो हमें पता चल जाता है, दूसरों को पता चल जाता है, लेकिन हम अपने साथ करते हैं तो पता नहीं चलता। अगर एक आदमी लंबे उपवास करे तो हमें कभी खयाल नहीं होता कि वह आदमी हिंसा कर रहा है। लेकिन अगर मैं किसी आदमी को पकड़ कर कमरे में बंद कर दूं, कई दिन तक भूखा रखूं तो सारे गांव को पता चल जाएगा कि यह आदमी भारी हिंसक है, इसने एक आदमी को कमरे में बंद किया हुआ है और ताला लगाया हुआ है और खाना नहीं दे रहा है उस आदमी को। यह आदमी बहुत दुष्ट है। लेकिन कमरे में ताला लगा कर मैं बंद हो जाऊं, अपने को बंद रखूं और बीस दिन खाना न खाऊं तो गांव भर में खबर पहुंच जाएगी कि यह आदमी महान तपस्वी है। लेकिन, कर मैं वही रहा हूं। फर्क इतना है कि वह मैं दूसरे के साथ कर रहा था, यह मैं अपने साथ कर रहा हूं। इसमें करने वाला और किए जाने वाला दो नहीं हैं, इसलिए भ्रम पैदा होता है।
तो दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूं कि हिंसक आदमी अहिंसा पाने के लिए भी जो करेगा, वह भी तो हिंसा ही करने वाला है, उससे कुछ अहिंसक होने वाला नहीं है। इसलिए मैं कहता हूं कि सवाल इसका नहीं है कि अहिंसा परम धर्म है, सवाल यह है कि आप क्या हैं, क्या कर रहे हैं? इसे समझें, जानें, पहचानें! अगर मैं हिंसा कर रहा हूं, तो मैं पहचानूं कि मैं हिंसक हूं और हिंसक होने का यह भाव-बोध मेरा जितना तीव्र और गहरा हो जाए, यानी जितना मुझे यह दिखाई पड़ने लगे सुबह से सांझ तक कि मैं हिंसक हूं। जब मैं सड़क पर चलता हूं, तब भी मेरी चाल में हिंसा होती है। कोई हिंसा ऐसी नहीं है कि किसी की छाती में छुरा भोंको तभी होती है।
यह तो बहुत ही बोथली बुद्धि के लोगों के खयाल हैं कि किसी की छाती में छुरा भोंको तब हिंसा होती है। वह तो आदमी इस नजर से देख सकता है किसी को कि हिंसा हो जाए छुरा भोंकने से ज्यादा। या यह भी हो सकता है कि न देखे और हिंसा हो जाए। यह कोई सवाल नहीं है कि देखे ही। एक रास्ते पर तुम चले जा रहे हो और मैं तुम्हारी तरफ बिना देखे चला जाऊं और इस तरहजैसे तुम कोई कीड़े-मकोड़े हो, तुम हो ही नहीं--बड़े नेता इसी तरह चलते हैं सड़कों पर! आदमी कीड़े-मकोड़े हैं, उनके आस-पास से निकलने वाले।

डू यू फील, सर, दैट न्यु एजुकेशन एण्ड इंस्टीट्यूशंस ऑफ एजुकेशन व्हिच वी हैव, कैन सर्व दिस परपज?

पहले तो यह एक बात समझ लें कि यह जो मैं कह रहा था अभी कि ज्यादा कीमती यह है कि मैं हिंसक हूं, इसका भाव-बोध मेरा पूर्ण हो जाए। साध्य का सवाल नहीं है--अहिंसा का। क्या मैं हूं--अभी, आज, इसी वक्त। अगर यह मुझे ठीक-ठीक दिखाई पड़ने लगे कि मैं चैबीस घंटे हिंसक हूं, और यह भी ध्यान रहे कि ऐसा नहीं होता कि आप कभी अहिंसक हो जाएं और कभी हिंसक हो जाएं, ऐसा नहीं होता। आपके होने में एक तारतम्य है। आप जो हैं, वही करीब-करीब चैबीस घंटे होते हैं--कभी कम, कभी ज्यादा, कभी दिखाई पड़ते, कभी नहीं दिखाई पड़ते, कभी छिपे, कभी प्रकट, लेकिन आप होते वही हैं।
एक हिंसक आदमी हिंसक ही होगा। वह जब मंदिर में प्रार्थना कर रहा है, उस वक्त भी, अगर हम उसके हृदय को खोल कर देख सकें तो वह हिंसक ही होगा। वह जब किसी को दान दे रहा है तब भी, अगर हम उसके भीतर झांक सकें तो वह हिंसा ही कर रहा होगा। इस दान देते वक्त भी इसकी गरीबी उसके लिए सवाल नहीं होगी। इस दान देते वक्त भी कि मैं दे रहा हूं और तुम ले रहे हो, इस दान देते वक्त भी यह अहंकार रस ले रहा होगा। वह हिंसक आदमी जो भी करेगा, उसमें हिंसा होगी।
तो मेरा कहना यह है कि अहिंसक होने का ध्येय-वेय बनाने की जरूरत नहीं है। वह बहुत पुरानी तरकीब है, कारगर नहीं हुई। और नुकसान पहुंचा है उससे। जरूरत इस बात की है कि मैं क्या हूं, इसको जानूं, पहचानूं। आज क्या हूं! अभी क्या हूं! और अगर इसकी पहचान मेरी बिलकुल साफ हो जाए, बिलकुल साफ हो जाए तो मुझे अहिंसक होने के लिए कुछ करने नहीं जाना पड़ेगा। जितनी मेरी समझ साफ हो जाएगी कि हिंसा मेरे जीवन में चैबीस घंटे खड़ी हुई है, पल-पल, जितनी मेरी समझ ज्यादा तेज हो जाएगी और मुझे दिखाई पड़ने लगेगा।
 जिस पल में मुझे हिंसा दिखाई पड़ने लगेगी कि हिंसा है, उसी क्षण हिंसा असंभव होने लगेगी। हिंसा विदा होने लगेगी। और मेरा उठना, बैठना, खाना, पीना, चलना, बोलना, मिलना--गेस्चर सब बदलने लगेगा। यह मुझे बदलना नहीं पड़ेगा। यह किसी अहिंसा के ध्येय को सामने रख कर मैं बदलूंगा नहीं। यह तो मैं हिंसा को पहचानूंगा और यह बदलाहट शुरू होगी। समझ बदलाहट लाती है। और जैसे-जैसे बदलाहट शुरू होगी, वैसे-वैसे मैं पाऊंगा कि हिंसा विदा हो रही है। और जब हिंसा विदा होती है तो जो शेष रह जाता है, वह अहिंसा है। यानी अहिंसा कोई साध्य नहीं है जो कल कहीं मिल जाएगा। आज मेरे मन के ऊपर की हिंसा विदा हो जाए तो आज अहिंसा उपलब्ध है, इसी वक्त!
अहिंसा कहीं से लानी और कहीं पहुंचनी नहीं है। यानी अहिंसा कोई टाइम गैप का सवाल नहीं है कि मैं दस साल या दस जन्म कोशिश करके वहां पहुंचूंगा। वह कोई मंजिल नहीं है। वह तो मेरी हिंसा आज खत्म हो जाए, तो आज मैं अहिंसक हो गया। और हिंसा कैसे खत्म हो? यह किसी हिंसक साधन से नहीं हो सकती खत्म, जो मैं कह रहा हूं। यह हिंसक साधन है कि एक आदमी उपवास करे और सोचे कि उपवास करने से मैं हिंसा को खत्म कर दूं। अब उपवास खुद ही हिंसक साधन है, टार्चर है, सेल्फ-टार्चर है, आत्म-हिंसा है। तो इससे अहिंसा आ नहीं सकती और न हिंसा खत्म हो सकती है। एक आदमी कहे कि मैं घर-द्वार छोड़ कर, बच्चे छोड़ कर जंगल भाग जाऊं, एक आदमी कहे, मैं सिर के बल खड़ा हो जाऊं, एक आदमी कहे, मैं कांटों पर लेटा रहूंगा--ये सारे आदमी हिंसा के ही साधन का उपयोग कर रहे हैं, इसलिए ये अहिंसक कभी नहीं हो पाएंगे। तब फिर सवाल यह है कि क्या साधन होगा? तो पहली बात हैः समझ प्राथमिक साधन हो, अंडरस्टैंडिंग पहला साधन है।
और अंडरस्टैंडिंग से बड़ा कोई अहिंसक साधन नहीं है जगत में। क्योंकि जिस आदमी की समझ बढ़ती है, उस आदमी के लिए हिंसा असंभव हो जाती है। और समझ इतनी अहिंसक है, इतनी अहिंसक है कि जिसका कोई हिसाब नहीं! क्योंकि समझ इतनी अहिंसक है कि उसके लिए हिंसा असंभव ही है। अगर यह दिखाई पड़ना शुरू हो गया कि यह हिंसा है तो हिंसा गई। बस, वह जो दिखाई पड़ने का क्षण है वही उसके विदा हो जाने का क्षण है। विदा करने के लिए और कुछ करना नहीं पड़ेगा। और दूसरी बात जो तुम कह रहे हो कि क्या आज की शिक्षा व्यवस्था इसके लिए कुछ कर सकती है?
आज की शिक्षा व्यवस्था कुछ भी नहीं कर सकती है। क्योंकि आज की सारी शिक्षा व्यवस्था इसी साध्य को ध्यान में रखकर निर्णीत हुई है। हम बच्चों को साध्य सिखा रहे हैं। हम बच्चों को कह रहे हैं, चोरी मत करना, चोरी नहीं करनी है--अचैर्य, चोरी न करना ध्येय है। वह ध्येय कल है, भविष्य में। आज बच्चे चोरी करेंगे। आज शिक्षक भी चोरी कर रहा है, पिता भी चोरी कर रहा है, मां भी चोरी कर रही है, गांव चोरी कर रहा है, सारी दुनिया चोरी कर रही है। और सब शिक्षा दे रहे हैं कि अचैर्य, चोरी नहीं; चोरी के बाहर जाना, चोरी छोड़ना है! छोड़ेंगे? बच्चा भी कसम खा रहा है कि चोरी छोड़ेंगे। लेकिन जिस क्षण यह कसम खाई जा रही है कि चोरी छोड़ेंगे, उसी क्षण चोरी स्वीकृत कर ली गई। चोरी जारी रहेगी। क्योंकि वह कह रहा है कि छोड़ेंगे। वह एक झूठ है जो कल होगा। आज तो सवाल नहीं है न! आज तो चोरी करनी ही पड़ेगी, क्योंकि सारी दुनिया चोरी कर रही है। चोरी के बिना जीया नहीं जा सकता। शिक्षक भी कहता है, आज तो करनी ही पड़ेगी, आज तो करनी ही पड़ रही है। लेकिन छोड़नी चाहिए, यह मनुष्य जीवन का लक्ष्य है। मनुष्य जीवन के लक्ष्य बड़ी बेईमानी की बातें हैं।
मनुष्य जीवन जैसा आज है, उसकी खोज-बीन--तो एक ऐसी नई शिक्षा व्यवस्था चाहिए, जो बच्चे को यह न कहती हो कि झूठ मत बोलो। जो बच्चे को यह कहती हो कि जब तुम झूठ बोलो तब जागो, पहचानो कि तुम झूठ बोल रहे हो और इससे घबराने की, भागने की कोई जरूरत नहीं है। बस इसको तुम जानो कि तुम झूठ बोल रहे हो। इसको तुम पहचानो, और हम तुम्हारे लिए सहयोगी बन सकें, कि तुम पहचान सको कि तुम झूठ बोले, बात खत्म हो गई। हमें तुम्हें कुछ और कहना नहीं है। यह भी नहीं कहना है तुम मत बोलो, कि तुम छोड़ो, यह सवाल नहीं है। तुम सिर्फ पहचान सको, तुम्हारी सेंसिटिविटी इतनी बढ़ जाए कि ऐसा न हो कि तुम झूठ बोलो और तुम्हें पता भी न चले कि तुम झूठ बोल गए हो। यही हो रहा है। यह हो रहा है कि आदमी को पता ही नहीं चलता है कुछ!
एक आदमी रास्ते पर मिलता है, हम उससे पूछते हैं कि कहिए, सब मजा है? फलां आदमी तो नहीं दिखा? हां, वह कहेगा कि कल ही मिला था, और वह आदमी है ही नहीं बस्ती में। और यह आदमी का कोई प्रयोजन नहीं है। यानी इस आदमी का प्रयोजन भी नहीं है कि इसका कोई हित हो रहा है, कि इसका कुछ अहित हो रहा है--यह सहज बोल रहा है, यानी इस बोलने में कोई स्वार्थ भी नहीं है। मगर शायद इसे बोध ही नहीं है--इसे बोध ही नहीं कि यह क्या बोल रहा है, क्यों बोल रहा है? कुछ कारण हैं जिनकी वजह से यह बोल रहा है। कुछ कारण हैं जिनकी वजह से यह बोल रहा है। और उन कारणों का सीधा इसको पता भी नहीं होगा, खयाल भी नहीं होगा।
मेरे एक प्रोफेसर थे। कभी भी मैं कुछ--किसी किताब की बात करता तो वह फौरन कहते, हां! यह किताब बहुत बढ़िया है। यह मैंने पढ़ी है। मुझे थोड़े दिन में शक होना शुरू हुआ, क्योंकि अगर उन्होंने वह किताब पढ़ी थी तो उस संबंध में बात तो वे कभी कुछ नहीं कर पाते थे, न करते थे। लेकिन ऐसी कोई किताब न थी जो उन्होंने न पढ़ी हो। तो एक दिन मैं गया और मैंने एक बिलकुल ही झूठे आदमी का नाम लिया जो है ही नहीं, न जिसने कोई किताब लिखी। तो मैंने उनसे कहा कि आपने एक रूसी बोर्नाकोफ दार्शनिक हुआ--उसे शायद, उन्होंने कहा, हां, मैं सब देखा। बहुत बढ़िया है, लेकिन बीस साल पहले देखा। तो मैंने उनसे कहा कि यह तो कभी हुआ नहीं आदमी, बीस साल क्या, बीस करोड़ साल पहले भी नहीं हुआ, और हुआ ही नहीं इसलिए लिखने का सवाल ही नहीं। इसने एक लाइन नहीं लिखी। और मैं सिर्फ इसलिए आपसे पूछा हूं कि मुझे ऐसा कई बार लगता है कि आपने पढ़ी नहीं है किताब, सिर्फ आप हां भरते हैं। क्योंकि आपको यह स्वीकार करना ही कष्टपूर्ण है कि ऐसी भी कोई किताब हो सकती है, जो आपने नहीं पढ़ी है!
वह अहंकार भीतर बाधा देता है। लेकिन उनको कुछ पता नहीं है। यानी वह इतना आदी हो गए हैं कि ऐसा कहना गलत है कि वह जान कर झूठ बोल रहे हैं। यह बिलकुल सहज हिस्सा हो गया है, उनके खून का हिस्सा है। मतलब झूठ उनसे निकलता है।
तो सवाल यह नहीं है कि हम सिखाएं किसी को कि तुम झूठ मत बोलो। सवाल यह है कि हम उसे जगाएं कि जब तुम झूठ बोलते हो, तब तुम जानो। इससे ज्यादा हमें कोई मतलब नहीं है, क्योंकि मेरा मानना यह है कि जानते हुए झूठ बोलना असंभव होता चला जाता है। क्योंकि धीरे-धीरे उसकी एब्सर्डिटी, बेवकूफी, नासमझी, अज्ञान दिखाई पड़ता है और धीरे-धीरे उससे होने वाला अहित दिखाई पड़ता है। और धीरे-धीरे उससे पैदा होने वाला चक्कर दिखाई पड़ता है, क्योंकि एक झूठ फिर और झूठ पैदा करता है, फिर और झूठ पैदा करता है। फिर उनको बचाने में झूठ ही झूठ हो जाता है। फिर हम एक ऐसे जाल में घिर जाते हैं, जिससे निकलना मुश्किल हो जाता है।
दूसरी मजे की बात यह है कि झूठ बोलने से दूसरे को नुकसान पहुंचता ही है, पहुंचेगा ही, खुद को भारी नुकसान पहुंचता है, क्योंकि ऐसा आदमी धीरे-धीरे सत्य को जानने में असमर्थ हो जाता है। और ऐसा आदमी कुछ मानवीय अर्थों में इतना कमजोर हो जाता है, जिसकी हम कल्पना ही नहीं करते। जो आदमी झूठ बोलता है, वह कभी यह मान ही नहीं सकता कि कोई आदमी सच बोलता है। वह आदमी कभी किसी पर भरोसा नहीं कर सकता। वह कभी किसी को मित्र नहीं बना सकता। कह कभी किसी बात को सरलता से नहीं ले सकता। उसके भीतर की जो मनुष्य होने की संभावना है, वह क्षीण हो जाएगी। यह अगर सब दिखाई पड़े, झूठ की पूरी व्यवस्था कि वह हमें कहां ले जाएगा, क्या कर रहा है, क्या हो रहा है हमारे भीतर, क्या फल पा रहे हैं, क्या दूसरे के साथ कर रहे हैं--यह पूरा का पूरा इम्पैक्ट हो जाए मस्तिष्क पर तो कोई आदमी झूठ बोलने को राजी नहीं होगा।
और फिर मजे की बात यह है कि हम यह तो सिखाते हैं कि झूठ मत बोलो, लेकिन हम कभी यह नहीं सिखाते उसको कि झूठ आदमी बोलता क्यों है? जो ज्यादा बुनियादी और जरूरी बात है कि यह झूठ के जो विभिन्न हजार रूप हैं, आदमी क्यों बोलता है झूठ? और बड़े मजे की बात है, एक तरफ शिक्षा शास्त्री कहता है कि झूठ मत बोलो और दूसरी तरफ जिन कारणों से आदमी झूठ बोलता है, वह सिखाए चले जाता है!
जैसे--झूठ का बुनियादी कारण भय है। भय की वजह से आदमी झूठ बोलता है। अगर दुनिया में चाहिए कि झूठ न हो, तो भय खत्म करो। तो शिक्षक डंडा लिए खड़ा है, और लड़कों से कह रहा है कि झूठ मत बोलना, झूठ बोले तो सिर खोल दूंगा! अब इस आदमी को पता ही नहीं कि यह क्या कह रहा है। यानी एक आदमी डंडे से भय दिखला रहा है और दूसरी तरफ कह रहा है, झूठ मत बोलना, सिर खोल देंगे तुम्हारा! इसको पता ही नहीं है कि यह क्या कर रहा है। इसका डंडा तो उसको झूठ बोलने को मजबूर कर देगा। यह कहने वाला था कि गुल्ली-डंडा खेल रहा था लड़का और यह कहता है कि मैं पिता की दवा लेने गया था अस्पताल में, इसलिए स्कूल आने में देर हो गई है। और यह डंडे की वजह से कह रहा है। और यह आदमी कह रहा है, झूठ बोलना मत, नहीं तो मैं सिर खोल दूंगा। इसको पता ही नहीं है कि झूठ मत बोलना, यह एक दूसरी ही उलटी बात है और डंडा बिलकुल उलटी बात है।
अगर चाहिए कि शिक्षक कहता है कि झूठ मत बोलो तो शिक्षा के क्षेत्र से सारे भय को विसर्जित कर दो। लोगों को अभय करो। उनको इतना हिम्मतवर बनाओ कि वह कोई भी तकलीफ झेलने को तैयार हो जाएं आनंद से। लेकिन झूठ की तकलीफ झेलने को राजी न हों।
एक उपन्यास मैंने पढ़ा। उसमें एक पात्र है। एक बड़ी अदभुत कहानी है। उस पात्र ने एक आदमी को छुरा मार दिया और वह आदमी अपरिचित था, यह उसको जानता ही नहीं था। समुद्र के किनारे दोनों धूप ले रहे थे रेत पर लेटे हुए, अचानक यह आदमी उठा और उसकी पीठ में जाकर छुरा भोंक दिया। इसने उसका चेहरा भी कभी नहीं देखा। देखा ही नहीं था चेहरा, पीठ की तरफ से छुरा भोंका था। फिर उस पर अदालत में मुकदमा चलता है तो वह आदमी यह कहता है कि बस मेरी जिंदगी में कुछ ऐसा लगता था कि कुछ भी मैंने नहीं किया, कुछ भी मैंने नहीं किया। मैं कुछ कर ही नहीं पाया, जिंदगी बिलकुल बेकार चली गई। अखबार में एक दफा नाम भी नहीं छपा। अचानक रेत पर लेटे हुए इसकी पीठ चमक रही थी धूप में और मेरा मन हुआ कि इसको छुरा भोंक दूं, एक दफा अखबार में नाम भी छप जाएगा, चर्चा भी हो जाएगी। अब हमने कुछ किया। यह अपने को भी लगेगा कि कुछ हुआ--थ्रिलिंग, कुछ कर लिया। बस इसलिए छुरा मार दिया, और तो कोई कारण नहीं है।
कोई नहीं मानता, अदालत नहीं मानती, कोई नहीं मानता कि दुनिया में कभी किसी आदमी ने ऐसा...तो अदालत उसको धमकी देती है कि तुमको फांसी की सजा हो जाएगी। तो वह कहता है यह तो सवाल ही नहीं है, जो आपको करना हो करें, लेकिन बात इतनी ही है, इससे ज्यादा नहीं है। तो फिर अब उसको दूसरे गवाह खोजने पड़ते हैं कि कोई और रास्ते से यह आदमी... क्योंकि यह तो मानने योग्य ही नहीं मालूम होता कि कोई आदमी किसी की पीठ पर छुरा मार दे, अकारण।
तो एक गवाह आकर कहता है कि इसकी मां मर गई थी तो उसी दिन रात को मैंने इसको थियेटर में देखा। सुबह मां मरी और रात यह थियेटर में था, और नाच देख रहा था! अदालत उससे पूछती है कि तुम थियेटर में थे और नाच देख रहे थे, जिस दिन तुम्हारी मां मरी थी? उसने कहा, हां, उस दिन मैं नाच देख रहा था, क्योंकि मैंने यह सोचा कि मां तो मर ही गई, अब तो मैं कभी भी थियेटर में जाऊंगा तो मां के मरने के बाद ही जाऊंगा। अब तो कोई उपाय ही नहीं है। मां के मरने के पहले थियेटर में अब कैसे जा सकता हूं। यानी अब तो मैं कभी भी जाऊंगा तो मां के मरने के बाद ही जाऊंगा। वह घटना तो अब बाद में होने वाली है। तो दिन के बाद होती है, कि दो दिन के बाद, कि तीन दिन के बाद, मुझे बेमानी मालूम पड़ती है और अगर मां मरने के बाद लोग थियेटर में न जाएं तो थियेटर कभी का खत्म हो जाएगा। क्योंकि किसकी मां नहीं मरती है? सबकी मां मरती है।
तो वह अदालत यह मान रही है कि नहीं, यह आदमी खतरनाक है, यह मां के मरने के बाद शाम को थियेटर देख रहा था, नाच देख रहा था। उस आदमी ने कहा, साहब, मैं टिकट पहले ले चुका था। वह तो ठीक है, लेकिन तुम उसी दिन देख रहे थे, मां के मरने के बाद। उसने कहा, अब तो मैं कभी भी देखूंगा तो मां के मरने के बाद ही देखूंगा। लेकिन वह आदमी इनकार नहीं करता। वह कहता है, हां मैं देख रहा था। किसी आदमी ने उससे कहा कि भाई, बहुत दुख तुमको हुआ होगा, मां मर गई। तो दूसरे आदमी ने गवाही दी कि वहां अदालत में कि मैंने इससे कहा कि तुम्हारी मां मर गई तो बहुत दुख हुआ होगा। तो इसने कहाः हां, बहुत दुख हुआ। क्योंकि रात भर सो नहीं सका, मां मर गई तो उसके पास बैठे रहना पड़ा। रात भर सो नहीं सका।
तो अदालत से वह गवाह कहता है कि यह आदमी बड़ा खतरनाक है। वह आदमी कहता है कि मैं सच कह रहा हूं कि पहले तो मुझे मां के मरने का दुख ज्यादा हुआ था, लेकिन थोड़ी देर बाद मुझे नहीं सोने का दुख ज्यादा हुआ कि रात भर खराब हुई जा रही है। मां तो मर ही चुकी, अब यानी दुख जो होना था, हो ही चुका, अब यह रात भर मेरी और खराब हो रही है।
तो वह अदालत का मजिस्ट्रेट उससे कहता है कि कम से कम तू झूठ तो बोल--उससे वह यह कहता है कि कम से कम तू झूठ तो बोल, मूर्ख! तू ये बातें मत कर, तू इतनी सच्ची बातें कहे चला जा रहा है कि इन पर कोई विश्वास नहीं करेगा, क्योंकि यह दुनिया पूरी की पूरी झूठ पर खड़ी है। वह मजिस्ट्रेट की आंख में आंसू आ गए। वह कहता है कि ऐसा आदमी मैंने देखा ही नहीं। वह कहता है कि पहले मुझे यही दुख हुआ था कि यह मां मर गई, लेकिन घंटे भर के बाद मुझे यही दुख होने लगा कि रात खराब हुई जा रही है। अब मैं इसमें क्या कर सकता हूं। हुआ यही था, सचाई यह है!
असल में हम एक तरफ सिखाते हैं कि झूठ मत बोलो, और दूसरी तरफ हम जो सब सिखाते हैं, वह आदमी को झूठ बोलने के लिए भय सिखाते हैं। अगर हमें चाहिए कि हम आदमी को सच बोलने की तरफ ले जाएं, और सच बोलना बड़ा आनंदपूर्ण है तो हमें बिलकुल ही दूसरी धारणाएं साथ में खड़ी करनी पड़ेंगी। अभय सिखाना होगा और सत्यों को सीधा स्वीकार करना पड़ेगा। सीधा स्वीकार करना पड़ेगा। सत्य इतने कठोर हैं कि हालांकि दुनिया कहती रही है कि सत्य बोलो, लेकिन दुनिया अभी भी राजी नहीं है सत्य के लिए। सत्य इतने कठोर हैं, इतने निर्मम हैं, इतने निष्ठुर हैं।
एक आदमी आपके घर आता है, और आप परेशानी में पड़ गए हैं, लेकिन आप कहते हैं कि बड़ा सौभाग्य हुआ कि आप आए। और वह भी आदमी जानता है कि सौभाग्य बिलकुल नहीं हुआ है। वह भी जानता है। आप भी उसके घर जाते हो तो जो होता है, वह जानता है और वह भी कहता है कि बहुत सौभाग्य हुआ।
एक झूठा जगत हम खड़ा किए हुए हैं, जिसमें सच बोलने को हमने ध्येय बनाया हुआ है। और जगत पूरा झूठा खड़ा किए हुए हैं। जो स्ट्रक्चर हमने बनाया है, वह सारा का सारा झूठ पर है। सच को हम स्वीकार न करेंगे। रास्ते पर एक पति अपनी पत्नी से कहे चलते वक्त कि वह जो स्त्री जा रही है, वह मुझे इस वक्त बहुत प्यारी लग रही है--हालांकि स्त्री रास्ते पर चलते हुए प्यारी लग सकती है, लगती है। लेकिन अपनी पत्नी से वह नहीं कह सकता। और व्यवस्था हमने यह की है कि सत्य बोलो!
अच्छी दुनिया वह होगी जहां हम बच्चों को इसके लिए राजी करेंगे। हम उनको इसके लिए राजी करेंगे कि लड़की को यह जानना चाहिए कि वही अच्छी लगे, यह जरूरी नहीं है। वह पत्नी हो जाएगी, तब भी उसके पति को कोई और भी अच्छा लग सकता है। और यह एक अदभुत घटना होगी और अत्यंत प्रेमपूर्ण होगी कि पति कह सके कि मुझे वह स्त्री बहुत प्यारी लग रही है। और पत्नी इसे सुन सके और समझ सके और दया कर सके पति पर और करुणापूर्ण हो इस स्थिति में, तो ही पत्नी है, तो ही उनके बीच प्रेम है। कल पत्नी भी कह सकती है कि मुझे किसी से...
एक घटना घटी। बंबई में एक महिला मेरे पास आई, कोई चार वर्ष हुए। और उसने आकर मुझे कहा कि मैं बहुत परेशानी में हूं और परेशानी यह है कि पति मुझे इतना प्रेम करते हैं कि जिसका हिसाब नहीं। उनके प्रेम का कोई अंत नहीं है। और मैं उनको कभी प्रेम नहीं कर सकी। और मेरा प्रेम तो जिससे शादी होने के पहले था, उससे आज भी है। मिलना नहीं है, जुलना नहीं है, वह आदमी अफ्रीका है। कभी चार-छह वर्ष में एक दिन, दो दिन के लिए वह आदमी आता है। और पति मुझे इतना प्रेम करते हैं और यह मुझ पर भार होता चला गया। पति मुझे इतना प्रेम न करें तो ठीक है। मैं प्रेम कर ही नहीं पाती हूं और मेरे मन में वह चित्र उस आदमी का अभी भी मौजूद है--मैं क्या करूं? मुझे उस आदमी से कुछ मतलब नहीं है अब, न कोई प्रयोजन है, न यह सवाल है। यानी अगर आज मुझे कोई कहे भी कि वह आदमी तुम्हें मिल जाए तो तुम इस पति को छोड़ दोगी तो छोड़ भी नहीं...यह भी सवाल नहीं है! और इस पति पर मुझे भारी दया मालूम होती है, लेकिन प्रेम नहीं है, मैं क्या कर सकती हूं, और वह भारी रोने लगी।
मैंने उसको कहा कि तू अपने पति को कह, पूरी बात कह। तेरा मन हलका होएगा। उसने कहाः वे क्या सोचेंगे? कि वे मुझे इतना प्रेम किए हैं, और बीस साल हमारी शादी हुए हो चुके हैं। यानी, यह कोई आजकल की बात नहीं है, लेकिन चित्त तो मेरा वही है, घिरा ही हुआ है। वहीं घिरा हुआ है। फिर भी मैंने उसे समझाया कि तू अपने पति को कह कि यह बड़े प्रेम की बात है। उसने अपने पति को सारी बात कही। यह सब संभव है, इसमें ऐसा कुछ असंभव नहीं है। और पति तुझे प्रेम करते हैं तो समझेंगे फिर चूंकि वे मेरे पास आते हैं, मैं जानता हूं वे समझेंगे। उसने जाकर बड़े डर से, बड़ी मुश्किल से वह राजी हुई कि मैं जाकर कहूंगी। उसने अपने पति को जाकर कहा।
पीछे मुझे मिली, जब मैं दुबारा गया तो उसने मुझे कहा कि हैरानी की घटना घटी। मैं तो यह सोचती भी नहीं थी। जब मैंने यह सारी बात उन्हें कही, उस दिन के बाद उनका जो मेरे प्रति प्रेम है, वह अदभुत हो गया, बहुत ही और हो गया। इतने समीप हम कभी भी नहीं थे, और मैं अपनी बात कह कर हलकी हो गई। फिर वह आदमी आया तो उसके पति उसको घर लाकर ठहराए। वह आदमी आया तो उसको घर लाकर ठहराए! सात दिन उनके घर ही था वह आदमी और उनकी पत्नी ने मुझे कहा कि सात दिन उन्होंने इस भांति कोशिश की कि हम कितने पास बैठ सकें, कितनी बात कर सकें, कितने मिल सकें और इन सात दिनों में वह आदमी विदा हो गया मेरे चित्त से। और मेरे पति की मूर्ति स्थापित हो गई जो बीस साल में नहीं हो सकी थी। इन सात दिनों में उन्होंने पूरी कोशिश यह की है कि हम कितने करीब रह सकें। वह घर के बाहर ही ज्यादातर रहे, ताकि हम जितना निकट रह सकें। लेकिन उस आदमी की तस्वीर मेरी विदा हो गई। क्योंकि वह जो सब मैंने सोच रखा था, वह तो कल्पना में ही था, वह आदमी तो साधारण था। और पति में मैंने कभी नहीं देखा था, क्योंकि वह मैंने देखने की कोशिश ही नहीं की थी, जो था उस आदमी में। वह मुझे अब प्रकट हुआ कि कितना उनका प्रेम है।
मगर सत्य के बोलने का अर्थ हम नहीं सिखा पाते हैं। अब मैं यह मानता हूं कि इस सच को बोलने से उनकी जिंदगी में जो घटना घटी है, वह उस झूठ का आवरण रहते कभी नहीं घटने वाली थी, वह आवरण वैसे ही बना रहता। वह खत्म हुआ, वह आदमी विदा हो गया, उसके चित्त से, वह बात गई, क्योंकि उससे भी महत्वपूर्ण और अदभुत आदमी उसके निकट आ गया। वह रेसिस्टेंस चला गया और चीजें साफ हो गईं और पति और उसके बीच अब एक दीवाल नहीं है। अब हलकापन है, एक अपराध नहीं है बीच में, एक घाव भी नहीं है, कुछ छिपाया है, ऐसा नहीं है बीच में। क्योंकि जब हम कुछ छिपाते हैं तो वह बोझ बन जाता है।
तो मेरा मानना यह है कि हमारी जो सारी की सारी व्यवस्था है, वह तो झूठ पर खड़ी हुई है। उसमें तो कहीं हम सच को जगह नहीं देते और लक्ष्य सत्य का बनाए हुए हैं! और इसी तरह हमारी सारी व्यवस्था है हिंसा पर खड़ी है, लक्ष्य अहिंसा का है। सारी व्यवस्था बेईमानी की है, ईमानदारी की बात करते हैं! बल्कि यह हो गया आखिर में कि जितनी बड़ी बेईमानी करनी हो, उतना बड़ा ईमानदारी का बोर्ड लगाना चाहिए।
वह जो लिखे हुए हैं दरवाजे पर कि ईमानदारी ही धर्म है, वह उतनी बड़ी बेईमानी पीछे कर सकते हैं। यानी ईमानदारी का उपयोग भी बेईमानी के लिए ही होगा। मगर हमारे खयाल में यह नहीं आता है कि यह हुआ इसलिए है कि हमने लक्ष्य को भविष्य में रख दिया है।
मैं ऐसी शिक्षा चाहता हूं, जहां रोज की जिंदगी ही लक्ष्य है। भविष्य कुछ है नहीं। आज जो जी रहा हूं, वही सब कुछ है। इसको जानूं, समझूं, पहचानूं और इसको पहचानने, जानने, समझने में, कैसी हवा चारों तरफ सहयोगी होगी, वह हवा हम शिक्षा संस्थाओं में दें। वह हवा वहां बनाएं जो सच बोले, उसको हम आदर करें, चाहे सच कितना ही कठोर हो। चाहे सच कितना ही निर्मम हो और चाहे सच कोई भी नग्नता को प्रकट करता हो, लेकिन सच आदृत होगा--सच ही आदृत होगा। सच का आदर बढ़े, सच की प्रतिष्ठा हो, और सच कैसे समझा जाए और कैसे हम पहचानें कि कहां हम झूठ को पकड़ते हैं, क्यों पकड़ते हैं, उसकी समझ, उसकी पहचान बढ़ने की सारी साधनाएं पहले दिन से शिक्षा के--न भूगोल इतनी महत्वपूर्ण है, न गणित, न केमिस्ट्री, न फिजिक्स, जितनी एक मेडिटेटिव अवेयरनेस, ध्यानपूर्ण चित्त जो कि एक-एक चित्त के आज जो चित्त है, उसको समझने में सहयोगी होता चला जाए। और मजा यह है कि जितनी हमारी गहरे में समझ बढ़ती है, उतना ही रूपांतरण हो जाता है।
समझ साधन है और समझ से बड़ा कोई साधन नहीं है।

शिक्षाः साध्य और साधन विषय पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-1

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