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बुधवार, 16 मई 2018

काहे होत अधीर-(प्रवचन--02)

अमृत में प्रवेश—(प्रवचन—दूसरा)
दिनांक 12 सितम्‍बर सन् 1979;
ओशो आश्रम पूना।

प्रश्न-सार :

1—कोई तीस वर्ष पूर्व, जबलपुर में, किसी पंडित के मोक्ष आदि विषयों पर विवाद करने पर दद्दाजी ने कहा था कि शास्त्र और सिद्धांत की आप जानें, मैं तो अपनी जानता हूं कि यह मेरा अंतिम जन्म है।
एक और अवसर पर कार्यवश वे काशी गए थे। किसी मुनि के सत्संग में पहुंचे। दद्दाजी को अजनबी पा प्रवचन के बाद मुनि ने पूछा, आज से पूर्व आपको यहां नहीं देखा!
कहा, हां, मैं यहां का नहीं हूं।
पूछा, आप कहां से आए हैं और यहां से कहां जाएंगे?
कहा, निगोद से आया हूं और मोक्ष जाऊंगा।
पांच वर्ष पूर्व हृदय का दौरा पड़ने पर, मां को चिंतित पाकर उन्होंने कहा था, चिंता न लो। अभी पांच वर्ष मेरा जीवन शेष है।
उनकी इन उद्घोषणाओं के रहस्य पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

2—संत रज्जब, सुंदरो और दादू की मृत्यु की कहानी मेरे लिए बड़ी ही रोमांचक रही। परंतु मेरे गुरु और हमारे प्यारे दादा, जो मेरे मित्र भी थे, उनकी मृत्यु के समय की आंखों देखी घटना का अनुभव मेरे लिए उससे भी कहीं अधिक रोमांचकारी हुआ। इससे मेरी आंखें मधुर आंसुओं से भर जाती हैं।



पहला प्रश्न:

भगवान! कोई तीस वर्ष पूर्व, जबलपुर में, किसी पंडित के मोक्ष आदि विषयों पर विवाद करने पर दद्दाजी ने कहा था कि शास्त्र और सिद्धांत की आप जानें, मैं तो अपनी जानता हूं कि यह मेरा अंतिम जन्म है।
एक और अवसर पर कार्यवश वे काशी गए थे। किसी मुनि के सत्संग में पहुंचे। दद्दाजी को अजनबी पा प्रवचन के बाद मुनि ने पूछा, आज से पूर्व आपको यहां नहीं देखा! कहा, हां, मैं यहां का नहीं हूं। पूछा, आप कहां से आए हैं और यहां से कहां जाएंगे? कहा, निगोद से आया हूं और मोक्ष जाऊंगा।
पांच वर्ष पूर्व हृदय का दौरा पड़ने पर, मां को चिंतित पाकर उन्होंने कहा था, चिंता न लो। अभी पांच वर्ष मेरा जीवन शेष है।
भगवान, उनकी इन उद्घोषणाओं के रहस्य पर प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।

योग भक्ति! हम सभी यहां अजनबी हैं। यहां घर किसी का भी नहीं है। सराय में टिके हैं। लेकिन काफी देर से टिके हैं, इससे भ्रांति होती है कि जैसे सराय हमारा घर है।
संसार सराय है, घर नहीं। हमारा आना किसी और लोक से है। और हमें जाना भी किसी और लोक है। जो इतना स्मरण रख सके, वह सराय में भी रहे तो भी सराय उसे छूती नहीं है। वह जल में कमलवत हो जाता है। और जल में कमलवत हो जाना ही संन्यास है। संसार छोड़ कर भागते हैं नासमझ; संसार के साथ तादात्म्य कर लेते हैं नासमझ। समझदार न तो तादात्म्य करता है, न भागता है। जाग कर इतना ही जानता है कि यह हमारा घर नहीं है। रात भर का बसेरा है, रैन-बसेरा; सुबह हुई, उड़ जाएंगे। ऐसी प्रतीति सतत बनी रहे, ऐसा भाव सघन होता रहे, तो समाधि दूर नहीं है, तो मोक्ष दूर नहीं है, तो परमात्मा दूर नहीं है।
उन्होंने ठीक ही कहा था पूछे जाने पर मुनि के द्वारा कि मैं यहां का नहीं हूं। सीधे-सादे शब्द हैं। दोहरा अर्थ हो सकता है। पहला अर्थ ही मुनि ने पकड़ा होगा, क्योंकि दूसरा अर्थ पकड़ सकते तो मुनि ही न होते। दूसरा अर्थ पकड़ सकते तो मुनि होने की कोई जरूरत न थी। सोचा होगा इस गांव के नहीं हैं। इसलिए पुनः पूछा कि कहां से आए हैं और कहां जाएंगे? अन्यथा पूछने की जरूरत न थी। पहले उत्तर में बात हो गई थी।
जैन दर्शन की भाषा में निगोद है वह अंधकारपूर्ण रात्रि जिससे हम आ रहे हैं और मोक्ष है वह प्रकाशोज्ज्वल प्रभात जिसकी ओर हम जा रहे हैं। जैसे उपनिषद के ऋषियों ने प्रार्थना की है: तमसो मा ज्योतिर्गमय! जिसे उन्होंने तमस कहा है उसे ही महावीर ने निगोद कहा है। और जिसे उन्होंने ज्योति कहा है, ज्योतिर्मय कहा है, उसे ही महावीर ने मोक्ष कहा है, परम मुक्ति कहा है।
प्रकाश मोक्ष है, अंधकार बंधन है। अंधकार इसलिए बंधन है कि अंधकार में अहंकार निर्मित होता है। अंधकार बंधन है, क्योंकि अंधकार में हम जो भी करते हैं गलत होता है। चाहते हैं दरवाजा मिले, दीवाल मिलती है। राह खोजते हैं, टकराते हैं। जिनको प्रेम भी देना चाहते हैं उनसे भी कलह ही होती है, प्रेम कहां! पुण्य करने जाते हैं, पाप होता है।
देखते हो, कोई पुण्य के लिए मंदिर बनाता है तो भी मंदिर पर तख्ती लगा देता है अपने नाम की! वह मंदिर परमात्मा का नहीं रह जाता। वह मंदिर उसके ही अहंकार का आभूषण हो जाता है। तुम्हें देश के कोने-कोने में बिरला मंदिर मिलेंगे। वे कृष्ण के मंदिर नहीं, राम के मंदिर नहीं--बिरला के मंदिर हैं। बिरला मंदिर का क्या अर्थ होता है? मंदिर राम का हो, कृष्ण का हो, अल्लाह का हो, ठीक है। लेकिन मंदिर उसका नहीं है जो भीतर विराजमान है; मंदिर उसका है जिसके नाम का पत्थर लगा है! करने गए थे पुण्य, हो गया पाप; क्योंकि अंधकार में हम जो भी करेंगे उसमें भ्रांति सुनिश्चित है।
महावीर से किसी ने पूछा है, मुनि कौन है? तो महावीर ने कहा, असुत्ता मुनि। जिसकी नींद टूट गई है, जो अब सो नहीं रहा है, जो होश में आ गया है वह मुनि। असुत्ता मुनि! इससे प्यारा सूत्र खोजना कठिन है। एक सूत्र में सारे शास्त्रों का सार आ गया, सारे ध्यानियों का उपदेश आ गया, सारे ज्ञानियों की सुगंध आ गई। असुत्ता मुनि! सीधा साफ है; व्याख्या की भी कोई बात नहीं है। जो नहीं सोया है वह मुनि।
फिर पूछने वाले ने पूछा, फिर अमुनि कौन है? तो महावीर ने कहा, तुम खुद ही गणित बिठा लो। सुत्ता अमुनि। जो सोया है वह अमुनि है।
महावीर ने नहीं कहा कि जो नग्न होकर, घर-द्वार छोड़ कर जंगल चला गया है वह मुनि है। महावीर ने कहा, जिसने नींद छोड़ दी। यह ठीक-ठीक व्याख्या हुई, ठीक-ठीक परिभाषा हुई। महावीर ने यह भी नहीं कहा कि जो जैन धर्म का पालन करे वह मुनि है। जो भी जाग जाए, फिर वह मुसलमान हो, कि ईसाई हो, कि हिंदू हो, कि ब्राह्मण हो, कि शूद्र हो; कोई भेद नहीं पड़ता। फिर स्त्री हो कि पुरुष हो, कोई भेद नहीं पड़ता। जागने की बात है। सोए हुए सब अमुनि हैं। कोई सोए-सोए भाग भी सकता है।
तुमने कई बार सोने में भी अपने को भागते देखा होगा--नींद में भी! अक्सर देखा होगा। लेकिन नींद में भागा हुआ आदमी कहीं भाग पाता है? जाएगा कहां? जिस खाट पर पड़ा है उसी खाट पर सुबह अपने को पाएगा। रात भर भागते रहो, ट्रेनों में सवार होओ, हवाई जहाजों में यात्राएं करो; सुबह जब आंख खुलेगी तो पाओगे जहां थे वहीं हो। नींद में भागने से भी कोई कहीं पहुंचता नहीं।
और मजा ऐसा है कि जागने वाले को इंच भर भी चलना नहीं होता--और पहुंच जाता है! क्योंकि जो जागा उसने जाना कि जागने में ही परमात्मा है। जागते ही मैं परमात्मा हूं। सोते ही मैं अहंकार हूं। जागते ही मैं आत्मा हूं।
मुनि समझे नहीं होंगे। मुनियों की बहुत समझ होती नहीं। मैंने बहुत मुनियों को देखा है। मुनि और समझदार, ये दोनों बातें एक साथ मिलती नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक कब्रिस्तान से निकलता था और एक कब्र पर उसने एक तख्ती लगी देखी। चौंक कर खड़ा हो गया, अपने साथी से कहा कि नहीं-नहीं, यह नहीं हो सकता। साथी ने पूछा, क्या नहीं हो सकता? उसने कहा, यह जो तख्ती लगी है कब्र पर कि यहां एक वकील और ईमानदार आदमी सोते हैं। इतनी छोटी कब्र में दो बन ही नहीं सकते, उसने कहा। वक्तव्य तो एक ही वकील के संबंध में था कि एक वकील और ईमानदार व्यक्ति यहां विश्राम करता है। लेकिन मुल्ला ने कहा, यहां दो आदमी नहीं हो सकते। वकील और ईमानदार एक हो, यह तो असंभव है। दो ही होने चाहिए। और दो इतनी छोटी कब्र में! बन नहीं सकते।
मुनि और समझदार, दो व्यक्ति एक में! आमतौर से नहीं होता। मुनि तो वे ही हैं जो नींद में ही संसार में थे और नींद में ही बहुत टकराहट खाने के कारण भाग खड़े हुए। लेकिन भागोगे कहां? जागो! भागने से कुछ भी न होगा। कितने ही भागो, तुम्हारे भीतर का अंधकार तुम्हारे साथ ही रहेगा। तुम्हारी मूर्च्छा कैसे छूट जाएगी? दुकान छोड़ सकते हो, बाजार छोड़ सकते हो, घर छोड़ सकते हो, बच्चे-पत्नी छोड़ सकते हो, क्योंकि वे पर हैं; लेकिन मूर्च्छा तो तुम्हारी अपनी है, अंधकार तो तुम्हारा अपना है। अंधकार से कोई विवाह थोड़े ही रचाया है। अंधकार तो तुम्हारे भीतर छाया है। तुम जहां जाओगे, तुम्हारा अंधकार तुम्हारे साथ जाएगा।
एक कौआ भागा जा रहा था और एक कोयल ने पूछा कि चाचा जी, कहां जा रहे हैं? बड़ी सुबह-सुबह, बड़ी तेजी से!
उसने कहा, मैं इस देश को छोड़ कर किसी दूसरे देश जा रहा हूं। पूरब को छोड़ कर पश्चिम जा रहा हूं, विलायत जा रहा हूं।
क्यों? कोयल ने पूछा।
तो कौए ने कहा, यहां लोग मेरे संगीत को समझते नहीं।
कोयल ने कहा, बेहतर हो कि आप अपना संगीत बदलो। पश्चिम में भी कोई नहीं समझेगा। कहीं भी कोई नहीं समझेगा।
कौआ शायद एक ही नाम है जिसे दुनिया की बहुत सी भाषाओं में उसकी कांव-कांव के आधार पर ही नाम मिला है। हिंदी में कहते हैं कौआ, क्योंकि वह कांव-कांव; अंग्रेजी में कहते हैं क्रो, वही कांव-कांव।
कोयल ने कहा कि अच्छा हो संगीत बदलो, स्वयं को बदलो। देश बदलने से कुछ भी नहीं होगा। भगोड़े देश बदल लेते हैं। और भीतर? जैसे थे वैसे के वैसे। अक्सर तो हालत भीतर और बुरी हो जाती है, क्योंकि यह देश के बदलने से अहंकार और सघन हो जाता है, अकड़ और मजबूत हो जाती है, दंभ और धार पा जाता है।
इसलिए तुम्हारे तथाकथित मुनि, साधु, महात्मा जितने अहंकारी होते हैं उतने कोई और दूसरे लोग अहंकारी नहीं होते। उनके अहंकार की बात ही और! उनका अहंकार शिखर छूता है। उनका अहंकार कोई साधारण मकान नहीं है, ताजमहल है!
मुनि नहीं समझे होंगे। इसलिए फिर उन्होंने पूछा, कहां से आए और कहां जाएंगे?
मेरे पिता तो सीधे-सादे आदमी थे। उसी सीधे-सादेपन में ही साधुता छिपी है। उन्होंने फिर निवेदन किया, निगोद से आया हूं और मोक्ष जाऊंगा।
निगोद है अंधकार-लोक, मूर्च्छा का लोक, निद्रा का लोक--जहां हमें अपनी भी खबर नहीं; जहां अंधेरा ऐसा घना है कि हाथ को हाथ न सूझे; अमावस की रात जहां आत्मा पर छायी है। चांदत्तारे तो दूर, सूरज तो दूर, एक टिमटिमाती बत्ती भी नहीं जलती। एक टिमटिमाती मोमबत्ती भी उपलब्ध नहीं है। उस अवस्था का नाम पारिभाषिक जैन दर्शन में निगोद है।
और मोक्ष का अर्थ है, जहां सब प्रकाशित हो गया, सुबह हो गई, सूरज निकल आया। भीतर का सूरज, भीतर की सुबह! और जैसे ही भीतर का प्रकाश प्रकट होना शुरू होता है, अहंकार ऐसे गल जाता है जैसे बरफ का टुकड़ा सुबह के सूरज को देख कर गल जाए। अहंकार ऐसे वाष्पीभूत हो जाता है जैसे सुबह के सूरज में वृक्षों के पत्तों पर चमकती हुई ओस की बूंदें तिरोहित हो जाती हैं। स्वयं का होना समाप्त हो जाता है और तभी स्वयं की वास्तविक सत्ता का आविर्भाव होता है। अहंकार मिटता है, आत्मा का जन्म होता है। वह अवस्था परम स्वातंत्र्य की है।
दुनिया में दो तरह के धर्म हैं। तीन धर्म तो भारत में पैदा हुए, तीन धर्म भारत के बाहर पैदा हुए। जो भारत के बाहर धर्म पैदा हुए--यहूदी, मुसलमान, ईसाई--वे थोड़े स्थूल हैं। वे इतनी ऊंचाई नहीं ले सके। कई कारण हैं। एक तो उन्हें समय भी नहीं मिला इतना ऊंचाई लेने का। एक समय चाहिए एक ऊंचाई लेने के लिए। भारत का धर्म कम से कम दस हजार वर्ष पुराना है। ईसाइयत तो केवल उन्नीस सौ वर्ष पुरानी है। यहूदी तीन हजार वर्ष पुराने हैं। मुसलमान तो केवल चौदह सौ वर्ष पुराने हैं। समय की जो लंबाई चाहिए वह उन्हें मिली नहीं। इसलिए वे बहुत ऊंचाई नहीं ले सके। उन्होंने जो अंतिम ऊंचाई ली है वह स्वर्ग और नरक पर जाकर अटक जाती है। इसलिए पश्चिम के इन तीनों धर्मों में स्वर्ग और नरक के पार कुछ भी नहीं है। जो पुण्य करेगा वह स्वर्ग पाएगा, जो पाप करेगा वह नरक पाएगा। यह व्याख्या इन तीनों धर्मों को नैतिक तो बनाती है, लेकिन धार्मिक नहीं बना पाती।
इसलिए एक अनूठी बात तुम देखोगे, पश्चिम का आदमी ज्यादा नैतिक है, तुमसे ज्यादा नैतिक है। अगर वचन देगा तो पूरा करेगा। बात का पक्का है। जान भी देनी पड़े तो दे देगा। तुम्हें वचन देने में कुछ लगता ही नहीं। तुम कहो कि पांच बजे आ जाऊंगा, तो तुम चार बजे भी आ सकते हो, छह बजे भी आ सकते हो, आठ बजे भी, दूसरे दिन भी, तीसरे दिन भी। तुम्हारे पांच बजे का कोई अर्थ पांच बजे का नहीं होता। तुम्हें जैसे बोध ही नहीं है इस बात का कि वचन भंग करना एक अप्रामाणिकता है। तुम हर चीज में मिलावट किए चले जाते हो। पश्चिम में कोई सवाल ही नहीं उठता।
मेरे एक मित्र स्विटजरलैंड गए। तो उन्होंने होटल में कहा कि मुझे शुद्ध दूध चाहिए। होटल का बैरा थोड़ा हैरान हुआ--शुद्ध दूध! उसने कभी सुना ही नहीं था। दूध यानी दूध। उसने कहा कि रुकिए, मैं अपने मैनेजर को बुला लाऊं। वह मैनेजर को बुला लाया। मैनेजर ने कहा, शुद्ध दूध! साधारण दूध मिलता है; पैश्चाराइज्ड दूध मिलता है; पाउडर दूध चाहिए वह भी मिल जाए; मगर शुद्ध दूध हमने कभी सुना नहीं। आपका प्रयोजन क्या है शुद्ध दूध से?
तो उन्होंने कहा, जिसमें पानी न मिला हो। तो मैनेजर ने कहा, हम कोई पागल हैं जो दूध में पानी मिलाएंगे! आपके देश में क्या दूध में पानी मिलाते हैं?
यह देश और भी आगे बढ़ चुका है!
मैं विश्वविद्यालय में विद्यार्थी था, तो जो आदमी दूध देने आता था विद्यार्थियों को, उसका एक ही बेटा था, और वह बेटे की कसम खा लेता था, कोई भी उससे पूछे। और उसके दूध में निश्चित पानी था, इसमें कोई शक-शुबहा ही नहीं था। उसमें दूध जैसा कुछ मालूम ही नहीं होता था। बस दूध का रंग भर था। जो भी उससे कहे कि क्या दूध में पानी मिलाया है? वह कहता, बेटे की कसम खाकर कहता हूं--बेटा भी साथ लिए रहता था दूध का बर्तन--कि यह रहा मेरा बेटा, इसके सिर पर हाथ रख कर कसम खाता हूं कि नहीं, दूध में पानी नहीं मिलाया है।
एक दिन मैंने उससे पूछा कि तू मुझसे तो सच कह दे, मैं किसी को कहूंगा नहीं। तू कसम खा लेता है बेटे के सिर पर हाथ रख कर, तेरा एक ही बेटा है! और पक्का है कि दूध में पानी है।
उसने कहा, अब आपसे क्या छिपाना, मगर किसी को आप बताना मत। कसम खा लेता हूं क्योंकि उसमें राज है। मैं दूध में कभी भी पानी नहीं मिलाता, जब भी मिलाता हूं पानी में दूध मिलाता हूं। इसलिए कसम खाने में मुझे कुछ हर्ज नहीं है। मेरे बेटे का बाल बांका नहीं हुआ आज तक। दस साल से कसम खा रहा हूं। कोई बाल बांका तो कर दे मेरे बेटे का!
वे जमाने गए जब यहां हम दूध में पानी मिलाते थे, अब तो पानी में दूध मिलाते हैं!
पश्चिम ज्यादा नैतिक है। और उसका कारण है कि धर्म पश्चिम में नीति का पर्यायवाची है। लेकिन ऊंचाई नहीं ले सका।
भारत अकेला देश है जिसके तीनों धर्म--हिंदू, जैन, बौद्ध--मोक्ष की बात करते हैं। यह स्वर्ग और नरक से ऊपर की बात है। स्वर्ग और नरक में तो द्वंद्व शेष है, अभी द्वैत समाप्त नहीं हुआ। अभी पाप-पुण्य, अभी कृत्य की दुनिया चल रही है। अभी साक्षी का भाव नहीं जगा। अभी मैं करने वाला हूं, यह भ्रांति बनी है। पापी को भ्रांति होती है कि मैंने पाप किया, पुण्यात्मा को भ्रांति होती है कि मैंने पुण्य किया। असाधु समझता है मैं असाधु हूं, साधु समझता है मैं साधु हूं; लेकिन दोनों समझते हैं कि मैं कुछ हूं। अभी नेति-नेति का जन्म नहीं हुआ। न यह, न वह। न मैं शुभ हूं, न अशुभ। न देह, न मन। न नीति, न अनीति। न पाप, न पुण्य। न स्वर्ग, न नरक। मैं इन दोनों का साक्षी हूं, सिर्फ द्रष्टा मात्र। जैसे दर्पण में प्रतिबिंब बने, ऐसा कोरा दर्पण हूं! इस कोरे दर्पण की अवस्था तक पश्चिम के धर्मों को उठना है। पूरब के धर्म इस कोरी अवस्था तक उठे हैं। इसका लाभ भी था, इसकी हानि भी थी।
इस दुनिया में एक बात खयाल रखनी जरूरी है कि कोई भी चीज अगर लाभ लाती हो तो अपने साथ ही हानियां भी लाती है। यह हम पर निर्भर होता है कि हम हानियों को न चुनें, लाभ को चुन लें। और कोई भी चीज जो हानि लाती है, अपने साथ लाभ भी लाती है। यह हम पर निर्भर होता है कि हम लाभ को चुन लें, हानियों को न चुनें। यहां जहर को समझदार औषधि बना लेते हैं और यहां नासमझ औषधि को भी जहर बना लेते हैं।
तुमने देखा होगा, शराबबंदी हो जाती है तो लोग कमला टानिक पीने लगते हैं! औषधि को भी जहर बनाने की होशियारियां हैं। लेकिन ठीक चिकित्सक के हाथ में जहर भी लोगों को जीवनदायी हो जाता है।
पश्चिम में धर्म ने नीति से ऊपर उड़ान नहीं ली। लेकिन पश्चिम के लोग चीजों से लाभ लेना जानते हैं। इसलिए जितना लाभ ले सकते थे धर्म की नैतिकता से, उन्होंने लिया। पूरब ने बड़ी ऊंचाई ली, धर्म से बहुत ऊपर हम गए। साधारण तथाकथित नरक और स्वर्ग का धर्म हमने बहुत पीछे छोड़ दिया। हमने मोक्ष पर उड़ान भरी। हमने साक्षी-भाव का अनुभव किया। लेकिन बजाय इसके कि हम लाभ लेते, हम हानि से भर गए। क्यों? हमारी बेईमानी को एक तरकीब मिल गई।
मोक्ष का अर्थ होता है: न पाप सही है, न पुण्य सही है; दोनों माया। और जब दोनों ही माया तो हमने सोचा, फिर दिल भर कर पाप ही कर लो! है तो है ही नहीं, सब माया ही है, तो फिर डर क्या? हमने जाना कि स्वर्ग और नरक दोनों मानसिक अवस्थाएं हैं, हम दोनों के पार हैं। जब हम दोनों के पार हैं, तो फिर क्या चिंता? फिर जी भर कर जो करना हो करो, जैसा करना हो वैसा करो। यह तो सब स्वप्नवत है। चोरी करो तो स्वप्न है, दान करो तो स्वप्न है; जब दोनों ही स्वप्न हैं तो चोरी ही क्यों न करो, हमने सोचा। फिर दान की झंझट में क्यों पड़ो? जो गलत था...।
हम ऊंचे उड़े। हमारे महावीर, हमारे बुद्ध, हमारे कृष्ण अपने पंख आकाश की आखिरी ऊंचाइयों तक फैलाए। लेकिन हम बहुत नीचे गिरे। यह एक साथ घटना घटी। सबसे ऊंचे पुरुष हमने पैदा किए और सबसे नीचा समाज हमने पैदा किया। और कारण था हमारी चालबाजी।
यह भी सोच लेने जैसा है। दस हजार साल पुराना धर्म था, इसलिए इतनी ऊंचाई ले सका। लेकिन दस हजार साल में लोग बेईमान भी हो जाते हैं। जितना बूढ़ा आदमी होता है उतना बेईमान हो जाता है। छोटे बच्चे को धोखा देना आसान है; बेईमान बूढ़े को धोखा देना बहुत कठिन है--अनुभवी हो जाता है। वह खुद ही काफी धोखे खा चुका और दे चुका, तुम उसे क्या धोखा दोगे? बूढ़े व्यक्ति धीरे-धीरे ज्यादा बेईमान हो जाते हैं। बच्चे सरल होते हैं।
इसलिए नई सभ्यताओं में एक तरह की सरलता होती है; पुरानी सभ्यताओं में एक तरह की चालबाजी आ जाती है, पाखंड आ जाता है। ये प्रत्येक वस्तु के दो पहलू हैं। यह हम पर निर्भर होता है हम क्या चुनें। दस हजार साल में हमने ऊंचाइयां से ऊंचाइयां छुईं। चाहें तो हम वे गौरीशंकर छुएं। और दस हजार साल में हमने जीवन के सब कड़वे-मीठे अनुभव भी लिए, हमने बेईमानी की गर्त भी छुई। हम चाहें तो वहां जीएं।
मोक्ष का अर्थ होता है, जहां सारे कर्मों के पार चेतना अपने को अनुभव करती है। जब तक कर्म है तब तक बंधन है। पाप करोगे, दुख पाओगे; पुण्य करोगे, सुख पाओगे। जैसे कोई नीम के बीज बोएगा तो नीम के फल काटेगा और कोई आम बोएगा तो आम की मिठास का अनुभव करेगा। बस ऐसे ही, सीधा-साफ गणित है। लेकिन हमारे भीतर कोई है जो न तो कड़वापन अनुभव करता है और न मिठास--जो दोनों के पार है; जो दोनों को देखता है। जो देखता है कि जीभ पर कड़वाहट का अनुभव हो रहा है, जीभ पर मिठास का अनुभव हो रहा है; लेकिन मैं तो अलग हूं, मैं तो साक्षी हूं। इस साक्षी में थिर हो जाना समाधि; इस साक्षी के परिपूर्ण अनुभव को उपलब्ध हो जाना मोक्ष।
निगोद है अंधकार, मोक्ष है प्रकाश। निगोद है तादात्म्य, मोक्ष है साक्षी-भाव।
उत्तर उन्होंने ठीक दिया था कि निगोद से आया हूं और मोक्ष जाऊंगा। और यह भी उन्होंने ठीक कहा था किसी पंडित को कि मैं तो अपनी जानता हूं कि मेरा अंतिम जन्म है।
ध्यान की कुछ सीढ़ियां चढ़ो और तुम भी जान सकोगे कि यह तुम्हारा अंतिम जन्म है। इसमें कुछ बहुत अड़चन नहीं है। बस ध्यान का थोड़ा सा स्वाद लगे।
और ध्यान की तरफ उनकी यात्रा चल रही थी। सतत, सब करते हुए भी ध्यान उनके जीवन का केंद्र था। ध्यान के लिए समय वे वर्षों से निकाल रहे थे। सारा काम भी चलता रहा, घर-द्वार भी छोड़ा नहीं और धीरे-धीरे भीतर, एक शांति, एक गहराई, एक आनंद भी उमगने लगा, भीतर फूल भी खिलने लगे।
ध्यान की अगर तुम्हें थोड़ी भी प्रतीति होगी तो तुम भी कह सकोगे, यह मेरा अंतिम जन्म है। क्यों? क्योंकि जन्म होता है कर्ता का और ध्यान तुम्हें अनुभव करवाता है साक्षी का। साक्षी का न कभी जन्म हुआ है, न होता है।
उपनिषद कहते हैं: एक ही वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं। एक पक्षी नीचे की शाखा पर, बड़ी चें-चें करता है, इस डाल से उस डाल पर कूदता है, इस फल को चखता है, उस फल को चखता है। बड़ी बिगूचन में पड़ा है। और एक दूसरा पक्षी, ऊपर के शिखर पर बैठा है--सिर्फ बैठा है! वह नीचे के पक्षी की चहल-पहल, भाग-दौड़, आपाधापी देखता है, बस सिर्फ देखता है।
यह बड़ी प्यारी प्रतीक-व्यवस्था है। ऐसे उपनिषद कह रहे हैं कि तुम्हारे भीतर भी दो पक्षी हैं--एक साक्षी और एक कर्ता। कर्ता नीचे की शाखाओं पर आपाधापी में लगा रहता है: और धन कमा लूं, और पद कमा लूं, और प्रतिष्ठा कमा लूं। उसका मन भरता ही नहीं। उसे तृप्ति मिलती ही नहीं। जितने तृप्ति के उपाय करता है उतनी अतृप्ति बढ़ती चली जाती है। लेकिन ऊपर एक साक्षी है जो सिर्फ देखता है--इस नीचे के पक्षी की उधेड़बुन देखता है, व्यर्थ की परेशानी देखता है। सिर्फ देखता है! दर्पण की भांति है। कुछ बोलता नहीं।
अब धर्म के दो रूप हो सकते हैं। धर्म का जो नैतिक रूप होगा, वह नीचे के पक्षी को बदलने की कोशिश करता है। और धर्म का जो परम रूप होगा, आध्यात्मिक रूप होगा, वह ऊपर के पक्षी की याद दिलाता है। धर्म का जो अध्यात्म है वह तो कहता है: इतनी भर याद तुम्हें आ जाए कि तुम्हारे भीतर एक साक्षी है, बस काफी है, क्योंकि साक्षी का कोई जन्म नहीं होता। यह तो कर्ता है जो जन्म में भटकता है। क्योंकि मरते वक्त तुम्हारी वासना तृप्त नहीं हुई होती। वासना की डोर तुम्हें नये जन्म में ले जाती है।
हमारे पास एक बड़ा प्यारा शब्द है: पशु। पशु शब्द को तुम सिर्फ इतना ही समझते हो कि इसका अर्थ जानवर होता है। नहीं, इतना नहीं होता। जानवर का तो अर्थ होता है, जिसके पास जान है। तो जानवर तो तुम भी हो। जिसके पास जान है वह जानवर। अंग्रेजी में शब्द है एनिमल; उसका भी मतलब वही होता है। एनिमा का अर्थ होता है प्राण। जिसके पास प्राण है वह एनिमल। लेकिन हमारा शब्द बड़ा अदभुत है; वह जानवर और एनिमल से उसका अनुवाद नहीं होना चाहिए। पशु का अर्थ होता है, जो पाश में बंधा, जो जंजीर में बंधा, जिसके पैरों में बेड़ी पड़ी, जिसके हाथों में जंजीर है। जो पाश में बंधा वह पशु। यह बड़ा अनूठा शब्द है। ऐसे शब्द दुनिया की दूसरी भाषाओं में नहीं हैं; उसके कारण हैं। क्योंकि ऐसे लोग कम हुए दुनिया में जो ऐसे शब्दों को गढ़ सकते। जिन्होंने ये शब्द गढ़े उन्होंने इन छोटे-छोटे शब्दों में न मालूम कितनी कुंजियां छिपा दीं।
यह जो तुम्हारा पशु है, यह किन जंजीरों में बंधा है? कोई दिखाई पड़ने वाली जंजीरें तो नहीं हैं; अदृश्य जंजीरें हैं--वासना की, आकांक्षा की। यह मिल जाए, वह मिल जाए...चौबीस घंटे, कुछ मिल जाए! मरते वक्त भी तुम मिलने की आकांक्षा से ही भरे हुए मरते हो। और जो तुम्हारी मिलने की आकांक्षा, पाने की आकांक्षा है, वही तुम्हारे नये जन्म का कारण बन जाती है। वही पाश तुम्हें नये गर्भ में खींच ले जाता है। नहीं तो नये गर्भ की कोई संभावना नहीं है। द्वार ही टूट गया। राह ही मिट गई।
जिसने ध्यान का अनुभव किया, वह कह सकता है, यह मेरा अंतिम जन्म है। इसमें कोई अहंकार नहीं है। इसमें सिर्फ तथ्य का निवेदन है कि मैंने अपने साक्षी-रूप को देखना शुरू कर दिया है। साक्षी तो पशु नहीं है। साक्षी परमात्मा है। साक्षी पर तो कोई वासना नहीं है। साक्षी तो परम तृप्त है; जैसा है वैसा ही तृप्त है; जहां है वहीं तृप्त है। कहीं और नहीं होना है, कहीं और नहीं जाना है, कुछ और नहीं पाना है। साक्षी तो परितोष का नाम है, परम संतोष का नाम है; आत्यंतिक तुष्टि का नाम है। जिसको ऐसी झलक मिलने लगी वह कह सकता है, यह मेरा अंतिम जन्म है।
लेकिन पंडित विवादों में पड़े रहते हैं। वे इसी फिक्र में लगे रहते हैं कि अगला जन्म होगा? क्यों होगा? कैसे होगा? होता भी है कि नहीं होता? किस नियम से होता है? क्या गणित है उसका? क्या नक्शे हैं उसके? वे इसी नक्शे खींचने में, गणित बिठालने में लगे रहते हैं। पंडित से ज्यादा व्यर्थ का काम कोई दूसरा नहीं करता। उसकी सारी चेष्टा शाब्दिक होती है, अनुभवगत नहीं होती।
इसलिए अगर उन्होंने किसी पंडित को कहा था कि शास्त्र और सिद्धांत की आप जानें; मुझे शास्त्र का पता नहीं, सिद्धांत का पता नहीं; पर एक बात सुनिश्चित होने लगी है कि यह मेरा अंतिम जन्म है--ठीक कहा था।
जो शास्त्र और सिद्धांत में उलझे हैं, उन्हें ध्यान का तो समय ही नहीं मिलता। जो शास्त्र और सिद्धांत में उलझे हैं, वे ध्यान तक तो पहुंच ही नहीं पाते। क्योंकि ध्यान तक पहुंचने की अनिवार्य शर्त है: शास्त्र और सिद्धांत को छोड़ो। शब्द को छोड़ो तो ध्यान में पहुंचोगे। निःशब्द यानी ध्यान। विचारों को छोड़ो तो निर्विचार में पहुंचोगे। निर्विचार यानी ध्यान। विकल्पों को छोड़ो कि क्या ठीक क्या गलत, निर्विकल्प हो जाओ। निर्विकल्प यानी ध्यान।
पंडित ध्यान नहीं कर पाता। हां, पंडित ध्यान के संबंध में सोचता है। इसे थोड़ा खयाल रखना। तुम जल के संबंध में कितना ही सोचो, इससे प्यास न बुझेगी। तुम चाहे जल के संबंध में बड़ी सुंदर-सुंदर तस्वीरें बना लो, सागरों की तस्वीरें, अपने कमरों को जल की तस्वीरों से भर दो--सागर, सरोवर, निर्झर, जलप्रपात--लेकिन इससे तृप्ति नहीं मिल सकेगी। प्यास लगेगी तो ये तस्वीरें काम न आएंगी। और तुम भलीभांति जानते हो कि भूख लगती हो तो पाकशास्त्र को पढ़ने से नहीं मिटती। लेकिन अजीब है आदमी! जब उसे परमात्मा की भूख लगती है तो वह गीता पढ़ता है, कुरान पढ़ता है, बाइबिल पढ़ता है। भूख झूठी होगी। अगर भूख सच्ची होती तो तुम किसी सदगुरु के चरण में होते, किसी प्रबुद्ध व्यक्ति का हाथ पकड़ते, न कि पाकशास्त्र लिए बैठे रहते। और बड़े मजेदार लोग हैं! पाकशास्त्र को भी पढ़ कर अगर कुछ पकाओ तो भी ठीक। लोग रोज पाकशास्त्र का पाठ करते हैं! सुबह से रोज गीता का पाठ करते हैं। कृष्ण होना तो दूर, अर्जुन भी नहीं होते। मगर गीता कंठस्थ हो जाती है। पाकशास्त्र कंठस्थ हो जाता है। तो वे एक-एक बात बता सकते हैं कि रोटी कैसे पकाई जाती है, मिष्ठान्न कैसे बनाए जाते हैं; मगर उनका खुद का जीवन सूखा जा रहा है, कोई रसधार नहीं है। क्योंकि जीवन को जो पोषण मिलना चाहिए, नहीं मिल रहा है। पाकशास्त्र पोषण नहीं देते। पाकशास्त्र को घोंट कर पी जाओ तो भी पेट नहीं भरेगा। बीमार भला हो जाओ, मगर पेट नहीं भरेगा। धर्मशास्त्र से भी पेट नहीं भरता, आत्मा नहीं भरती।
और ज्ञान और ध्यान का यही भेद है। ज्ञान है ईश्वर के संबंध में विचार और ध्यान है ईश्वर में छलांग। ज्ञान है पाकशास्त्र और ऊहापोह। और ध्यान है सब शब्दों से मुक्ति, ऊहापोह से छुटकारा, मौन में प्रवेश। इसलिए महावीर ने अपने संन्यासी को मुनि कहा। ये सारे शब्द प्यारे हैं। मुनि का अर्थ है, जो मौन में प्रविष्ट हो गया। लेकिन कितने जैन मुनि मौन में प्रविष्ट मालूम होते हैं? बैठे शास्त्रों को पढ़ रहे हैं और उन्हीं शास्त्रों को लोगों को समझा रहे हैं। मौन कहां है? और मुनि हो गए!
आचार्य तुलसी ने मुझसे पूछा--एक प्रसिद्ध जैन मुनि ने--कि ध्यान कैसे करें?
मैंने कहा, आप मुनि होकर और पूछते हैं कि ध्यान कैसे करें! तो मुनि कैसे हुए? और न केवल मुनि हैं आप, सात सौ मुनियों के गुरु हैं, आचार्य हैं सात सौ मुनियों के! साधारण मुनि नहीं हैं, महामुनि हैं और पूछते हैं ध्यान कैसे करें! ध्यान नहीं किया तो मुनि कैसे हुए?
लेकिन हम शब्द का अर्थ भी भूल गए। सीधा-सादा अर्थ है: मौन। मौन को जो उपलब्ध हो जाए, वह मुनि।
बुद्ध ने अपने संन्यासियों के लिए नाम चुना था: भिक्षु। जो ऐसा जान ले कि मेरा कुछ भी नहीं है इस संसार में, वह भिक्षु। वह सम्राट भी हो सकता है तो भी भिक्षु, क्योंकि वह जानता है मेरा कुछ भी नहीं है। जिसने मालकियत की भ्रांति छोड़ दी, वह भिक्षु।
और संन्यास का क्या अर्थ होता है? सम्यक न्यास। जिसे जीने की ठीक-ठीक कला आ गई। और जीने की कला में मरने की कला समाहित है। जीने की ठीक कला, मरने की ठीक कला जिसे आ गई वह संन्यासी है। और जीने की ठीक कला के लिए मुनि होना पड़े। और मरने की ठीक कला के लिए भिक्षु होना पड़े।
इसलिए मैंने संन्यास शब्द चुना, क्योंकि संन्यास मुनि और भिक्षु दोनों को अपने में आत्मसात कर लेता है। यह दोनों शब्दों से बड़ा है। मुनि जीवन की कला है और भिक्षु मृत्यु की कला है। बुद्ध ने अपने भिक्षु के लिए पीत वस्त्र चुने थे, क्योंकि पीला रंग मौत का रंग है। जब पत्ते मरने के करीब होते हैं तो पीले पड़ जाते हैं। जब व्यक्ति मरने के करीब होता है तो चेहरा पीला पड़ जाता है। पीला रंग मृत्यु का प्रतीक है। इसलिए बुद्ध ने भिक्षु के लिए पीत वस्त्र चुने हैं। क्योंकि भिक्षु की कला ही एक बात में निर्भर है: कैसे मरूं? ऐसे मरूं कि फिर दुबारा जन्म न हो।
मगर तुम ठीक से तभी मर सकते हो जब तुम ठीक से जीए होओ। मरना कोई ऐसी चीज नहीं है कि बस एक क्षण में तुम साध लोगे। तुमने जीवन भर साधा हो ठीक से जीना...और ठीक से जीने के लिए मौन कला है। तुम जीए होओ शांत भाव से। जगत में उठते रहें तूफान, और कोई तूफान तुम्हें कंपाए न। अंधड़ चलें, और कोई अंधड़ तुम्हें हिलाए न। चीजें बनें और मिटें, और तुम अप्रभावित रह जाओ, अस्पर्शित। ऐसा तुम्हारा मौन हो तो तुमने जीवन की कला जानी। और जो जीवन की कला जानेगा वही एक दिन मृत्यु के परम रहस्य को समझ सकेगा।
मैंने संन्यास शब्द चुना, क्योंकि उसमें दोनों समाहित हैं--जीने की, मृत्यु की कला। जिसे भी समझ में आ गया मौन का थोड़ा सा स्वाद, वह कह सकता है कि अब मेरा दुबारा जन्म नहीं होगा। सच तो यह है, वह कह सकता है: मेरा कभी जन्म हुआ ही नहीं।
झेन फकीर जापान में कहते हैं कि बुद्ध का न तो कभी जन्म हुआ और न वे कभी मरे।
फकीरों की बातें फकीरों के ढंग से समझनी चाहिए। पंडित हंसेंगे, इतिहासज्ञ हंसेंगे। वे कहेंगे, यह कोई बात हुई! हम भलीभांति जानते हैं कि बुद्ध का जन्म हुआ और बुद्ध की मृत्यु हुई। कहां जन्म हुआ, वह भी हमें पता है; कहां मृत्यु हुई, वह भी पता है; ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं।
चूक गए! फकीर की बात समझे नहीं। फकीर भी नहीं कह रहा है कि बुद्ध का जन्म नहीं हुआ और बुद्ध की मृत्यु नहीं हुई। वह यह कह रहा है कि गौतम बुद्ध और सिद्धार्थ गौतम, ये दो अलग व्यक्ति हैं। सिद्धार्थ गौतम है सोया हुआ आदमी। उसका जन्म हुआ और मृत्यु भी हुई। और गौतम बुद्ध, वह है जाग्रत चैतन्य। उसकी कहां मृत्यु! कैसा जन्म! वह शाश्वत है। फकीर किसी और बात की तरफ इशारा कर रहे हैं। वे ठीक कह रहे हैं। वे साक्षी की बात कर रहे हैं। और इतिहासज्ञ कर्ता की बात कर रहा है, क्योंकि इतिहासज्ञ कर्ता के ऊपर जा भी नहीं सकता।
इसीलिए तो इतिहास में एक कमी रह जाती है। इतिहास में, जो हमारे जगत के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं, वे सम्मिलित ही नहीं हो पाते, क्योंकि उनके जीवन में कृत्य बहुत नहीं होता। चंगीज खां के जीवन में ज्यादा कृत्य है। नादिर शाह और तैमूर लंग, हालांकि तैमूर लंगड़ा है, मगर काम उसने खूब किए। लंगड़े ने भी बहुत उपद्रव किए। इतने उपद्रव किए कि इतिहास में लिखने योग्य काफी है। लेकिन बुद्ध के जीवन को लिखोगे तो क्या लिखोगे? एक झाड़ के नीचे छह सालों बैठे रहे! ज्यादा लिखने को कुछ है नहीं। और जो घटा वह भीतर घटा; उसका बाहर कोई प्रमाण नहीं है। बुद्धत्व को उपलब्ध हुए, लेकिन इसका कोई बाहरी साक्ष्य तो है नहीं, नापने की कोई कसौटी नहीं, मापने का कोई तराजू नहीं। जो घटा भीतर घटा।
बुद्ध कहते हैं: जिनको श्रद्धा है वे स्वीकार कर लें; जिनके पास आंखें हैं वे देख लें; जिनके पास आंखें नहीं हैं उन्हें दिखाई नहीं पड़ेगा।
और अधिक के पास आंखें नहीं हैं। या हैं भी तो उन्होंने उन पर पट्टियां बांध रखी हैं। अधिक के पास कान नहीं हैं। और हैं भी तो उन्होंने उनको बिलकुल बंद कर रखा है। और अधिक के पास हृदय नहीं है। और अगर है भी तो हृदय से वे सुनते नहीं, हृदय से गुनते नहीं। खोपड़ी में ही उनका सारा जीवन नियोजित हो गया है।
तो बुद्ध के जीवन में क्या लिखो? महावीर के जीवन की कथा लिखनी हो तो क्या लिखो? बड़ी कठिनाई है। उपन्यासकार कहते हैं कि अच्छे आदमी की जिंदगी पर उपन्यास नहीं लिखा जा सकता। कुछ होता ही नहीं लिखने योग्य। चोरी हो, डकैती हो, शराबी हो, हत्यारा हो, वेश्यागामी हो, तो कुछ उपन्यास बनता है, कुछ कहानी बनती है।
अब अगर बुद्ध की कहानी लिखो तो क्या लिखोगे? बुद्ध पैदा हुए--यह एक क्षण में हो जाएगी बात; फिर बड़े हुए, फिर एक दिन घर छोड़ा--तो घर छोड़ने की बात लिख सकते हो। अगर बुद्ध पर कोई फिल्म बनाई जाए तो पांच मिनट से ज्यादा की नहीं हो सकती। जन्म। फिर उनतीस साल तक कुछ नहीं। फिर उनतीस साल तक फिल्म में सिर्फ कैलेंडर एकदम तेजी से सरकता रहेगा। उनतीस साल के बाद एक रात घर छोड़ दिया। फिर छह साल तक सन्नाटा। फिर कैलेंडर सरकता रहेगा। फिर छह साल के बाद एक दिन बुद्धत्व का अनुभव। इसको भी कैसे कहोगे? बस बुद्ध बैठे हैं वृक्ष के नीचे और परदा एकदम झक्क सफेद हो जाएगा। बुद्धत्व उपलब्ध हो गया! अब कुछ कहने को बचता नहीं। जो दर्शक आए हैं, परदा भी फाड़ देंगे, कुर्सियां तोड़ देंगे, मैनेजर की पिटाई करेंगे कि यह कोई फिल्म हुई! पैसे वापस करो।
ऐसा हुआ है। कुछ इस तरह के प्रयोग किए गए हैं। पश्चिम में एक फिल्म बनाई गई: वेटिंग फॉर गोडोट। एक बहुत अदभुत विचारक, सेमुअल बैकेट की कहानी पर निर्भर है वेटिंग फॉर गोडोट। गोडोट सिर्फ याद दिलाने को है गॉड शब्द की। लेकिन गॉड शब्द का उपयोग नहीं किया बैकेट ने, "गोडोट' अपनी तरफ से बना लिया एक शब्द, जिससे तुम्हें सिर्फ खयाल आ जाए कि हां कुछ इशारा है ईश्वर की तरफ। ईश्वर की प्रतीक्षा। ईश्वर यानी वह, जो न कभी आता, न कभी दिखाई पड़ता।
तो दो आदमी एक झाड़ के नीचे बैठे हैं और प्रतीक्षा करते हैं। एक बोलता है, अभी तक गोडोट आया नहीं। दूसरा कहता है, आता ही होगा, जब उसने कहा है तो आएगा। फिर थोड़ी देर सन्नाटा रहता है, फिर पहला पूछता है कि भई, अभी तक आया नहीं, समय भी निकला जा रहा है! दूसरा कहता है, मेरा सिर न खाओ, मुझे भी दिखाई पड़ रहा है कि अभी तक नहीं आया; लेकिन अब हम करें भी क्या, जब आएगा तब आएगा! प्रतीक्षा के सिवाय करने को है भी क्या!
प्रतीक्षा चलती रहती है, सन्नाटा गुजरता रहता है। दोनों बैठे हैं झाड़ के नीचे, न कोई आता, न कोई जाता। फिर दूसरा कहता है कि मेरा तो मन ऊबने लगा। मैं तो सोचता हूं कि यहां से चला ही जाऊं। तो पहला उससे कहता है, तो चले भी जाओ। मेरा सिर तो मत खाओ। एक तो यह परेशानी है कि जिसकी प्रतीक्षा है वह नहीं आता; एक तुम हांक लगाए रहते हो! जहां जाना हो जाओ।
मगर दूसरा जाता नहीं। थोड़ी देर बाद पहला पूछता है, जाते क्यों नहीं? वह कहता है, जाऊं भी तो कहां जाऊं, यही वहां भी होगा। फिर बैठ कर प्रतीक्षा करो। यहां कम से कम एक से दो भले। थोड़ी बातचीत तो हो लेती है। बस ऐसी ही कहानी चलती रहती है। न कभी कोई आता, न कभी प्रतीक्षा का कोई फल मिलता। इस पर फिल्म बनाई गई। अब फिल्म कितनी बड़ी होगी--सात मिनट में खत्म हो जाती है! जहां-जहां फिल्म दिखाई गई वहीं-वहीं दंगा हुआ। परदे फाड़ दिए गए, कुर्सियां तोड़ दी गईं, लोगों ने थियेटर जला दिए और कहा कि पैसे वापस चाहिए! यह कोई मजाक है, यह कोई फिल्म है!
मगर बैकेट कहता था, यही जिंदगी है। जिंदगी भर तुम करते क्या हो--बस प्रतीक्षा! न कोई कभी आता, न कभी कुछ होता। न कभी कोई द्वार खटखटाता। कभी-कभी द्वार खोल कर देखते हो, पाते हो हवा थी, झोंका दे गई। कभी द्वार खोल कर देखते हो, पता चलता है मेघ गरज रहे हैं। कभी द्वार खोल कर देखते हो, पत्ता सूखा खड़खड़ा रहा है द्वार पर। न कोई कभी आता, न कभी कोई जाता। बस जिंदगी ऐसे ही खाली। मगर कम से कम यह बातचीत तो है कि दो एक-दूसरे से पूछ रहे हैं, कम से कम एक से दो तो हैं।
बुद्ध को जब ज्ञान फलित होता है छह वर्षों के बाद, तब वे बिलकुल नितांत अकेले हैं, वहां दो भी नहीं, न कोई पूछने को, न कोई उत्तर देने को। यह घटना अलिखित रह जाएगी। इस घटना को कोई इतिहास अपने में समाविष्ट नहीं कर सकेगा। कोई उपाय नहीं है। इसलिए जितना बड़ा बुद्धत्व उतना ही इतिहास के बाहर।
कृत्य का इतिहास होता है, साक्षी का कोई इतिहास नहीं। इसलिए इस दुनिया में जो परम बुद्ध हुए हैं वे इतिहास के बाहर ही जीए हैं और समाप्त हो गए हैं। इतिहास तो उलटे-सीधे लोगों का होता है, जिनकी खोपड़ियां खराब हैं। वे काफी शोरगुल मचाते हैं, काफी उपद्रव खड़े करते हैं। वे इतने उपद्रव खड़े करते हैं कि तुम्हें उनका इतिहास लिखना ही पड़ेगा। अखबारों में भी तुम बुद्धों की खबर नहीं पढ़ पाते, उपद्रवियों की खबर पढ़ते हो। क्योंकि जो उपद्रव करता है वह कुछ घटना घटवाता है। घेरा डलवा दे, हड़ताल करवा दे, घिराव करवा दे, चीजें तुड़वा दे फुड़वा दे, दंगा-फसाद करवा दे, हिंदू-मुस्लिम दंगा हो जाए, कुछ उपद्रव करवा दे, तो इतिहास में रेखाएं खिंचती हैं। जो साक्षी हो जाता है, कृत्य के बाहर हो जाता है। लेकिन एक बात उसे साफ हो जाती है कि अब कोई जन्म नहीं। क्योंकि जन्म तो कृत्य की भूमिका के लिए है। करने की जब तक कुछ आकांक्षा है तब तक जन्म। करने की जब कोई भी आकांक्षा नहीं है तो जन्म समाप्त हुआ।
इसलिए जो व्यक्ति बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाता है, फिर दुबारा जन्म नहीं ले पाता। उसका दुबारा जन्म नहीं होता। और बुद्ध जो भी करते हैं वह कृत्य नहीं है। बुद्ध चालीस-बयालीस साल जिंदा रहे बुद्धत्व के बाद, लेकिन अब उन्होंने जो किया वह कृत्य नहीं है; अब तो सहज प्रवाह है।
जैसे गंगा बहती है सागर की तरफ तो तुम यह थोड़े ही कहते हो कि सागर की तरफ जा रही है, कि हर मोड़ पर देखती है नक्शे को, फिर मुड़ी कि अब बाएं जाऊं कि दाएं, हर जगह पूछती है पुलिस के सिपाही से कि सागर किस तरफ है! सहज बहती है। यह कोई कृत्य नहीं है, निसर्ग है।
बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति निसर्ग से जीता है--जो होता है; जो होना प्रकृति उसके भीतर से चाहती है या परमात्मा। बांसुरी हो जाता है; परमात्मा जो गीत गाता है गा लेता है। नहीं गाना, तो कोई आग्रह उसका नहीं कि गीत गाया ही जाए।
साक्षी-भाव धीरे-धीरे तुम्हें यह बात स्पष्ट कर देता है कि यह तुम्हारा अंतिम जन्म है। और जैसे-जैसे ध्यान गहरा होगा, बहुत सी बातें स्पष्ट हो जाएंगी। ध्यान गहरा होगा तो तुम्हें यह साफ दिखाई पड़ने लगेगा: यह शरीर कितने दिन टिक सकता है। क्योंकि तुम्हें शरीर से संबंध दिखाई पड़ने लगेंगे टूटते। तुम रोज-रोज देखोगे कि संबंध टूटते जा रहे हैं। तुम हिसाब लगा सकते हो कि पूरे संबंध टूटने में कितनी देर लगेगी।
इसलिए अगर उन्होंने कहा था पांच वर्ष पूर्व हृदय का दौरा पड़ने पर कि अभी मैं पांच वर्ष और रहूंगा, तो इसमें कोई अड़चन नहीं है, कठिनाई नहीं है। दिख रहा होगा कि कितने मोह शेष रह गए हैं, उनको टूटने में कितनी देर लगेगी। यह सीधा गणित है। जैसे अगर तुम देखो कि एक मकान गिर रहा है, हर रोज उसका एक खंभा गिरता है, और अब दस खंभे बाकी हैं, तो तुम हिसाब लगा सकते हो कि दस दिन में यह पूरा का पूरा भवन खंडहर हो जाएगा। बस ऐसे ही। ध्यान में दिखाई पड़ने लगता है, कितने संबंध रोज-रोज क्षीण होते जा रहे हैं। पांच वर्ष में सारे संबंध क्षीण हो जाएंगे तो शरीर छूट जाएगा।
योग भक्ति, ये सारे वक्तव्य महत्वपूर्ण हैं। और मैं इन पर चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि ये सारे वक्तव्य आज नहीं कल तुम सबको भी घटित होने वाले हैं, तुम्हारे लिए उपयोगी होंगे।


दूसरा प्रश्न:

भगवान! संत रज्जब, सुंदरो और दादू की मृत्यु की कहानी मेरे लिए बड़ी ही रोमांचक रही। परंतु मेरे गुरु और हमारे प्यारे दादा, जो मेरे मित्र भी थे, उनकी मृत्यु के समय की आंखों देखी घटना का अनुभव मेरे लिए उससे भी कहीं अधिक रोमांचकारी हुआ। इससे मेरी आंखें मधुर आंसुओं से भर जाती हैं।

शीला! रज्जब, सुंदरो और दादू की कहानी तो बस तुम्हारे लिए कहानी है। मैं उसे तुमसे कहता हूं, चूंकि तुम्हें मुझसे प्रेम है, इसलिए तुम्हारे लिए उस कहानी में भी एक सत्य प्रविष्ट हो जाता है। चूंकि मैं अपने प्रेम से उस कहानी को लबालब भरता हूं, चूंकि मैं उस कहानी को फिर तुम्हारे सामने पुनरुज्जीवित करता हूं, इसलिए तुम रोमांचित हो उठती हो। लेकिन उस कहानी से तुम्हारा संबंध परोक्ष है, मेरे द्वारा है। दद्दा जी की मृत्यु तुमने सीधी-सीधी देखी, मेरे माध्यम से नहीं; वह तुम्हारा सीधा अनुभव है। निश्चित ही उसका रोमांच बहुत अलग होगा।
मैं कितने ही प्यारे ढंग से तुम्हें कुछ कहूं और तुम कितने ही अनुग्रह और समादर से उसे अपने हृदय में प्रतिष्ठा दो, फिर भी वह बात मेरी है। जैसे कोई हिमालय देख कर आया हो, और हिमालय के सौंदर्य का वर्णन करे और हिमालय की शीतलता का और हिमालय पर जमी हुई क्वांरी बर्फ का और हिमालय के उत्तुंग शिखरों का--बादलों से ऊपर उठे शिखर, आकाश से गुफ्तगू करते शिखर, चांदत्तारों को छूने की अभीप्सा लिए हुए शिखर--इनकी बहुत प्यारी चर्चा करे, और किसी के पास काव्य का गुण हो और सौंदर्य का बोध हो और हिमालय को अपनी छाती में भर कर आया हो और तुम्हारे सामने उंड़ेल दे, तो रोमांच होगा। मगर फिर भी बात तो उधार है। हिमालय तुम्हारे सामने तो नहीं है। इस आदमी की आंख से देखना होगा। इसका सौंदर्य तुम्हारे भीतर पुलक लाएगा। वह भी तभी जब तुम अपने हृदय को इसके सामने खोल कर रखो, विवाद न करो, व्यर्थ के तर्क-जाल में न उलझो, आत्मसात कर लो इसके अनुभव को, तो रोमांच होगा, अनुभव होगा। मगर जिस दिन तुम स्वयं हिमालय को जाकर देखोगी, वे उत्तुंग शिखर तुम्हारी आंखों में उठेंगे--वह अपूर्व महिमा, वह शाश्वत सौंदर्य--तब तुम्हें वे जो बातें तुमने सुनी थीं, बहुत दूर की आवाज मालूम पड़ेंगी, प्रतिध्वनि। बांसुरी को कोई सुने और फिर बांसुरी की गूंज घाटियों में होती हो उस गूंज को कोई सुने, इतना फर्क पड़ जाएगा। और फर्क बड़ा है। मुझे तुम देखो और मेरी तस्वीर को देखो, इतना फर्क है।
पिकासो से किसी ने कहा--एक बहुत सुंदरी महिला ने--कि कल मैंने तुम्हारे ही हाथों बनाई हुई तुम्हारी तस्वीर देखी, सेल्फ पोर्ट्रेट देखा। इतना प्यारा था कि मैं अपने को रोक न सकी और मैंने उस तस्वीर का चुंबन ले लिया।
पिकासो ने कहा, फिर क्या हुआ? तस्वीर ने चुंबन का जवाब दिया या नहीं?
उस युवती ने कहा, आप भी क्या बात करते हैं! तस्वीर चुंबन का जवाब कैसे देगी?
तो पिकासो ने कहा, फिर वह कोई और होगा, मैं नहीं। मुझे तो कोई चुंबन करे तो मैं जवाब देता हूं। तो वह तस्वीर किसी और की होगी।
ऐसा ही एक बार हुआ, एक बहुत बड़ा यथार्थवादी दार्शनिक...
यथार्थवाद और आदर्शवाद, दो दर्शन की परंपराएं हैं पश्चिम में। आदर्शवादी प्रत्येक चीज में से आदर्श को खोजता है। यथार्थवादी नंगे यथार्थ को स्थापित करता है। आदर्शवादी जगत को महिमामंडित करता है। वह गुलाब की चर्चा करता है, गुलाब के फूल की चर्चा करता है। यथार्थवादी कैक्टस की चर्चा करता है, गुलाब के फूल की नहीं। क्योंकि दुनिया कैक्टस से भरी है, गुलाब के फूल कहां? यहां हर आदमी कैक्टस है, कांटे ही कांटों से भरा है। जरा किसी के पास आओ कि कांटे चुभे। जरा किसी के पास आओ कि दामन ऐसा उलझता है कि छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। हर जगह कांटे हैं, गुलाब कहां? गुलाब तो सिर्फ सपनों में हैं--कवियों के सपनों में।
तो वह यथार्थवादी पिकासो के पास आया था और कहने लगा कि तुम्हारे चित्र यथार्थवादी नहीं हैं। तुम न मालूम कैसे चित्र बनाते हो!
पिकासो निश्चित ही जो चित्र बनाता था, वे कोई फोटोग्रैफ नहीं थे कैमरा से लिए गए। कैमरा में और चित्रकार में यही तो फर्क है, नहीं तो फर्क क्या? जब पहली दफा कैमरे का आविष्कार हुआ तो दुनिया के चित्रकार बहुत डर गए थे कि हमारी तो मौत हो गई, हमारा धंधा गया। कैमरा तो हमसे अच्छे ढंग से चित्र बना देगा। लेकिन धंधा मरा नहीं, बल्कि धंधे ने नई गरिमा ले ली, नया आयाम ले लिया। चित्रकार चित्र को बनाता है तो तुम्हारे भावों को भी पकड़ता है, तुम्हारी संभावनाओं को भी पकड़ता है, तुम्हारे छिपे हुए रहस्यों को भी पकड़ता है; सिर्फ तुम्हारे ऊपर की बाह्य रूप-रेखा को नहीं, जैसा कि कैमरा पकड़ता है। कैमरा तो बाह्य रूप-रेखा पकड़ता है। बस उतना ही उसका काम है।
पिकासो ने कहा कि मैं लोगों की सिर्फ रूप-रेखा नहीं पकड़ता; यह तो कैमरा ही कर देगा। मैं तो बहुत कुछ और पकड़ता हूं जो कैमरा नहीं पकड़ सकता। वही तो चित्रकार की खूबी है। लेकिन फिर भी तुम्हारा क्या मतलब है यथार्थवाद से?
तो उस यथार्थवादी दार्शनिक ने अपनी डायरी निकाली, डायरी में रखा हुआ अपनी पत्नी का चित्र निकाला और कहा, यह देखो! तुमने मेरी पत्नी का चित्र बनाया है वह मेरी पत्नी जैसा लगता ही नहीं। आंखें तुमने ऐसी बनाई हैं जैसे मेरी पत्नी अंधी हो। और नाक तुमने इतनी बड़ी बना दी है कि उसका सारा सौंदर्य नष्ट हो गया।
पिकासो ने कहा, जैसा मैंने देखा वैसा मैंने बनाया। मुझे तुम्हारी पत्नी अंधी मालूम होती है। उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ता। मैं उसमें आंखें नहीं बना सकता। और मुझे तुम्हारी पत्नी बड़ी अहंकारी मालूम पड़ती है, इसलिए मैंने नाक बहुत बड़ी बनाई है। अहंकार नाक पर चढ़ता है, नाक की नोक पर रहता है। इसलिए बहुत नुकीली नाक बनाई, तुम गौर से देखना। मैंने तुम्हारी पत्नी के अहंकार को और अंधेपन को समाविष्ट किया। कैमरा यह नहीं कर सकता। कैमरे की क्या बिसात? फिर भी देखूं, तुम पत्नी के किस चित्र को ठीक चित्र कहते हो।
वह कैमरे से उतारी गई तस्वीर थी, सुंदर तस्वीर थी, ठीक-ठीक उतारी गई थी। पिकासो ने तस्वीर देखी। पास में ही पड़ी हुई स्केल को उठा कर नापा। छह इंच लंबी, चार इंच चौड़ी। पिकासो ने कहा, तुम्हारी पत्नी लेकिन बहुत छोटी मालूम पड़ती है। छह इंच लंबी, चार इंच चौड़ी! इतनी सी तस्वीर में तुम्हारी असली पत्नी! यह यथार्थवादी चित्र है? और तुम्हारी पत्नी बिलकुल चपटी मालूम पड़ती है, मैंने हाथ फेर कर देखा। यह कैसा यथार्थ? यही तुम्हारी पत्नी है?
उस आदमी ने कहा, यह मेरी पत्नी नहीं, मेरी पत्नी की तस्वीर है।
पिकासो ने कहा, फिर तस्वीर कहो। तस्वीर पत्नी नहीं है। तस्वीरें तस्वीरें हैं, फिर कोई कितनी ही प्यारी तस्वीर क्यों न खींचे!
शीला! रज्जब, सुंदरो और दादू की कहानी जो मैंने कही, वह तो मेरी आंखों से देखी गई एक प्यारी तस्वीर है। खूब रंग मैं भरता हूं। शायद इतिहासज्ञ उससे राजी हों भी, न भी हों; मुझे उनकी चिंता भी नहीं। किताबें वैसा कहती हों, न कहती हों; मुझे उसकी फिक्र भी नहीं। मैं यहां किन्हीं किताबों को सही सिद्ध करने नहीं बैठा हूं, बल्कि किसी दूर यात्रा पर ले जाने के लिए आवाहन दे रहा हूं।
तुममें से बहुतों को रज्जब, सुंदरो और दादू की कहानी का पता न होगा, जिसके संबंध में शीला ने इशारा किया है। पहले तुम्हें मैं वह कहानी कह दूं। प्यारी कहानी है। अंबुजी भाई दीवान ने प्रश्न पूछा था, इसलिए वह कहानी कहनी पड़ी। उन्होंने प्रश्न पूछा था कि भोजन करते वक्त चर्चा चल पड़ी और किसी ने मुझसे कहा कि जब दादू की मृत्यु हुई तो उनके दो शिष्य--रज्जब और सुंदरो--बड़ा अनूठा व्यवहार किए। रज्जब ने तो आंखें बंद कर लीं और फिर कभी आंखें नहीं खोलीं। और सुंदरो, दादू की जब लाश उठाई गई, तो उनके बिस्तर पर उनका कंबल ओढ़ कर सो गया, फिर उसने कभी बिस्तर नहीं छोड़ा। दीवान जी ने पूछा था कि मुझे यह बात कुछ जंचती नहीं। ये कहीं जाग्रत पुरुषों के ढंग हैं कि एक ने आंख बंद कर लीं और जिंदगी भर आंख न खोलीं! और एक बिस्तर पर लेट गया सो उठा ही नहीं फिर, जब तक मर न गया! ये कहीं जाग्रत पुरुषों के लक्षण हैं, प्रबुद्ध पुरुषों के लक्षण हैं? ये समाधिस्थ पुरुषों के लक्षण हैं? यह तो बड़ी आसक्ति, बड़े मोह से ही संभव हो सकता है। जो अनासक्त हो गए हैं, जो वीतमोह हो गए हैं, जो वीतराग हो गए हैं, उनके लिए ऐसा करना! आप इस संबंध में क्या कहते हैं?
मेरा रज्जब और सुंदरो से लगाव है। दादू के बहुत शिष्य थे। दादू उन धन्यभागी गुरुओं में से एक हैं जिनके बहुत शिष्य थे और अनूठे शिष्य थे। नानक, कबीर, रैदास, फरीद, किसी के पास शिष्यों की ऐसी अदभुत जमात न थी, जैसी दादू के पास थी। दादू ने बड़े बेजोड़ और अद्वितीय हीरे इकट्ठे किए थे। कबीर भी इस संबंध में पीछे पड़ गए। दादू में कुछ कला थी शिष्यों को पुकार लेने की। दादू में कुछ कला थी शिष्यों को अपने से जोड़ लेने की। उनकी जमात बड़ी थी, उनका संघ बड़ा था। लेकिन उन सब हीरों में रज्जब और सुंदरो तो कोहिनूर थे। रज्जब ने क्यों आंखें बंद कर लीं?
रज्जब ने इसलिए आंखें बंद नहीं कर लीं कि दादू से आसक्ति थी। रज्जब ने इसलिए आंखें बंद कर लीं कि रज्जब ने कहा, जिसने दादू को देख लिया अब उसे देखने को क्या बचा! इस परम सौंदर्य को देख लेने के बाद अब आंखों को खोल कर नाहक कष्ट क्यों देना! अब इससे ऊंचा कोई शिखर तो दिखाई पड़ेगा नहीं। जो गौरीशंकर पर चढ़ गया हो उसे तुम पूना के टीलों पर चढ़ कर झंडा गड़ाने को कहो, तो वह कहेगा, छोड़ो यह काम तुम्हीं कर लो। तुम एडमंड हिलेरी को और तेनजिंग को राजी न कर सकोगे कि पूना की पहाड़ी पर चढ़ जाओ। वे कहेंगे, क्या मजाक करते हो!
दादू को जिसने देखा, भर गया मन। इससे न परम सौंदर्य हो सकता है, न परम प्रसाद हो सकता है। रज्जब ने आंखें इसलिए बंद नहीं कीं कि आसक्ति थी। नहीं, रज्जब ने आंखें बंद कीं कि अब आंखों पर व्यर्थ की धूल क्यों जमानी! कौन देखने को बचा? दादू में सब देख लिया देखने योग्य। दादू में परमात्मा को भी देख लिया। अब और क्या देखना है!
सूरदास की कहानी है कि उन्होंने आंखें फोड़ ली थीं; वह डर के कारण, भय के कारण। अगर सच है कहानी तो। मैं नहीं मानता कि सच है। नहीं होनी चाहिए! क्योंकि सूरदास के प्रति मेरा आदर इतना है कि मैं कहानी को झूठ कहूंगा। मेरे अपने मापदंड हैं। सूरदास के प्रति मेरा सम्मान इतना है कि मैं सारे इतिहास को झुठला सकता हूं। नहीं, यह कहानी सच नहीं हो सकती। क्योंकि अगर यह कहानी सच हो तो सूरदास की सारी गरिमा मिट्टी में मिल जाती है। यह कहानी झूठ होनी ही चाहिए। एक सुंदर स्त्री को देख कर डर के कारण सूरदास आंखें फोड़ लें कि ये आंखें रहेंगी तो आसक्ति रहेगी, वासना जगेगी।
क्या तुम सोचते हो अंधे आदमी में वासना नहीं होती? तब तो अंधे फिर धन्यभागी हैं! फिर उन पर दया मत करो, दया खुद पर करो कि भगवान ने तुम्हें अंधा नहीं बनाया। फिर तो अंधों की पूजा करो। उनकी आंखों का इलाज मत करवाओ। फिर डाक्टर मोदी से प्रार्थना करो कि यह जो तुम करते हो नेत्र-चिकित्सा यज्ञ, बंद करो! कहां बेचारे धन्यभागी पुण्यात्माओं को तुम वापस संसार में घसीट रहे हो!
अंधे कोई ज्ञान को उपलब्ध नहीं हो जाते, न वासना से मुक्त हो जाते हैं। अंधे तो और भी तड़फड़ाते हैं वासना से। तुम्हारे पास तो कम से कम आंख तो है। आंख भी तृप्ति देती है, क्योंकि आंख भी तो अनुभव का एक ढंग है। आंख भी तो छूने का एक उपाय है। और आंख बंद कर लोगे, इससे क्या होगा? तुम ही खुद आंख बंद करके देखो। जिन तस्वीरों के डर के कारण तुमने आंख बंद कर ली है, वे ही तस्वीरें और-और सुंदर होकर प्रकट होंगी। होने ही वाली हैं।
कल ही लक्ष्मी एक लेख लेकर आई थी। किसी मित्र ने सूरत से भेजा है। मुक्तानंद के संबंध में है--कि जब वे साधना कर रहे थे और ध्यान करते थे एक कोठरी में बंद होकर, तो दरवाजा बंद, ताला लगा और एक सुंदर स्त्री एकदम प्रकट हो जाए। बहुत सुंदर स्त्री! वे इतने घबड़ा जाएं कि दरवाजा खोल कर बाहर आ जाएं। बाहर एक झूला था, उस झूले पर बैठ जाएं। मगर वह स्त्री उनका पीछा करे, वह उनका पीछा न छोड़े। तो जिन मित्र ने भेजी है वह अखबार की कटिंग, उन्होंने पूछा है कि इसका क्या रहस्य है?
इसमें कुछ रहस्य है? यह तो सीधी-सादी बात है। दबाई हुई वासना न तालों से रोकी जा सकती है, न दीवालों से रोकी जा सकती है। कोई स्त्री वगैरह नहीं आ रही है। जरा मुक्तानंद अपनी तस्वीर तो आईने में देखें! कौन सुंदर स्त्री दीवाल-दरवाजे पार करके आएगी? किसी सुंदर स्त्री के पीछे खुद तो जाकर देखें। भागेगी! पुलिस में खबर कर देगी! नहीं, अपनी ही दबाई हुई वासना...
मगर उन्होंने कहानी इसलिए लिखी है कि इस तरह से ऋषि-मुनियों के जीवन में सदा होता रहा, सो वे भी ऋषि-मुनि हो गए। वे ऋषि-मुनि भी इन्हीं जैसे थे। इससे मुक्तानंद की ऊंचाई नहीं बढ़ती, इससे केवल ऋषि-मुनियों की ऊंचाई गिरती है, और कुछ नहीं होता। इससे सिद्ध होता है कि तुम्हारे तथाकथित ऋषि-मुनियों में भी अधिकतर वासनाग्रस्त, अपनी वासना को दबाए हुए लोग थे। अप्सराएं आ रही हैं उनको सताने के लिए। जैसे अप्सराओं को और कहीं कोई सुंदर व्यक्ति मिल नहीं सकते! और ऋषि-मुनियों की हालत तो देखो। सूख कर कांटा हो रहे हैं, काले पड़ गए हैं, धूप-धाप में खड़े रहे हैं, शरीर हड्डी-हड्डी हो गया है। इन जीर्ण-जरा कंकालों के लिए अप्सराएं आती हैं स्वर्ग से! इंद्र से मन नहीं भरता, इंद्राणी इनकी तलाश करती आती है! सिर्फ दबी हुई वासना है, और कुछ भी नहीं।
सूरदास ने आंखें नहीं फोड़ लीं डर के कारण। हां, यह मैं मानता हूं कि हो सकता है आंखें बंद कर ली हों जिस दिन परमात्मा देखा हो उस दिन। फिर देखने को कुछ न रहा हो। जैसे रज्जब को हुआ। रज्जब ने तो साक्षात दादू में परमात्मा को उठते-बैठते, चलते-बोलते, सब तरह से देखा था। अब देखने को कुछ नहीं बचा तो आंख बंद कर लीं। नहीं किसी आसक्ति के कारण, वरन किसी परम अनुभव के कारण। अपमान होगा दादू का, अब क्या देखना है! असंभव था यह रज्जब के लिए। जिस दादू से सब कुछ मिल गया, अब उसको छोड़ कर और क्या देखना है!
और सुंदरो, इधर उठी लाश उधर वह बिस्तर में समा गया! उसने ओढ़ लिया कंबल दादू का। सुंदरो का इतना तादात्म्य हो गया था दादू से कि बहुत बार ऐसा हो जाता था कि सुंदरो बाहर बैठा है और कोई आया और उसने पूछा कि दादू कहां हैं, मुझे दर्शन करने हैं--तो वह अपनी तरफ बता देता। इतना तादात्म्य था उसका। उसने अपने को ऐसा लीन किया था दादू में!
जब शिष्य अपने को गुरु में डुबोता है, तो गुरु को भी अपने में डूबा हुआ पाता है। जब शिष्य अपने भेद छोड़ देता है, तो गुरु के तो भेद पहले से ही न थे, अभेद हो जाता है। कई बार तो लोग बड़े नाराज हो जाते जब उनको बाद में पता चलता कि वे सुंदरो के ही पैर छूकर लौट आए। और लोग आकर कहते सुंदरो को कि यह बात ठीक नहीं, यह कैसी मजाक! हम मीलों चल कर आए दादू को नमस्कार करने! पर सुंदरो कहता कि तुम नमस्कार करके गए, तुम्हारा नमस्कार पहुंच गया। अब वैसे तुम्हारी जिद शरीर की ही हो, तो भीतर चले जाओ, दादू वहां हैं। अगर आत्मा का सवाल हो, तो मेरी आंखों में झांक लो और तुमने दादू की आंखों में झांक लिया।
इसलिए दादू की तो लोग अरथी ले चले, सुंदरो उनकी अरथी में भी नहीं गया। वह बिस्तर पर लेट रहा। जैसे रास्ता ही देखता हो इतने दिन से कि हटो भी अब! यानी अब हम कब तक बिस्तर के बाहर ही रहें! न रोया, न परेशान हुआ। दादू के कपड़े पहन लिए। जब लोग लौट कर आए तो देखा कि वह बिलकुल ही दादू बना बैठा है। दादू के कपड़े, दादू का कंबल, वही रंग-ढंग। और उस दिन से लोगों ने देखा कि उसकी वाणी में भी वही बात आ गई जो दादू की वाणी में थी। उसके आस-पास भी वही प्रसाद, वही सुगंध बिखरने लगी जो दादू में थी। और उसने अपना नाम ही नहीं बचाया। सुंदरो तो छोड़ ही दिया उसने। उसके बाद उसने जो पद लिखे हैं, उसमें वह दादू का ही उल्लेख करता है--कहे दादू! लिखता है सुंदरो, लेकिन पद में जोड़ता है--कहे दादू! लोगों ने उससे कहा भी कि इससे बड़ी मुश्किल होगी, पीछे लोग तय न कर पाएंगे कि कौन से वचन दादू के, कौन से सुंदरो के!
उसने कहा, तय करने की जरूरत ही क्या है? सभी वचन उनके हैं! सुंदरो है कहां? सुंदरो कब का गया! सुंदरो, पहले दिन ही मैं उनके पैरों में गिरा था, उसी दिन चला गया। तुमको देखने में देर लगी, बात और; मैं तो उसी दिन समझ गया कि अब इस आदमी के सामने क्या टिकना! इस आदमी के साथ क्या बचना! इससे क्या अलग-थलग रहना! इसके साथ तो एक हो जाने में मजा है। बूंद मेरी उसी दिन सागर हो गई। तुम मानो या न मानो, लेकिन जब बूंद सागर में गिरती है तो सागर हो जाती है। सुंदरो नहीं बचा है।
यही उसका सौंदर्य था। दादू ने उसे सुंदरो का नाम दिया था--यही उसका सौंदर्य था कि उसका समर्पण समग्र था।
रज्जब के लिए दादू कहते थे: रज्जब, तू गज्जब कियो! उसने भी गजब का काम किया था।
दो कहानियां प्रचलित हैं रज्जब के संबंध में। एक तो यह कि बचपन में उसके मां-बाप, जब वह केवल सात वर्ष का था, दादू को नमस्कार करने आए थे और रज्जब को साथ ले आए थे। रज्जब फिर लौटा नहीं। मां-बाप तो लौट गए। बहुत समझाया, लेकिन रज्जब ने कहा कि जिसकी तलाश थी वह मिल गया; जिस घर की तलाश थी वह मिल गया। मुझे मेरा असली घर मिल गया। आपके घर अब तक टिका था, क्योंकि असली घर का मुझे पता नहीं था। आप मेरे मां-बाप थे, क्योंकि मुझे असली मां-बाप का पता नहीं था। अब नहीं जाऊंगा।
इसलिए दादू कहते हैं: रज्जब, तू गज्जब कियो! सात साल का बच्चा!
दूसरी कहानी है कि रज्जब की बारात निकली है। वह दूल्हा बन कर विवाह करने जा रहा है। ठीक बारात पहुंच गई गांव में। दुल्हन के घर शहनाई बज रही है, मेहमान इकट्ठे हो गए हैं, स्वागत की तैयारियां हो रही हैं, बैंड-बाजे बज रहे हैं। फूलों से लदा हुआ रज्जब का घोड़ा, रज्जब शान से घोड़े पर बैठा है! और बीच रास्ते पर दादू आकर खड़े हो गए, घोड़े की लगाम पकड़ ली। रज्जब ने एक क्षण उनकी आंखों में देखा, घोड़े से उतर कर उनके पैरों पर गिर पड़ा। और बारातियों से कहा, वापस जाओ। जिससे विवाह होना था वह यहीं आ गया।
रज्जब, तू गज्जब कियो!
ये दो कहानियां प्रचलित हैं। कौन ठीक है, कौन ठीक नहीं, इस सब में मैं नहीं पड़ता। क्योंकि दोनों तो ठीक नहीं हो सकतीं। या पहली ठीक होगी तो दूसरी नहीं हो सकती ठीक या दूसरी होगी तो पहली ठीक नहीं हो सकती। मगर यह व्यर्थ की बकवास पंडितों के लिए। वे इसकी खोजबीन करें। मुझे कुछ अड़चन नहीं मालूम पड़ती; मुझे तो लगता है दोनों एक साथ ठीक हो सकती हैं। क्योंकि उन दिनों छोटे बच्चों के विवाह होते थे, सात साल का बच्चा ही...बारात निकली...और बारात कोई उन दिनों पच्चीस साल की नहीं निकलती थी। जमाने बदल गए।
मेरी मां मुझसे कहती है कि उनका जब विवाह हुआ तो नौ साल की कुल उनकी उम्र थी। पता ही नहीं था, क्या हो रहा है! और सारा गांव इकट्ठा है, सारे लोग बाहर हैं, सिर्फ मेरी मां को ही लोग बाहर नहीं जाने दे रहे हैं! और उसकी बेचैनी, क्योंकि घोड़े पर सवार होकर दूल्हा आया है, उसको भी देखना है। और बैंड-बाजे बज रहे हैं, जैसे कभी नहीं बजे घर पर। और सारे घर में रोशनी की गई है और दीवाली मनाई जा रही है और पटाखे-फुलझड़ी छूट रहे हैं और यह मौका और नौ साल की बच्ची को घर के भीतर बंद रखो! आखिर वह पहुंच ही गई। देखना ही पड़ेगा।
उन दिनों शायद रज्जब सात साल का ही रहा हो और ये दोनों बातें एक साथ घट गई हों। पर बातों का कोई बहुत मूल्य नहीं है संतों के जीवन में। घटनाएं तो प्रतीकात्मक हैं; हुई भी हों, न भी हुई हों; मगर उनका सार पी लेने जैसा है, आत्मसात कर लेने जैसा है।
शीला कह रही है कि संत रज्जब, सुंदरो और दादू की मृत्यु की कहानी मेरे लिए बड़ी ही रोमांचक रही। परंतु मेरे गुरु और हमारे प्यारे दादा, जो मेरे मित्र भी थे, उनकी मृत्यु के समय की आंखों देखी घटना का अनुभव मेरे लिए उससे भी कहीं अधिक रोमांचकारी हुआ।
स्वाभाविक। मैंने कहा, तुमने माना, प्रीति उमगी। लेकिन फिर भी जब तुम खुद देखोगी, तो बात और हो जाएगी। मगर खयाल रखना, अगर मैंने रज्जब, सुंदरो और दादू की कहानी तुमसे न कही होती, और-और न मालूम कितने रज्जब और सुंदरो और दादुओं की कहानियां तुमसे न कही होतीं, तो शीला, तुम मेरे पिता की मृत्यु में भी चूक जातीं, देख नहीं पातीं। उन सारी कहानियों ने रास्ता बना दिया। उन सारी कहानियों ने तुम्हारे भीतर संवेदनशीलता जगा दी, होश जगा दिया।
अब यहां मेरे बहुत से रिश्तेदार इकट्ठे हुए हैं। उनकी समझ के बाहर है। मेरी एक बहन के पति कैलाश ने लिखा है कि आप कितना ही कहें कि यह उत्सव मनाने का क्षण है, मैं नहीं मान सकता।
कैसे मानोगे? संन्यासी नहीं हो। मेरे रंग का तुम्हें कोई अनुभव नहीं है। मुझमें डूबे नहीं हो। मेरे संन्यासियों को समझ में आता है कि उत्सव की घड़ी है। तुम्हें समझ में नहीं आ सकता। स्वाभाविक है।
दूसरे एक रिश्तेदार ने लिखा है कि यद्यपि मैं संदेह नहीं करना चाहता; लेकिन बुद्धत्व हो सकता है, इसमें मुझे संदेह उठता है।
स्वाभाविक। तुम्हें ध्यान का कोई अनुभव न होगा, संन्यास का कोई अनुभव न होगा। बुद्धत्व तो बहुत दूर की बात हो गई फिर। कंकड़-पत्थरों का अनुभव नहीं है, हीरे-जवाहरातों की बात ही क्या करनी है! साधारण अनुभव ध्यान का न हो तो असाधारण आत्यंतिक अनुभव की तो तुम कल्पना भी नहीं कर सकते, अनुमान भी नहीं कर सकते। तुम यहां आ गए हो, औपचारिक है तुम्हारा आना। तुम्हारा संबंध पारिवारिक है, सामाजिक है। तुम्हारा संबंध आत्मिक नहीं है। जो मेरे रंग में नहीं डूबे हैं, वे सोचते भला हों कितने ही कि मेरे परिवार के हैं, मेरे परिवार के नहीं हैं। मेरा परिवार तो उन दीवानों का है जो गैरिक हैं।
इसलिए कल एक दूसरे मेरे बहन के पति ने कहा कि हम सब की इच्छा है कि परिवार के सब लोग इकट्ठे हुए हैं, तो आप के साथ बैठ कर हम परिवार के सारे लोग तस्वीर उतरवाएं।
मैंने कहा कि मत करो ऐसी झंझट। ज्यादा उनसे नहीं कहा, क्योंकि अकारण दुख मैं कभी किसी को देना नहीं चाहता। देने योग्य कोई हो उसी को दुख देता हूं। उसको भी अर्जित करना होता है। मेरी चोट खानी हो तो उसकी पात्रता चाहिए। उनको क्या दुख देना! नये-नये हैं, नया-नया मेरी बहन से विवाह हुआ है। मुझसे कुछ ज्यादा लेना-देना नहीं है। दो दिन के लिए पहले आए थे, दो दिन के लिए अभी आए हैं, बस इतना ही संबंध है। लेकिन मैं यह कह देना चाहता हूं कि मेरा परिवार तो मेरे संन्यासियों का है, और मेरा कोई परिवार नहीं है। मेरे परिवार में संयुक्त होने का तो एक ही उपाय है--और वह है: मैं जिस यात्रा पर ले चल रहा हूं लोगों को, उस यात्रा में सम्मिलित हो जाओ।
शीला, इसलिए तुझे अनुभव हो सका, संवेदनशीलता निर्मित हुई है।
शीला भी मेरे पास ऐसे आकर डूब गई जैसे रज्जब डूब गया था दादू के पास आकर। शीला, तू गज्जब कियो! अमेरिका में थी। सब सुख-सुविधा में थी। खूब कमा रही थी। और मुझसे मिलने तो आकस्मिक रूप से आई थी। और वैसे ही जैसे रज्जब मां-बाप के साथ मिलने चला गया था। चूंकि शीला के पिता मेरे विचारों में उत्सुक रहे हैं, उन्होंने शीला को कहा कि जाने के पहले, अमेरिका जाने के पहले, एक दफा मुझे मिल आए। चूंकि पिता ने कहा था, इसलिए मिलने आ गई थी। मगर आई सो आई, फिर गई नहीं। झुकी सो झुकी, फिर उठी नहीं। डूबी सो डूबी। फिर भूल ही गई अमेरिका और अमेरिका की सारी सुख-सुविधा। फिर मैं ही उसका सब कुछ हो गया। उससे हृदय तैयार हुआ है, एक पात्रता निर्मित हुई है, आंखें खुली हैं। इसलिए यह अपूर्व घटना से तू चूक नहीं सकी। यह तुझे दिखाई पड़ सका कि कुछ अभूतपूर्व घटित हुआ है।
जो भी वहां मुझमें डूबे हुए लोग थे, उन सबको लगा। निकलंक वहां था, शैलेंद्र वहां था, अमित वहां था, स्वभाव वहां था, सोहन वहां थी, ऊषा वहां थी। शीला रोज चक्कर मारती थी। लक्ष्मी वहां रोज जाती थी। मेरी मां वहां थी। उन सबको अनुभव हुआ कि कुछ अपूर्व घटित हुआ है, जिसको भाषा में बांधने की कोई सुविधा नहीं है, जिसे समझना मुश्किल है। लेकिन कुछ हुआ है, कुछ पार का उतरा है! यह सब उन्हीं को अनुभव हो सका जो मेरे निकट थे। वहां नर्सें भी थीं, वहां डाक्टर भी थे, वहां अस्पताल का स्टाफ भी था; उनको कुछ अनुभव नहीं हो सका।
जब मैं दूसरे दिन यहां बोला तो डाक्टर सरदेसाई ने सारे स्टाफ और डाक्टरों को इकट्ठा करके मेरा टेप सुनवाया। सरदेसाई का धीरे-धीरे मुझसे लगाव बनना शुरू हुआ है। डरते-डरते, झिझकते-झिझकते। स्वाभाविक है, मेरे जैसे आदमी के पास आकर घबड़ाहट तो लगती है। घबड़ाहट यह लगती है--पत्नी है, बच्चे हैं, उनकी फिक्र करनी है। और यहां देखते हैं, जो लोग आते हैं वे ऐसे दीवाने हो जाते हैं, डूब जाते हैं। अब उनके मित्र अजित सरस्वती को उन्होंने डूबते देखा है। अजित सरस्वती ही उन्हें मेरे पास ले आए। वे मेरे डाक्टर हैं। मेरे शरीर में कुछ गड़बड़ होती है तो वे आते हैं। मगर वे आए और भागे। एक सेकेंड ज्यादा वे कमरे में नहीं रुकते हैं। और मैं जानता हूं कारण, वे भी जानते हैं और उन्होंने लोगों को कहा भी है कि कारण है। अभी मेरी तैयारी नहीं है। और खतरा वहां यह है कि मैं तो जाऊं उनका शरीर देखने, मैं तो पकडूं उनकी नब्ज, वे पकड़ लें मेरी नब्ज! फिर मेरे बच्चे, फिर मेरी पत्नी...।
उनको थोड़ा-थोड़ा कुछ भान था, कुछ हुआ, धुंधला-धुंधला, बहुत दूर की आती ध्वनि, लेकिन साफ नहीं। चिंतित जरूर थे कि जब तबीयत बिलकुल ठीक हो गई थी, जब खतरे के बिलकुल बाहर हो गए थे...। दिन में तीन बार मुझे खबर करते थे कि अब कैसी स्थिति है, कैसी स्थिति है। अड़तालीस घंटे तक कहा था कि खतरा है, फिर कहा कि अब कोई खतरा नहीं है। और अब तो काफी दिन, पांच सप्ताह बीत चुके थे। अब तो खतरे का सवाल ही नहीं था। जब खतरा था तब खतरा न हुआ और जब सारा खतरा बीत चुका था तब अचानक एक क्षण में शरीर छूट गया। धक्का तो उन्हें भी बहुत लगा। लगता था सफल हुए जा रहे हैं। और एक चमत्कारपूर्ण सफलता थी। साधारणतः उस तरह की बीमारी ठीक नहीं होती। पैर पुनरुज्जीवित होने लगा था, उसमें फिर गरमी आने लगी थी, खून फिर दौड़ने लगा था, वे फिर चलने लगे थे। ऐसी हालत में तो पैर को काटना ही होता है, और कोई उपाय नहीं होता। मस्तिष्क में खून जम गया था, वह फिर पिघल गया था। वे ठीक से बोलने लगे थे। सब स्वस्थ हो गया था। और उस दिन तो परिपूर्ण स्वस्थ थे। और अचानक भोजन करने के बाद एक क्षण में सारी बात समाप्त हो गई, हिचकी भी न आई!
आमतौर से मरते वक्त हिचकी आती है। लेकिन जिनका जीवन सातवें चक्र से निकलता है, सहस्रार से, उनको हिचकी नहीं आती। जिनका जीवन, जिनका प्राण सहस्रार से, सातवें चक्र से विदा होता है, वे दुबारा जगत में वापस नहीं लौटते और उनकी विदाई का क्षण अपूर्व होता है। इसलिए बहुत से मित्रों ने लिखा है...वैराग्य वहां मौजूद था और उसने लिखा है कि मैं और भी मृत्युओं में मौजूद रहा हूं, लेकिन जब भी मैंने मृत्यु कहीं देखी है तो बहुत भारीपन छाती पर उतर आया, बड़ी उदासी, बड़ी बेचैनी। लेकिन यहां तो उलटा ही हुआ। मृत्यु घटी तो मेरा सारा भार समाप्त हो गया! मैं इतना हलका-फुलका हो गया जैसा मैं कभी भी न था! और वहां एक ताजगी थी और एक हवा थी। एक और ही लोक की हवा! जैसे मृत्यु घटी ही नहीं है! जैसे महाजीवन घटा है!
जो मुझसे जुड़े हैं, जिन्होंने ध्यान अनुभव किया है, मैं जो तुमसे निरंतर कह रहा हूं जिन्होंने उसे जाना है, जो मेरे साथ तादात्म्य कर लिए हैं, जो या तो रज्जब हो गए हैं या सुंदरो हो गए हैं--वे ही मेरे परिवार के हैं। और जिनको भी मेरे परिवार का होना हो उनके लिए द्वार खुले हैं, निमंत्रण है। लेकिन औपचारिकता से मेरे परिवार का कोई संबंध नहीं है।
शीला, तू कहती है: "इससे मेरी आंखें मधुर आंसुओं से भर जाती हैं।'
निश्चित ही। आंसू तो आएंगे, क्योंकि फिर दुबारा तू उन्हें न देख पाएगी। आंसू तो आएंगे, क्योंकि दुबारा अब वैसा सौम्य और सरल और वैसा स्वाभाविक और नैसर्गिक व्यक्ति खोजना मुश्किल होगा। एक व्यक्ति जैसा दूसरा व्यक्ति होता भी नहीं। इसलिए जो बात विदा हो गई, आकाश में सुगंध होकर उड़ गई, उसे अब दोबारा मुट्ठी में पकड़ने का उपाय नहीं है। इसलिए आंसू तो आएंगे। लेकिन चूंकि तू समझती है, तुझे बोध है, इसलिए आंसू भी मधुर होंगे, मीठे होंगे। उनमें आनंद का स्वर होगा। उनमें आनंद के घूंघर बजते होंगे।
रोओ भी तो आनंद से रोओ। रोओ भी तो नाचते हुए रोओ। तुम्हारे आंसू भी फूल हों। तुम्हारे आंसुओं में भी वीणा के स्वर हों। मैं तुम्हें जीवन ही नहीं सिखाना चाहता, मैं तुम्हें मृत्यु भी सिखाना चाहता हूं। ये सारे अवसर हैं। ऐसे और अवसर आएंगे। एक लाख संन्यासी हैं। बहुत से मित्र विदा होंगे, तो तुम्हें विदाई देने की कला भी सीखनी होगी--नाचते, गाते, रोते--लेकिन रोना दुख का नहीं, पीड़ा का नहीं, संताप का नहीं--आनंद का, उत्सव का, महोत्सव का!

आज इतना ही।


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