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शनिवार, 12 मई 2018

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-22

शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-बाईसवां
मनोविश्लेषण, मनोजागरण ओर मनोसाधना
ओशो , इनफेक्ट इट इ.ज नाॅट रियली क्लियर टु मी व्हेदर आर वि लीविंग आर डाइंग। सर, ए.ज इट एपीयर्स टु मी देट दि सोसाइटी इन व्हिच वी लीव इ.ज नाॅट हेल्थी इन इट्स ट्रू सेंस एण्ड इ.ज डाॅमिनेटेड बाई दि कंट्रोवर्शियल इस्यूस लाइक एजुकेशन, रिलीजन एण्ड साइंस, रादर नाॅट बीइंग डाइनैमिक। ए.ज आई अंडरस्टैंड सर, बिका.ज आॅफ दी.ज वेरियस कंडीशंस वी आर सिं्वगिंग लाइक दि क्लाक पेंडुलम। वुड यू प्लीज सजेस्ट सम एजुकेशन रिफार्मस व्हिच शुड मेक अवर लाइव्स वर्थ लीविंग?

जीवन और मृत्यु के संबंध में एक बात सबसे पहले समझ लेनी जरूरी है और वह यह कि जीवन है परिवर्तन, सतत परिवर्तन और मृत्यु है थिरता, अनंत थिरता। मृत्यु का अर्थ है किसी का ऐसी स्थिति में पहुंच जाना जहां फिर परिवर्तन न हो सके। और जीवन का अर्थ है, ऐसी स्थिति में बना रहना जहां परिवर्तन निरंतर हो सकता है। जो व्यक्ति जितना परिवर्तनशील है, उतना जीवित है। और जो व्यक्ति जितना थिर हो गया है, स्टैग्नेंट हो गया है, रुक गया, ठहर गया उतना ही मृत है।
तो मृत्यु का और जीवन का अर्थ चाहे व्यक्ति के संबंध में, चाहे समाज के संबंध में, चाहे सभ्यता के संबंध में, कुछ समाज हैं जो ज्यादा मरे हुए हैं, कुछ समाज हैं जो ज्यादा जीवित हैं। कुछ सभ्यताएं हैं जो ज्यादा मरी हुई हैं। कुछ सभ्यताएं हैं जो ज्यादा जीवित हैं। लेकिन फिर भी अब तक ठीक अर्थों में मनुष्यता जीवित नहीं कही जा सकती। मनुष्यता करीब-करीब मृतप्राय है और ऐसा आज ही नहीं हो गया है, ऐसा अतीत से ही रहा है। असल में हमने जो मूल्य चुने हैं, वे मूल्य ही मृत्यु के मूल्य हैं, जीवन के मूल्य नहीं हैं। जो वैल्यूज हमने चुनी हैं, वे मार डालने वाली हैं। जीवन को पुलक देने वाली नहीं हैं। जैसे मनुष्यता के सारे आधार अतीत के आदर पर खड़े हुए हैं--जो बीत गया, उसका सम्मान और आदर। जो बीत गया है, वह मर चुका है। मरे हुए का बहुत आदर नए के जन्म देने में बाधा बनता है।
आदर का, सम्मान का भाव तो होना चाहिए नये सूरज के लिए, नया सूरज जो उग रहा है उसके लिए। जो डूब गया सूरज, सूर्यास्त हो चुका, उसके लिए अगर बहुत आदर जगाया जाए तो व्यक्ति को, समाज को मारने वाला सिद्ध होता है। जो व्यक्ति और जो समाज अतीतोन्मुख है, चित्त का केंद्र अतीत है, बीत गया, मर चुका--वह एक अर्थों में मरघट में जी रहा है। जहां जीवन का जन्म हो रहा है भविष्य में, जहां सूरज उगेंगे, जहां नया जीवन खिलेगा, जहां नई संभावनाएं विकसित होंगी, वहां हम नहीं जी रहे हैं। हम जी रहे हैं वहां, जहां संभावनाएं समाप्त हो गई हैं, जहां मरघट है, जहां कब्रें हैं, जहां चिताएं जल गईं, जो बीत चुका, ना हो चुका, समाप्त हो चुका, वहां हमारा चित्त केंद्रित है। तो यह जीवन को गति देने वाला मूल्य न हुआ।
जीवन को गति देने वाला मूल्य तो तब होगा जब हम समाज को भविष्योन्मुख बना सकें, फ्यूचर-सेंटर्ड बना सकें। अभी जो समाज है, वह पास्ट-सेंटर्ड है। ऐसे ही जो हमें ज्ञात है, जो नोन है, जो हमारा ज्ञान बन गया, हम उसी से चिपक कर जीने को बड़ा मूल्यवान मानते रहे हैं। वेद है, गीता है, कुरान है, बाईबल है, महावीर है, बुद्ध है, क्राइस्ट है, कृष्ण है, कनफ्यूशियस है, ये वे नाम हैं जो मनुष्य जाति जान चुकी। दैट व्हिच है.ज बिकम नोन और और हम इसी को पकड़ कर रह जाएं तो वह जो अननोन है, अज्ञात है उसे हम कभी भी नहीं खोल पाएंगे। क्योंकि ज्ञात से जाने वाला कोई भी मार्ग अज्ञात में नहीं ले जाता। अज्ञात में जाना हो तो ज्ञात को छोड़ने की निरंतर क्षमता चाहिए। जो हमने जान लिया उसे छोड़ने की हिम्मत चाहिए। तब हम उसे जान सकते हैं जो अभी नहीं जाना गया है। और जो हमने जाना है, वह इतना कम है उसके मुकाबले जो हमने नहीं जाना है कि इसे पकड़ लेना अपने हाथ से मरने का उपाय खोजना है। लेकिन मनुष्य निरंतर ज्ञान को बहुत मूल्य देता रहा है। ज्ञान यानी जो जाना जा चुका है और अगर जाने जा चुके को हम बहुत मूल्य देंगे--वेदों को, कुरानों को पकड़ लेंगे तो जो नहीं जाना जा सका है, उसे हम कभी भी न जान सकेंगे और जीवन है उसको निरंतर जानने में जो नहीं जाना गया है। जो अज्ञात है उसे उघाड़ने में, उसे डिसकवर करने में, उसे अनावृत करने में।
तो ज्ञान का मूल्य कम होना चाहिए। ज्ञान की पकड़ कम होनी चाहिए। अज्ञान का बोध ज्यादा होना चाहिए। यानी मैं यह कह रहा हूं कि जीवन के पक्ष में अज्ञान का बोध, दि कांशियसनेस आफ इग्नोरेंस कि कितना हम हैं जो नहीं जानते हैं, यह तो जीवन को विकास देगा। क्योंकि नहीं जानते हैं तो जानें और अगर हमने ज्ञान को जो छोटा सा कोना जान लिया है, उसको महत्वपूर्ण समझ लिया और उसे पकड़ लिया और ज्ञानी बन कर बैठ गए तो मर गए।
तो जो समाज जितने ज्यादा अतीत के ज्ञान को पकड़ कर बैठ गए हैं वे उतने ही मरे हुए समाज हो जाएंगे। लेकिन जो समाज अनजान, अज्ञात, अननोन में प्रवेश कर रहे हैं वे उतने जीवित समाज होंगे। निश्चित ही ज्ञान को पकड़ लेना सुविधापूर्ण है, कनवीनिएंट है, कंफर्टेबल भी है। अज्ञान का बोध बहुत इनकनवीनिएंट है। क्योंकि यह जानना कि मैं क्या नहीं जानता हूं। एक यात्रा पर ले जाएगा मुझे जहां मुझे जानने के लिए श्रम करना पड़ेगा और यह मान लेना कि यह हम जानते हैं, सब यात्रा का अंत हो गया, मैं जहां हूं वहीं ठहर जाता हूं। यह कष्टपूर्ण नहीं है और जीवित होने में कष्ट छिपा है। मरना बड़ा कनवीनिएंट है। असल में मौत बड़ी सुखद है, क्योंकि सब चिंताओं से, सब खोजों से, जीवन के बोझ से, जीवन के तनाव से, श्वास लेने की पीड़ा और कष्ट से भी मुक्त कर देती है। तो हम जाने अनजाने सुख और सुविधा की तलाश में मरने का इंतजाम कर लेते हैं और एक डाइंग कल्चर पैदा हो जाता है। जो दिखता भर है कि जी रहा है, लेकिन मरता है।
अगर हमें जीवंत संस्कृति चाहिए तो हमें निरंतर श्रम को, नई संभावनाओं को, नये कष्टों को, नये तपों को स्वीकार करने का, बल्कि आमंत्रण देने का मन होना चाहिए। अज्ञान का बोध चाहिए, ज्ञान का बोझ नहीं। ज्ञान का बोझ मार डालता है। इसलिए ज्ञानियों से ज्यादा मरे हुए आदमी खोजना मुश्किल है, डेड माइंडस्। पंडितों से ज्यादा मरा हुआ मस्तिष्क होता ही नहीं...। उसके पास कुछ भी जीवन नहीं, और जितना व्यक्ति खोज कर रहा होगा, जीवंत होगा, ज्ञान से मुक्त होगा, अज्ञान के बोध से भरा होगा, उतना अज्ञात में प्रवेश करता रहेगा।
अब यह बड़े मजे की बात है, जिनके मन में ज्ञान का बोझ जितना ज्यादा है, वे उतना ही कम जान पाएंगे। यह उल्टा मालूम पड़ता है। ज्ञान की पकड़ जिनकी जितनी ज्यादा है, वे जानने की दुनिया में उतना ही कम जान पाएंगे। जिनकी ज्ञान पर कोई पकड़ नहीं है, जो ज्ञान से मुक्त हैं और जिन्हें अज्ञान का बोध है, वे विनम्र होंगे और जानने की यात्रा में लगे रहेंगे और उनके चित्त को अगर निरंतर जीवित रहना हो तो जो वे खुद जान लेंगे, उसे भी छोड़ते चले जाएंगे। उससे भी वे बोझ से नहीं भर जाएंगे। यानि गीता और कुरान ही मुझे बोझ से नहीं भर सकते, मैंने भी पिछले तीस-चालीस वर्षों में जो जाना है, अगर उसे भी मैं पकड़ लूं, अपने अनुभव को भी अगर मैं पकड़ लूं, अगर उसके लिए भी मैं का भाव पकड़ लूं कि मैं जान गया तो फिर आने वाले दिन मरे हुए होंगे, फिर मैं और नहीं जान पाऊंगा। इसलिए ज्ञान की प्रक्रिया का सिक्रेट और राज यह है कि जानूं और छोड़ूं ताकि तुम निरंतर जानते रहो। जानो और जाने दो ताकि तुम निरंतर ओपन खुले और मुक्त रहो ताकि द्वार से जो और नया आ सके वह आए। जानो और छोड़ दो, लेकिन हम आम तौर से जानते ही हैं और पकड़ते हैं। बल्कि मजा यह है कि जो हम नहीं भी जानते उसको भी जानने की तरह पकड़ लेते हैं। हमने ज्ञान को तिजोड़ी बना रखा है कि जानो और ताला लगा के बंद करलो, यह संपत्ति है। और जिस ज्ञान को हम पकड़ लेते हैं, वह पत्थर हो जाता है, मर जाता है।
ज्ञान तो निरंतर जानने में है। यानि इसे ऐेेसा समझना चाहिए, नाॅलेज मूल्यवान नहीं है, नोइंग मूल्यवान है। ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है। जानने का मूल्य है, क्योंकि ज्ञान का मतलब है, पूरा हो गया, वृत क्लोज हो गया और जानने का अर्थ है, ओपनिंग है, जान रहे हैं। जान रहे हैं, जानते जा रहे हैं और ऐसी कोई घड़ी न आए, जहां यह भ्रम पैदा हो जाए कि जान लिया।
जिस समाज को, जिस व्यक्ति को, जिस सभ्यता को यह ख्याल आ गया कि जान लिया, ह मर गया। भारत इसी तरह मरा। इसको हजारों साल से यह ख्याल है कि जान लिया, पा लिया सब, सर्वज्ञ हो गए हम, जगद्गुरु हो गए हम। जो जानना था वह जान लिया। इसलिए आइंस्टीन भारत में पैदा नहीं होता। कैसे होगा? यहां नहीं पैदा हो सकता। यहां तो हम बहुत पहले ही जानने का काम पूरा कर चुके हैं। वह तो गीता के वक्त ही रुक गया। वह तो बुद्ध और महावीर पर भी हमने दरवाजे बंद कर दिए। जानना पूरा हो चुका। अगर बुद्ध पर जानना पूरा हो चुका है तो बुद्ध के बाद के पच्चीस सौ वर्ष जीवित कैसे हो सकते? मरे हुए होंगे और फिर बुद्ध के पैदा होने की संभावना नहीं हो सकती। क्योंकि बुद्ध तो उसी पीड़ा में से और चिंता में से पैदा होते हैं जो जानने की खोज है। और हम, हम तो शांत होकर बैठ गए हैं क्योकि जान लिया गया है।
तो मैं यह कह रहा हूं कि संस्कृति, सभ्यता, समाज मरा हुआ हो जाता है, अगर उसके मूल्य मरने के हों। जैसे नोइंग का मूल्य तो जीवन का है, नालेज का मूल्य मरने का है। लर्निंग का मूल्य तो जीने का है, लर्नड होने का मूल्य मर जाने का है। पांडित्य मार डालता है। ज्ञान की खोज निरंतर-निरंतर सतत हो। अगर कोई व्यक्ति मरने के आखिरी क्षण तक भी जानने को आतुर है तो वह मरते क्षण में भी जीवित है और मर कर भी जीवित होगा।
वह जानने की जो पुलक और आतुरता है, वही चेतना का लक्षण है और जिस चेतना को ऐसा लगा कि जान लिया, उस पर जंग लग जाता है। ऐसे ही हमने और बहुत से मूल्य पकड़ रखे हैं, जो मूल्य व्यक्ति की हत्या करने में सहयोगी हैं, जैसे डिसिप्लिन का बहुत मूल्य है, अनुशासन का। अनुशासन से ज्यादा मारने वाली कोई चीज नहीं है। क्योंकि अनुशासन का मतलब यह है कि जो कहा जाए वह करना है। उस पर सोचना नहीं है। इसलिए हम सैनिक को अनुशासन सिखाते हैं, क्योंकि उससे हमने ऐेसे काम लेने हैं कि अगर उसने सोचा तो वे काम वह कभी कर न सकेगा। जिस आदमी ने हीरोशीमा पर एटमबंब गिराया, वह एटमबंब गिरा कर वापस लौटा और सो गया। और उससे सुबह जब किसी ने पूछा कि एक लाख बीस हजार लोग मर गए, तुम रात सो सके? उसने कहा, मैं बड़ी शांति से सोया क्योंकि मैंने आज्ञा पूरी कर दी और बात खतम हो गई। एक आज्ञा मुझे मिली थी कि जाऊं और एटमबंब गिराऊं और वापिस लौट आऊं। वह काम मैंने पूरा कर दिया। आज्ञा पूरी हो गई। मैं शांति से सो सका। काम मैंने पूरा कर दिया। मेरा कत्र्तव्य निभा दिया। अब इस आदमी को अपना कत्र्तव्य निभाना कि जो पत्थर जैसी दीवाल है, उसके बाहर यह नहीं दिखाई पड़ रहा है कि एक लाख बीस हजार आदमी मरे। अगर यह आदमी थोड़ा भी सोचने वाला होता तो कहता कि मुझे गोली मार दो। लेकिन मैं एक लाख बीस हजार लोगों को मारने जाने वाला नहीं हूं। लेकिन इंतजाम कर लिया गया पहले से कि यह आदमी सोच न सके।
इसलिए मिलिट्री में, शिक्षण में हम एक आदमी को तीन-चार वर्ष तक लेफ्ट-राइट, बाएं घूमो, दाएं घूमो, आगे जाओ, पीछे जाओ जैसे बेवकूफी के काम करवाते हैं। यह जान कर करवाते हैं। यह पूरा सुव्यवस्थित है। क्योंकि जब इस तरह के फिजूल के काम एक आदमी दो चार पांच वर्ष तक करता रहता है और जब बाएं घूमने को कहा जाता है तो मशीन की तरह बाएं घूमता है, दाएं घूमने को कहा जाता है तो दाएं घूमता है। पांच छः वर्ष की निरंतर इस मूर्खतापूर्ण अभ्यास में वह आदमी मशीन हो जाता है। जब उससे कहा जाता है--गोली चलाओ, तब वह मशीन की तरह बंदूक के घोड़े पर हाथ रख कर गोली चला देता है। यह वैसा ही है जैसा लेफ्ट टर्न। यह सवाल नहीं है कि दूसरी तरफ आदमी मर रहा है, उसको मैं मारूं या न मारूं। यह सोचने की बात ही नहीं है। अनुशासन मारता है। अनुशासन इसलिए मैं मानता हूं कि मानने वाला विवेक चाहिए। विवेक बहुत और बात है। विवेक का भी एक अनुशासन होगा। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि दुनिया उच्छृंखल हो जाए। मैं यह कह रहा हूं कि विवेक का भी एक इनर डिसिप्लिन है। एक विवकपूर्ण व्यक्ति सोचेगा कि जो करने जैसा है, वह जरूर किया जाए। जो न करने जैसा है, वह कभी न किया जाए।
विवेकपूर्ण व्यक्ति का मतलब यह नहीं है कि वह हर चीज में इनकार कर देगा, विवेकपूर्ण व्यक्ति का यह मतलब है कि उसकी हां की और न की दोनो क्षमताएं बचाई गई हैं। वह न भी कह सकता है। और डिसिप्लिन्ड आदमी का मतलब है कि उसकी न कहने की क्षमता अंत कर दी गई है। वह सिर्फ हां ही कह सकता है। और जो आदमी सिर्फ हां कह सकता है, वह आदमी आदमी ही नहीं है और उसकी हां का भी कोई मूल्य नहीं है। क्योंकि हां का भी मूल्य तभी है जब कोई न कहने में समर्थ हो। तभी हां में भी वजन है। और जो आदमी न कह ही नहीं सकता, उस आदमी के हां कहने में कोई अर्थ नहीं है। हमने उस आदमी को यंत्र बनाने का इंतजाम कर दिया। पुरानी सारी व्यवस्था मनुष्य को यांत्रिक बनाने वाली है। वह एक ऐसा अनुशासन सिखाती है, जहां कि हम जड़ मशीनों की तरह काम करते रहेे। जो हमें विवेक नहीं देती, वह हमें विचार नहीं देती, विश्वास देती है, बिलीफ देती है, डिसिप्लिन देती है। वह हमें इतनी क्षमता नहीं देगी कि प्रत्येक व्यक्ति विचार करे। वह हमसे कहती है, गुरु का आदर करो। मैं मानता हूं कि जब सिखाया जाए कि गुरु का आदर करो तो यह अनुशासन हुआ। और जब यह सिखाया जाए कि जिसके प्रति तुम्हें आदर आ जाए वह गुरु है तो यह विवेक हुआ। यानी मेरे हिसाब में गुरु के प्रति आदर गलत शिक्षा है। असल बात यह है कि जिसके प्रति तुम्हें आदर आ जाए, वह गुरु हो गया। यह बिलकुल दूसरी बात है, यह बिलकुल ही भिन्न बात है।
पुरानी शिक्षा कहती है कि पत्नी को प्रेम करो। यह अनुशासन की बात है। और मैं मानता हूं कि जिससे तुम्हारा प्रेम हो वह पत्नी बनाने योग्य है। यह विवेक की बात है। यह बहुत भिन्न है। इसमें एक जीवन होगा क्योंकि प्रेम में एक जीवन है और प्रेम से अगर पत्नी निकले तो इस पत्नी से जो संबंध होगा उसमें भी जीवन होगा। पुरानी शिक्षा कहती है कि पत्नी पहले बनाओ और फिर जो पत्नी है, कर्तव्य के कारण प्रेम करो, क्योंकि वह तुम्हारी पत्नी है। अब यह प्रेम मरा हुआ होगा। यह पैदा ही होने वाला नहीं है, क्योंकि प्रेम कोई ऐसी चीज नहीं है कि बाएं घूमो, दाएं घूमो जैसी चीज नहीं है कि कहो कि प्रेम करो और आदमी प्रेम करने लगे। प्रेम किसी की आज्ञा से नहीं हो सकता, न किसी शास्त्र के नियम से हो सकता है। प्रेम तो उद्भूत हो। तो मेरा मानना है कि प्रेम इतनी अदभुत घटना है कि वह घटे तो उसके पीछे कोई पत्नी हो जाए, पति हो जाए, समझ में आता है। लेकिन पति पत्नी कोई पहले हो जाए और फिर प्रेम नियम के अनुसार किया जाए तो प्रेम मुर्दा होगा और उस मुर्दे प्रेम के साथ पति भी मुर्दा होगा, पत्नी भी मुर्दा होगी।
इसलिए हमारा परिवार जो है वह एक डेड एंटायटी है। एक मरा हुआ अंग है और इसलिए हमारे परिवार के इस मरे हुए अंग होने की वजह से अगर इस परिवार में अगर जीवित व्यक्ति पैदा हो जाए तो विद्रोह अनिवार्य है। विद्रोह का कारण वह विद्रोही व्यक्ति नहीं है, यह परिवार की डेडनेस है। यह तो मरा हुआ अंग है कि इसके भीतर या तो मरना पड़े या बगावत करनी पड़े। परिवार चाहिए जीवंत और जीवंत परिवार का नियम अनुशासन नहीं होगा, विवेक होगा। और इसी भांति मैं जीवन के सारे तत्वों के संबंध में मानता हूं।
शिक्षक स्कूल में कहता हो कि हम जो कहते हैं, वही सही है तो यह शिक्षक शिष्यों का दुश्मन है। जो शिक्षक यह कहता है कि जो मैं कहता हूं वही सही है, इससे बड़ा दुश्मन शिक्षक नहीं हो सकता, क्योंकि यह बच्चे में विचार करने की क्षमता को कुंठित कर रहा है। यह हत्या कर रहा है बच्चे की। यह कह रहा है कि तुम्हें सोचने की जरूरत नहीं, जो मैं कहता हूं, वह सही है। शिक्षक तो होना चाहिए बुद्ध जैसा व्यक्ति।
बुद्ध लोगों से कहते हैं कि तुम इसलिए मेरी बात मत मानना कि बुद्ध हूं, जागा हुआ हूं। तुम इसलिए भी मेरी बात मत मानना कि बहुत लोग मेरी बात मानते हैं। तुम इसलिए भी मेरी बात मत मानना कि मेरी बात शास्त्र-सम्मत है। तुम इसलिए भी मेरी बात मत मानना कि यह आदमी आचरणवान है, साधु है। तुम इसलिए भी मेरी बात मत मानना कि तुम मेरे व्यक्तित्व से सम्मोहित हो गए हो। तुम सोचना और तुम्हें ठीक लगे तो ही मानना। अब यह आदमी शिक्षक का अर्थ पूरा कर रहा है, क्योंकि यह थोप नहीं रहा, बल्कि आप भी भूल से न थोप लें, उसकी भी सब व्यवस्था कर रहा है कि आप इस इस तरह, इस तरह छोड़ देना, यह यह मत मानना। एक ऐसा शिक्षक चाहिए, जो आग्रहपूर्ण न हो मनवाने के लिए, जो आग्रहपूर्ण हो खोज के लिए और जो विद्यार्थी के साथ स्वयं मिल कर खोज पर निकल जाने की तत्परता दिखाए कि हम आएं और खोजें। हम सोचें और विद्यार्थी को विश्वास न दें बल्कि उसकी विचार की क्षमता को विकसित कर दें। विचार न दें, विचारणा दें। थोट्स न दें, थिंकिंग दें। तो जो समाज, संस्कृति विकसित होगी वह जीवंत होगी। नहीं तो जो समाज और संस्कृति बनेगी वह मृत होगी।
अब तक जो समाज बना है, वह मरा हुआ है, क्योंकि उसके मूल्य मारने वाले हैं। उसके मूल्य जिलाने वाले नहीं हैं। और अब तक जो समाज रहा है वह भयभीत है जीवन से। वह जीवन से ही डरा हुआ है, वह अत्यंत भयातुर है। वह किसी व्यक्ति को जीवंत नहीं देखना चाहता। क्योंकि जीवंत व्यक्ति के साथ कुछे खतरे अनिवार्य रूप से आने शुरू होते हैं। जैसे जीवंत व्यक्ति, व्यक्ति होगा, समाज का अंग नहीं। और समाज व्यक्तियों को पसंद नहीं करता। समाज पसंद करता है अंगों को, जैसे एक बड़े यंत्र में छोटा सा पुर्जा लगा है। बस समाज चाहता है कि व्यक्ति की हैसियत पुर्जे की हो। वह स्वयं न हो। वह अपनी हैसियत से खड़ा न हो जाए। समाज डरता है कि अगर व्यक्ति होंगे तो समाज कहां होगा! तो समाज व्यक्तियों को मारने का उपाय करता है। और व्यक्ति ही जीवित हो सकते हैं, समाज तो जीवित हो नहीं सकता, क्योंकि समाज तो सिर्फ एक व्यवस्था है।
 व्यवस्था सदा मृत होती है, उसके भीतर जीवंत व्यक्ति कहां! और समाज मारता है व्यक्ति को, वह कभी नहीं चाहता कि इंडिविजुअल्स हों। बल्कि जब भी कभी कोई व्यक्ति पैदा होगा, तभी समाज मुश्किल में पड़ता है। कोई सुकरात पैदा हो जाए तो समाज जहर देगा। और समाज यह आरोप लगाएगा कि यह आदमी समाज को विच्छिन्न कर देगा, अराजकता पैदा कर देगा। यह सब तोड़ देगा। क्राइस्ट पैदा हो तो सूली पर लटकाना पड़ेगा, क्योंकि यह आदमी व्यक्ति होने की कोशिश कर रहा है। यह, यह कह रहा है कि मैं सोचूंगा। मैं जीऊंगा। तुम मुझे जीने के सूत्र मत दो। मैं प्रेम करूंगा, तुम मुझे मत समझाओ कि किसको प्रेम करूं। मैं आदर दूंगा, लेकिन तुम तय मत करो कि मैं किसको आदर दूं। मैं तुमसे आज्ञा नहीं चाहता। मुझे तुम हैसियत दो अपनी। समाज की बड़ी व्यवस्था घबड़ाती है इससे कि व्यक्ति पैदा हो जाए। इसलिए पुराना समाज मरा हुआ समाज था।
अगर जीवंत समाज पैदा करना है तो व्यक्ति को समाज का अंग नहीं बनाना है। व्यक्ति को परिपूर्ण मुक्त और इकाई बनाना है, यूनिट इन इटसेल्फ। और समाज होगा इन व्यक्तियों का अंतर-संबंध। इस बात को समझ लेना है ठीक तरह से। कल तक समाज था महत्वपूर्ण, व्यक्ति थे उसके अंग। यह मरे हुए समाज का लक्षण है। समाज होगा महत्वपूर्ण, व्यक्ति होंगे उसके अंग। जीवंत समाज का यह लक्षण होगा, व्यक्ति होंगे महत्वपूर्ण, समाज होगा सिर्फ उनका अंतर-संबंध। समाज होगा उनके बीच का अंतर-संबंध। जीवंत व्यक्तियों के बीच का संबंध समाज होगी, इंटर रिलेशनशिप। व्यक्ति अंग नहीं होगा। व्यक्ति स्वतंत्र इकाई होगा। और समाज स्वतंत्र इकाईओं के बीच का संबंध होगा। कल तक व्यक्ति स्वतंत्र इकाई न था। स्वतंत्र इकाई थी समाज और व्यक्ति था उसका अंग। समाज जैसा तय करता था, वैसा व्यक्ति को जीना पड़ता था।
जीवंत समाज का लक्षण यह होगा कि व्यक्ति जैसा सोचेंगे वैसा जीएंगे और उनके जीने की इस लंबी प्रक्रिया से जो निर्मित होगा वह समाज होगा। समाज तय नहीं करेगा, व्यक्ति के जीवन को। व्यक्ति जीएंगे और इनके जीने के अंतर-संबंधों से जो निर्मित हो जाएगी व्यवस्था, जो सहज फलित होगी, वह समाज होगा। आने वाले जगत में समाज गौण होगा, व्यक्ति प्रमुख होगा, अगर जीवंत समाज बनाना है। और अगर मरा हुआ समाज बनाना है तो व्यक्ति को गौण रखना और समाज को महत्वपूर्ण रखना। लेकिन अब तक यही था, अब तक यही था और पुरानी दुनिया में बहुत आसान भी था, व्यक्ति को मार डालना। नई दुनिया में बहुत मुश्किल होगा।
जैसे अगर हम हजार साल पीछे लौट जाएं एक गांव, तो इस गांव की सारी व्यवस्था ऐसी है कि व्यक्ति होकर कोई जी नहीं सकता--अगर एक आदमी व्यक्ति होने की कोशिश करे छोटी-मोटी बातों में, बड़ी बातें तो बहुत दूर हैं। एक आदमी चोटी कटा ले तो समाज से बहिष्कृत हो जाएगा। कुएं पर पानी नहीं पी सकेगा, शादी नहीं कर सकेगा। मरेगा तो उसकी लाश को उठाने वाला कोई नहीं मिलेगा। उसका हुक्का-पानी बंद। वह किसी के घर भोजन में सम्मिलित नहीं हो सकेगा। कोई उसके घर सम्मिलित होने नहीं आएगा। अब उस छोटे से बंद गांव में जहां से बाहर जाना भी बहुत मुश्किल है, क्योंकि व्यक्ति जमीनों से बंधित है। जमीन ही आधार थी, वही पकड़े हुए थी। मोबिलिटी कम थी, हो ही नहीं सकती थी। क्योंकि जमीन से बंधा हुआ व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता जमीन से। तो वह गांव के बाहर जाए कैसे? और गांव में जीना है उसे और कल खेत पर काम भी पड़ेगा और लोग साथ नहीं देंगे। परसों घर में कोई बीमार पड़ेगा और वैद नहीं आएगा। लड़के की शादी करनी होगी और लड़की नहीं मिलेगी और लड़की भी खोज ली तो कोई शादी में सम्मिलित नहीं होगा। कल कोई मरेगा तो उसकी लाश को मरघट पर पहुंचाने वाला कोई साथी नहीं होगा। इन छोटे से घेरों में उसको मजबूर होकर समाज के साथ जो समाज कहे, उसमें जीना पड़ता था।
आने वाली दुनिया में टेक्नालाॅजी ने व्यक्ति को बड़ी मुक्तिल दी है। एक तो बड़ी मुक्ति दी है कि अब व्यक्ति अलग होकर अकेला भी जी सकता है आज, वह समाज-बहिष्कृत है या नहीं। कोई अस्पताल उसे मना नहीं कर सकता कि हम तुम्हें दवा नहीं देंगे और जितनी टेक्नालाॅजी जिस मुल्क में विकसित हो रही है, उतना व्यक्ति जमीन से मुक्त हो रहा है। जमीन से उसकी जड़ें अलग हुई जा रही हैं। इसीलिए छोटे गांव में आदमी जितना बंधा है, बड़े नगर में उससे कम बंधा है। बंबई में और कम बंधा है, न्यूयार्क में बंधंन बिलकुल भी नहीं है।
समाज बिखर गया है, क्योंकि अपरूटड हो गया है। जहां उसकी जड़ें थीं, वहां से वह हट गया है। आज कोई यह नहीं कह सकता कि तुम कुएं से पानी नहीं भरो, क्योंकि हर आदमी के घर में नल लगा हुआ है और वह जब चाहेगा, टूंटी खोलेगा और पानी निकलेगा। आज कोई किसी का हुक्का-पानी बंद करने का सवाल नहीं है। कोई किसी का बंद करने का प्रश्न ही नहीं है। जैसे-जैसे जगत में तकनीक विकसित हुआ है, वैसे-वैसे अंतर पड़ना शुरू हुआ है। एक टेक्नोलाॅजिकल रिवोल्यूशन गुजर रही है।
अब संभव है यह बात बहुत कुछ कि हम व्यक्ति को मुक्त कर सकें, स्वतंत्रता दे सकें। लेकिन दूसरी भी बात संभावना की है। यह संभावना है और अगर कोई हुकूमत और कोई समाज चाहे कि व्यक्ति को हम बिलकुल पकड़ लें तो भी टेक्नोलाॅजी उसके काम आ सकती है। जैसे समझ लें कि एक कुआं था गांव में और गांव के समाज ने इनकार कर दिया कि तुम पानी नहीं पी सकोगे तो भी रात आदमी चोरी से कुएं पर जा सकता था। नदी से पानी ला सकता था। अपने घर में एक छोटा कुआं भी खोद सकता था। लेकिन अगर राज्य तय कर ले कि फलांना आदमी के घर में पानी नहीं पहुंचना है तो आज बहुत मुश्किल हो जाएगी। आज उसका नल काट दिया जाएगा। बिजली का तार काट दिया जाएगा तो उसके घर में दिया जलना मुश्किल हो जाएगा। टेक्नालाॅजी ने दोनो संभावनाएं स्पष्ट कर दी हैं। अगर कोई समाज चाहे तो व्यक्ति को बिलकुल मार सकता है। यदि कोई समाज चाहे तो व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता दे सकता है।
यह हमारे निर्णय पर निर्भर करेगा कि हम टेक्नालाॅजी का क्या उपयोग करते हैं। रूस जैसे मुल्क में टेक्नालाॅजी का वह यही उपयोग कर रहे हैं। मेरी दृष्टि में रूस में फिर एक समाज पैदा हो रहा है, जैसा समाज हिंदुस्तान के गांव में हजार साल पहले था। जहां व्यक्ति की कोई हैसियत नहीं थी। व्यक्ति को बिलकुल मारा जा सकता था। उससे भी ज्यादा रूस में यह संभावना है। उसके बच्चे को पढ़ने नहीं दिया जाएगा।
 इसलिए मैं कह रहा हूं, इस खतरे के प्रति भी सचेत होना चाहिए। एक क्रांति गुजर रही है, जिसमें व्यक्ति मुक्त हो सकता है। समाज के अंग होने की उसे जरूरत नहीं है। वह अपनी हैसियत से खड़ा हो सकता है। अपनी एक दुनिया बसा सकता है--मुक्त। जैसा जीना चाहे वैसा जी सकता है। किसी के बंधन में नहीं है।

ओशो, व्हेन वी लीव इन दिस कांप्लिकेटेड सोसाइटी व्हिच इ.ज बेसड आन दि डिवीजन आॅफ लेबर। एण्ड डिवीजन आॅफ लेबर रिक्वायरस ए कम्युनिकेशन। व्हेन वी रिक्वायर डिवीजन आॅफ लेबर एण्ड कम्युनिकेशन, डेफिनिटली वि हैव टु कीप सम लिंक एण्ड सम एडजस्टमेंट इ.ज टु बी मेनटेंड?

बिलकुल जरूरी है। असल में, जब भी हम जी रहे हैं, तो हम दूसरों के साथ जी रहे हैं। जीने का अर्थ है--दूसरों के साथ। और जितना गहरा जीवन जीना हो उतना साथियों का घेरा बड़ा होना चाहिए। जो आदमी सिर्फ अपने गांव से बंध कर जी रहा है, वह बहुत कम जी रहा है। लेकिन जो आदमी पूरे जगत से जुड़ कर जी रहा है, वह बहुत जी रहा है। और जो आदमी चांद-तारों से भी जुड़ गया है, और पौधों और पक्षियों से भी जुड़ गया है, वह और बड़ा जीवन जी रहा है।
असल में परमात्मा के जीवन का मतलब ही यह है कि अब ऐसा कोई हिस्सा शेष नहीं रहा, जिसके मैं साथ नहीं हूं। सब मेरे साथ खड़ा हो गया है। तो मैं परमात्मा का जीवन जी रहा हूं। जीने का अर्थ ही है साथ। जीने का अर्थ ही है दूसरे से संबंधित होना। तो जरूर हमें व्यवस्था करनी पड़ेगी। लेकिन यह व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि इस व्यवस्था में जो जुड़ते हैं, वे मर न जाते हों। वे अपनी मुक्तता को, अपनी स्वतंत्रता को बचा पाते हों।
मैं एक स्त्री को प्रेम करूं तो मैं प्रेम ऐसा भी कर सकता हूं कि उसकी गर्दन दबा दूं और मैं प्रेम ऐसा भी कर सकता हूं कि उसकी कोई स्वतंत्रता उसमें शेष न रहे। मैं उसे पूरी तरह पजेस कर सकता हूं जैसा मैं एक कुर्सी को पजेस किए हुए हूं। मैं एक कुर्सी का जैसे मालिक हो गया हूं--जहां कुर्सी को रखता हूं, कुर्सी को वहीं बैठना पड़ता है। कुर्सी इनकार नहीं कर सकती है। मैं पत्नी को भी कुर्सी बना सकता हूं। तब भी एक संबंध होगा, लेकिन वह संबंध एक मालिक का एक वस्तु के साथ होगा। मैंने उस स्त्री को वस्तु बना दिया। मैंने उस स्त्री की आत्मा को मार डाला और उस स्त्री को एक कमोडिटी, एक सामग्री में परिवर्तित कर दिया। निश्चित ही यह बहुत सुविधापूर्ण है। क्योंकि वस्तु के साथ मैं पूरा मालिक हो गया, वस्तु कुछ कर नहीं सकती।
यही तो किया गया था। यही किया था पुरानी संस्कृति ने कि स्त्री को बिलकुल मार डाला था। पति को परमात्मा बना डाला था--पतियों ने ही मिल-जुल कर साजिश रच दी थी और कहा था कि स्त्री के हम पति हैं, परमात्मा हैं। स्त्री, पति कैसा भी हो, स्त्री को उसके संबंध में विचार भी नहीं करना है। और हमने बढ़िया कहानियां रची थीं। हमने कहानी रची है सावित्री सत्यवान की। सत्यवान मर गया है तो सावित्री यम से लड़ कर उसको वापस लौटा लाई है!
मैं स्त्रियों की एक सभा में बोल रहा था तो मैंने उनसे पूछा कि तुम मुझे एकाध ऐसी कहानी भी बता सकती हो जिसमें पत्नी मर गई हो और पति लौटा लाया हो। पत्नी इधर मरी कि पति दूसरी पत्नी ले आता है। उसी पत्नी को लौटाने की जरूरत क्या है? अगर सावित्री मरती तो सत्यवान दूसरी लड़की की खोज में निकल गए होते। सत्यवान मरा है तो सावित्री उसी पति को वापस लेने की कोशिश कर रही है। सावित्री का अपना कोई व्यक्तित्व तो नहीं है, व्यक्तित्व है तो सत्यवान का है। सत्यवान जीता है तो सावित्री का जीवन है और सत्यवान मरा तो सावित्री का जीवन मरा!
निश्चित ही, परिवार बनाना होगा तो एक पुरुष एक स्त्री को प्रेम करेगा और एक स्त्री पुरुष को प्रेम करेगी। लेकिन ये संबंध दो तरह के हो सकते हैं। एक--या तो इनमें से एक मार डाला जाए। अगर दुनिया में कल स्त्रियों का हक हो जाए और स्त्रियां जीत जाएं तो हो सकता है, पति को मार डालें। ऐसे समाज भी हैं, जहां स्त्रियों ने पतियों को मार डाला है। मैट्रनल सोसाइटीज हैं, मातृसत्तात्मक समाज हैं, तो वहां पति को बिलकुल मार डाला है स्त्रियों ने। पति बिलकुल नौकर की हैसियत में है, जैसा स्त्री हमारे समाजों में नौकर की हैसियत में है।
संबंध यह भी हो सकता है कि दो एक को मार डालें तब संबंध होगा। और संबंध ऐसा भी हो सकता है कि दोनों का व्यक्तित्व शेष रहे, दोनों जीवंत इकाई रहें, दोनों एक दूसरे को बांधने वाले न हों लेकिन दोनों इस निर्बंध स्थिति में एक-दूसरे को प्रेम देने वाले हों। इस निर्बंध स्थिति में जो प्रेम होगा तो मैं मानता हूं कि जीवंत होगा। अगर एक मर गया तो सब मर गया, फिर जीवंत नहीं हो सकता है। ऐसे ही समाज की सारी व्यवस्था में मेरी दृष्टि है।
जैसे मेरी दृष्टि यह है कि गुरु शिष्य को मार न डाले। इससे उलटा भी हो सकता है कि शिष्य मिल कर गुरु को मार डालें। रूस में शुरू-शुरू में क्रांति के बाद जो व्यवस्था बनी थी वह कुछ दिन चली, फिर खत्म करनी पड़ी। वहां उन्होंने उलटा इंतजाम कर दिया। उलटा इंतजाम यह कर दिया कि क्रांति के बाद विद्यार्थियों की कमेटियां बना दीं और विद्यार्थी की कमेटी किसी शिक्षक के बाबत भी शिकायत कर दे तो बिना पूछताछ के उस शिक्षक की मुश्किल शुरू हो जाए।
मैं एक हाई स्कूल में पढ़ता था, मेरे एक शिक्षक ने कुछ अभद्र शब्द मुझसे बोल दिया। तो मैंने उनसे कहा कि अगर आप अभद्र शब्द का उपयोग कर रहे हैं तो मैं मानता हूं कि आप मुझको भी इसी तरह के शब्द का उपयोग करने का हक देंगे? यानी इतना मैं समझता हूं कि आप अभद्र शब्द के विरोध में नहीं हैं। आप उपयोग कर रहे हैं। तो इतना मैं मान लेता हूं कि आप इसके विरोध में नहीं हैं, तो मैं भी उपयोग कर सकता हूं? तो वे इतने आगबबूला हो गए कि वे गए और उन्होंने जाकर स्कूल में एक रजिस्टर हुआ करता था पनिशमेंट के लिए, उसमें मेरे नाम पांच रुपये लिख दिए। और मैंने उनके साथ अशोभन व्यवहार किया है, इसलिए मेरे लिए पांच रुपये का दंड उसमें लिख दिया।
मैं उनके पीछे गया और मैंने भी उसके नीचे पच्चीस रुपया उनके नाम दंड लिखा कि अगर विद्यार्थी अशोभन व्यवहार करे तो पांच रुपया दंड ठीक है, लेकिन अगर शिक्षक अशोभन व्यवहार करे तो कम से कम पांच गुना दंड तो होना ही चाहिए, क्योंकि वह मुझसे पांच गुना ज्यादा समझदार माना जाना चाहिए। पच्चीस रुपये मैंने लिख दिया। उस स्कूल के पिं्रसिपल ने मुझे बुला कर कहा कि तुम पागल हो गए हो? कभी किसी विद्यार्थी ने किसी शिक्षक को कभी कोई दंड किया है? मैंने कहा, न किया हो, लेकिन मैं अपने पांच रुपये तभी चुकाऊंगा, जब ये पच्चीस रुपये ले लिए जाएं। और नहीं तो पूरे स्कूल की अदालत बिठाल ली जाए, मैं अपनी चीज पेश कर दूं, वे अपनी चीज पेश कर दें कि बात क्या है! क्योंकि प्राथमिक रूप से मुझसे अभद्र व्यवहार किया गया है। और मैंने अभद्र व्यवहार किया नहीं, सिर्फ आज्ञा चाही थी कि मैं भी अभद्र व्यवहार करूं, इसकी आप आज्ञा दे दें। अभी मैंने किया नहीं, अगर यही अभद्र व्यवहार हो गया तो बात अलग है!
रूस में उन्होंने ऐसा इंतजाम किया था कि बच्चे जो शिकायत कर दें तो उस पर कोई जांच-पड़ताल की जरूरत नहीं। जैसा हमारे यहां इंतजाम है कि शिक्षक जो शिकायत कर दे तो फिर बच्चे से पूछने की कोई जरूरत नहीं है। यह शिक्षक विद्यार्थी को मार रहा है। यहां दंड विद्यार्थी शिक्षक का नहीं कर सकते, शिक्षक ही विद्यार्थी का कर सकता है। रूस में उलटा हो गया था क्रांति के पांच सात साल तक। विद्यार्थी जो भी दंड देना चाहें शिक्षक को दे सकते हैं। और विद्यार्थी शिकायत कर दें, शिक्षक की नौकरी गई। विद्यार्थियों ने शिक्षक को मार डाला था।
लेकिन यह संबंध नहीं है। यह सिर्फ बदले हैं। शिक्षक विद्यार्थियों को मारें कि विद्यार्थी शिक्षक को मारें। पति पत्नियों को मारें कि पत्नियां पतियों को मारें। बेटे बाप को मार डालें कि बाप बेटों को मार डालें, यह सवाल नहीं है। मैं इन दोनों के विरोध में हूं। मैं इस बात के पक्ष में हूं कि कोई किसी को मार न डाले। दोनों का व्यक्तित्व शेष रहे और संबंध हों। और यह भी मेरा मानना है कि तभी संबंध हो सकते हैं। एक वस्तु से हमारे कोई संबंध होते हैं? कुर्सी से मेरा कोई संबंध है? क्या संबंध है कुर्सी से मेरा? क्योंकि कुर्सी की तरफ से तो मेरी तरफ कुछ भी नहीं आ सकता।
एक वस्तु से संबंध नहीं हो सकते, व्यक्ति से ही संबंध हो सकते हैं। और इसलिए मेरा मानना है कि वही पत्नी पति को आनंद दे सकती है, जिसके पास व्यक्तित्व है, जो स्वतंत्र है। जो ना भी कह सकती है, जो हट भी सकती है कल। और जिसे हमने पूरा मौका दिया है कि वह अपनी पूरी स्वतंत्रता में जीए। हमें हक है कि हम प्रेम करें, लेकिन प्रेम को हक मार डालने का नहीं है। और सच बात तो यह है कि जो प्रेम है, तो प्रेम कभी किसी दूसरे को मारता नहीं। अगर बाप को बेटे से प्रेम है तो वह प्रेम देगा लेकिन बेटे को बांधेगा नहीं। प्रेम देगा और कहेगा कि मेरा प्रेम तुझे मुक्त करे। अगर पत्नी को पति से प्रेम है तो उसको बांध नहीं लेगी। वह प्रेम देगी और प्रेम पति की मुक्ति बनेगा।
प्रेम मुक्ति बननी चाहिए, बंधन नहीं, तो ही प्रेम सच्चा है। नहीं तो प्रेम झूठा है और प्रेम के पीछे कोई दूसरी वृत्ति काम कर रही है। प्रेम के पीछे कोई वाॅयलेंस है--कोई हिंसा, कोई तरकीब काम कर रही है, कोई दूसरी तरकीब है, जो प्रेम से बिलकुल उलटी है--कोई घृणा है, कोई ईष्र्या, कोई दूसरा ही काम कर रहा है प्रेम के पीछे। प्रेम सिर्फ शुगर-कोटिंग है। जहरीली दवाई खिलानी हो तो ऊपर से हम शक्कर चढ़ा दिए हैं। ऐसा किसी की गर्दन दबानी हो, तो पहले हमने प्रेम का शुगर-कोटिंग किया है। और फिर हमने उसकी गर्दन पकड़ ली है।

ओशो, आर यू इन फेवर आॅफ दि निगेटिव एजुकेशन? निगेटिव एजुकेशन वी मीन दैट वन शुड गो आॅन एनालाइसिंग हिमसेल्फ दैट वन कैन अंडरस्टैंड दि पोल्स फ्राॅम बोथ दि साइड्स।

सच में पाजिटिव एजुकेशन जैसी कोई चीज ही नहीं होती। सब कीमती एजुकेशन निगेटिव होती है। विधायक शिक्षा का मतलब है शिक्षा न देना! असल में शिक्षा का असली आधार ही निषेध है। शिक्षा का असली मूल्य ही निगेटिव माइंड पैदा करना है--एक ऐसा मन जो संदेह कर सकता है; एक ऐसा मन जो इनकार कर सकता है; एक ऐसा मन जो विचार करने को राजी है; एक ऐसा मन जो निर्णय को सस्पेंड करने के लिए भी हिम्मत कर सकता है; एक ऐसा मन जो अज्ञान अनुभव कर सकता है; एक ऐसा मन जो अज्ञात के प्रति उन्मुख हो सकता है। ऐसा मन अगर पैदा करना हो तो पाजिटिव नहीं--यही शिक्षा देने का अर्थ है।
क्योंकि पाजिटिव शिक्षा का मतलब यह होता है कि हम तुम्हें सोचने का मौका नहीं देते, हम तुम्हें बताए देते हैं कि तुम यह सोचो। हम तुमसे कहते हैं कि कृष्ण भगवान हैं। यह पाॅजिटिव शिक्षा हुई। हम तुमसे कहते हैं गीता सत्य ग्रंथ है। हम तुमसे कहते हैं कि बाइबिल ही असली ग्रंथ है। हम तुम्हें बताए देते हैं। तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं है। पाॅजिटिव शिक्षा का मतलब है कि हम सिद्धांत देते हैं और तयशुदा सिद्धांत देते हैं, जिनका निर्णय लिया जा चुका है। उस निर्णय में तुम भागीदार नहीं हो। वह निर्णय तुमसे अन्यथा लिया गया है। तुम नहीं हो उसमें हिस्सेदार, किन्हीं और ने निर्णय लिया है। वह कोई भी हों, उन्होंने निर्णय ले लिया है, डिसीजन ले लिया है, रेडीमेड है, अब हम तुम्हें ट्रांसफर किए देते हैं।
विधायक शिक्षा का मतलब है कि अतीत ने जो निर्णय लिए हैं, वह हम नई पीढ़ी को सौंपें देते हैं और नई पीढ़ी का सिर्फ एक काम है--वे चुपचाप, श्रद्धापूर्वक उन्हें स्वीकार कर लें। यह पाजिटिव शिक्षा का मतलब होता है। पाजिटिव शिक्षा मारने वाली शिक्षा है। असल में निगेटिव माइंड ही माइंड है।
जब हम एक बच्चे में सोचने की क्षमता विकसित करवाते हैं, और अवसर देते हैं कि वह चिंतन करे, तो चिंतन में छिपा ही है कि वह निषेध करने की हिम्मत जुटाए। चिंतन में छिपा ही है कि नास्तिक होने का मौका उसको मिले; कि वह कह सके कि कृष्ण कैसा भगवान है! शक की बात है; कि वह कह सके कि राम का यह सीता से व्यवहार कैसा है? यह व्यवहार शक की बात है; कि वह कह सके कि मैं नहीं मानता कि क्राइस्ट ठीक आदमी है, यह मुझे न्यूरोटिक मालूम पड़ता है, थोड़ा विक्षिप्त मालूम पड़ता है। यह कहने का हक उसे होना चाहिए; वह निषेध कर सके, इनकार कर सके।
ऐसी शिक्षा, जो सिद्धांत न देती हो, बल्कि विचार करने की क्षमता को विकसित करवाती हो। और विचार की क्षमता निषेध से शुरू होती है, क्योंकि विधेय से शुरू होने का कोई कारण नहीं है, विधेय तो अंत है। बिगिनिंग तो हमेशा निषेध है, विधेय तो दि एण्ड है, क्योंकि उसके आगे कोई सवाल नहीं है।
तो मेरा कहना है, निषेध सिखाओ और विधेय तक उसे स्वयं पहुंचने दो। नास्तिकता सिखाओ, आस्तिकता तक उसे पहुंचने दो। और मेरा मानना है कि नास्तिकता अगर ठीक से सिखाई जाए तो आदमी आस्तिकता तक पहुंच जाएगा। और तब वह आस्तिकता बड़ी गंभीर, गौरवपूर्ण, गहरी होगी। क्योंकि नास्तिक होने से गुजरी है। इनकार करने के बाद आया है स्वीकार।  कहने के बाद पैदा हुआ हां। जिस यस के पीछे नो नहीं है, वह यस इंपोटेंट है, वह मरा हुआ है। उसमें कोई जान ही नहीं है, वह नपुंसक है। जिसने न कहा है, और न कहने की पीड़ा झेली है, और न कहने से गुजरा है और एक दिन उस जगह पहुंचा है जहां न कहना असंभव हो गया है और उसे हां कहना पड़ा है, तो यह हां क्रांति लाएगा उसके व्यक्तित्व में।
तो मैं कहता हूं, सिखाओ नास्तिकता और आने दो आस्तिकता को--आस्तिकता आएगी। वह उसकी उपलब्धि होगी। पाजिटिव कनक्लूजंस जो हैं वे उसकी उपलब्धि होंगे, वह हम नहीं देने वाले हैं। हम सिर्फ उसे निगेटिव प्रोसेस देते हैं कि वह कैसे इनकार करे! और इनकार करता चला जाए उस समय तक, जब तक कि वहां न पहुंच जाए, जहां इनकार असंभव है! जहां स्वीकार करना ही होगा। जहां उसका मन ही पाजिटिव के करीब पहुंच जाएगा। निगेटिव इ.ज दि प्रोसेस टु अचीव दि पाजिटिव। निगेटिव और पाजिटिव उलटी चीजें नहीं हैं। इसलिए अच्छा शिक्षण, अच्छी संस्कृति अपने बच्चों को निषेध सिखाएगी, इनकार सिखाएगी, संदेह सिखाएगी। और श्रद्धा आएगी, श्रद्धा हम थोपेंगे नहीं।
और मजे की बात यह है कि अगर हमने एण्ड पहले ही थोप दिया, हमने अंत बता दिया, कनक्लूजंस दे दिए, तो यह बच्चा क्या सोचेगा? इसको सोचने का हमने मौका ही छीन लिया। हमने ही बता दिया कि यह जो मूर्ति है, भगवान की है। हमने ही बता दिया कि यह किताब जो है, सत्य है। इस पर संदेह नहीं होता। और संदेह किया तो भटक जाओगे।
तो हमने जब सब रेडीमेड कनक्लूजंस दे दिए तो हमने इसे सोचने का अवसर ही छीन लिया। हमने इसको मार डाला। जिस व्यक्ति को स्वतंत्रता प्यारी है, वह आने वाले पीढ़ियों को निषेध सिखाएगा, नास्तिकता सिखाएगा, संदेह सिखाएगा।
और मेरा मानना है कि अगर संदेह पूरा किया जाए तो संदेह से ही आदमी उस जगह पहुंच जाता है, जहां श्रद्धा का जन्म होता है। अगर जीवन में कोई सत्य है तो मैं असत्य को इनकार कर सकूंगा, सत्य को कैसे इनकार कर सकूंगा? और जब सर्व असत्य इनकार हो जाएगा तो सत्य शेष रह जाएगा--सत्य जो है! वह असत्य के इनकार करने पर बच गया, शेष रह गया--दि रिमेनिंग! जिसको मैं इनकार नहीं कर पाता हूं, जिसको मैंने सब उपाय किए इनकार करने के, मैं पाता हूं कि यह इनकार नहीं हो सकता, जब सब इनकार गिर जाते हैं और एक ऐसा सत्य प्रकट होता है, जिसको स्वीकार किए बिना कोई राह ही नहीं है, जो स्वीकृत है ही; क्योंकि सब इनकार उससे टकरा कर वापस लौट आते हैं, कोई इनकार उसे नहीं काट पाता।
इनकार से असत्य कटेगा, शेष सत्य रह जाएगा। इनकार से गलत कटेगा, शेष सही रह जाएगा। सही हम न दें, सही तो आएगा। हम सिर्फ इनकार करने की कला सिखाएं, हम सिर्फ संदेह सिखाएं।
अब यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ती है, लेकिन मेरी दृष्टि में यह है कि अब तक दुनिया में आस्तिक नहीं पैदा हो सके, उसका कारण है कि आस्तिकता आपने सिखा दी। अगर इतनी ही ताकत नास्तिकता सिखाने में लगाई जाए तो दुनिया में परम आस्तिक पैदा होंगे--होना ही पड़ेगा उन्हें। बचने का कोई उपाय नहीं है। अगर आपने पूरी कला सिखा दी निगेट करने की, दि निगेटिव माइंड पैदा कर दिया तो इस निगेट करने वाले चित्त की आखिरी सीमा आ जाती है और एक जगह पहुंच जाता है जहां आगे निगेशन नहीं होता। और जब नहीं होता है, तो स्वीकृति आती है।
तो मेरा कहना यह है कि विधेय तो पैदा होगा, पाजिटिव आएगा, निगेशन सिखाना है। संदेह सिखाना है, श्रद्धा आएगी। इनकार सिखाना है, स्वीकार आएगा। नास्तिकता सिखाओ, आस्तिकता आएगी। और धैर्य रखने की जरूरत है कि आस्तिकता आए।

बट ओशो, ए.ज आई अंडरस्टैंड दैट देयर आर सर्टेन सब्जेक्ट्स जस्ट लाइक केमिस्ट्री, फिजिक्स आॅर मेडिकल व्हेयर दि पाजिटिव वैल्यूज आर एसेंशियल। वाॅट आर योर व्यूज अबाउट दैट? 

नहीं, वहां भी नहीं है! वहां भी नहीं है। वहां भी हम, असल में कठिनाई क्या है? साइंस में तो पाजिटिव वैल्यूज की बिलकुल ही जरूरत नहीं है। साइंस तो बेसिकली निगेटिव है क्योंकि साइंस की आधारशिला डाउट है, राइट डाउट। और साइंस में जो हम सिखाते भी हैं पाजिटिव, वह भी पाजिटिव नहीं है, वह हाइपोथेटिकल पाजिटिव है। वह अलग ही बात है। वह सिर्फ हम यह कह रहे हैं, हम एक बच्चे को कि पिछले खोज करने वालों ने यह खोजा है। इसे तुम परिकल्पना मानो, इसे तुम एक हाइपोथिसिस मानो और इसकी तुम खोज करो कि यह ठीक है या नहीं। प्रयोग करो, एक्सपेरिमेंट करो, लेबोरेटरी में खोज करो। पुराने खोज करने वालों ने कहा है कि यह ठीक है। यह उनकी निष्पत्ति है। प्रयोग का मौका तुम्हें खुला हुआ है।
और वैज्ञानिक चिंतन का मतलब ही यह है कि हम पुरानी हाइपोथिसिस पर नये बच्चों को प्रयोग करने के लिए आतुर कर सकें। जरूरी नहीं है कि पुरानी हाइपोथिसिस ठीक ही हो। और सच तो यह है कि रोज विज्ञान सिद्ध करता है कि कल की जो हाइपोथिसिस थी वह गलत हो गई। न्यूटन गलत हो गया, आइंस्टीन गलत हो रहा है और आइंस्टीन गलत हुआ जाता है, यह निरंतर होता रहेगा। यानी विज्ञान का तो कहना यह है कि वह दावा ही नहीं करता एब्सोल्यूट ट्रूथ का।
पाजिटिव माइंड जो है, वह दावा करता है परम सत्य का। वह कहता है, यह आखिरी सत्य है। विज्ञान कहता है कि सब सत्य एप्राॅक्सिमेट ट्रूथ हैं। कोई सत्य परम नहीं है, इसलिए विज्ञान तो बेसिकली निगेटिव है। वह तो यह मानता ही नहीं कि कोई परम सत्य है। वह तो यह कहता है कि सब रिलेटिव सत्य हैं। अब तक जो हम जानते हैं, उससे यह निष्पत्ति निकलती है। कल हम थोड़ा और ज्यादा जान लेंगे तो हो सकता है निष्पत्ति दूसरी निकले। इस निष्पत्ति को सत्य मान कर नहीं चलना है। इस निष्पत्ति को सिर्फ निकटतम सत्य, यानी अब तक जो हम जानते हैं उससे निकला हुआ सारांश समझें। इससे अन्यथा हो सकता है। इसकी स्वीकृति साइंस में पूरी है।
और जो साइंस का शिक्षक इस तरह की स्वीकृति नहीं रखे हुए है, उसका दिमाग सुपरस्टीशस है। वह साइंस का शिक्षक गलती से हो गया है। अगर वह बच्चे को यह कह रहा है कि हम जो कहते हैं यह परम सत्य है, आइंस्टीन ने जो कहा है यह परम सत्य है तो वह आदमी वैज्ञानिक है ही नहीं। विज्ञान का मूल आधार ही निषेध है। और विज्ञान पैदा हो सका उन समाजों में, जहां निषेध की स्वीकृति हुई।
भारत में विज्ञान पैदा नहीं हो सका। आज भी नहीं हो सकता है। पश्चिम में पिछले तीन सौ वर्षों में विज्ञान पैदा हुआ है, तीन सौ वर्षों के पहले वहां भी पैदा नहीं हो सका। इन तीन सौ वर्षों में पाजिटिव माइंड के खिलाफ एक बगावत चली, सब क्षेत्रों में--चाहे राजनीति, चाहे धर्म, चाहे साहित्य, चाहे समाज, चाहे चित्र, चाहे संगीत, सब तरफ बगावत चली। और इन तीन सौ वर्षों में हर पुरानी पाजिटिव वैल्यूज तोड़ कर निगेटिव वैल्यूजे स्थापित की गईं।
जैसे उदाहरण के लिए--बर्नार्ड शाॅ ने। बर्नार्ड शाॅ से किसी ने पूछा कि जीवन में कोई स्वर्ण-सूत्र है? इ.ज देअर एनी गोल्डन रूल इन लाइफ? तो बर्नार्ड शाॅ ने कहाः यस, देअर इ.ज वन गोल्डन रूल दैट देअर आर नो गोल्डन रूल्स। बर्नार्ड शाॅ ने कहा कि एक ही स्वर्ण-सूत्र है कि जीवन में कोई स्वर्ण-सूत्र नहीं है। अब यह एक बढ़िया बात है। इसका मतलब क्या हुआ? यानि यह आदमी बोल रहा है पुरानी भाषा में। यह कह रहा है, हां एक स्वर्ण-सूत्र है। पुरानी भाषा ऐसा बोलती थी कि हां, यह स्वर्ण-सूत्र है। लेकिन बर्नार्ड शाॅ कह यह रहा है कि एक ही स्वर्ण-सूत्र है कि कोई स्वर्ण-सूत्र नहीं है। तो सब स्वर्ण-सूत्रों को निषेध कर दिया।
पिछले तीन सौ वर्षों में वोल्तेयर, दिगरो, माक्र्स, बाकुनिन, क्रोपाटकिन, इनकी सारी पूरी यात्रा रसल तक निषेध की यात्रा है। इस निषेध ने एक हवा पैदा की। उस हवा से विज्ञान पैदा हुआ क्योंकि सब संदेह करना शुरू किया। आदमी छोटी-छोटी चीजों पर भी संदेह नहीं करता रहा है। संदेह की हमारी आदत ही नहीं थी। अतीत ने हमें विश्वास सिखाया था, संदेह नहीं। और हजारों साल तक हम ऐसी बात मानते चले गए जिसको हम थोड़ा सा भी प्रयोग करते तो पता चल जाता।
हमारी आम मान्यता यह थी कि अगर दो पत्थर एक मकान के ऊपर से गिराए जाएं तो छोटा पत्थर पीछे गिरेगा, बड़ा पत्थर पहले गिर जाएगा। अब यह इतने छोटे से प्रयोग से हो सकता था कि आप ऊपर गए होते छत के और आपने एक छोटा और बड़ा पत्थर एक ही साथ छोड़ दिए होते तो आपको पता चल गया होता कि दोनों साथ गिरते हैं; कि छोटा बाद में गिरता है, बड़ा पहले गिरता है। लेकिन किसी ने, पांच हजार वर्ष के मनुष्य-जाति के इतिहास में, सारी दुनिया में यह बात मानी जाती रही। और स्वाभाविक लगता था, बिलकुल तार्किक कि छोटा पत्थर पीछे गिरेगा, बड़ा पत्थर पहले गिर जाएगा। क्योंकि बड़े पत्थर के पास ज्यादा मास है, वजन ज्यादा है तो वजनी चीज पहले नीचे आ जाएगी।
जिस आदमी ने पहली दफा पिसा के टावर पर खड़े होकर पत्थर गिराया। तो लोगों ने उसको पागल कहा कि तुम पागल हो? अरे, बड़ा पत्थर पहले गिरेगा ही! यह तय ही है! इसमें कोई, इसमें कोई सोचने की बात है, कि कोई प्रयोग करने की बात है? इस आदमी का दिमाग खराब है। और हमने भी यही कहा होता, कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? इसमें कुछ करने की जरूरत है? बड़ा पत्थर पहले गिरेगा, यह साफ है। लेकिन उस आदमी ने कहा, लेकिन देख तो लेने दो। मुझे शक होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि दोनों साथ गिर जाते हों? लेकिन अगर हम भी उसके पास होते तो हम भी उससे कहे होते कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। साथ गिर कैसे सकते हैं? और जब उस आदमी ने देखा कि दोनों साथ गिरते हैं तो उसने अपने मित्रों को...वह युनिवर्सिटी थी पिसा की, युनिवर्सिटी! और हैरानी होगी यह कि ज्ञानियों से ज्यादा अंधे लोग बहुत कम होते हैं!
वे युनिवर्सिटी के सारे प्रोफेसर्स को उसने जाकर कहा कि ये पत्थर साथ गिर गए। उन्होंने कहाः इसमें कोई शैतानी मामला होना चाहिए--प्रोफेसर्स ने कहा! इसमें कोई डेविल काम कर रहा है। यानी शैतान कोई ऐसी तरकीब कर रहा है कि दोनों साथ गिरा दिए। नहीं तो दोनों साथ गिर ही नहीं सकते। बड़ा पत्थर बड़ा है वजनी, पहले गिरेगा। और इस आदमी के भीतर कोई शैतान घुस गया है। असल में संदेह शैतान ही समझा जाता था। डाउट जो था वह--डेविल इनकारनेट--जिस आदमी के मन में संदेह पैदा हुआ, उसके भीतर शैतान घुस गया। और जिस आदमी में श्रद्धा उत्पन्न हुई उसके भीतर भगवान है।
संदेह ने ही इन तीन सौ वर्षों में विज्ञान को गति दी। इसलिए जिन मुल्कों में आज जितना तीव्र संदेह है, वहां विज्ञान उतनी ही तीव्रता से गति कर रहा है। ऐसी कोई चीज स्वीकृत नहीं है जिसको हम प्रयोग करके नहीं देखने की इच्छा रखते हैं। आज हम प्रयोग करके देखेंगे ही। प्रयोग तय करेगा। और हो सकता है, कल और बड़े प्रयोग तय करें कि जो हमने जाना था वह भी गलत था। विज्ञान रोज बदल रहा है।
सच तो यह है कि आज विज्ञान के ऊपर बड़ी किताब लिखना मुश्किल हो गई है क्योंकि बड़ी किताब लिखने में दो वर्ष लग जाते हैं और दो वर्ष में जो आपने लिखा वह आउट आॅफ डेट हो गया। इसलिए विज्ञान छोटे, पीरियाडिकल...पर निर्भर हो गया है--हर महीने निकले, हर पंद्रह दिन में निकले, क्योंकि पंद्रह दिन में इतना फर्क हो रहा है!
विज्ञान मानता ही नहीं एब्सल्यूट ट्रूथ को इसलिए विज्ञान पाजिटिव माइंड का सहारा नहीं लेता। विज्ञान तो कहता ही है कि निषेध सूत्र है, संदेह मार्ग है। और जो आज तक पा लिया गया है उस पर भी पुनः-पुनः संदेह करते ही चले जाना है। ताकि तुम और पा सको, और पा सको। और ऐसा भी वह नहीं मानता है कि कभी कोई ऐसी स्थिति आ जाएगी, जहां संदेह व्यर्थ हो जाएगा। संदेह जारी रहेगा। क्योंकि खोज अनंत है। विज्ञान तो मानतो है कि संदेह जारी ही रहेगा, खोज अनंत है। यह अनंत खोज है, कभी भी पकड़ कर ही नहीं बैठ जाना है। जहां पकड़ कर बैठ जाओगे वहां नुकसान हो जाएगा।
मेरा मानना यह है कि वैज्ञानिक चित्त ही निषेध से भरा होता है। और जिसको हम अब तक धार्मिक चित्त कहते थे, तथाकथित, थोथा धार्मिक चित्त, सूडो रिलीजियस, वह संदेह के खिलाफ भरा होता है। और मेरी मान्यता चूंकि ऐसी है कि धर्म परम विज्ञान है, सुप्रीम साइंस है, चूंकि जीवन में जो सबसे गहरा है, धर्म उसकी खोज करता है इसलिए धर्म को भी वैज्ञानिक होना चाहिए। उसको भी निषेध से ही शुरू करना चाहिए।

सर, वाॅट मेजर्स यु सजेस्ट फार दि कमिंग जनरेशन एण्ड वाॅट टाइप आॅफ एजुकेशन आर लर्निंग शुड बी गिवन सो दैट द ओल्ड करप्शन आॅफ पावर शुड नाॅट बी इम्पोज्ड आन दि न्यू जनरेशन?

जैसा मैंने कहा, नई पीढ़ी को कुछ मूल्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए, जैसे व्यक्तित्व के मूल्य की शिक्षा--प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्ति होने की शिक्षा; इस बात की शिक्षा कि तुम भूल कर भी किसी समूह के, समाज के अंग मत बन जाना--सदस्य बन सकते हो, अंग मत बनना; संबंधित होना, लेकिन अपने को खोना मत; अपने को आइडेंटिफाई मत करना। कहीं इतना तादात्म्य मत कर लेना कि तुम कुछ भी न रह जाओ और समूह, संगठन सब कुछ हो जाए। तुम व्यक्ति जीवन भर बने रहना, इनडिविजुअलिटी को तुम जीवन भर खोजना।
निषेध की शिक्षा--कि तुम संदेह करना, तुम चरम संदेह करना। तुम संदेह करने से भयभीत मत होना। श्रद्धा से भयभीत होना, संदेह से भयभीत मत होना। तुम संदेह करना। तुम उस सीमा तक संदेह करना जहां तक तुम्हारी सामथ्र्य हो। मरते क्षण तक तुम संदेह करना ताकि तुम सत्य के करीब से करीब पहुंच सको; ताकि संदेह करके तुम असत्य को काट सको और सत्य तुम्हारे निकट से निकट आने लगे, निकट से निकट होने लगे।
आइंस्टीन एक एक्सपेरिमेंट कर रहा था। सात सौ प्रयोग कर चुका और सफल नहीं हुआ, लेकिन रोज सुबह अपनी लेबोरेट्री में हंसता हुआ आकर खड़ा हो जाता है वापस! उसके साथ जो एक युवक काम कर रहा है, वह थक मरा है कि यह बूढ़ा पागल है क्या? सात सौ बार असफल हो चुका है और रोज सुबह फिर खड़ा हो जाता है उसी तरह, फिर नया शुरू करते हैं! वह युवक थक गया है, वह परेशान हो गया है। असल में वह युवक बूढ़ा है, आइंस्टीन जवान है। वह युवक उससे कहता है कि अब यह छोड़ ही देना चाहिए, क्योंकि हम कितनी दफा हार चुके।
आइंस्टीन ने कहाः हार चुके! तुम पागल हो गए हो, हम हर बार जीत रहे हैं। उसने कहाः कहां जीत रहे हैं? हर बार प्रयोग असफल हो रहा है। आइंस्टीन ने कहाः सात सौ दिशाओं में हमने खोज की, वह सात सौ दिशाओं में सत्य नहीं है, यह हमें पता चल गया। हम सात सौ बार सफल हो गए। सत्य निरंतर इलीमिनेट होकर करीब आता जा रहा है। अगर मान लो, सात सौ पंद्रहवीं दफे सत्य होगा तो अभी चैदह बार हमें और इलीमिनेट करना है, चैदह रास्ते और निषेध करने पड़ेंगे। फिर वही शेष रह जाएगा। फिर वह बच कर भाग नहीं सकता। हम उसको पकड़ ही लेंगे, वह जाएगा कहां? हम सात सौ मार्गों पर खोज चुके कि वह नहीं है वहां। इतना तो निश्चिंत हो गए हम अब। इतनी तो हमने सीमा काट कर फेंक दी। अब अज्ञात का क्षेत्र सिकुड़ गया है, बड़ा नहीं रह गया है। हमने इतना हिस्सा काट डाला है; खोजते जाएंगे, खोजते जाएंगे, तोड़ते जाएंगे, छोड़ते जाएंगे। फिर आखिर में वही शेष रह जाएगा, उसे हम पकड़ ही लेंगे।
तो सिखाना है संदेह, सिखाना है इलीमिनेशन, निषेध। छोड़ो, जो असत्य है, उसे तोड़ो। इनकार करो, ताकि अंततः सत्य बच जाए। सिखाना है बच्चों को, जैसा हम कहते हैं, क्या ज्ञान दें? नहीं, ज्ञान नहीं देना है। थस्र्ट फाॅर लर्निंग! लर्निंग नहीं, ज्ञान नहीं देना है, ज्ञान की प्यास! विश्वविद्यालय से निकलता हुआ कोई बच्चा इस भ्रम में पड़ा हुआ न निकले कि मैं सर्टिफिकेट ले आया और ज्ञानी हो गया। अभी यही हो रहा है। अभी सिर्फ अज्ञानियों को ज्ञानी होने के सर्टिफिकेट मिल जाते हैं।
ज्ञान नहीं देना है, देना है ज्ञान की प्यास। ज्ञान नहीं सिखाना है, सिखाना है सीखने की क्षमता--एटिट्यूड आॅफ लर्निंग। पुरानी दुनिया ज्ञान सिखा देती थी, रेडीमेड, उधार, बासा। जिज्ञासा नहीं जगाती थी। जिज्ञासा मार देती थी। पकड़ा देती थी फार्मूले, किताबें। सत्य तैयार था, वह दे दिया जाता था--बारोड, उधार, बासा। वह आदमी को मार डालता था, बासा कर देता था, उधार कर देता था।
जीवंत मनुष्य को पैदा करने के लिए उधार, बासा ज्ञान थोप नहीं देना है। उधार और बासे ज्ञान को भी जंपिंग बोर्ड का ही उपयोग करवाना है कि तुम इस पर सीखो। इस पर खड़े होकर आगे छलांग लगा जाओ। इसको सीखो ताकि तुम और कूद सकोगे जो कि तुम अकेले में नहीं कूद सकोगे। इसको सीखो ताकि तुम और संदेह कर सको, जो कि तुम अकेले नहीं कर सकोगे। सीखो ताकि तुम्हारे प्रश्न और जग जाएं। यानी पुरानी शिक्षा देती थी उत्तर, नई शिक्षा सिखाएगी प्रश्न।
बट्रेंड रसल ने एक अनुभव लिखा है। उसने लिखा है कि जब मैं पहली दफा पढ़ने यूनिवर्सिटी गया तो मैंने सोचा था कि दर्शनशास्त्र पढूंगा तो मुझे सब उत्तर मिल जाएंगे। सब प्रश्न मेरे हल हो जाएंगे तो मैं निश्चिंत हो जाऊंगा। लेकिन अब अस्सी वर्ष के बुढ़ापे में मैं यह कहना चाहता हूं कि वह मेरी धारणा गलत थी। मैं सोचता था, दर्शनशास्त्र उत्तर दे देगा लेकिन हर उत्तर ने मेरे सामने नये दस प्रश्न खड़े कर दिए। तब मैंने लिखा था कि दर्शनशास्त्र, मनुष्य के गहरे उत्तरों की खोज है। अब मैं कहना चाहता हूं कि दर्शनशास्त्र नये प्रश्नों की खोज है। लेकिन यह बट्र्रेंड रसल को हुआ। बट्र्रेंड रसल के साथ और लोग भी पढ़े होंगे, वे उत्तर लेकर चले गए होंगे।
अब तक हमारे बीच जो प्रतिभा थी, जीनियस था, वह तो नहीं बनता था उधार ज्ञान से, वह बच जाता था। वह तो इनकार कर ही देता था हमारी सब कोशिश के बावजूद--इंस्पाइट आॅफ अस, वह ज्ञानी नहीं बनता था। लेकिन जो सामान्य चित्त था, जो मिडियाकर माइंड है वह ज्ञानी बन कर लौट आता था। अब हमें एक ऐसी शिक्षा की व्यवस्था बनानी है जहां हम किसी को मिडियाकर न बनने देंगे। हम प्रत्येक के भीतर प्रश्न उठाएंगे। हमें उत्तर देने की चिंता नहीं होगी जितना प्रश्न जगाने की। अगर हम उत्तर भी लाएंगे कहीं से तो सिर्फ इसलिए, कि वे नये दस प्रश्नों के लिए जन्म देने का कारण बन जाएं। वह आपके भीतर समाधान न बने, नई समस्याओं का द्वार बन जाए। और विश्वविद्यालय से निकला हुआ विद्यार्थी ऐसे प्रश्न लेकर आए जो जिंदगी में उसे खोजने हैं। ऐसे उत्तर लेकर न आ जाए, जो जिंदगी पर उसे थोपने हैं; तो हम नया जीवंत मनुष्य पैदा कर सकेंगे।
जीवित मनुष्य अगर पैदा नहीं किया जा सका तो पुराना मनुष्य मरने की उस जगह पर पहुंच गया है, जहां से शायद फिर जीवन की संभावना भी खत्म हो जाएगी, शायद पूरी तरह मर जाएगा। मरते-मरते-मरते, मरते हमने आदमी को वहां पहुंचा दिया है कि जहां या तो बिलकुल मरेगा वह, और या फिर हमें बिलकुल नये मनुष्य को पैदा करना पड़ेगा। मैं जो भी कह रहा हूं, वह उस नये मनुष्य की खोज के लिए ही।
मनुष्यता को मुक्त तो करना ही है क्योंकि मनुष्यता मुक्त न हो तो विक्षिप्त होगी। पूरी मनुष्यता विक्षिप्त हो जाएगी--हो ही गई है। पृथ्वी करीब-करीब एक मैड हाउस है, एक बड़ा पागलखाना है। यहां हमने छोटे-छोटे पागलखाने भी बनाए हैं, ज्यादा पागल हो गए लोगों के लिए। और कहना कठिन है कि वे लोग, जिन्हें हमें पागलखाने में रखना पड़ रहा है, वे इसीलिए तो नहीं कहीं ज्यादा पागल हो गए हैं, कि हम सब पागलों के बीच उन्हें रहना मुश्किल है? यह भी हो सकता है कि हम सबके बीच रहना कुछ लोगों के लिए इतना कठिन हो जाता है कि सिवाय पागल होने के उनके पास उपाय नहीं बचता।
सारी दुनिया पागल है। मनुष्यता को बचाना ही होगा इस पागलपन से, नहीं तो मनुष्यता मरेगी। उसके पागलपन से युद्ध आते हैं, महायुद्ध आते हैं, और अब अंतिम युद्ध भी आ सकता है। पागल मनुष्यता का कोई भरोसा नहीं है कि कब आत्महत्या कर ले। उसने तैयारियां पूरी कर ली हैं। लेकिन मजे की बात यह है कि मनुष्यता के इस पागल होने में बुरे लोगों का हाथ नहीं है। और यही कठिनाई है सबसे बड़ी, जिसे समझना मुश्किल हो जाता है। मनुष्यता के इस पागल होने में तथाकथित अच्छे लोगों का हाथ है। क्योंकि उन्होंने जो तरकीबें सुझाई थीं, उनका यह फल हुआ है। उन्होंने तरकीबें सुझाईं थीं कि सरल दिखाई पड़ो, सरल हो जाओ। उन्होंने तरकीबें सिखाईं थीं कि प्रेम करो, अहिंसा साधो। उन्होंने तरकीबें सिखाईं थीं कि सत्य बोलो, झूठ छोड़ो। उन्होंने तरकीबें सिखाईं थीं कि परिग्रह नहीं, अपरिग्रह--वस्तुएं कम, आवश्यकताएं थोड़ी। ये सारी तरकीबें जो सिखाई थीं--ब्रह्मचर्य, सेक्स नहीं; त्याग, भोग नहीं; शरीर की दुश्मनी, तो परमात्मा को पा सकोगे। यह सारी तरकीबों का अंतिम, इकट्ठा परिणाम यह हुआ है कि आदमी पागल होता चला गया। अच्छे आदमियों ने मिल कर मनुष्यता को पागल कर दिया है।
इस पागलपन को अगर मिटाना हो, तो हमें अच्छे आदमियों द्वारा सिखाई गई सारी बातों पर पुनर्विचार करना होगा। जैसे उसमें से एक यह बुनियादी बात है कि हम कोई भी चीज मनुष्य पर थोपना बंद कर दें। मनुष्य पर कुछ भी थोपना बंद कर दें, ऊपर से डालना बंद कर दें। जो लोग भी जाने या अनजाने खुद को या दूसरे को दुख देते हैं उनमें किसी न किसी तरह के विक्षिप्त रोग हैं, वे किसी न किसी तरह से पागलपन में पड़े ही हुए हैं। दूसरे को दुख देने वाला हमको दिखाई पड़ जाता है, लेकिन खुद को दुख देने वाला हम महात्मा बना लेते हैं। लेकिन दुख देने की वृति वही है। उसका आॅब्जेक्ट कोई भी हो सकता है। मैं दूसरे को भी सता सकता हूं, खुद को भी सता सकता हूं। यह जो दुनिया की अब तक की नैतिकता है वह सैडिस्ट और मैसोचिस्ट है। दुनिया की पूरी नैतिकता, अब तक की पूरी नैतिकता मनुष्य को मुक्त करने वाली नहीं है, रुग्ण करने वाली है।
तो यही मैं कह रहा हूं कि मनुष्यता की मुक्ति का पहला आधार तो यह होगा कि मनुष्य जैसा है हम उसे स्वीकार कर लें। उसे जल्दी नैतिक बनाने की चेष्टा खतरनाक है, महंगी है। उसके भीतर क्रोध है तो हम जल्दी से क्षमा न सिखाएं। क्योंकि जल्दी सिखाई गई क्षमा सिर्फ क्रोध को दबा देगी और झूठी हो जाएगी। वह आदमी क्रोधी ही रहेगा और क्षमा का अभिनय करेगा। यह इतना टेंशन पैदा करेगी उसकी स्थिति भीतर की, कि क्षमा का अभिनय करना और क्रोध में जीना, यह इतना तनाव पैदा कर देगी कि आदमी पागल होगा।
तो हम क्रोध को स्वीकार कर लें और बजाय क्षमा सिखाने के, क्रोध के प्रति जागना सिखाएं। इसलिए पूरी नैतिकता और अर्थ की होगी। यह नई नैतिकता, मनुष्य जैसा है, उसके प्रति जागरण सिखाएगी। कैसा होना चाहिए, इसकी शिक्षा नहीं देगी। यह नई नैतिकता उपदेश की नहीं होगी, और क्या अच्छा है, इसकी नहीं होगी। जो है, उसके प्रति हम कैसे जागें, हाउ टु बी अवेयर, इसकी होगी। और मनुष्य जैसा है, उसको हम स्वीकार करते हैं। उसमें क्रोध है, काम है, लोभ है, घृणा है, प्रेम है, जो भी है उसके भीतर, हम उसे स्वीकार करते हैं कि वह है। इसे हम मानते हैं, दि गिवन, वह मिला हुआ है। अब इसके प्रति हमें जागना है ताकि हम ठीक से परिचित हो सकें कि मैं क्या-क्या हूं!
अभी जल्दी नहीं है इस बात की, हम कैसे हो जाएं! अभी इसी बात की तीव्रता होनी चाहिए कि हम कैसे हैं। जो हम हैं, उसके प्रति हम पूरे जाग जाएं। और मजे की घटना यह है कि जब कोई व्यक्ति अपने पूरे चित्त के प्रति जागता है तो चित्त में जो दुखदायी है वह अपने आप गिरना शुरू हो जाता है। और जो सुखदायी है, उस तरफ गति होनी शुरू हो जाती है। जागा हुआ आदमी, क्रोध से कब क्षमा पर पहुंच जाता है, इसका उसे पता भी नहीं चलता। जागा हुआ आदमी सेक्स से कब ब्रह्मचर्य पर पहुंच जाता है, इसका उसे पता भी नहीं चलता। जागा हुआ आदमी, कब जिसको हम पाप कहते हैं उससे मुक्त होकर पुण्य में गति कर जाता है, इसका उसे पता भी नहीं चलता है। और तब वह कांशस भी नहीं होता। और तब इस पुण्य का कोई अहंकार और इस पुण्य का कोई दावा और इस पुण्य के बदले में कोई स्वर्ग पाने की आकांक्षा भी उसमें नहीं होती। चूंकि इस पुण्य से उसे इतना आनंद मिल रहा है कि अब और कोई स्वर्ग की कोई जरूरत नहीं है। इस पुण्य में वह इतना आनंदित है, इतना प्रफुल्लित है कि अब और इसका और प्रतिफल आगे मिलना चाहिए, इसका कोई सवाल नहीं है। उसका एक-एक क्षण आनंद का क्षण हो गया।
मनुष्य को गलत दिशा पर ले जाया गया है। लेकिन शायद जरूरी था पिछले इतिहास में, क्योंकि जंगल से जैसे ही आदमी मुक्त हुआ, उसके पास जो-जो जंगली वृत्तियां थीं, उनके साथ दूसरे आदमी के साथ रहना बहुत कठिन था। तो सीधा-सरल जो उपाय सूझा होगा, वह यही सूझा था कि भाई, इन वृत्तियों को रोको ताकि दूसरे के साथ रह सको, समाज बन सके, सभ्यता बन सके। यह पहला उपाय था जो सूझा। यह बिलकुल ही प्रिमिटिव था। लेकिन आज का आदमी भी उसी प्रिमिटिव इथिक्स के नीचे जी रहा है जो कि अत्यंत मूर्खतापूर्ण है, स्टुपिड है। प्राथमिक तल पर ठीक भी हो सकता था। शायद जंगल से निकले आदमी को और कुछ नहीं सूझ सकता था कि वह क्या करे। उसे यही सूझा होगा कि बाहर से जो भी कर सके करे, क्योंकि भीतर का उसे कोई पता भी नहीं हो सकता था।
लेकिन अब इधर पांच छह हजार वर्षों की नैतिक शिक्षण के बाद यह बात इतनी साफ हो गई है कि नैतिकता ही हमारी विक्षिप्तता में ले जाने का कारण है। हमारे माॅरल टीचर्स ही हमें इम्माॅरल बनाए हुए हैं। और हमारे साधु-संन्यासी ही, हमारी सारी सभ्यता के भीतर घाव, बीमारियां, कोढ़ और कैंसर पैदा करने वाले हैं। यह अगर साफ दिखाई पड़ जाए, तो एक बिलकुल ही नई नैतिकता, एक नई सभ्यता का सूत्र, और नई मनुष्यता का आधार रखना पड़े। उस मनुष्यता का आधार द्वंद्व नहीं होगा, बुरे के साथ...जो पिछली नैतिकता का आधार था कि बुरे के साथ लड़ो; बुरे को हटाओ, बुरे को मिटाओ।
नई नैतिकता का आधार होगा, बुरे को जानो, बुरे को जीयो, पहचानो, बुरे के प्रति जागो। और अगर जाग गए हो तो बुरा चला जाएगा। यानी बुरे का जाना जागने का परिणाम होगा। बुरे को जाने और हटाने की हमारी कोई चेष्टा नहीं है। पर हम हटाने वाले हैं भी कौन? अगर बुरा भी उपयोगी है जीवन के लिए तो रहेगा। अगर बुरे में भी कोई रस और आनंद है तो रहेगा। लेकिन मेरा मानना है कि बुरे में कोई रस और आनंद नहीं है। हम जब तक नहीं जागे हैं, तभी तक उसमें रस और आनंद है। इसकी भ्रांति हो सकती है।
जैसे ही हम जागेंगे, तो पुरानी नीति कहती थी कि शुभ में आनंद है। मैं कहता हूं, जिसमें आनंद है वही शुभ है। पुरानी नीति कहती थी, बुरे में दुख है। मैं कहता हूं, जिसमें दुख है वही बुरा है। इनमें बुनियादी फर्क पड़ गए। इसमें अब बुरे को छोड़ने का सवाल नहीं है, दुख को पहचानने का सवाल है। और अब आनंद की चेष्टा करने की जरूरत नहीं है, आनंद को पहचानने की जरूरत है कि कहां मुझे आनंद मिलता है। जिन क्षणों में मुझे आनंद मिलता है वे अपने आप बढ़ने लगेंगे और जिन क्षणों में मुझे दुख मिलता है वे सिकुड़ने लगेंगे।
और धीरे-धीरे एक रूपांतरण होगा, जिस रूपांतरण में मेरे भीतर कुछ भी क्रिपिल्ड नहीं होगा, दबाया हुआ नहीं होगा, पंगु नहीं होगा। कोई भी लंगड़े मेरे भीतर नहीं सरकते होंगे जिनको मैंने तोड़ डाला है। कोई भी दमित वासनाएं मेरे भीतर नहीं होंगी जो निकलने की कोशिश करती रहीं। और मेरे भीतर कोई तनाव नहीं होगा। मैं बिलकुल टोटल, एट ई.ज, अपने साथ बिलकुल ही विश्राम में होऊंगा। मेरी अपने से कोई लड़ाई ही नहीं होगी। और ऐसा क्षण, जब कोई व्यक्ति अपने साथ पूर्ण विश्राम को उपलब्ध हो गया हो, ऐसे क्षण को मैं संन्यास कहता हूं।
इसलिए मेरी संन्यास की अपनी धारणा है। ऐसा व्यक्ति जो स्वयं के प्रति पूर्ण विश्राम में जीता है, जिसकी अपने भीतर कोई लड़ाई नहीं, कोई द्वंद्व नहीं, ऐसे विश्राम के क्षण में ही परम सत्य का अनुभव हो सकता है। क्योंकि जब तक हम तने हैं और चित्त तनाव से भरा है, और लड़ाई से भरा है तब तक इतनी लहरें हैं चित्त के ऊपर कि हम सत्य को कैसे जान सकेंगे? टोटल रिलैक्जेशन का मतलब, पूर्ण विश्राम का मतलब यह नहीं कि एक आदमी ने अपने शरीर को रिलैक्स करके छोड़ दिया है। उसका भी मूल्य है, लेकिन जब पूरा टोटल बीइंग रिलैक्स्ड होता है, सब--बुद्धि भी, भाव भी, वासना भी, कामना भी, आकांक्षा भी--सारा विश्राम को उपलब्ध हो जाता है। जब मेरा पूरा व्यक्तित्व, टोटल बीइंग, कि मेरे भीतर कोई स्वर ही नहीं होता संघर्ष का, जब मैं पूर्ण विश्राम में डूबा होता हूं तब मैं उसे जानता हूं, जो है--जिसे हम सत्य कहें, परमात्मा कहें। पूर्ण विश्राम उसका द्वार है।
और बड़े मजे की बात है और बड़े दुख की कि हमारी पूरी नीति हमें विश्राम के विपरीत ले गई है। विश्राम में नहीं ले गई। अत्यंत कलह में और कांफिलक्ट में ले गई है और उसने ऐसी जगह आदमी को पहुंचा दिया है जहां परमात्मा का मंदिर निकट नहीं होता, सिर्फ पागलखाने का दरवाजा निकट होता है। परमात्मा के निकट पहुंचाने में आदमी को सिर्फ पागलखाने के दरवाजे पर पहुंचा दिया गया है। और इसलिए, पागलखाने का दरवाजा ही उसके मंदिर का दरवाजा बना हुआ है। मंदिर और मस्जिद और गिरजे, सब आदमी को पागल कर रहे हैं। वे नाम भर के परमात्मा के मंदिर हैं। वे सब आदमी को पागल करने की तरफ ले जाने की कोशिश में लगे हैं।
पिछली मनुष्य-जाति का पूरा इतिहास इसको बताता है कि हमने बहुत गलत रास्ते पर कदम रखे। आने वाले आदमी को इस पूरी भूल के प्रति सजग करने का बहुत बड़ा काम है। और मुझे लगता है कि यह सजगता आएगी क्योंकि सजगता आती भी उन क्षणों में है, जब जीवन बहुत संकट में पड़ जाता है। अब जीवन उस संकट की घड़ी से गुजर रहा है। या तो हम जागेंगे, या मरेंगे। या तो आदमी बचेगा, या खत्म होगा। पूरी की पूरी रेस पागलपन के रास्ते पर चली गई है--पूरी जाति मनुष्य की। ऐसा नहीं हुआ है कि कुछ लोग पागलपन के रास्ते पर चले गए हैं। पूरी जाति का जो ढांचा हमने ढाला है, जो पैटर्न हमने दिया है दिमागे को, वह उसे रुग्ण करने वाला है। इस पूरे ढांचे को बदलने की बात है।
इसलिए काम बहुत बड़ा है। इससे बड़ा शायद कोई काम ही नहीं हो सकता है। लेकिन यह काम कितना ही बड़ा हो, हो सकता है। क्योंकि आदमी उस जगह पहुंच गया है जहां चीजें क्लाइमेक्स पर पहुंच कर दिखाई पड़ रही हैं। साफ दिखाई पड़ रही हैं। उसकी राजनीति वहां पहुंच गई है, जहां विश्व का अंत हो जाए। उसके धर्म वहां पहुंच गए हैं जहां एक दूसरे की गर्दन को पकड़े हुए हैं। अब उनकी झूठी बातों का कोई मतलब नहीं है कि सब भाई-भाई हैं, सब प्रेम है, और विश्व हमारा कुटुंब है। इन सब बातों का कोई मतलब नहीं है क्योंकि उनकी हालतें दिखाई पड़ रही हैं, सब एक दूसरे की गर्दन पकड़े हुए हैं। और यह भी कह रहे हैं कि वसुधैव कुटुंबकम् और लव दाई नेबर, यह भी सब कहे चले जा रहे हैं। और जो आदमी कह रहा है कि अपने पड़ोसी का प्रेम करो, वह भी पड़ोसी की गर्दन दबाए हुआ खड़ा है। और छुरा निकाले उसकी छाती पर बैठा है कि तू ईसाई हो जा। और वह जो आदमी जो कह रहा है कि सारा विश्व हमारा कुटुंब है, वह भी कहता है कि मैं हिंदु हूं। और वह जो आदमी कहता है कि सब भाई-भाई हैं, वह भी कहता है कि हमको पाकिस्तान अलग चाहिए। हम तो मुसलमान हैं।
सारे धर्म अब अपने उस जगह खड़े हो गए हैं जहां हम देख सकते हैं उनकी असली शक्लें। रोग अपनी पूरी सीमा पर पहुंच गया है, जहां परखा जा सकता है। राजनीति पागलपन पर ले जाकर खड़ी कर दी है। वह साफ जाहिर है कि सारी दुनिया उन्होंने उस जगह पहुंचा दी है, जहां से सुसाइडल घटना घट सकती है, युनिवर्सल सुसाइड हो सकता है।
यह जो स्थिति है, यह इतनी साफ हो गई है कि आज इस बात की संभावना है कि इस संकट में, इस क्राइसिस में अगर कुछ लोग श्रम में लग जाएं तो शायद मनुष्य को जगाया जा सके। ऐसा क्षण पहले कभी था भी नहीं। यह पहली दफे ऐसा क्षण आया अंतिम संकट का, और शायद अंतिम संकट में चीजें दिखाई पड़ जाएं, और एक बिलकुल नये धर्म का...नये धर्म से मेरा मतलब? कोई मुसलमान, कोई ईसाई, कोई हिंदू, ऐसा कोई नया धर्म नहीं!
नये धर्म से मेरा मतलब कि धर्म की पुरानी सारी धारणा को तोड़ कर मनुष्य को स्वीकार करने वाला, मनुष्य को द्वंद्व में न डालने वाला, मनुष्य को तनाव में न ले जाने वाला। मनुष्य को विश्राम में ले जाने वाला और जागरूकता की तरफ गति करने वाला एक धर्म, एक वैज्ञानिक धर्म, एक साइंटिफिक रिलीजन पैदा हो जाए। और यह हो, तो ही आशा है। यह न हो, तो कोई आशा नहीं है।
लेकिन, यह सबके लिए हो पाए या न हो पाए; जिन व्यक्तियों को भी खयाल में आ जाए उनके लिए तो पैदा हो ही जाना चाहिए। यानी यह सवाल भी ऐसा नहीं है कि मैं प्रतीक्षा करूं कि सारी दुनिया में जब होगा तब मैं करूंगा। यह सवाल नहीं है। मुझे तो जो आनंदपूर्ण लग रहा है, उस तरफ मुझे जाना ही है और जिनको भी लगे, उन्हें जाना है। और जो भी आदमी जाएगा उसके सामने, जैसे ही यह आनंद भीतर घनीभूत होता है, वह उस आनंद को दूसरों से साझीदार भी बनाना चाहता है। यह बड़े मजे की बात है कि दुख में हम किसी को साझीदार नहीं बनाना चाहते, बल्कि दुख में हम भागना चाहते हैं, दूसरों से बचना चाहते हैं। अगर तुम दुखी हो तो द्वार बंद करके कमरे में बैठने का मन होता है। कोई न आए, कोई न मिले, ऐसा मन होता है।
दुख सिकोड़ता है आदमी को। और जब तुम आनंदित हो तब तुम मित्र को खोजना चाहते हो, किसी को बांटना चाहते हो। इसलिए आनंद अकेला बेमानी है, वह इतना ओवरफ्लो करता है कि दूसरों तक पहुंचना चाहता है। तो मेरी चेष्टा यही है कि चाहे थोड़े से ही लोगों तक, जिन तक आवाज पहुंच सके, उनको इतने आनंद की दिशा में ले जाने का भाव, दृष्टि और दिशा मिल जानी चाहिए कि जब वे आनंदित हों तो उनके ऊपर से ओवरफ्लो होने लगे, उनके आस-पास बिखरने लगे। कोई कठिनाई नहीं है कि आने वाले सौ वर्षों में मनुष्य जाति में एक बिलकुल ही नये तरह की, वैज्ञानिक मनुष्यता का जन्म हो जाए।
अब तक हमने विज्ञान का उपयोग किया है पदार्थ पर। मनुष्य पर किया ही नहीं। मनुष्य के साथ हम बिलकुल ही अवैज्ञानिक हैं। अकेले पदार्थ पर हमने साइंस का उपयोग किया है इसलिए पदार्थ में हमारी बहुत गति हो गई। वहां ज्ञान हमारा आकाश छूने लगा। वहां हम चांद पर उतर गए। वहां हम अणु को तोड़ लिए। अब मौका आया है कि हम आदमी पर भी विज्ञान का प्रयोग करें, एक साइंटिफिक माॅरेलिटी--जो मैं कह रहा हूं, वैज्ञानिक नीति होगी, वैज्ञानिक धर्म होगा। और जिस दिन हम आदमी पर भी विज्ञान का प्रयोग कर सकेंगे उस दिन सारे जगत के तल पर इस बात की संभावना है ही। इसे हम दो तरह से कह सकते हैं।
अगर हम यह मानें कि अभी जो मनुष्य है इसको मनुष्य कहना ठीक नहीं है, सबह्यूमैन है, यह आदमी से थोड़ा नीचे है। तो हम कह सकते हैं कि ह्यूमैन बीइंग पहली दफा पैदा हो जाएगा, मनुष्य पैदा होगा! या हम इसको मनुष्य कहें, तो हम कह सकते हैं कि सुपरमैन पैदा हो जाएगा। यह परिभाषा की बात है कि हम क्या कहते हैं।
लेकिन एक बात तय है कि मनुष्य-जाति के इतिहास में वह मोड़ आ गया है, जहां से बिलकुल नये प्राणी के जन्मने की संभावनाएं प्रकट होती हैं। एक नया आदमी पैदा होगा। अब मुझे ऐसा लगता है कि जानवर से मुक्त होकर हम मनुष्य नहीं हो पाए। सिर्फ सबह्यूमन हो पाए--सुपर एनिमल और सबह्यूमन। जानवर से तो ऊपर आ गए, और आदमी हो नहीं पाए; आदमी से नीचे रह गए।
तो यह जिसको हम अब तक मनुष्यता कहते रहे हैं, यह बीच की, संक्रमण की अवस्था है। जहां से जानवर आदमी होने की कोशिश करता रहा है। अब वह क्षण करीब आ रहा है जहां आदमी पैदा हो सकता है। और आदमी तभी पैदा होगा जब हम उसे बोध अवेयरनेस और आनंद की दिशा में गतिमान कर सकें। यह हो सकता है।

डु यु फील सर, दैट न्यू एजुकेशन मे बिं्रग सम रिवोल्यूशन व्हिच मे फ्री द इनडिविुअल एण्ड मेक दि ब्यूटिफुल सोसाइटी?

शिक्षा तो आधार है। शिक्षा आधार है और अगर हम, नये मनुष्य का जन्म कैसे हो, इसकी वैज्ञानिक दृष्टि साफ हो जाए तो हम शिक्षा में उसका प्रयोग करेंगे ही, करना ही चाहिए। पुरानी नीति की शिक्षा बंद हो जानी चाहिए। मनुष्य को तनाव में डालने वाली सारी बातें बंद हो जानी चाहिए। नई पीढ़ियों को इतना स्वीकार भाव होना चाहिए कि जो भी हमारे भीतर है, वह स्वीकृत है--वह है! जैसा आंख कान है, ऐसा ही और सब भी है। और वह कितना है, उसकी हम पूरी जांच-पड़ताल करें, उसे हम पूरा पहचानें।
अब आंख के संबंध में कितना ज्ञान हो गया है आज। साधारणतः आंख है, बस बात खतम हो गई। इससे ज्यादा हम कुछ भी नहीं जानते हैं हम। पर आज तो आंख के बाबत पूरा विज्ञान खड़ा हो गया है। आज आंख के बाबत इतना ज्ञान है कि एक आदमी आंख के संबंध में ही जानना चाहे तो जीवन भर में नहीं जान सकता। लेकिन सेक्स के बाबत हम क्या जानते हैं? सच तो यह है कि इधर फ्रायड के बाद थोड़ी सी बात उठी है, नहीं तो सेक्स के बाबत हम कुछ भी नहीं जानते थे। लेकिन सेक्स के खिलाफ हम हजारों साल से बकवास कर रहे थे और जानते कुछ भी नहीं थे।
प्रेम के बाबत हम क्या जानते हैं? कवियों की कविताएं हमने सुनी हैं और प्रेम के संबंध में प्रेमियों के गीत और कहानियां पढ़ी हैं। लेकिन प्रेम की घटना मनुष्य की चेतना में कितनी गहराइयों तक क्या अर्थ रखती है, इसके बाबत हम कुछ भी नहीं जानते हैं। न हम क्रोध के बाबत कुछ जानते हैं, न घृणा के बाबत कुछ जानते हैं।
मनुष्य के व्यक्तित्व में जो भी छिपा है, उसका कितना गहरा इंप्लिकेशन है और कितनी दूर तक उसकी जड़ें हैं, हम कुछ भी नहीं जानते हैं। यह अज्ञान भारी है। यह अज्ञान नई शिक्षा को मिटाना पड़ेगा। और नई शिक्षा को इस दिशा में काफी गति करनी चाहिए। असल में जितनी मेहनत हम कैमिस्ट्री या फिजिक्स की खोज-बीन में कर रहे हैं उससे भी ज्यादा मेहनत हमें ह्यूमैन केमिस्ट्री के संबंध में फिकर करनी चाहिए कि हम मानव-रसायन को पूरी तरह जान सकें। और जब ये सारे सूत्र हमें साफ हो जाएं तो एक नई शिक्षा गति कर सकती है।
असल में कई चीजें हैं, इससे यह मालूम नहीं होता है कि हमको उनका पता हो गया है। आज से तीन सौ साल पहले तक आदमी को यह पता ही नहीं था कि खून गति करता है। यही खयाल था कि शरीर में खून भरा हुआ है। और खून तो गति कर रहा है सदा से। हमारे भीतर भी गति करता है, लेकिन अगर मुझे बताया न जाए तो मुझे भी खयाल नहीं हो सकता है कि खून गति कर रहा है। खून ठहरी हुई चीज नहीं है। लेकिन आज से तीन सौ साल पहले तक खून भरी हुई चीज थी। जैसे बर्तन में पानी भरा हुआ है, ऐसे शरीर में खून भरा हुआ। अब मेरे ही शरीर में खून गति कर रहा है, मुझे ही पता नहीं चलता है। बहुत मुश्किल से यह पता चला कि खून गति कर रहा है। और जब खून गति कर रहा है, यह पता चला तो खून के संबंध में हमारे सारे खयाल हमें बदलने पड़े; पूरी दृष्टि बदलनी पड़ी।
ठीक ऐसे ही क्रोध क्या कर रहा है हमारे भीतर, प्रेम क्या कर रहा है, सेक्स क्या कर रहा है, लोभ क्या कर रहा है, अहंकार क्या कर रहा है--हमारे भीतर इन सबका रासायनिक अर्थ क्या है? इनसे क्या हो रहा है? दबाने से क्या हुआ है? इनको जानने से क्या होगा? इस सब दिशा में बहुत रिसर्च की, बहुत खोज की जरूरत है। और उस सबका इंप्लिमेंटेशन, उस सबका व्यवाहारिक उपयोग शिक्षा की पद्धति में होना चाहिए। तो ही हम नये आदमी के पैदा करने में शिक्षा का उपयोग कर सकते हैं।
लेकिन दो बातें तय हैं--एक बात तो यह कि हमें पुराने से नये बच्चों को बचाना चाहिए। शिक्षा का आधा काम तो यह होना चाहिए कि वह अतीत की नासमझियों से बच्चों को बचाए। अभी हालत यह है कि वह अतीत की नासमझियों से बच्चों को दीक्षित करती है। उनमें दीक्षित करती है। यानी जो बेवकूफियां हजारों साल से चल रही हैं, नये बच्चों को भी उनको सिखा देती है। तो बड़ा काम तो यह है, प्राथमिक काम यह है कि हम अतीत की भूलों से बच्चों को बचाएं।
और दूसरा काम यह है कि जो-जो भूलें अतीत में हुई, उनकी जगह क्या किया जाना चाहिए--जैसे कि बजाय सेक्स से लड़ने के सेक्स को जानना, समझा जाना चाहिए। बजाय क्रोध से लड़ने के उसको पहचानना, जानना चाहिए। यह पहचानने और जानने का काम दो तलों पर होगा। एक तो इस सबकी लेबोरेट्रीज होनी चाहिए जहां ये प्रयोग चलें, बड़े पैमाने पर और प्रत्येक व्यक्ति भी एक लेबोरेटरी बने कि वह भी अपना प्रयोग चलाता रहे। जैसे हम रोज खाना खाते हैं, रोज सोते हैं, ऐसे ही रोज हम क्रोध भी कर रहे हैं, प्रेम भी कर रहे हैं, तो इन प्रेम और घृणा और क्रोध की सारी घटनाओं के प्रति भी हमें उतना ही सचेत होना चाहिए जितना हम खाने के प्रति सचेत हैं; कि हम क्या खा रहे हैं? हम पत्थर नहीं खा लेते हैं! हम मिट्टी नहीं खा लेते हैं! हम खाने के बाबत सोच रहे हैं। हम कहीं भी नहीं सो जाते, हम सोने के बाबत भी सोच रहे हैं। इतना ही, इससे भी ज्यादा सोच-विचार हमारे आंतरिक जीवन और चित्त के बाबत भी। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं भी लेबोरेटरी बननी चाहिए।

साइकोएनालिसिस...?

अकेली साइकोएनालिसिस नहीं, साइकोएनालिसिस सहयोगी है। बल्कि कहना चाहिए, साइकोअवेयरनेस। असल में साइकोएनालिसिस बहुत उपयोगी है, लेकिन एनालिसिस, विश्लेषण!

यानी साइकोलाॅजिकल एजुकेशन...?

एजुकेशन भर नहीं। यह तो ठीक ही है कि मनुष्य के मन के संबंध में शिक्षा हमें देनी चाहिए, और मन के संबंध में जो भी जाना गया है वह बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट किया जाना चाहिए। बहुत हिम्मत करनी पड़े उसमें भी क्योंकि पुरानी सारी धारणाएं उसमें बाधा डालती हैं। पुरानी हजार धारणाएं बाधा डालती हैं।
मन के संबंध में जो हम जानते हैं वह हम बच्चों को नहीं सिखा पा रहे हैं। क्योंकि जो हम जानते हैं वह हमारी नीति के विपरीत पड़ता है। तो हम उसको छिपा रखे हैं। तो मन की तो पूरी शिक्षा होनी चाहिए और बच्चा स्कूल से शिक्षित होकर निकले, उसके पहले उसे साइकोएनालिसिस से भी गुजर जाना चाहिए। उसका मनोविश्लेषण भी हो जाना चाहिए। यानी प्रत्येक बच्चे को शिक्षित होने की डिग्री ही तब मिलनी चाहिए जब उसका मनोविश्लेषण भी हो गया।
लेकिन इतना ही नहीं, मैं कह रहा हूं कि साइकोएनालिसिस भी पैसिव मामला है। दूसरा आपकी करवा देगा। एक साइकोएनालिस्ट आपकी एनालिसिस कर देगा साल भर में और आपमें कुछ बातें हल होंगी इससे। कुछ बातें साफ होंगी। आप ज्यादा हलके, ज्यादा शांत आदमी बन सकेंगे। लेकिन फिर भी आप साधक नहीं बन गए! इसलिए मैं कह रहा हूं, साइकोअवेयरनेस! यानी यह एनालिसिस तो दूसरे से होगी, इसमें आप पैसिव होंगे।
साइकोअवेयरनेस का मतलब कि आप एक्टिव होंगे, पैसिव नहीं। आप कुछ करेंगे अपने मन के बाबत--डिस्कवरिंग दि सेल्फ! और इसकी सारी की सारी व्यवस्था होनी चाहिए शिक्षा में कि प्रत्येक व्यक्ति धीरे-धीरे स्वयं की खोज में आतुर और उत्सुक हो जाए और वह स्वयं को खोजने लगे। और स्कूल, होस्टल, शिक्षक, विद्यार्थी, सारी की सारी व्यवस्थाएं ऐसी होनी चाहिए जो सेल्फ डिस्कवरी में सहयोगी बनती हों, बाधक न बनती हों। इतनी स्वतंत्रता, इतनी सच्चाई, यह सब इसमें होनी चाहिए कि एक-एक व्यक्ति अपने को डिस्कवर कर सके। क्योंकि सेल्फ डिस्कवरी कठिन बात है। और अगर चारों तरफ से विरोध हो उसका तो बहुत कठिन बात है।
जब एक बच्चे को पहली दफा सेक्स का खयाल उठना शुरू होता है तो सारा समाज इसके विरोध में है, तो वह उसको दबा जाता है। वह उसे जानना भी नहीं चाहता। लेकिन जिस स्कूल में सेल्फ डिस्कवरी के लिए, जिसे शिक्षा-व्यवस्था में गुंजाइश होगी वह बच्चा आकर स्कूल में सबके सामने कह सकेगा कि ऐसा-ऐसा हो रहा है। लेकिन इस पर न कोई हंसेगा, न इसका कोई दमन,न कोई विरोध करेगा, न कोई कहेगा कि बदमाशी की बातें हैं, बंद करो, यह बात नहीं कहनी चाहिए। कहनी नहीं चाहिए, यह अशिष्ट है--ऐसा भी कोई नहीं कहेगा। उसकी बात प्रेम से, शांति से सुनी जाएगी, सहानुभूति से। और जो शिक्षक जानते हैं उस संबंध में, उसे बताएंगे।
व्यक्ति के भीतर जो भी है, उसके प्रति हमारा कोई विरोध नहीं होगा। उसकी खोज का आमंत्रण होगा। और जो बच्चे जितना खोज में अग्रसर होंगे उनका उतना सम्मान होगा और हवा ऐसी होगी कि धीरे-धीरे प्रत्येक व्यक्ति अपनी खोज में लग जाए। विश्वविद्यालय से निकलते-निकलते उसे गणित, फिजिक्स, भूगोल और इतिहास ही नहीं जानना चाहिए, इनसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण उसका यह है कि स्वयं को जानता हुआ निकले। कम से कम उतने सूत्र जान कर निकले जिनके आधार पर वह जीवन में धीरे-धीरे अपने को खोज लेगा और एक दिन उस जगह पहुंच जाएगा जहां वह कह सके कि मैं अपने को जानता हूं। और जो व्यक्ति यहां तक न पहुंचाया जा सके, तो शिक्षा बेमानी है।
शिक्षा फिर सिर्फ आजीविका सिखा रही है। वह सिखा रही है कि तुम खाना कैसे कमा लोगे, मकान कैसे बना लोगे। इससे ज्यादा मूल्य की नहीं है। वह आत्म-ज्ञान नहीं सिखा रही है। और आत्म-ज्ञान सिखाने की पुरानी बातें भी थीं। उनका कहना कुल इतना है कि स्कूल में उपनिषद पढ़ाओ, गीता पढ़ाओ, कुरान पढ़ाओ, फलां संत के वचन पढ़ा दो, और लोगों को रटवा दो तो आत्म-ज्ञान हो जाएगा। ये सब बेवकूफी की बातें हैं। न उपनिषद पढ़ने से, न गीता पढ़ने से, न किसी संत के वचन पढ़ने से आत्म-ज्ञान होगा। आत्म-ज्ञान एक लंबी डिस्कवरी है, जो कि किन्हीं के वचन पढ़ने से नहीं हो जाएगा। पढ़ाओ, उपनिषद भी पढ़ाओ, गीता भी पढ़ाओ, लेकिन सिर्फ इसके लिए कि बच्चे जानें कि कुछ लोगों ने ऐसी बातें कहीं हैं, कुछ लोग इस खोज पर गए हैं। लेकिन इनके पढ़ लेने से उनकी खोज नहीं हो जाएगी। उनकी खोज तो एक मनोविश्लेषण, मनोजागरण और मनोसाधना--उसकी गति उनकी बढ़ती चली जाए तो होगी।
यह सारी व्यवस्था, स्कूल शिक्षण में न हो तो बड़े पैमाने पर नये मनुष्य के पैदा होने में सहयोग नहीं दिया जा सकता। फिर हम छोटे पैमाने पर व्यक्तिगत आधार पर जो कर सकते हैं, वही कर सकते हैं।
शिक्षण तो को बदलना ही पड़ेगा। क्योंकि पुराना आदमी जैसा है, वह पुरानी शिक्षा की वजह से है। नया आदमी जैसा होगा, वह नई शिक्षा की वजह से होगा।

शिक्षाः साध्य और साधन विषय पर प्रश्नोत्तर-शृंखला-9


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