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बुधवार, 9 मई 2018

शिक्षा में क्रांति-प्रवचन-12

शिक्षा में क्रांति-ओशो
प्रवचन-बारहवां
विद्रोह की आग
मेरे प्रिय आत्मन्!
जरथुस्त्र एक पहाड़ से नीचे उतर रहा था। वह बहुत तेजी में था, जैसे कोई बहुत जरूरी खबर पहाड़ के नीचे ले जानी हो। भागता हुआ और हांफता हुआ वह बाजार में पहुंचा, मैदान में नीचे। बाजार की भीड़ में चिल्ला कर उसने पूछा कि तुम्हें कुछ पता चला? हैव यू गाट दि न्यूज, तुम्हें खबर मिली? लोग पूछने लगे, कौन-सी खबर? तो जरथुस्त्र हैरान हो गया--इतनी बड़ी घटना घट गई है और तुम्हें पता नहीं! तुम्हें खबर नहीं मिली कि ईश्वर मर गया है! लोग बहुत हैरान हुए। फिर जरथुस्त्र को लगा कि शायद वह जल्दी आ गया है, लोगों तक अभी खबर नहीं पहुंची है। मैं यह घटना पढ़ रहा था और मुझे लगा कि लोगों तक कोई भी महत्वपूर्ण खबर कभी भी नहीं पहुंचती है। और जो भी खबर लाते हैं, उन सभी को ऐसा लगता है कि शायद वे समय से पहले आ गए हैं, जल्दी आ गए हैं।
मैं भी आपसे पूछना चाहता हूं, क्या आपको पता है? खबर मिली कि भारत मर गया है? शायद आप भी चैंकेंगे और कहेंगे यह कैसी खबर? आपको भी पता नहीं चला होगा कि भारत मर गया है। लेकिन, शायद हजारों साल हो गए मरे हुए इसलिए पता नहीं चलता है। शायद यह बात इतनी पुरानी हो गई है, इतनी लंबी घटना घट गई है, इस बात को हुए कि अब कोई याद नहीं आती। लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि भारत बहुत पहले मर गया है।
इकबाल ने गीत गाया है कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। मैं उस गीत को पढ़ रहा था तो मुझे लगा कि हस्ती भी हो, तो मिट सकती है। और हस्ती मिट ही गई हो और मिटने को कुछ न बचा हो तो अब क्या मिट सकता है? आखिर आदमी जिंदा हो तो मर सकता है और मर ही गया हो, तो फिर मरने का कोई उपाय नहीं है। आदमी के पास बुद्धि हो तो विक्षिप्त हो सकता है। पागल होने के लिए भी बुद्धि होनी जरूरी है। बुद्धि न हो तो आदमी पागल भी नहीं हो सकता है। आदमी स्वस्थ हो तो बीमार पड़ सकता है, लेकिन स्वास्थ्य ही पास न हो, तो बीमारी कैसी!
कहीं ऐसा तो नहीं है कि भारत की हस्ती नहीं मिटती, इसका असली कारण यही हो कि भारत की हस्ती बहुत पहले मिट चुकी है, अब मिटने को भी हमारे पास कुछ नहीं बचा है! इस खबर से ही अपनी बात शुरू करना चाहता हूं।
यह देश हजारों साल से एक मरा हुआ देश है और इस देश को पुनरुज्जीवन, नया जीवन, नई आत्मा खोजनी है। निश्चित ही शिक्षक इस खोज में सहयोगी बन सकता था, लेकिन आज तक बना नहीं है, वह भी जान लेना जरूरी है। बन सकता है, बना नहीं है। अब तक तो शिक्षक मशालची सिद्ध नहीं हुआ है नई जिंदगी का। अब तक तो वह पुराने मुर्दा समाज का ही एजेंट रहा है। वह जो मर गया समाज है, वह जो मर गई परंपराएं हैं, वह जो सड़ गई दुनिया है अतीत की, शिक्षक उसको ही, उस दुनिया को ही नई पीढ़ी के मस्तिष्क में डालने का अब तक साधन, मीडियम और माध्यम रहा है।
शिक्षक नये जगत, नये जीवन, नई मनुष्यता के जन्म का माध्यम बन सकता है, लेकिन बना नहीं है। अब तक नहीं बना है। शिक्षक की इस सचाई को पहले समझ लेना जरूरी है।
शिक्षक का आज तक का काम क्या रहा है? समाज ने शिक्षक से आज तक कौन सा काम लिया है?
कहता समाज यही है कि शिक्षक से हम बच्चों को शिक्षा और ज्ञान देने का काम लेते हैं। लेकिन बहुत गहरे में समाज पुरानी सारी बीमारियों, सारे अज्ञान, सारे अंधविश्वास को भी शिक्षक के माध्यम से नई पीढ़ी के भीतर डाल देने का काम लेता है। समाज बरदाश्त नहीं करता कि शिक्षक क्रांतिकारी हो। समाज चाहता है कि शिक्षक कभी भी क्रांतिकारी न हो। क्योंकि जिस दिन शिक्षक क्रांतिकारी होगा, उसी दिन समाज रूपांतरित हो जाएगा, नया समाज पैदा हो जाएगा। शिक्षक का क्रांतिकारी होना, पूरे समाज के बदल जाने का बुनियादी कारण बन सकता है। इसलिए शिक्षक को हमेशा प्रतिक्रियावादी, प्रतिगामी और रिएक्शनरी बनाए रखने की चेष्टा की गई है। उसे बहुत सम्मान दिया जाता है, यह सच है, लेकिन सम्मान भी शिक्षक को समाज तभी तक देता है, जब तक उसमें क्रांति की कोई किरण नहीं दिखाई पड़ती। क्रांति की किरण दिखाई पड़ेगी कि समाज शिक्षक की गर्दन दबाना शुरू कर देगा।
यह जान कर आपको हैरानी होगी कि दुनिया में शिक्षक के जगत से न कभी कोई क्रांतिकारी विचार पैदा हुआ है, न कोई नया दृष्टिकोण, न कोई नई दृष्टि पैदा हुई है। शिक्षक के पूरे समूह को--जो कि एक बड़ा समूह है और सबसे ज्यादा सबल, सबसे ज्यादा शक्तिशाली समूह है, क्योंकि उसके हाथ में नई पीढ़ी का सारा मस्तिष्क और पूरी आत्मा है--शिक्षक के इस पूरे समूह को सदा क्रांतिकारी होने से बचाने की चेष्टा समाज ने की है, कि क्रांतिकारी न हो जाए। यह क्रांतिकारी होगा तो पुराने समाज और नये समाज के बीच एक दरार पड़ जाएगी, क्योंकि शिक्षक ही हस्तांतरण करता है पुराने समाज को नये समाज तक। शिक्षक बीच की कड़ी है जिससे अतीत भविष्य में प्रवेश करता है। शिक्षक के हाथ में बहुत कुछ है, कि वह क्या करे; लेकिन शायद उसे क्रांति का अग्रवाहक होने का खयाल भी नहीं है।
अब तक तो शिक्षक ने नई पीढ़ी के मस्तिष्क को पुरानी पीढ़ी के साथ समायोजित करने की चेष्टा में ही सारा श्रम लगाया है और पुरानी पीढ़ी की जो मान्यताएं हैं, दृष्टि है, विश्वास है, वह नई पीढ़ी के मन में प्रविष्ट कर देने की कोशिश की है। पुरानी पीढ़ी के विचार नई पीढ़ी के खून में पहुंच जाएं, इसकी चेष्टा की है। पुरानी पीढ़ी शिक्षक को इसीलिए सम्मान देती है। यह आदर और सम्मान इसीलिए है कि शिक्षक ही आधारभूत बनता है, कारण बनता है पुराने अतीत को बचाने में। जिस दिन शिक्षक विद्रोही होगा, उस दिन दुनिया में हर रोज नया समाज पैदा हो सकता है। हर पीढ़ी नई जिंदगी की तरफ आंखें उठा सकती है।
लेकिन शिक्षक विद्रोही नहीं है। और मेरी दृष्टि में जो शिक्षक विद्रोही नहीं है, वह शिक्षक ही नहीं है, उसने शिक्षक होने का अधिकार ही खो दिया है। क्योंकि कोई शिक्षक, शिक्षक कैसे हो सकता है, जो विद्रोही न हो! विद्रोही हुए बिना ज्ञान की दिशा में आंखें ही नहीं खुलती हैं। विद्रोही हुए बिना मनुष्य की आत्मा अपनी खोल को तोड़ कर कभी बाहर ही नहीं आती है। विद्रोही हुए बिना कोई जीवन के साथ कभी पैर मिला कर चलने में समर्थ ही नहीं होता है।
और जो ज्ञान, जो शिक्षा व्यक्ति की स्वतंत्र आत्मा को जन्म न दे सकती हो उसे शिक्षा कहें, उसे ज्ञान कहें? वह बोझ होगी, जानकारी होगी, इनफर्मेशन होगी, लर्निंग होगी, लेकिन शिक्षा नहीं है। शिक्षा तो आविष्कार बनना चाहिए आत्मा का, लेकिन वह नहीं होता। अब तक शिक्षक ने विद्रोही का रुख अख्तियार नहीं किया है। इसलिए पुराना सड़ा-गला समाज चला जाता है, जिंदा बना रहता है, जिंदा बना रहता है। जो मर चुका है, वह भी किसी न किसी रूप में जिंदा बना रहता है।
भारत में तो यह घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण हो गई है। भारत ने तो अपने वस्त्र ही नहीं बदले, आत्मा को नया करने की तो बात ही दूर है। भारत का तो सारा इतिहास क्रांति-शून्यता का इतिहास है। कोई क्रांति नहीं, कोई परिवर्तन नहीं। और जब कोई समाज क्रांति से नहीं गुजरता, तो उस समाज की जिंदगी एक बहती धारा नहीं रह जाती है, एक बंद डबरा हो जाती है, जो सड़ता है, गंदा होता है। कीचड़ मचती है, दुर्गंध फैलती है, लेकिन बहाव, प्रवाह कोई भी नहीं है। एक जिंदगी तो होती है नदी की तरह, दौड़ती हुई सागर की तरफ, अज्ञात सागर की तरफ--पहाड़ों को चीरती हुई, घाटियों को पार करती हुई, अनजान मैदानों को लांघती हुई। एक तो नदी की जिंदगी होती है सागर की तरफ और एक तालाब की जिंदगी भी होती है अपने में बंद, कहीं न जाती हुई।
भारत के समाज की जिंदगी एक तालाब की जिंदगी हो गई है। एक नदी की जिंदगी नहीं है। हां, तालाब की जिंदगी एक अर्थों में सुरक्षित होती है, सिक्योर होती है--न कहीं जाना है, न कोई तकलीफ है; न रास्ते की अड़चने हैं, न अनजान रास्तों की भटकने हैं; न पहाड़ों को पार करना है, न अज्ञात सागर, जो मिलेगा या नहीं मिलेगा, उसके सपने देखने हैं--अपनी जगह बंद, अपनी जगह निशिं्चत। तालाब का अपना सुख है। भारत तालाब का सुख भोग रहा है, सरिता का संघर्ष नहीं है। और इस सुख भोगने के हम इतने आदी हो गए हैं कि हमने अब किसी भी तरह के खतरे को उठाना हजारों साल से बंद कर दिया है।
लेकिन ध्यान रहे, जो समाज खतरों को उठाना बंद कर देता है, वह समाज धीरे-धीरे अपनी ज्योतिशिखा को क्षीण कर लेता है। खतरों के मुकाबले में ही ज्योति जगती है भीतर की। नीत्शे अपनी टेबल पर एक तख्ती रखे हुए था। उस तख्ती पर दो शब्द लिखे हुए थे। और जब भी कोई उससे पूछता कि तुम्हारी जिंदगी का सारभूत, तुम्हारी जिंदगी का सार आ जाए, ऐसी कोई बात क्या है? तो वह तख्ती को बता देता। उस तख्ती पर लिखा हुआ था--लिव डेंजरसली, खतरे में जीओ।
सच बात तो यह है कि खतरे में जीने पर ही जीवन का पता चलता है। सुरक्षा में जीने पर जीवन का पता ही नहीं चलता। और इसलिए कब्र में जो रहते हैं, वे बहुत सुरक्षित जीते हैं। वहां कोई खतरा नहीं है। तालाब की जिंदगी खतरे से बचने की जिंदगी है। लेकिन तालाब सड़ता है, पुराना पड़ता है, नष्ट होता है, गंदा होता है। भारत में भी सैकड़ों वर्षों से सुरक्षा की एक जिंदगी चुन ली है। अपनी खोल बना लिए हैं, उसके भीतर हम बैठ गए हैं। न हमें दुनिया के विस्तार में प्रवेश करना है, न हमें चांद-तारों की यात्राएं करनी हैं, न हमें कहीं जाना है। हम अपने घर से बंधे हुए हैं। हम आदमी कम, वृक्षों की तरह ज्यादा हैं, जिनकी जड़ें जमीन से बंधी हैं। और जो वहीं अटके रह गए हैं, वहां से हिलते-डुलते भी नहीं हैं। और हर बेटा अपने बाप की जगह पकड़ लेता है। पीढ़ी दर पीढ़ी यह जगह पकड़ते चले जाते हैं। पुनरुक्ति होती चली जाती है। आदमी बदलते चले जाते हैं, लेकिन समाज वैसा का वैसा है, जैसा था।
अगर हजार साल पहले का कोई आदमी आज भी भारत के गांव में आ जाए तो उसे कोई अड़चन नहीं होगी। कोई तबदीली उसे मालूम नहीं होगी--वही सब, वैसा सब, जैसा था। और हम इससे बहुत सुखी भी होते हैं। हम कहते हैं, हमारे नेतागण कहते हैं कि रोम मर गया, यूनान मर गया, इजिप्त मर गया। सीरिया कहां है अब, बेबीलोन कहां है? लेकिन हम? हम हैं। यह हमारी थिरता को हम बहुत सम्मान देते हैं। यह थिरता सम्मान की बात नहीं है, यह थिरता बहुत अपमानजनक है। यह थिरता यह कहती है कि हमारे भीतर परिवर्तन की क्षमता खो गई है। वह परिवर्तन की जो पात्रता है हमारे भीतर, वह खो गई है। हम थिर हो गए हैं। एक पत्थर पड़ा हो गुलाब के फूल के पास। सुबह गुलाब का फूल खिलता है, नाचता है सूरज की रोशनी में, आकाश में उठने की कोशिश करता है, सांझ होते-होते कुम्हला जाता है और गिर जाता है। पास सुबह जो पत्थर पड़ा था, वह जैसा सुबह पड़ा था, वैसा ही सांझ भी पड़ा रहा। वह पत्थर अपने मन में जरूर सोचता होगा--मिट गया फूल, हम जैसे हैं, वैसे ही हैं। कई फूल आए और गए लेकिन हम? हम जैसे हैं वैसे हैं। बड़ा प्रसन्न होता होगा वह पत्थर। लेकिन पत्थर को पता नहीं कि फूल होने का आनंद क्या है! पत्थर को यह भी पता नहीं कि परिवर्तन की पुलक क्या है! पत्थर को यह भी पता नहीं कि जिंदा होना, खिलना, कुम्हलाना और गिर जाना, इसका भी अर्थ है, और राज है, और इसका भी रहस्य है। और पत्थर को यह भी पता नहीं कि मुर्झाते केवल वे ही हैं जो खिलते हैं। और गिरते केवल वे ही हैं जो उठते हैं। और पत्थर को यह भी पता नहीं है कि मरते केवल वे ही हैं जो जीते हैं। अगर मरने से बचना है तो जीने से बच जाओ। अगर गिरने से बचना है तो उठने से बच जाओ। अगर मुर्झाने से बचना है तो खिलना ही मत। लेकिन पत्थर को क्या पता है?
मैंने सुना है, एक बगीचे में एक दिन सुबह बड़ी अजीब घटना घट गई। पत्थरों की दीवाल में दबे हुए घास के कुछ छोटे-छोटे फूल थे। वे दीवाल के पत्थरों की आड़ में ही दब कर जीते थे। न उन्हें तूफानों का पता चलता था, क्योंकि दीवाल सदा ओट बन जाती थी। न उन्हें सूरज की रोशनी का पता चलता था कि कब सूरज उगा, कब डूबा। वे तो अपनी पत्थर की ओट में, अपनी गुफा में छिपे रहते थे। वर्षा आती थी, तो उन्हें पता नहीं चलता था। रात चांद-तारे खिलते थे, तो उन्हें पता नहीं चलता था। लेकिन वे बड़े सुरक्षित थे, कोई खतरा न था।
उन घास के फूलों में से एक फूल का दिमाग खराब हो गया और उसने एक दिन झांक कर बाहर देखा कि एक गुलाब का फूल दीवाल के ऊपर आकाश की तरफ उठा हुआ है। उसके मन में भी एक कामना और एक सपना समाया कि मैं भी नहीं बन सकता हूं गुलाब, मैं भी नहीं उठ सकता हूं ऐसा ही? उसने रात भगवान से बहुत प्रार्थना की कि मुझे गुलाब बना दो। भगवान ने उसे बहुत समझाया कि पागल, तू बहुत सुरक्षित है। गुलाब सुबह खिलता है, सांझ गिर जाता है। तेरा फूल खिलता है तो महीनों खिला रहता है। लेकिन उस घास के फूल ने कहाः वह मैं समझा। मेरा फूल महीनों इसीलिए खिला रहता है कि सच में मेरा फूल खिलता ही नहीं। घास का फूल पहले से ही सूखा होता है, इसलिए कुम्हलाता भी नहीं। नहीं, मुझे तो खिलना है गुलाब की तरह। मखमली गुलाब की कलियों की तरह मेरी भी कलियां हों। नहीं, मुझे इस पत्थर की ओट में नहीं जीना है। मैं तो खुले आकाश में उठना चाहता हूं। एक क्षण को सही, लेकिन उठूं तो, सिर तो उठाऊं।
नहीं माना घास का फूल। पड़ोस के दूसरे फूलों ने भी समझाया कि पागल हो गए हो, हमारे कुल-परंपरा में ऐसा कभी नहीं हुआ है। यह तो सदा की रीति चली आई है कि हम यहीं रहते हैं, इसी पत्थर के नीचे दबे रहते हैं। हमारे बापदादों ने कभी ऐसा नहीं सोचा। उनके बापदादों ने भी नहीं सोचा। यह कभी बात ही नहीं सोची गई, हमारे पुराणों में कहीं नहीं लिखी है। यह तो क्या पागलपन की बात है? दिखता है तेरा सिर फिर गया है। दूसरों के सत्संग में दिखता है बिगड़ गया है। अपने भीतर रहो, अपनी सीमा में रहो। अपनी जितनी चादर है उतने पैर फैलाओ। यह बाहर पैर फैलाना खतरनाक है। मर जाओगे, देखते नहीं, गुलाब के फूल को कितनी तकलीफें होती हैं? अभी परसों तूफान आया था, तब गुलाब के फूल जमीन पर पड़े थे, देखा? उस दिन जब वर्षा हो रही थी, तब गुलाब के पत्ते-पत्ते रो रहे थे। और जब तेज हवाएं चलती हैं, तो गुलाब की जड़ें तक कंप जाती हैं। हम सब सुरक्षित और आनंदित हैं। और पता नहीं, सुबह खिलता है गुलाब और सांझ पंखुड़ियां गिरने लगती हैं, जब कि हम महीनों खिले रहते हैं।
लेकिन वह घास का फूल नहीं माना। उसने कहा कि नहीं, मुझे तो एक दिन गुलाब होकर देखना है। नहीं माना। और मत मानिए तो भगवान भी क्या कर सकता है? मान जाइए तो ही कुछ कर सकता है। मत मानिए तो भगवान भी क्या कर सकता है?
नहीं माना, तो गुलाब का फूल हो गया। सुबह वह जो घास का फूल था, गुलाब का पौधा हो गया। लेकिन, सूरज निकला, आकाश में बादल घिरे, जोर की हवाएं चलने लगीं; वे जो घास के फूल नीचे थे, वे झांक-झांक कर चिल्लाने लगे कि देखा पागल, अब मरोगे। क्षण भर के सुख के लिए शाश्वत सुख खो दिया। क्षण भर के लिए, गुलाब होने के लिए, वह सुरक्षा खो दी, जो सदा के लिए अपनी थी। बादल गरजने लगे, पानी गिरने लगा, तूफानी हवाएं बहने लगीं। उस गुलाब की पतली शाखाएं आकाश में डोलने लगीं। उसकी पंखुड़ियां गिरने लगीं, उसके पत्ते गिरने लगे, फिर वह पूरा पौधा गिर पड़ा। उसकी जड़ें उखड़ गईं। जब वह दम तोड़ रहा था, तो उसके पास उन घास के फूलों ने झुक कर कहाः मित्र, अब बुद्धि आई कि नहीं? क्षण भर को आकाश में उठ जाने का कितना फल भोगना पड़ा। लेकिन उस मरते गुलाब ने कहाः दोस्तो, उस क्षण में जो जान लिया, वह हजारों वर्ष भी पत्थर की ओट में छिपे हुए नहीं जाना। आकाश में उठना एक क्षण को, तूफानों से जूझ जाना! एक क्षण को सही, आकाश के खुले सूरज के सामने खड़ा होना! कमजोर शाखाएं सही, लेकिन तूफानों से जूझ जाना! थोड़ी ही देर को खिलना, लेकिन खिलना! जो मजा जाना, जो जिंदगी जानी, जो रस जाना! परमात्मा को धन्यवाद। और तुम पर लानत है कि तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा। तुम अपनी सुरक्षा की ओट में ही जीयोगे और मर जाओगे। तुम्हारा जीना, जीना भी नहीं है, क्योंकि तुम्हें पता ही नहीं कि तूफान में जीने का क्या अर्थ होता है?
पता नहीं, यह बात कभी हुई या नहीं, लेकिन भारत की जिंदगी में यह बात हुई है, ऐसा मालूम पड़ता है। हम सुरक्षा की ओट में बैठ कर रह गए हैं। धीरे-धीरे सुरक्षा का इतना मोह हो गया है कि खतरे में, किसी भी खतरे में उतरने का साहस ही समाप्त हो गया है। और तब जो पुराना है, वह सुरक्षित है, क्योंकि पुराना परिचित है। अपरिचित--असुरक्षित है, अनजान! भय देता है। बिना पहचान के रास्ते पर जाने में डर लगता है। इसलिए एक रास्ता हमने बना लिया है, कोल्हू के बैल की तरह, हम उसी पर घूमते रहते हैं। बस उसी पर घूम रहे हैं हजारों साल से। और हमारा शिक्षक भी नई पीढ़ी को उसी में दीक्षित कर देता है। उसी कोल्हू के रास्ते पर जहां बाप-दादे और पुरखे घूमते रहे थे, वहीं हम बच्चों को भी दीक्षित कर देते हैं।
नहीं, इस तरह नये भारत का जन्म नहीं हो सकता है। शिक्षक को एक कदम उठाना पड़ेगा। सारे भारत के शिक्षकों को हिम्मत से कदम उठाना पड़ेगा कि हम उस लीक को तोड़ेंगे, जिस पर भारत की चेतना हजारों साल से चक्कर काट रही है। जरूर अनजान का खतरा होगा। लेकिन अनजान के खतरे में डर क्या है?
परिचित सुरक्षा से अपरिचित खतरा बेहतर है, क्योंकि जीने का रस, जीने की ऊर्जा, जीने की चुनौती, वहां मिलती है।
भारत का शिक्षक अगर यह तय करे कि हम लीक पर बंधे रास्तों से मुक्त करेंगे नई पीढ़ी को, तो भारत की आत्मा का जन्म हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता है। और हम खतरे में दीक्षित करेंगे, सुरक्षा में नहीं। हम आने वाली पीढ़ी के बच्चों को कहेंगे कि तुम जाओ खतरे में। लांघो समुद्रों को, चढ़ो पहाड़ों पर, यात्रा करो आकाश की। लेकिन नहीं, छोटे से अंधेरे में भी जाने में हम बच्चों को रोकते हैं कि अंधेरे में मत चले जाना। रात ज्यादा हो गई है। आई हुई नदी में मत तैर जाना, जिंदगी का खतरा है। समुद्र में मत उतरना, एवरेस्ट पर चढ़ने की जरूरत क्या है? जिनका दिमाग खराब है वे चढ़ते हैं आकर। क्या फायदा है एवरेस्ट पर चढ़ने से? हिंदुस्तान की अपनी चोटी है एवरेस्ट। पश्चिम के लोग आकर सौ वर्षों से चढ़ने की कोशिश करते हैं! हजारों, सैकड़ों यात्री मर गए और हम हंसते थे अपनी गुहा में बैठे हुए कि पागल हो? चढ़ते किसलिए हो? क्या रखा है वहां, सिवाय बर्फ के?
लेकिन हमें पता नहीं कि जिस कौम के बच्चे पहाड़ों पर चढ़ना छोड़ देते हैं, उस कौम की आत्मा चढ़ना ही छोड़ देती है।
वहां हजारों बच्चे एल्पस पर चढ़ते हैं रोज। हर वर्ष सैकड़ों बच्चे मर जाते हैं छुट्टियों में एल्पस पर चढ़ते वक्त। सब जानते हैं कि इस वर्ष भी सैकड़ों बच्चे मरेंगे एल्पस पर चढ़ने में, लेकिन कोई मां-बाप, कोई शिक्षक रोकता नहीं कि पिछले वर्ष इतने बच्चे मर गए थे, तुम मत जाओ, तुम भी मर सकते हो। जहां जवानी है, वहां पर पहाड़ पर चढ़ना भी होगा।
इंग्लिश-चैनल को सैकड़ों लड़के और लड़कियां पार करते हैं। और हम? हम एक छोटे से भी नाले को पार करने की हिम्मत खो दिए हैं। हम सब पता-ठिकाना लगा लेंगे कि नाला कितना गहरा है। पहले नाप-जोख हो जानी चाहिए। और पहले पूर्वज गए हैं इस नाले में से कि नहीं! अगर पूर्वज नहीं गए हों तो हम पीछे चलने वाले हैं, हम कभी अपनी तरफ से सीधे नहीं जा सकते। हम कोई पहल, कोई इनिशिएटिव नहीं ले सकते। कौन खतरे में पड़े? अपनी आराम से जिंदगी गुजर रही है, कौन खतरे में डाले?
यह हमारा जो भयभीत व्यक्तित्व है, यह पुराने को, लाश को पकड़ लेता है और छोड़ता नहीं है। और पुराने की लाश को हम इतने जोर से छाती से चिपकाए हुए हैं कि नये को जन्म कहां से मिले? पुराना जगह खाली करे तो नये का जन्म हो।
शिक्षक को एक काम करना है, वह बहुत महत्वपूर्ण है, और वह यह कि वह पुराने के मोह से भारत को मुक्त करवा दे। और शिक्षक को जानना चाहिए कि वह अपराधी है, अगर वह पुराने के मोह को बच्चों में फिर पैदा करने की कोशिश कर रहा है। नये का निमंत्रण, नये का मोह, नये का स्वागत; अपरिचित का आकर्षण, अनजान का बुलावा, वह दूर और अज्ञात जो है, उसकी पुकार को सुनने के लिए बच्चों को तैयार करना है।
रूस और अमरीका के बच्चे चांद-तारों पर बस्तियां बनाने का विचार करते हैं। और भारत के बच्चे? भारत के बच्चे रामलीला देखने के सिवाय और कुछ भी नहीं करते। राम बहुत प्यारे हैं, और रामलीला भी बहुत प्यारी है। लेकिन कब तक देखिएगा? राम भी घबड़ा गए होंगे अब तक। ये दुष्ट क्यों मेरे पीछे पड़े हैं हर साल? वही-वही, वही-वही--क्यों यह जारी किया हुआ है! और भी राम पैदा होंगे भविष्य में, उनकी चिंता नहीं करनी है? और भी रामलीलाएं खेली जाएंगी। इसी पृथ्वी पर ही नहीं, चांद-तारों पर भी, मंगल पर भी। और भी लीलाएं होंगी। भविष्य में और भी राम पैदा होंगे।
लेकिन नहीं, हमारा तो अतीत में सब कुछ हो चुका है, अब भविष्य में कुछ भी नहीं होना है। भारत का सब कुछ अतीत में हो चुका। हमारा सब काम पूरा हो गया है। इतिहास का हमारा देवता द्वार बंद करके चला गया है। अब आगे कोई इतिहास नहीं है। अब तो एक ही काम है कि हम पुराने इतिहास की जुगाली करते रहें! जैसेभैंसें बैठ कर चबाए हुए घास को भी चबाती रहती हैं, वैसे ही हम जुगाली करते रहें! जो हो चुका उसको जुगाली करते रहो। कुछ और नहीं होना है, कुछ निर्माण नहीं करना है, कुछ भविष्य को जन्म नहीं देना है? कोई सपने नहीं हैं हमारे प्राणों में कि हम कल को, आने वाले कल को निर्मित करेंगे। और वहां निर्मित करेंगे, जहां किसी पुरखे ने कभी कोई पैर नहीं रखा। क्योंकि जहां पुरखों ने पैर रखे हैं, अगर वहीं हमको भी पैर रखना है, तो हमारे होने का प्रयोजन क्या है?
नहीं, हम उन रास्तों पर पैर रखेंगे, जहां कोई पुरखा कभी नहीं गया। हम उन सब दृश्यों को देखेंगे, जिनको अतीत में किसी पुरखे ने नहीं देखा। हम सब वे यात्राएं करेंगे, जो कभी नहीं की गईं। हम उन कुवांरे रास्तों पर चलेंगे, जिन पर कभी कोई नहीं चला।
लेकिन नहीं, वह तो हमारी आकांक्षा ही टूट गई है। हम तो पिटी हुई लीक को खोज लेते हैं और उस पर ही चलते चले जाते हैं। इससे भारत में नये का जन्म नहीं हो पाता। और नये का जन्म न हो तो जीवन उदास हो जाता है। जीवन उदास हो गया है। एक-एक आदमी उदास है। एक-एक आदमी हारा हुआ और थका हुआ है। एक-एक आदमी एक ही प्रार्थना करता है भगवान से, कि आवागमन से छुटकारा करवा दो। किसी तरह इस सब जिंदगी से छुटकारा हो जाए। मोक्ष कहां है, मुक्ति कहां है? जीवित आदमी पूछते हैं, मुक्ति कहां है, मोक्ष कहां है, कब छुटकारा होगा इस जीवन से! इतना बदतर बना लिया है जीवन को कि सिवाय छूटने के और कोई प्रार्थना नहीं सूझती!
एकदम सब उदास हो गया है, पूरा देश। उदास हो ही जाएगा। पुराने--निरंतर पुराने के बीच रहने से चित्त उदास हो जाता है। जैसे घर कैलेंडर टंगा हो, तो रोज हम तारीख पुरानी फाड़ कर बाहर कर देते हैं। ऐसे ही रोज पुराने को अलग कर देना चाहिए, ताकि वह जो नई तारीख पीछे छिपी है, वह प्रकट हो जाए। लेकिन भारत के चित्त में नई तारीख प्रकट ही नहीं होती। कैलेंडर कह रहा हूं करोड़ों साल पुराना है। उसमें इतनी तारीखें पुरानी हैं कि नई तारीख का पता ही नहीं चलता है, कि वह कहां है! खोजो तो भी पता नहीं चलता! हमने कभी फाड़ कर फेंका नहीं उस कैलेंडर से कि पुरानी तारीखों को अलग करते चले जाएं, ताकि रोज-रोज नये का उदघाटन, नये का आविष्कार हो सके।
और जब नये का आविष्कार होता है तो प्राण प्रफुल्लित होते हैं नये के स्वागत के लिए, आनंद से नाचते हैं। जीवन में एक नृत्य, एक खुशी छा जाती है। क्योंकि जो अपरिचित है, उसे जानने का एक रस है। जो परिचित है, उसे जान लिया गया है। अब उसे जानने में कोई रस नहीं रह गया है। बेरस हो गया है भारत, और इसलिए मर गया है।
रस है जीवन का लक्षण।
अगर हम चाहते हैं कि भारत पुनरुज्जीवित हो, तो शिक्षक को एक महत्वपूर्ण--शायद इससे महत्वपूर्ण और कोई काम नहीं है, और दूसरा कोई कर भी नहीं सकेगा सिवाय शिक्षक के। समाज का कोई दूसरा वर्ग यह क्रांति नहीं ला सकता है। यह तो शिक्षक को ही खयाल में आ जाए कि नये बच्चों को पुराना मत होने दो। इसके पहले कि वे पुराने हो जाएं, नये बीज बो दो। इसके पहले कि उनकी खोपड़ियों पर भी पुराने का बोझ आ जाए, उन्हें नये का संगीत सुना दो। इसके पहले कि उनके कान पुराने रागों से जड़ हो जाएं, उन्हें नये गीत की आवाज पहुंच जाने दो, कि वे जग जाएं और नये की खोज में संलग्न हो जाएं।
हिंदुस्तान के बच्चों को उनके मां-बाप से बचाने की जरूरत है--यह कौन करेगा? यह बड़ी अजीब सी लगेगी मेरी बात। हिंदुस्तान के बच्चों को उनके मां-बाप से बचाने की जरूरत है, अन्यथा उनके मां-बाप उन बच्चों को भी अपनी शक्ल में ही ढाल कर समाप्त होंगे। वे हमेशा यही करते रहे हैं। वे जब तक अपने बच्चों को ढाल नहीं लेते, तब तक विदा नहीं होते। उनको ढाल कर फिर विदा हो जाते हैं। जब पक्का हो जाता है कि लड़का भी आ गया उसी जगह, तब वह विदा होता है। हर पीढ़ी यही कर जाती है। अपनी शक्ल में नई पीढ़ी को ठोक-पीट कर ढाल जाती है। खांचे बने हुए हैं, चैखटे तैयार हैं। हर नये यात्री को उसमें ढाल देने की कोशिश चल रही है। कौन रोकेगा इसे? मां-बाप से बच्चों को कौन बचाएगा? और मां-बाप से बच्चे नहीं बचाए जा सके, तो नये देश का जन्म नहीं होता है।
शिक्षक बचा सकता है। लेकिन शिक्षक को बोध नहीं है, कुछ होश नहीं है। वह तो मां-बाप का एजेंट है। वह तो उनका काम कर रहा है। मां-बाप उसको तनख्वाह इसीलिए दे रहे हैं कि वह बच्चों को ढालने में सहयोगी हो। इसलिए एक विसियस सर्किल है, एक बड़ा दुष्चक्र है। इसे कैसे तोड़ा जाए? इसे कोई कहीं से हिम्मत करे और तोड़े। कठिनाई होगी। क्योंकि तोड़ने वालों को समाज आदर नहीं देता। लेकिन यह कठिनाई किसी को झेलनी पड़ेगी, अन्यथा इस देश का जन्म ही नहीं हो सकता है।
शिक्षक के अतिरिक्त और किसी की तरफ आंख नहीं जाती है--मेरी आंख नहीं जाती है। राजनीतिक नेताओं से तो कोई भी आशा करनी गलत है। उनसे तो किसी तरह की अपेक्षा करनी गलत है। उनको तो दिन अच्छे आएं, तो उनकी सबकी मानसिक-चिकित्सा का कोई इंतजाम होना चाहिए, वह तो ठीक है। लेकिन और तो कोई उनसे आशा नहीं की जा सकती। जिन-जिन राजधानियों में जितने-जितने राजनीतिज्ञ हैं, अगर एकदम से पकड़ लिए जाएं और उनका इलाज हो जाए, तो दुनिया बिलकुल दूसरी हो जाए। लेकिन होना बहुत मुश्किल है। मंगल ग्रह के यात्री आएं तो कुछ हो सकता है। इनसे तो कोई आशा नहीं है, क्योंकि वे तो हमारी बीमारियों के प्रतिनिधि हैं। वे तो हमारी बीमारियों का शोषण कर रहे हैं। वे तो हमारी कमजोरियों को सीढ़ियां बना कर पदों पर चढ़ गए हैं। तो उनसे हमारी कमजोरियां मिटाने की आशा नहीं हो सकती, जिनके लिए हमारी कमजोरियां सीढ़ियां बनती हों। हमारी कमजोरियां जिनके लिए सीढ़ियां हैं, हमारी बीमारियां जिनके लिए रास्ते हैं, हमारा अज्ञान, हमारा अंधविश्वास, हमारी मूढ़ताएं जिनके लिए रास्ते पर चढ़ने के पत्थर बन जाती हैं, उनसे आशा नहीं की जा सकती कि इन पत्थरों को वे अलग करेंगे। वे मजबूती से उन पत्थरों को ठोकेंगे।
कौन से आशा की जा सकती है?
साधु-संन्यासियों से? साधु-संन्यासियों से भी कोई आशा नहीं की जा सकती है। एक जमाना था कि साधु-संन्यासी क्रांतिकारी होते थे, लेकिन वह जमाना गया। अब साधु-संन्यासी क्रांतिकारी नहीं होता। एक जमाना था कि बुद्ध जैसा, महावीर जैसा, क्राइस्ट जैसा आदमी होता था, शंकर जैसा आदमी होता था। वह बात गई। अब साधु-संन्यासी समाज के चाकर हैं। समाज उनको दो रोटी देता है और वे समाज का गुणगान किए चले जाते हैं। इससे ज्यादा उनकी कोई स्थिति नहीं रह गई है। उनसे अब कोई आशा नहीं है।
एक वर्ग है, जो अछूता है अब तक, जिसने कभी कोई फिकर नहीं की है। वह है शिक्षकों का वर्ग। और वह बहुत बड़ा वर्ग है, उसकी बड़ी ताकत है। और उसकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि आने वाली पीढ़ी उसके हाथ में है। इसके पहले कि नई पीढ़ी बिगड़े, वह नई पीढ़ी को दिशा दे सकता है, बोध दे सकता है। उसके हाथ में इतनी बड़ी शक्ति है, जिसका कोई हिसाब नहीं। और अगर उसके दिमाग में जिंदगी को बदलने के नये सूत्र खयाल में आ जाएं, तो बीस साल में पूरे मुल्क की दशा बदली जा सकती है। क्योंकि बीस साल में पुरानी पीढ़ी हट जाती है और नई पीढ़ी उसकी जगह आ जाती है। हजारों साल के कचरे को बीस साल में अलग किया जा सकता है--सिर्फ बीस साल में। लेकिन शिक्षक यह कर सकता है, और कोई यह नहीं कर सकता।
पर शिक्षक को पहला तो यह बोध होना चाहिए कि वह अपराध कर रहा है, अगर वह पुरानी बीमारियों को संवादित कर रहा है नई पीढ़ियों में। पुरानी पीढ़ियां हिंदू-मुसलमान से पीड़ित थीं। अगर शिक्षक अपने नीचे पढ़ने वाले बच्चों को भी यह सिखा रहा है कि तुम हिंदू और मुसलमान हो, तो वह शिक्षक बहुत बड़ा अपराध कर रहा है। आने वाली पीढ़ी को सिखाया जाना चाहिए कि तुम आदमी हो, हिंदू-मुसलमान नहीं। तो एक नया देश पैदा हो जाएगा। अगर पुरानी पीढ़ी कहती थी कि ब्राह्मण है, शूद्र है। और अगर शिक्षक भी आने वाले बच्चों में यह भाव पैदा कर रहा है कि तू शूद्र है और तू ब्राह्मण है, तो शिक्षक पुरानी पीढ़ियों का एजेंट है। वह फिर बीमारियों को जारी रखेगा। बीमारियों का अंत नहीं होगा। शिक्षक को बीस साल में फिकर करके पोंछ डालना चाहिए कि कोई ब्राह्मण नहीं है, कोई शूद्र नहीं है। आदमी होना काफी है। और अगर नई पीढ़ी से यह भाव मिट जाए तो हजारों साल का रोग बीस साल में नष्ट हो सकता है। कोई इसे रोक नहीं सकता। लेकिन शिक्षक को पता ही नहीं है, उसे बोध नहीं है, कांशस नहीं है कि वह क्या कर रहा है?
और पुराने का मोह है। पुराने के मोह से तोड़ना चाहिए बच्चे को। बच्चे को होता भी नहीं पुराने का मोह। बच्चे को तो नये की बड़ी जिज्ञासा होती है। हम ठोक-ठोक कर उसको पुराने के लिए राजी कर देते हैं। उसे नये के लिए राजी किया जाना चाहिए। रोज-रोज नये की दीक्षा होनी चाहिए। साहस और हिम्मत, करेज--एक ही गुण है, अगर हिंदुस्तान की पीढ़ियों को, आने वाली पीढ़ियों को शिक्षक समझा सके। उन्हें साहसी बना सके, दुस्साहसी बना सके तो काम पूरा हो जाएगा।
लेकिन हमने अब तक जैसा ढांचा ढाला है, उसमें क्लीव हो जाता है नया बच्चा। इंपोटेंट हो जाता है सारा का सारा--क्योंकि बेचैनी है। शिक्षक को भी समझ में नहीं पड़ता है कि क्या करे, क्या न करे? विद्यार्थी को भी समझ में नहीं पड़ता। समाज में भी जो लोग सोचते-विचारते हैं, उनको भी समझ में नहीं पड़ता कि क्या करें और क्या न करें। बेचैनी है, लेकिन साफ रास्ता नहीं दिखाई पड़ता है। सोच-विचार किया जाना जरूरी है। कि हम सोचें कि हम क्या कर सकते हैं, क्या हो सकता है?
और मुझे लगता है कि एक बहुत स्वर्ण अवसर हमारे हाथ में है। क्योंकि हिंदुस्तान में बच्चों के मस्तिष्क में जितना विद्रोह आज है, उतना आज तक के इतिहास में कभी भी नहीं था। इन विद्रोही बच्चों को अगर शिक्षक मार्ग दे सके तो हम पुराने कूड़े-करकट को आग लगाने में समर्थ हो जाएंगे। और इस विद्रोह की शक्ति से नये को भी जन्माया जा सकता है।
लेकिन शिक्षक बच्चों में पैदा हुए विद्रोह की क्षमता को भी नहीं समझ पा रहा है! वह उस विद्रोह की क्षमता का भी उपयोग नहीं कर पा रहा है! बल्कि वह भी भयभीत हो गया है और बच्चों के विद्रोह को तोड़ने की सब तरफ से चेष्टा कर रहा है। उसे पता नहीं है कि वह गलती कर रहा है।
बच्चों के विद्रोह को तोड़ना नहीं है, उसे सम्यक मार्ग देना है। वह जो रिबेलियन की स्पिरिट आई है, वह जो आत्मा पैदा हुई है--पत्थर फेंक रहे हैं बच्चे, खिड़कियां तोड़ रहे हैं, कुर्सियां तोड़ रहे हैं--यह तोड़ने की बड़ी अदभुत क्षमता उनमें आई है, उससे कुछ ढंग की चीजें तुड़वाई जा सकती हैं। और अगर हमने उन पर मेहनत न की तो गलत चीजें तोड़ कर उनका क्रोध व्यर्थ हो जाएगा। कुर्सियां तोड़ने से कोई फायदा नहीं होगा। न कांच तोड़ने से कोई फायदा होगा। लेकिन तोड़ने की क्षमता स्वागत के योग्य है। कुछ और चीजें तोड़ी जा सकती हैं--हिंदू-मुसलमान तोड़ा जा सकता है, शूद्र-ब्राह्मण तोड़ा जा सकता है, स्त्री-पुरुषों के बीच की मूर्खता से भरी हुई दीवालें तोड़ी जा सकती हैं, सड़ी-गली नैतिकता तोड़ी जा सकती है। नई, ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा वैज्ञानिक नैतिकता को जन्म दिया जा सकता है।
तोड़ने की एक क्षमता आई है--लेकिन शिक्षक उससे भयभीत है। वह समझता है कि तोड़ने की क्षमता बहुत बुरी है। कुर्सियां तोड़ी जा रही हैं, कांच तोड़े जा रहे हैं। मैं आपसे कहता हूं, बच्चों को पता नहीं है कि क्या तोड़ना है, इसलिए वे कुर्सियां तोड़ रहे हैं। शिक्षक उनको समझाए कि क्या तोड़ना है, तो वे कुर्सियां कभी नहीं तोड़ेंगे। वे उसको तोड़ना शुरू कर देंगे, जिसका तोड़ना अत्यंत जरूरी हो गया है। लेकिन शिक्षक भयभीत है। वह कहता है तोड़ो मत, अनुशासन मानो।
लेकिन आपको पता नहीं कि अनुशासन तोड़ना भी एक बहुत अदभुत बात है। अनुशासन एक अदभुत बात है, डिसिप्लिन की एक कीमत है। इन-डिसिप्लिन की भी एक कीमत है। डिसिप्लिन की कीमत है, समाज जैसा है, उसको वैसा बनाए रखो। और जब समाज को बदलना हो तो डिसिप्लिन की कीमत नहीं होती है, इन-डिसिप्लिन की कीमत शुरू हो जाती है, समाज को अगर बदलना हो तो। यह बदलने का वक्त है। इस वक्त बच्चों में जो अनुशासनहीनता है, उसका उपयोग कर लें। उसका उपयोग यह हो सकता है कि हम उस सबको तोड़ दें, जो सड़ा-गला है। उस सबको बदल दें, जो जिंदगी पर पत्थर का बोझ हो गया है। यह शिक्षक कर सकता है। क्योंकि शिक्षक बच्चों के एकदम निकट और करीब है। लेकिन वह भी बच्चों को नहीं समझ पा रहा है! उसे भी पता नहीं चल रहा है कि यह क्या हो रहा है!
बच्चों में अच्छा लक्षण प्रकट हुआ है। अगर शिक्षक समझ का उपयोग करे और अपनी क्रांतिकारी स्थिति से परिचित हो जाए और उसे यह बोध हो जाए कि मेरे हाथ में एक मशाल है क्रांति की, तो शायद ये बच्चे शिक्षक को इतना प्रेम करेंगे, जितना इन्होंने कभी शिक्षक को नहीं किया। और इन बच्चों के लिए एक स्वर्ण भविष्य बनाने में शिक्षक सहयोगी हो जाएगा, जितना वह कभी सहयोगी नहीं रहा है।
ये थोड़े से सवाल शिक्षक मित्रों के सामने मैंने रखे। मैं जो कहता हूं, जरूरी नहीं कि वह ठीक हो। हो सकता है मैं जो कहता हूं, वह सभी गलत हो, इसलिए उसको मान लेने की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन जो मैं कहता हूं, उस पर आप सोचना, विचार करना। और सारे मुल्क में एक डाॅयलाग पैदा करने की जरूरत है कि शिक्षक सोचें और विचारें, बच्चों से बात करें, समझें और कुछ निर्णय लें तो जरूर मुझे आशा बंधती है। बहुत कुछ हो सकता है। हवाएं गर्म हैं, मौका तैयार है, परमात्मा ने अवसर दे दिया है। हमारे हाथ में है कि हम इस संक्रमण की शक्ति का उपयोग कर पाएंगे। या ऐसे ही बैठे देखते रह जाएंगे लीला कि जो हो रहा है, सो देखते रहो! जो हो रहा है, सिर्फ बैठ कर घर में उसकी निंदा करते रहो कि बुरा हो रहा है और कुछ करो मत! हम दर्शक रहेंगे, तमाशबीन! शिक्षक इस आने वाले समाज की जिंदगी में तमाशबीन सिद्ध होगा? वह अपने स्कूल में जाकर वही पढ़ाता रहेगा कि दो और दो चार होते हैं? वह क ख ग की शिक्षा देता रहेगा और राजनीतिज्ञ एटम बम बनाते रहेंगे? वह बच्चों को गणित सिखाता रहेगा, भूगोल पढ़ाता रहेगा और राजनीतिज्ञ सारे भूगोल को मिटाने की तैयारी करते रहेंगे?
नहीं, यह अब बरदाश्त नहीं किया जा सकता है। दो और दो चार होते हैं, वह जरूर सिखाएं। लेकिन उतना ही काम शिक्षक का नहीं है। वह एक क्रांति का जन्मदाता भी बनना चाहिए, तभी वह शिक्षक बनता है। और जिंदगी के चारों तरफ जो हो रहा है, उसके प्रति एक सजगता चाहिए। वे नये बच्चों में जो अंकुर फूट रहे हैं उनका होश चाहिए। और अपना रोल--शिक्षक का रोल क्या है जिंदगी के लिए, उसकी फिकर चाहिए। अगर यह फिकर और चिंता हो तो कोई कारण नहीं है फिर...।
भारत के पास अच्छे शिक्षक हैं, लेकिन सोए हुए शिक्षक हैं। भारत के पास बुद्धिमान शिक्षकों का वर्ग है, लेकिन क्रांतिकारी वे नहीं हैं। भारत के पास निष्ठावान, नैतिक शिक्षकों की शक्ति है, लेकिन वह सारी निष्ठा और सारी नैतिकता पुरोगामी है, प्रतिगामी है, रिएक्शनरी है। वह क्रांतिकारी नहीं है, रिवोल्यूशनरी नहीं है। और इसलिए शिक्षक खड़े होकर देख रहा है! उसके हाथ में कुछ नहीं मालूम पड़ता है! वह समाज का उपकरण भर रह गया है!
और सारी दुनिया में--भारत में भी और सारी दुनिया में राजनीतिज्ञों ने शिक्षकों को जिंदगी से काट कर अलग रख दिया है। वे कहते हैं, शिक्षक को जिंदगी के बाबत चिंता नहीं करनी चाहिए, राजनीति के बाबत चिंता नहीं करनी चाहिए। शिक्षक को तो अपना काम स्कूल की दीवालों के भीतर करना चाहिए। राजनीतिज्ञ बहुत होशियार हैं। वे जानते हैं कि शिक्षक अगर जिंदगी के बाबत सक्रिय रूप से चिंतन करेगा, तो शिक्षक के हाथ में इतनी बड़ी ताकत है कि वह सारे समाज को रूपांतरित कर देगा। इसलिए शिक्षकों को बहुत कनिंगनेस से, बहुत चालाकी से सारी जिंदगी से अलग तोड़ कर रख दिया है। और शिक्षक को समझाया गया है, तुम्हें जिंदगी से मतलब नहीं है, तुम्हारा तो बड़ा महान कार्य है कि तुम दो और दो चार होते हैं, यह बच्चों को पढ़ाते रहो--कि टिम्बकटू कहां है। यह बच्चों को समझाते रहो नक्शे पर, टिम्बकटू कहीं भी हो! अब जमीन पर आदमी के बचने की संभावना भी कम होती चली जाती है, और शिक्षक अगर चुपचाप यह देखता है तो उसको मैं शिक्षक कहने को तैयार नहीं हूं। शिक्षक का ज्यादा दायित्व है। वह नई पीढ़ियों की दाई है।
साक्रेटीज ने कहा है शिक्षक की परिभाषा में, कि मैं शिक्षक कहता हूं उसे जो व्यक्ति को नई आत्मा के जन्म देने में दाई का, मिडवाइफ का काम करे।
ठीक कहा है साक्रेटीज ने। वह दुनिया के एक अदभुत शिक्षकों में से एक था। उसने ठीक कहा है कि शिक्षक दाई का काम करे। वह नई आत्मा के जन्म देने में सहयोगी बने। अगर वह आप नहीं बन रहे हैं, अगर वह हम नहीं बन रहे हैं तो शिक्षक कहे जाने का हम कोई हक नहीं रखते हैं। यह थोड़ा सा निवेदन मैं करता हूं।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

शिक्षकों के बीच नये भारत का जन्म विषय पर


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