दिनांक
01-फरवरी, सन् 1981,
ओशो
आश्रम, पूना।
प्रवचन-पहला –(नी सईयो मैं गई गुवाची)
प्रश्न-सार
* आज प्रारंभ होने वाली
प्रवचनमाला का शीर्षक है: आपुई गई हिराय।
संत पलटू के इस वचन का आशय
हमें समझाएं।
* "आपुई गई हिराय'--यह बात कुछ गूढ़ मालूम पड़ती है।
क्या बात है, खोजने वाला खुद को पा लेता है या खो देता है?
खोज का क्या अर्थ, जिसमें खोजी न रहा!
पहला प्रश्न: भगवान,
आज प्रारंभ होने वाली प्रवचनमाला का शीर्षक है: आपुई गई हिराय।
निवेदन है कि संत पलटू के इस वचन का आशय हमें समझाएं।
आनंद दिव्या,
पलटू
का वचन महत्वपूर्ण है। छोटा, लेकिन ऐसे जैसे कोई कुंजी हो कि बड़े से बड़े
ताले को खोल दे, कि ताले को खोल कर एक पूरे साम्राज्य का
मालिक तुम्हें बना दे।
सूत्र
तो छोटे ही होते हैं। लेकिन सूत्रों में छिपे हुए रहस्य बड़े होते हैं। एक-एक सूत्र
एक-एक शास्त्र बन सकता है। सूत्र तो यूं है जैसे कोई हजारों गुलाब के फूलों को
निचोड़े और एक बूंद इत्र बने। लेकिन उस एक बूंद इत्र की कीमत हजारों फूलों से भी
ज्यादा है। उस एक बूंद इत्र की सुगंध, हजारों फूल जो काम न कर सकें,
कर सकती है।
पलटू
सीधे-सादे आदमी हैं,
पंडित नहीं हैं, शास्त्रों के ज्ञाता नहीं हैं,
लेकिन स्वयं का अनुभव किया है। और वही शास्त्रों का शास्त्र है। वेद
से चूके तो कुछ खोओगे नहीं; अपने से चूके तो सब गंवाया।
कुरान आई या न आई चलेगा, लेकिन स्वयं की अनुभूति तो अनिवार्य
है।
जो
अपने को बिना जाने इस जगत से विदा हो जाते हैं, वे आए ही नहीं; आए तो व्यर्थ आए; उन्होंने नाहक ही कष्ट झेले। फूल
चुनने आए थे और कांटों में ही जिंदगी बिताई। आनंद की संभावना थी, ऊर्जा थी, बीज थे, भविष्य था,
लेकिन सब मटियामेट कर डाला। जिससे आनंद बनता उससे विषाद बनाया। जो
अमृत होता उससे जहर निर्मित किया। जिन ईंटों से स्वर्ग का महल बनता उन्हीं ईंटों
से, अपने ही हाथों से, नरक की भट्टियां
तैयार कीं। और चूक छोटी सी, चूक बड़ी छोटी सी--कि अपने को
बिना जाने जीवन की यात्रा पर चल पड़े; अपने को बिना पहचाने
जूझ गए जीवन के संघर्ष में; अपने को बिना पहचाने हजार-हजार
कृत्यों में उलझ गए; खूब बवंडर उठाए, आंधियां
उठाईं, तूफान उठाए; दौड़े, आपाधापी की, छीना-झपटी की; मगर
यह पूछा ही नहीं कि मैं कौन हूं, कि मेरी नियति क्या है,
कि मेरा स्वभाव क्या है।
और
जब तक कोई व्यक्ति अपने स्वभाव को न जान ले, जो भी करेगा गलत करेगा; और जिसने स्वभाव को जाना, वह जो भी करेगा सही करेगा।
इसलिए
मैं तुम्हें नीति नहीं देता हूं और न कोई ऊपर से थोपा गया अनुशासन देता हूं; देता हूं
केवल एक प्यास--एक ऐसी प्यास जो तुम्हें स्वयं को जानने के लिए उद्वेलित कर दे,
जो तुम्हारे भीतर एक ऐसी आग जलाए कि न दिन चैन न रात चैन, जब तक कि अपने को न जान लो।
और
जिसने भी अपने को जाना है,
फिर कुछ भी करे, उसका सारा जीवन सत्य का जीवन
है। लोग पहचानें कि न पहचानें, लोग मानें कि न मानें,
स्वभाव की अनुभूति के बाद, सत्य की किरणें
वैसे ही विकीर्णित होने लगती हैं जीवन से, जैसे सुबह सूरज के
ऊगने पर रात विदा हो जाती है, और पक्षियों के कंठों में गीत
आ जाते हैं, और फूलों में प्राण आ जाते हैं। रात भर सोए पड़े
थे, आंखें खोल देते हैं। पंखुरियां खुल जाती हैं, गंध विकीर्णित होने लगती है। ऐसे ही स्वयं का अनुभव परम का अनुभव है।
पलटू
का पूरा वचन है:
पलटू
दीवाल कहकहा,
मत कोउ झांकन जाय।
पिय
को खोजने मैं चली,
आपुई गई हिराय।।
ऐसी
किंवदंती है कि चीन की दीवाल, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी दीवाल है, उसमें कुछ ऐसे स्थल हैं कि जिन पर खड़े होकर अगर आदमी दूसरी तरफ झांके,
तो जोर से कहकहा लगा कर हंसता है और कूद पड़ता है।
कहानी
ही है, लेकिन कहानी महत्वपूर्ण है, कहानी प्रतीकात्मक है,
कहानी राज-भरी है। जो मित्र साथ आए थे और जो दीवाल के नीचे खड़े राह
देखते हैं कि जो चढ़ गया है दीवाल पर, वह खबर देगा कि उस पार
क्या है! लेकिन वह तो कहकहा लगा कर हंसता है और छलांग मार जाता है। वह तो भूल ही
जाता है कि पीछे मित्र भी खड़े थे, कि संगी-साथी भी आए थे,
कि उन्हें खबर भी देनी है, कि उन्होंने इसीलिए
चढ़ने में सहायता दी है।
और
संगी-साथी बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। राज और भी गहरा हो गया। रहस्य मिटा तो
नहीं, और भी उलझ गया। पहेली सुलझी तो नहीं, और बड़ी हो गई।
अब तक तो यही सवाल था कि दीवाल के उस पार क्या है? अब यह भी
सवाल है कि जिस आदमी को हमने भेजा था उसने लौट कर हमें यह भी न कहा कि क्या है! और
कहकहा क्यों लगाया? हंसा क्यों खिलखिला कर? और खिलखिला कर हंसता यह भी ठीक था, भलामानस बता तो
जाता कि बात क्या है। कूद ही गया, खो ही गया। उसी कहानी की
तरफ यह इशारा है।
पलटू
दीवाल कहकहा!
पलटू
कह रहे हैं, परमात्मा ऐसी जगह है, वह प्यारा ऐसी जगह है जैसे
दीवाल कहकहा।
मत
कोउ झांकन जाय।
कोई
झांकने मत जाना। रोकते,
सावधान करते, सचेत करते--परमात्मा को खोजने मत
निकलना। गांठ बांध लो यह बात--कहते पलटू--कि परमात्मा को खोजने जो गया खतरे में
पड़ा। खतरा क्या है? खतरा है:
पिय
को खोजन मैं चली,
आपुई गई हिराय।
गई
तो थी खोजने पिया को,
मगर खुद खो गई। चले तो थे पाने कुछ, जो पास था
वह भी गंवा बैठे। मगर पलटू का इशारा समझना। पलटू यह कह रहे हैं कि मैं तुम्हें
सावधान तो किए देता हूं, इसलिए सावधान किए देता हूं कि पीछे
मुझसे न कहना कि यह तुमने किस खोज पर हमें भेज दिया, यह
तुमने कैसी उलझन में हमें डाल दिया! पीछे मुझे मत कहना। लेकिन प्यारे को अगर खोजना
हो तो इतनी तैयारी से चलना। अपने को पूरा दांव पर लगा सकते हो तो ही कदम उठाना।
खुद को खोने की तैयारी हो तो ही उसे पाने के अधिकारी हो सकोगे।
धन्यभागी
हैं वे, जिनमें इतना साहस है, जिनकी ऐसी छाती है कि अपने को
गंवा सकते हैं, क्योंकि वे ही उस परम को पाने के अधिकारी
बनते हैं। जो मिटने को राजी है वह विराट हो जाता है। क्योंकि इस जगत में मिटता तो
कुछ भी नहीं; केवल सीमाएं बनती हैं और मिटती हैं। बूंद जब
सागर में उतरती है तो क्या खोती है? अपने को नहीं खोती। एक
अर्थ में खोती है। बूंद तो अब न रही, बूंद को बनाने वाली
सीमाएं तो अब गईं। वह जो क्षुद्र संकीर्ण जगत था बूंद का, वह
जो घेरा था, परिधि थी, वह जो नक्शा था,
वह तो गया। बूंद तो गई बूंद की तरह। लेकिन सच में क्या बूंद ने कुछ
खोया, कुछ गंवाया? या कमाया? जो बूंद हैं अभी उनको तो यूं ही लगेगा कि सिर्फ गंवाया। लेकिन सागर जानता
है--और बूंद जो अब सागर हो गई है वह भी जानती है--कि गंवाया कुछ भी नहीं, पाया सब कुछ; गंवाईं सिर्फ क्षुद्र सीमाएं और पा
लिया विराट।
पलटू
कह रहे हैं: पिय को खोजन मैं चली, आपुई गई हिराय।
सोचा
तो था कि प्यारे को खोज लूं। सोचा तो था कि बिना उसे खोजे कैसे चलेगा! सोचा तो था
कि बिना उसे जाने जिंदगी का क्या अर्थ, क्या मूल्य! जीवन में कैसा उत्सव?
कैसा आनंद? लेकिन खोज बड़ी अजीब जगह पर जाकर
समाप्त हुई।
पलटू
दीवाल कहकहा!
परमात्मा
क्या था दीवाल कहकहा था। हंसी तो आई, बहुत आई। हंसी किस पर आई? हंसी अपने पर आई।
कहते
हैं, बोधिधर्म जब ज्ञान को उपलब्ध हुआ, परम ज्ञान को
उपलब्ध हुआ, तो सात दिन तक अहर्निश हंसता रहा, रुका ही नहीं, सोया नहीं। संगी-साथी परेशान हुए। शक
तो उन्हें हमेशा था कि यह आदमी कुछ पागल है, दीवाना है। सत्य
के खोजी सदा ही झूठ की दुनिया में रहने वाले लोगों को दीवाने मालूम पड़े हैं। और
ठीक भी है कि दीवाने मालूम पड़ें। क्योंकि झूठ की दुनिया का गणित अलग, तर्क अलग, हिसाब-किताब अलग, सोच-समझ
अलग। झूठ की दुनिया का आयाम अलग। सत्य की दुनिया का गणित और। सत्य की दुनिया का
तर्क और। सत्य की दुनिया के तराजू और। सत्य की दुनिया और असत्य की दुनिया के बीच
कहीं कोई तालमेल नहीं; एक-दूसरे के विपरीत। यहां बाहर के धन
की कीमत है; वहां भीतर की धन्यता की कीमत है। यहां बाहर के
पद का मूल्य है; और वहां भीतर परमपद की ही प्रतिष्ठा है।
यहां बाहर की दुनिया में, झूठ की दुनिया में, खिलौनों से लोग उलझे हैं; और भीतर की दुनिया में
जिन्हें जाना है उन्हें खिलौने तोड़ देने पड़ते हैं। यहां बाहर हर आदमी जल रहा है,
आग में जल रहा है; अगर भागता भी है तो एक आग
से दूसरी आग में भागता है।
सर
पर ढेरों धूल जमी है,
भागो!
टखने-टखने
आग बिछी है, भागो!
बंद
है कारोबार, दुकानें खाली;
और
सड़कों पर भीड़ लगी है,
भागो!
मंजिल
है दो-चार कदम की दूरी पर;
और
आगे दीवाल खड़ी है,
भागो!
धरती
का दिल कांप रहा है शायद;
घर-घर
हाहाकार मची है,
भागो!
सर
पर ढेरों धूल जमी है,
भागो!
टखने-टखने आग
बिछी है, भागो!
मगर
भागोगे कहां?
यहां से वहां। एक कारागृह से दूसरे कारागृह में। एक दुकान से दूसरी
दुकान में। एक मंदिर से दूसरी मस्जिद में। एक मस्जिद से दूसरे गिरजाघर में। बाइबिल
से कुरान, कुरान से गीता, गीता से वेद।
भागोगे कहां? एक शब्द से दूसरा शब्द, एक
उलझन से दूसरी उलझन। हां, थोड़ी देर राहत मिलती है।
जैसे
लोग मरघट की तरफ अरथी को लेकर चलते हैं तो रास्ते में कंधा बदल लेते हैं; बाएं कंधे
पर रखी थी अरथी, दाएं पर रख लेते हैं। वजन वही, कंधे भी अपने हैं, फिर बायां हो कि दायां, क्या फर्क पड़ता है? लेकिन थोड़ी देर को राहत मिल जाती
है। बायां थक गया, दाएं पर रख लेते हैं। फिर दायां थक गया तो
बाएं पर रख लेते हैं।
यूं
ही चल रही है दुनिया। हिंदू मुसलमान हो जाते हैं, मुसलमान हिंदू हो जाते हैं।
ईसाई हिंदू हो जाते हैं, हिंदू ईसाई हो जाते हैं। जैन बौद्ध
हो जाते हैं, बौद्ध जैन हो जाते हैं। कंधे बदल लेते हैं,
मगर अरथी वही--वही मुर्दा लाश! अपनी ही लाश ढो रहे हैं, किसी और की भी नहीं।
सर
पर ढेरों धूल जमी है,
भागो!
टखने-टखने आग
बिछी है, भागो!
मगर
भागोगे कहां?
यहां सारी पृथ्वी पर तो आग बिछी है। एक दुख से दूसरा दुख। एक उलझन
से दूसरी उलझन। कभी-कभी यूं हो जाता है कि बड़ी उलझन में पड़ जाओ तो छोटी उलझन भूल
जाती है। जैसे सिर में दर्द था। और डाक्टर को दिखाने गए कि सिर में दर्द है। और
डाक्टर ने कहा, सिरदर्द की फिक्र छोड़ो, अरे यह कुछ भी नहीं--तुम्हारे पेट में कैंसर है!
सिरदर्द
एकदम समाप्त हो जाएगा। इतना बड़ा उपद्रव खड़ा हो गया कि पेट में कैंसर है। अब किसको
फुरसत पड़ी! अब किसके पास समय बचा! अब तो सिरदर्द यूं मालूम पड़ेगा जैसे कोई विलास
कर रहे हो, कोई भोग कर रहे हो, कोई मजा ले रहे हो। सिरदर्द! बात
गई।
बर्नार्ड
शा के जीवन में यूं उल्लेख है। उसने आधी रात को अपने चिकित्सक को फोन किया।
बर्नार्ड शा की उम्र भी तब अस्सी साल थी। और चिकित्सक भी उसका पुराना, पचास साल
पुराना चिकित्सक था। उसकी उम्र कोई पचासी साल थी। आधी रात को खबर की कि जल्दी आओ,
मुझे यूं लगता है कि हृदय का दौरा पड़ा है। बचूंगा नहीं! नहीं तो आधी
रात तुम्हें जगाता नहीं। और मुझे मालूम है कि तुम मुझसे भी ज्यादा बूढ़े, मगर तुम पर ही मेरा भरोसा है और तुम्हीं मेरे शरीर को जानते भी हो। मजबूरी
है, क्षमा करना, लेकिन आना होगा।
बूढ़ा
चिकित्सक उठा। किसी तरह पहुंचा। सीढ़ियां चढ़ा। आधी रात, बूढ़ा आदमी,
हाथ में डाक्टर का वजनी बैग, लंबी सीढ़ियों की
चढ़ाई। जब ऊपर पहुंचा तो बैग को तो पटक दिया उसने फर्श पर और कुर्सी पर लेट गया,
हांफ रहा था और पसीना-पसीना हो रहा था। बर्नार्ड शा घबड़ा कर बैठ गया
कि क्या मामला है! उस डाक्टर ने तो आंखें बंद कर लीं, उसने
इतना ही कहा कि मालूम होता है हृदय का दौरा पड़ रहा है। बर्नार्ड शा भागा, ठंडा पानी छिड़का, पंखा किया, हाथ-पैर
दबाए, नाड़ी देखी, जो भी बन सकता था वह
किया। पंद्रह-बीस मिनट में डाक्टर थोड़ा स्वस्थ हुआ, आंख
खोलीं, अपना बैग उठाया और बर्नार्ड शा से कहा कि मेरी फीस!
बर्नार्ड
शा ने कहा, क्या मजाक करते हो! फीस मैं तुमसे मांगूं या तुम मुझसे? इलाज तुमने मेरा किया ही नहीं; इलाज तो दूर, आकर और झंझट खड़ी कर दी। मैं तो भूल ही गया कि मुझे हृदय का दौरा पड़ा है।
मैं तो तुम्हें बचाने में लग गया।
चिकित्सक
ने कहा कि वह मेरा इलाज था। तुम्हें हृदय का दौरा भुलाने के लिए मैंने यह व्यवस्था
की थी, यह आयोजन था।
बर्नार्ड
शा ने जिंदगी में बहुत लोगों से मजाक किए हैं, लेकिन उसने लिखा है कि मेरे
चिकित्सक ने मुझे मात दे दी। फीस देनी पड़ी। बात सच थी। क्योंकि मेरी बीमारी तो
तिरोहित हो चुकी थी, मैं तो भूल ही चुका था। सामने आदमी मर
रहा हो, किसको फुरसत कि अपना हृदय का दौरा, छोटी-मोटी धड़कन...। बूढ़ा पुराना परिचित डाक्टर मर रहा है, बेचारा आधी रात आया है, इसकी फिक्र करो। मेहमान की
फिक्र करो कि अपनी फिक्र करो। मैं तो भूल ही गया--बर्नार्ड शा ने लिखा है--और फीस
देनी पड़ी। उचित भी मालूम पड़ी।
यहां
जिंदगी में लोग बीमारियां बदल लेते हैं। और अगर अपनी बीमारियां काम नहीं आतीं तो
दूसरों की बीमारियां ले लेते हैं। अगर अकेले तुम दुखी हो रहे हो, विवाह कर
लो। महादुखी हो जाओगे, पुराने दुख विस्मृत हो जाएंगे।
एक
प्रेयसी अपने प्रेमी से कह रही थी कि अब हम देर न करें, अब जल्दी
ही प्रणय के बंधन में बंध जाएं। मैं तुम्हें भरोसा दिलाती हूं कि तुम्हारे दुखों
को हमेशा आधा-आधा बांट लूंगी।
उस
युवक ने कहा,
लेकिन मुझे कोई दुख ही नहीं है।
उस
युवती ने कहा,
मैं अभी की बात नहीं कर रही। मैं विवाह के बाद की बात कर रही हूं।
अभी की कौन बात कर रहा है! एक दफा विवाह तो होने दो।
फिर
लोग अपने को समझाने के लिए रास्ते खोज लेते हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन मुझसे कह रहा था कि मेरे और मेरी पत्नी के बीच कभी कोई झगड़ा नहीं होता, हम काम
आधा-आधा बांट लेते हैं।
मैंने
कहा कि मुझे जरा विस्तार से समझाओ कि काम आधा-आधा कैसे बांट लेते हो।
उसने
कहा कि जैसे उदाहरण के लिए,
दो उदाहरण देता हूं, एक प्राचीन, एक नवीन। प्राचीन: जब मैंने विवाह किया था, तो पहली
ही रात हमने यह तय कर लिया कि अगर कभी कोई झगड़ा हो जाए, दो
में से कोई एक भी क्रुद्ध हो जाए, तो पत्नी घर में रहे,
मैं घर के बाहर चला जाऊं। सो तब से सड़कों पर भ्रमण करते ही जिंदगी
बीती है। मगर इसका लाभ भी हुआ; स्वास्थ्य भी अच्छा है,
ताजी हवा, व्यायाम। अभी बुढ़ापे में भी जवान
आदमी को चारों खाने चित्त कर सकता हूं।
मैंने
कहा, यह हुआ प्राचीन उदाहरण। नवीन उदाहरण क्या?
उसने
कहा, कल की ही बात लें। पत्नी को चाय पीने की तलफ जगी, आधी
रात, झकझोर कर मुझे उठाया कि चाय पीनी है। आधा-आधा बांट
लिया। उसे चाय पीनी है, मैंने चाय बनाई। फिर उसने चाय पी,
मैंने बर्तन धोए। ऐसा आधा-आधा बंटता है, काम
सुविधा से चलता है। कोई झगड़ा नहीं, कोई झांसा नहीं।
लोगों
को अकेले में सुख हो तो तृप्ति नहीं होती। भीड़-भाड़ चाहिए। कोई उपद्रव सिर पर
लेंगे। उससे एक लाभ होता है, पुराने उपद्रव भूल जाते हैं। इसलिए बुढ़ापे में
लोग याद करते हैं कि बचपन के दिन बड़े सुख के दिन थे।
कोई
बच्चा इस बात से राजी नहीं है। क्योंकि हर बच्चा जल्दी से जल्दी बड़ा होना चाहता
है। हर बच्चा चाहता है जल्दी बड़ा हो जाए। कोई बच्चा बच्चा होने से प्रसन्न नहीं है, क्योंकि
हजार तकलीफें। सर्दी के दिन और सुबह से ही स्कूल। और स्कूल में हर तरह की
लानत-मलामत, हर तरह के दंड। घर आए तो दूसरे दिन स्कूल की
तैयारी। बाप अलग डांटे, मां अलग डांटे, मोहल्ले के बदमाश छोकरे अलग सताएं। छोटे बच्चे की जिंदगी का छोटे बच्चे को
पता है। वह जल्दी से जल्दी बड़ा हो जाना चाहता है। उसे पता है कि हर चीज के लिए
निर्भर रहना पड़ता है। दो-दो पैसे के लिए मांगो। घर के बाहर जाना है तो भी आज्ञा
चाहिए। कुछ भी करना है तो गुलामी है। कौन गुलामी पसंद करता है!
लेकिन
बुढ़ापे में ये सब बातें भूल जाती हैं। जिंदगी ने इतने दुख देखे, एक से एक
बड़े दुख देखे, कि बचपन उन सबकी तुलना में स्वर्गीय मालूम
होने लगता है। लगता है वही स्वर्णयुग था।
और
जो बात एक-एक आदमी के संबंध में सही है, वही समाजों, देशों
और जातियों के संबंध में सही है। हर समाज यही सोचता है कि अतीत में सतयुग था,
स्वर्णयुग था। वह इसी मनोविज्ञान का विस्तार है। उसमें कुछ फर्क
नहीं है। कोई स्वर्ग कभी नहीं था। लेकिन हां, दुख धीरे-धीरे
हम इतने बड़े कर लिए हैं कि उनकी तुलना में अतीत के दिन सुखद मालूम होते हैं।
मनुष्य
के मन की एक प्रकृति है। शायद वैसी प्रकृति न होती तो आदमी को जिंदा रहना मुश्किल
हो जाता। वह प्रकृति यह है कि वह सुख को तो चुन-चुन कर सजा लेता है, उनकी तो
फूलमालाएं बना लेता है और दुख को विस्मृत करता जाता है। नहीं तो जिंदगी बहुत
मुश्किल हो जाए। जीओ भी दुख में और इकट्ठा भी दुख हो, तो
जीओगे कैसे? भार बहुत हो जाएगा। जीओ तो दुख में, लेकिन सुख की कल्पनाएं और सुख की स्मृतियां बढ़ा-चढ़ा कर इकट्ठी करते चले
जाओ। ऐसा कोई जमाना न था...।
दुनिया
के सबसे पुराने शिलालेख बेबीलोन में मिले हैं, सात हजार वर्ष पुराने शिलालेख!
लेकिन अगर तुम शिलालेखों को पढ़ो तो तुम हैरान होओगे। अभी-अभी शिलालेख पढ़े जा सके
हैं; जो संदेश उन पर खुदे हैं वे बड़े हैरान करते हैं।
क्योंकि संदेश अत्याधुनिक मालूम होते हैं। आज के ही सुबह के अखबार में छपे हों,
ऐसे मालूम होते हैं। अभी स्याही भी नहीं सूखी, ऐसे मालूम होते हैं। एक पुराने बेबीलोन के पत्थर पर यह संदेश है कि कैसे
अच्छे दिन थे पुराने दिन, कैसे स्वर्णयुग थे जो बीत गए। और
अब ये कैसे बुरे दिन आए हैं, कैसे दुर्दिन आए हैं कि जहां
देखो वहीं अनाचार, अत्याचार। सात हजार साल पहले! बच्चे
मां-बाप की नहीं सुनते हैं। पत्नियां पतियों की नहीं मानती हैं। वृद्धों की कोई
इज्जत नहीं है। विद्यार्थी गुरुओं का अनादर कर रहे हैं।
बस
यूं समझो कि कुछ आधुनिक शब्दों की कमी है--घिराव, हड़ताल। वरना सभी कुछ हो रहा
है।
गौतम
बुद्ध बयालीस वर्ष तक सतत बोले। और इस बयालीस वर्ष में उन्होंने क्या समझाया लोगों
को--चोरी मत करो! बेईमानी मत करो! पर-स्त्री को न भगाओ! हिंसा न करो! आत्महत्या न
करो! क्या तुम सोचते हो स्वर्णयुग रहा होगा, जहां गौतम बुद्ध को बयालीस साल
निरंतर समझाना पड़ा--चोरी न करो, बेईमानी न करो, आत्महत्या न करो, दूसरे की स्त्री न भगाओ, अपनी ही स्त्री से राजी रहो, इतना ही काफी है! अगर
स्वर्णयुग था तो इतने चोर बुद्ध को मिले कहां? अगर स्वर्णयुग
था और कोई किसी की स्त्री भगा ही नहीं रहा था, तो बुद्ध
किसको समझाते थे कि दूसरों की स्त्रियां मत भगाओ? दिमाग खराब
था? होश में थे कि सन्निपात में बक रहे थे? बयालीस साल सन्निपात भी नहीं चलता। और रोज सुबह से सांझ बस यही शिक्षण। और
हजारों लोग सुनते थे। जरूर बात में कोई सार्थकता होगी।
पुराने
से पुराने ग्रंथ भी तो वही नीति की बातें करते हैं जो आज तुम कर रहे हो। यहूदियों
की पुरानी किताब और उनकी दस आज्ञाएं क्या कहती हैं? यही, जो
हम आज कहते हैं। कोई फर्क नहीं हुआ। अगर इलाज नहीं बदला है तो बीमारी कैसे बदली
होगी? अगर इलाज वही है तो बीमारी भी वही रही होगी। यह
पर्याप्त प्रमाण है। और दूसरों की स्त्रियां भगाई जा रही थीं। अरे औरों की बात छोड़
दो, राम तक की स्त्री को लोग भगा कर ले गए! और तुम स्वर्णयुग
कहते हो। साधारण गरीब आदमी की, किसी चमार की, किसी भंगी की, इसकी स्त्री की क्या कीमत! जब राम तक
की स्त्री को भगा कर ले गए तो जगजीवनराम की स्त्री कौन फिक्र करेगा! कि चौधरी जी,
तुम तो चुप रहो! अरे राम की नहीं बची, तुम किस
खेती की मूली हो! अपने घर बैठो, चरखा कातो!
क्या-क्या
खेल हो रहे थे! और रावण तो बुरा आदमी था, माने लेते हैं कि बुरा आदमी था,
जैसा कि कहानियां कहती हैं, भगा ले गया होगा।
राम तो भले आदमी थे। लक्ष्मण तो भले आदमी थे। शूर्पणखा ने, रावण
की बहन ने लक्ष्मण को निवेदन किया कि मुझसे विवाह करो। आव देखा न ताव, बड़े भैया की आज्ञा ली कि काट दूं इसकी नाक? और बड़े
भैया बोले, हां!
कोई
बात हुई, कोई शिष्टाचार हुआ? कि हेमामालिनी तुम्हें मिल जाए
और कहे कि मुझे आप से विवाह करना है और तुम उसकी नाक काट लो! नहीं करना था,
कह देते--नहीं करना। कि बाई माफ कर, कि मैं
पहले ही से विवाहित हूं। नाक काटने का सवाल ही कहां उठता है? और रामचंद्र जी भी स्वीकृति दे दिए कि हां, मत चूक
चौहान! ऐसा शुभ अवसर मत चूक!
राम
तो अच्छे आदमी हैं। इनमें तो कुछ बुराई दिखाई पड़ती नहीं, ये तो
मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। लेकिन जब मैं यह पढ़ता हूं कि राम ने आज्ञा दे दी नाक
काटने की--एक स्त्री की, जिसका कोई कसूर न था। इसमें कोई
कसूर है? अब किसी को किसी पर प्रेम आ जाए, इसमें कोई कसूर है? अरे सीधा तो रास्ता है कि कह
देते कि माफ करो, मैं विवाहित हूं, कहीं
और तलाश करो; कि जरा देर से आईं, पहले
आतीं तो सोचता। लेकिन उसकी नाक काटने का तो कोई भी न्याय नहीं है। और ये मर्यादा
पुरुषोत्तम ने भी कह दिया कि हां, काट लो।
फिर
भी मैं देखता हूं कि रावण ने इसका बदला नहीं लिया। नहीं तो सीता की नाक तो काट ही
सकता था। यह तो बिलकुल ही न्यायसंगत होता। इसमें कोई बुराई की बात न होती। लेकिन
सीता को रावण ने छुआ भी नहीं। और रावण को तुम जलाए चले जा रहे हो और स्वर्णयुगों
की बातें कर रहे हो,
सतयुगों की बातें कर रहे हो!
और
पीछे लौटो, परशुराम हुए। उन्होंने पृथ्वी को सोलह दफे क्षत्रियों से खाली कर दिया।
ऐसी कटाई की! घास-पात भी आदमी काटता है तो थोड़ा हिसाब रखता है। उन्होंने घास-पात
की तरह क्षत्रियों की कटाई कर दी। फिर भी स्वर्णयुग था!
नहीं
कभी कोई स्वर्णयुग था। नहीं कभी कोई सतयुग था। लेकिन मामला यूं है कि आदमी का मन
दुख को विस्मृत करता है। दुख ऐसे ही काफी है, अब उसको और क्या स्मरण करना! तो
कांटों को भूलता जाता है, फूलों को चुनता जाता है। चुनता ही
नहीं, उनको खूब सजाता है, रंगता है,
बड़े करता है, सुंदर बनाता है।
तुम
जिस राम की पूजा कर रहे हो उसमें निन्यानबे प्रतिशत तुम्हारी कल्पना है। तुम जिस
महावीर की पूजा कर रहे हो उसमें निन्यानबे प्रतिशत तुम्हारा सपना है। तुम पत्थर की
बनाई गई मूर्ति की ही पूजा नहीं कर रहे हो, कि कारीगर ने पत्थर की मूर्ति बनाई
और तुम उसकी पूजा कर रहे हो। तुमने उस मूर्ति में जो प्राण-प्रतिष्ठा की है,
वह भी काल्पनिक है।
जैन
कहते हैं कि महावीर के शरीर से पसीना नहीं बहता।
पागल
हो गए हो! चमड़ी थी कि प्लास्टिक? कुछ होश-हवाश की बातें करो! चमड़ी में तो छिद्र
हैं। और छिद्रों का उपयोग ही यह है कि उनसे पसीना बहे। और बिहार में पसीना न बहता
हो, हद हो गई! तो फिर पसीना कहां बहेगा? कोई साइबेरिया में बहेगा? तिब्बत में बहेगा?
और
महावीर स्नान नहीं करते। क्योंकि स्नान करने से, पानी में छोटे-छोटे
जीव-जंतु हैं, वे मर जाएंगे।
बिहार
की धूल-धवांस से मैं परिचित हूं। बिहार की गर्मी, बिहार की धूल-धवांस,
नंग-धड़ंग महावीर का घूमना, कपड़े-लत्ते भी नहीं,
धूल की पर्तों पर पर्तें जम गई होंगी। शायद इसीलिए पसीना न बहता हो,
यह हो सकता है। लेकिन पसीना भीतर ही भीतर कुलबुला रहा होगा और
दुर्गंध भयंकर उठती होगी। क्योंकि दतौन भी नहीं करते वे, नहाते
भी नहीं।
पसीना
सफाई कर देता है बह कर,
रंध्रों पर जम गई धूल को बहा ले जाता है। जैसे आंख में धूल पड़ जाए
तो आंसू आ जाते हैं। आंसू का मतलब है कि धूल को बहाने की तरकीब। वह धूल को बहा कर
ले जाता है आंसू। ऐसे ही पसीना तुम्हारे शरीर पर जमी हुई धूल को बहा कर ले जाता
है। वह प्राकृतिक व्यवस्था है। लेकिन हमारी कल्पनाओं के जाल! हमने ऐसे जाल बिछा
रखे हैं--झूठे जाल, जिनमें कोई सचाई नहीं। हमारी मूर्तियां
झूठी, मूर्तियों में की गई प्राण-प्रतिष्ठा झूठी।
लेकिन
कारण है। कारण यह है कि हम इतने दुख में जी रहे हैं कि हमें कोई तो आशा चाहिए, कोई तो
दीया चाहिए, कहीं से तो रोशनी मिले--काल्पनिक ही सही। आंख
बंद करके हम कल्पना ही कर लेते हैं दीये की, तो भी राहत
मिलती है, तो भी थोड़ा भरोसा आता है कि अगर कल दीये जले थे तो
कल फिर जल सकते हैं।
आदमी
जीता है आशा के भरोसे। मगर सचाई यह है कि आदमी दुख ही दुख में जीता है। सुख में तो
थोड़े से लोग पहुंचे हैं। वे वे ही लोग हैं जिन्होंने अपने को खोने की हिम्मत की।
अपने को खोने की हिम्मत का अर्थ होता है: अहंकार को विसर्जित करना। यूं समझो कि
सारे दुखों को एक शब्द में निचोड़ कर रखा जा सकता है, वह शब्द है--अस्मिता,
अहंकार, मैं-भाव।
पिय
को खोजन मैं चली,
आपुई गई हिराय।
आनंद
दिव्या, पलटू कह रहे हैं कि मैं प्यारे को खोजने चली, लेकिन
खुद खो गई।
यूं
मत समझ लेना कि खुद के खो जाने से प्यारा नहीं मिला। खुद के खो जाने से ही प्यारा
मिलता है। जब तक अहंकार है तब तक प्रेम नहीं। और जहां प्रेम है वहां अहंकार नहीं।
इसलिए
तो तुम्हारे तथाकथित साधु-संत, महात्मा प्रेम-शून्य हो जाते हैं। अहंकार तो
भारी हो जाता है--तपश्चर्या का अहंकार, त्याग का अहंकार,
योग का अहंकार, यह साधा, वह साधा, व्रत किए, नियम किए,
साधन किए। कितने गोरखधंधे तुम्हारे साधु करते हैं!
गोरख
शब्द ही गोरखनाथ से चला। गोरखनाथ ने इतनी साधनाएं करवाईं अपने शिष्यों को कि लोग
कहने लगे कि यह तो गोरखधंधा है। इस नाक पर अंगूठा रखो, उस नाक से
सांस लो। यह आंख बंद करो, वह आंख खोलो। दोनों आंखें बंद करो,
भीतर की आंख खोलो। सिर के बल खड़े होओ। यूं झुको, त्यूं झुको, सिद्धासन जमाओ, पद्मासन
जमाओ, सर्वांगासन जमाओ। और क्या-क्या आसन--मयूरासन, गोदोहासन!
महावीर
को ज्ञान की उपलब्धि हुई तब वे गोदोहासन में बैठे थे। अब मैं बहुत सोचता हूं कि
गोदोहासन में बैठे क्या कर रहे थे! एक बात तो सच है, साफ है कि न गौ दोह रहे थे,
न भैंस दोह रहे थे। महावीर को कहां गौ और भैंस दोहने से जोड़ोगे! और
महावीर अगर गौ को दोहते भी तो गौ भाग खड़ी होती। और जिन्होंने सब छोड़ दिया वे गौ को
कहां दोहते फिरेंगे! और किसी दूसरे की गौ दोहेंगे? कभी नहीं।
अपना भी छोड़ दिया, दूसरे की संपत्ति को दोहना तो ठीक नहीं।
ये महावीर गोदोहासन में बैठे क्या कर रहे थे? गोदोहासन तुम
समझते हो न? जैसा कि ग्वाला बैठता है, मटकी
दोनों अपने टखनों के बीच में रखे हुए, उकडूं--गोदोहासन। अब
ये किसी कल्पना की गौ दोह रहे थे, क्या कर रहे थे? और क्या अदभुत अवस्था में समाधि उपलब्ध हुई!
इस
सब को गोरखधंधा ही कहना होगा।
अगर
मुझे कोई कहे कि गोदोहासन करने से समाधि मिलेगी, मैं कहूंगा, भाड़ में जाए समाधि! ऐसी समाधि का क्या करेंगे जो गोदोहासन में बैठने से
मिलती हो? और फिर जब भी ढंग से बैठोगे तभी खो जाएगी, क्योंकि वह मिलती गोदोहासन में है।
एक
ही चीज छोड़ने जैसी है: अहंकार। लेकिन ये आसन, योग, प्राणायाम
साधने वाले लोग, उपवास, व्रत-नियम करने
वाले लोग, ये जटा-जूटधारी, अग्नि जलाए
हुए बैठे हैं चारों तरफ! क्यों जल्दी कर रहे हो भैया? नरक
में तो बहुत अग्नि जल रही है, वहीं तो पड़ोगे! वहीं खूब धूनी
रमाना। चौबीस घंटे धूनी रमाए रखना। क्या जल्दी पड़ी है ऐसी? यहां
चार दिन राहत के मिले, सुख से जी लो। मगर नहीं, चैन नहीं। अभ्यास कर रहे हैं वे। नरक का अभ्यास यहीं से कर रहे हैं। ठीक
भी है एक लिहाज से, गणित साफ है, कि
जहां जाना है वहां का अभ्यास तो कर लो। एकदम से पहुंच गए तो मुश्किल होगी।
मैंने
सुना है--आगे की कहानी होनी चाहिए--कि मोरारजी देसाई संसार से चल बसे। सोचा तो
उन्होंने बहुत था कि स्वर्ग जाएंगे, मगर कोई स्वर्ग दिल्ली तो है नहीं।
वहां कोई दिल्ली की सांठ-गांठ तो चलती नहीं। पहुंचे नर्क। शैतान ने कहा कि आप ऐसे
भले आदमी हैं, खादी पहनते हैं। और एक कुर्ता भी मोरारजी दो
दिन पहनते हैं। इसलिए जब वे बैठते हैं कुर्सी पर तो पहले कुर्ते को दोनों तरफ से
उठा लेते हैं। क्या बचत कर रहे हैं! अरे गरीब देश है, बचत तो
करनी ही पड़ेगी। इस तरह एक दफा और लोहा करने की बचत हो जाती है। पहले दोनों पुछल्ले
ऊपर उठा कर बैठ गए, ताकि सलवटें न पड़ जाएं। सिद्ध पुरुष हैं!
चर्खा हमेशा बगल में दबाए रखते हैं, चलाएं या न चलाएं। शैतान
ने कहा कि और आप काम ऊंचे करते रहे, गजब के काम करते रहे,
तो आपको हम एक अवसर देते हैं कि नरक में तीन खंड हैं, आप चुन लें। आमतौर से हम चुनने नहीं देते, हम भेजते
हैं। आपको हम सुविधा देते हैं कि आप चुन लें।
इससे
उनका दिल प्रसन्न भी हुआ कि चलो कम से कम इतनी सुविधा तो मिली। पहला खंड जाकर देखा
तो बहुत घबड़ा गए। आग के कढ़ाहों में लोग तले जा रहे थे, जैसे आदमी
न हों पकोड़े हों! बहुत घबड़ाए कि यह तो जरा ज्यादा हो जाएगा। कहा कि दूसरे खंड में
ले चलो।
दूसरे
खंड में देखा,
बड़ी घबड़ाहट हुई, कीड़े-मकोड़े आदमियों में छेद
कर-कर के गुजर रहे हैं, एक-एक आदमी में हजार-हजार छेद कर
डाले हैं उन्होंने। आदमी क्या है, जैसे कि मधुमक्खी का
छत्तना! छेद ही छेद। कोई कीड़ा इधर से आ रहा है, कोई उधर से
जा रहा है। मरते भी नहीं आदमी, छेद पर छेद हुए जा रहे हैं।
और कीड़े यहां से वहां दौड़ रहे हैं। उन्होंने कहा, यह हालत तो
दिल्ली से भी बुरी है। इससे तो दिल्ली में ही अच्छे थे। तीसरे खंड में ले चलो।
तीसरे
खंड में जरा अच्छा लगा। ऐसे तो अच्छा नहीं था, मगर पुराना अभ्यास था इसलिए अच्छा
लगा। तीसरे खंड में उन्होंने देखा कि लोग घुटना-घुटना मल-मूत्र में खड़े हुए हैं।
कोई चाय पी रहा है, कोई काफी पी रहा है; यहां तक कि फैंटा, कोकाकोला! उन्होंने कहा, यह जंचेगा, क्योंकि फिफ्टी परसेंट तो मेरा भी अभ्यास
है। मल-मूत्तर में मूत्तर का तो मेरा भी अभ्यास है। अब खड़े ही होना है, कोई हर्जा नहीं। परमहंस मेरी वृत्ति पुरानी ही है। और यह अच्छा है कि
सिर्फ खड़े ही रहना है। शैतान थोड़ा मुस्कुराया। अब मोरारजी में इतनी बुद्धि तो है
नहीं कि उसकी मुस्कुराहट का मतलब समझ लेते। खड़े हो गए, फौरन
कोकाकोला का आर्डर दिया। क्योंकि तरसे जा रहे थे कोकाकोला को। शिवांबु पीते-पीते
थक गए थे। और अब यहां कोई देखने वाला भी नहीं था, कोई
गांधीवादी भी नहीं था, कोई चुनाव का भी सवाल नहीं था,
कोई मत का भी सवाल नहीं था। अब कौन मौका चूके, पी ही लो कोकाकोला! कोकाकोला आया, और आधा ही पी पाए
थे कि एकदम से घंटी बजी और एक आदमी ने आकर खबर दी कि बस, चाय-काफी-कोकाकोला
ब्रेक खत्म! अब सब अपना शीर्षासन के बल खड़े हो जाओ! सो जल्दी से लोग शीर्षासन के
बल खड़े हो गए। तब मोरारजी को पता चला कि कहां फंसे। मगर फिर भी अभ्यास तो था ही।
फिफ्टी परसेंट अभ्यास तो वे नरक का यहीं कर लिए हैं, रहा
फिफ्टी परसेंट सो वहां कर लेंगे।
लोग
अभ्यास कर रहे हैं,
जैसे कि यहां दुख की कुछ कमी है! अपनी तरफ से दुख खड़े करते हैं। यह
भी एक मनोवैज्ञानिक उपाय है। क्योंकि जब दुख तुम पर बाहर से आता है, आकस्मिक आता है, तो तुम्हारे अहंकार को चोट पहुंचती
है। लेकिन जब तुम खुद ही खड़ा करते हो तो तुम्हारे अहंकार को तृप्ति मिलती है। यही
तो अनशन में और उपवास में भेद है। भूखे मरो तो दुख होता है; उपवास
करो तो अहंकार को मजा आता है। काम एक ही है, दोनों में कुछ
भेद नहीं। शरीर को वही तकलीफ है। शरीर को वही पीड़ा है। चाहे भूखे मरो, चाहे उपवास करो। शरीर से पूछो तो शरीर को तो एक ही क्रिया से गुजरना पड़
रहा है। लेकिन उपवास करने वाला महात्मा हो जाता है; उसकी
शोभायात्रा निकलती है; उसको फूलमालाएं लोग चढ़ाने आते हैं। और
भूखे मरते आदमी की तरफ कोई देखता भी नहीं; भूखा मर रहा है तो
लोग आंख बचा कर निकल जाते हैं कि कौन झंझट में पड़े! अरे अपने पापों का फल भोग रहा
है, भोगने दो!
आचार्य
तुलसी, जैन मुनि कहते हैं कि अगर कोई अपने पापों का फल भोग रहा है तो बाधा नहीं
डालनी चाहिए, क्योंकि बाधा डालोगे तो उस बेचारे को फिर आगे
पापों का फल भोगना पड़ेगा। यह तेरापंथ का दर्शन है। इसमें अगर कोई आदमी सड़क के
किनारे भूखा मर रहा है तो तुम आंख बचा कर निकल जाना। क्योंकि अगर तुमने उसको
खिलाया, पिलाया, भोजन दिया, तो तुमने उसके पाप-कर्म का जो बंध था उसको और आगे सरका दिया, पोस्टपोनमेंट करवा दिया। बेचारा किसी तरह निपटे ले रहा था, पिछले जन्म में किए होंगे पाप, भूखा मर कर काटे ले
रहा था पाप, तुमने वह भी न करने दिया। अब हो सकता है उसको एक
जन्म और लेना पड़े--तुम्हारी हरकत के कारण। तुमने कुछ उसका भला न किया, बहुत बुरा किया।
तेरापंथ
के जीवन-दर्शन में सेवा का कोई स्थान नहीं है। आश्चर्य की बात है! तर्क के भी कैसे
जाल खड़े हो जाते हैं! महावीर और अहिंसा को मानने वाले लोगों में कभी एक ऐसा
संप्रदाय भी पैदा होगा जो इस तरह की बात करेगा, महावीर भी लाख सिर पटकते तो सोच न
पाते! यह कल्पनातीत था। लेकिन आदमी जो कल्पनातीत है उसको भी करके दिखा देता है,
चमत्कार करके दिखा देता है।
उपवास
करो, अपने को खुद सताओ, तो सम्मान मिलता है। यहां लोग
दुखी हैं। दुखी हैं अहंकार के कारण। लेकिन इस दुख से बचना हो तो और बड़ा दुख अपने
हाथ से अपने ऊपर थोप लो। उससे एक तरह का सुख मिलेगा कि यह दुख अपना चुनाव है।
और
ध्यान रहे, लोग अपने चुनाव से नरक भी जाएं जो सुखी होंगे और दूसरे के चुनाव से स्वर्ग
भी भेजे जाएं तो सुखी न होंगे। क्योंकि अपने चुनाव में मैं-भाव भरता है, अहंकार पुष्ट होता है। और मजा यह है कि अहंकार सारे दुखों की आधारशिला है।
और जब तक अहंकार है तब तक प्रेम नहीं; और जब तक प्रेम नहीं,
प्रार्थना नहीं; और जब तक प्रार्थना नहीं तब
तक कैसा परमात्मा? ये सब प्रेम के ही विस्तार हैं। ये प्रेम
के ही खिलाव हैं। यह प्रेम का ही फूल खिलता चला जाता है तो प्रार्थना बनता है,
परमात्मा बनाता है। अपनी परिपूर्णता में प्रेम ही परमात्मा है।
लेकिन प्रेम को पाने के लिए पहली शर्त अहंकार छोड़ने की करनी पड़ती है।
किस
अहद में इंसान को रास आई नफरत
खुद
से की दीवार तुम गिरा क्यों नहीं देते
कौन
सा दुर्भाग्य का क्षण था कि आदमी को नफरत रास आ गई, घृणा रास आ गई। क्योंकि
घृणा के कारण अहंकार बढ़ता है।
किस
अहद में इंसान को रास आई नफरत
खुद
से की दीवार तुम गिरा क्यों नहीं देते
और
यह खुद से बनाई हुई दीवार,
इतना कष्ट भोग रहे हो, गिरा क्यों नहीं देते?
इतनी सी ही बात, आनंद दिव्या, पलटू कह रहे हैं--
पलटू
दीवाल कहकहा,
मत कोउ झांकन जाय।
पिय
को खोजन मैं चली,
आपुई गई हिराय।।
मेरी
नजर से न देखो मुझे खुदा के लिए
बड़ी
कठिन है ये मंजिल मेरी वफा के लिए
चमन
में उम्र गुजारी मगर सबा की तरह
तरस
गए हैं किसी दर्द-ए-आश्ना के लिए
तलब
की राह थी दुश्वार,
दूर थी मंजिल
कदम-कदम
पे सहारे तेरी जफा के लिए
कभी-कभी
तो किसी के गरूर का दामन
मचल
गया है मेरे दस्ते-नारसा के लिए
वुफूरे-शौक
ने आवारा कर दिया वर्ना
सबा
चमन के लिए है,
चमन सबा के लिए
हरम
से तोड़ के हर रब्ते-जिंदगी "ताबां'
हुई है
वक्फ जबीं एक
नक्शे-पा के लिए
एक
छोटी सी तलाश है कि कहीं दिव्यता का चरण-चिह्न मिल जाए। अगर उसके लिए सारे मंदिरों
और मस्जिदों से भी नाते तोड़ लेने पड़ें तो तोड़ देना।
हरम से
तोड़ के हर
रब्ते-जिंदगी "ताबां'
काबे
से भी नाता तोड़ना पड़े तो तोड़ देना।
हरम
से तोड़ के हर रब्ते-जिंदगी "ताबां'
हुई है
वक्फ जबीं एक
नक्शे-पा के लिए
बस
एक चरण-चिह्न की तलाश करना,
एक दिव्यता की तलाश करना। और वे चरण-चिह्न सब तरफ मौजूद हैं,
क्योंकि परमात्मा सब तरफ मौजूद है, हर घड़ी
मौजूद है। तुम्हारी आंख खुली होनी चाहिए। और आंख पर पर्दा क्या है? छोटा सा पर्दा है, अहंकार का पर्दा है। अहंकार का
पर्दा हो तो मंजिल बड़ी कठिन और अहंकार का पर्दा न हो तो मंजिल बड़ी सरल।
मेरी
नजर से न देखो मुझे खुदा के लिए
बड़ी
कठिन है ये मंजिल मेरी वफा के लिए
चमन
में उम्र गुजारी मगर सबा की तरह
तरस
गए हैं किसी दर्द-ए-आश्ना के लिए
तलब
की राह थी दुश्वार,
दूर थी मंजिल
कदम-कदम
पे सहारे तेरी जफा के लिए
कभी-कभी
तो किसी के गरूर का दामन
मचल
गया है मेरे दस्ते-नारसा के लिए
वुफूरे-शौक
ने आवारा कर दिया वर्ना
सबा
चमन के लिए है,
चमन सबा के लिए
हरम
से तोड़ के हर रब्ते-जिंदगी "ताबां'
हुई है
वक्फ जबीं एक
नक्शे-पा के लिए
एक
छोटे से चरण-चिह्न पर सब वार दो, सब न्योछावर कर दो, समर्पित
हो जाओ। और क्या है हमारे पास समर्पित होने को? यही एक घाव
है, जिसका नाम अहंकार है। यही एक मवाद है। इस मवाद को फेंक
दो। खाली कर लो अपने को इस अहंकार से। मिट रहो "मैं' की
तरह, तो तुम हो जाओगे "उसकी' तरह।
और तब बड़ी हंसी आएगी।
पलटू
दीवाल कहकहा!
हंसी
इस बात पर आएगी,
जैसे बोधिधर्म को सात दिन तक हंसी आई। और जब पूछा उसके मित्रों ने
कि क्यों हंसते हो? तो उसने कहा, मैं
इसलिए हंसता हूं कि अपने ही हाथ से बनाई दीवाल थी और खुद ही सोचता था कि कारागृह
में पड़ा हूं। न कोई पहरेदार था, न कोई जंजीर थी। अपनी ही
कल्पना की जंजीर थी, और सोचता था बंधा हूं। कोई पहरेदार न था,
और सोचता था कि भागूं तो कैसे भागूं! सच तो यह है कोई दीवाल न थी,
सिर्फ कल्पना की दीवाल थी, जब चाहता तब निकल
जाता। कोई रुकावट न थी, कोई बाधा न थी, कोई अड़चन न थी। और रुका रहा जन्मों-जन्मों। और आज जब बाहर आ गया हूं तो
हंसी आती है अपनी मूढ़ता पर, किसी और पर नहीं हंस रहा हूं।
पलटू
दीवाल कहकहा!
तुम
भी हंसोगे; जिस दिन मैं को अलग हटा कर रख दोगे, बहुत हंसोगे,
बेतहाशा हंसोगे। अपने पर हंसोगे कि कैसा पागलपन! कैसी नासमझी! दुख
थे नहीं, मैंने निर्मित किए। और जब चाहता, एक क्षण में तोड़ दे सकता था। लेकिन नहीं तोड़े, और
मजबूत करता रहा, और पोषण देता रहा, और
उनकी जड़ों को सींचता रहा।
पिय
को खोजन मैं चली,
आपुई गई हिराय।
अगर
खोजने चले हो पिया को तो इतनी तैयारी भर, बस इतनी तैयारी भर: अपने को खोने
की तैयारी। और तुम्हारे हाथ में कुंजी है।
वच वच वच
दूसरा प्रश्न: भगवान,
"आपुई गई हिराय'--यह बात कुछ गूढ़ मालूम पड़ती है। क्या
बात है, खोजने वाला खुद को पा लेता है या खो देता है?
खोज का क्या अर्थ, जिसमें खोजी न रहा! कबीर
साहब ने कहा है: जिन खोजा तिन पाइयां। और आप हमें निरंतर कहते हैं: स्वयं को खोजो,
स्वयं को पा लो।
भगवान, हमें बोध देने की अनुकंपा करें।
आनंद प्रतिभा,
बात
गूढ़ भी है, गूढ़ नहीं भी। गूढ़ है अगर शब्दों में उलझ जाओ, नहीं
तो बड़ी सीधी-साफ है।
कबीर
कहते हैं: जिन खोजा तिन पाइयां। जिसने खोजा उसने पाया।
लेकिन
किसने खोजा? खोजने वाला कौन है?
कबीर
का दूसरा वचन है: हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
हेरत-हेरत
हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
खोजते-खोजते
कबीर खो गया।
बुंद
समानी समुंद में,
सो कत हेरी जाई।।
और
अब बड़ी मुश्किल हुई। अब बड़ी मुश्किल हुई कि बूंद समुद्र में खो गई, अब उसे
वापस कैसे पाऊं?
और
फिर बाद में तो उन्होंने बदल ही दिया। बाद में बात और भी गहरी हो गई। बाद में
उन्होंने कहा--
हेरत-हेरत
हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
समुंद
समाना बुंद में,
सो कत हेरी जाई।।
बूंद
समुद्र में चली गई थी,
शायद कोई रास्ता खोज भी लेते, निकाल भी लेते।
बूंद छोटी चीज थी, सागर बड़ी चीज थी, कहीं
न कहीं मिल जाती देर-अबेर, खोजते, जन्मों-जन्मों
में पा ही लेते। मगर अब तो मामला बिलकुल ही बिगड़ गया।
समुंद
समाना बुंद में,
सो कत हेरी जाई।
अब
तो वश के बाहर बात हो गई। समुद्र ही बूंद में समा गया। अब कैसे खोजें? अब तो कुछ
बचा ही नहीं, बूंद और समुंद एक हो गए। अब तो दुई न रही। कहां
फासला खड़ा करें?
शब्दों
में अटको तो आनंद प्रतिभा,
झंझट हो जाएगी। तो कबीर ठीक कहते हैं: जिन खोजा तिन पाइयां। जिसने
खोजा उसने पाया। लेकिन खोजने वाले ने कब पाया? अगर उसको
ध्यान में रखो तो इस सूत्र को बदल दो: जिन खोया तिन पाइयां। मैं सुधार किए देता
हूं। कबीर से मैं निपट लूंगा, तू फिक्र छोड़। जब मुलाकात होगी
तब हम निपट लेंगे। बदल दो: जिन खोया तिन पाइयां। जिसने खोया उसने पाया। मगर मतलब
एक ही है, चाहे खोजो, चाहे खोओ। बिना
खोजे कोई खोने नहीं जाता और बिना खोए कोई खोज नहीं पाता।
कबीर
का एक और प्यारा वचन है: कि पहले मैं खोजता फिरता था, खोजता
फिरता था और परमात्मा का कोई पता ही न चलता था। लाख खोजा और न पाया। फिर एक ऐसी
घड़ी आई कि खोजते-खोजते मैं खो गया। और तब से मामला बदल गया; तब
से बात ही बदल गई; तब से परमात्मा मेरे पीछे-पीछे लगा फिरता
है--कहत कबीर-कबीर! हरि लगे पाछे फिरत! अब मैं, लाख चिल्लाओ,
सुनता ही नहीं। अरे जब मैं चिल्लाता था, तुमने
न सुना, कि मैं खोजता फिरा, खोजता फिरा,
कि हे हरि, हे हरि, कहां
हो? नहीं मिले, नहीं मिले। अब तो मैं
ही खो गया। और जब से मैं खो गया हूं तब से तुम्हें क्या सूझी कि अब मेरे पीछे फिर
रहे हो, डुंडी पीटते फिरते हो, शोरगुल
मचाते हो, छाया की तरह पीछे लगे रहते हो, दिन-रात पीछा नहीं छोड़ते।
हरि
लगे पाछे फिरत,
कहत कबीर-कबीर!
मगर
अब कौन है सुनने को?
कबीर तो जमाना हुआ जा चुका। अब बचा कौन?
शब्दों
में मत अटकना! शब्दों में अटकने से भूल हो जाएगी।
तू
कहती है: "आपुई गई हिराय--यह बात कुछ गूढ़ मालूम पड़ती है।'
"कुछ' नहीं, यूं तो "बहुत'
गूढ़ है। और यूं जरा भी गूढ़ नहीं। सत्य की यही खूबी है। अगर शब्द में
अटको तो बहुत उलझन; और अगर सार को पकड़ लो तो जरा भी उलझन
नहीं।
तू
कहती है: "यह क्या बात है, खोजने वाला खुद को पा लेता है या खो देता है?'
दोनों
बातें एक साथ घटती हैं। ये खोना और पाना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। मैं करूं भी
तो क्या करूं?
इधर खोओ, उधर पाओ। उधर पाया कि इधर खोया। ये
अलग-अलग घटती ही नहीं बातें, एक साथ घटती हैं।
लेकिन
जिंदगी को जरा गौर से देखो तो इसी विरोध को सब जगह पाओगे। रात और दिन जुड़े हैं। अब
कहां रात और कहां दिन! कहां अंधेरा और कहां रोशनी! जन्म और मृत्यु जुड़े हैं। कहां
जन्म और कहां मृत्यु! बिलकुल विपरीत, मगर एक ही सिक्के के दो पहलू। सुख
और दुख जुड़े हैं, कुरूपता और सौंदर्य जुड़े हैं, फूल और कांटे जुड़े हैं। यहां विपरीत ऊपर से ही विपरीत दिखाई पड़ते हैं,
भीतर से जुड़े हुए हैं, भीतर से परिपूरक हैं,
कांप्लीमेंटरी हैं, विरोधी नहीं हैं। और यह
सबसे बड़ा विरोध है: खोना और पाना।
अब
आनंद प्रतिभा तो इनकम टैक्स की बड़ी आफिसर है, सो उसको अड़चन आती होगी।
अर्थशास्त्री है। कहां खोना और कहां पाना, बिलकुल उलटी-उलटी
बातें! अगर खोया तो पाओगे कैसे? अगर पाया तो खोया कैसे?
अब जैसे मेरे जैसा व्यक्ति अगर आनंद प्रतिभा के दफ्तर में पहुंच जाए
तो बड़ी गड़बड़ मचे। मेरे खाते-बही सब अंट-संट हों, लेना-देना
कुछ पक्का पता लगाना ही मुश्किल हो जाए कि क्या लेना है, क्या
देना है; क्या बचा, क्या हानि हुई। मैं
तो इसको समझाऊं कि हानि-लाभ सब बराबर। अरे जितना खोया उतना पाया। जिसने ज्यादा
खोया उसने ज्यादा पाया। जिसने ज्यादा पाया उसने ज्यादा खोया। स्वभावतः इनकम टैक्स
वाली बुद्धि, आनंद प्रतिभा कहे--यह भी क्या मामला है!
कुछ
हैरानी की बात है,
इनकम टैक्स के आफिसों में जितने मेरे संन्यासी हैं, और किसी आफिस में नहीं। आनंद प्रतिभा है यहां, बोधिसत्व
हैं यहां, और भी दोत्तीन...। अब मैंने जिंदगी में कभी इनकम टैक्स
दिया नहीं। दूं ही क्या, देने वाला ही नहीं। नौकरी भी करता
था तो जब वह घड़ी आई कि तनख्वाह मेरी इतनी हो जाए कि उस पर इनकम टैक्स लगे, मैंने कहा कि वह कम ही रहने दो! इनकम टैक्स की झंझट में कौन पड़ेगा?
सो मैंने तनख्वाह नहीं बढ़वाई। जब वे ज्यादा ही जिद्द करने लगे कि
तनख्वाह तो बढ़ेगी ही, क्योंकि वह तो नियम के अनुसार है,
तो मैंने कहा, इस्तीफा ले लो, मगर इनकम टैक्स, वह मैं नहीं दूंगा। अपनी जिंदगी में
मैंने नहीं दिया। कौन इस झंझट में पड़े? कम तनख्वाह पर राजी
था, मगर वे राजी नहीं थे।
वे
कहने लगे, तनख्वाह तो लेनी पड़ेगी, वह तो कानून है। कब तक हम
इसको रोकेंगे? और आपकी रोकेंगे तो दूसरे लोग एतराज उठाएंगे।
और आप क्यों परेशान होते हैं? इनकम टैक्स तो थोड़ा सा ही
कटेगा, तनख्वाह ज्यादा बढ़ती है।
मैंने
कहा, ज्यादा और कम का सवाल नहीं है। इनकम टैक्स का गणित ही मेरी समझ में नहीं
आता। मेरा गणित और है।
तो
मैंने कहा, इस्तीफा ही ले लो। वह झंझट मिटी। जब मैंने अपने प्रिंसिपल को कहा कि
इस्तीफा ही ले लो, तो उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं पागल
हूं। मैंने उनसे कहा, ऐसे मत देखो। हालत बिलकुल उलटी है,
पागल तुम हो!
उन्होंने
कहा, आप ऐसा करो कि सात दिन छुट्टी लेकर विचार तो कर लो, नौकरी
छोड़नी कि नहीं?
मैंने
कहा कि विचार करके मैंने कभी कुछ किया? अरे निर्विचार ही तो मेरी शिक्षा
है।
उन्होंने
कहा, भई तुम्हें जो करना हो--अपना सिर पीट लिया--तुम्हें जो करना हो करो।
तो
मैंने कहा, कागज हो तो दे दो, तो यहीं मैं इस्तीफा लिख दूं।
फिर
भी बेचारे समझाए कि घर से लिख कर भेज देना, सोच-विचार कर लो, परिवार में पूछ लो, मित्रों को पूछ लो, थोड़ा...। कोई भी कदम उठाना तो सोच-समझ कर। अच्छी नौकरी, इसे यूं नहीं छोड़ देते।
मैंने
कहा, फिर वही बात! अरे नौकरी कितनी ही अच्छी हो, नौकरी ही
है! मैं ठहरा मालिक आदमी। और क्या तुम सोचते हो कि तुम्हारी नौकरी में मैं कुछ खाक
नौकर था?
उन्होंने
कहा, यह तो मैं भी मानूंगा कि नौकर तो तुम थे, लेकिन नौकर
तुम थे नहीं।
क्योंकि
मैंने कभी छुट्टी की दरखास्त नहीं दी और जब चाहा तब छुट्टी पर रहा। सच पूछो तो महीने
में पंद्रह दिन छुट्टी। और प्रिंसिपल इस डर से मुझसे कहें न, क्योंकि
उन्होंने मुझसे कुछ कहा कि इस्तीफा। और विद्यार्थी मुझे प्रेम करें, तो वे कहें पंद्रह दिन आए तो भी ठीक, जितने दिन आए
उतने ही ठीक। और यूं भी नहीं था कि मैं अपने गांव में ही रहा जहां विश्वविद्यालय
था, सारे मुल्क में घूमता रहता। अखबारों में खबरें छपतीं।
प्रिंसिपल मुझे कहते कि भैया, इतना तो कम से कम करो, तुम्हें छुट्टी नहीं लेनी है मत लो, मगर अखबार में
खबर छपती है कि तुम कलकत्ते में थे और यहां हम दफ्तर में दिखा रहे हैं। तुम हमें
फंसाओगे, फांसी लगवाओगे!
मैंने
उनसे कहा कि चमत्कार होते हैं, इसमें क्या अड़चन है? यह
तो आध्यात्मिक देश है, यहां तो हर तरह के चमत्कार होते हैं।
इसमें कोई अड़चन नहीं है। शरीर यहां, आत्मा कलकत्ते में!
वे
कहते, ये बातें मैं किसको समझाऊंगा और कौन मेरी सुनेगा?
अब
प्रतिभा जो है,
इसका अपना गणित है। इस बेचारी का गणित मैं समझता हूं--कि यह कह रही
है कि यह कुछ समझ में नहीं आती बात, खोजने वाला खुद को पा
लेता है या खो देता है?
ये
दोनों बात एक साथ घटती हैं प्रतिभा।
और
तू पूछती है: "खोज का क्या अर्थ है, जिसमें खोजी ही न रहा!'
आया
न इनकम टैक्स का हिसाब,
कि जब खोजी ही न रहा तो खोज का क्या अर्थ! मगर यह मामला ही ऐसा है।
यह मामला ही दीवानों का, पियक्कड़ों का, पागलों का है। यहां खोज करने वाला जब मिट जाता है तब खोज पूरी होती है।
मंजिल पर आते-आते यात्री गल जाता है, तब मंजिल मिलती है। जब
तक कि यात्री थोड़ा भी बचा है, तब तक उतना ही व्यवधान है
मंजिल में और उसमें। जब बिलकुल न बचा...।
रामकृष्ण
कहते थे: दो नमक के पुतले सागर की थाह लेने गए; लौटे ही नहीं। लौटते क्या खाक! ऐसा
भी नहीं कि थाह न मिली, थाह जरूर मिली। मगर नमक के पुतले थे,
सागर में गलते गए, गलते गए; जैसे गहरे गए वैसे गलते गए। जब बहुत गहरे पहुंच गए, थाह
तो मिल गई, मगर लौटने को न बचे। एक-दूसरे से कहा भी होगा कि
भैया, अब क्या करें? हम तो बचे ही
नहीं। लौटने वाला तो बचा ही नहीं। और लोग राह देखते होंगे, प्रतीक्षा
करते होंगे। उन्होंने कहा, अब करें प्रतीक्षा, हम कर भी क्या सकते हैं! जो गया सो गया! वे तो डूब गए, विलीन हो गए। विलीन हुए बिना सागर की थाह पाई भी नहीं जा सकती। विलीन होकर
ही पाई जा सकती है।
सुन, बुल्लेशाह
क्या कहते हैं--
नी
सईयो मैं गई गुवाची,
खोल घूंघट मुख नाची।
जित
वल देखां दिसदा ओही,
कसम उसे दी होर न कोई।
बहू
मुअक्कम फिर गई घरोई,
जद गुरु दी पत्तरी वाची।
नी
सईयो मैं गई गुवाची...
नाम-निशान
न मेरा सईयो,
जो आखां तुसी चुप कर रहियो।
एह
गल मूल किसे न कहियो,
बुल्ला खूब हकीकत जाची।
नी
सईयो मैं गई गुवाची...
अर्थात
अरी सखियो, मैं तो खो गई! मुख से घूंघट उठा कर नाच रही हूं।
खो
गई हूं इसलिए मुख से घूंघट उठा कर नाच रही हूं। अब भीतर कोई है ही नहीं, तो अब
छिपाना किसको?
अरी
सखियो, मैं तो खो गई! मुंह से घूंघट उठा कर नाच रही हूं।
अब
लज्जा क्या! लोक-लज्जा क्या! अब तो मैं हूं ही नहीं, बस घूंघट ही है, भीतर तो कोई भी नहीं, शून्य है, समाधि है।
जिस
ओर देखूं वही दिखता है। उसी की कसम कि कोई और नहीं है, बस वही
है। और जब गुरु की पाती पढ़ी, घर की बहू फिर घर आ गई। अरी
सखियो, मैं तो खो गई! सखियो, मेरा
नाम-निशान नहीं बचा। तुम्हें जो बताया है, तुम उसके संबंध
में चुप रहना, किसी से कुछ भी न कहना। यह मूल बात किसी को न
बताना। बुल्लेशाह कहते हैं कि मैंने खूब हकीकत की जांच की है। अरी सखियो, मैं तो खो गई!
ये
वचन प्यारे हैं।
नी
सईयो मैं गई गुवाची!
मैं
तो खो गई। और इसलिए घूंघट खोल कर नाच रही हूं। अब जब भीतर कोई है ही नहीं तो किसको
छिपाना?
कश्मीर
में एक अदभुत महिला हुई: लल्ला। हिंदुस्तान ने दो ही नग्न तीर्थंकरों को जन्म दिया
है--एक महावीर को और एक लल्ला को। कश्मीर में तो लोग कहते हैं कि हम दो ही शब्दों
को जानते हैं--एक अल्ला और एक लल्ला। इतना आदर है लल्ला का! लल्ला बड़ी सुंदर
स्त्री थी। कश्मीरी स्त्री थी, सुंदर स्त्री थी, अल्हड़
स्त्री थी। और सौंदर्य बाहर का ही नहीं था, भीतर का भी था।
और उसने सब कपड़े फेंक दिए और नग्न हो गई।
महावीर
को तो हम बरदाश्त भी कर लें कि चलो आदमी हैं, कोई बात नहीं, आदमियों का क्या! यूं ही लंगोटी लगाए फिरते रहते हैं। चलो लंगोटी छोड़ दी,
और क्या, कुछ ज्यादा नहीं छोड़ा। ऐसे भी क्या
थी, लंगोटी ही तो थी। और यहां हिंदुस्तान में साधु-संन्यासी
तिग्गी लगाते हैं, लंगोटी भी नहीं। तिग्गी मतलब बस आखिरी
समझो, उसके बाद फिर कुछ बचता ही नहीं। मतलब तिग्गी से कम कुछ
किया ही नहीं जा सकता। अभी पश्चिम की स्त्रियां तिग्गी लगाना सीख रही हैं, भारत के पुरुष तो बहुत जमाने से अभ्यास कर रहे हैं तिग्गी लगाने का। चलो
तिग्गी छोड़ दी महावीर ने, कोई बात नहीं। लेकिन लल्ला ने
वस्त्र छोड़ दिए। और जब लल्ला से कोई पूछता कि तूने वस्त्र क्यों छोड़ दिए? तो लल्ला कहती, मैं हूं ही नहीं। अब वही है। अब उसको
क्या वस्त्र पहनाने? अब उसको किससे छिपाना? उसी को उसी से छिपाना?
नी
सईयो मैं गई गुवाची!
अरी
सखियो, मैं तो खो गई।
खोल
घूंघट मुख नाची।
अब
क्या डरूं? अब तो घूंघट खोल दिया है, अब तो वस्त्र हटा दिए हैं।
अब तो शून्य है, शून्य का नाच हो रहा है।
जित
वल देखां दिसदा ओही।
जहां
देखा वही दिखाई पड़ता है। अब किससे छिपाना है और किसको छिपाना है? बाहर भी
वही, भीतर भी वही।
कसम
उसे दी होर न कोई।
अब
कसम भी खाऊं तो किसकी खाऊं! उसकी ही कसम खाती हूं कि उसके सिवाय और कोई भी नहीं
है।
बहू
मुअक्कम फिर गई घरोई।
आ
गई बहू फिर से घर।
जद
गुरु दी पत्तरी वाची।
जिस
दिन गुरु का पत्र मिल गया,
प्रेम-पाती मिल गई, बहू घर आ गई।
नी
सईयो मैं गई गुवाची।
अब
मैं तो खो गई सखियो।
नाम-निशान
न मेरा सईयो।
कुछ
भी न बचा, नाम-निशान भी न बचा, मेरी सखियो।
जो
आखां तुसी चुप कर रहियो।
और
वह कहती है कि जो मैंने कहा, जो मैंने बताया, उसे
चुपचाप पीकर रह जाना। कहना मत, किसी को बताना मत। क्योंकि
लोग समझेंगे नहीं।
अब
यही मेरी झंझट है प्रतिभा,
कि मैंने तुझे बता दिया। और तुझे सवाल खड़ा हो गया कि यह क्या मामला
है--खोना और पाना, दोनों एक साथ कैसे? और
कबीर तो कहते हैं: जिन खोजा तिन पाइयां। और जब खोजी ही न रहा तो फिर खोज कैसी?
मगर
मैं कह रहा हूं इसलिए कि मेरे पास जो इकट्ठे हुए हैं वे दीवाने हैं और इस गणित को
भी समझ सकेंगे।
नजर
में ढल के उभरते हैं दिल के अफसाने
ये
और बात है कि दुनिया नजर न पहचाने
दुनिया
की बात छोड़ दो। मगर तुम तो समझो!
बुल्लेशाह
कहते हैं:
एह
गल मूल किसे न कहियो,
बुल्ला खूब हकीकत जाची।
नी
सईयो मैं गई गुवाची।
किसी
से कहना ही मत,
कोई मानेगा ही नहीं कि खोजने वाला खो गया, तब
खोज पूरी हुई। कौन मानेगा? गणित के जगत में, तर्क के जगत में इसका क्या अर्थ होगा?
बुल्लेशाह
का एक वचन और है--
यार पाया
सईयो मेरियो नी
मैं तां
अपना आप गवा
के नी
रही सुद्ध
न बुद्ध जहान
केरी
थक्की
बिरत आनंद में जा के नी
अट्ठे
जाम बिसराम न कम कोई
दुई ज्ञान
की भाह जला
के नी
बुल्लाशाह
मुबारकां लख देवो
बहिए
जान जानी गल ला के नी
अर्थात
हे मेरी सखियो,
मैंने तो अपना यार पा लिया, अपने आपको गवां
कर।
यार पाया
सईयो मेरियो नी
मैं तां
अपना आप गवा
के नी
अपने
को खोकर मैंने तो अपने प्यारे को पा लिया। सारे जहां की सुध-बुध न रही। वृत्तियां
थक गईं और आनंद में सब समा गया। आठों पहर अब विश्राम है और कोई काम बचा नहीं।
ज्ञान की अग्नि में दुई को जलाने के बाद।
दो
को तो जलाना ही होगा। जहां दो जल जाते हैं वहीं तो ध्यान है, वहीं
समाधि है। जहां मैं नहीं, जहां तू नहीं।
बुल्लेशाह
कहते हैं: लाख मुबारक हों। अब हम बैठ गए अपनी जान में जानी को गले लगा कर। लाख
मुबारक हों।
खुद
को धन्यवाद दे रहे हैं कि धन्यवाद बुल्लेशाह, तू भी धन्यभागी है कि अपने प्यारे
को गले से लगा कर बैठ गया! और गले से लगा कर ही नहीं, एक
होकर बैठ गया! अब अलग होने की कोई विधि भी न रही, उपाय भी न
रहा।
और
तू फिक्र मत कर,
प्रतिभा, तू तो खो जाएगी। खो ही जाना चाहिए,
क्योंकि रह-रह कर क्या पाया है, सिवाय दुख के?
अहंकार ने सिवाय नरक के किसको क्या दिया है? निरहंकार
ने परमात्मा दिया है। जरा-जरा खोकर देख! और मैं जानता हूं कि जरा-जरा खोकर तू देख
भी रही है, मगर हिसाब-किताब से चल रही है। कुछ हर्जा भी
नहीं। लेकिन जरा सा भी चखेगी खोने को...और मैं जानता हूं कि वह स्वाद लग गया है और
अब बचना मुश्किल है। वह स्वाद पकड़ रहा है, इसीलिए तो सवाल भी
उठा है। सवाल भी बौद्धिक नहीं है सिर्फ, आत्मिक है। सिर्फ
यूं ही कुतूहल नहीं है, भीतर की जिज्ञासा है। क्योंकि भीतर
प्रतिभा को भी तो डर लग रहा है कि अब मैं डांवाडोल हो रही हूं, खो रही हूं, डूबी जा रही हूं। इसके पहले कि डूब ही
जाऊं, पूछ तो लूं कि डूबने के बाद जो मिलेगा उसके मिलने का
कोई सार भी होगा, क्योंकि मैं तो बचूंगी ही नहीं।
जरूर
सार होगा। क्योंकि मैं तो सिर्फ असार है, सार तो मैं की मृत्यु में है। मैं
की मृत्यु परमात्मा का जन्म है।
आज इतना ही।
वच वच वच
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