विपन्नता का कारण : हमारी मान्यताएं—प्रवचन—70
पहला
प्रश्न:
जगत
झूठ है और जीवन दुख ही दुख है, ऐसी टेक पर खड़ा होने वाला जीवन
क्या और भी ज्यादा दुखी, उदास और विपन्न न हो जाएगा? क्या पूरब के देशों में यही चीज सामूहिक तल पर नहीं घटित हुई?
जीवन
दुख है, यह कोई दार्शनिक धारणा नहीं। ऐसा बुद्धपुरुष सोचते नहीं हैं कि जीवन दुख
है, ऐसी उनकी मान्यता नहीं है कि जीवन दुख है, जीवन को दुख सिद्ध करने में उनका कोई आग्रह नहीं है, जीवन ऐसा है। यह जीवन का तथ्य है। इसे तुम लाख झुठलाओ, झुठला न पाओगे। इसे तुम लाख दबाओं, दबा न पाओगे। यह
उभर—उभरकर प्रगट होगा। और जब उभरेगा, तब बहुत दुखी कर जाएगा।
क्योंकि तुम तो मानकर जीते हो कि जीवन सुख है, फिर उभरता है
दुख। सुख की धारणा जब—जब टूटेगी, तभी—तभी तुम दुखी हो जाओगे।
तुम्हारे
जीवन की विपन्नता जीवन के दुख—स्वभाव के कारण नहीं है, तुम्हारे
जीवन की विपन्नता जीवन को सुख मानना और फिर सुख न पाने के कारण है। तुमने कांटे को
फूल समझा, फूल समझकर छाती से लगाया, तुमने
बड़ी आशाएं कीं, बड़े सपने संजोए, और फिर
कांटा चुभा, तुम्हारे सपने टूटे, तुम्हारी
आशाएं सी, तो विपन्नता पैदा होती है।
अगर
तुमने कांटे को काटा समझा तो पहली तो बात, तुम छाती से न लगाओगे। तुम चुभने
के खतरे से बाहर हो गए। और तुमने कांटे को काटा समझा और अगर वह चुभ भी गया,
तो भी तुम विपन्न न हो जाओगे। तुम समझोगे कि कांटा तो कांटा है,
चुभेगा ही, सावधानी से चलना चाहिए, होशियारी से चलना चाहिए, बोध से चलना चाहिए। रोने का
क्या है, अगर कांटा चुभ जाए तो इसमें छाती पीटने को क्या है!
लेकिन तुम मानते हो फूल, निकलता है काटा, फिर तुम बहुत छाती पीटते हो, फिर तुम जार—जार रोते
हो। तुम्हारी विपन्नता तुम्हारी मान्यता की असफलता के कारण पैदा होती है।
अगर
बुद्धपुरुषों की बात तुम्हें खयाल में आ जाए, तो तुम्हारी विपन्नता तो समाप्त हो
गयी। जो जैसा है, उसको वैसा ही जान लिया। अपेक्षा न रही,
तो अपेक्षा के टूटने का उपाय भी न रहा। और जब अपेक्षा टूटती नहीं,
फिर कैसी विपन्नता! दूर मरुस्थल में तुम भटके हो, प्यासे तडूफ रहे हो और दिखायी पड़ा मरूद्यान, अगर है
मरूद्यान, तब तो ठीक, पहुंचकर तुम सुखी
हो जाओगे। मरूद्यान अगर नहीं है, तो यह जो दौड़— धाप करोगे,
इसमें और प्यासे हो जाओगे। और मीलों चलने के बाद जब पाओगे कि
मरूद्यान नहीं है, तो मूर्च्छित होकर न गिर पड़ोगे तो क्या
करोगे! फिर जो श्रम इस झूठे मरूद्यान को खोजने में लगाया, वही
श्रम सच्चे मरूद्यान को खोजने में लग सकता था।
तो
पहली बात, जीवन दुख है, यह कोई धारणा नहीं है, ऐसा जीवन का तथ्य है। ऐसा जीवन है। बुद्ध कहते हैं, जैसा
जीवन है उसे वैसा जान लो। जानते ही दो बातें घटेंगी। एक, तब
जीवन से तुम्हारी कोई अपेक्षा न रह जाएगी। कभी कितना ही दुख होगा फिर, तो भी तुम जानोगे—होना ही था। एक स्वीकार होगा। एक सहज स्वीकार होगा। उस
सहज स्वीकार में विपन्नता खड़ी नहीं होती, हो नहीं सकती। अगर
पत्थर पत्थर है, तो क्या विपन्नता है! मिट्टी मिट्टी है,
तो क्या विपन्नता है! लेकिन मिट्टी को तुम तिजोड़ी में सम्हालकर रखे
रहे और एक दिन खोला और पाया मिट्टी है, और अब तक सोचते थे
सोना है, तो विपन्नता है। विपन्नता का अर्थ है, जैसा सोचा था वैसा न पाया। कुछ का कुछ हो गया। जहां प्रेम सोचा था,
वहां घृणा पायी, जहा मित्रता सोची थी, वहां शत्रुता मिली, जहा धन सोचा था, वहा धोखा था।
तो
पहली तो बात,
तुम धोखे से मुक्त हो गए, अगर तुमने जीवन को
दुख की तरह देख लिया, जैसा कि जीवन है। जो धोखे से मुक्त हो
गया, उसके जीवन में बड़ी शांति आ जाती है।
दूसरी
बात, जो श्रम जीवन के धोखे में तुम लगाते, वह श्रम
तुम्हारे पास बच रहा। अगर जीवन दुख है, तो बाहर जाने की तो
कोई. अर्थवत्ता नहीं है। अब जीवन ऊर्जा का क्या करोगे? जो
तुम्हारे पास जीवन ऊर्जा है, अब भीतर जा सकती है, बाहर तो दुख है। अगर यह सिद्ध हो जाए तुम्हारे सामने कि बाहर दुख है,
तो अब जाओगे कहां? अब दिल्लियां जाने से तो
कुछ सार न रहा। अब धन के पीछे पागल होने में तो कोई प्रयोजन न रहा। अब किसी
मृग—मरीचिका के पीछे दौड़ने का तो कोई कारण न रहा। यह जीवन ऊर्जा तुम्हारी मुक्त हो
गयी सारी आकांक्षाओं से। सारी व्यर्थ की दौड़ी से मुक्त हो गयी जीवन ऊर्जा भीतर
जाने लगेगी।
क्योंकि
ऊर्जा का एक नियम है कि ऊर्जा तो जाएगी ही। ऊर्जा का नियम है कि ऊर्जा गत्यात्मक
है। अगर बाहर न जाएगी तो भीतर जाएगी। ऊर्जा चलेगी। ऊर्जा में गति है। ऊर्जा बहेगी।
जीवन दुख है ऐसा जानते ही बाहर जाने के सब द्वार तत्क्षण बंद हो गए। अब इस ऊर्जा
का क्या होगा?
यह भीतर की तरफ मुड़ेगी, यह अंतस्तल की तरफ
चलेगी, यह अपने ही केंद्र की तलाश में लग जाएगी—बाहर तो कुछ
पाने को नहीं है, भीतर खोजो।
इस
क्रांति का नाम ही धर्म है। इस रूपांतरण की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है, जिसको
बुद्ध ने कहा है—परावृत्ति, जब ऊर्जा खड़ी रह जाती है,
बाहर जाने को जगह न रही। तुम द्वार पर खड़े हो, बाहर जाने को तैयार खड़े थे। बाहर जाने में कोई अर्थ न रहा, अब क्या करोगे? लौटकर अपने घर में विश्राम न करोगे?
मुल्ला
नसरुद्दीन अपने द्वार पर खड़ा था। हाथ में छड़ी लिए अपनी टोपी ठीक कर रहा था। इतने
में एक मित्र आ गए। मित्र ने पूछा कि मुल्ला, कहां जा रहे हो? मुल्ला ने मित्र को देखकर कहा कि कहीं नहीं जा रहा हूं आ रहा हूं, बाहर से आ रहा हूं।
पर
मित्र को यह बात जंची नहीं,
क्योंकि बाहर से वह खुद आ रहा था, मुल्ला को
उसने आते नहीं देखा। और ठीक जूता उतारते, छड़ी सम्हालते—या
जूता पहनते, कुछ पक्का नहीं हो सका—उसने कहा, मैं समझा नहीं। तो मुल्ला ने कहा, तुम्हें समझा देता
हूं। मेरे हो, अपने हो, समझाने में कुछ
बात नहीं, यह मेरी तरकीब है। जैसे ही कोई आदमी दरवाजे पर
दस्तक देता है, मैं जल्दी से जूता पहनने की, टोपी लगाने की, छड़ी उठाने की कोशिश करने लगता हूं।
मित्र
ने पूछा, इसका क्या सार है? उसने कहा, इसका
सार यह है कि अगर देखा कि ऐसा आदमी है जिसको भीतर बिठालना ठीक नहीं, व्यर्थ सिर खाएगा, तो मैं कहता हूं मैं बाहर जा रहा
हूं। और अगर ऐसा आदमी है, अपना है, प्यारा
है, बैठकर मजा आएगा, रस आएगा, तो मैं कहता हूं लौटकर आ रहा हूं। ऐसा बीच में स्वागत करता हूं, दोनों तरफ खुली रहती है, दोनों तरफ द्वार खुले हैं,
जैसा आदमी हुआ वैसा—या तो जाता, या आता।
जब
तुम्हारी जीवन ऊर्जा बाहर न जाएगी तो घर तो आओगे ही! गंगा गंगासागर में न गिरेगी
तो गंगोत्री में गिर जाएगी।
यह
दूसरी बात खयाल में लेना,
जीवन दुख है, ऐसा कहने का, इस पर बार—बार जोर देने का बुद्ध का क्या प्रयोजन होगा? तुम्हें दुखी करना प्रयोजन नहीं है, तुम्हें दुख से
मुक्त करना प्रयोजन है।
इसलिए
बुद्ध ने आर्य—सत्य कहे। पहला आर्य—सत्य, जीवन दुख है। दूसरा आर्य—सत्य,
जीवन के दुख से मुक्त होने का उपाय है। लेकिन पहले यह तो समझ में आ
जाए कि जीवन दुख है, तो फिर छुटकारे का उपाय खोजना शुरू हो
जाए। फिर बुद्ध ने कहा कि जीवन के दुख से छूटने की संभावना है—देखो मेरी तरफ,
मेरे महासुख को, मैं छूट गया हूं। तो ऐसा नहीं
कि यह कोई कल्पना ही है कि जीवन के दुख से छूट जाएंगे, कौन
कब छूटा? छूटने की संभावना है। और एक ऐसी दशा है, जहा दुख नहीं रह जाता, जहां दुख—निरोध हो जाता है।
जीवन
दुख है, इतने पर बुद्ध की उपदेशना समाप्त नहीं हो जाती, शुरू
होती है। यह तो पहला कदम हुआ कि जीवन दुख है। यह तुम्हें दिखायी पड़ जाए तो तुम
पूछोगे ही, स्वभावत: पूछोगे—इस दुख से छूटा जा सकता है?
या कि यह हमारी नियति है, दुख भोगना ही पड़ेगा?
बुद्ध कहते हैं, छूटा जा सकता है। आशा खुली।
लेकिन यह नए ढंग की आशा है। यह बाहर दौड़नेवाली आशा नहीं है। यह भीतर ठहरने वाली
आशा है। एक नया सूत्रपात हुआ, एक नयी किरण उतरी। अब यह किरण
किसी धन की चमक नहीं है और किसी दूसरे में लगाव नहीं है, यह
किरण अब अपने ही केंद्र की चमक है।
बुद्ध
कहते हैं, संभावना है दुख के पार जाने की। ऐसी दशा है—दुख—निर्वाण, दुख—मुक्ति की, दुख—निरोध कीं—निर्वाण की दशा है। तो
तुम पूछोगे, जीवन दुख है और एक ऐसी दशा है जहां जीवन का दुख
नहीं रह जाता, फिर मार्ग क्या है? तो
बुद्ध कहते हैं—अष्टांगिक, आठ प्रक्रियाएं, जिनसे आदमी धीरे— धीरे कर मुक्त हो जाता है दुख से।
तो
बुद्ध तुम्हें दुखी नहीं करना चाहते, तुम्हें दुख से मुका करना चाहते
हैं, इसलिए दुख की इतनी चर्चा करते हैं। तुम उलटा कर रहे हो।
तुम देखते ही नहीं जीवन में आख डालकर, तुम डरे हो कि कहीं
दुख दिखायी न पड़ जाए, तो तुम आंखें बचा रहे हो। तुम यहां—वहां
देखते हो, सीधा नहीं देखते जीवन में, तुम
आख में आख डालकर नहीं देखते—इधर—उधर, कहीं दिख न जाए!
जानते
तो तुम भी हो कि जीवन में दुख है, बार—बार अनुभव तो तुम्हें भी हुआ है कि जीवन
में दुख है। कहते हैं न—दूध का जला छाछ भी फूंक—फूंककर पीने लगता है। यह तुम्हारी
आंखें बताती हैं कि तुम्हें अंदाज है, तुम्हें अनुभव है—होना
ही चाहिए, कितनी बार तो तुमने जाना कि यह फूल है और फिर
कांटा पाया, आखिर बिना सीखे कैसे रह जाओगे? सीख तो गए हो तुम भी, फिर भी झुठला रहे हो अपनी सीख
को।
बुद्ध
इस बात को साफ कर देना चाहते हैं कि जीवन दुख है। यह इतना स्पष्ट हो जाए कि इसमें
रत्तीमात्र भी संदेह न रहे। संदेह रहा तो तुम खोज जारी रखोगे, बाहर ही
दौड़ते रहोगे। सोचोगे कि शायद कहीं से कुछ रास्ता मिल जाएगा। तो बुद्ध इसको अटूट
रूप से सिद्ध कर देना चाहते हैं कि जीवन दुख है।
और
कुछ बुद्ध को सिद्ध करने के लिए बहुत श्रम करने की जरूरत नहीं है, जीवन ऐसा
है। सिर्फ पर्दा उठाकर दिखा दो, तो तुम देख लोगे—जीवन की
नग्नता दुख ही है। जैसे हर आदमी को अगर तुम उघाड़कर देखो तो अस्थिपंजर पाओगे,
सब सौंदर्य तिरोहित हो जाता है। ऐसे ही जीवन को उघाड़कर देखोगे तो
दुख का अस्थिपंजर पाओगे। चमड़ी के ऊपर—ऊपर दिखायी पड़ता है सौंदर्य। बुद्ध तो जीवन
के साथ वही कर रहे हैं जो एक्स—रे करती है। तुम्हारी हड्डी—हड्डी, तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, उसे उघाड़कर दिखा देती है।
पूछा
है, 'जगत झूठ और जीवन दुख ही दुख है, क्या इससे यह खतरा
नहीं कि जीवन और उदास और दुखी और विपन्न हो जाए?'
नहीं, यह खतरा
बिलकुल नहीं है, क्योंकि जीवन दुखी है ही। यह खतरा जरा भी
नहीं है। यह खतरा तो तब हो सकता था जब जीवन में सुख होता। लेकिन जीवन में सुख है
ही नहीं, तुम खतरे के बाहर हो। तुम लाख उपाय करो तो तुम जीवन
को और ज्यादा दुखी नहीं बना सकते। जीवन दुख की पराकाष्ठा है। उसमें तुम सुधार नहीं
कर सकते, न बिगाड़ कर सकते हो।
और
पूछा है कि 'क्या पूरब के देशों में यही चीज सामूहिक तल पर घटित नहीं हुई?' बुद्धों ने जो कहा, वह समझा नहीं जा सका, तो जो घटित हुआ उसकी जिम्मेवारी बुद्धों पर नहीं है। लोग कुछ का कुछ समझते
हैं। लोग वही नहीं समझते जो कहा जाता है।
जैसे, मैंने
सुना, मुल्ला नसरुद्दीन एक बस में खड़ा है और बिना टिकिट
यात्रा कर रहा है। अंततः पकड़ा गया। चैकर ने उससे पूछा कि महानुभाव, कपड़े—लत्ते तो बड़े सज्जन जैसे पहने हुए हैं और बिना टिकिट यात्रा कर रहे
हैं! और आपको जरा भी दिखायी नहीं पड़ता कि सामने ही तख्ती लगी है कि बिना टिकिट बस
में बैठना जुर्म है। मुल्ला ने कहा, ठीक, इसीलिए तो खड़ा हूं। बैठा ही नहीं, इसी तख्ती के कारण
तो खड़ा हूं। कैठना जुर्म है न!
लोग
ऐसा समझते हैं। अपने हिसाब से समझते हैं। बुद्ध क्या कहते हैं, उसे लोगों
ने वैसा नहीं समझा जैसा बुद्ध ने कहा है।
एक
प्रोफेसर ने अपने एक विद्यार्थी को सहानुभूति से कहा, अरे,
दर्शनशास्त्र में फेल हो गए, तो मेरी लिखी
किताब पढ़ी थी या नहीं? उदास छात्र ने कहा कि नहीं सर,
मैं आपकी किताब पढ्ने से नहीं, बीमार हो जाने
से फेल हुआ हूं।
तुम
कैसे लोगे किसी बात को,
किस अर्थ में लोगे, तुम पर निर्भर है। बुद्धों
ने जब कहा कि जीवन दुख है तो उन्होंने यह नहीं कहा है कि तुम दुख मान लो, उन्होंने यह भी नहीं कहा है कि तुम दुख की चांदर ओढ़कर बैठ जाओ, उन्होंने यह भी नहीं कहा है कि तुम उदास होकर थके—मांदे, निराश होकर आत्मघाती हो जाओ। उन्होंने तो यही कहा है कि अगर तुम्हें जीवन
दुख है, ऐसा दिखायी पड़ने लगे, तो
तुम्हारे जीवन में सूरज की किरण आ जाएगी। तुम्हारे जीवन में पुलक और आनंद आ जाएगा।
और बुद्ध बार—बार कहते हैं, अहो, देखो मेरा
महासुख!
बुद्ध
तो चाहते हैं कि तुम भी बुद्ध जैसे उत्सव को उपलब्ध हो जाओ, तुम्हारे
जीवन में भी वैसे ही फूल खिलें। बुद्ध ने अगर जीवन को दुख कहा है तो इसीलिए ताकि
तुम उस दिशा में चल सको जहां दुख नहीं, सुख है। लेकिन लोगों
ने गलत समझा। लोग समझे कि जब जीवन दुख है तो फिर ठीक है, क्या
करना! लोग सुस्त हो गए, काहिल हो गए, आलसी
हो गए, बैठ गए—चलने से क्या सार, उठने
से क्या सार, कुछ करने से क्या सार, यह
जीवन तो दुख है! लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हुआ कि वह उनकी अंतर्यात्रा शुरू हो गयी।
बैठकर सुस्त दशा में भी वे सोचते तो बाहर की ही रहे!
अभी
कल ही तो हम पढ़ते थे कि बुद्ध के भिक्षु बैठकर बात कर रहे हैं और सोच रहे हैं, संसार में
सबसे बड़ी सुख की चीज क्या है? भिक्षु हैं, संसार का त्याग कर दिए हैं और सोच रहे हैं कि संसार में सबसे बड़े सुख की
चीज क्या है! कोई कहता है, राजसुख। कोई कहता है, कामसुख। कोई कहता है, भोजन—सुख। और इस तरह की
चर्चाएं हो रही हैं।
बुद्ध
तो बड़े चौंके। वह खड़े होकर पीछे सुने हैं। उन्होंने कहा, भिक्षुओ,
यह तुम क्या कह रहे हो, मैं तो भरोसा ही नहीं
कर सकता! भिक्षु होकर भी तुम्हें राज्य में, धन में, पद में, काम में सुख दिखायी पड़ता है! तो तुम भिक्षु
कैसे हो गए? और अब भिक्षु होकर भी तुम इसी में सोच—विचार कर
रहे हो।
तो
ये जो काहिल बैठे हुए लोग हैं, सुस्त लोग हैं पूरब के, तुम
यह मत सोचना कि अंतरगामी हो गए हैं। बैठे—बैठे सोच तो यही रहे हैं कि कही से छप्पर
फट जाए, क्योंकि हमने इस तरह की कहावतें बना रखी हैं कि जब
भगवान देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। मगर देता क्या है? अभी
आशा वही धन की है।
एक
मित्र ने मुझसे पूछा है—प्रश्न है उनका—प्रश्न पूछा है कि सब नियति से होता है या
पुरुषार्थ से होता है?
संन्यासी हैं। यहां तक भी बात ठीक थी, इसके
आगे उन्होंने कहा, कि कभी—कभी धन बिना कुछ किए आ जाता है और
कभी—कभी धन बहुत मेहनत करने से भी नहीं आता है।
लेकिन
नजर धन पर ही अटकी है। पुरुषार्थ और नियति इत्यादि तो सब बातचीत है, असली बात
तो धन है। कभी—कभी धन बिना कुछ किए आ जाता है और कभी—कभी बहुत करने से भी नहीं
आता। लेकिन नजर धन पर लगी है। सारे जीवन की दौड़ धन की तरफ है। संन्यस्त होकर भी
सोच यही रहे हैं कि पक्का पता चल जाए कि धन कैसे आता है, कुछ
करने से आता है कि अपने आप आ जाता है? तो लोग बैठे हैं,
वे सोच रहे हैं कि जब खुदा देता है तो छप्पर फाड़कर देता है। तो क्या
करना है! बैठे हैं। जब देगा तब छप्पर फाड़कर दे देगा। ऐसी कहानियां गढ़ रखी हैं
उन्होंने कि राह चलते धन मिल जाता है, जिसके भाग्य में है
उसको राह चलते मिल जाता है। और जिसके भाग्य में नहीं है, वह
कितना ही उपाय करे, कुछ भी नहीं मिलता।
तो
लोगों ने अंतर्यात्रा तो शुरू नहीं की, बहिर्यात्रा यथार्थत: तो बंद कर दी,
लेकिन मानसिक रूप से जारी रखी। यह दुर्भाग्य हो गया। बैठे सोचते यही
हैं।
मैंने
सुना है, एक आदमी ने राह चलते एक सज्जन का हाथ पकड़ लिया, सामने
फेहरिश्त कर दी, कहा कि देखिए, एक
मंदिर बनवा रहा हूं, एक लाख रुपये की जरूरत है, और फलां आदमी ने हजार दिए, फलां ने पांच हजार दिए,
लिस्ट पर नाम भी लिखे हुए हैं गांव के खास—खास लोगों के। उन सज्जन
ने छुटकारे के लिए कहा कि भई, मंदिर से क्या होगा, अस्पताल बनवाओ, स्कूल बनवाओ, उससे
कुछ सार है; मंदिर तो वैसे ही बहुत हैं, मंदिर की क्या कमी है!
लेकिन
वह आदमी नाराज हो गया,
उसने कहा, मंदिर से सब होगा, क्योंकि भगवान के बिना कुछ भी हो सकता! इतने लोग बीमार ही इसलिए पड़ रहे
हैं कि लोग भगवान की प्रार्थना भूल गए हैं। अगर लोग प्रार्थना करें तो बीमार ही
क्यों पड़े, अस्पताल की जरूरत क्या है! और असली ज्ञान तो
प्रार्थना से पैदा होता है। इसलिए असली बात तो मंदिर है। मंदिर के बिना भगवान की
पूजा कहां होगी?
राह
पर भीड़ इकट्ठी होने लगी,
सज्जन भागना चाहते हैं, तो उन्होंने कहा,
भई, फिर तुम अगर ऐसा ही है, जिद्द ही कर लिए हो मंदिर बनाने की, तो किन्हीं उनको
पकड़ो जो दस हजार, पांच हजार दे सकें, मैं
तो कुछ इतना दे नहीं सकता। मेरे दिए से क्या होगा? तो जल्दी
से, वह जो दान की याचना कर रहा है, पांच
रुपये पर उतर आया; उसने कहा, अच्छा
पांच रुपये तो दो। पिंड छुड़ाने के लिए उन्होंने एक रुपया निकालकर जेब से उसे दिया।
उस आदमी ने गौर से रुपया देखा और कहा कि महाशय, आप मेरा नहीं
भगवान का भी अपमान कर रहे हैं।
मगर
भगवान का भी सम्मान और अपमान होता रुपये से ही! नजर रुपये पर ही बंधी है। पांच
रुपये दें तो भगवान का सम्मान हो गया, और एक रुपया दें तो भगवान का अपमान
हो गया। तुम्हारा सम्मान— अपमान भी रुपयों से होता है, तुम्हारे
भगवान का सम्मान— अपमान भी रुपयों से होता है। लेकिन सब चीज को तौलने का तराजू
रुपया मालूम होती है।
इसे
थोड़ा समझो। मनुष्य पूरब में जरूर सुस्त हो गया, काहिल हो गया, लेकिन बस सुस्त और काहिल हो गया, धार्मिक नहीं हुआ।
जो लोग तुमसे कहते हैं कि पूरब के देश धार्मिक हैं, सरासर
झूठ कहते हैं। मेरे अनुभव में निरंतर यह बात आती है कि पश्चिम से जो लोग आते हैं,
उनकी पकड़ धन पर कम है, उनकी पकड़ संसार पर कम
है, पूरब के लोगों की पकड़ संसार पर ज्यादा है, धन पर ज्यादा है। कुछ करते नहीं, उस पकड़ को पूरा
करने के लिए कुछ करते नहीं, प्रतीक्षा कर रहे हैं लेकिन,
योजनाएं मन में वही हैं।
पश्चिम
के लोग कुछ करते हैं,
यह अच्छा है, कम से कम कुछ करते तो हैं,
जिस बात की पकड़ है उसको पूरा करने के लिए कुछ करते हैं। पूरब के
लोगों की पकड़ वही है, मन में वही रोग है, वही रस है, वही मवाद बह रही है मन के भीतर, वही घाव है, लेकिन बैठे हैं, करते
कुछ नहीं। और इस बैठे होने को समझते हैं कि धार्मिक हो गए हैं। माला हाथ में है,
राम—राम जपते हैं और बगल में छुरी है। छुरी पर ध्यान रखना, माला पर बहुत ध्यान मत देना, वह तो यंत्रवत हाथ में
घूम रही है। असली बात अगर भगवान की लोग प्रार्थना भी कर रहे हैं तो भी धन ही
मांगने के लिए कर रहे हैं कि प्रभु, हम पर कृपा कब होगी?
लुच्चे—लफंगे आगे बढ़े जा रहे हैं, हम पर कृपा
कब होगी? हर कोई सफल हुआ जा रहा है, हम
पर कृपा कब होगी?
लेकिन
अगर तुम पूछो कि कृपा के भीतर छिपाए क्या हो, मांगते क्या हो, तो तुम तत्क्षण पाओगे—धन है, पद है, प्रतिष्ठा है। पश्चिम में लोग जो वासना करते हैं, उसके
लिए श्रम करते हैं। पूरब में वासना करते हैं और श्रम नहीं करते, इतना ही फर्क हुआ है। लेकिन वासना की दौड़ जारी है। इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता कि तुम अपनी वासना को कृत्य में उतारते हो या नहीं, वासना
आ गयी कि ऊर्जा बहिर्गामी हो गयी। निर्वासना होने से ऊर्जा अंतर्गामी होती है।
तो
पूरब समझा नहीं। बुद्धपुरुषों ने जो कहा, उसकी नासमझी, उसकी गलत व्याख्या लोगों को काहिल, सुस्त, आलसी कर गयी। अगर बुद्धों की बात हमने समझी होती, तो
जीवन में त्वरा होती, चमक होती, धार
होती, प्रज्ञा होती, बुद्धि होती,
तुम्हारे जीवन में एक ज्योति होती, एक
तेजोमयता होती। बुद्ध तुम्हें फीका करने को नहीं आते, बुद्ध
तुम्हें प्रज्वलित करने को आते हैं। तुम्हारे दीए को बुझाने नहीं आते, तुम्हारे दीए को जलाने आते हैं। तुम्हारे जीवन को धार देने आते हैं।
तुम्हारे जीवन में ऐसी धार आ जाए, ऐसे आनंद की चमक आ जाए,
जिस आनंद की तुम तलाश कर रहे हो, लेकिन गलत
दिशा में तलाश कर रहे हो।
जीवन
अर्थात बाहर,
आनंद को खोजने की दिशा गलत है। जीवन अर्थात भीतर, ठीक दिशा है। एक जीवन बाहर है, एक जीवन भीतर है।
बाहर के जीवन को बुद्ध दुख कहते हैं, भीतर के जीवन को सुख
कहते हैं।
इसलिए
कहते हैं, अहो, देखो हमारा महासुख, हम
वैरियों के बीच अवैरी होकर विहरते हैं। देखो हमारा सुख, हम
कामियों के बीच अकामी होकर विहरते हैं। देखो हमारा सुख, हम
आकांक्षियो के बीच निराकांक्षी होकर विहरते हैं। लेकिन देखो सुख—सुसुखं वत! हमारे
सुख को पहचानो।
तुम्हारे
दुख को दिखाने का प्रयोजन इतना ही है कि तुम्हारी ऊर्जा सुख की दिशा में गतिमान हो
जाए।
दूसरा
प्रश्न.
उस
दिन आपने कहा कि भगवान बुद्ध अपने भिक्षुओं के पास गए और उन्हें धन, काम और पद
को छोड्कर बुद्धत्व प्राप्त करने और धर्म— श्रवण करने का बोध दिया। बुद्ध जीवन
छोड़ने को कहते हैं और आप जीवन को उत्सव बनाकर जीने को कहते हैं, इससे हमें दुविधा पैदा होती है। इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।
मन तो दुविधा पैदा
करता ही है। दुविधा की बात जरा भी नहीं है, सीधी—सीधी बात है। बुद्ध भी यही कह
रहे हैं जो मैं कह रहा हूं मैं भी वही कह रहा हूं जो बुद्ध कह रहे हैं। बुद्ध कह
रहे हैं, बाहर के जीवन में दुख है, इसे
छोड़ो, ताकि तुम भीतर के अमृतमयी, आनंदमयी
सुख को पा सको। मैं कह रहा हूं भीतर के आनंदमयी, अमृतमयी को
पा लो, ताकि बाहर का जो है छूट जाए। बस कहने का भेद है।
बुद्ध कहते हैं, आधा गिलास खाली है; और
मैं कहता हूं आधा गिलास भरा है। दुविधा की कोई बात नहीं है। मेरा जोर भरे पर है,
बुद्ध का जोर खाली पर है।
और
भरे पर जोर देने का कारण है। क्योंकि तुम खाली की भाषा को न समझ पाओगे। तुम खाली
से एकदम घबड़ा जाते हो,
तुम डर जाते हो। खाली! तुम भाग खड़े होते हो। मैं तुम्हें भरे की बात
कह रहा हूं भागने का कोई कारण नहीं है। मैं तुमसे यह नहीं कहता कि जीवन दुख है।
मैं कहता हूं जीवन महासुख है, आओ भीतर। मगर मैं कह वही रहा
हूं जो बुद्ध कहते हैं। बुद्ध कहते हैं, वहा दुख है, यहां आओ, मैं कहता हूं, यहां
सुख है, यहां आओ। बाहर की बात मैंने छोड़ दी है। यहां तुम आने
लगोगे तो बाहर का दुख अपने आप छूट जाएगा। इसलिए संसार छोड़ने पर मेरा जोर नहीं,
संन्यास लेने पर जोर है। बुद्ध का संसार छोडने पर जोर है। मगर बात
वही है। यह एक ही सूत्र को पकड़ने के दो ढंग हैं।
दुनिया
बहुत बदल गयी बुद्ध के समय से। पच्चीस सौ साल में गंगा का बहुत पानी बह गया है।
पच्चीस सौ साल पहले जो भाषा सार्थक मालूम होती थी, अब सार्थक नहीं मालूम होती।
तुम्हें जो भाषा समझ में आ सकेगी वही मैं बोल रहा हूं। तो मैं कहता हूं परमात्मा
उत्सव है। बुद्ध कहते हैं, दुख—निरोध। मैं कहता हूं
आनंद—उपलब्धि। मैं कहता हूं परमात्मा नृत्य है। बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है। मैं कहता हूं, अंतर्जीवन कमल का फूल
है। बुद्ध कहते हैं, यह बहिर्जीवन कांटे ही कांटे हैं।
तुम
फर्क समझ लेना। एक पहलू को बुद्ध कह रहे हैं, दूसरे पहलू को मैं कह रहा हूं। मगर
ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुविधा तो मन पैदा कर देता है। मन तो दुविधा पैदा
करना ही चाहता है। मन तो यही कहता है, दुविधा हो जाए तो झंझट
मिटे। झंझट हो गयी, तो झंझट मिटी। झंझट मिटी यानी अब कुछ
करने को नहीं रहा—जब दुविधा ही खड़ी हो गयी तो अटके रह गए। अब दुविधा हल होगी जब
देखेंगे।
तो
मन तो दुविधा में बड़ा रस लेता है। वह कहता है, अब क्या करें, बुद्ध की मानें कि इनकी मानें! मैं तुमसे कहता हूं तुम किसी की भी मान लो,
दोनों की मान ली। एक की मान लो—दोनो की मान ली। या तो तुम बुद्ध की
मानकर चल पड़ो—अगर तुम्हें शून्य की भाषा जमती हो। कुछ लोग हैं जिन्हें जमती है।
अगर तुम्हें जमती हो शून्य की भाषा तो बुद्ध की भाषा को सुन लो और मानकर चल पड़ो।
अगर तुम्हें शून्य से भय लगता हो, तो मैं पूर्ण की भाषा बोल
रहा हूं। तो तुम पूर्ण की भाषा मान लो।
दुविधा
में मत अटके रहो। क्योंकि दुविधा में जो अटका, वह बहुत खो देता है। वह द्वार पर
ही खड़ा रह जाता है, न भीतर जाता, न
बाहर जाता, वह अटक गया। दुविधा में दोई गए, माया मिली न राम।
तीसरा
प्रश्न:
क्या
प्रेम के बिना समर्पण हो सकता है?
ऐसा लगता है, बहुत बार
तुम सोचते भी नहीं कि क्या पूछ रहे हो! प्रेम और समर्पण का एक ही अर्थ होता है।
प्रेम के बिना कैसा समर्पण। और अगर समर्पण न हो तो कैसा प्रेम! प्रेम के बिना तो
समर्पण हो ही नहीं सकता। प्रेम के बिना जो समर्पण होता है, वह
समर्पण नहीं है, जबरदस्ती है।
जैसे
किसी आदमी ने तुम्हारी छाती पर छुरी रख दी और कहा, करो समर्पण! और तुम्हें
करना पड़ा। उसने कहा, चलो करो समर्पण—घड़ी, तुम्हारा बटुआ, समर्पण करो। अब छुरी के घबड़ाहट में
तुमने समर्पण कर दिया, यह समर्पण तो नहीं है। यह तो मजबूरी
है। इससे तो तुम बदला लोगे, मौका मिल जाएगा तो तुम इसे
छोड़ोगे नहीं। यह समर्पण नहीं है, यह तो हिंसा हुई।
समर्पण
का अर्थ है, स्वेच्छा से, अपनी मर्जी से। तुम पर कोई दबाव न था,
कोई जोर न था, कोई कह नहीं रहा था, कोई तुम्हे किसी तरह से मजबूर नहीं कर रहा था। तुम्हारा प्रेम था, प्रेम में तुम झुके, तो समर्पण। प्रेम में ही समर्पण
हो सकता है।
और
जहां प्रेम है,
अगर समर्पण न हो तो समझ लेना प्रेम नहीं है। आमतौर से लोग यह कोशिश
करते हैं कि प्रेम के नाम पर समर्पण करवाते हैं। तुम्हें मुझसे प्रेम है, करो समर्पण! अगर प्रेम है तो समर्पण होगा ही, करवाने
की जरूरत नहीं पडेगी। बाप कहता है कि मैं तुम्हारा बाप हूं तुम बेटे हो, मुझे प्रेम करते हो? तो करो समर्पण। पति कहता है पत्नी
से कि सुनो, तुम मुझे प्रेम करती हो? तो
करो समर्पण। प्रेम है तो समर्पण हो ही गया, करवाने की कोई जरूरत
नहीं है। जो समर्पण करवाना पड़े, वह समर्पण ही नही। जो हो जाए,
जो सहज हो जाए। अगर सहज न हो तो तुम एक झूठी मुद्रा में उलझ गए। एक
नकली मुद्रा में उलझ गए।
हम खोज रहे हैं उसे जो आसपास है
यह जिंदगी अपने लिए घर की तलाश है
जो भी मिला वो एक टुकडा उम्र ले गया
जुड़ता नहीं किसी से भी यह मन उदास है
जितने भी उजले ख्वाब थे वे रात बन गए
फिर भी न जाने कौन सी सुबह की आस है
पूजा के वक्त देवता पत्थर बना रहा
वैसे तो जर्रे—जर्रे में उसका निवास
है
कहते
तो यही है कि जर्रें—जर्रे में उसका निवास है, लेकिन पूजा के समय जर्रे—जर्रे की तो
छोड़ो, सामने रखा पत्थर वह जो देवता है, वह पत्थर ही बना रहता है।
पूजा
के वक्त देवता पत्थर बना रहा
वैसे
तो जर्रे—जर्रे में उसका निवास है
बना
ही रहेगा, क्योंकि यह कोई सिद्धांत की बात नहीं है कि जर्रे—जर्रे में उसका निवास है,
यह तो प्रेम की आंखों का अनुभव है। यह तो प्रेम से देखोगे तो
जगह—जगह दिखायी पड़ जाएगा। फिर पत्थर की मूर्ति में भी दिखायी पड़ जाएगा। मूर्ति की
भी जरूरत नहीं है, राह के किनारे पड़ी चट्टान में भी दिखायी
पड़ जाएगा। अगर प्रेम है तो उसके अतिरिक्त कोई है ही नहीं। प्रेम है तो बस परमात्मा
है। प्रेम नहीं है, तो परमात्मा नहीं है। परमात्मा के लिए कोई
और प्रमाण नहीं होता, बस प्रेम की आख। और जब तक यह प्रेम की
आँख न मिल जाए, तब तक तुम भटकते रहोगे उसको खोजते हुए जो
बिलकुल पास—पास है। जो सब तरफ से तुम्हें घेरा हुआ है। हम खोज रहे हैं उसे जो
आसपास है
यह
जिंदगी अपने लिए घर की तलाश है
दूर
चांद—तारों पर थोड़े ही भगवान बसा है, तुम्हारा पड़ोसी है। जब जीसस ने कहा,
अपने पड़ोसी को प्रेम करो, तो वह यही कह रहे थे
कि जो पास है, उसे प्रेम करो। तो उस पास में ही तुम्हें
परमात्मा दिखायी पड़ जाएगा। और जहा परमात्मा मिल गया, वहीं
अपना घर मिला गया। बिना प्रेम के तो कुछ और ही हो रहा है। जो भी मिला वो एक टुकड़ा
उम्र ले गया
जुड़ता
नहीं किसी से भी यह मन उदास है
बिना
प्रेम के तो लाख जोड़ो,
जुड़ेगा कैसे! प्रेम जोड़ता है, और तो कुछ जोड़ता
नहीं, और सब चीजें तोड़ती हैं। तो कुछ जिंदगी तुम्हारी पत्नी
ले गयी, कुछ तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे पति ले गए, कुछ बच्चे ले जाएंगे, कुछ मां—बाप ले गए। जो भी मिला
वो एक टुकड़ा उम्र ले गया आखिर में तुम पाओगे लुटे खड़े हो, मौत
आ गयी, जो कुछ बाकी बचा—खुचा है वह मौत ले जाएगी।
जुड़ता
नहीं किसी से भी यह मन उदास है
यह
जुड़ेगा भी नहीं। क्योंकि जोड़ की जो कीमिया है, वही तुम्हारे पास नहीं, प्रेम तुम्हारे पास नहीं।
जितने
भी उजले ख्वाब थे वे रात बन गए
फिर
भी न जाने कौन सी सुबह की आस है
कितने
संबंध टूट चुके,
कितने प्रेम, तथाकथित प्रेम गिर चुके, फिर भी तुम न मालूम किस सुबह की आस लगाए बैठे हो। हर सपना व्यर्थ सिद्ध हो
गया, फिर भी न मालूम सपनों में टटोल रहे, टटोल रहे, टटोल रहे। जागो!
सत्य
के लिए एक ही पात्रता चाहिए, वह है प्रेम की पात्रता। अगर तुम्हारे हृदय में
प्रेम आ जाए—और आ जाए कहना ठीक नहीं, भरा है वहा—सिर्फ तुम
बहाने की कला सीख जाओ। तुम उसे रोके बैठे हो, तुम बड़े कंजूस
हो, कृपण हो, जब भी प्रेम देने का मौका
आता है तुम एकदम रोक लेते हो, उसे बहने नहीं देते, बड़े सोच—सोचकर, फूंक—फूंककर कदम रखते हो प्रेम के
मामले में।
बांटो।
दोनों हाथ उलीचिए। जो मिले उसे बांट दो। और यह तो फिकर ही मत करो कि वह लौटाएगा कि
नहीं लौटाएगा,
प्रेम लौटता ही है। हजार गुना होकर लौटता है। इसकी भी फिकर मत करो
कि इस आदमी को दिया तो यही लौटाए। कहीं से लौट आएगा, हजार
गुना होकर लौट आएगा, तुम फिकर मत करो। प्रेम लौटता ही है।
ही, अगर न
लौटे, तो सिर्फ एक प्रमाण होगा कि तुमने दिया ही न होगा। अगर
न लौटे, तो फिर से सोचना—तुमने दिया था? या सिर्फ धोखा किया था? देने का दिखावा किया था या
दिया था? अगर दिया था तो लौटता ही है। यह इस जगत का नियम है।
जो तुम देते हो, वही लौट आता है—घृणा तो घृणा, प्रेम तो प्रेम, अपमान तो अपमान, सम्मान तो सम्मान। तुम्हें वही मिल जाता है हजार गुना होकर, जो तुम देते हो।
यह
जगत प्रतिध्वनि करता है,
हजार—हजार रूपों में। अगर तुम गीत गुनगुनाते हो तो गीत लौट आता है।
अगर तुम गाली बकते हो तो गाली लौट आती है। जो लौटे, समझ लेना
कि वही तुमने दिया था। जो बोओगे, वही काटोगे भी।
चौथा
प्रश्न:
बुद्ध
पुरूषों के साथ कथाएं क्यों जुड़ जाती हैं। कृपा करके समझाइए।
महत्वपूर्ण है यह।
सभी बुद्धपुरुषों के साथ पुराण कथाएं जुड़ जाती हैं। कारण है।
पहली
बात, बुद्धपुरुषों के जीवन से अगर हम कथाओं को अलग कर लें, तो बचता क्या है! कोरा खाका बचता है—बुद्ध कब पैदा हुए, किस तारीख को पैदा हुए, किस घर में पैदा हुए। लेकिन
इसको जानने से क्या होगा? पहली तारीख को पैदा हुए कि दूसरी
तारीख को पैदा हुए कि तीसरी तारीख को पैदा हुए, इससे क्या अंतर
पड़ता है! कभी पैदा हुए, इससे क्या अंतर पड़ता है! कब मरे,
इससे क्या अंतर पड़ता है! बुद्धपुरुषों का मूल्य तो कुछ ऐसी चीज से
है जो न कभी पैदा हुई और न कभी मरी। जो पैदा हुआ और मरा, वह
तो देह थी, वह तो रूप था। उसके संबंध में हिसाब रखने से कुछ
भी सार नहीं है। वह तो गौण है, असार है।
उस
असार पर ध्यान देता है इतिहास। पुराण पकड़ता है सार को। पुराण यह फिकर नहीं करता कि
बुद्ध कब पैदा हुए,
पुराण यह फिकर करता है कि बुद्धत्व क्या है? पुराण
अखबार नहीं है, घटनाओं की चिंता नहीं करता, घटनाओं के पीछे अंदर छिपी आभा को पकड़ता है।
दोनों
में बड़ा फर्क है। दोनों पकड़ने के बिलकुल अलग ढंग हैं।
बुद्धत्व
क्या है, यह एक बात है, और गौतम बुद्ध कौन हैं, यह बिलकुल दूसरी बात है। गौतम बुद्ध इतिहास के अंग हो जाएंगे। लेकिन
इतिहास में तुम क्या पाओगे? एक छोटी सी टिप्पणी कि गौतम
बुद्ध नाम का बेटा शुद्धोदन नाम के राजा के घर पैदा हुआ। मां का नाम यह था,
इतनी उम्र में घर छोड्कर चला गया। फिर इतनी उम्र में लोग कहते हैं
कि ज्ञानी हो गया, फिर इतनी उम्र में प्रचार करने लगा,
लोगों को समझाने लगा। फिर अस्सी साल की उम्र में मर गया। यह ऊपरी
ढांचा है। यह असली बात नहीं है। यह तो बहुत रेखाचित्र जैसा हुआ, इसमें मांस—मज्जा बिलकुल नहीं है। मांस—मज्जा तो बड़ी और बात है।
उस
रात जब बुद्ध ने अपना महल छोड़ा, तो बुद्ध के भीतर क्या हुआ? महल
छोडा, यह बाहर
की घटना है, यह इतिहास में आ जाएगी। लेकिन महल छोड़ते वक्त
बुद्ध की चेतना में कैसे तूफान उठे, कोई इतिहास उन्हें अंकित
नहीं कर सकता। कैसा आंदोलन उठा—उठा होगा आंदोलन, सुंदरतम
पत्नी को छोड्कर जाते थे, अभी— अभी पैदा हुए बेटे को छोड्कर
जाते थे—कैसा तूफान उठा? छोड्कर जब गए, आखिरी बार मन हुआ कि जाकर एक बार और देख लें, कम से
कम बेटे को देख लें, फिर दुबारा तो देखने मिले न मिले! बेटा
मां के आंचल में छिपा हुआ सो रहा था, करवट लिए यशोधरा सोयी
है। बुद्ध को मन हुआ कि आंचल उठाकर बेटे का मुंह देख लें। फिर सोचकर रुक गए कि अगर
आंचल उठाया, कहीं यशोधरा जग गयी, तो
फिर मैं जा सकूंगा या न जा सकूंगा? कहीं यशोधरा रोने लगी,
चीखने—चिल्लाने लगी, तो मैं जा सकूंगा या न जा
सकूंगा? तो बिना आहट किए चुपचाप लौट गए द्वार से।
अब
यह बात घटी कि नहीं,
यह बात महत्वपूर्ण नहीं है, मगर यह बात घटनी
चाहिए। इस फर्क को समझना। इतिहास कहेगा कि हम तो इसे तब लिखेंगे जब यह घटी हो।
पुराण कहेगा, यह घटी या नहीं घटी, यह
बात तो बिलकुल अर्थहीन है, लेकिन यह घटनी चाहिए। फर्क समझ
रहे हो! घटनी चाहिए।
जिस
स्त्री को प्रेम किया,
जिस स्त्री से बच्चा पैदा हुआ, तुम्हारा बेटा
पैदा हुआ, उसके द्वार तक न जाओगे? बुद्ध
गए कि नहीं, यह बात जरा भी महत्वपूर्ण नहीं है, मगर जाना चाहिए। मनुष्य का स्वभाव है कि जाएगा। यह मनुष्य के स्वभाव का
लक्षण है कि जाएगा—बेटे को तो देख लें!
फिर
दुविधा खड़ी हुई होगी—हुई या नहीं, खयाल रखना, महत्वपूर्ण
नहीं है—हों सकता है बुद्ध चुपचाप भाग गए हों, गए ही न हों
वहा। नहीं, लेकिन मुझे भी लगता है पुराण महत्वपूर्ण है,
बुद्ध को ले गया पुराण वहां। यह सभी मनुष्य के भीतर घटेगा।
तुम
थोड़ा सोचो, एक रात, आधी रात तुम घर छोड्कर जाने लगे, अपनी पत्नी को एक बार न देख लेना चाहोगे—जिसे इतना चाहा, जिसे सारी चाहत दी! अपने बेटे पर एक दफा हाथ न फेर लेना चाहोगे? यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह मनोवैज्ञानिक है। ऐतिहासिक है या नहीं,
इससे कुछ अर्थ नहीं।
तो
जिसने यह बात लिखी,
वह मनुष्य के मन को समझकर लिख रहा है। हो सकता है, बुद्ध जिद्दी किस्म के आदमी रहे हों और चले गए हों। लेकिन बात जंचेगी
नहीं। अगर ऐसा लिखा जाए कि बुद्ध चुपचाप उठे और चल दिए और लौटकर भी न देखा,
तो यह बात मानवीय नहीं है, अमानवीय हो जाती
है। आदमी तो लौट—लौटकर देखेगा, पछताएगा, सोचेगा हजार बार, लौट—लौट आएगा, जाकर भी लौट—लौट आएगा।
फिर
कथा कहती है—चलो यह भी बात समझ में आ जाती है कि शायद हुई भी हो, ऐतिहासिक
भी हो सकती है—जब बुद्ध अपने रथ पर सवार होकर चलने लगे तो उनके घोड़े की टापें इतने
जोर से पड़ती हैं कि सारा नगर जग जाएगा। राजा के घोड़े, राजा
का रथ, घोड़े की टापें—वे श्रेष्ठतम घोड़े थे उस समय के,
उनकी टापें इतने जोर से पड़ेगी कि सारा गांव जाग जाएगा, अड़चन हो जाएगी। पुराण कहता है, देवताओं को लगा कि
कहीं लोग जाग गए तो बुद्ध का यह जो महा अभिनिष्कमण है, रुक
जाएगा। देवताओं को लगा!
देवता
प्रतीक है शुभ का,
जैसे शैतान प्रतीक है अशुभ का। कोई देवता कहीं है, ऐसा नहीं है। लेकिन देवता प्रतीक है शुभ का—इस अस्तित्व को भी शुभ को
बचाने की आकांक्षा होती है, होनी चाहिए, ऐसा पुराण कहता है।
तो
देवताओं को लगा कि यह घोड़ों की टाप से तो बुद्ध का जाना न रुक जाए। बुद्ध का जाना
रुका, तो अनंत— अनंत काल में कभी कोई बुद्ध होता है, वह
महा घटना रुक जाएगी। अगर बुद्धू बुद्ध न हुए, तो करोड़ों लोग '
जो उनके पीछे चलकर बुद्धत्व की यात्रा करते, वे
वंचित रह जाएंगे। तो अस्तित्व में जो शुभ का तत्व है, उसने तत्क्षण
इंतजाम किया। उसने बड़े—बड़े कमल के फूल बिछा दिए, घोड़ों के
पैर कमल के फूलों पर पड़ने लगे, उनकी चोट गांव में किसी को
सुनायी न पड़ी।
अब
यह हुआ, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। मगर ऐसा होना चाहिए, यह
हमारी आकांक्षा है। पुराण मनुष्य की उदात्त आकांक्षा है।
पुराण
यह कह रहा है,
यह अस्तित्व हमारे प्रति उपेक्षापूर्ण नहीं हो सकता, जब तुम शुभ करोगे तो अनंत शक्तियां तुम्हारा साथ देंगी। इस बात को प्रतीक
में रख दिया। जब तुम बुरा करोगे, तब तुम अकेले, जब तुम भला करोगे, तो सारा अस्तित्व तुम्हारा साथ
देगा। होना भी ऐसा ही चाहिए! होना भी ऐसा ही चाहिए।
नहीं
तो फिर अस्तित्व का अर्थ हुआ कि वह तटस्थ है, उसे हमारे जीवन से कुछ लेना—देना
नहीं है —हम चोरी करें, हत्या करें, या
हम पुण्य करें, दान करें, हम प्रेम
करें कि घृणा करें, हम धन जुटाएं कि ध्यान में उतरें,
अस्तित्व को कोई प्रयोजन नहीं है। यह दुनिया बडी फीकी हो जाएगी।
इसका अर्थ हुआ, कुछ लेना—देना नहीं है अस्तित्व को, हम कुछ भी करते रहें। फिर हमारे करने का मूल्य क्या है? फिर हमने धन इकट्ठा किया कि ध्यान इकट्ठा किया, अगर
दोनों में अस्तित्व कोई भेद ही नहीं करता, तो फिर यहां साधु
—असाधु बराबर।
पुराण
कहता है, नहीं, अस्तित्व फिक्र करता है। जब तुम बुरा करते हो,
तब तुम अकेले, तब तुम्हें अस्तित्व साथ नहीं
देता। बुरे के तुम अकेले जिम्मेवार हो। तो बुरा करते वक्त खयाल रखना। और जब तुम
शुभ करते हो तो सारा अस्तित्व साथ देता है। अस्तित्व चाहता है कि शुभ हो। इस
महत्वाकांक्षा को, इस अभीप्सा को प्रगट किया है कथा में।
कथा
में तो प्रतीक होते हैं,
कहानी में तो प्रतीक होते हैं, प्रतीकों में
बात छिपी होती है। देवताओं ने कमल के फूल बिछा दिए, घोड़ों की
टाप किसी को सुनायी नहीं पड़ी। देवताओं ने ऐसी नींद फैला दी गांव में कि सारी
राजधानी गहरी निद्रा में खो गयी। जो द्वार था गांव का, उसके
खुलने की आवाज कोसों तक सुनायी पड़ती थी—पुराने राजकोटों के द्वार—जब द्वार खोला
गया तो सारा गांव जैसे क्लोरोफार्म दे दिया गया।
अब
ऐसा हुआ हो, यह सवाल नहीं है। यह पूछना ही मत कि ऐसा हुआ कि नहीं हुआ। यह पूछा कि
तुमने गलत प्रश्न पूछा। मगर ऐसा होना चाहिए। बुद्ध के महा अभिनिष्कमण की रात्रि,
जीवन के शुभतत्व ने सब तरह से साथ दिया।
पुराण
का अर्थ होता है,
जो दिखायी पड़ता है वही नहीं, जो अनदिखा है
उसको उघाड़ना है। जो दिखायी पड़ता है वह तो इतिहास पकड़ लेगा, जो
नहीं दिखायी पड़ता उसे पुराण पकड़ता है। पश्चिम में पुराण जैसी कोई बात नहीं है,
इसलिए पश्चिम का इतिहास दरिद्र है। पश्चिम के इतिहास में काव्य नहीं
है। जब इतिहास में काव्य जुड़ जाता है तो पुराण पैदा होता है। पूरब ने इतिहास नहीं
लिखा, पुराण लिखा, पश्चिम ने इतिहास
लिखा।
इसलिए
जब पश्चिम का कोई विचारक आता है तो वह व्यर्थ की बातें पूछता है, वह कहता
है कि बुद्ध इस तारीख में हुए कि नहीं हुए? इस पर वर्षों
मेहनत करते हैं लोग कि किस तारीख को पैदा हुए। हम इसकी चिंता ही नहीं करते,
हम कहते हैं, कोई भी तारीख काम दे देगी।
अब
देखो, बुद्ध के जीवन में यह उल्लेख है कि बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि में पैदा
हुए। फिर पूर्णिमा की रात्रि में ही संबोधि को उपलब्ध हुए, फिर
पूर्णिमा की रात्रि में ही मरे। यह बात पुराण की लगती है, इतिहास
की नहीं लगती। ऐसा हो भी सकता है संयोगवशांत, कोई आदमी
पूर्णिमा को ही पैदा हो, पूर्णिमा ही को ज्ञान को उपलब्ध हो,
पूर्णिमा को ही मरे, लेकिन यह बात जरा पौराणिक
मालूम पड़ती है, ऐतिहासिक कम। वही दिन पैदा होना, वही दिन ज्ञान को पाना, वही दिन मर जाना, इतना संयोग बैठना जरा मुश्किल होता है। यह शायद इतिहास की बात नहीं भी हो,
लेकिन यह बात मूल्यवान है।
पूर्णिमा
तो प्रतीक है पूर्णता का। उस पूर्णता के प्रतीक को पकड़कर पुराण कहता है, बुद्ध
पूरे पैदा हुए—पूर्णिमा की रात पैदा हुए—शीतल पैदा हुए, पूरी
छवि से पैदा हुए, पूरे सौंदर्य से पैदा हुए, अपूर्व अमृत को लेकर पैदा हुए। फिर पूर्णिमा की रात्रि ही उनके भीतर छिपा
हुआ यह अमृत बहा, प्रगट हुआ, स्फुटित
हुआ, यह कमल खिला। फिर पूर्णिमा की रात को ही बुद्ध ज्ञान को
उपलब्ध हुए, क्योंकि ज्ञान भी पूर्णिमा की रात्रि है। फिर
बुद्ध पूर्णिमा की रात्रि ही विदा हुए, क्योंकि मृत्यु भी
बुद्ध की पूर्ण होगी, जन्म भी पूर्ण होगा। बुद्ध के जीवन में
सभी पूर्ण है। इस बात को कहने के लिए कि बुद्ध के जीवन में सभी पूर्ण है, हमने यह प्रतीक चुन लिया, यह पूर्णिमा की रात्रि।
प्रतीक लोग अलग— अलग चुनते हैं, लेकिन प्रतीक मूल्यवान न
होकर, प्रतीकों में जो हम अर्थ डालते हैं वह मूल्यवान है।
इसलिए
बुद्धपुरुषों के पास पुराण खड़ा होता, पुराण कथाएं निर्मित होतीं। उन्हीं
पुराण कथाओं के अर्थ को पकड़ लेकर तुम बुद्धत्व को समझोगे कि क्या अर्थ है।
दुनिया
में दो तरह के नासमझ हैं। एक हैं जो सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि ये पुराण
कथाएं सच हैं,
ऐतिहासिक अर्थों में सच हैं, ये पागल हैं।
इनकी वजह से व्यर्थ की झंझट खड़ी होती है। ये कविताओं को सत्य सिद्ध करने में लग
जाते हैं। जैसे किसी ने कहा कि चांद को देखकर मुझे अपनी प्रेयसी की याद आ गयी,
और चांद ऐसे लगा जैसे मेरी प्यारी का मुखड़ा हो।
अब
तुम इससे झगड़ा करने लग सकते हो कि चांद और प्यारी के मुखड़े में कोई संबंध नहीं है।
कहा चांद, कहां प्यारी का मुखड़ा! तुम्हें कुछ होश है! कितना बड़ा चांद और कितना सा
मुखड़ा, छोटा सा। अब यह प्यारी के ऊपर इतना बड़ा चांद रख दो तो
मर ही जाएगी। और चांद, तुम्हें पता है, अभी तो वैज्ञानिक पत्थर—कंकड़ भी ले आए वहा से, वहा
कुछ सौंदर्य नहीं है। कंकड़—पत्थर, मिट्टी, खाई—खड्ड, यही है। कहां प्यारी का मुखड़ा और कहां
चांद! कहां खाई——खड्डों से तुम प्यारी के मुखड़े की बात कर रहे हो! होश में हो?
अगर
कोई ऐसी जिद्द करे तो मुश्किल में डाल देगा। तुम सिद्ध न कर पाओगे, तुम कहोगे
कि क्षमा करो, कविता लिखी, गलती हो
गयी।
मगर
तुम समझे नहीं। क्योंकि कविता जिसने लिखी थी वह यह कह भी नहीं रहा था, जो तुम कह
रहे हो। वह तो इतना ही कह रहा था कि कुछ साम्य, कुछ तालमेल,
चांद को देखकर किसी सौंदर्य का भीतर आगमन, चांद
को देखकर भीतर किसी लहर का जन्म लेना। वह लहर ठीक वैसे ही है जैसी मेरी प्रेयसी के
चेहरे को देखकर मेरे भीतर लेती है। उन दोनों सौंदर्यों में कुछ समता है, कुछ तालमेल है—एक ही वेवलेंथ—इतना ही कह रहा है वह।
यह
नहीं वह कह रहा कि चांद और मेरी प्रेयसी का मुखड़ा एक सी चीज हैं, वह कोई
गणित के हिसाब से नहीं बोल रहा है, वह इतना ही कह रहा है कि
चांद को देखकर भी मेरे भीतर कुछ वैसी ही कसमसाहट हो जाती है जैसी मेरी प्यारी के
चेहरे को देखकर हो जाती है। चांद के साथ भी मैं वैसा ही लवलीन हो जाता हूं जैसा
मैं अपनी प्यारी के चेहरे को देखकर लवलीन हो जाता हूं इतना ही कह रहा है। वह एक
साम्य की बात कर रहा है। और साम्य बड़ा बारीक है और साम्य चांद में और प्यारी के
चेहरे में नहीं है, साम्य उसके हृदय में है।
तो
जिन्होंने लिखा है कि बुद्ध पूर्णमा को पैदा हुए, बुद्ध पूर्णमा को ज्ञान को
उपलब्ध हुए, बुद्ध ने पूर्णिमा को शरीर त्यागा, हो सकता है यह पूर्णिमा उनके भक्तों के हृदय में हो, यह भक्तों ने अनुभव किया हो कि ऐसा होना ही चाहिए। बुद्ध और किसी और दिन
पैदा हो जाएं, यह बात जंचेगी नहीं। अब जैसे दसमी को पैदा हो
गए, जरा जंचेगी नहीं, जरा बेहूदा लगेगा,
ऐसा होना नहीं चाहिए कि बुद्ध और दसमी को पैदा हो गए! कि म्यारस को
ज्ञान हो गया! यह बात कुछ जंचेगी नहीं। जरा सोचो तुम, दसमी
को बुद्ध का पैदा होना जंचता नहीं, पूर्णिमा को बात बिलकुल
ठीक पड़ती है, ऐसा होना चाहिए। जिन्होंने बुद्ध को प्रेम किया
है, उनके हृदय में झांको तो बात खयाल में आ जाएगी।
जब
बुद्ध को ज्ञान हुआ,
तो कथाएं कहती हैं, जिस वन में निरंजना के तीर
पर बैठकर उनको ज्ञान हुआ, अचानक बेमौसम फूल खिल गए। अगर कोई
वैज्ञानिक इसका परीक्षण करने जाएगा तो मुझे लगता नहीं कि कोई बेमौसम फूल खिलेंगे।
लेकिन खिलने चाहिए। इतने लोगों के हृदय के फूल खिले, इसको
कैसे प्रगट करैं! इसको प्रगट करने के लिए एक व्यवस्था खोज ली, एक काव्य बनाया कि जब बुद्ध को ज्ञान हुआ तो वृक्षों में बेमौसम फूल खिल
गए। अभी मौसम न था, लेकिन इतनी बड़ी घटना घटी हो तो कौन मौसम
की और गैर—मौसम की फिकर करता है, यह मौका आ गया है कि फूल
खिलने ही चाहिए। सूखे वृक्ष पुन: हरे हो गए, जिनमें वर्षों
से अंकुर नहीं आए थे फिर अंकुर आ गए। होना चाहिए ऐसा। कितने सूखे हृदय अंकुरित
हुए! इसको कैसे कहोगे? कितने लोग जन्मों से सूखे पड़े थे,
बुद्ध का अमृतकण उन पर पडा और वे हरे हो गए और उनमें नए अंकुर आ गए
और जीवन ने नयी हरियाली देखी, नए गीत गाए। इस बात को प्रतीक
की तरह स्वीकार करके, तो फिर पुराण का अर्थ साफ हो जाएगा।
तो
एक तो इस तरह के पागल हैं,
जो सिद्ध करते हैं कि जो पुराण में लिखा है वह वैसा ही है। वे भी
पुराण की हत्या कर देते हैं। और दूसरे ऐसे भी पागल हैं, वे
कहते हैं कि जो भी पुराण में है वह सब असत्य है। वे भी हत्या कर देते हैं।
न
तो सब सत्य है और न सब असत्य है। पुराण में बडा काव्यात्मक सत्य है। काव्यात्मक
सत्य का अर्थ होता है,
सत्य बड़े प्यारे और मीठे ढंग से कहा गया है। जब हम किसी बात को
प्यारे और मीठे ढंग से कहते हैं तो असत्य का उपयोग किया जाता है। सत्य को इस ढंग
से उपयोग किया गया है और असत्य को इस ढंग से उपयोग किया गया है कि दोनों में विरोध
नहीं रहा। पुराण का अर्थ है, सत्य को कहने में असत्य का भी
उपयोग कर लिया है।
यह
बड़ी अदभुत बात है। होना ऐसा ही चाहिए कि असत्य भी सत्य की सीढ़ी बन जाए। असत्य का
भी उपयोग कर लिया,
उसको भी व्यर्थ नहीं जाने दिया। काव्य का भी उपयोग कर लिया, कथा का भी उपयोग कर लिया, उसको व्यर्थ नहीं जाने
दिया। कुछ छोडा नहीं, जीवन में जो भी था सबको ठीक से जमा
लिया उस महासंगीत के लिए।
तो
बुद्धपुरुषों के पास कथाएं पैदा होती हैं। अनूठी कथाएं पैदा होती हैं। उस आदमी को
मैं ठीक—ठीक समझदार आदमी कहता हूं, जो न तो पुराण को अक्षरश: सत्य
सिद्ध करने की चेष्टा करता है और न अक्षरश: झूठ सिद्ध करने की चेष्टा करता है। जो
पुराण को काव्य की तरह समझने की कोशिश करता है। और तब बड़े अर्थ प्रगट होते हैं।
ऐसे अर्थ जो किसी और ढंग से न तो लिखे जा सकते थे, न कहे जा
सकते थे। पुराण एक अनूठी शैली है जीवन के गहन सत्यों को प्रगट करने के लिए।
पांचवां
प्रश्न
कुछ
दिन पहले कुछ सांसारिक मन वाले भोगी कच्चे भिक्षुओं की चर्चा पर आपने प्रकाश डाला।
कृपा कर बताएं कि ऐसे बिन—पके लोगों को भी बुद्ध ने भिक्षु—दीक्षा क्यों दी?
पके लोग कहां से
लाओगे? पके ही लोग होते तो दीक्षा की जरूरत क्या थी? यह तो
तुमने ऐसा प्रश्न पूछा कि जैसे किसी डाक्टर से पूछो कि बीमारों का इलाज क्यों करते
हो? तो क्या स्वस्थ लोगों का इलाज किया जाए! बीमार का ही
इलाज होगा और कच्चे को ही दीक्षा देनी होगी।
दीक्षा
का अर्थ ही है कि पकाने का प्रयास। तो कच्चे को ही तो देनी होगी! पागल को ही तो
स्वस्थ करना है। बीमार को ही तो रोग से मुक्त करना है। उपाधियों के लिए ही तो औषधि
खोजनी है।
तो
तुम पूछते हो कि 'बुद्ध ने दीक्षा क्यों दी?'
कुछ
हमारा मन ऐसा है कि हम अपने में भूल—चूक खोजने की बजाय बुद्धों में भूल—चूक खोजने
में ज्यादा रस लेते हैं। अब यह कहानी ऐसी थी कि तुम्हें अपने भीतर देखना था कि
तुम्हारे भीतर भी ऐसा धन,
पद, मद का मोह तो नहीं छिपा है। वह तो नहीं
देखा। तुमने कहा, अरे, तो बुद्ध में
कुछ गड़बड़ मालूम होती है! ऐसे कच्चे आदमियों को दीक्षा ही क्यों दी? और जिस आदमी को इतना ही पता नहीं है, कौन कच्चा,
कौन पक्का, उसको और क्या पता होगा? तुम्हारा मन अपनी भूल में नहीं उतरता, तुम बुद्धों
की भूल में ज्यादा रस लेते हो। शायद बुद्धों की भूल पाकर तुमको थोड़ा मजा भी आता
है। मजा यह आता है कि देखो, अरे, इनसे
तो हमीं ज्यादा बुद्धिमान हैं! हमको दिखायी पड़ रहा है कि ये आदमी कच्चे हैं _
इनको दीक्षा नहीं देनी चाहिए और बुद्ध ने दे दी।
तो
पके आदमी कहां हैं?
तब तो फिर बुद्ध बुद्धों को ही दीक्षा दे सकते हैं। लेकिन बुद्ध
बुद्धों के पास दीक्षा लेने किसलिए जाएंगे! प्रयोजन क्या है!
खयाल
रखो, कच्चा आदमी ही जाता है। कच्चे आदमी को ही जरूरत है। बुद्ध के पास, बुद्ध की आंच में बैठकर पकेगा। तो यह कुछ अनहोनी घटना नहीं है कि तुम सोचो
कि यह कुछ बुद्ध की भूल थी।
तुम
यहां मेरे पास हो,
तुम क्या सोचते हो, तुम पके हो इसलिए दीक्षा
दे दी। तो दर्पण में अपना चेहरा देखना। तुम कच्चे हो और तुममें कच्चेपन की सारी
भूलें हैं। और सारी भूलों को जानते हुए दीक्षा दी गयी है। दीक्षा दी गयी है,
तुम्हारे भविष्य को ध्यान में रखकर, तुम्हारे
अतीत को ध्यान में रखकर नहीं। तुम अब तक क्या रहे हो, इसको
ध्यान में रखा जाए तो दीक्षा तुम्हें दी नहीं जा सकती। तुम क्या हो सकते हो,
उस आशा में दीक्षा दी गयी है। एक फल कच्चा है, कच्चा अब तक है, लेकिन पक सकता है न! उस पक सकने की
संभावना को दीक्षा दी गयी है। तुम कैसे हो, इसकी चिंता नहीं
है, तुम क्या हो सकते हो, तुम्हारी
अंतिम पराकाष्ठा को ध्यान में रखकर दीक्षा दी गयी है। तुम निखरोगे तो क्या हो
जाओगे, तुम आग से गुजरोगे तो कैसे स्वर्ण, कुंदन, कैसे शुद्ध कुंदन होकर निकल आओगे, उसको ध्यान में रखकर दीक्षा दी गयी है। तुम्हें ध्यान में रखा जाए तब तो
दीक्षा ही नहीं दी जा सकती।
तिब्बत
में कथा है। एक बहुत पहुंचा हुआ फकीर हुआ, वह जीवनभर इनकार करता रहा, वह किसी को दीक्षा न दे। क्योंकि वह इतनी शर्तें लगाए कि वे शर्तें कोई
पूरी न कर पाए, वह पक्के आदमी की तलाश में था। उसकी शर्तें
ऐसी थीं कि कोई आदमी पूरी कर ही नहीं सकता था। वह पूछे कि निर्विचार हो गए हो?
ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो गए हो? अब इस तरह की
बातें। अगर कोई ब्रह्मचर्य को और निर्विचार को उपलब्ध हो गया हो, तो महाराज, आपकी शरण क्यों आए! तो आपने अस्पताल
स्वस्थों के लिए खोल रखा है? धीरे — धीरे लोग हिम्मत ही छोड़
दिए, कोई पूछने की हिम्मत ही न करे कि महाराज, दीक्षा!
मरने
के पहले, तीन दिन पहले, उसने गांव में खबर भेजी कि जिसको भी
दीक्षा लेनी हो आ जाओ। लोग तो भरोसा ही न कर सके, क्योंकि यह
खबर आयी कि जिसको भी! कुछ लोग पता लगाने आए कि कुछ गलतफहमी तो नहीं हो गयी,
क्योंकि यह आदमी सत्तर साल से इनकार कर रहा है, एक आदमी को दीक्षा नहीं दी, आज बाजार में खबर भेजी
है कि जिसको भी, लेना उसको, नहीं लेना
उसको, वह भी आ जाए, उसको भी देंगे।
एक
आदमी खबर लेने भेजा। वह आदमी पहाडी की गुफा में चढ़कर गया, उसने कहा,
महाराज, ऐसी खबर पहुंची है गलत ही होनी चाहिए,
कि आपने कहा कि जिसको भी दीक्षा लेनी हो! उसने कहा कि ही, जिसको भी दीक्षा लेनी है और देर न करो, जो आना चाहता
है उसको ले ही आना। जरा भी इच्छा कोई प्रगट करे, उसको ले ही
आना। पर उस आदमी ने कहा, आप जिंदगीभर तो कहते रहे, ये—ये शर्तें पूरी... उस फकीर ने कहा, तुम समझे नहीं;
अब तक मैं योग्य ही नहीं था किसी को दीक्षा देने के, इसलिए बहाने खोजता था। बड़ी—बड़ी शर्तें लगा रखी थीं। अब मैं योग्य हुआ हूं
अब जो भी आए, चलेगा। और अब ज्यादा देर भी मैं यहां रहने
को
नहीं, केवल तीन दिन। तो तीन दिन मे जो भी आ जाए, दीक्षा दे
देनी है। जो मुझे मिला है, बांट देना है। अब पात्र—अपात्र की
फिक्र छोड़ो, बुरा—भला, इसकी फिक्र छोड़ो;
तुम तो गांव में जाकर डुंडी पीट दो कि मैं तीन दिन और हू। और मुझे उपलब्ध
हो गया है, इसलिए जिसे भी लेना हो, आ
जाए।
यह
कथा बडी महत्वपूर्ण है। बुद्धत्व को जो उपलब्ध हो गया है, वह तो
अंतिम को भी दीक्षा देने को तैयार हो जाएगा, हो ही जाना
चाहिए। जो आखिरी शिखर पर पहुंच गया है, उसकी करुणा इतनी होगी
कि जो नीचे खड्ड में पडा है, आखिरी खड्ड में पड़ा है, वह उसको भी पुकारेगा। जानते हुए कि तुम्हारे कपड़े कीचड से सने हैं और
तुम्हारे हृदय में बहुत घाव हैं। लेकिन यह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। ये तुम्हारी
भूल—चूके हैं, जो कि काटी जा सकती हैं, जो कि हटायी जा सकती हैं। ये घाव भर जाएंगे, यह कीचड़
धुल जाएगी। तुम्हारे कपड़ों को थोडे ही दीक्षा दी जा रही है, तुम्हें
दीक्षा दी जा रही है। तुम्हारे कर्म तो तुम्हारे वस्त्र हैं। तुमने बुरे कर्म किए हैं
तो कपड़े गंदे हो गए हैं। तुम्हारे नग्न स्वभाव को दीक्षा दी जा रही है।
जब
बुद्ध किसी को दीक्षा देते हैं तो देखते हैं—क्या हो सकता है? बीज को
थोड़े ही दीक्षा देते हैं, वृक्ष को दीक्षा देते हैं जो अभी
हुआ ही नहीं है।
जब
मैं तुम्हारे गले में माला डालता हूं तो तुम्हारे गले में थोड़े ही माला डालता हूं
उस गले में माला डालता हूं जो अभी होने को है। जब मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं
तो तुम्हें थोडे ही आशीर्वाद देता हूं क्योंकि तुम्हें तो आशीर्वाद मिल जाए तो
खतरा होगा। तुम तो अपनी गलतियों में और मजबूत होकर बैठ जाओगे। उसे आशीर्वाद देता
हूं जो जन्मने को है। तुम तो मात्र गर्भ हो, तुम्हारे गर्भ में जो छिपा है,
तुम तो मात्र बीज हो, तुम्हारे वृक्ष को
आशीर्वाद देता हूं।
स्वभावत:
दीक्षा के बाद भी तुम भूल—चूक करोगे। इसमें कुछ अड़चन नहीं है, करोगे ही।
और तुम भूल—चूक करोगे और बुद्धों का काम होगा कि वे तुम्हें सजग करते रहें,
चेताते रहें।
तो
ये बौद्ध भिक्षु बैठकर बात कर रहे हैं धन की, पद की, राज्य
की, बुद्ध चौंकाने के लिए पहुंच गए हैं कि अरे पागलो,
यह तुम क्या बात कर रहे हो!
तुम
यह मत समझना कि बुद्ध चौंके। बुद्ध जानते हैं कि यही बात होगी, और बात
क्या होगी! इस फर्क को समझ लेना। जब बुद्ध कहते
हैं, अरे भिक्षुओ ! तुम और ऐसी बातें कर रहे हो, तो तुम यह मत सोचना कि बुद्ध चौंक गए हैं। बुद्ध तो जानेंगे कि यही बातें होगी,
खाई—खड्ड में पड़े लोग और क्या करेंगे! जब बुद्ध ऐसा चौंकन्ना पन प्रगट
करते हैं तो वह सिर्फ भिक्षुओं को चौंका रहे हैं। वह कहते हैं कि तुमसे ऐसी
अपेक्षा नहीं है, उठो अब, बहुत हो गया,
अब छोड़ो भी, अब भिक्षु भी हो गए, अब ऐसी बात कर रहे हो! अब छोड़ो! जानते हुए कि अभी यह बात चलेगी। और क्या
तुम सोचते हो, उन भिक्षुओं ने उस दिन बात सुनकर छोड़ दी होगी!
इतनी जल्दी तुम भी नहीं छोड़ते, कोई भी नहीं छोड़ता। समय लगता
है, बार—बार चोट करनी पड़ती है। चोट करते ही रहनी पड़ती है।
गुरु की सतत चोट पड़ती रहती है, पड़ती रहती है, पड़ती रहती है, एक दिन बीज टूटता है।
छठवां
प्रश्न:
जीवन
के द्वंद्वात्मक विकास में और निर्द्वंद्व अवस्था में कैसा संबंध है?
निर्द्वंद्व अवस्था
ऐसी है जैसे बैलगाड़ी चलती है। तो उसके चाक के बीच की कील। कील नहीं घूमती चाक
घूमता है। और द्वंद्वत्मक अवस्था वैसी है जैसा घूमता हुआ चाक। चाक घूमता है न
घूमती हुई कील पर।
जो
घूम रहा है, वह संसार, और जो नहीं घूम रहा है, वही परमात्मा।
जो
कील की तरह तुम्हारे भीतर थिर है, वही तुम्हारा केंद्र, और
जो चाक की तरह तुम्हारे भीतर घूम रहा है—तुम्हारा मन—वही संसार। जो घूमता हुआ मन
है, वह द्वंद्वात्मक है, वह विकासशील
है, वह हो रहा है, रोज हो रहा है,
रोज जा रहा है, चल रहा है, चल रहा है। और तुम्हारे भीतर कुछ है जो न हो रहा है न उसको होना है,
है; शाश्वत है, थिर है',
उसका कोई विकास नहीं। जैसा है वैसा ही सदा से है।
जो
विकासमान है तुम्हारे भीतर—मन—वही है समय, टाइम, काल,
परिवर्तन। और जो तुम्हारे भीतर विकास के पार बैठा है, निर्द्वंद्व, असंग, सदा से
शांत, थिर, पालथी मारे, कभी हिला भी नहीं, अकंप, वह जो
अकंप तत्व तुम्हारे भीतर बैठा है वह है कालातीत, समय के
बाहर। संसार से स्वयं की तरफ जाने का अर्थ इतना ही है, चाक
से कील की तरफ जाना, घूमते को छोड़ना, न
घूमते को पकड़ना। क्योंकि घूमते के साथ खूब पिस लिए, चाक के
साथ बंधे रहोगे तो पिसोगे ही। चाक के साथ बंधा आदमी पिसेगा ही, कष्ट पाएगा ही। चाक तो घूमता रहेगा और आदमी भी उसके साथ पिसता रहेगा।
पुराने दिनों में सजा देते थे किसी को तो रथ के चाक से बांध देते थे। मर जाता आदमी
चाक के साथ घूमता—घूमता। ऐसी ही सजा हम भुगत रहे हैं और किसी और ने हमें चाक से
बांधा नहीं, हमने ही बांधा है, हमने ही
चुन लिया है कील को।
कबीर
का एक पद है। कबीर ने एक औरत को चक्की पीसते देखा, तो उनको खयाल आया कि इस
चक्की के दो पाट हैं और दो पाटों के बीच में जो भी पड़ जाता है वह पिस जाता है।
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
ज़ो
उन्होंने यह पद लिखा। जब उन्होंने यह पद कहा तो उनके बेटे कमाल ने कहा—कमाल था ही
कमाल—उसने कहा,
आपने ठीक से नहीं देखा, क्योंकि दोनों पाटों
के बीच में एक कील है, जिसने कील का सहारा ले लिया उसको कोई
भी नहीं पीस सका। आपने देखा, लेकिन बहुत गौर से नहीं देखा।
ठीक है, पाटों के बीच में जो पड़ गए वे पिस गए, लेकिन उनकी भी तो कुछ कहो..। कुछ गेहूं के दाने तुमने अगर कभी चक्की पीसी
है तो तुम्हें पता होगा, कुछ दाने बड़े होशियार होते हैं,
वे एकदम सरककर कील को पकड़ लेते हैं; सब पिस
जाएगा, जब त्उम चक्की का पाट उठाओगे, देखोगे
कुछ दाने जिन्होंने कील का सहारा पकड़ लिया, बच गए। ये कील का
सहारा पकड़ लेने वाले गेहूं ही बुद्धपुरुष हैं। और क्या। संसार में तो सब
द्वंद्वात्मक है।
धूल उड़ाता बगिया से पतझार गया
रितुपति फूल लुटाने वाला आएगा
किसके लिए रुका है मेला दुनिया में
किसके लिए उमरभर तक जग रोया है
विरह नहीं क्षणभर का जो सह सकता था
सुबह चिता को फूंक शाम घर सोया है
किसी एक के लिए नहीं रुकती हलचल
जाने कब से है ऐसी ही चहल—पहल
जाने वाला सूना कर घर—द्वार गया
धूम मचाता आने वाला आएगा
ओंठ सिसकते हैं जो, गीत
सुनाते हैं
तपती है जो धरा, वही बरखा
पाती
अग्नि—परीक्षा देता वह कंचन बनता
रोने वाली आंखें ही तो मुस्काती
धूप—छांव संग—संग रहते ज्वाला—पानी
अगर नहीं तो शाम—सुबह के क्या मानी
तन झुलसाता सूरज का अंगार गया
पथ छलकाता शशि का ग्वाला आएगा
ऐसे
द्वंद्व में—दिन गया तो रात, रात गयी तो दिन, सुख गया
तो दुख, दुख गया तो सुख—ऐसे द्वंद्व में चलता है मन। सफलता —
असफलता, हानि—लाभ, मान— अपमान, ऐसे द्वंद्व में डोलता है मन। मन की सारी गति द्वंद्वात्मक है। और जहा भी
द्वंद्व होगा, वहां कलह होगी। जहां भी दो होंगे, वहां घर्षण होगा; जहा घर्षण होगा, वहां शांति नही—शांति कैसे संभव है?
इसलिए
मन कभी शांत नहीं होता। जब तुम कभी—कभी कहते हो कि मन शांत कैसे हो, तो तुम
गलत प्रश्न उठा रहे हो। मन कभी शांत नहीं होता। मन तो जब होता ही नहीं तभी शांति
होती है। मन के अभाव में शांति होती है, मन कभी शांत नहीं
होता। जहा शांति है वहां मन नहीं और जहां मन है वहां शांति नहीं, क्योंकि मन की तो प्रक्रिया ही दो की है। हर चीज को तोड़कर संघर्ष में डाल
देना मन का सूत्र है—दुविधा, दुई, द्वैत।
तो
द्वंद्व में तो बड़ा आंतरिक घर्षण, कलह, पीड़ा, विषाद बना रहेगा। वही तो, वही तो बुद्ध कह रहे हैं
जीवन—वह जो द्वंद्व का, दो का, बाहर
का।
एक
निर्द्वंद्व जीवन है—भीतर का, एक का, अद्वैत का। उस एक
के जीवन में जो चला गया।
एक
झेन फकीर हुआ,
जब भी उससे कोई कुछ प्रश्न पूछता तो वह जवाब देने की बजाय एक अंगुली
ऊपर उठाकर बता देता। यही उसका उत्तर था। कुल जमा इतना उत्तर जीवनभर उसने दिया।
लेकिन मैं तुमसे कहता हूं जो भी उत्तर दिया जा सकता है, उसने
दे दिया।
मैं
रोज बोलता हूं मगर उतनी ही बात कह रहा हूं वह फकीर जो एक अंगुली उठाकर कह देता
था—एक। वह कहता था,
दो में रहे तो झंझट में, एक में गए तो सब ठीक।
दो यानी समस्या, एक यानी समाधि, समाधान।
दो यानी संसार, एक यानी निर्वाण। मगर इतना भी वह कहता नहीं
था, बस एक अंगुली।
जबवह
मर रहा था, तब उसके शिष्य इकट्ठे थे। उन्होंने कहा, शायद अब
मरते वक्त कुछ कह दे। कहा तो कुछ कभी नहीं। मरते वक्त, ठीक
मरते वक्त, आखिरी क्षण उन्होंने उसे हिलाया और कहा कि
गुरुदेव, अब तो कुछ कह दें! वह मुस्कुराया और उसने एक अंगुली
ऊपर उठायी और मर गया। बस एक अंगुली उठी रही। उसके नाम पर जापान में जो मंदिर बना
है, उसमें बस एक अंगुली की शतइr बनी
है—ऊपर उठी एक अंगुली।
मरते
वक्त भी उसने एक की तरफ इशारा किया। तुम जीवन में भी दो, मरने में
भी दो; जागने में भी दो, सोने में भी
दो। वह एक ही था—जीवन में भी एक, जागते—सोते, उठते—बैठते एक, मरते में भी एक। मरते क्षण में भी
कोई द्वंद्व न था। इतना भी द्वंद्व न था कि मरूं, कि न मरूं,
कुछ देर और रुकजाऊं, किन रुक जाऊं; यह अच्छा है कि बुरा है। जहा एक है, वहा तो चुनाव ही
नही—जो है, है; जैसा है, ठीक है।
जाने वाले को सजल विदा
आने वाले का स्वागत है
परिवर्तन जीवन का क्रम है
युग के पीछे पल का श्रम है
सृष्टिकार का चक्र न रुकता
— गति में स्थिरता विभ्रम है
जड़ चेतन की सजल नियति है
चंचलता में कल्पित यति है
वर्तमान गत पर आधारित
भावी इनका ही अनुगत है
षट ऋतुओं का पुनरावर्तन
सूर्य—चंद्र का नित्यावर्तन
पलभर को भी कभी न रुकता
प्रकृति नटी का चंचल नर्तन
कभी खिलेंगे कभी झरेंगे
सुमन सदा श्रृंगार करेंगे
नाश और निर्माण एक है
बीज वृक्ष के अंतर्गत है
वर्तमान गत पर आधारित
भावी इनका ही अनुगत है
यहां
तो वसंत है, पतझड़ है, फूल का खिलना है, फूल
का झड़ना है। यहां हर चीज दो में है। जन्म है और मौत है, जवानी
है और बुढ़ापा है, आज सब ठीक है और कल सब खराब हो गया,
आज सब खराब है और कल सब ठीक हो गया। यहां तो चाक के आरे जैसे नीचे
से ऊपर होते रहते हैं, ऐसा ही जीवन होता रहता है। यहां इस
द्वंद्व में कुछ भी थिर नहीं है।
और
थिर न होने के कारण बड़ी बेचैनी बनी रहती है, क्योंकि जो भी है उसका भरोसा नहीं
है, आज है, कल होगा कि नहीं होगा! पद
आज है, कल होगा कि नहीं होगा। धन आज है, कल होगा कि नहीं होगा। प्रियजन आज पास है, कल होगा
कि नहीं होगा। यहां तो सब चीजें इतनी तीव्रता से बदल रही हैं कि भरोसा किया ही
नहीं जा सकता। यहां तो अंधे ही भरोसा कर सकते हैं कि जौ है, वह
कल भी रहेगा। आख वाले तो देखेंगे कि परिवर्तन ही परिवर्तन है, थिर तो कुछ भी नहीं है। तो फिर हम उसकी तलाश करें जो परिवर्तन के पार है।
उसे खोजें, जो शाश्वत है, सनातन है।
उसकी खोज ही धर्म है।
कुछ
लोग प्रेम के माध्यम से पाते हैं उस एक को, क्योंकि प्रेम एक को उदघाटित कर
देता। क्योंकि प्रेम का अर्थ ही है, दो को एक बना लेना। भक्त
जब भगवान के साथ एक हो जाता, तब पकड़ ली कील, तब अब दो पाट उसे नहीं पीस सकते। या, दूसरी
प्रक्रिया है, ध्यान। छोड़ दिया मन, बन
गए साक्षी। जब साक्षी बन जाते हैं, धीरे—धीरे, धीरे— धीरे मन शांत होता जाता है, शांत होता जाता है,
एक दिन खो जाता, शून्य हो जाता। जब मन शून्य
हो जाता है और साक्षी बचता है, तो फिर बचा एक।
भक्त
भगवान के साथ अपने प्रेम को जोड़कर एक हो जाता, ध्यानी संसार के साथ अपने को तोड़कर
एक रह जाता। मगर दोनों प्रक्रियाएं एक होने की प्रक्रियाएं हैं। बुद्ध का मार्ग
ध्यान का मार्ग है, साक्षी का मार्ग है, वैसा ही जैसा अष्टावक्र का। सहजो, दया, मीरा, उनका मार्ग भक्ति का मार्ग है। परमात्मा को
अपने से जोड़ लेना है, ऐसा जोड़ लेना है कि जरा भी बीच में कुछ
फासला न रह जाए। यह पता ही न चले कौन भक्त, कौन भगवान,
उस घड़ी में दो खो गए। या, साक्षी का भाव
निर्मित ही जाए, उस घड़ी में भी दो खो गए।
किसी
तरह दो खो जाएं,
किसी भी तरह, किसी भी व्यवस्था से तुम चाक की
कील पर आ जाओ। उस कील में शाश्वत शांति है, शाश्वत सुख है।
उस कील पर पहुंच जाने में तुम अपने केंद्र पर ही नहीं पहुंचे, अस्तित्व के केंद्र पर पहुंच गए। फिर कोई दुख नहीं। उसे कुछ लोग मोक्ष
कहते हैं, कुछ लोग निर्वाण कहते हैं, शब्दों
का ही भेद है। लेकिन जिसने उस शरण को पा लिया, एक की शरण को,
उसके जीवन से सारे कष्ट ऐसे हो तिरोहित हो जाते हैं जैसे सुबह सूरज
के ऊगने पर ओस के कण विदा हो जाते हैं। या जैसे दीए के जलने पर अंधेरा खो जाता है।
जब
तक तुम इस एक को न पा लो,
तब तक बेचैनी जाएगी नहीं। जब तक तुम इस एक को न पा लो, तब तक तुम तृप्त होना भी नहीं। तब तक इसकी खोज (जारी रखना। तब तक जो भी
दाव पर लगाना पड़े, लगाना, क्योंकि यही
पाने योग्य है। और सब पाकर भी कुछ पाया नहीं जाता। और इस एक को जो पा लेता है,
वह सब पा लेता है। इक साधे सब सधे, सब साधे सब
जाए।
आज
इतना ही।
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