ध्यान के कमल-(साधना-शिविर)
ओशो
प्रवचन-आठवां-(ध्यान: मन की मृत्यु)
थोड़े से सवाल हैं। एक मित्र ने पूछा है कि सुबह
के ध्यान में शरीर बिलकुल ही गायब हो जाता है। और जो बचता है वह बहुत विशाल, ओर-छोर से परे लगता है। पर ध्यान के बाद शेष दिन में शरीर का बोध फिर शुरू
हो जाता है, फिर क्षुद्र शरीर का अनुभव होने लगता है। तो
क्या यह सब अहंकार की ही लीला है?
इस संबंध में तीन बातें खयाल में लेनी चाहिए। एक तो ध्यान में जैसे ही
गहराई बढ़ेगी, शरीर तिरोहित हो जाएगा। या कभी-कभी बहुत विशाल हो
जाएगा। या कभी ऐसा भी हो सकता है कि बहुत क्षुद्र, बहुत छोटा
भी हो जाएगा; जितना है उससे भी छोटा मालूम पड़ेगा। शरीर की
प्रतीति मन पर निर्भर है। यदि मन बहुत फैल जाता है तो शरीर फैला हुआ मालूम पड़ने
लगता है। मन अगर बहुत सिकुड़ जाता है तो छोटा मालूम पड़ने लगता है। शरीर की सीमा
वस्तुतः मन की सीमा से ही प्रतीत होती है। यह अनुभव सिद्ध है।
और अहंकार की लीला
नहीं है, ध्यान का परिणाम है।
लेकिन ध्यान के बाद स्वाभाविक है कि फिर शरीर जितना था उतना ही मालूम
पड़ने लगे। इसमें चिंतित होने की कोई भी बात नहीं है। जिन मित्रों को ऐसा हो रहा हो, दिन में जब भी उन्हें सुविधा मिले, एक-दो क्षण को भी,
तो आंख बंद कर लें और पुनः शरीर के विराट होने को अनुभव करते रहें।
दिन में दो-चार बार अनुभव करें। रात सोते समय पुनः अनुभव कर लें। सुबह उठते वक्त
पुनः दो क्षण। जिसको भी ऐसा अनुभव हो रहा है, वह आंख बंद
करते ही पुनः अनुभव कर सकेगा।
इसका परिणाम यह होगा कि धीरे-धीरे आपको यह पता चलेगा कि शरीर मन का ही
खेल है। उसका छोटा होना, बड़ा होना, जवान होना, बूढ़ा होना, जन्मना, मरना,
सब मन का ही खेल है। और जब शरीर इतने रूप बदल सकेगा आपके समक्ष,
तो शरीर के साथ जो तादात्म्य है, आइडेंटिटी है,
वह टूट जाएगी। तब आप अपने को शरीर न मान सकेंगे। जो शरीर इस भांति,
स्वप्न की भांति छोटा और बड़ा, मिटता और बन
जाता है, उस शरीर के साथ आप अपने को एक न मान सकेंगे। बल्कि
शरीर की जो फिक्स्ड फॉर्म है, शरीर का जो सुनिश्चित रूप हमने
बना रखा है, वह धीरे-धीरे डगमगा जाएगा। और आपके ऊपर से
फिक्सेशन, बॉडी फिक्सेशन, जो शरीर का
ठोस रूप बैठ गया है, वह पिघल कर गिर जाएगा। और धीरे-धीरे आप
अपने को अशरीरी अनुभव करने लगेंगे। अशरीरी अनुभव करने के पहले शरीर के बहुत रूपों
का अनुभव बहुत सहयोगी है।
अभी आप शरीर के एक ही रूप को जानते हैं, जो आपके भौतिक शरीर
की रूप-रेखा है। उससे आपने अपने को एक कर रखा है। यदि दिन में आपको दस-पांच बार
ऐसा होता रहे कि शरीर छोटा हो जाता, बड़ा हो जाता, विराट हो जाता, कभी होता है, कभी
खो जाता है, तो आप धीरे-धीरे शरीर की इस धारा, परिवर्तित धारा, रूपों के इस परिवर्तन के बीच साक्षी
अपने आप बन जाएंगे। तब आप अनुभव करेंगे कि मैं वह हूं जो शरीर के छोटे होने को भी
देखता है, बड़े होने को भी देखता है, खो
जाने को भी देखता है, बन जाने को भी देखता है। मैं शरीर नहीं
हूं, शरीरों का द्रष्टा हूं।
तो जिसको भी ऐसा अनुभव हो रहा हो, वह दिन में दो-चार
बार उस अनुभव में पुनः उतर जाए। यह मन के फैलने-सिकुड़ने का खेल है। यह अहंकार की
लीला नहीं है, लेकिन यह अहंकार की लीला बन सकती है। यदि आप
इस बात से बड़े गौरवान्वित हो जाएं कि मैंने बड़ी उपलब्धि कर ली कि मेरा शरीर बड़ा हो
जाता है, ऐसा मैं अनुभव कर लेता हूं और मेरा शरीर छोटा हो
जाता है, ऐसा मैं अनुभव कर लेता हूं। या आपने इसमें किसी तरह
का अहंकार का रस लिया कि मैंने कुछ पा लिया जो दूसरों को नहीं मिला है, तो अहंकार की लीला शुरू हो जाएगी। और अहंकार अपने को ध्यान की प्राथमिक
अनुभूतियों से भी सुदृढ़ कर सकता है। और अक्सर जहां अहंकार शुरू हुआ, वहीं ध्यान रुक जाता है। इसलिए इसको कोई विशेष बात मत मानना कि कोई बहुत
बड़ी घटना घट रही है। समझना कि ध्यान का साधारण परिणाम है। इसमें कुछ गौरवान्वित
होने का या दूसरों से अपने को ऊंचा मानने का या भिन्न मानने का कोई भी कारण नहीं
है।
और ध्यान में जो भी साधक प्रवेश कर रहे हैं उन सभी के लिए यह सूचना
उपयोगी है कि उन्हें कुछ भी हो, कोई भी अनुभव हो, उस अनुभव को अहंकार का भोजन मत बनने देना। उससे अपने को कुछ विशिष्ट मानने
का कारण नहीं है। जैसे ही हमने माना कि मैं कुछ विशिष्ट हो गया--क्योंकि मुझे
प्रकाश दिखाई पड़ा, क्योंकि मुझे ऊर्जा ऊपर की तरफ जाती हुई
मालूम पड़ी, क्योंकि मैंने प्रभु की सन्निधि अनुभव की--जैसे
ही हमने माना कि मुझे कुछ हो गया है जो विशेष है, तो अहंकार
को भोजन हमने देना शुरू कर दिया। और जिस क्षण कोई भी उपलब्धि अहंकार से जुड़ जाती
है, उसी क्षण उपलब्धि की आगे की यात्रा अवरुद्ध हो जाती है।
और जब कोई चीज अवरुद्ध होती है, तो आप उसी जगह रुके नहीं रह
सकते, बहुत जल्दी आप वापस नीचे गिर जाएंगे।
एक मित्र ने पूछा है कि पहले दिन मुझे बहुत गहरा अनुभव हुआ और दूसरे
दिन से मैं रास्ता देख रहा हूं, लेकिन वैसा अनुभव नहीं हो रहा
है।
वह नहीं होगा। क्योंकि पहले दिन जो अनुभव हुआ वह अहंकार का हिस्सा बन
गया। माना कि बहुत गहरा अनुभव मुझे हुआ है। अब यह अहंकार दूसरे दिन से प्रतीक्षा
करेगा कि मुझे तो होना ही चाहिए, क्योंकि मुझे हो चुका है। अब
नहीं होगा तो फ्रस्ट्रेशन, विषाद मन को पकड़ेगा।
और ध्यान रखें, जहां अहंकार ने रस लिया, जहां
अहंकार ने श्वास ली, वहीं प्रक्रिया रुक जाती है। तो अगर
आपको गहरा अनुभव हो, हो जाने दें। फिर उसे भूल जाएं कृपा
करके। उसे स्मृति का हिस्सा बनाने की जरूरत नहीं। और दूसरे दिन उसकी प्रतीक्षा
करने की भी जरूरत नहीं। अपेक्षा करने की भी जरूरत नहीं। क्योंकि पहले दिन इसीलिए
हुआ था कि आपके अहंकार को कोई भी पता नहीं था कि हो सकता है। तो अहंकार मौन था। अब
दूसरे दिन नहीं होगा। क्योंकि अहंकार भीतर खड़ा है, वह कह रहा
है कि कब हो, अब होना चाहिए। क्योंकि मुझे हुआ है, तो अब होना चाहिए। अब आप आक्रामक हो गए। उस अनुभव के लिए अब आप एग्रेसिव
हैं। अब आप पैसिव नहीं हैं। अब आप प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं, अपेक्षा कर रहे हैं। पहले दिन आपको कुछ भी पता न था।
इसलिए अक्सर यह होता है कि जब आपको कुछ भी पता नहीं होता, बल्कि आप जानते हैं कि आपको क्या होगा, तब हो जाता
है। क्योंकि अहंकार बीच में नहीं होता। जब हो जाता है, तब
अड़चन शुरू होती है, क्योंकि अहंकार खड़ा हो जाता है। वह कहता
है, ठीक, अब तो मुझे होना ही चाहिए।
फिर होना बंद हो जाता है।
इस अंतर्यात्रा में 'होना ही चाहिए' जैसे शब्द को बिलकुल भूल जाना। यहां कोई शर्तें नहीं हैं। जो हुआ है,
अगर आपने बहुत जोर से पकड़ा, तो दुबारा कभी
नहीं होगा। और अक्सर ऐसा होता है कि साधना की प्रक्रिया में जब कभी कोई गहन
अनुभूति पहली दफे उतरती है, तो साधक इस बुरी तरह उससे चिपट
जाता है कि उस जन्म में दुबारा उसे नहीं उपलब्ध कर पाता। फिर दूसरे जन्म तक
प्रतीक्षा करनी पड़ती है, जब तक कि स्मृति बिलकुल दब न जाए और
भूल न जाए।
तो ध्यान रखना, न होने से भी कभी-कभी होना खतरनाक सिद्ध हो सकता है,
अगर अहंकार ने उसमें रस लिया। अगर आपको हो भी तो उसे आप ऐसा मत
समझना कि मुझे हुआ है, ऐसा ही समझना कि प्रभु की अनुकंपा है।
इन दोनों में फर्क है। इसलिए ध्यान के बाद मैं निरंतर आपको कहता हूं
कि प्रभु का अनुग्रह स्वीकार कर लें। वह इसी कारण ताकि आपको खयाल बना रहे कि यह
उसका प्रसाद है, मेरी उपलब्धि नहीं। यह मैंने नहीं पाया, उसने दिया है। अगर मैंने पाया है, तो मैं कल फिर
पाने की कोशिश करूंगा। और अगर उसने दिया है, तो मैं
प्रतीक्षा करूंगा। दे उसकी मर्जी, न दे उसकी मर्जी।
और ध्यान रहे, आप सभी से कहता हूं कि उसे धन्यवाद दें। उनसे भी
जिन्हें कुछ हो रहा है और उनसे भी जिन्हें कुछ नहीं हो रहा है। क्योंकि अगर आप
देते समय ही धन्यवाद दें और उसके न देते समय धन्यवाद न दें, तो
आपका धन्यवाद भी अहंकार का हिस्सा बन जाएगा। जब न हो तब भी अनुग्रह होना चाहिए।
क्यों? क्योंकि हो तब तो अनुग्रह समझ में आता है कि मुझे कुछ
हुआ, तो मैं धन्यवाद दूं। न हो तब तो अनुग्रह और धन्यवाद की
कोई बात समझ में नहीं आती। लेकिन अनुग्रह का राज यही है कि जो न हो तब भी धन्यवाद
दे पाए, तभी जब हो तो दिया गया धन्यवाद अनुग्रह होगा। अन्यथा
वह भी अहंकार हो जाएगा।
लेकिन कैसे? जब न हो तो हम धन्यवाद किसलिए दें?
तब हमें इसलिए धन्यवाद देना चाहिए कि शायद मेरी अभी तैयारी न हो, शायद मैं अभी इस योग्य नहीं, शायद मैं अभी पात्र
नहीं, शायद अभी मुझे अनुभव हो जाए तो नुकसान पहुंचे, इसलिए उसकी कृपा है कि अभी उसने मुझे नहीं दिया।
दो बातें हैं, फर्क समझ लें। अहंकार कहेगा, जब
होगा तो अहंकार कहेगा, मैं पात्र हूं, योग्य
हूं, कुशल हूं, साधक हूं, इसलिए मुझे हुआ है। जब नहीं होगा, तो अहंकार दुख
अनुभव करेगा। और धन्यवाद देने की जगह भीतर कहीं क्रोध की रेखा सरकेगी।
यह खतरनाक है। इससे विपरीत स्थिति चाहिए साधक की। जब हो, तब मानना चाहिए कि मैं तो योग्य नहीं था, पात्र नहीं
था, क्षमता मेरी नहीं थी, सब तरह से
अयोग्य था, फिर भी प्रभु की अनुकंपा है इसलिए हुआ है। जब न
हो, तब जानना चाहिए कि यह भी उसकी अनुकंपा है। शायद यह अनुभव
अभी मुझे हो जाए तो अकल्याणकारी हो, अमंगलकारी हो, इसलिए उसने रोका है। अन्यथा उसकी करुणा का कोई पार नहीं है। इस भाव से जो
साधक चलेगा तो अहंकार अपना खेल नहीं दिखा पाता है। अन्यथा बाहर के जगत से भी भीतर
के जगत की उपलब्धियां अहंकार के लिए ज्यादा रसपूर्ण हैं। और अकड़ भीतर पैदा होती
है। उससे सावधान होना उपयोगी है।
एक मित्र ने पूछा है कि वे हृदय रोग से पीड़ित रहे
हैं, तो क्या यह नाचना, यह कूदना
स्वास्थ्य के लिए खतरनाक तो न हो जाएगा?
यह कहना थोड़ा मुश्किल है, क्योंकि यह बहुत सी
बातों पर निर्भर करता है। यदि वे अपने शरीर को भूल कर परमात्मा को ही स्मरण रखें,
तो कभी भी नुकसानदायक नहीं हो सकता है। लेकिन परमात्मा को स्मरण ही
न रखें, हृदय की दुर्बलता को ही स्मरण रखें, तो बहुत नुकसानदायक हो सकता है। इट डिपेंड्स। आपका ध्यान क्या है? अगर आप अपने शरीर को भूल गए हैं, तो कोई भी नुकसान
कभी नहीं हो सकता। और अगर नुकसान भी हो जाए, तो वह भी लाभ
है।
पहले तो नुकसान नहीं हो सकता, क्योंकि कोई कारण
नहीं है। जिसने अपने शरीर को पूरा परमात्मा के लिए छोड़ दिया, उसके हृदय वगैरह को धड़काने का जिम्मा अब उसके ऊपर नहीं रहा, अब वह परमात्मा के ऊपर है। और जिस परमात्मा की सहज मौजूदगी से इतना बड़ा
जगत चलता है, उसकी सहज मौजूदगी से आपके हृदय की धड़कन न चलेगी,
ऐसा मानने का कोई भी कारण नहीं है। और अगर उसके स्मरण से भरे हुए इस
क्षण में यदि धड़कन बंद भी हो जाए, तो अनुगृहीत होना चाहिए।
क्योंकि धड़कन कभी तो बंद होगी ही, लेकिन पता नहीं उस समय यह
स्मरण का क्षण साथ होगा या नहीं होगा।
एक तो नुकसान होगा नहीं, लेकिन जिसे हम नुकसान
कहते हैं वह अगर हो भी जाए परमात्मा के स्मरण में, तो उससे
शुभ घड़ी दूसरी नहीं है, वही काल-क्षण है, जिसमें गया हुआ व्यक्ति वापस नहीं लौटता है।
लेकिन अगर आप इसी डर से भयभीत--कि कहीं हृदय को कुछ गड़बड़ न हो
जाए--हृदय के ही खयाल से भरे हुए नाचेंगे-कूदेंगे, तो निश्चित ही नुकसान
हो जाने वाला है। तो यह आप पर निर्भर करता है।
और आप समझ लें। और अगर हृदय के ही खयाल में डूबे हुए हैं, तो मत करें। तो मत करें। लेकिन एक बात ध्यान रखें कि हृदय की धड़कन बंद
होकर ही रहेगी! उसे कब तक सम्हाले रहिएगा? और सम्हाल कर भी
क्या पा सकेंगे? सिर्फ धड़का लेंगे। क्या है उसकी उपलब्धि?
शरीर थोड़े दिन और चल जाए, उसकी उपलब्धि क्या
है?
शरीर का प्रयोजन ही यह है कि हम अशरीरी को जान लें। अगर अशरीरी को
जानने में ही शरीर बाधा बन रहा हो, तो उस शरीर को रखने
का अब कोई कारण नहीं, कोई अर्थ नहीं। इतना साहस हो तो मजे से
नाचें और कूदें। जीएं तो भी ठीक है, उसमें मिट जाएं तो भी
ठीक है। इतना साहस न हो तो अपने को सम्हाले रखें, फिर उस
प्रक्रिया में मत उतरें।
एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि क्या यह
नाचने-कूदने के बिना ध्यान नहीं हो सकता है?
ध्यान तो हो सकता है। ध्यान तो बिना कुछ किए हो सकता है। लेकिन
जिन्होंने पूछा है उनको नहीं हो सकेगा। ध्यान तो बिना कुछ किए हो सकता है। जरा से
कंपन के बिना हो सकता है। ध्यान का मतलब ही यह है कि जहां कोई मूवमेंट न हो, जहां सब कंपन रुक जाएं। लेकिन जो नाचने से भयभीत है, या सोचता है कि इससे बच जाएं, उसे नहीं हो सकेगा। और
वह हर चीज से भयभीत हो जाएगा।
मैं तो ध्यान की न मालूम कितनी प्रक्रियाओं का उपयोग किया हूं। जिस
प्रक्रिया का उपयोग करता हूं, लोग उसी में पूछते हैं कि इसके
बिना नहीं हो सकेगा? अगर उनको कहो कि डीप ब्रीदिंग करो। तो
लोग आ जाते हैं पूछने कि ऐसी कोई तरकीब नहीं है कि डीप ब्रीदिंग न करनी पड़े,
यह गहरी श्वास न लेनी पड़े?
मैंने लोगों को कहा कि शांत होकर लेट जाओ। तो वे आकर कहते हैं कि शांत
होकर लेटने से तो कुछ भी नहीं होता। उनको मैंने कहा, कुछ मत करो, सिर्फ मौन रहो। वे कहते हैं, मौन तो हम रह जाते हैं,
लेकिन भीतर विचार चलते रहते हैं। कोई और रास्ता बताइए।
जिस मन से आप यह सलाह ले रहे हैं, जो कहता है कि कोई और
रास्ता बताइए, वह निरंतर कहता रहेगा--जो भी ध्यान की
प्रक्रिया होगी उसी में कहेगा--कोई और रास्ता बताइए। क्योंकि वह डरता है मरने से।
वह मन डरता है मरने से। और ध्यान है मन की मृत्यु। वह हर तरफ से आपको रोकेगा।
तो आप इसकी चिंता छोड़िए कि कोई और तरकीब हो सकती है।
नहीं! क्योंकि वह इस तरकीब में बाधा उठा रहा है, हर तरकीब में बाधा उठाएगा। हर तरकीब में वह कहेगा कि इसकी क्या जरूरत है?
एक मित्र आए, वे कहते हैं कि संन्यास तो मुझे लेना है, लेकिन गेरुए कपड़े में नहीं लेना है। गेरुए कपड़े की क्या जरूरत है?
तो मैंने उनसे कहा, संन्यास की ही क्या जरूरत है?
यह खयाल ही छोड़ो!
नहीं, संन्यास तो मुझे लेना है।
तो मैंने कहा, जिन कपड़ों में तुम रह रहे हो, इनकी
भी क्या जरूरत है? और इनमें तुम रह लिए पचास साल, तुम्हें क्या मिल गया है? तो फिर इनको बदलने में
इतनी घबड़ाहट क्या है?
नहीं, वे कहते हैं, गेरुए कपड़े से
क्या होगा?
तो मैंने उनसे कहा कि अगर कुछ भी नहीं होगा, तो बदल लो, फिर दिक्कत क्या है? जब बदलने में डर लगता है, तो जरूर कुछ होगा। जो आदमी
सहज तैयार हो जाता है मेरे पास आकर कि ठीक है, गेरुआ पहना
दें, या काला कपड़ा पहना दें, या मुझे
नग्न कहें तो मैं नग्न हो जाऊं। उससे मैं नहीं कहूंगा कि तू कपड़े बदल। उसको कोई
फायदा नहीं होगा। उसको मैं कहूंगा, तू जैसा है ठीक है,
चलेगा।
लेकिन जो आदमी कहता है कि नहीं; यह जरा दिक्कत देगा।
उसको तो फायदा होने वाला है। वह दिक्कत जिस मन से हो रही है, उस मन को ही तोड़ने के लिए तो सवाल है। लेकिन मजा यह है कि जिसको कोई फर्क
नहीं पड़ेगा, वह बाधा नहीं डालता, वह
कहता है, मैं राजी हूं। और जिसको फर्क पड़ सकता है, वह बाधा डालता है। असल में बाधा ही वही डालता है जिसको फर्क पड़ सकता है।
जिसको कपड़े बदलने से फर्क पड़ सकता है, वही बाधा लेकर आता है।
जिन मित्र ने पूछा है कि नाचने के अलावा कोई उपाय नहीं है, अगर वे लंगड़े हों, तो समझ में आ सकता है, अगर बिस्तर पर पड़े हों, पैरालाइज्ड हों, तो उनके लिए मैं कोई रास्ता बताऊं। लेकिन अगर पैर ठीक हों, लकवा न मार गया हो, और नाच सकते हों, तो नाचें, उनको नाच से ही होगा।
नाच का जो भय है, वह भय ही अगर नाच से टूट जाए,
तो भीतर बड़ी गति हो जाए। भय ही हमारा उपद्रव है। हर चीज से भयभीत
हैं। माला ले लेते हैं लोग मुझसे, फिर उसको कमीज के भीतर
छिपा कर चलते हैं।
उसका प्रयोजन खत्म हो गया। उसको कमीज के भीतर छिपानी थी, तो नहीं थी तो क्या हर्ज था! बराबर हो गई बात। उसमें कोई अर्थ न रहा। इसका
भी डर है कि कोई यह न पूछ ले कि यह माला क्यों पहनी? जैसे कि
आप जिम्मेवार हैं सारी दुनिया को बताने के लिए कि मैं क्या पहनता हूं, क्या नहीं पहनता हूं। किसी को हक ही क्या है पूछने का? लेकिन इतनी भी हिम्मत नहीं है कहने की कि मेरा गला मेरा है, इसमें मुझे माला डालनी है तो आप क्यों परेशान हैं? कम
से कम इतनी स्वतंत्रता तो मुझे दो कि मैं अपने गले में कुछ डालना चाहूं तो
डाल-उतार सकूं।
जो आदमी अपने गले में माला भी नहीं डाल सकता, वह ठीक से समझ ले कि समाज ने उसके गले में फांसी लगा रखी है। और वह राजी
है फांसी के लिए। अपना गला इतना नहीं कि माला डाल सकें, तो
और क्या आपका अपना होगा? और अपना शरीर इतना नहीं कि उस पर हम
कपड़े गेरुआ डालना चाहें तो डाल सकें, तो आपके पास और अपनी
आत्मा होगी?
अपना शरीर भी नहीं है, तो अपनी आत्मा बहुत
दूर की बात है। आपके पास अपना कुछ भी नहीं है। आप सिर्फ एक सोशल प्रोडक्ट हो,
एक सामाजिक उत्पत्ति हो। आप हो ही नहीं असल में, समाज की एक बनावट हो। समाज जो चाहता है वह पहनो। समाज जो कहता है वैसे
उठो। समाज जो कहता है वैसे बैठो। आप नहीं हो।
तो नाच से भय क्या है--कि कोई क्या कहेगा?
कोई क्या कहेगा, जरा कहने दें!
एक सूफी फकीर था हसन। उसके पास जब भी कोई आता, वह संन्यास में दीक्षा के पहले कहता कि नग्न हो जाओ और गांव का एक चक्कर
लगाओ, फिर मैं दीक्षा दे दूंगा।
वह आदमी कहता, आप भी कैसी बातें कर रहे हैं? मैं
संन्यास लेने आया, इस नग्न होकर चक्कर लगाने से क्या होगा?
तो हसन कहता कि होगा कि नहीं होगा, वह मैं जानता हूं।
तुम चक्कर लगाओ, मैं बिना चक्कर के संन्यास नहीं देता।
क्योंकि जो आदमी दूसरों के हंसने को नहीं सह सकता, वह आदमी
भीतर नहीं जा सकता। जो आदमी दूसरों की आंखों में पागल होने का साहस नहीं रखता,
वह किसी बड़ी गहरी खोज पर जाने का उपाय नहीं खोज पाएगा।
इस जगत में जो लोग भी किसी चीज में गहरे जाते हैं, चाहे वे वैज्ञानिक हों और पदार्थ की खोज में गहरे जा रहे हों, उनको भी पागल होने की तैयारी दिखानी पड़ती है। चाहे वे कवि हों और सौंदर्य
के अनुभव में गहरे उतर रहे हों, उनको भी पागल होने की तैयारी
दिखानी पड़ती है। और चाहे वे संत हों और परम रहस्य में जा रहे हों, उनको भी पागल होने की तैयारी दिखानी पड़ती है।
बुद्ध हों कि महावीर और क्राइस्ट हों कि मोहम्मद या कृष्ण, अपने समय में लोग प्रथम रूप से उनको बड़ी शक और बड़ी संदेह की दृष्टि से
देखते हैं। पहले तो वे पागल ही मालूम पड़ते हैं। यह तो हजारों साल लग जाते हैं जब
हम उनको बुद्धिमान मान पाते हैं। हजारों साल, तब कहीं हम
उनको बुद्धिमान मान पाते हैं। अन्यथा हम उनको बुद्धिमान नहीं मान पाते। वे तो मैड
मैन हैं ही।
आइंस्टीन को लोग पागल ही समझते रहे उन्नीस सौ उन्नीस तक। जब तक उसको
नोबल प्राइज की घोषणा न हो गई, तब तक वह पागल आदमी था।
एक होटल में गया है, थोड़ा जल्दी में है और थका-मांदा
है। बैरा ने मेनू लाकर उसके सामने रखा, तो उसने बैरा से कहा
कि तुम ही देख लो और जो ठीक बना हो वह जल्दी ले आओ।
बैरा ने खाना लाकर दिया। आइंस्टीन ने धन्यवाद दिया, तो बैरा ने चलते वक्त कहा कि आप जैसे जो गैर पढ़े-लिखे लोग हों आपके
मित्रों में, उनको भी भेजना, उनकी भी
मैं सेवा करूंगा।
आइंस्टीन ने कहा, गैर पढ़े-लिखे लोग? तब उसे खयाल आया कि मेनू उसने पढ़ा नहीं। तो उसने बैरा से पूछा कि तुम्हें
मुझे देख कर कैसे खयाल आया कि गैर पढ़े-लिखे लोग?
उसने कहा, खयाल तो मुझे बहुत दूसरा आ रहा है, शिष्टाचार की वजह से मैं कहता नहीं। लग तो रहे हो तुम पागल। तुम्हारे ये
फैले हुए बाल, तुम्हारी ये बड़ी-बड़ी खुली आंखें। तुम लग तो
रहे हो पागल। तुम्हारे माथे पर ये सिकुड़न। और तुम जब खाना खा रहे थे, तब मैंने अनुभव किया कि तुम खाने की टेबल पर मौजूद ही नहीं थे, तुम कहीं और थे। तो ऐसे तो तुम पागल लग रहे हो, मगर
शिष्टाचारवश मैं कहता हूं कि तुम्हारे जैसे गैर पढ़े-लिखे लोग अगर आना चाहें तो भेज
देना, उनकी सेवा करने को मैं सदा तत्पर हूं।
जो भी व्यक्ति कहीं गहरी खोज में जा रहा है, उसे पागल होने की हिम्मत चाहिए। पागल होने की हिम्मत का कुल मतलब इतना है
कि लोग हंसते हों तो उन्हें हंसने का एक अवसर देना चाहिए। और इसमें कुछ भी हर्ज
नहीं है। आपका कुछ हर्ज नहीं और उनको भी हंसी थोड़ा लाभ पहुंचाएगी। चिकित्सक कहते
हैं कि हंसी बड़ा टॉनिक है। अगर आपकी वजह से चार लोग हंस लेते हैं, तो आपने समाज-सेवा की। इसकी चिंता छोड़ दें।
अब हम ध्यान में जाएं, पागल होने की तैयारी
करें।
जो लोग देखने आ गए हों, वे कृपा करके
कुर्सियों पर चले जाएं। एक भी व्यक्ति देखने वाला भीतर न हो। और जिनको करना हो,
वे कुर्सियां छोड़ कर मैदान में आ जाएं। दूर-दूर फैल जाएं फासले पर
ताकि आप ठीक से नाच सकें।
दूर-दूर फैल जाएं, बात न करें। और जो लोग देखने आ
गए हैं वे शांत बैठेंगे, इतनी उनसे प्रार्थना है। जब ध्यान
चलेगा तो आप बात न करें, चुपचाप देखते रहें। अगर आपकी मौज हो
तो बैठ कर आप कीर्तन में सम्मिलित हो सकते हैं, लेकिन
चुपचाप। ताली बजा सकते हैं, कीर्तन बोल सकते हैं, लेकिन आपस में बातचीत नहीं करेंगे। और बैठ जाएं कृपा करके, खड़े-खड़े आप थक जाएंगे घंटे भर, बैठ जाएं कुर्सियों
पर। और जो लोग ध्यान के लिए खड़े हैं, दूर-दूर फैलें। महिलाएं
थोड़ा फासला बना लें, अन्यथा फिर नाचना नहीं हो सकेगा।
दूर-दूर फैल जाएं, दूर-दूर फैल जाएं। और पूरी शक्ति
लगाएं। और पूरे भाव और आनंद से डूबें।
(पहले चरण में पंद्रह मिनट संगीत की धुन के साथ कीर्तन
चलता रहता है।)
गोविंद बोलो, हरि गोपाल बोलो
गोविंद बोलो, हरि गोपाल बोलो
गोविंद बोलो, हरि गोपाल बोलो...
राधा रमण हरि गोपाल बोलो
राधा रमण हरि गोपाल बोलो
राधा रमण हरि गोपाल बोलो...
(दूसरे चरण में पंद्रह मिनट सिर्फ धुन चलती रहती है और
भावों की तीव्र अभिव्यक्ति में रोना, हंसना, नाचना, चिल्लाना आदि चलता रहता है। तीस मिनट के बाद
तीसरे चरण में ओशो पुनः सुझाव देना प्रारंभ करते हैं।)
बस, अब आंख बंद कर लें और सारी शक्ति को भीतर रोक लें। अब
न नाचें, न डोलें, न आवाज करें। आंख
एकदम से बंद कर लें और सारी शक्ति को भीतर रोक लें।
नहीं, अब आवाज न करें...रोकें, रोकें,
आवाज रोक लें...नाचना-कूदना बंद कर दें, शरीर
का हिलना-डुलना बंद कर दें...बिलकुल रुक जाएं, शक्ति भीतर ही
रह जाए...आंख बंद कर लें, शक्ति को भीतर रुक जाने दें,
जो शक्ति जग गई है वह भीतर रह जाए...आंख बंद कर लें, सब इंद्रियों को शिथिल छोड़ दें, आंख बंद कर लें,
शरीर को मुर्दे की भांति छोड़ दें...शक्ति भीतर ऊपर उठनी शुरू हो
जाएगी...शक्ति का भीतर काम शुरू हो जाएगा...
अब अपने दाएं हाथ की हथेली को माथे पर रख लें, दोनों आंखों के बीच के हिस्से पर, दोनों भौंहों के
बीच में और आहिस्ता से हाथ को ऊपर-नीचे और दोनों ओर रगड़ें। नाउ पुट योर राइट हैंड
पाम ऑन दि फोरहेड बिट्वीन दि आइब्रोज एंड रब इट स्लोली अपसाइड डाउन एंड
साइडवेज...एंड जस्ट बाइ रबिंग समथिंग ओपन्स इनसाइड, समथिंग
बिगिन्स टु हैपन, ए डोर सडनली ओपन्स...
रगड़ें, रगड़ें, भीतर कुछ होना शुरू हो
जाएगा, जैसे एक द्वार अचानक खुल जाए और एक दूसरी दुनिया में
प्रवेश हो जाए...रगड़ते-रगड़ते भीतर प्रकाश ही प्रकाश फैल जाएगा, भीतर प्रकाश ही प्रकाश फैल जाएगा...
अब रगड़ना रोक दें और उस प्रकाश के साथ एक हो जाएं...नाउ स्टॉप रबिंग, दि डोर इज़ ओपन, नाउ बी वन विद दि लाइट...रुक जाएं,
भीतर प्रकाश फैल गया, उसके साथ एक हो जाएं,
उसमें डूब जाएं। प्रकाश ही प्रकाश है, अनंत
प्रकाश है...प्रकाश ही प्रकाश है, अनंत प्रकाश है...प्रकाश
के सागर में खो गए, एक हो गए, प्रकाश
के साथ एक हो गए...प्रकाश ही प्रकाश, जैसे हजारों सूर्य एक
साथ निकल आएं...प्रकाश ही प्रकाश...प्रकाश को अनुभव करें...स्वयं को भूल जाएं,
प्रकाश को अनुभव करें...
नाउ फॉरगेट योरसेल्फ, जस्ट बी ए विटनेस टु दि
लाइट...रिमेंबर ओनली दि लाइट, फॉरगेट योरसेल्फ...भूल जाएं
अपने को, प्रकाश को ही स्मरण रखें...प्रकाश, प्रकाश, प्रकाश...प्रकाश के एक सागर में खो गए,
जैसे मछली सागर में हो, ऐसे प्रकाश के सागर
में एक हो गए...
यह पहला चरण है। टु फील दिस लाइट इज़ दि फर्स्ट स्टेप। अपने को रोकें न, अनुभव करें, प्रकाश ही प्रकाश...डू नॉट विदहोल्ड,
फील, एक्सपीरिएंस दि लाइट...
जिन्हें अनुभव न होता हो, प्रकाश का खयाल न आता
हो, वे अपने दोनों हाथों की हथेलियों को आंख पर रख लें और
आहिस्ता से आंखों को दबाएं।
दोज हू आर नॉट एबल टु फील दिस लाइट, दे शुड पुट देयर बोथ
पाम्स ऑन दि आइज, एंड देन प्रेस योर पाम्स ऑन दि आइज...डोंट
रब, जस्ट प्रेस...रगड़ें नहीं, सिर्फ
दबाएं आहिस्ता से...जस्ट प्रेस, डोंट रब...
प्रकाश ही प्रकाश, अनंत प्रकाश, जैसे हजारों सूर्य निकल आएं...लाइट, मोर लाइट,
इनफिनिट लाइट...नाउ फील इट, नाउ बी वन विद
इट...
एक हो जाएं, एक हो जाएं, एक हो जाएं,
प्रकाश के साथ एक हो जाएं...भूल जाएं अपने को, प्रकाश को ही स्मरण करें...भूल जाएं अपने को, प्रकाश
को ही स्मरण करें...छोड़ दें अपने को, प्रकाश को ही स्मरण
करें...प्रकाश, प्रकाश, अनंत
प्रकाश...डूब गए प्रकाश के सागर में, जैसे बूंद सागर में गिर
जाए...
फॉरगेट योरसेल्फ, फॉरगेट टोटली, ओनली रिमेंबर दि लाइट आल अराउंड...यू आर नॉट, ओनली
दि लाइट रिमेन्स...फॉरगेट योरसेल्फ, रिमेंबर दि लाइट,
फील दि लाइट...भूलें, भूलें अपने को...छोड़ें
अपने को, छोड़ें...स्मरण करें, प्रकाश
ही प्रकाश, चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश...प्रकाश के एक सागर
में खो गए...अनुभव करें, अनुभव करें...
पहला कदम नहीं उठे तो दूसरे कदम में प्रवेश मुश्किल है...टेक दि
फर्स्ट स्टेप, इफ दि फर्स्ट इज़ नॉट टेकन, दि
सेकेंड बिकम्स इंपासिबल...
प्रकाश, प्रकाश, प्रकाश, प्रकाश, प्रकाश...प्रकाश के पीछे-पीछे ही आता है
आनंद...प्रकाश के पीछे-पीछे ही आता है आनंद...वस्तुतः प्रकाश ही सघन होकर बन जाता
है आनंद...प्रकाश को अनुभव करें और उसके पीछे से आती आनंद की धार को अनुभव
करें...भीतर आनंद ही आनंद फैल जाता है...
नाउ टेक दि सेकेंड स्टेप...फील ब्लिस...रियली टु फील लाइट डीपली एंड
इनटेंसली इज़ टु फील ब्लिस...एंड लाइट इटसेल्फ कनसनट्रेटेड बिकम्स ब्लिस...
अनुभव करें, प्रकाश ही घना होकर, सघन होकर
आनंद बन जाता है। दूसरे कदम में छलांग लें, आनंद को अनुभव
करें...रोआं-रोआं पुलकित हो रहा आनंद से...हृदय की धड़कन-धड़कन आनंद से नाच
रही...तन-मन आनंद से भर गए...जैसे कोई खाली घड़ा आकाश के नीचे रखा हो वर्षा में और
बूंद-बूंद जल उसमें भर जाए, ऐसे आपके हृदय में आनंद भरता चला
जाता है...आनंद, आनंद, आनंद...
नाउ यू आर नॉट, यू हैव बिकम जस्ट ए वेसल, जस्ट
एन एंप्टीनेस...एंड ब्लिस डिसेंड्स...एंड ब्लिस फिल्स यू...बी फिल्ड विद इट...बी
फिल्ड विद इट...
अनुभव करें, अनुभव करें, आनंद को अनुभव
करें...रोएं-रोएं को अनुभव में डूब जाने दें...हृदय की धड़कन-धड़कन सराबोर हो
जाए...आनंद ही आनंद शेष रह जाए, प्राणत्तन-मन सब आनंद से भर
जाएं...अनुभव करें, अनुभव करें, अनुभव
करें... आनंद, आनंद, आनंद...भर जाएं,
भर जाएं, बिलकुल भर जाएं...कोई जगह भीतर खाली
न रह जाए, आनंद से भर जाएं...एक ही स्वर रह जाए श्वासों
में--आनंद का। एक ही धड़कन रह जाए धड़कनों में--आनंद की। आनंदित हों, आनंदित हों, आनंदित हों...नाउ बी ब्लिसफुल, नाउ बी ब्लिसफुल...आनंदित हों, आनंदित हों...नाउ बी
ब्लिसफुल, नाउ बी ब्लिस...
आनंद के पीछे-पीछे ही प्रभु की उपस्थिति अनुभव होती है। आनंद ही सघन
होकर प्रभु की उपस्थिति बन जाता है। नाउ टेक दि थर्ड स्टेप, दि अल्टीमेट, एंड फील डिवाइन प्रेजेंस...नाउ फील
डिवाइन प्रेजेंस आल अराउंड...अनुभव करें, प्रभु की
उपस्थिति... चारों ओर वही है...हम खो गए, हम नहीं हैं,
वही है...सब ओर वही है, बाहर-भीतर वही
है...आती श्वास में, जाती श्वास में वही है...अनुभव करें,
अनुभव करें, अनुभव करें...मिट जाएं और प्रभु
को अनुभव करें...
वही घेरे हुए है, वही घेरे हुए है...उसकी ही
अनुकंपा चारों ओर बरस रही...वही घेरे हुए है...खो जाएं, पिघल
जाएं, बह जाएं...चारों ओर प्रभु मौजूद है, एक हो जाएं, उसके साथ एक हो जाएं, उसके साथ एक हो जाएं...वही है, वही है, चारों ओर वही है, उसकी ही बांहें सब ओर से घेरे हुए
हैं...वही है मौजूद, उसका ही आलिंगन सब ओर से है...वही है
हवाओं में, वही सूरज की किरणों में, वही
छाया में, वही धूप में, सब ओर वही
है...जाती श्वास में, आती श्वास में वही है...धड़कन-धड़कन में
वही है...छोड़ें अपने को, खो दें अपने को...परमात्मा के
अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है...
नाउ ओनली दि डिवाइन इज़...नाउ ओनली दि डिवाइन इज़...रिलैक्स योरसेल्फ, डिजाल्व योरसेल्फ...नाउ ओनली दि डिवाइन इज़...
वही छू रहा, वही स्पर्श कर रहा...अनुभव करें, अनुभव करें...एक्सपीरिएंस दि डिवाइन आल अराउंड--इनसाइड, आउट, आल अराउंड...फील दि डिवाइन, फील दि डिवाइन...खो जाएं, मिट जाएं, एक हो जाएं...
और अब ध्यान का अंतिम अनुभव: वह मौजूद ही नहीं, वही है। हम भी वही हैं। आखिरी सूत्र: मैं स्वयं परमात्मा हूं। अनुभव करें,
अनुभव करें: मैं स्वयं परमात्मा हूं, मैं
स्वयं परमात्मा हूं। नाउ फील, नॉट ओनली दि प्रेजेंस, बट योर ओन डिविनिटी...नाउ आई एम दि डिवाइन, नाउ आई
एम दि डिवाइन...अनुभव करें: अहं-ब्रह्मास्मि! अनुभव करें: मैं ही ब्रह्म हूं,
मैं ही ब्रह्म हूं, मैं ही ब्रह्म हूं...
अब फिर एक बार अपने दाएं हाथ की हथेली को माथे पर रख लें दोनों भौंहों
के बीच में और आहिस्ता से रगड़ें। बहुत कुछ भीतर घटित होगा। जो भी घटित हो उसे होने
दें। नाउ पुट योर राइट हैंड पाम अगेन ऑन दि फोरहेड बिट्वीन दि आइब्रोज एंड रब इट।
एंड व्हाट सो एवर हैपन्स, लेट इट हैपन इनसाइड।
सडनली ए बैरियर ब्रेक्स, सडनली ए डोर ओपन्स,
सडनली यू आर ट्रांसफार्म इनटु समथिंग एल्स...कुछ और हो जाते हैं
आप...रगड़ें, भीतर कोई द्वार खुलता, कोई
बाधा गिर जाती...और भीतर जो भी हो, होने दें...रब दि फोरहेड,
दि थर्ड आई स्पॉट, रब अपसाइड डाउन एंड साइडवेज
सो दैट दि थर्ड आई स्पॉट इज़ रब्ड...रब इट, एंड लेट इट हैपन
व्हाट सो एवर हैपन्स इनसाइड...
अब दोनों हाथ आकाश की तरफ ऊपर उठा लें, आंखें खोलें आकाश की
तरफ। नाउ रेज़ योर बोथ हैंड्स टुवर्ड्स दि स्काई एंड ओपन योर आइज, सी दि स्काई एंड लेट दि स्काई सी अनटु यू, इनटु यू...
देखें आकाश को और आकाश को देखने दें आपके भीतर। दोनों हाथ आकाश की तरफ
उठा लें, आंखें आकाश में खोलें, झांकने
दें आकाश को आपके भीतर और आप झांकें आकाश में। लेट देयर बी ए कम्यूनियन बिट्वीन यू
एंड दि स्काई। लेट देयर बी ए कम्यूनिकेशन बिट्वीन यू एंड दि स्काई...
एक संवाद, एक अंतर्संवाद, एक
मौन-मिलन...आकाश की तरफ आंखें खोलें, दोनों हाथ उठा दें...एक
मौन-संवाद आकाश और आपके हृदय के बीच...दोनों हाथ आकाश की तरफ फैले हुए आलिंगन में,
आंखें खुली हुई, आकाश को झांकने दें गहरे में
आपके...लेट दि स्काई गो डीप इनसाइड यू, लेट देयर बी ए
कम्यूनियन...
और अब जो भी हृदय में भाव हो उसे संपूर्णता से प्रकट कर दें...अब जो
भी हृदय में भाव हो उसे संपूर्णता से प्रकट करें...नाउ एक्सप्रेस व्हाट सो एवर इज़
इनसाइड, एक्सप्रेस इट कंप्लीटली, नाउ बी
मैड इन एक्सप्रेसिंग इट कंप्लीटली...बिलकुल पागल हो जाएं, जो
भी भीतर है उसे प्रकट कर दें...जो भी है भीतर--चिल्लाना हो चिल्लाएं, हंसना हो हंस लें, रोना हो रो लें, नाचना हो नाच उठें--जो भी भीतर है उसे प्रकट कर दें...इफ दि इनसाइड ऑफ यू
वांट्स टु लॉफ, लॉफ...इफ दि इनसाइड वांट्स टु क्राइ, क्राइ...इफ दि इनसाइड वांट्स टु डांस, डांस...बट
एक्सप्रेस इट कंप्लीटली...
ठीक है, अब दोनों हाथ जोड़ लें और सिर परमात्मा के चरणों में
झुका दें। नाउ पुट योर बोथ पाम्स इन ए नमस्कार पोस्चर एंड पुट योर हेड इन दि फीट
ऑफ दि डिवाइन। अनुग्रह स्वीकार कर लें। आदमी अकेला काफी नहीं, आदमी बहुत कमजोर है, बहुत असहाय; परमात्मा की सहायता के बिना कुछ भी न होगा। उसका प्रसाद ही सब कुछ है। मैन
अलोन इज़ नॉट इनफ। मैन इज़ वीक एंड हेल्पलेस, टोटली हेल्पलेस।
एंड विदाउट हिज़ ग्रेस नथिंग कैन हैपन। विदाउट हिज़ ग्रेस देयर इज़ नो पासिबिलिटी।
विदाउट हिज़ ग्रेस मैन इज़ इंपासिबल।
अनुग्रह स्वीकार कर लें। कहें, हृदय की गहराई से
भीतर: प्रभु की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है,
प्रभु की अनुकंपा अपार है।
लेट दाइ डेप्थ से: दाइ ग्रेस इज़ इनफिनिट, दाइ ग्रेस इज़ इनफिनिट, दाइ ग्रेस इज़ इनफिनिट। प्रभु
की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है, प्रभु की अनुकंपा अपार है।
अब धीरे-धीरे दो-चार गहरी श्वास ले लें और ध्यान
से वापस आ जाएं। हमारी सुबह की बैठक पूरी हो गई। दो-चार गहरी श्वास ले लें और
आहिस्ता से ध्यान से वापस लौट आएं। हमारी सुबह की बैठक पूरी हो गई।
आज इतना ही।
I love it lekin dhiraj dhrna bahut kathin hai
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