कुल पेज दृश्य

बुधवार, 7 मार्च 2018

भक्तिसूत्र (नारद)—प्रवचन-07



सातवां प्रवचन—योग और भोग का संगीत है भक्ति

दिनांक 17 जनवरी, 1976; रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :
सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा।
फलरूपत्वात्।
ईश्वरस्या६यभिमानद्वेषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च।
तस्या ज्ञानमेव साधनमित्येके।
अन्योन्याश्रयत्वमित्यन्ये।
स्वयं फलरूपतेति ब्रह्मकुमाराः।
राजगृह भोजनादिषु तथैव दृष्टत्वात्।
न तेन राजपरितोषः क्षुधाशांतिर्वा।
तस्मात्सैव ग्राह्या मुमुक्षुभिः।


भक्ति का सार सूत्र है: प्रसाद
ज्ञान, कर्म, योग, उन सबका सार-सूत्र है प्रयास।
ज्ञान, कर्म, योग मनुष्य की चेष्टा पर निर्भर हैं; भक्ति परमात्मा के प्रसाद पर। स्वभावतः भक्ति अतुलनीय है। न कर्म छू सकता है उस ऊंचाई को, न ज्ञान, न योग।
मनुष्य का प्रयास ऊंचा भी जाए तो कितना? मनुष्य करेगा भी तो कितना? मनुष्य का किया हुआ मनुष्य से बड़ा नहीं हो सकता। मनुष्य जो भी करेगा, उस पर मनुष्य की छाप रहेगी। मनुष्य जो भी करेगा उस पर मनुष्य की सीमा का बंधन रहेगा।
भक्ति मनुष्य में भरोसा नहीं करती; भक्ति परमात्मा में भरोसा करती है। एक बहुत अनूठा भक्त हुआ: बायजीद बिस्तामी। कहा है उसने, तीस साल तक निरंतर परमात्मा को खोजने के बाद, एक दिन सोचा तो दिखाई पड़ा: "मेरे खोजे वह कैसे मिलेगा, जब तक वही मुझे न खोजता हो?' तब खोज छोड़ दी, और खोज छोड़कर ही उसे पा लिया।
तीस साल या तीस जन्मों की खोज से भी उसे पाया नहीं जा सकता, क्योंकि खोजेंगे तो हम--अंधे, अंधकार में डूबे, पापग्रस्त, सीमा में बंधे! भूल-चूकों का ढेर हैं हम। हम ही तो खोजेंगे उसे! रोशनी कहां है हमारे पास उसे खोजने को? हमारे पास हाथ कहां जो उसे टटोलें? कहां से लाएं हम वह दिल जो उसे पहचाने?
खोजी एक दिन पाता है कि नहीं, मेरे खोजे तू न मिलेगा, जब तक कि तू ही मुझे न खोजता हो।
और बायजीद ने कहा है, जब उसे पा लिया तो जाना कि यह भी मेरी भ्रांति थी कि मैं उसे खोज रहा था। वही मुझे खोज रहा था।
जब तक परमात्मा ने ही तुम्हें खोजना शुरू न कर दिया हो, तुम्हारे मन में उसे खोजने की बात ही न उठेगी। यह बात बड़ी विरोधाभासी लगेगी, लेकिन बड़ा गहन सत्य है।
परमात्मा को केवल वे ही लोग खोजने निकलते हैं जिनको परमात्मा ने खोजना शुरू कर दिया। जो उसके द्वारा चुन ही लिए गए हैं, वे ही केवल उसे चुनते हैं। जो किसी भांति उनके हृदय में आ ही गया है, वे ही उसकी प्रार्थना में तत्पर होते हैं।
तुम्हारे भीतर से वही उसको खोजता है। सारा खेल उसका है। तुम जहां भी इस खेल में कर्ता बन जाते हो, वहीं बाधा खड़ी हो जाती है, वहीं दरवाजे बंद हो जाते हैं।
तुम खाली रहो, उसे ही खोजने दो तुम्हारे भीतर से, तो तत्क्षण इस क्षण भी उस महाक्रांति का आविर्भाव हो सकता है।
भक्ति को समझने में, इस बात को जितना गहराई से समझ लो, उतना उपयोगी होगा: भक्ति परमात्मा की खोज नहीं है; भक्ति परमात्मा के द्वारा मनुष्य की खोज है।
मनुष्य हारकर समर्पण कर देता है, थककर समर्पण कर देता है, पराजित होकर झुक जाता है--कहता है, "अब तू ही उठा तो उठा! अब तू ही सम्हाल तो सम्हाल! अब अपने से सम्हाला नहीं जाता! जो मैं कर सकता था, किया; जो मैं हो सकता था, हुआ--लेकिन मेरे किए कुछ भी नहीं हो पाता! मेरा किया सब अनकिया हो जाता है। जितना सम्हालता हूं उतना ही गिरता हूं। जितनी कोशिश करता हूं कि ठीक राह पर आ जाऊं, उतना ही भटकता हूं। अब तू ही चला! जन्म तेरा है, जीवन तेरा है, मौत तेरी है--प्रार्थना मेरी कैसे होगी?
पहला सूत्र है आज: "वह भक्ति, वह प्रेमरूपा भक्ति, कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है।'
श्रेष्ठता यही है कि वह अनंत के द्वारा तुम्हारी खोज है।
गंगा सागर की तरफ जाती है, तो ज्ञान, तो योग, तो कर्म। जब सागर गंगा की तरफ आता है, तो भक्ति।
भक्ति ऐसे है जैसे छोटा बच्चा पुकारता है, रोता है, मां दौड़ी चली आती है।
भक्ति बस तुम्हारा रुदन है!
तुम्हारे हृदय से उठी आह है!
भक्ति तुम्हारे जीवन की सारी खोज की व्यर्थता का निवेदन है। भक्ति तुम्हारे आंसुओं की अभिव्यक्ति है। तुम कहीं जाते नहीं, तुम जहां हो वहीं ठिठककर रह जाते हो। एक सत्य तुम्हारी समझ में आ जाता है कि तुम ही बस गलत हो; तुम गलत करते हो, ऐसा नहीं।
कर्मयोग कहता है: तुम गलत करते हो, ठीक करो तो पहुंच जाओगे।
ज्ञानयोग कहता है: तुम गलत जानते हो, ठीक जान लो, पहुंच जाओगे।
योगशास्त्र कहता है: तुम्हें विधियां पता नहीं हैं, मार्ग पता नहीं है। विधियां सीख लो, मार्ग सीख लो, तकनीक की बात है, पहुंच जाओगे।
भक्ति कहती है: तुम ही गलत हो। न ज्ञान से पहुंचोगे, न कर्म से पहुंचोगे, न योग से पहुंचोगे। तुम तुमसे छूट जाओ, तो पहुंचना हो जाएगा। तुम न बचो तो पहुंचना हो जाएगा।
प्रयास से मिलता ही नहीं। प्रयास से मिल जाए, वह भी कोई परमात्मा है? क्योंकि तुम्हारे प्रयास से जो मिलेगा, वह तुम्हारे प्रयास से छोटा होगा। प्रसाद से मिलता है!
इसलिए नारद अनूठी बात कहते हैं, बड़ी गहरी बात कहते हैं: "कर्म, ज्ञान और योग से भी श्रेष्ठतर है वह प्रेमरूपा भक्ति।'
कोई भक्ति का मुकाबला नहीं है। भक्ति कोई करने की बात नहीं है। शब्द से भ्रांति होती है, "भक्ति' से भी लगता है कि कुछ करना पड़ेगा, भक्ति में क्रिया है, कुछ करना; जैसे योग में कुछ करना, कर्म में कुछ करना, ज्ञान में कुछ करना, भक्ति में भी कुछ करना पड़ेगा। वहीं भूल हो जाती है।
भक्ति तो इस बात का अनुभव है कि मेरे किए कुछ होता ही नहीं। भक्ति तो अपने कृत्य की व्यर्थता का बोध है, पश्चात्ताप है। उस पश्चात्ताप में ही तुम गिर जाते हो, झुक जाते हो। ध्यान रखना, मैं नहीं कहता हूं कि तुम झुकते हो--झुक जाते हो!
क्या करोगे? कैसे खड़े रहोगे? जब सब किया अनकिया सिद्ध होता है, जब अपने पैर जहां भी ले जाते हैं, वहीं संसार मिलता है, और जब अपनी आंख जो भी दिखाती है वही पदार्थ सिद्ध होता है, और जिसकी भी तुम प्रार्थना करते हो वही प्रार्थना आखिर में कामना सिद्ध होती है, वासना सिद्ध होती है, तो फिर क्या करोगे? ठहर जाते हो! खड़े होने की भी जगह नहीं रह जाती। खड़े होने का बल भी नहीं रह जाता। गिर जाते हो!
अगर अपनी तरफ से गिरे, तो यह भी योग हुआ। अगर पाया कि गिर रहे हो, जैसे गिरना घट रहा है, झुकना घट रहा है, तो भक्ति हुई।
भाषा के साथ अड़चन है, भक्ति भी कर्म बन जाती है।
भक्ति कर्म नहीं है। इसलिए भक्ति की परम श्रेष्ठता है।
"क्योंकि भक्ति फलरूपा है।'
इसे समझें। यह बड़ा वैज्ञानिक सूत्र है।
पानी को भाप बनाना हो तो आंच पर रखो। कारण मौजूद कर दो, कार्य घटेगा। जब सौ डिग्री गरमी हो जाएगी, पानी भाप बनने लगेगा। पानी यह नहीं कह सकता कि आज भाप बनने की मंशा नहीं है, कि आज थोड़ी सर्दी ज्यादा है आज नहीं बनते, या आज मन उदास है या कुछ...। पानी कुछ कर नहीं सकता।
कारण उपस्थित हो गया तो कार्य होगा।
बीज बो दो, अंकुर निकलेंगे।
ज्ञान, कर्म और योग की मान्यता यह है कि परमात्मा भी ऐसे ही मिलता है; कारण मौजूद कर दो, कार्य होकर रहेगा।
योगी कहता है, इतने नियम पालन कर लो, यह अष्टांग योग है, ये आठ अंग हैं, ये पूरे कर लो--परमात्मा को मिलना ही पड़ेगा; जैसे सौ डिग्री पर पानी गरम होता है, ऐसे अष्टांग योग पूरा होने पर परमात्मा मिलता है।
कर्मयोगी कहता है, इतने-इतने पुण्य कर लो; पांच महाव्रत हैं, इनका पालन कर लो: अहिंसा है अचौर्य है, अस्तेय है, अपरिग्रह है, सत्य है, इनका पालन कर लो! अगर पालन पूरा हो गया तो परमात्मा वैसे ही आ जाएगा जैसे बीज बोया, पानी डाला, धूप-रोशनी दी, अंकुर निकल आया। तो परमात्मा फल है और तुम्हारा कृत्य--ज्ञान, कर्म, योग--बीज है। तुम जो करते हो वह कारण है और परमात्मा कार्य है।
भक्त ऐसा नहीं देखते। भक्त कहते हैं, तुम कुछ भी करो, परमात्मा परम स्वतंत्रता है, तुम्हारे कृत्य से बंधा हुआ नहीं है। तुम्हारे अष्टांग योग के पूरे हो जाने से नहीं आ जाएगा। और अगर तुमने अष्टांग योग पर ही भरोसा किया तो तुम अकड़े बैठे रह जाओगे, परमात्मा से कोई संबंध न हो पाएगा।
परमात्मा कार्य-कारण जगत का हिस्सा नहीं है।
परमात्मा का अर्थ है: "समग्र'। और सब चीजों के कारण हैं, "समग्र' का कोई कारण नहीं हो सकता। और सब चीजों के आधार हैं, समग्र का कोई आधार नहीं है, समग्र निराधार है।
बीज से वृक्ष होता है। वृक्ष में फिर बीज लग जाते हैं। फिर बीजों में वृक्ष आ जाते हैं। सारा जगत शृंखला है--कार्य-कारण, कारण-कार्य--बंधा हुआ चलता जाता है। इस सारी शृंखला का कोई कारण नहीं है। इस सारी शृंखला के समस्त रूप का नाम परमात्मा है।
तुम पृथ्वी पर टिके हो, पृथ्वी सूरज के आकर्षण पर टिकी है, सूरज किसी और महासूर्य के आकर्षण पर टिका होगा--लेकिन सारा अस्तित्व कहां टिका है? सारा अस्तित्व कहीं भी नहीं टिक सकता, क्योंकि इसके बाहर कुछ भी नहीं है जिस पर टिक जाए। तो सारा अस्तित्व तो निराधार है।
तुम एक मां और पिता के बीजों के मिलने से पैदा हुए। वे भी किन्हीं के बीजों के मिलने से पैदा हुए। और उनके माता-पिता भी इसी तरह...। लेकिन परमात्मा का कोई पिता नहीं है। "समग्र' के बाहर कुछ भी नहीं है; सब कुछ उसके भीतर है।
तो भक्त कहते हैं, परमात्मा को पाने की यह बात ठीक नहीं। यह तुम संसार को पाने के ढंग का ही उपाय तुम परमात्मा को पाने के लिए कर रहे हो।
तो भक्ति बीजरूपा नहीं है, फलरूपा है। भक्ति कोई कारण नहीं है, कार्य है। भक्ति प्रारंभ नहीं है, अंत है--फलरूपा है। तुम्हें कुछ करना नहीं--फल तुम्हें मिलता है। तुम्हारे करने से फल पैदा नहीं होता--प्रसादरूप होता है। तुम जब तैयार होते हो, अभीप्सा से भरे होते हो, धैर्य से तुम्हारे प्राण आकाश की तरफ देखते होते हैं, और तुम्हारी असहाय अवस्था पूर्ण हो गई होती है, तुम बिलकुल खाली होते हो--तुम्हारे खालीपन में भक्ति उतरती है, भगवान उतरता है।
ध्यान रखना: भक्त यह कहता है कि यह तुम्हारे किसी कारण से नहीं उतरता है; वह अपनी अनुकंपा से उतरता है; वह अपने प्रसाद से उतरता है; वह उतरना चाहता था, इसलिए उतरता है। इसलिए भक्त शिकायत नहीं कर सकता। न उतरे तो भक्त यह नहीं कह सकता कि मैंने सारी व्यवस्था पूरी कर दी है, तुम आए क्यों नहीं--दावा नहीं कर सकता। कभी ऐसी घड़ी भक्त के जीवन में नहीं आती जब वह यह कह दे कि मेरी कोई शिकायत है। शिकायत का तो अर्थ यह हुआ कि मैंने सौ डिग्री पानी गरम कर दिया है, पानी भाप क्यों नहीं बन रहा है? मैंने अपनी तरफ से सब पूरा कर दिया, अब अन्याय हो रहा है!
इसे थोड़ा खयाल में लेना--
जिन लोगों ने कर्म, ज्ञान और योग पर बहुत जोर दिया, धीरे-धीरे उन्होंने परमात्मा की बात ही छोड़ दी, क्योंकि कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। महावीर कर्म का भरोसा करते हैं, तो परमात्मा को इनकार कर दिया। कोई जरूरत नहीं है, क्या जरूरत है? सौ डिग्री पर जब पानी गरम होता है तो पानी भाप बनता है, इसमें किसी परमात्मा को बीच में लेने की जरूरत क्या है? प्रसाद का सवाल कहां है? तुम कार्य पूरा कर दो, परिणाम आ जाएगा। तुम बीज बो दो, फल लग जाएंगे। परमात्मा को बीच में लेने की जगह कहां है? किसी परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है।
पतंजलि ने परमात्मा को भी एक साधन बना लिया, साध्य नहीं।
ज्ञानियों ने, योगियों ने, पुण्यकर्ताओं ने परमात्मा को छोड़ ही दिया, जरूरत ही न मालूम पड़ी। वह परिकल्पना व्यर्थ है। उसके बिना ही हो जाता है। हम से ही हो जाता है, उसकी कोई जरूरत नहीं है।
भक्ति का शास्त्र कहता है: हम से कुछ भी नहीं होता; "हम' ही बाधा हैं। जहां हम खो जाते हैं, वहीं होना शुरू होता है।
"वह भक्ति फलरूपा है।'
बीज नहीं है उसका कोई जो तुम बो दो। कोई कारण नहीं है जो तुम तैयार कर लो, प्रयास कर लो, प्रयत्न कर लो। नहीं, तुम्हारे हाथ में कोई उपाय नहीं है कि तुम उसे खींच लो। तुम्हारा निरुपाय हो जाना ही, तुम्हारा असहाय हो जाना ही, तुम्हारा पछताना, तुम्हारा छाती पीटकर रोना, तुम्हारा आंसुओं में जार-जार बह जाना, तुम्हें एक प्रतीति हो जाए कि मैं ही अब तक उपद्रव का कारण था, मेरे प्रयास ही अब तक उपद्रव के कारण थे--फिर फल, फल ही उपलब्ध होता है।
ज्ञान साधन है; भक्ति साध्य है।
ज्ञान मार्ग है; भक्ति मंजिल है।
ज्ञानी को चलना पड़ता है; योगी को चलना पड़ता है; भक्त सिर्फ पहुंचता है, चलता नहीं। भक्त सबसे बड़ा चमत्कार है।
इसलिए अगर महावीर को समझना हो, कोई अड़चन नहीं है। महावीर को समझना हो तो वैज्ञानिक व्यवस्था है। पतंजलि को समझना हो तो कोई दुर्बोध बात नहीं है, दुर्गम बात नहीं है, सीधा-सीधा गणित है। लेकिन मीरा बेबूझ है। चैतन्य को पकड़ पाना संभव नहीं है। भक्त की कोई कथा साफ नहीं हो पाती।
तुम योगी से पूछ सकते हो, "तुमने क्या किया? कैसे परमात्मा पाया?' तो वह अपनी कथा बता सकता है, "यह-यह मैंने किया। इतने उपवास किए। इतना प्राणायाम किया। इस तरह अष्टांग योग साधे। इस तरह समाधि तक पहुंचा।' एक-एक कदम साफ है। सीढ़ी दर सीढ़ी उसकी यात्रा है। उसके रास्ते पर मील के पत्थर लगे हैं। रास्ता है। वह कुछ कह सकता है।
मीरा से पूछो, "कैसे पाया?' मीरा ठिठकी खड़ी रह जाएगी। वह कहेगी, "मैंने पाया, यह बात ही ठीक नहीं है--मिला।'
पानेवाले की कोई कथा नहीं है। पानेवाला शून्य है। सारी कथा परमात्मा की है। सब कथा भगवतकथा है। भक्त की कोई कथा नहीं है।
भक्त बेबूझ है।
अगर मीरा और महावीर सामने खड़े हों तो महावीर से तो तुम राजी हो जाओगे--तुम कहोगे, "इन्होंने इतना किया, फिर पाया। समझ में आता है। मीरा ने क्या किया? कौन सी साधना की मीरा ने? कौन से साधन किए? कौन सा योग किया? कुछ भी तो नहीं किया।'
...अचानक पुच्छल तारे की तरह प्रकट होती है! अनायास! अकारण! फलरूपा है। एक दिन तक पता नहीं था, एक दिन अचानक उसका नृत्य शुरू हो जाता है, उसके घूंघर बज उठते हैं। एक क्षण पहले तक किसी को खबर न थी, घर के लोगों को भी खबर न थी, पति को भी खबर न थी।
इसलिए भक्त पागल लगता है, क्योंकि गणित में बैठता नहीं।
...अनायास है, अकारण है! एक दिन अचानक मीरा नाच उठी! किसी ने न जाना, कैसे यह नाच पैदा हुआ! इस नाच के पीछे कोई कार्य-कारण की शृंखला नहीं है। यह पुच्छल तारे की तरह प्रकट होती है। इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती और अतीत में लौटकर इसका कोई निर्वचन नहीं हो सकता--समय की धारा में, समय के बाहर से कोई उतरता है! फलरूपा है!
तुम वृक्ष के नीचे विश्राम करते थे और फल गिर गया तुम्हारे ऊपर; न तुमने बीज बोए थे, न तुमने वृक्ष संभाला था, न तुम्हें पता है कि वृक्ष है--तुम्हें बस फल मिल गया!
एक दिन मीरा नाच उठती है! इस नाच के आगे-पीछे कोई हिसाब नहीं है। इसलिए मीरा को समझना बिलकुल ही कठिन हो जाता है। समझ के लिए कार्य-कारण की शृंखला का पता होना चाहिए।
महावीर ने बारह वर्ष तपश्चर्या की। बुद्ध ने छह वर्ष तपश्चर्या की और जन्मों-जन्मों तक खोज की। मीरा ने क्या किया?
नारद का यह सूत्र बड़ा अदभुत है: "भक्ति फलरूपा है।'
साधन नहीं है भक्ति, साध्य है। यहां मार्ग है ही नहीं, बस मंजिल है। आंख खुलने की बात है।
"लाई हयात आए, कजा ले चली चले
अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले।'
जिसको यह समझ में आ गया कि लाया परमात्मा, आए; ले चला, चले; श्वास चलाईं, चलीं श्वास रोकीं, रुक गईं।
"न अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले!'
जिसने ऐसा अनुभव कर लिया...और तुम जरा गौर से देखो तो अनुभव करने में देर न लगेगी। किसी ने पूछा था तुमसे जन्म के पहले कि जन्म लेना चाहते हो?
"लाई हयात आए...!'
किसी ने पूछा था, कहां जन्म लेना चाहते हो? स्त्री होना चाहते हो, कि पुरुष? गोरे होना चाहते हो, काले? हिंदू होना चाहते हो, ईसाई?, किसी ने तो न पूछा था। अकारण हो तुम। तुम्हारे होने के पीछे तुम्हारी मंशा तो नहीं है, तुम्हारी आकांक्षा तो नहीं है। श्वास चलती है जब तक चलती है; जिस दिन नहीं चलेगी, क्या करोगे तुम? गई श्वास बाहर और न लौटी तो क्या करोगे तुम? गई तो गई!
"लाई हयात आए, कजा ले चली चले
अपनी खुशी से आए न अपनी खुशी चले।'
ऐसा जिस दिन तुम्हें जीवन का सार दिखाई पड़ जाएगा, उस दिन भक्ति की शुरुआत हुई; उस दिन तुम करीब आने लगे प्रसाद के। और जिस दिन ऐसा अनुभव तुम्हें हो जाएगा कि तुम नहीं हो, कोई और हाथ तुम्हें लाया, कोई और हाथ ने तुम्हें चलाया, कोई और ही सारी कथा को सम्हाले हुए है--उस दिन क्या बोझ, कैसी चिंता!
"मुझे सहल हो गईं मंजिलें वो हवा के रुख भी बदल गए
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गए।'
तुम जब तक हो तब तक अंधेरा है; तुम मिटे कि चिराग जले! तुमने जिस दिन यह भ्रांति छोड़ी कि मैं चल रहा हूं, उसी दिन तुम पाओगे: उसका हाथ सदा से तुम्हें चला रहा है, उसका हाथ तुम्हारे हाथ में है।
परमात्मा को हमने कभी खोया थोड़े ही है; खो देते तो फिर मिलने का कोई उपाय नहीं था। जो खो जाए वह परमात्मा नहीं है। जिसे हम खो सकें वह हमारा स्वभाव नहीं है। उसे हमने कभी खोया नहीं है, विस्मरण किया है, भूल गए हैं घड़ी भर को, झपकी लग गई है, याद उतर गई है। हाथ तो अब भी उसका हमारे हाथ में है। कुछ करना नहीं है उस हाथ को पाने को, सिर्फ अपनी भ्रांति छोड़नी है।
भक्ति फलरूपा है।
ज्ञान कहता है: कुछ करना है, अज्ञान को मिटाना है, ज्ञान को लाना है। बड़ा उपक्रम है। इसलिए ज्ञानी में अकड़ होती है उसने किया इतना, अकड़ स्वाभाविक है। वह कहता: "तुमने क्या किया? हम वर्षों ज्ञान इकट्ठा किए।'
योगी वर्षों तक साधता है, इसलिए योगी की अकड़ स्वाभाविक है। पुण्यात्मा महात्मा हो जाता है। कितना करता है! कितनी सेवा! कितने पुण्यकर्म! अकड़ स्वाभाविक है। भक्त में अकड़ नहीं हो सकती, क्योंकि भक्त की बुनियाद ही यही है कि हमने किया ही नहीं कुछ; तूने जो करवाया वही हुआ!
भक्त की बड़ी अनूठी दुनिया है! अलग ही उसका लोक है--गणित का नहीं, विज्ञान का नहीं, तर्क का नहीं--प्रेम का, प्रार्थना का, परमात्मा का। वहां सभी कुछ उलटा है। वहां बीज के पहले फल है। वहां मार्ग के पहले मंजिल है। वहां तुम्हारे करने से कुछ भी नहीं होता--तुम्हारे न करने से सब हो जाता है।
इसलिए जिनको भी अकड़ना हो, भक्ति उनके लिए नहीं है; जिनको पिघलना हो, उनके लिए है। अकड़ना हो, योग खोजो, त्याग खोजो, व्रत-नियम खोजो। अकड़ना हो और दिखाना हो दुनिया को कि मैं कुछ हूं तो भक्ति की राह को भूल ही जाओ, वह तुम्हारे लिए नहीं है। अभी देर है तुम्हें उस पर आने को। लेकिन अगर यह समझ में आना शुरू हो गया हो कि अपने किए कुछ भी न हुआ; चले बहुत, पहुंचे कहीं न; दौड़े बहुत, जब आंख खोली तो पाया वहीं खड़े हैं--जब तुम्हें ऐसी अनुभूति होने लगे, तब तुम भक्ति के लिए परिपक्व हुए।
"क्योंकि ईश्वर को भी अभिमान से द्वेष है और दैन्य से प्रियभाव है।'
यह सूत्र बड़ा कठिन है। इसे तुम अपनी तरह सोचोगे तो मुश्किल में पड़ जाओगे; ईश्वर को भी अभिमान से द्वेषभाव है! अगर तुम महावीर से पूछोगे तो वे कहेंगे कि "ऐसा ईश्वर ही नहीं; यह ईश्वर कैसा जिसको द्वेषभाव है? यह तो हो ही नहीं सकता: ईश्वर और द्वेषभाव!' महावीर की परिभाषा में तो जब द्वेष मिट जाता है, तभी कोई ईश्वरत्व को उपलब्ध होता है।
"और दैन्य से प्रियभाव है।'
तो इसका तो अर्थ हुआ कि उसके भी पक्षपात हैं।
नहीं, अगर ऐसा देखा तो सूत्र से तुम चूक गए। सूत्र का मतलब कुछ और है। सूत्र का संबंध ईश्वर से नहीं है--सूत्र का संबंध तुमसे है।
ऐसा समझो कि कोई कहे कि जब वर्षा होती है तो वर्षा को गङ्ढों से लगाव है, पहाड़ों और शिखरों से द्वेषभाव है, तो मतलब क्या होगा? मतलब इतना ही होगा कि जब वर्षा होती है तो गङ्ढों में भरती है, पहाड़ खाली रह जाते हैं; क्योंकि पहाड़ पहले से ही भरे हैं, वहां जगह ही नहीं है। और जगह चाहिए। गङ्ढे भर जाते हैं, झीलें बन जाती हैं। गिरती है वर्षा पहाड़ों पर उतर आता है पानी गङ्ढों में, झीलों में।
इस सूत्र का इतना ही अर्थ है कि अगर तुम अभिमान से भरे हो, तो परमात्मा तुम में न उतर सकेगा, चाहे लाख चेष्टा करे उतरने की। लाख चेष्टा कर रहा है, लेकिन तुम पहले से ही भरे हो, जगह नहीं है। रिक्त स्थान चाहिए थोड़ा। तुम्हारे अहंकार के कारण तुम्हारे सिंहासन पर जगह नहीं है, तुम ही बैठे हो। तुम उतरो, सिंहासन से, तो परमात्मा बैठ सके।
"और दैन्य से प्रियभाव है'--इसका कुल अर्थ इतना ही है कि तुम झील, गङ्ढे की तरह हो जाओ, ताकि परमात्मा तुम्हें भर दे; तुम खाली हो जाओ ताकि तुम भर दिए जाओ।
"अब तू भी करम की इंतिहा कर देना
भक्त कहता है कि मैंने भी पाप करने में कोई कमी न की थी, मैंने भी भूल करने में कोई कमी न की थी; "अब तू भी करम की इंतिहा कर देना'--अब तू भी करुणा करने में कुछ कंजूसी मत करना, जैसे मैंने पाप करने में कोई कंजूसी न की थी।
"अब तू भी करम की इंतिहा कर देना
मैंने भी खता की इंतिहा कर दी थी।'
वह यह कहता है कि मैंने पाप ही पाप किए हैं, और पूरी तरह किए हैं; कोई कंजूसी नहीं की; आखिरी तक किए हैं; इंतिहा कर दी थी; पूर्णता कर दी थी--अब ध्यान रखना, अब तू भी अपनी अनुकंपा की, अपने प्रसाद की पूर्णता कर देना! तेरी करुणा में अब तू कमी मत करना, जैसे हमने पाप में कमी न की थी, जैसे हमने अहंकार को भरने में सारी चेष्टाएं की थीं!
मगर जो यह कह रहा है, वह गङ्ढा हो गया। क्योंकि पाप की घोषणा तुम्हें गङ्ढा बना देगी। पुण्य की घोषणा तुम्हें अहंकार से भरती है।
भक्त कहता है, "मैं पापी हूं! मैं पात्र नहीं हूं!'
ज्ञानी कहता है, "मैं पात्र हूं, तैयार हूं; देर क्यों हो रही है?'
योगी कहता है, "मैं शुद्ध हूं, बिलकुल तैयार हूं; अब तेरी तरफ से देर हो रही है।'
भक्त कहता है, "मैं बिलकुल तैयार नहीं हूं। इसलिए मेरी तरफ से तो कोई मांग हो नहीं सकती। इतना ही कह सकता हूं कि पाप करने में मैंने कोई कमी न की थी! मुझसे बुरा आदमी खोजे न मिलेगा। जैसे मैंने पाप करने में कमी न की--क्योंकि पाप ही मैं कर सकता था, और मैं कर क्या सकता था--अब तू करुणा में कमी मत करना, क्योंकि तू करुणा ही कर सकता है, और तू कर क्या सकेगा!'
भक्त अपने को अपात्र घोषित करता है--यही उसकी पात्रता है; असफल घोषित करता है--यही उसकी सफलता है; हारा हुआ घोषित करता है--यही उसकी विजय है।
भक्त कहे, ऐसा भी जरूरी नहीं है।
बायजीद प्रार्थना नहीं करता था जाकर मस्जिद में। जीवन तो उसका अनूठा था, परमात्मा के प्रेम में पगा था! किसी ने पूछा कि प्रार्थना करने मस्जिद क्यों नहीं जाते, तो वह रोने लगा। और उसने कहा, "एक बार मैं एक शहर से गुजरता था और एक सम्राट के द्वार पर मैंने एक भिखारी को खड़े देखा। सम्राट द्वार से बाहर आ रहा था, ठिठका, और उसने भिखारी से पूछा, "क्या चाहते हो, बोलते क्यों नहीं?' उस भिखारी ने कहा, "अगर मुझे देखकर तुम्हें दया नहीं आती तो मेरी बात सुनकर भी क्या फर्क पड़ेगा!'
उसके फटे-पुराने कपड़े हैं, चीथड़े की तरह लटके हैं। शरीर ढंका नहीं है उन कपड़ों से। उससे तो नंगा भी होता तो भी ज्यादा ढंका होता। पेट सिकुड़कर पीठ से लग गया है, हड्डियां निकल आई हैं। आंखें धंस गई हैं।
तो बायजीद ने कहा, उसी दिन से मैंने प्रार्थना करनी बंद कर दी। क्या कहना है उससे? उस फकीर ने कहा, उस भिखमंगे ने कहा, अगर मुझे देखकर तुझे दया नहीं आती तो बात खतम हो गई, अब कहना क्या है और! मेरी तरफ देख!
बायजीद ने कहा, "तब से मैंने प्रार्थना बंद कर दी। वह देख ही रहा है, अब कहना क्या है। उससे? अब रोना क्या है?'
"लबे-इज़हार की जरूरत क्या
आप हूं अपने दर्द की फरियाद।'
जरूरी नहीं है कि भक्त प्रार्थना करे। भक्त की तो एक भावदशा है: "आप हूं अपनी फरियाद।' उसके तो होने में ही उसकी दीनता समाई है।
नारद अनूठी बात कहते हैं: "ईश्वर को अभिमान से द्वेष और दैन्य से प्रियभाव है।'
नहीं, ईश्वर को क्या द्वेष होगा और क्या प्रियभाव होगा! लेकिन भक्त की तरफ जब तक अहंकार है तब तक परमात्मा प्रवेश नहीं कर सकता। भक्त की तरफ जब दैन्यभाव आ जाता है--"आप हूं अपनी फरियाद'--जब सब तरफ हारा हुआ भक्त खड़ा हो जाता है; जब उसके पूरे जीवन की एक ही भावदशा रह जाती है कि मैं पराजित हूं, दीन हूं, पतित हूं, अपात्र हूं, पापी हूं; मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके कारण तेरी मांग करूं; मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके कारण तेरे लिए दावेदार बनूं; मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि तेरे लिए शिकायत करूं--उसी क्षण, इस दैन्यभाव में परमात्मा उतर आता है।
जीसस का वचन है कि जो आत्मा से दरिद्र हैं, "पुअर इन स्पिरिट', उन्हीं को परमात्मा का मिलन होता है।
सोचें, ध्यान करें इस पर: आत्मा से दरिद्र, "पुअर इन स्पिरिट!' शरीर से दरिद्र होना बहुत आसान है। तुम घर छोड़ दो, मकान छोड़ दो, परिवार छोड़ दो, वस्त्र त्याग दो, नग्न खड़े हो जाओ; लेकिन जितना तुम बाहर छोड़ते जाओगे, उतनी ही भीतर अकड़ बड़ी होती जाएगी। तो बाहर से तो तुम दरिद्र हो जाओगे, भीतर बड़ी अकड़ हो जाएगी।
जैन मुनियों को देखो! जैन मुनि किसी को हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं कर सकता; यह बात उसके नियम के विपरीत है। वह सिर्फ आशीर्वाद दे सकता है, नमस्कार नहीं कर सकता। क्यों? क्योंकि वह त्यागी है। त्यागी और नमस्कार करे, भोगियों को! असंभव है! तो यह आत्मा की दरिद्रता न हुई। ऊपर से भला इसने दरिद्र का भेष पहन लिया हो, दो जोड़ी कपड़े रखता हो, कुछ और इसके पास न हो, भिक्षा मांगकर जीता हो--लेकिन इसकी अकड़ तो देखो! यह भिखारी नहीं है। इसके भिखमंगेपन में बड़ा अहंकार है। मैंने इतना त्यागा है...!'
तो अगर तुम जैन मुनि को नमस्कार करो तो वह आशीर्वाद दे देता है, हाथ नहीं जोड़ सकता तुम्हें।
जीसस ने कहा: आत्मा की दरिद्रता!
...तो यह तो बाहर का धन छोड़कर भीतर का धन पकड़ लिया; यह तो बाहर का अहंकार छोड़कर भीतर का अहंकार पकड़ लिया; यह तो पाना न हुआ, खोना हो गया उलटा; यह तो पहुंचना न हुआ, मंजिल से और दूरी हो गई।
ध्यान रखना, पहले तुम बाहर की दुनिया में धनी होने की कोशिश करते हो; जब वहां हार जाते हो तो तुम भीतर की दुनिया में धनी होने की कोशिश करने लगते हो। तुम्हारा योग, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारा कर्म, फिर तुम्हें भीतर धनी बनाने लगते हैं। तो तुम चूकते ही चले जाते हो।
बाहर का धन इतना खतरनाक है तो भीतर का धन तो और भी खतरनाक होगा। बाहर की अकड़ इतनी बुरी है तो भीतर की अकड़ तो और भी बुरी होगी।
परमात्मा तुम्हारे परम दैन्यभाव में उतरता है।
इस सूत्र को गलत मत समझ लेना। परमात्मा को तुम्हारे दैन्यभाव से प्रेम नहीं है; लेकिन तुम्हारे दैन्यभाव में ही उतरना हो सकता है। जब तुम भरे ही हुए हो तो उतरने का कोई सवाल नहीं है। जब तुम ही अकड़े हुए हो और तुम सोचते हो, तुम ही सम्हाले हुए हो सब, तुम ही कर रहे हो सब और तुमने उसे इनकार ही कर दिया--तुमने उसके लिए द्वार ही बंद कर लिए।
"जोश विसाते-शौक में मर्ग है अस्ल जिंदगी
बाजिए इश्क जीत ले बाजिए उम्र हारकर।'
एक ऐसा भी पड़ाव आता है, एक ऐसा दौर है, जहां मौत जिंदगी है और जहां हार जीतना है, जहां हमारे पुराने विचार के ढांचे बिलकुल ही उलटे हो जाते हैं!
"बाजिए इश्क जीत ले'--अगर प्रेम को जीतना हो, "बाजिए उम्र हारकर'--उम्र की, जीवन की, जिंदगी की बाजी को हार कर प्रेम की बाजी जीती जाती है।
"दिल है तो उसी का है, जिगर है, तो उसी का
अपने को राह-ए-इश्क में बरबाद जो कर दे।'
वह जो प्रेम की राह है, वहां जो अपने को बरबाद कर दे, बस उसी के पास दिल है, उसी के पास जिगर है। उसी के पास आत्मा है, जो अपने को बरबाद कर दे।
तो तुम कहीं संन्यस्त मत हो जाना गणित के हिसाब से। तुम कहीं लोभ के ही हिसाब में त्याग मत कर देना। कहीं तुम्हारा संन्यास, तुम्हारा धर्म तुम्हारी होशियारी ही न हो; अगर होशियारी हुई तो तुम चूक जाओगे। क्योंकि तब तुम पात्र बनने लगोगे। और जिसके मन में यह खयाल उठा कि मैं पात्र हूं, वह दीन न रहा, उसने आत्मा की दरिद्रता खो दी।
दीन बनो!
मिटो!
हारे हुए जीओ!
यह जीतने का वहम बहुत दिन पाल लिया--छोड़ो यह बीमारी!
इधर तुम मिटे उधर परमात्मा तुम्हारी तरफ चला! जैसे-जैसे तुम मिटे, वैसे-वैसे वह तुम्हारी तरफ आता है। जिस दिन तुम पूरे मिट जाते हो, अचानक पाते हो, वह सदा से वहां था; तुम्हारी मौजूदगी के कारण दिखाई नहीं पड़ता था।
तुम्हीं हो परदा तुम्हारी आंख पर।
आंख तो देखने में समर्थ है; तुम्हारे कारण देख नहीं पाती।
दृष्टि धुंधली है--तुम्हारे कारण; अंधी है--तुम्हारे कारण!
तुम जरा आंख से हट जाओ!
निर्मल होने दो आंख को!
खाली होने दो आंख को!
शून्य होने दो आंख को!
तब परमात्मा के सिवाय और कोई भी दिखाई नहीं पड़ता है।
"भक्ति का साधन ज्ञान है, ऐसा किन्हीं आचार्यों का मत है।'
गलत है मत। आचार्यों का होगा; जिन्होंने सोचा-विचारा है उनका होगा--जिन्होंने जाना है उनका नहीं है।
"भक्ति का साधन ज्ञान है...।' नहीं, ज्ञान से कभी कोई भक्त हुआ? जितना जानोगे उतने अभक्त होते जाओगे। ज्ञानी तो धीरे-धीरे परमात्मा को इनकार करने लगता है, हजार ढंगों से इनकार करता है।
ज्ञान साधन नहीं है भक्ति का, बाधा है।
"और किन्हीं दूसरे आचार्यों का मत है कि भक्ति और ज्ञान परस्पर एक-दूसरे के आश्रित हैं।'
वह भी गलत है।
भक्ति बात ही और है! उसका जानने से कोई संबंध नहीं है, अनुभव से संबंध है।
"सनतकुमार और नारद के मत से भक्ति स्वयं फलरूपा है।'
लेकिन नारद कहते हैं, ये दोनों बातें ठीक नहीं हैं। न तो ज्ञान भक्ति का साधन है, और न भक्ति और ज्ञान एक-दूसरे पर आश्रित हैं। भक्ति स्वयं फलरूपा है, ज्ञान की कोई भी जरूरत नहीं है।
"राजगृह और भोजनादि में भी ऐसा ही देखा जाता है।'
"न उससे (जान लेने मात्र से) राजा की प्रसन्नता होगी, न क्षुधा मिटेगी।'
उदाहरण के लिए कहते हैं कि अगर कोई भोजन की चर्चा करे और भोजन के संबंध में बहुत जान ले, तो भी भूख तो न मिटेगी। पाकशास्त्र को जान लेने से कोई भूख तो नहीं मिटती। तुम पाकशास्त्र के ढेर लगा ले सकते हो। तुम पाकशास्त्रों का अध्ययन करते-करते उनमें लीन हो जा सकते हो। जितने प्रकार के भोजन दुनिया में बन सकते हैं, कभी बने हैं, या बनेंगे, उन सबकी जानकारी तुम्हें हो सकती है। लेकिन उससे तुम्हारे पेट की भूख न मिटेगी। पेट की भूख तो भोजन से मिटती है।
भक्ति भोजन है, ज्ञान नहीं।
भक्ति स्वाद है--जीवंत!
भक्ति परमात्मा के संबंध में कुछ जानना नहीं है--परमात्मा का भोजन है। बड़ा ठीक उदाहरण लिया है।
जीसस जब विदा होने लगे अपने शिष्यों से, मरने की घड़ी करीब आई, सूली लगने को हुई, तो उन्होंने रोटी के टुकड़े तोड़े और अपने शिष्यों को दिए, और कहा कि यह रोटी मैं हूं; तुम रोटी नहीं खा रहे हो, मेरा भोजन कर रहे हो!
भक्ति परमात्मा का भोजन है, परमात्मा का भोग है।
भूख तो भोग से मिटेगी। प्यास तो जल को पीओगे तो मिटेगी; जल के संबंध में कितना ही जान लो, उससे न मिटेगी।
परमात्मा के संबंध में जानना परमात्मा को जानना नहीं है। परमात्मा को तो वे ही जानते हैं जो उसका भोग कर लेते हैं, जो उसे पचा लेते हैं; जिनके खून और जिनकी हड्डी में परमात्मा घूमने लगता है; जिनके रोएं-रोएं और श्वास में समा जाता है; जिनके होने में परमात्मा की गंध हो जाती है; जिनका होना और परमात्मा का होना भिन्न नहीं रह जाता।
"उसके जान लेने मात्र से न तो प्रसन्नता होगी, न क्षुधा मिटेगी।'
इसलिए ज्ञान से तो भक्ति का कोई भी संबंध नहीं है। ज्ञान तो है परमात्मा के संबंध में जानना; और भक्ति है परमात्मा का सीधा साक्षात।
"अतएव संसार के बंधनों से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए।'
जो वस्तुतः "मुमुक्षु' हैं...। इस शब्द को थोड़ा समझ लें।
कुछ लोग हैं जो केवल कुतूहली हैं, जो परमात्मा के संबंध में ऐसे ही पूछते हैं जैसे छोटे बच्चे पूछते हैं कि दुनिया को किसने बनाया। तुम कह दो, परमात्मा ने; तुम कह दो, कुछ भी, अ ब स...वे फिक्र नहीं करते; वे अपने भूल गए, बात खतम हुई, खेल में लग गए। उन्होंने वस्तुतः जानने के लिए पूछा ही न था--एक खुजलाहट थी; एक कुतूहल उठा था, "किसने बनाया!' न भी जवाब देते तो भी कुछ परेशान होनेवाले न थे वे। उन्हें जवाब से कुछ लेना-देना भी न था। एक क्यूरिआसिटी थी, एक कुतूहल था।
सौ में से नब्बे लोग तो जो ईश्वर की बात करते हैं, कुतूहली होते हैं। वे कुछ जीवन दांव पर लगाना नहीं चाहते--ऐसे ही अगर मुफ्त में कुछ जानकारी मिल जाए तो ठीक; कुछ बदलना न पड़े; कुछ करना न पड़े; कुछ होना न पड़े--ऐसे ही कुछ जानकारी मिलती हो तो क्या हर्ज है!
कुतूहल से कोई धार्मिक नहीं होता।
कुतूहल के बाद एक दूसरा वर्ग है जिज्ञासु का, वह जानना चाहता है, वस्तुतः जानना चाहता है--लेकिन बस जानना चाहता है।
कुतूहली तो जानने में भी बहुत उत्सुक नहीं हैं, ऐसे ही पूछ लिया था; सतह की बात थी; एक खयाल आ गया था। खयाल की कोई जड़ें नहीं हैं उसके भीतर।
जिज्ञासु के भीतर खयाल की जड़ें हैं--ऐसे ही खयाल नहीं आ गया; खयाल कई बार आता है। ऐसे आया-गया नहीं है; स्थायी निवास तो हो गया है! पूछता है, प्रयोजन है, जानना चाहता है--लेकिन बस जानना चाहता है। उससे आगे नहीं जाना चाहता।
उसके आगे मुमुक्षु है। मुमुक्षु का अर्थ है: जानना ही नहीं चाहता, जीना चाहता है। जानने से क्या होगा? अगर ईश्वर है तो अपने को बदलना चाहता है। अगर परलोक है तो अपने जीवन में क्रांति लाना चाहता है। अपने को दांव पर लगाने को तत्पर है।
नारद कहते हैं, "अतएव संसार के बंधनों से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को भक्ति ही ग्रहण करनी चाहिए'--क्योंकि भक्ति भोजन है।
संस्कृत का सूत्र जब भी अनुवादित किया जाता है तो कुछ न कुछ चूक होती है। हिंदी में अनुवाद है: "अतएव संसार के बंधनों से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को...।' संस्कृत का सूत्र केवल इतना ही कहता है: "बंधनों से मुक्त होने की इच्छा रखनेवालों को...।' संसार की कोई बात नहीं है--बंधनों से मुक्त होने की है।
इसे थोड़ा समझें।
बंधन संसार है। स्मरण रखें: बंधन-मात्र संसार है। मोक्ष का भी बंधन हो तो संसार हो गया। पुण्य का भी बंधन हो तो संसार हो गया। कोई भी आकांक्षा हो तो बंधन पैदा होगा। अगर परमात्मा को भी पाने की आकांक्षा हो तो बंधन बनाएगी। क्योंकि जहां भी आकांक्षा होगी, वहीं स्वतंत्रता क्षीण हो जाएगी। जब कोई आकांक्षा नहीं रह जाती तो बंधन समाप्त होते हैं। और ऐसी घड़ी तो तभी आती है जब परमात्मा से मिलन हो जाए। इसके पहले ऐसी कोई घड़ी नहीं आती।
तो जिन्हें सच में ही बंधनों के पार जाना है; जो ऊब गए हैं जीवन की जंजीरों से; जो इस जीवन के कारागृह से पीड़ित हो गए हैं; जिनकी समझ में आ गया है कि, ये बड़ी दीवालें जीवन की घर की दीवालें नहीं हैं, ये कारागृह हैं, और जिसको हम जिंदगी कहते हैं वह सिवाय बंधनों के और कुछ भी नहीं--उनके लिए भक्ति ही एकमात्र उपाय है।
"ऐ ताइरे-लाहूति! उस रिज्क से मौत अच्छी
जिस रिज्क से आती हो परवाज़ में कोताही।'
उस जिंदगी से मौत अच्छी है...किस जिंदगी से?--जिस जिंदगी से उड़ान में बाधा पड़ती हो, आकाश छोटा होता हो, "जिस रिज्क से आती हो परवाज़ में कोताही'--उड़ने में रुकावट आती हो।
जहां-जहां रुकावट है, वहां-वहां गौर से देखना: तुम अपनी ही किसी वासना को खड़ा हुआ पाओगे। जहां भी तुम्हारे पंख अड़ते हैं, अटकते हैं, गौर से देखना: वहीं-वहीं तुम पाओगे, कोई आकांक्षा, कोई अपेक्षा, कोई वासना, कोई मांग पंखों पर बंधन बन गई है।
तुम्हारी जंजीरें तुम्हारी ही वासनाओं की जंजीरें हैं, किसी और ने ढाली नहीं, किसी और ने तुम्हें पहनाई नहीं हैं। और जिस दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाए, उस दिन तुम्हारी जंजीरें ऐसे ही पिघल जाती हैं जैसे तेज धूप में बर्फ पिघल जाए, सुबह के सूरज में ओस की बूंदें उड़ जाएं--ऐसे ही तुम्हारी जंजीरें उड़ जाती हैं। परमात्मा को, बिना कुछ और मांगे, बिना कुछ और चाहे अपने को समर्पित कर देना। यह मत कहना कि मैं परमात्मा को भी चाहता हूं। उतनी चाह भी तुम्हारे परवाज़ में कोताही ले आएगी। तुम इतना ही कहना कि मैं अपने को परमात्मा में छोड़ने को तत्पर हूं। मांग कुछ भी नहीं है। मिटाना है।
क्योंकि सब मांग अहंकार की मांग है, हर मांग अहंकार की मांग है। तुम यह भी मत कहना कि मैं परमात्मा को चाहता हूं। क्योंकि उतनी चाह में भी तुम अपने को परमात्मा से ऊपर रख रहे हो, तो परमात्मा विषय-वस्तु हो गया। कभी तुम धन चाहते थे अब परमात्मा को चाहते हो--लेकिन चाहनेवाला खड़ा रह जाएगा। तुम इतना ही कहना कि अब बहुत चाहत करके देख ली--अब अपने को छोड़ना है, मिटाना है। इस मिटाने में ही भक्त एक अपरिसीम आनंद से भर जाता है, क्योंकि उसके परवाज में फिर कोई कोताही नहीं रह जाती, उसका पूरा आकाश उपलब्ध हो जाता है; पंख परिपूर्ण स्वतंत्रता से उड़ने लगते हैं! और इस मिटाने में ही एक ऐसी बेहोशी उसे घेर लेती है, जिसे बेहोशी कहना भी ठीक नहीं--जिसमें बड़ा गहरा होश है और एक ऐसा होश उस पर आ जाता है, जिसे होश कहना भी ठीक नहीं--क्योंकि उसकी आंखों में बड़ी गहरी बेहोशी है, जैसे वह शराब पीए हो, जैसे अभी-अभी मधुशाला से लौटा हो!
और जब तक तुम्हारे लिए मंदिर मधुशाला नहीं बन जाता और जब तक प्रार्थना तुम्हारे लिए इतना गहन आत्मविस्मरण नहीं बन जाती कि तुम उसमें डूब ही जाओ, तब तक तुम जो भी कर रहे हो, वह कुछ और होगा, भक्ति नहीं।
"मैं मयकदे की राह से हो कर निकल गया,
वर्ना सफर हयात का काफी तबील था।'
जिंदगी का रास्ता बहुत कठिन है! अगर मयकदे की राह से होकर निकल गए, तब बात और। अगर जीवन की मधुशाला से गुजर गए तो बात और! वही परमात्मा है। अगर उस मस्ती को थोड़ा चख लिया, अगर थोड़ा स्वाद पा लिया परमात्मा का, डगमगाने लगे पैर उसके आंगन में, नाच छा गया--तो ही; अन्यथा जिंदगी का रास्ता बहुत कठिन है, कांटे ही कांटे हैं। फूल तो तभी खिलते हैं जब तुम मिटना शुरू होते हो; अन्यथा दुर्गंध ही दुर्गंध है। सुगंध तो तभी आती है जब तुम कपूर की तरह शून्य में खो जाते हो।
"मस्जिद में बुलाते हैं हमें जाहिदे-नाफह्म
होता अगर कुछ होश तो मयखाने न जाते।'
--विरक्त हमें मंदिर में बुला रहे हैं, मस्जिद में बुला रहे हैं; अगर कुछ थोड़ा होश होता तो मयखाने ही चले जाते।
भक्त को न कोई मंदिर बचता, न कोई मस्जिद बचती। वह जहां है वहीं उसकी मधुशाला है। वह जहां है, वहीं उसका परमात्मा है।
तुम्हारे मिट जाने में, तुम्हारी लीनता में, तुम्हारी तल्लीनता में--परमात्मा का आविर्भाव है।
इसलिए भक्त में तुम एक बेहोशी भी पाओगे और एक होश भी।
ज्ञानी में तुम्हें होश मिलेगा, बेहोशी न मिलेगी।
शराबी में, पापी में, तुम्हें बेहोशी मिलेगी, होश न मिलेगा।
योगी में तुम्हें होश मिलेगा, भोगी में तुम्हें बेहोशी मिलेगी--भक्त में तुम्हें दोनों मिलेंगे। भोगी भी उससेर् ईष्या करेगा और योगी भी उससेर् ईष्या करेगा। क्योंकि योगी देखेगा, ऐसी अपरिसीम होश की संभावना उसके भीतर नहीं है। और भोगी देखेगा, इतना भोगकर भी ऐसी मस्ती उसके पास नहीं आई।
सब भोग तिक्त स्वाद छोड़ जाता है।
ठीक कहते हैं नारद कि ज्ञान, कर्म, योग, भक्ति की ऊंचाई को नहीं पहुंचते।
भक्ति में, परमात्मा उसकी समग्रता में स्वीकार है, उसका संसार भी समाहित है उस स्वीकार में। तो भक्त भागता नहीं संसार से; भोग से भी नहीं भागता--वह उसे भी परमात्मा का ही अनुग्रह मानकर स्वीकार कर लेता है।
त्याग भक्त की भाषा नहीं है; जो "उसने' दिया है, उसे स्वीकार कर लेता है--अहोभाव से, धन्यभाग से!
तो भक्त के जीवन में एक अनूठा संवाद है: उसकी बेहोशी में होश है, उसके होश में बेहोशी है; उसके ध्यान में तल्लीनता है, उसकी तल्लीनता में ध्यान है।
भक्त आखिरी समन्वय है, आखिरी सिंथीसिस!
"मस्जिद में बुलाते हैं हमें जाहिदे-नाफह्म
होता अगर कुछ होश तो मयखाने न जाते।'
...डूबता जाता है--परमात्मा के रस में! खोता जाता है अपनी बूंद को उसके रस के सागर में! और जब बूंद सागर हो जाती है, तो उसकी मस्ती का क्या कहना! जब बूंद आकाश को छूती है तो उसकी मस्ती का क्या कहना!
भक्त में तुम रस पाओगे; योगी को सूखा पाओगे।
भोगी में रस मिलता है, लेकिन दुर्गंधयुक्त!
भक्त में तुम रस पाओगे--और सुगंधयुक्त!
भोगी संसार को परमात्मा समझ लेता है, और परमात्मा को त्याग देता है। योगी परमात्मा को संसार के विपरीत समझता है, इसलिए संसार को त्याग देता है। भक्त परमात्मा और संसार को एक ही मानता है; स्रष्टा और सृष्टि एक है--इसलिए न कुछ त्यागता, न कहीं भागता। इस परम बोध में कि स्रष्टा अपनी सृष्टि के रोएं-रोएं में समाया है, भक्त में योग और भोग का मिलन हो जाता है। वह परम संगीत है। उससे ऊपर कोई संगीत नहीं।

आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें