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सोमवार, 18 जून 2018

कैवल्‍य उपनिषद--प्रवचन-07

मिलन तक मिलन अनिश्‍चय में—सातवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर
28 मार्च 1972 रात्रि,
माऊंट आबू, राजस्‍थान।

सूत्र :
     
      उमासहायं परमेश्वर प्रभुं त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्‍तम्।
      ध्यात्वा मुनिर्गच्छति भूतयोनि समस्त साक्षिं तमस: परस्तात्।।7।।


      जिसे उमासहाय, परमेश्वर, नीलकंठ और त्रिलोचन के नामों से पुकारा जाता है, जो समस्त चराचर का स्वामी है और शांतिस्वरूप है, जो समस्त भूतों का मूल कारण और साक्षी है, जो अविद्या (तमस) से दूर है—उसको मुनिजन ध्यान से प्राप्त करते हैं।। 7।।

जानना हो, तो ध्यान की वैसी अवस्था चाहिए, जब ध्येय कुछ भी न रह जाए। ऐसी चेतना चाहिए, जब चैतन्य ही बचे, विषय कोई भी न हो। दर्पण ही हो, प्रतिफलर्नं बिलकुल न रहे। लेकिन बड़ी दूर की है ऐसी स्थिति। बहुत मुश्किल मालूम पडेगी। उस तक पहुंचना असंभव—जैसा दिखेगा। क्योंकि एक क्षण को तो हमारा मन ठहर नहीं पाता और एक क्षण को तो विचार से छुटकारा नहीं है। एक छोटे—से विचार को भी अलग करना हो तो पराजय हाथ लगती है।
तो कैसे होगा यह कि सारे विचार समाप्त हो जाएं! एक जरा—सी तरंग तो हटा नहीं पाते हैं, कैसे होगा कि चित्त बिलकुल ही निस्तरंग हो जाए! विचार से छुटकारा मुश्किल मालूम पड़ता है, निर्विचार कैसे घटित होगा! और अगर यही हो शर्त कि बिना निर्विचार हुए परमतत्व को नहीं जाना जा सकता, तो हमारे हृदय में निशित ही निराशा पैदा होगी। गहन निराशा पैदा होगी। और लगेगा कि शायद यह बात पाने की हमारे बस की तो नहीं है। हमसे यह नहीं हो सकेगा।
इसलिए समस्त ज्ञानियों ने जिन्होंने जाना है उसे, उन्होंने निरंतर यह कहते हुए कि वह नहीं पाया जा सकता किसी पर ध्यान करने से, फिर भी ध्यान के लिए विषय बताए हैं। यह कहते हुए कि किसी विचार से उस तक नहीं पहुंचा जा सकता, फिर भी विचार के माध्यम सुझाए हैं कि इन विचारों का उपयोग करने से निर्विचार तक जाने की सीढ़ी बन सकेगी। इसलिए समस्त धर्म अपनी गहनता में, गहराई में भलीभांति जानते हैं कि उस तक पहुंचना तो केवल शून्यचित्त व्यक्ति के लिए संभव होगा। लेकिन शून्यचित्तता बड़ी कठिन है। तो शून्यचित्तता और हमारी स्थिति के बीच में कुछ सीढ़ियां बनानी जरूरी मालूम पड़ती हैं।
ध्यान के संबंध में कैवल्य उपनिषद में आत्यंतिक बात कहने के बाद इस सूत्र को लिया है। यह सूत्र बीच की सीढ़ी बनाता है। इसमें हम परमात्मा के किसी आकार को मानकर यात्रा शुरू करते हैं। यह आकार अंतिम नहीं है। इस आकार पर रुकना भी नहीं है, इस आकार पर पूर्णता भी नहीं है। पूर्णता तो वहीं होगी जहां सब आकार खो जाएंगे। लेकिन' हम इतने आकारों से घिरे हैं कि इतने आकारों में घिरे मन को समझ में ही आना मुइश्कल है कि निराकार में कैसे हो सकेंगे। इसलिए यह सूत्र बीच की एक कड़ी को निर्मित करता है।
वह कड़ी यह है कि बहुत आकारों को छोड़े, एक आकार को पकड़े, ताकि एक आकार भी छोड़ा जा सके और निराकार में प्रवेश हो। इस एक आकार की ही इसमें चितना है। इस आकार के संबंध में कुछ शब्द हम समझ लेंगे, तो फिर यह सूत्र खयाल में आ जाएगा।
'जिसे उमासहाय, परमेश्वर, नीलकंठ और त्रिलोचन के नामों से पुकारा जाता है, जो समस्त चराचर का स्वामी और शांतिस्वरूप है, जो समस्त भूतों का कारण और साक्षी है, जो अविद्या (तमस) से दूर है—उसी को मुनिजन ध्यान से प्राप्त करते हैं। 'कैसे बनाएं उसका आकार जिसका कोई आकार नहीं है? यह आकार बहुत तरह से बनाया जा सकता है। इस आकार को बनाते वक्त हमारे चित्त में, जो निराकार को समझने में समर्थ नहीं हो पाता है, कुछ ऐसी आकार की भूमिका दी जाए कि भूमिका इस चित्त के समझ में भी आ सके, और फिर ऐसी भी न हो जाए कि पकड़ जाए तो छूट न सके। एक आदमी सीढियों से चढ़ता है। सीढ़ी की खूबी यह है कि उस पर हम चढ़े भी और उससे हम हट भी जाएं। सीडी पर पैर रखते हैं छोड़ देने के लिए ही। आदमी एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर चढ़ता है तो हर सीढ़ी को पकड़ता है और हर सीडी को छोड़ता है। और अंत में सारी सीढ़ियों को छोड्कर दूसरी मंजिल में प्रवेश करता है।
सीढ़ी पकड़नी पड़ती है, छोड़ने के लिए ही। अगर कोई ऐसा समझे कि सीढ़ी को ही पकड़ लेना है, तो पहली मंजिल भी खो जाएगी और दूसरी भी नहीं मिलेगी। बहुत बार ऐसा होता है, तथाकथित बहुत—से धार्मिक व्यक्तियों से, संसार से भी उनका पैर छूट जाता है और परमात्मा तक भी पैर नहीं पहुंच पाता है। और उनकी स्थिति त्रिशंकु की हो जाती है। न वे यहां के होते हैं, न वे वहां के होते हैं। न घर के होते हैं न घाट के होते हैं। और उसका एकमात्र कारण यही है कि सीढ़ी पकड़ जाती है। और सीडी पर होना बहुत खतरनाक है। क्योंकि सीढ़ी कोई निवास नहीं है। सीढ़ी कोई मुकाम नहीं है। इससे तो बेहतर था पहली मंजिल पर ही रहते। वहां भी निवास हो सकता था। क्षणभंगुर ही सही, लेकिन फिर भी निवास था।
क्षणभंगुर को छोड़ दिया, शाश्वत में प्रवेश न हुआ और सिर्फ सीढ़ी को पकड़कर बैठ गये; तो जीवन बड़ी ही कुइवधा का हो जाता है। और तथाकथित धार्मिक आदमियों का जीवन बड़ी दुविधा का हो जाता है। उससे तो कभी—कभी सांसारिक आदमी भी ज्यादा प्रसन्न और स्वस्थ मालूम पड़ता है। कम—से—कम कहीं उसका घर है। निश्रित ही जो परमात्मा के घर में प्रवेश कर जाते हैं उनके आनंद का हिसाब लगाना मुश्किल है। सांसारिक के पास वैसा कुछ भी नहीं हूंएए। उसकी खुशी, उसका सुख आनंद के सामने ऐसे फीके पड़ जाते हैं जैसे सूरज के सामने छोटा—सा दीया फीका पड़ जाए। लेकिन जो बीच में अटक जाता है, दोनों सीढ़ियों के, दोनों मंजिलों के बीच की सीढ़ी को पकड़ कर अटक जाता है, उसकी दशा सांसारिक से भी बुरी हो जाती है।
इसलिए मैं देखता हूं मेरे पास न—मालूम कितने धार्मिक लोग आते हैं, उनकी पीड़ा देखकर मैं हैरान हो जाता हूं। धार्मिक आदमी को पीड़ा तो होनी ही नहीं चाहिए। उनकी पीड़ा भी समझने जैसी है। उनकी पीड़ा यही होती है कि बुरे लोग दुनिया में मजा कर रहे हैं। और भले लोग कुइनया में बड़ी मुसीबत में हैं। भला आदमी कभी मुसीबत में होता नहीं। और हो, तो जानना चाहिए भला नहीं होगा। क्योंकि भले आदमी का अर्थ ही यह होता है कि जिसने मुसीबतों के भी सुखद पहलू को देखना शुरू कर दिया।
भला आदमी और शिकायत में कोई मेल नहीं है। लेकिन अगर भला आदमी भी शिकायत करता है तो उसका कुल कारण इतना है, वह वही सब चाहता है जो बुरे आदमी को मिल रहा है, लेकिन बुरा करने की हिम्मत भी उसकी नहीं है। एक चोर ने बड़ा मकान बना लिया है, वह भी मकान बनाना चाहता है और चोरी भी नहीं करना चाहता। तो वह चाहता यह है कि मैंने चोरी नहीं की, तो इससे बड़ा मकान मुझे मिलना चाहिए। क्योंकि मैंने चोरी नहीं की, इसलिए मकान मुझे मिलना चाहिए। और चोरी न करने का कारण यह नहीं है कि धन पर उसका मोह नहीं है। क्योंकि धन पैर और मोह न होता तो इस बड़े मकान को देखकर ईर्ष्या भी नहीं जनमती। धन पर उसका मोह पूरा है। लेकिन सौ में से निप्यानबे भले आदमी सिर्फ भय के कारण भले होते हैं। चोरी की हिम्मत नहीं है। चोरी का साहस नहीं है। और नपुंसकता से कहीं कोई दुनिया में भलापन पैदा नहीं होता।
तो यह आदमीं भीतर से चोर की सारी आकांक्षाओं से भरा है, सिर्फ इसमें चोर की हिम्मत की कमी है। इसलिए जब चोर मकान बना लेता है तब इसे भारी पीड़ा और ईर्ष्या होती है। और तब यह कहता है कि भले आदमी बड़ा दुख उठा रहे हैं और बुरे आदमी बड़ा मजा ले रहे हैं। यह जो आदमी है, यह त्रिशंकु है। यह सीडी पर अटका हुआ है। यह छलांग भी नहीं लगा पाया परम रहस्य में और वह वहां से भी हट गया है जहां से इसका मन अभी हटा नहीं था।
इससे दूसरी बात भी आपको कह दूं कि सीढ़ी को पकड़ते ही वे हैं जिनसे नीचे की मंजिल वस्तुत: नहीं छूटी होती है। अगर वस्तुत: नीचे की मंजिल छूट जाए तो जो नीचे की मंजिल छोड़ सकता है, वह सीडी पकड़ेगा? जो आदमी नीचे की मंजिल छोड़ सकता है, वह सीढ़ी को पकड़ने का कारण उसे नहीं रह जाता। नीचे की मंजिल छोड़ तो देता है आदमी, उस छोड़ने के पीछे भी, जैसा मैंने कहा तथाकथित भले आदमी के पीछे भय कारण होता है, ऐसे ही तथाकथित त्यागियों के पीछे लोभ कारण होता है। वे संसार छोड़ देते हैं, किसी लोभ के वश में।
यह हमें थोड़ा जानकार हैरानी होगी कि संसार को त्याग करनेवाले सौ में से नित्यानबे लले लोभ के कारण ही त्याग करते हैं। शाखों में पढ़ लेते हैं, गुरुओं से सुन लेते हैं और उनके लोभ की घनी मात्रा जग जाती है। और उन्हें लगता है कि संसार में क्या रखा है, इसको छोड़ दो। तो जहां, जहां मिल सकता हो असली सुख, उसको ही पाने के लिए इसको छोड़ दो। इस संसार का छोड़ना उनके लिए एक सौदा है। तो मन से तो नहीं छूट पाता, सीडी पर तो पहुंच जाते हैं, फिर सीढ़ी को नहीं छोड़ पाते हैं क्योंकि भय लगने लगता है। भय यह लगने लगता है कि कहीं सीडी भी छूट गयी—संसार भी छूट गया, कहीं सीढ़ी भी छूट गयी और वह जो परम रहस्य है वह मिला, न मिला!
और ध्यान रहे, वह परम रहस्य जब तक मिल न जाए, तब तक उसके संबंध में कुछ भी पता नहीं होता कि वह मिलेगा भी कि नहीं मिलेगा। यह भी पता नहीं होता। यह भी पका नहीं होता। उसका मिल जाना शुइनश्रित है, यह मिलकर ही पता चलता है। इसीलिए तो श्रद्धा पर इतना जोर है। श्रद्धा का मतलब यह है कि जो अनिश्रय में कूदने को तैयार है। 'इनसिक्योरिटी' में, असुरक्षा में कूदने को तैयार है। जो कहते हैं, ठीक है, मिलन नहीं मिलेगा, यह कूदकर ही देख लेंगे। अभी से यह भी पका वचन लेकर नहीं चलते हैं, कि मिलेगा तो ही कूदेंगे। जिस आदमी ने ऐसा कहा कि मिलेगा तो ही कूदेंगे, वह कभी कूदेगा ही नहीं। क्योंकि मिलने का कोई पता मिलने के पहले कैसे चल सकता है?
आज ही मुझे एक पत्र मिला है एक मित्र का। उन्होंने मुझे लिखा है—शांति नहीं है, आनंद नहीं है, जीवन में कोई अर्थ नहीं है। कहीं कोई परमात्मा है, ऐसी श्रद्धा भी नहीं आती। कहीं कोई शांति हो सकती है, कहीं कोई आनंद हो सकता है, ऐसी आस्था भी नहीं बनती। फिर भी आपसे चाहता हूं कि मुझे मार्ग दिखाएं। इस तरह के बहुत व्यक्तियों से मैं परिचित हूं। क्योंकि इनको अगर मार्ग भी दिखाया जाए तो उस पर भी आस्था नहीं आती, उस पर भी श्रद्धा नहीं आती, उसमें भी कोई अर्थ दिखायी नहीं पड़ता। क्योंकि सवाल मार्ग का नहीं है। मार्ग तो बहुत हैं और साफ है। लेकिन सवाल तो उस आंख का है, उस भरोसे का है। क्योंकि मार्ग दिखायी नहीं पड़ता है। मंजिल तो कभी दिखायी नहीं पड़ती है। मंजिल तो उसे दिखायी पड़ेगी जो मार्ग पर चलेगा। इन सबको इन सबको आकांक्षा यह है कि मार्ग पर चलने के पहले मंजिल दिखायी पड़ जाए, भरोसा आ जाए कि है। यह असंभव है। और इसी असंभावना के कारण श्रद्धा का इतना मूल्य है।
श्रद्धा का अर्थ है कि रास्ता दिखायी पड़ता है, मंजिल दिखायी नहीं पड़ती, लेकिन मैं चलता हूं। मैं चलता हूं। और ध्यान रहे, चलने से ही मंजिल निर्मित होती है और दिखायी पड़ती है। अगर श्रद्धा सघन हो तो शायद चलने की भी जरूरत नहीं है। श्रद्धा सघन हो तो मंजिल सामने ही प्रगट हो जाती है। श्रद्धा की सघनता पर निर्भर है। श्रद्धा विरल हो तो रास्ता बहुत लंबा हो जाता है। श्रद्धा बिलकुल न हो तो रास्ता अंतहीन हो जाता है। अश्रद्धा हो, रास्ता 'सर्कुलर' हो जाता है, गोल घूमने लगता है। फिर उसमें घूमते रहो, घूमते रहो और कहीं भी पहुंचाता हुआ मालूम नहीं पडता।
श्रद्धा से मंजिल क्यों सामने आ जाती होगी, इसे थोड़ा समझ लेना उचित है। तो ही सीढ़ी छूट सकती है और तब यह सूत्र आसान हो जाएगा। नहीं तो, कठिन पड़ेगा। असल में मंजिल अगर बाहर होती तो चलकर मिल जाती।
यहां एक खयाल ले लें।
कोई आदमी माउंट आबूरोड से माउंट आबू की तरफ चले, उसे श्रद्धा बिलकुल न हो, तो भी माउंट आबू पहुंच जाएगा। श्रद्धा बिलकुल न हो, बल्कि विधायक रूप से अश्रद्धा हो—वह यह भी कहे कि मैं किसी माउंट आबू को नहीं मानता, फिर भी अगर वह रास्ते पर चले तो माउंट आबू पहुंच जाएगा।
होश में न आया हो, बेहोशी में उठाकर लाया गया हो, तो भी पहुंच जाएगा। क्योंकि माउंट आबू पहुंचने वाले पर निर्भर नहीं है। लेकिन जिस यात्रा की हम चर्चा कर रहे हैं, वह सारी—की—सारी मंजिल पहुंचने वाले पर निर्भर है। वह बाहर अगर मंजिल होती तो श्रद्धा की कोई जरूरत न थी। वह मंजिल भीतर है।
अगर हम ठीक समझें तो ऐसा है किं जिस दिन हम मंजिल पर पहुंचेंगे तो हम स्वयं पर ही पहुंचेंगे, और कहीं पहुंचने वाले नहीं हैं। और अगर श्रद्धा न हो तो उसका अर्थ है कि हमें स्वयं पर ही भरोसा नहीं है। हम बाहर के कितने ही रास्तों पर चलते रहें। मंजिल आतरिक घटना है और वह मंजिल हमारे भाव से निर्मित होती है। जितना सघन होता है भाव, उतनी निर्मित होती है। उतनी निखरती है, उतनी प्रगट होती है।
वह जो प्रगट होता है, उसे हम ऐसा समझें कि वह एक कली है। कली अभी फूल नहीं है, लेकिन फूल हो सकती है। लेकिन जरूरी नहीं कि फूल हो ही। कली भी रह सकती है। यह भी हो सकता है कि फूल हो जाए, यह भी हो सकता है कली रहकर ही गिर जाए। किस बात पर निर्भर करेगा कली का फूल होना? कली का फूल होना उस कली के नीचे अंतर में बहती हुई रसधारा पर निर्भर करेगा। कितने बलपूर्वक उस पौधे में रस की धार बह रही है, इस पर निर्भर करेगा। वह रसधारा अगर बल में बह रही है, तो कली खिल जाएगी और फूल बन जाएगी। और अगर वह रसधार क्षीण है, मुर्दा है, गतिमान नहीं है तो कली कली रह जाएगी और फूल नहीं बन पाएगी।
कली के भीतर फूल छिपा है, संभावना की तरह। वास्तविकता की तरह नहीं, संभावना की तरह। एक स्वप्‍न है अभी तो, लेकिन साकार हो सकता है। लेकिन कली की अपनी रसधार पर निर्भर करेगा।
परमात्मा एक स्वप्‍न है मनुष्य की आत्मा में छिपा। अगर मनुष्य की आत्मा को हम कली समझें, तो परमात्मा फूल है। लेकिन आदमी की अपनी जीवन—रसधार पर ही निर्भर करेगा। उसी रसधार का नाम श्रद्धा है। कितने बलपूर्वक, कितने आग्रहपूर्वक, कितनी शक्ति से, कितनी त्वरा से अभीप्सा है भीतर? कितने जोर से पुकारा है हमने जीवन को? कितने जोर से हमने खीची है जीवन की प्राणवत्ता अपनी तरफ? कितने जोर से हम सलगन हुए हैं, कितने जोर से हम समर्पित हुए हैं? कितना एकाग्र भाव से हमने चेष्टा की है? इस सब पर निर्भर करेगा कि  कली फूल बने कि न बने।
तो जो आदमी कहता है श्रद्धा तो नहीं है, रास्ता बता दें, वह ऐसी कली है जो कह रही है—रसधार तो नहीं है लेकिन रास्ता बताएं कि फूल कैसे हो जाऊं? रास्ता बताया जा सकता है, लेकिन व्यर्थ होगा। क्योंकि रास्ते का सवाल उतना नहीं है, जितना चलने वाले की आंतरिक शक्ति का है।
श्रद्धा का अर्थ इतना ही है कि मैंने इकट्ठी की अपने प्राणो की सारी शक्ति, दाव पर लगा दी। दाव कठिन है, क्योंकि कली को फूल का कुछ भी पता नहीं है। कली यह भी सोच सकती है कि यह दाव कहीं चूक न जाए। कहीं ऐसा न हो कि फूल भी न बन पाऊं और पास की सपदा थी, जो रस धार थी, वह भी चूक जाए। यह डर है, यह भय है। यह भय है। कली को सोचना पड़ेगा कि मैं दांव लगाऊं, कहीं ऐसा नहो कि जिस रसधार से मैं महीनो तक कली रह सकती थी वह रसधार भी चूक जाएं दांव में, फूल भी न बन पाए और मेरी जिदगी भी नष्ट हो जाए। यही भय आदमी को धार्मिक नहीं होने देता। डर लगा ही रहता है कि जो है, कहीं वह न छूट जाएं। और जो नहीं है, वह मिलेन मिले, क्या पता!
इस अज्ञात में छलांग लगाने की हिम्मत ही श्रद्धा है!
कली छलांग लगा लेती है। फूल बन जाती है और फूल बन कर मिटने का मजा ही और है। और कली रह कर गिर जाना बड़ा दुःख दायी है। फूल बनकर मिटने का मजा और है। क्योंकि पूरा फूल अगर खिल गया हो, तो मिटना एक सुख है। मिटना एक आनंद है। क्योंकि पूरा फूल बन जाने के बाद विश्राम है। स्वाभाविक है। लेकिन कली अगर गिर कर नष्ट हो जाए तो बड़ा पीड़ादायी है। क्योंकि अभी कुछ पूर्णता भी न हुई थी। अभी जो प्रगट होना था, वह प्रगट भी न हुआ था। अभी जो गीत उस कली को गाना था, वह गाया नहीं गया। अभीजो नृत्य उस कली को करना था, वह हो नहीं पाया। अभी चांद—तारों से बातें करनी थीं और हवाओ के साथ खेलना था। और भी जीवन का जो सब कुछ छिपा था, वह सब छिपा ही रह गया।
भारतीय पुनजन्‍म की कल्पना में यह कली का ही पुनरावर्तन है। जो अधूरा मरेगा, वह बार—बार पैदा होगा। अधूरा मरने का मतलब है कि वह जो आकांक्षा रह गयी पूरे होने की, वह पुनः जन्म लेगी। जब तक कि फूल न बन जाए कली, तब तक पुनर्जन्म होता रहेगा।
आवागमन इसे मुक्ति का एक ही अर्थ है। वह अर्थ वैसा नहीं है जैसा कि मदिरों में बैठे हुए लोग सोचते रहते हैं कि हे परमात्मा, आवागमन से छुटकारा दिलाओ। यह परमात्मा के हाथ का काम नहीं है। कली की प्रार्थना नहीं की जा सकती। क्योंकि कली ने अभी पात्रता ही पैदा नहीं की कि वह प्रार्थना कर सके। यह तो फूल की प्रार्थना है कि अब मैं पूरा हुआ हूं अब मैं मिटना चाहता हूं। मिटना चाहना आखिरी आकांक्षा है और पूर्णता पर, परिपक्वता पर उपलब्ध होती है। कोई बुद्ध कह सकता है कि ठीक, अब बात समाप्त हुई! अब मैं समाप्त होना चाहता हूं।
हमारा मन तो कहता है, किसी तरह बचे रहें, किसी तरह बचे रहें, मिट न जाएं। यह कली का डर है। यह फूल की गरिमा है कि फूल कहे कि ठीक, अब मैं मिटना चाहता हूं। यह मिटना चाहने का मतलब यह है कि जीवन का सारा अर्थ पूरा हुआ। अभिप्राय निष्पन्न हुआ। जिसके लिए जीवन था, वह घटना घट गयी। जान लिया, जी लिया, हो लिया। अब, अब मिटना एक विश्राम है। अब उस परम में लीन हो जाना एक गहन विराम है। आनदपूर्ण है।
लेकिन कली का तो पुनर्जन्म होगा। क्योंकि कली अधूरी है। अधूरी है, अधूरी है, यही भाव आपने अनेक लोगों को मरते हुए देखा होगा। कभी कोई एकाध आदमी को मरते देखा है जिसके मरते वक्त श्वास—श्वास न कह रही हो— अधूरा हूं अधूरा हूं कुछ भी पूरा नहीं हुआ, कुछ भी पूरा नहीं हुआ, कुछ भी पूरा नहीं हुआ। हर आदमी यही कहता हुआ मरता दिखायी पड़ेगा—कुछ भी पूरा नहीं हुआ, सब अधूरा है। और मुझे उठाए ले रहे हो। तो सारे प्राण वापिस लौटने के लिए आतुर हैं। पूर्ण हुए बिना आवागमन से कोई छुटकारा नहीं।
यह जो पूर्ण होना है, यह कली की छलांग लगाने के साहस पर निर्भर है। दुस्साहस कहना चाहिए। क्योंकि कली को फूल होने का कोई भी पता नहीं है। लेकिन सिर्फ एक गहरे में आकांक्षा पूरे होने की जरूर है। इस भाव को अगर साधक संभाल पाए और तैयार हो जाए कूदने को। मतलब यह हुआ कि तैयारी है उसकी कि जो मैं हूं मिट जाऊं, लेकिन जो मुझे होना चाहिए वह होने के लिए मैं सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार हूं तो वह इसी क्षण भी पूर्ण हो सकता है। कली इस क्षण भी खिल सकती है। खिलने में कितनी देर लगेगी, यह उसकी रसधार पर ही निर्भर करेगा। रसधार अगर अभी पूर्ण शक्ति से बह जाए, तो पंखुइड्यां अभी खिल जाएंगी। इसी क्षण! पंखुड़ियां फिर यह न कहेंगी कि अभी तो जल्दी थी। कभी भी जल्दी नहीं है। काफी देर पहले ही हो चुकी है। बहुत—बहुत बार हम कली होकर मिल चुके, और मिट चुके हैं। तो देर तो पहले ही काफी हो चुकी है। जल्दी बिलकुल नहीं है। कभी भी हो जाए तो यह काफी है। काफी समय के बाद हुई घटना है। लेकिन यह रसधार उपलब्ध होनी चाहिए। श्रद्धा आध्यालिक जीवन के खिलने में रसधार है।
इस श्रद्धा के आत्यंतिक छलांग में सीडी पकड़ जाएगी, अगर श्रद्धा की कमी होगी। तो किसी तरह हम संसार छोड़ देंगे, फिर सीढ़ी पर डरते हुए खड़े हो जाएंगे। फिर सीढ़ी के पार तो अतात है। उसमें उतरने में भय लगेगा। सीढ़ी ज्ञात मालूम पड़ेगी। सीढ़ी बनायी जाती ही इसलिए कि एक ज्ञात और अज्ञात के बीच में एक मध्यबिंदु बन जाए, जिससे यात्रा सुगम हो जाए। लेकिन वही मध्यबिंदु जकड़न भी बन सकता है। यह हम पर निर्भर करेगा कि हम उसका क्या उपयोग करते हैं। वह 'जंपिंग बोर्ड' भी हो सकता है। हम पर निर्भर करेगा। और हम वहीं अपना बिस्तर—बोरिया रखकर निवास भी बना सकते हैं। वह हम पर निर्भर करेगा।
यह जो सूत्र है, बीच के 'जंपिंग बोर्ड' के लिए है। छलांग लगाने के लिए स्थलमात्र है।
सूत्र में कहा है. प्रतीक शब्द है; जिसने इस उपनिषद को लिखा है वह शिव का भक्त है। शिव उसके लिए अनंत के प्रतीक हैं। ऐसे भी शिव बहुत अद्भुत प्रतीक हैं। मनुष्य ने बहुत प्रतीक खोजे हैं, लेकिन शिव जैसा अनूठा प्रतीक बहुत मुश्किल है। सारे जगत में परमात्मा के लिए जितने शब्द हमने खोजे हैं, उनमें शिव का कोई भी मुकाबलानहींहै।
उसके कारण है।
शिव का अर्थ है-शुभ। अच्छा। लेकिन शिव के व्यक्तित्व में, जिसे हम बुरा कहें वह सब भी मौजूद है। जिसे हम बुरा कहें, वह सब मौजूद है। शिव का अर्थ ही है शुभ, लेकिन शिव को हमने विध्वंस का देवता माना है। विनाश का। उसी से अंत होगा जगत का। हैरानी की बात मालूम पड़ती है कि जो शुभ है, शिव है, वह विध्वंस का देवता होगा। लेकिन बडी कीमती बात है।
हम कभी यह मान ही न पाए कि इस जगत का अंत अशुभ से हो। इस जगत का अंत उस पूर्णता में हो जहां शुभ का सारा फूल खिल जाए। अंत जो हो, वह अंतहीन हो, पूर्णता भी हो। अंत जो हो, वह सिर्फ मृत्यु हीन हो बल्कि महाजीवन का अतिंम शिखर भी हो।
और हमारी शुभ की जो धारणा है, वह भी बडी अद्भुत है। दुनिया में जहां भी शुभ की धारणा की गयी है, वह अशुभ के विपरीत है। इसलिए भारत को छोड़कर सारे जगत में सभी धर्मों ने, जो भारत के बाहर पैदा हुए, दो ईश्वर मानने की मजबूरी प्रगट की है। दो ईश्वर से मेरा मतलब है, एक को वे ईश्वर कहते है, एक को वे शैतान कहते हैं। बुराई का भी एक ईश्वर है। उसको अलग करना पड़ा है। भलाई का एक ईश्वर है, उसको अलग करना पड़ा है। और जब मैं कहता हूं कि दो ईश्वर, तो कई कारणों से कहता हूं। अंग्रेजी में शब्द है, 'डेविल'। वह संस्कृत के देव शब्द से ही बना है। वह भी देवता है। बुराई का देवता है। बुराई का देवता अलग निर्मित करना पड़ा है। क्योंकि भारत के बाहर कोई भी मनीषा इतनी हिम्मत की नही हो सकी कि बुराई और भलाई को एक ही व्यक्तित्व में निहित कर दें। यह बड़ा साहस का काम है। सोच ही नही पाते हैं। हम भी नहीं सोच पाते है। जब हम कहते है फलां आदमी महात्मा है, तो फिर हम सोच ही नहीं पाते है कि उसमें कुछ भी. जैसे क्रोध महात्मा कर सके, यह हम सोच ही नहीं सकते। लेकिन शिव क्रोध कर सकते हैं। और साधारण क्रोध नहीं, कि भस्म कर दें! और हिंदू-मन कहता है कि शिव से दयालु कोई भी नहीं है, बहुत भोले हैं। जरा-भी कोई मनाले, तो किसी भी बात के लिए राज़ी हो जाते है। ऐसा वरदान भी आदमी माग सकता है कि खुद ही झंझट में पड़े। तोयह आदमी अनूठा मालूम होता है। यह प्रतीक अनूठा मालूम होता है।
बुराई और भलाई को हमने कभी भी दो विपरीत चीजे नहीं माना है। क्योंकि विपरीत मानकर ही जगत दो खंड में बंट जाता है और द्वैत शुरू हो जाता है। और फिर अगर विपरीत है भलाई और बुराई, तो फिर भलाई की जीत शुनिश्रत नहीं है। बुराई भी जीत सकती है। अगर बुराई और भलाई के बीच संघर्ष है, तो फिर भलाई की जीत सुनिश्रित नहीं है। फिर कौन तय करेगा कि अंत में ईश्वर ही जीतेगा और शैतान नहीं जीत जाएगा? जहां तक रोज का सवाल है, शैतान जीतता हुआ दिखायी पड़ता है। क्या पका है कि अंततः भी शैतान नहीं जीतेगा? अगर दो शक्तियां हैं इस जगत में, तो आज तक का जो अनंत इतिहासहै आदमी का, उसमें कोई भी ऐसा क्षण नहीं मालूम पड़ता जब बुराई न रही हो। बुराई और भलाई सदा ही सघर्षरत रही है।
तो अंनत इतिहास कहता है कि वे दोनो सदा ही लड़ती रही है। या तो ऐसा मालूम पड़ता है कि वे समान शक्तिशाली हैं। इसलिए कोई अतिंम जीत तय नहीं हो पाती है। कभी कोई जीतता लगता है, कभी कोई जीतता लगता है। फिर भी अगर गौर से हम देखें तो निव्यानबे मौके पर बुराई जीतती लगती है। एक मौके पर भलाई जीतती लगती है। तो ऐसा डर लगता है कि कहीं बुराई ज्यादा मजबूत तो नहीं है। जैसे ही हम बुराई और भलाई को बांट दें, खतरा शुरू हो जाता है। और इसमें फिर कोई अंत नहीं हो सकता। कोई अंत नहीं हो सकता कि कौन जीतेगा? और अगर यह निश्रित ही न हो कि अंततः शुभ जीतता है, तो शुभ की सारी चेष्टा व्यर्थ हो जाती है। लेकिन भारत और ढंग से सोचता है। भारत बुराई को भलाई के विपरीत नहीं मानता। भारत बुराई को भलाई में आत्मसात कर लेता है। इसे हम ऐसा समझें, भारत क्रोध को अनिवार्य रूप से बुरा नहीं कहता। भारत कहता है किं क्रोध अगर शुभ के लिए हो तो शुभ हो जाता है। क्रोध अगर शुभ के लिए हो तो शुभ हो जाता है।
भारत कहता है कि शक्तियां सब तटस्थ हैं। विज्ञान अभी इस बात को अनुभव करता है कि शक्तियां सब तटस्थ हैं। शक्ति न शुभ होती है, न बुरी होती है। भारत कहता है क्रोध भी शक्ति है। एक ऊर्जा है, एक 'एनर्जी है। तो क्रोध भी शुभ हो सकता है, अगर शुभ की सेवा में हो। अशुभ हो सकता है, अगर अशुभ की सेवा में हो। लेकिन क्रोध अपने—आप में न शुभ है, न अशुभ है। मेरे हाथ में एक तलवार है, वह न शुभ है और न अशुभ है। मैं किसी की गर्दन काट कर लूट भी सकता हूं; और लुटते की, गर्दन कटते आदमी की रक्षा भी कर सकता हूं। तलवार अपने में तटस्थ है। भारत मानता है, सभी शक्तियां तटस्थ हैं। किसलिए उनका उपयोग होता है, इसपर सब कुछ निर्भर करेगा।
हम अशुभ को एक अलग देवता नहीं बनाते हैं, केवल शक्तियों का एक दुरुपयोग बताते हैं। शक्ति का दुरुपयोग किया जा सकता है। शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। और सदुपयोग अंत में जीतेगा। क्योंकि दुरुपयोग करनेवाले को ही दुख लाता है। इसलिए अंततः दुरुपयोग जीत नहीं सकता। क्योंकि जिस चीज से मुझे ही दुख मिलता जाता हो, मैं कब तक उसे कर सकता हूं? कितना ही करता रहूं अंततः मैं छूट ही जाऊंगा, क्योंकि दुख के साथ संबंध तय रखना असंभव है। जिस दिन मुझे पता चलेगा कि यह दुख मैं ही निर्मित कर रहा हूं उसी दिन मैं सदुपयोग में बदल दूंगा अपनी शक्ति को। अशुभ शुभ के विपरीत कोई शक्ति नहीं हैं। अशुभ और शुभ एक ही शक्ति के सदुपयोग और दुरुपयोग हैं। और वह शक्ति परमात्मा की है।
तो शिव के व्यक्तित्व में हमने समस्त शक्तियों को स्थापित किया है। अमृत है उनका जीवन।. मृत्युंजय हैं वह, लेकिन जहर उनके कंठ में है। इसलिए नीलकंठ हम उनको कहते हैं। उनके कंठ में जहर भरा हुआ है। जहर पी गये हैं। मृत्युंजय हैं, अमृत उनकी अवस्था है, मर वह सकते नहीं हैं, शाश्वत हैं और जहर पी गये हैं। शाश्वत जो है, वही जहर पी सकता है। जो मरणधर्मा है, वह जहर कैसे पिएगा?
और यह जहर तो सिर्फ प्रतीक है। शिव के व्यक्तित्व में जिस—जिस चीज को हम जहरीली कहें, वे सब उनके कंठ में हैं। कोई खी उससे विवाह करने को राजी नहीं थी। कोई पिता राजी नहीं होता था। उमा का पिता भा बहुत परेशान हुआ था। पागल थी लड़की, ऐसे वर को खोज लायी, जो बेबूझ था! जिसके बाबत तय करना मुश्किल था कि वह क्या है? परिभाषा होनी कठिन थी। क्योंकि वह दोनों ही था। बुरे—से—बुरा उसके भीतर था। भले—से—भला उसके भीतर था। और जब बुरा भीतर होता है तो हमारी आखें बुरे को देखती हैं, भले को नहीं देख पातीं। क्योंकि बुरे को हम खोजते रहते हैं। बुरे को हम खोजते रहते हैं। कहीं भी बुरा दिखायी पड़े तो हम तत्काल देखते हैं, भले को तो हम बामुश्किल देखते हैं। भला बहुत ही हम पर हमला न करे, माने ही न, किये ही चला जाए, तब कहीं मजबूरी में हम कहते हैं—हणो, शायद होगा। लेकिन बुरे की हमारी तलाश होती है।
तो अगर लड़की के पिता को शिव में बुरा—ही—बुरा दिखायी पड़ा हो, तो कोई हैरानी की बात नहीं है। लेकिन भीतर जो श्रेष्ठतम, शुद्धतम शुभत्व है, वह भी था। और दोनों साथ थे, और दोनों इतने संतुलित थे कि वह जों व्यक्ति था, दोनो के पार हो गया था। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें।
जब बुराई और भलाई पूर्ण सतुलन में होती है तो संत पैदा होता है। संत भले आदमी का नाम नहीं है। भले आदमी का नाम सज्जन है। बुरे आदमी का नाम दुर्जन है। भलाई और बुराई को, दोनों को जो इस ढंग से आत्मसात कर ले कि वे दोनों संतुलित हो जाएं और एक—दूसरे को काट दें; बराबर मात्रा में हो जाए और एक—दूसरे को काट दें, तो दोनों के पार जो व्यक्तित्व पैदा होता है, वह संत है। संत एक गहन संतुलन है।
इसलिए आप यह मत समझना कि संत में बुराई नहीं होती है। संत में बुराई और भलाई सम मात्रा में होती है। वह इतनी सम होती है कि दोनों एक—दूसरे से कट जाती है। ऋण और धन बराबर हो गये होते हैं। और संत उनके पार हो गया होता है। लेकिन संत उन में से किसी का उपयोग कभी भी कर सकता है।
यह शिव जो है, संतत्व की आखिरी धारणा है। इस उपनिषद का ऋषि शिव का भक्त है। उसने शिव को प्रतीक माना है ध्यान का। उसने कहा है कि जिसे उमा का सहायक, जिसे उमा का प्रेमी, जिसे उमा का रक्षक, परमेश्वर कहा है; जिसे हमने नीलकंठ कहा है, जिसे हमने त्रिलोचन कहा है, इनसब नामों से जिसे हमने पुकारा है। इसमें तीन नाम उपयोग किये हैं। एक तो उमा का सहायक या उमा का प्रेमी, या उमा का पति, या उमा का आधार।
यह भी थोड़ा सोच लेने जैसा है। जैसे मैंने कहा, शुभ और अशुभ, वैसे ही शिव अकेले ही व्यक्ति है जिसमे सी और पुरुष सम हो गये है। इसलिए हमने अर्धनारीश्वर की मूर्ति बनायी। वह बेजोड है सारे जगत में। कहीं भी ऐसी कोई मूर्ति नहीं है किसी परमात्मा की कल्पना की, जहां स्री और पुरुष को हमने आधा—आधा अंगरखा हो। दुनिया के अधिकतम ईश्वर पुरुष हैं। कुछ आदिम जातियों के ईश्वर स्रैण हैं—काली माता है, या और। लेकिन आम तौर से अधिक ईश्वर पुरुष हैं। 'यह दोनो ही बाते अधूरी हैं। क्योंकि अगर ईश्वर पुरुष है, तो स्‍त्री का व्यक्तित्व कभी भी पुरुष के समान नही हो सकता। वह हमेशा नबर दो काव्यक्तित्व होगा।
इसलिए ईसाइयत ईश्वर को पुरुष मानती है तो खीको सिर्फ आदमी की हड्डी से, पसली से बना हुआ मानती है। एक 'सेकेंडरी' घटना है। एक द्वितीय कोटि की घटना है। जरूरत पड़ी अदम को, अकेले में उसका मन नहीं लगता था, तो एक खिलौने की तरह स्री उसकी हड्डी से निकालकर बना दी गयी। पर इससे ज्यादा इसका कोई मूल्यन हीं है। ईसाइयत के पास ईश्वर की स्रैण....स्रैणतत्त्व को भी ईश्वर में प्रवेश करने का कोई उपाय नही है। कोई उपाय नहीं है। ईश्वर के तीन रूप ईसाइयत ने माने हैं—'गॉड दे फादर, गॉड दे सन एंड दे होली घोस्ट'। ईश्वर पिता, ईश्वर पुत्र, और ईश्वर. पवित्र आत्मा। लेकिन तीनो में से कोई भी खैण नहीं है। सभी पुरुष हैं।
फिर ईश्वर को माननेवाले आदिम समाज भी हैं। लेकिन उनके पास पुरुष की कोई धारणा नहीं है। जिन समाजो में स्री की सत्ता थी उन्होने ईश्वर को स्रैण बना लिया। और जिन समाजों में पुरुष की सत्ता थी, उन्होंने ईश्वर को पुरुष बना लिया। ये सामाजिक दुर्घटनाए है, इनसे ईश्वर का कोई सबंध नहीं है।
लेकिन शिव अकेला ही एक प्रतीक है, जिसमें हमने सी और पुरुष को बराबर मात्रा दी है। आधा अंग पुरुष का, आधा अंग सी का। और मजे की बात है कि आधा अंग पुरुष का, आधा अंग सी का हो, तो फिर दोनों का संतुलन काट देता है और व्यक्तित्व दोनों के पार हो जाता है। यह वैज्ञानिक गणित है कि जहां भी दौ विरोधी चीजें सम हो जाती हैं, तो व्यक्तित्व तत्काल तीसरा हो जाता है। वह पार हो जाता है, दोनों के। वह फिर वही नहीं रह जाता है।
तो पहली बात कही है कि उमासहायक। यह बहुत मजेदार बात है—उमा के सहायक। या उमा के प्रेमी, या उमा के मित्र, या उमा के पति। लेकिन दोनों को बराबर, दोनों को बराबर रखने की दृष्टि है। और दोनों बराबर हों, तो ही हम लैंगिक— भेद से ईश्वर को पार ले जाते हैं।
'नीलकंठ'। तो मैंने कहा कि जहर पी गये हैं। जहर पी गये हैं, तो जहर पी ही वह सकता है जिसे अमृत का आश्वासन इतना गहन हो कि जहर कुछ कर सकेगा यह प्रश्र और संदेह ही न उठे। मरने को सहज वही तैयार हो सकता है जिसे पता ही हो कि मरना होता ही नहीं।
आज एक मित्र संन्यास लेने आये थे। विचारशील हैं। पढ़े—लिखे हैं। तो उन्होंने कहा कि इसीलिए संन्यास नहीं ले रहा हूं कि अगर संन्यास लूं और आपको स्वीकार कर लूं तो फिर मेरा व्यक्तित्व खो जाएगा। तो मैंने उनसे कहा कि अगर तुम्हें व्यक्तित्व में इतना शक है अपने, तो वह होगा ही नहीं। इतना शक है कि संन्यास लेने से व्यक्तित्व खो जाएगा, तो वह होगा ही नहीं। अगर तुममें व्यक्तित्व हो, तो तुम निर्भय होकर संन्यास ले सकते हो। सच तो यही है कि जब भी कोई व्यक्ति किसी के चरणों में जाता है, तो वही जा सकता है चरणों में जिसे इतना भरोसा हो कि चरणों में छोड्कर भी कुछ भी तो खोया नहीं। यह अपने भरोसे से! व्यक्तित्व का इतना भरोसा हो तो समर्पण भी हो सकता है।
शिव जहर पी गये हैं, क्योंकि अमृत का ऐसा सघन भरोसा है। वह जहर कंठ में ही अटक कर रह गया है। इसके बड़े प्रतीकात्मक अर्थ हैं। इसे थोड़ा खयाल में लेना चाहिए।
वह जहर कंठ में अटक कर रह गया। कंठ हमारे व्यक्तित्व की पहली परिधि है। समझें कि कंठ हमारे व्यक्तित्व का द्वार है। उसके बाद ही हमारे व्यक्तित्व का महल है। वह द्वार से भीतर नहीं जा सका है जहर। लेकिन अगर हम जहर पी लें, तो हम फौरन मर जाएंगे।
मर जाने का कारण यह है कि कंठ के पार हमारा कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। कंठ ही हमारा व्यक्तित्व है। हम अगर ठीक से समझें तो हम जो बोलते हैं, सोचते हैं, कहते हैं, चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं, मानते हैं, वह सब हमारे कंठ तक है। कंठ से नीचे कुछ भी नहीं है।
एक आदमी कह रहा है, मैं आस्तिक हूं। यह कंठ के नीचे की आवाज नहीं है। एक आदमी कह रहा है, मैं भगवान को मानता हूं यह कंठ से नीचे की आवाज नहीं है। यह कंठ के बिलकुल ऊपर है'। कंठ को काटकर कर दो अलग, नीचे इस आवाज का कोई पता नहीं चलेगा। यह सिर्फ कंठ से उठ रहा है। हमारा व्यक्तित्व कंठ—केंद्रित है।
आदमी ने कंठ का बहुत विकास किया। वाणी का, भाषा का, विचार का। सारा विचार कंठ पर निर्भर है। और इसलिए आदमी की जिंदगी कंठ के बाहर ही और कंठ के ऊपर ही चलती है। उसके नीचे का सब लोक अंधकार हो गया। कंठ के नीचे के सब केंद्र अंधेरे में छुप गये।
शिव ने जहर पीया तो कंठ पर रुक गया, क्योंकि कंठ तक जो भी है वह मरणधर्मा है। इसे ठीक से समझ लें।
कंठ तक जो भी है वह मरणधर्मा है। शब्द और भाषा और वाणी और इस सबका कोई मूल्य नहीं है। ये सब मृत्यु की सीमा के भीतर हैं। यहां तक तो जहर काम कर जाएगा। अगर कंठ के पार भी आपके पास कुछ हो तो ही आप अमृतधर्मा हो सकते हैं। शिव का जहर रुक गया कंठ में, क्योंकि वहां तक तो मृत्यु का वास है। वहां तक जा सकता है जहर, उसके पार अमृत है। उसके पार जहर नहीं जा सकता है।
शिव का कंठ नीला पड़ गया है जहर के कारण। इसका एक और अर्थ भी है। वह भी हम खयाल में ले लें। शिव के कंठ में जहर जाने के बाद, शिव के कंठ के नीले पड़ जाने के बाद वे परम मौनी हो गये। वे बोलते ही नहीं। वे चुप ही हो गये। उनकी चुप्पी बहुत अदभुत है और कई आयामों में फैली हुई है।
पार्वती की मृत्यु हो गयी। शिव मान न पाए कि पार्वती भी मर सकती है। न मानने का कारण था। जिस पार्वती को वह जानते थे उसके मरने का कोई सवाल नहीं था। लेकिन जिस देह में पार्वती थी, वह तो मर ही गयी। तो बड़ी मीठी कथा है। ऐसी मीठी कथा कुइनया के इतिहास में दूसरी नहीं है। शिव पार्वती की लाश को कंधे पर रखकर पागल की तरह पृथ्वी पर घूमते हैं। लाश को कंधे पर रखकर घूमते हैं। ये जितने तीर्थ हैं भारत में, कथा यह है कि जहां—जहां पार्वती का एक—एक अंग गिर गया, वहां—वहां एक तीर्थ बन गया। उस लाश के टुकडे ग़रिते जाते हैं, वह लाश सड़ती जाती है, और जगह—जगह जहां—जहां एक—एक अंग गिरता जाता है वहां—वहां एक—एक तीर्थ निर्मित होता जाता है।
और शिव घूमते हैं। बोलते नहीं कुछ, कहते नहीं कुछ, सिर्फ रोते हैं, उनकी आंख से आसू टपकते जाते हैं। कंठ तो अवरुद्ध है। बोलने का कोई उपाय नहीं रहा। अब हृदय ही बोल सकता है। तो सिर्फ उनकी आंख से आसू टपकते हैं। और कंधे पर लाश लिये वह घूम रहे हैं। और जगह—जगह खबर हो गयी कि शिव पागल हो गये हैं। यह भी कोई बात है! ईश्वर ऐसा करें कि अपने. अपने प्रिय की लाश को लेकर ऐसा घूमें। तो बड़ी कठिनाई होगी हमें। क्योंकि ईश्वर से हमारा अर्थ यह होता है—जो बिलकुल वीतराग है। जिसमें कोई 'रण नहीं है। उसे क्या प्रयोजन है। प्रेयसी उसकी मर जाए तो मर जाए, न मरे तो न मरे। जिए तो ठीक, न जिए तो ठीक। उसे क्या प्रयोजन। यह शिव का लेकर घूमना विचित्र मालूम पड़ता है। लेकिन शिव को समझना हो तो हमें कुछ और तरह से सोचना पड़े।
शिव पार्वती के बीच इतना भी भेद नहीं है कि पार्वती को दूसरा कहा जा सके। तो विराग भी क्या हो और वीतरपा भी क्या हो! राग का भी कोई सवाल नहीं है। यह पार्वती और शिव के बीच ऐसा तादात्थ है, ऐसी एकता है, यह शिव खी और पुरुष का ऐसा जोड़ है कि हमको लगता है कि पार्वती का शरीर लेकर घूम रहे हैं। उनका सपना करीब—करीब वैसा ही है जैसा मेरा एक हाथ बीमार हो जाए, गल जाए और इसको लेकर मैं घूमूं। क्या करूंगा और? इसमें कोई फासला ही नहीं है। इसमें कोई फासला ही नहीं है।
और इसलिए तो यह कथा मीठी है कि पार्वती के अंग जहां—जहां गिरे, इस शिव के प्रेम और शिव की आत्मीयता की इतनी गहन छाया उनमें है कि उसके सड़े हुए अंगों के स्थानों पर धर्मतीर्थ निर्मित हुए। ये धर्मतीर्थ निर्मित होने का अर्थ ही केवल इतना है। इन्हें हमें प्रेमतीर्थ कहना चाहिए। इतने गहन प्रेम में और ईश्वर की स्थिति का व्यक्ति, बड़े दूर के छोर हैं। क्योंकि ईश्वर से हमारा मतलब ही यह होता है कि जो सब राग इत्यादि से बिलकुल दूर खड़े होकर बैठा है।
इसलिए जैन हैं, या और कोई जो वैराग्य को बहुत मूल्य देते हैं, वे सोच नहीं सकते कि शिव को ईश्वरत्व की धारणा मानना कैसे ठीक है; वे यह भी नहीं सोच पाते कि राम को कैसे ईश्वर माना जाए, जब सीता उनके बगल में खड़ी है! क्योंकि यह सीता का बगल में खड़ा होना सब गड़बड़ कर देता हैं। यह फिर जैन की समझ के बाहर हो जाएगा।
उसका कारण है।
क्योंकि उसने जो प्रतीक चुना है ईश्वर के लिए, वह परम वैराग्य का है। लेकिन वह अधूरा है। क्योंकि तब संसार और ईश्वर विपरीत हो जाते हैं। संसार हो जाता है राग और ईश्वर हो जाता है वैराग्य। शिव राग और वैरपय दोनों का संयुक्त जोड़ है। और तब एक अर्थों में जीवन के समस्त द्वैत को संपहीत कर लेते हैं।
तीसरे शब्द का प्रयोग किया है— 'त्रिलोचन'। तीन आंखवाले। दो आखें हम सबको हैं। तीसरी भी हम सब को है, उसका हमें कुछ पता नहीं है। और जब तक तीसरी भी हमारी सक्रिय न हो जाए और तीसरी आंख भी हमारी देखने न लगे, तब तक हम, तब तक हम परमात्म—सत्ता का कोई भी अनुभव नहीं कर सकते हैं। इसलिए उस तीसरी आंख का एक नाम शिवनेत्र भी है। यह भी थोड़ा समझ लें।
क्योंकि सब द्वैत के भीतर ही तीसरे को खोजने की तलाश है। आपकी दो आखें द्वैत की सूचक हैं। इन दोनों आखों के बीच में, ठीक संतुलित मध्य में तीसरी आंख की धारणा है। इन दोनों आखों के पार है। वह फिर दोनों आखें उस आंख के मुकाबले संतुलित हो जाती हैं। दायां—बायां दोनों खो जाता है। अंधेरा, प्रकाश दोनों खो जाता है। दो आखें समस्त द्वैत की प्रतीक हैं। ये दोनों खो जाती हैं। और फिर एक आंख ही देखनेवाली रह जाती है। उस एक आंख से जो देखा जाता है, वह अद्वैत है; और दो आंख से जो देखा जाता है, वह द्वैत है।
दो आंख से जो हम देखेंगे वह संसार है। और वहां विभाजन होगा। और उस एक आंख से जो हम देखेंगे वही सत्य है, और अविभाज्य है। इसलिए शिव का तीसरा नाम है—त्रिलोचन। उनकी तीसरी आंख पूर्ण सक्रिय है। और तीसरी आंख पूर्ण सक्रिय होते ही कोई भी व्यक्ति परमात्म—सत्ता से सीधा संबंधित हो जाता है।
'इन तीन नामों से'….,. और— और अनेक नामों से जिसे पुकारा गया है. 'जो इस समस्त चराचर का स्वामी और शांतिस्वरूप है'। यह सब विपरीत भी है। क्योंकि स्वामी किसी भी चीज का हो, शांतिस्वरूप नहीं हो सकता है। जैसे ही आप किसी चीज के स्वामी बने कि अशांति शुरू हुई। स्वामी बनना ही मत, नहीं तो अशांति शुरू होगी। क्योंकि स्वामी का मतलब यही है कि कोई दास बना लिया गया। और जो दास बन गया, वह आपसे बदला लेगा। स्वतंत्रता उसकी कुंठा में पड़ गयी। वह आपसे बदला लेगा।
पतियों ने स्वामी बनकर जैसे कष्ट उठाए हैं, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है! क्योंकि जिसके वे स्वामी बने हैं, वह चौबीस घंटे उसको बताता ही रहेगा कि स्वामी असली कौन है, ठीक से समझ लो! तो पली को चौबीस घंटे सिद्ध करने में लगा रहना पड़ता है कि स्वामी कौन है। पत्र वगैरह में वह लिखती है कि स्वामी, आपकी दासी, लेकिन चौबीस घंटे बताती है कि स्वामी कौन है! एक संघर्ष अनिवार्य है। जहां भी स्वामित्व है, वहां अशांति होगी ही। स्वामित्व अशांति की शुरुआत है। जब तक पति स्वामी के पद से नीचे नहीं उतरता, तब तक उसके और पत्नी के बीच कोई मैत्री संभव नहीं है।
लेकिन इसमें, सूत्र में कहा है कि स्वामी सारे जगत का, सबका और शांतिस्वरूप। तो इसका अर्थ ही यह हुआ कि यह स्वामित्व किसी और गुणधर्म का होगा। यह स्वामित्व दावेदार नहीं है। परमात्मा ने कभी आकर आपसे नहीं कहा है कि मैं स्वामी हूं सबका। हां, अनेक—अनेक लोगों ने जरूर उसके चरणों में जाकर कहा है कि मैं दास हूं तुम स्वामी हो। यह वक्तव्य दूसरे की तरफ से आया है। यह वक्तव्य परमात्मा की तरफ से नहीं आया है। परमात्मा की तरफ से स्वामित्व का कोई दावा नहीं है। इसलिए परमात्मा शांत है। अन्यथा परमात्मा की गति वैसी हो जैसी कभी किसी 'पोलिटीशियन' की भी नहीं हुई है। अगर वह दावा करे कि मैं स्वामी हूं इस सारे चराचर का, तो यह सारा चराचर जगत उसको इसका मजा चखा दे! स्वामी तुम कैसे हो?
परमात्मा के स्वामित्व की उद्घोषणा नहीं है। इसलिए कोई चिल्लाकर भी कहता रहे कि तुम हो ही नहीं, तो भी उसकी तरफ से कोई उत्तर नहीं आता। क्योंकि उतना उत्तर भी स्वामित्व का दावा हो जाएगा। उतना उत्तर भी स्वामित्व का दावा हो जाएगा। निरुत्तर, परमात्मा मौन है। उसके स्वामित्व का अनुभव उन्हें होता है जो उसके दास बन जाते हैं। यह दास बन जाना बहुत अलग है! दास बनाए जाते हैं, दास बनते नहीं हैं। दुनिया में कोई किसी का दास बनता नहीं है। दास बनाए जाते हैं। और जब दास बनाए जाते हैं, तो कोई मालिक की घोषणा करता है। और तब अशांति स्वाभाविक होजाती है। लेकिन परमात्मा की खोज में जानेवाला व्यक्ति अपने हाथों दास बन जाता है—उसका, जो कभी मालिक बनने की बात ही नहीं उठाता।
यह जो दासता है स्वेच्छा से वरण की गयी, यह बहुत मजेदार है। यह मजेदार दो कारणों से है। एक तो जब कोई स्वेच्छा से, अपने ही संकल्प से परमाआ के चरणों का दास हो जाता है, तो वह परमाआ को ही मालिक नहीं बनाता, वह अपना भी मालिक हो जाता है। क्योंकि अपने ही हाथ से किसी का दास बन जाना बड़ी—से—बड़ी मालकियत है। बड़ी—से—बड़ी शक्ति का सबूत है। क्योंकि चित्त राजी नहीं होता दास बनने को। बिलकुल राजी नहीं होता। प्राण गवाही नहीं देते हैं। सब रग—रग, रोआ—रोआ इनकार करेगा। लेकिन कोई आदमी, और ऐसी अवस्था में जबकि परमात्मा आता नहीं कहने कि दास बनो, मिलता नहीं, मालकियत की घोषणा नहीं करता, कोई आदमी अपने ही हाथ जाता है, उसके अज्ञात चरणों में रख देता है सिर और कहता है कि मैं दास हुआ, तुम मेरे स्वामी हो। यह आदमी उसको तो मालिक बना ही रहा है, आदमी यह भी कह रहा है कि मैं अपना मालिक हूं। अपने मन का, अपने संकल्प का, अपनी वासना का, अपनी आकांक्षा का, अपनी कामना का, अपनी आत्मा का मालिक हूं। चाहूं तो यह मालकियत मेरी इतनी बड़ी है कि मैं दास भी बन सकता हूं। बिना बनाए।       जो बनाए जाने से बनता है, उसकी आत्मा कमजोर होती है। जो बिना बनाए बन जाता है, उसकी आत्मा सबल हो जाती है। अगर मैं आपको किसी तरह गुलाम बना लूं तो मैं आपकी आत्मा को कमजोर करूंगा। अगर आप बनने को राजी हो गये जबरदस्ती में, तो आपकी आत्मा टूट जाएगी। नष्ट हो जाएगी। ठीक इसके विपरीत अगर आप गुलाम बनने को राजी हो जाएं बिना किसी बनाने वाले के, तो आपकी आत्मा बलशाली हो जाएगी।
मुझे खयाल आता है—निरंतर मैं कहता रहता हूं—डायोजनीज घूमता था एक जंगल में। कुछ लोगों ने उसे पकड़ लिया। यह बहुत अद्भुत आदमी था। यूनान में महावीर के मुकाबले यह अकेला आदमी हुआ, नग्र ही रहता था। बड़ा सुंदर व्यक्तित्व था उसका। बड़ा बलशाली, गरिमावान। कुछ लोग गुलामों के बाजार की तरफ गुलाम बेचने जा रहे थे। इसको जंगल में अकेला देखकर उन्होंने सोचा कि अगर फंदे में फंस जाए तो अच्छे दाम मिल सकते हैं। यह बेचा जा सकता है बाजार में। लेकिन हिम्मत, उसको आठ आदमी भी पकड़ पाएं तो मुश्किल मालूम पड़ता है। बहुत बलशाली है, बहुत गरिमावान है, आत्म—प्रतिष्ठ!
उनको चिंता, मसगुले में पड़े देखकर डायोजनीज ने कहा कि मालूम होता है तुम किसी चिंता में पड़े हो। अक्सर लोग मुझसे पूछने आते हैं। किन्हीं की कोई समस्या होती है तो मैं हल कर देता हूं। अगर तुम्हारी कोई समस्या हो तो मुझे बताओ। उन्होंने कहा बड़ी मुश्किल हुई! समस्या कुछ ऐसी है कि कैसे बताएं? डायोजनीज ने कहा तुम बेफिक्री से बताओ। तो उन्होंने कहा मामला यह है, हम सोच रहे हैं कि तुम्हें गुलाम कैसे बना लें? और जंजीरों में बांधकर तुम्हें हम बजार में ले जाकर बेचना चाहते हैं। अच्छे दाम मिल जाएंगे।
डायोजनीज ने कहा कि नेक इरादा है, और इसमें अड़चन कुछ भी नहीं है। डायोजनीज उठकर खड़ा हो गया। यह लोग घबडाए। यह आदमी खतरनाक मालूम पड़ता है। डायोजनीज ने उनका झोला निकाला, उसमें से जंजीरें निकालीं, हाथ में जंजीरें बांधी, जंजीरों की लगाम उनके हाथ में दे दी और कहा कि रास्ता कौन—सा है, चलो। पर उन्होंने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? डायोजनीज ने कहा हम अपने मालिक हैं। हम गुलाम भी हो सकते हैं। हम अपने मालिक हैं। कोई हमें इस दुनिया में गुलाम नहीं बना सकता। लेकिन हम चाहें तो बन सकते हैं, कोई हमें रोक नहीं सकता। अब तुम हमें रोक न पाओगे। अब तुम्हें हमें ले चलना ही पड़ेगा। अब हम बाजार में बिकेंगे ही।
बड़े डरते हुए, पहली दफा ऐसा हुआ कि मालिक पीछे चलने लगा और गुलाम आगे चलने लगा। और वह इतनी तेजी से चलता था—बहुत स्वस्थ आदमी था—कि पसीने—पसीने लथपथ हो गये, उसके साथ भागना पड़ा करीब—करीब उन्हें। और कई बार उन्होंने कहा कि डायोजनीज, जरा धीरे भी चलो। डायोजनीज ने कहा, हम अपने मालिक हैं, और हम किसी की सुनते नही हैं।
बाजार में पहुंच गये, भीड़ इकट्ठी हो गयी। उन लोगों की इतनी हिम्मत न पड़े किसी से कहने की कि हम एक गुलाम को पकड़ लाये हैं। बल्कि वह ऐसा मालूम पड़ा कि ये उसके कुछ सेवक वगैरह हैं। यह क्या मामला है! डायोजनीज ने कहा, पागलो, घोषणा करो! बाजार उठने के करीब है। सांझ हो गयी है, डायोजनीज तख्ते पर उठकर खड़ा हो गया चढ़कर, जिसपर गुलाम नीलाम किये जा रहे थे, और डायोजनीज ने चिल्लाकर जो बात कही, वही कहने को मैंने यह कहानी कही है।
उसने चिल्लाकर कहा कि गुलामो, सुनो! एक मालिक आज बाजार में बिकने आया है।
यह जो मालकियत है, यह कुछ, कुछ और ही आयाम है चेतना का। परमात्मा के चरणों में जो अपने हाथ से गुलाम बन जाता है, उसकी मालकियत का हिसाब लगाना मुश्किल है। लेकिन परमात्मा सबका स्वामी और शांतिस्वरूप है। उसके स्वामित्व में कोई अशांति नहीं है, क्योंकि कोई दावा नहीं है।
'समस्त भूतों का मूल कारण और साक्षी है'। सभी भूत उससे निष्पन्न होते हैं, प्रगट होते हैं, उसमें लीन होते हैं। और इन सबके जीवन में जो भी घटित होता है, वह उसका देखनेवाला भी है। वह उसका साक्षी भी है, इसे थोड़ा खयाल में लेना उचित होगा, क्योंकि एक मौलिक धारणा है।
पश्विम के धर्म कहते हैं कि परमात्मा नियंता है। 'कंट्रोलर' है। पूरब का धर्म कहता है, परमात्मा साक्षी है,  'विटनेस' है। क्योंकि परमात्मा अगर नियंता है तो उसे प्रतिपल अपनी मालकियत की घोषणा करनी पड़ेगी। अगर वह नियंता है तो उसे घड़ी—घडी हिसाब रखना पड़ेगा कि तुम क्या कर रहे हो? यह मत करो। इसलिए हम यहूंदी ईश्वर की भाषा सुनें, हमें बहुत कठोर मालूम पड़ेगी—कि मैं जला दूंगा, मैं आग लगा दूंगा, मैं मिटा डालूंगा। अगर तुमने ऐसा किया तो नर्कों में सडाऊंगा। इस तरह की भाषा यहूंदी ईश्वर के मुंह में डाली गयी है। क्योंकि वह नियंता है। कहता है, तुमने अगर ऐसा किया है, तो मैं उसका बदला तुम्हें यह चुकाऊंगा।
लेकिन ऐसी भाषा भारतीयों ने कभी ईश्वर के मुँह में डालने की कल्पना भी नहीं की है। क्योंकि बेहूंदी है। और अगर नियंता मानते हैं, तो फिर इस तरह की भाषा उसके मुंह में रखनी पड़ेगी। अगर नियंता मानते हैं, तो फिर चाहे कितने भद्र शब्दों में रखें, यह भाषा उसके मुंह में रखनी पड़ेगी। फिर वह घड़ी—घड़ी हर चीज में कहेगा—यह करो और यह मत करो। और जो ऐसा करेगा, उसे यह मिलेगा, और जो ऐसा नहीं करेगा, वह दंड पाएगा। वह चौबीस घंटे, ईश्वर जो है, वह एक पोलिस फौज हो जाएगा। एक नियंत्रक शक्ति हो जाएगी। जो केवल साक्षी है, वह केवल देखता है तुम क्या कर रहे हो। वह इतना भी नहीं कहता कि यह मत करो। वह सिर्फ देखता है। और उसका सिर्फ देखना काफी नहीं है तो कहना क्या है? कहना भी क्या करेगा? पर साक्षी उसे कहने का बहुत गहरा कारण है। और वह गहरा कारण साधना से जुड़ा है। अगर आप भी अपने जीवन के नियंता न रहकर साक्षी हो जाएं तो आप ईश्वरत्व को उपलब्ध होने शुरू हो जाएंगे।
हम सब अपने जीवन के नियंता हैं। यह बुरा विचार नहीं आना चाहिए, यह अच्छा विचार आना चाहिए यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए हम नियंता हैं। हम अपनी छोटी—छोटी दुनिया के ईश्वर हैं। नियंता, ईश्वर।  'कंट्रोलर '। सो बड़ा दुख हम पाते हैं। कुछ नियंत्रण तो कर नहीं पाते हैं, सिर्फ पीड़ा पाते हैं। यह नहीं होना चाहिए, यह होना चाहिए—और जो नहीं होना चाहिए वह होकर रहता है। और जो नहीं होना चाहिए वह होता है। रोज—रोज टूटते हैं। और जो नियंता, जो अहंकार है भीतर, यह सिर्फ पीड़ा की एक लंबी कथा हो जाती है। नहीं, अपनी—अपनी छोटी दुनिया में एक—एक आदमी भी अगर साक्षी हो जाए, वह सिर्फ जाने कि ऐसा हो रहा है, रोके न, बाधा न डाले, अच्छे—बुरे का हिसाब न करे, सिर्फ देखता रहे, अगर बिलकुल निष्पक्ष हो यह दर्शन, तो बुरा भी गिर जाता है और भला भी गिर जाता है। इस निरीक्षण के समक्ष न बुरा दिखता है, न भला दिखता है। दोनों गिर जाते हैं। इस निरीक्षण की साक्षी की क्षमता व्यक्ति में पैदा हो जाए तो ही उसे पता चलता है कि इस विराट विश्व के भीतर परमात्मा किस अवस्था में होगा। वह साक्षी की अवस्था में होगा। छोटा—छोटा परमात्मा हमारे भीतर है। छोटी—छोटी शुइनया हमारे चारों तरफ है। उसमें हम दो तरह का व्यवहार कर सकते हैं। नियंता का या साक्षी का। ईश्वर को साक्षी कहने से प्रयोजन है कि हम भी अपनी—अपनी छोटी कुइनया में साक्षी हो जाएं तो हम ईश्वर हो जाते हैं। और एक बार हमें साक्षी का पता चल जाए, तो हमें पता चलता है कि ईश्वर की शक्ति उसके साक्षी होने की शक्ति है।
'अविद्या से दूर जो है, मुइनजन उसका ध्यान करते हैं '। ऐसी ईश्वर की धारणा का जो साक्षी है, नियंता नहीं; जो शुभ—अशुभ दोनों का संतुलन हो कर दोनो के अतीत हो गया जोन अच्छा है, न बुरा, दोनो के पार है जो द्वैत में नहीं देखता, दो आंखों से नहीं देखता, एक तीसरी आंख से जीता और देखता है, एक अद्वैत की दृष्टि जहां एकमात्र अनुभव रह गयी है, ऐसे ईश्वर की धारणा, ऐसे ईश्वर का ध्यान, ऐसे ईश्वर में समाधि मुक्‍तजन करते हैं। तो अगर ईश्वर की धारणा ही बनानी हो—बिना धारणा बनाये चल जाए तो बहुत शुभ—अगर धारणा ही बनानी हो तो फिर बहुत सोचकर, बहुत वैज्ञानिक धारणा बनानी चाहिए। और यह, यह जो कहा गया है, बहुत सोचकर, बहुत वैज्ञानिक है। और इससे छलांग लगाने में कठिनाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि साक्षी में छलांग का सूत्र छिपा हुआहै। जिस चीज के भी हम साक्षी हो जाए उससे हमारा तादात्थ निर्मित नहीं हो पाता। उसके साथ हम एक नहीं हो पाते। उससे हम दूर बने रहते हैं।
अगर यह ईश्वर की धारणा का भी सहारा लें और इसके भी साक्षी बने रहें, तो शीघ्र ही इस धारणा के भी पार उठ जाने में अडूचन न आएगी। सीढ़ी छूट जाएगी और संसार से हम उस दूसरे संसार में छलांग लगा लेंगे, जिसे ब्रह्म कहें, ईश्वर कहें, मोक्ष कहें, निर्वाण कहें—याजो भी कहना चाहें।
आज के लिए इतना ही।
अब हम ध्यान की तैयारी करें।


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