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रविवार, 17 जून 2018

केनोउपनिषद--प्रवचन--04

अज्ञेय आत्‍मा—चौथा प्रवचन

दिनांक 1० जुलाई 1973प्रात:,माउंट आबू राजस्थान।
सूत्र:
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नौ मनो न विद्मो न                                  विजानीमो यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि।                               इति शुश्रुम पूवेंषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे।।३।।
           
            यद्वाचानष्णुदितं येन वागष्णुद्यते
            तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।४।।
           
            यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।
            तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।५।।


                  केनोपनिषद प्रथम अध्‍याय

                              3
प्रथम अध्याय आंखें उस तक नहीं पहुंच सकतीं, न ही वाणी और न ही मन।
इसीलिए हम उसे नहीं जानते और न ही हम यह जानते हैं कि उसे कैसे सिखाये वह उससे भिन्न है जो कि ज्ञात है और वह उससे भी भिन्न है जो कि अज्ञात है। ऐसा हमने अपने पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उसके बारे में हमें बताया है।

                              4
जिसे वाणी प्रगट नहीं कर सकती परंतु जो वाणी को प्रगट करता है— तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है और न कि वह जो कि वस्तुगत है, जिसे लोग यहां पूजते हैं।

                              5
जिसे मन नहीं समझ सकता परंतु जो मन को समझता है—
तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है और न कि वह जिसे लोग यहां पूजते हैं।
अस्‍तित्‍व का गहनतम रहस्‍य है ज्ञान की घटना। तुम सभी कुछ जान सकते हो सिवाय तुम्‍हारी अपनी आत्‍मा के। जानने वाले को नहीं जाना जा सकता क्‍योंकि उसके लिए उसे एक वस्‍तु में बदलना होगा। ज्ञान को प्रक्रिया ही द्वैत पर निर्भर करती है।

 मैं तुम्‍हें जान सकता हूं क्‍योंकि मैं यहां हूं, भीतर, और तुम यहां हो बाहर। तुम एक वस्‍तु हो जाते हो। परंतु मैं स्‍वयं को ही नहीं जान सकता क्‍योंकि मैं अपने को एक वस्‍तु नहीं बना सकता। मैं स्‍वयं को अपने आत्‍मा को एक वस्‍तु की भांति सामने नहीं रख सकता। और यदि मैं स्‍वयं को सामने रख भी लूं तो जिसे मैं सामने रखूंगा वह मैं स्‍वयं नहीं होऊंगा। जिसे मैं सामने रखने में समर्थ हो जाऊंगा वह मैं स्‍वयं कैसे होऊंगा? वस्‍तुत: वह जो भीतर देख रहा होगा वही मैं होऊंगा।
आत्‍मा आत्‍मगत है। और वह आत्‍मगतता वस्‍तुगतता नहीं हो सकती। इसीलिए यह विरोधाभास है कि जो सभी कुछ जानना है वह स्‍वयं को ही नहीं जान सकता। वह जो कि सभी चीजों को जानने का स्‍त्रोत है वह स्‍वयं अज्ञात ही बना रहता है। यदि तुम इस बात को समझ सको तो यह सूत्र बहुत कुछ प्रगट कर सकता है। यह गहनतम सूत्रों में से एक सूत्र है। जो कुछ भी रहस्‍यदर्शियों ने कि है यह उस सबसे भी गहरा चला जाता है। यह सूत्र कहता है कि आत्‍म—ज्ञान असंभव है, और तुमने सुना है, उसके बारे में उपदेश दिए जाते है। उसकी सब जगह चर्चा की गई है। ‘’स्‍वयं को जानो—नौ दाई सेल्‍फ।‘’ किंतु तुम स्‍वयं को कैसे जान सकते हो। तुम अपने सिवाय सब कुछ जान सकते हो। एक बिंदु सदा अज्ञात ही रहेगा, अज्ञेय ही रहेगा, और वह बिंदु हो तुम।
यह शब्द 'आत्म—ज्ञान' ठीक नहीं है। स्वयं का ज्ञान, आत्मा का ज्ञान संभव नहीं है। लेकिन यह? तुम्हारे भीतर गहरी निराशा पैदा कर सकती है। यदि आत्मा का ज्ञान संभव नहीं है तो फिर सारा धर्म निरर्थक हो जाता है, क्योंकि यही तो बात है जो कि धर्म करता है—कि तुम्हें आत्म—ज्ञान प्रदान करता है तब फिर 'आत्म—ज्ञान' शब्द का अर्थ कुछ दूसरा ही होना चाहिए। तब फिर कोई दूसरा ही कोई आयाम होना चाहिए जिसके द्वारा तुम अपनी आत्मा को जान भी सको और फिर भी उसे वस्तु न बनाओ किन्हीं दूसरे ही अर्थों में ज्ञान संभव होना चाहिए।
इस संसार में जो भी हम जानते हैं वह वस्तुगत है और विषयी अज्ञेय ही रहता है। जानने वाला ही बना रहता है। किंतु क्या इस जानने वाले को, ज्ञाता को जाना जा सकता है? यही बुनियादी प्रश्न है आधारभूत समस्या है। यदि जानने का एक ही मार्ग है : वस्तुगत ज्ञान के द्वारा, तो फिर उसे नहीं जाना सकता। इसलिए सारे वैज्ञानिक, चिंतनशास्त्री मना कर देंगे कि आत्मा होती भी है। उनका मना करना अर्थपूर्ण है। जो लोग भी वस्तु की तरह, वस्तुगतता की भांति सोचने के लिए प्रशिक्षित किए गए हैं, वे सब यही कहेंगे कि आत्मा नहीं होती।
और उनके ऐसा कहने का अर्थ है कि वे दूसरे किसी प्रकार के जानने के बारे में नहीं सोच सकते। वे सोचते हैं कि जानना सिर्फ एक प्रकार का होता है और वह वस्तुगत होता है, और आत्मा को वस्तुगत, आब्जेक्टिव नहीं बनाया जा सकता; इसलिए उसे नहीं जाना जा सकता। और जिसे जाना ही नहीं जा सकता है उसके लिए नहीं कहा जा सकता कि वह होती है। कैसे तुम यह कह सकते हो कि वह होती है? जैसे ही तुम कहते हो कि वह होती है, तो इसका अर्थ हुआ कि तुमने कहा कि तुमने उसे जान लिया। तुम उसके होने का दावा ही नहीं कर सकते। यदि वह अज्ञात है, और यदि वह सिर्फ अज्ञात ही नहीं है बल्कि अज्ञेय भी है, तो फिर तुम कैसे कह सकते हो कि वह होती है p
वैज्ञानिक कहे चले जाते हैं कि कोई आत्मा नहीं होती, कि आदमी सिर्फ एक यांत्रिकता है, और जो चेतना प्रगट होती है वह सिर्फ एक सह—घटना है—सिर्फ एक सह—उत्पत्ति है। वे कहते हैं कि आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती, कोई केंद्र नहीं होता—कि चेतना सिर्फ कुछ रासायनिक घटनाओं के कारण पैदा होती है और जब शरीर नष्ट हो जाता है तो चेतना भी विलीन हो जाती है।
अत: विज्ञान के लिए मृत्यु का अर्थ है समग्र मृत्यु, उसके बाद कुछ नहीं बचता। चेतना वास्तविक नहीं है, वह सिर्फ एक सह—उत्पत्ति है। वह बिना शरीर के नहीं हो सकती। वह शरीर का ही एक हिस्सा है, बहुत—से पदार्थों का संयोग मात्र है। इसी कारण वह अस्तित्व में आती है। वह कोई तत्व नहीं है। वह मिश्रण है, मिलावट है, संश्लेषण है, कुछ ऐसी है जो कि दूसरी वस्तुओं पर निर्भर है। कोई 'सेल्फ', कोई आत्मा नहीं होती। विज्ञान कहता है कि कोई आत्मा नहीं होती, क्योंकि आत्मा को नहीं जाना जा सकता है।
'विज्ञान' शब्द का अर्थ ही होता है—जानना। और यदि कुछ अज्ञेय है तो विज्ञान उसके लिए सहमति नहीं देगा, विज्ञान उससे राजी नहीं होगा। विज्ञान का अर्थ होता है वह, जिसे जाना जा सकता है। इसलिए विज्ञान रहस्यपूर्ण नहीं है। वह निरर्थक बातों में नहीं पड़ता। विज्ञान के लिए 'आत्म—ज्ञान' शब्द ही निरर्थक है। परंतु फिर भी धर्म अर्थपूर्ण है, क्योंकि जानने का एक दूसरा आयाम भी है।
ज्ञान के उस आयाम को समझने का प्रयत्न करो जहां कि ज्ञात को एक वस्तु में नहीं बदला जाता हो। उदाहरण के लिए यदि एक कमरे में एक दीपक जल रहा हो तो कमरे की प्रत्येक वस्तु प्रदीप्त हो जाती है और उस दीपक की रोशनी में जानी जाती है। परंतु दीपक अपने ही प्रकाश के कारण जाना जाता है। सब चीजें—कुर्सियां, फर्नीचर, दीवारें, दीवारों पर टंगी तस्वीरें—वे सब उस प्रकाश के द्वारा जानी जाती हैं। लेकिन वह प्रकाश किसके द्वारा जाना जाता है?
प्रकाश तो 'स्वयं—प्रदीप्तमान' है। उसकी मौजूदगी से दूसरी वस्तुएं प्रगट होती हैं, और वह स्वयं अपने को भी प्रगट करता है। लेकिन ये दो प्रगटताएं भिन्न हैं। जब एक कुर्सी प्रकाश के माध्यम से जानी जाती है तो कुर्सी एक वस्तु है। प्रकाश कुर्सी पर पड़ता है और यदि प्रकाश विलीन हो जाए तो कुर्सी को नहीं जाना जा सकता है।
कुर्सी को जानना प्रकाश पर निर्भर है, लेकिन प्रकाश को जानने के लिए वह कुर्सी पर निर्भर नहीं है। यदि तुम कमरे में से सब वस्तुओं को हटा लो तो भी प्रकाश प्रकाश ही रहेगा। कुछ भी प्रगट करने को नहीं होगा लेकिन वह स्वयं को प्रगट करता रहेगा। यह प्रकाश का प्रगट करना स्व—प्रगटीकरण है।
यही बात भीतर की घटना के बारे में है, अंतर की आत्मा के बारे में है। हर चीज उसके द्वारा जानी जाती है, लेकिन वह स्वयं किसी के द्वारा नहीं जानी जाती। वह स्वयं को प्रगट करने की घटना है। वह स्वयं ही स्वयं को प्रगट करती है। आत्मज्ञान का अर्थ यह नहीं होता कि आत्मा को किसी और चीज के द्वारा जाना जाता है, क्योंकि तब कोई दूसरा 'आत्मा' हो जाएगा। इसलिए जिसे भी वस्तु की भांति जाना जा सके वह आत्मा नहीं हो सकती। हमेशा जो जानने वाला है वह आत्मा होगी। लेकिन इस आत्मा को कैसे जाना जाए? यह जो आत्मा है वह स्वयं—प्रकाशमान है, स्वयं को प्रगट करने की घटना है, स्वयं—सिद्ध है : इसे जानने के लिए किसी और चीज की जरूरत नहीं है। इसे तुम्हें वस्तु में बदलने की जरूरत नहीं है।
वास्तव में, जब मन से सारी वस्तुएं हटा दी जाती हैं, जब मन से सारा फर्नीचर हटा दिया जाता है, तो अचानक आत्मा स्वयं को प्रगट करती है। वह स्वयं को प्रगट करने वाली है। वस्तुत: यही भेद है पदार्थ में तथा चैतन्य में। पदार्थ स्वयं को प्रगट नहीं कर सकता, जबकि चेतना स्वयं को प्रगट करने वाली होती है। पदार्थ किसी और के द्वारा जाना जाता है और चेतना स्वयं को जानती है। यही बुनियादी भेद है पदार्थ में और चैतन्य में। वृक्ष हैं, किंतु अगर कोई चैतन्य प्राणी नहीं हो तो वे अपने को प्रगट नहीं कर सकते। उन्हें किसी चेतना की आवश्यकता है कि वह उन्हें प्रगट कर सके।
चट्टानें हैं और सुंदर चट्टानें हैं। परंतु यदि कोई चेतना नहीं हो तो वे सुंदर नहीं होंगी क्योंकि कोई भी नहीं जानेगा कि वे भी हैं। उनका होना मौन होगा। उन चट्टानों को भी पता नहीं होगा कि वे हैं। अस्तित्व तो होगा लेकिन उसको प्रगट करने वाला नहीं होगा।
एक छोटा बच्चा खेलता हुआ जाता है चट्टान के पास, अचानक चट्टान प्रगट हो जाती है। अब यह कोई मौन अस्तित्व की बात नहीं है। बच्चे के द्वारा चट्टान अपने को बतला सकती है। अब वृक्ष भी प्रगट हो सकेगा। अब उस बच्चे के चारों तरफ जो भी है वह एक नए ही अर्थों में सजीव हो गया। वह बच्चा उनके प्रगट होने के लिए माध्यम बन गया है। उसके चारों तरफ हर चीज जीवंत हो उठी है। इसीलिए जितनी गहरी तुम्हारी चेतना होती है, उतनी गहराई से तुम अस्तित्व को प्रगट कर सकते हो।
जब कोई बुद्ध होता है तो सारा अस्तित्व आनंद से झूम उठता है, क्योंकि उनके पास एक बहुत ही गहरी चेतना है। जो भी पदार्थ में छिपा है वह प्रगट हो जाता है। उसके पहले उसका कुछ भी पता नहीं था। एक बुद्धपुरुष की उपस्थिति से सारा अस्तित्व प्रकाशमान हो जाता है। हर चीज जीवंत हो उठती है, उसके द्वारा अनुभव करने लगती है। चेतना अन्य को तो प्रगट करती है, किंतु उसे स्वयं को प्रगट करने के लिए किसी अन्य चेतना की आवश्यकता नहीं है। वह स्वयं प्रकाशमान है।
इसे दूसरे कोण से भी देख सकते हैं। प्रत्येक चीज को प्रमाण चाहिए क्योंकि हर चीज पर संदेह किया जा सकता है। परंतु तुम 'आत्मा' पर, स्वयं पर संदेह नहीं कर सकते, इसलिए स्वयं के होने के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। क्या तुम स्वयं पर संदेह कर सकते हो?
पश्चिमी चिंतकों में एक महान चिंतनशील व्यक्ति हुआ—डेकार्ट, उसने संदेह को, जानने की विधि के रूप में काम में लिया। उसने अपने ज्ञान की यात्रा संदेह से शुरू की—बहुत ही गहरे संदेह से। उसने निश्चय किया कि वह हर चीज पर संदेह करता चला जाएगा जब तक कि वह किसी ऐसी चीज पर नहीं पहुंच जाता जिस पर कि संदेह नहीं किया जा सकता। और जब तक तुम किसी आधारभूत तथ्य पर नहीं पहुंच जाओ जिस पर कि संदेह नहीं किया जा सकता, तब तक ज्ञान का महल नहीं उठाया जा सकता, क्योंकि कोई तो उसके लिए आधारशिला चाहिए। यदि हर चीज पर संदेह किया जा सके और साबित करना पड़े तो फिर सारा भवन ही तार्किक हो गया। कहीं कुछ गहरे में ऐसा होना चाहिए जो कि असंदिग्ध हो, जिसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं हो।
परमात्मा असंदिग्ध नहीं है। यह स्मरण रहे कि परमात्मा असंदिग्ध नहीं है। उस पर संदेह किया जा सकता है—केवल संदेह ही नहीं बल्कि सिद्ध भी किया जा सकता है कि वह नहीं है। और सचमुच अगर कोई परमात्मा पर संदेह करता है तो तुम यह सिद्ध नहीं कर सकते कि परमात्मा है। तुम केवल उन्हीं को समझा सकते हो जो कि समझे ही हुए हैं, लेकिन तुम किसी नए व्यक्ति को बदल नहीं सकते। यह असंभव है। एक भी नास्तिक को परिवर्तित नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह प्रमाण मांगेगा और तुम कोई भी प्रमाण नहीं दे सकते।
परमात्मा असंदिग्ध नहीं है, उस पर संदेह किया जा सकता है, उसे नकारा जा सकता है। सारी परिकल्पना को कहा जा सकता है कि झूठ है। कोई सबूत नहीं है जो कि मदद कर सके। अत: डेकार्ट बहस करता चला जाता है, खोजता चला जाता है और वह कहता है कि जब तक वह अस्तित्व में किसी ऐसी चीज पर नहीं पहुंच जाएगा जो कि असंदिग्ध हो, वह संदेह करता ही चला जाएगा। नहीं कि उसे सिद्ध किया जा सके—नहीं, बल्कि उस पर संदेह ही नहीं किया जा सके। और अंततः वह स्वयं पर पहुंचता है और कहता है कि 'स्वयं' परमात्मा से भी बड़ी वास्तविकता है। वह है भी; क्योंकि स्वयं पर संदेह नहीं किया जा सकता। क्या तुम स्वयं पर संदेह कर सकते हो? स्वयं पर संदेह करने के लिए भी तुम्हें होना पड़ेगा।
उदाहरण के लिए, यदि तुम इस घर में हो और कोई आए और पूछे कि क्या तुम घर में हो और तुम यह कहो कि ''मैं नहीं हूं '' तो यह कहने के लिए भी कि ''मैं नहीं हूं '' तुम्हें होना ही पड़ेगा। तुम्हारा यह कहना ही सिद्ध कर देगा कि तुम हो। मना करना भी प्रमाण बन जाता है। इस तथ्य को सिद्ध करने की भी आवश्यकता नहीं है क्योंकि यहां मना करना भी प्रमाण हो जाता है। जब निषेध भी प्रमाण हो जाता हो तो वैसा तथ्य असंदिग्ध है। कैसे तुम उस पर संदेह करोगे?
तुम नहीं कह सकते कि मैं नहीं जानता कि मैं हूं या नहीं हूं। या कि तुम कह सकते हो? क्योंकि इस उलझन में पड़ने के लिए भी तो तुम्हें होना ही पड़ेगा। तुम्हारे बिना यह उलझन भी कैसे होगी? तुम नहीं कह सकते कि ''मैं विश्वास नहीं करता कि मैं हूं '' क्योंकि अविश्वास करने के लिए भी किसी की आवश्यकता है। इसे मना करने का कोई रास्ता नहीं है कि तुम हो, कि इस मैं का अस्तित्व है।
सिर्फ आत्मा ही, स्वयं का होना ही एकमात्र तथ्य है जो कि असंदिग्ध है, बाकी प्रत्येक चीज पर संदेह किया गया है। ऐसे संदेहवादी हुए हैं जिन्होंने हरेक चीज पर संदेह किया है। यहां तक कि ऐसी चीजों पर संदेह किया है जिनके बारे में तुम सोच भी नहीं सकते कि वे भी संदेह की सीमा में आ सकती हैं।
तुम यहां पर उपस्थित हो, किंतु एक अंग्रेज दार्शनिक बर्कले कहता है, ''मैं विश्वास नहीं कर सकता कि तुम यहां पर मौजूद हो। हो सकता है कि तुम सिर्फ एक सपना हो। और ऐसा कोई भी रास्ता नहीं है कि प्रमाणित किया जा सके कि तुम सपना नहीं हो, क्योंकि जब मैं सपना देखता हूं तो मैं ऐसे ही आदमियों का सपना देखता हूं जैसे कि तुम हो। '' और यह सपने का विशेष गुण है कि सपने में सपना बिलकुल वास्तविक दिखलाई पड़ता है।
इसलिए यदि तुम वास्तविक दिखलाई पड़ रहे हो तो बर्कले कहता है कि इससे कुछ भी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक सपने में सपने की घटना बिलकुल वास्तविक दिखलाई पड़ती है। क्या तुम संदेह कर सकते हो जबकि तुम कोई सपना देख रहे हो? तुम नहीं कर सकते, सपना सच दिखलाई पड़ता है। बिलकुल बेतुका सपना भी वास्तविक लगता है। जब सपना होता है तो चाहे वह कितना ही अतार्किक, असंगत हो, फिर भी वह वास्तविक ही लगता है। इसलिए बर्कले कहता है कि कोई भी उपाय नहीं सिद्ध करने का कि तुम यहां हो या नहीं हो। तुम पर संदेह किया जा सकता है। प्रत्येक चीज पर संदेह किया जा सकता है।
भारतीय रहस्यदर्शियों में से एक महानतम रहस्यदर्शी नागार्जुन ने प्रत्येक वस्तु पर संदेह किया है। प्रत्येक वस्तु पर! वह कहता है, ''कुछ भी वास्तविक नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु पर संदेह किया जा सकता है। ''लेकिन एक बिंदु पर वह बात नहीं करता है, उसे वह टालता चला जाता है, वह है 'स्‍वयं क्योंकि तब उसकी पूरी आधारशिला ही गिर जाती है, उसका सारा दर्शन ही धराशायी हो जाता है। क्‍योंकि उस पर संदेह नहीं किया जा सकता। नागार्जुन से पूछा जा सकता है, ''अच्छा बाकी सब ठीक है कि सारा संसार माया है, कि हर वस्तु पर संदेह किया जा सकता है, लेकिन यह संदेह करने वाला कौन है? क्‍या तुम इस संदेह करने वाले पर भी संदेह करते हो जो कि सारे संसार को इंकार करता है?''
स्वयं, यानी आत्मा असंदिग्ध है क्योंकि वह स्वयं—सिद्ध है। किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं वह स्वयं—सिद्ध है।
महावीर ने परमात्मा को इंकार कर दिया। उन्होंने कहा कि कोई परमात्मा नहीं है। लेकिन वे यह नहीं कह सके कि आत्मा नहीं है। तब आत्मा ही उनके लिए परमात्मा हो गई। उन्होंने कहा, ''केवल आत्मा ही परमात्मा है। '' और यह बात सच है। तुम्हारे भीतर, तुम्हारी आत्मा ही परमात्मा के निकटतम है। इसलिए उस पर संदेह नहीं किया जा सकता। वह स्वयं सिद्ध, स्वयं प्रगट, स्वयं प्रकाशमान है।
यह जानने का दूसरा रास्ता है। वैज्ञानिक मार्ग है किसी भी वस्तु को एक वस्तु की तरह जानना। धार्मिक मार्ग, किसी भी विषय को विषयी की तरह जानना है। वैज्ञानिक ढंग से ज्ञान के तीन अंग है: ज्ञाता, ज्ञेय तथा शान। ज्ञान सिर्फ ज्ञाता तथा ज्ञेय के बीच का सेतु है। परंतु धार्मिक ज्ञान में तीन हिस्से नहीं हैं। उसमें ज्ञाता ही ज्ञेय भी है, और ज्ञाता ही ज्ञान भी है। ज्ञान तीन हिस्सों में बंटा हुआ नहीं है। वह एक ही है, वह अविभाजित है।
अब हम सूत्र में प्रवेश करेंगे :

आंखें उस तक नहीं पहुंच सकती; न ही वाणी और न ही मन इसीलिए हम उसे नहीं जानते और न ही हम यह जानते हैं कि उसे कैसे सिखायें। वह उससे भिन्न है जो कि ज्ञात है; और वह उससे भी भिन्‍न है जो कि अज्ञात है। ऐसा हमने अपने पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उसके बारे में हमें बताया है।
आंखें उस तक नहीं पहुंच सकती; न ही वाणी और न ही मन।
आंखें प्रत्येक चीज तक पहुंच सकती हैं क्योंकि हर चीज आंखों के सामने है, परंतु आत्मा आंखों क सामने नहीं है। आत्मा आंखों के पीछे है। केवल आत्मा ही आंखों के पीछे है, बाकी सब उसके सामने है। तुम आंखों से सभी कुछ का सामना कर सकते हो, लेकिन तुम आत्मा का सामना नहीं कर सकते क्‍योंकि वह सामने नहीं है, यह एक बात है। इसलिए उसे देखने के लिए आंखों का उपयोग नहीं किया जा सकता। वस्तुत: उसे देखने के लिए तुम्हें अंधा होना पड़ेगा। सचमुच में नहीं, किंतु आंखों को खाली हो जाना पड़ेगा; दृष्टि—विहीन, बंद कि कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता हो। केवल तभी तुम उसे जान सकोगे। आंखें उस तक नहीं पहुंच सकतीं। तुम्हें ही उसके निकट बिना आंखों के आना पड़ेगा। तुम्हें किसी अंधे व्यक्ति की तरह इस तक आना पड़ेगा।
इसीलिए, वस्तुत: एक आंखवाला आदमी और एक अंधा, इन दोनों में जहां तक आत्मा का सवाल है कोई भेद नहीं है; जहां तक संसार का प्रश्न है अंधा बड़े नुकसान में है, वह कुछ भी नहीं जान सकता। परंतु जहां तक आत्मा का प्रश्न है, वह जरा भी नुकसान में नहीं है। और यदि वह बुद्धिमान है तो उसका अंधापन सहयोगी हो सकता है।
इसलिए हमने भारत में अंधे आदमी को प्रज्ञा—चक्षु कहा है। ऐसा नहीं है कि हर एक अंधा प्रज्ञावान होता है, लेकिन संभावना के हिसाब से वह आत्मा के अधिक निकट होता है बजाय आख वालों के। क्योंकि आख वाले तो संसार में इन आंखों के द्वारा बहुत दूर निकल गए होते हैं। वे बहुत दूर चले गए हैं। तुम इन आंखों से संसार के दूसरे छोर पर चले जा सकते हो। और विज्ञान तुम्हारे लिए और भी शक्तिशाली आंखें बना रहा है कि तुम छोटी से छोटी चीज को भी, आणविक घटना को भी देख सको और तुम सुदूर तारों को भी देख सको।
विज्ञान तुम्हें स्वयं से, आत्मा से दूर हटाता चला जाता है। इसलिए कोई भी युग जितना वैज्ञानिक हो जाता है उतना ही वह कम धार्मिक होता चला जाता है। अब तुम्हारे पास बड़े शक्तिशाली यंत्र हैं जिनसे दूर जाया जा सकता है और तुम अपने से बहुत दूर चले गए हो।
इंद्रियां बहुत शक्तिशाली हो गयी हैं। वस्तुत: विज्ञान कुछ और नहीं कर रहा है, बल्कि वह आदमी के लिए शक्तिशाली इंद्रियां बना रहा है। अब तुम्हारा हाथ चंद्रमा पर पहुंच सकता है, तुम्हारी आंखें दूर तारों तक पहुंच सकती हैं। प्रत्येक इंद्रिय बहुत विराट हो गयी है। और यह होता ही चला जाता है।
एक अंधा आदमी अपने में बंद है, वह बाहर नहीं जा सकता। लेकिन वह भीतर जा सकता है; यदि वह इस बात से परेशान नहीं हो कि वह अंधा है, और यदि समाज उसकी मदद करे कि तुम्हारा अंधापन कोई दुर्भाग्य नहीं है बल्कि छिपे रूप से सौभाग्य की बात है।
यही अर्थ है जब हम किसी अंधे आदमी को प्रज्ञा—चक्षु कहते हैं। हम कहते हैं, ''तुम चिंता मत करो इन साधारण आंखों के लिए। तुम उन आंतरिक आंखों को पा सकते हो जिनसे तुम अपने को, स्वयं को देख सको, इसलिए उनके लिए चिंता मत करो। उन्हें पूर्णतया भूल ही जाओ। तुम कुछ खो नहीं रहे हो क्योंकि आंखों से किसी को कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। तुम भीतर सरलता से जा सकते हो क्योंकि बाहर जाने का द्वार बंद है। ''
आंखें तुम्हारे बाहर जाने के द्वार हैं। आंखों से ही तुम बाहर जाते हो, आंखों से ही इच्छा का जन्म होता है, आंखों से ही भ्रम पैदा होता है, प्रक्षेपण होता है, आंखों से ही सारा संसार चलता है। किंतु वह जो अत्यंत आंतरिक है, वहां इन आंखों से नहीं पहुंचा जा सकता। तुम्हें उसके लिए तो अंधा होना ही पड़ेगा। नहीं कि तुम्हें इन आंखों को निकाल कर बाहर फेंक देना है, बल्कि मतलब यह है कि तुम्हारी आंखें रिक्त हो जायें, वस्तु—रहित हो जायें, सपनों से खाली हो जायें। तुम्हारी आंखें शून्य हो जायें—वस्तुओं से, चित्रों से और सपनों से शून्य हो जायें।
यदि तुम एक बुद्ध की आंखों में देखो तो तुम उन्हें समग्र रूप से भिन्न पाओगे। बुद्ध तुम्हारी देखते हैं, लेकिन फिर भी वे तुम्हारी ओर नहीं देखते हैं। तुम उनकी आंखों के हिस्से नहीं बनते।
देखना खाली है। कभी—कभी तूम्हें भय भी लग सकता है क्योंकि तुम्हें लग सकता है कि वे तुम्हारे उदासीन हैं। वे तुम्हारी ओर इतनी रिक्तता से देखते हैं कि जैसे कोई ध्यान नहीं दे रहे हों। सचमुच वे तुम्हारी ओर कोई ध्यान नहीं दे सकते। ध्यान खो गया है, उनके पास सिर्फ सजगता अब वे किसी भी एक चीज के प्रति पूर्णतया ध्यान—युक्त नहीं हो सकते, क्योंकि एक ही चीज की ध्यान—युक्त होना इच्छा के कारण निर्मित होता है। अब वे तुम्हारी ओर ऐसे ही देखते हैं जैसे नहीं देख हैं। तुम कभी भी उनकी आख का हिस्सा नहीं बन सकते। यदि तुम उनकी आख का हिस्सा हो जाओ तुम उनके मन के भी हिस्से हो सकते हो, क्योंकि आंखें सिर्फ मन के लिए द्वार हैं। वे बाहर के संसार भीतर इकट्ठा करती रहती हैं। आंखें तो दृष्टि विहीन हो जानी चाहिए। केवल तभी तुम आत्मा को सकते हो।
यह सूत्र कहता है :
आंखें उस तक नहीं पहुंच सकती…..
वह आंखों की पकड़ के बाहर है। लेकिन हम हैं कि पूछते ही चले जाते हैं कि परमात्मा को कैसे देखा जाए। और हम कहे चले जाते हैं कि जब तक हम उसे देख न लें तब तक हम उस पर विश्वास नहीं कर सकते। तुम उसे नहीं देख सकते। देखना काम न आएगा। तुम सिर्फ संसार को देख सकते हो, परमात्‍मा को नहीं देखा जा सकता है। और यदि कोई कहता है कि मैंने परमात्मा को देखा है तो वह भ्रम में है। उसने कोई सपना देखा होगा। कोई सुंदर सपना देखा होगा, एक पवित्र सपना, लेकिन सपना ही। इसलिए यदि तुम कहते हो कि तुमने राम को देखा है, तुमने कृष्ण को देखा है, अथवा जीसस को देखा है तो तुम सपना देख रहे हो। अच्छे सपने हैं, सुंदर सपने हैं, लेकिन सपने ही हैं। तुम 'उसे' नहीं देख सकते। वहां आंखें कुछ सहायता नहीं कर सकतीं। आंखों के द्वारा उस तक नहीं पहुंचा जा सकता है। उसे देखने के लिए तो तुम्हें अंधा ही होना पड़ेगा।
जब तुम अपनी आंखों को गवां ही दो—वस्तुत जब देखने की कोई चाह ही न रह जाए—तुम्‍हारी आंखें शून्य हो जाएं तो अचानक वह भीतर प्रगट हो जाता है। उसके लिए किन्हीं आंखों की कोई जरूरत नहीं है। वह स्वयं प्रगट है। सामान्यत: चीजें स्वयं प्रगट नहीं हैं इसीलिए आंखों की जरूरत होती है। वह स्वयं प्रगट है। वास्तव में, गहरे अर्थों में जब तुम आंखों से देख रहे हो, तो 'वही' आंखों से देख रहा होता है, न कि आंखें देख रही होती हैं। यह एक दूसरा आयाम है जो कि समझ लेना चाहिए।
जब मैं तुम्हारी ओर देख रहा हूं तो क्या मेरी आंखें तुम्हारी ओर देख रही हैं? आंखें तो सिर्फ खिड़कियां हैं। मैं ही उन आंखों के द्वारा तुम्हारी ओर देख रहा हूं। आंखें तो सिर्फ खिड़कियां हैं; मैं उसके पीछे खड़ा हूं। यदि मैं खिड़की के पीछे खड़ा हो जाऊं और बाहर पहाड़ियों की ओर देखूं तो क्या तुम यह कहोगे कि खिड़की पहाड़ियों की ओर देख रही है? खिड़की की तो कोई बात भी नहीं करेगा। मैं ही खिड़की के माध्यम से देख रहा हूं। आंखें तो सिर्फ द्वार हैं, खिड़कियां हैं। उनके द्वारा चेतना ही देखती है। और इस चेतना को कोई जरूरत नहीं है कि उसे स्वयं को देखने के लिए भी आंखों से देखना पड़े। आंखें दूसरों के लिए हैं। आंखें दूसरों को देखने का उपाय हैं। तुम्हें स्वयं को देखने के लिए आंखों की जरूरत नहीं है।
उदाहरण के लिए : यदि मैं पहाड़ियों को देखना चाहूं तो मुझे खिड़की से बाहर देखना होगा, परंतु यदि मुझे स्वयं को ही देखना हो तो खिड़की की कोई जरूरत नहीं है। मैं खिड़की को बंद कर सकता हूं। उसकी कोई भी जरूरत नहीं है क्योंकि मैं खिड़की के बाहर नहीं हूं मैं खिड़की के भीतर हूं। बाकी हर चीज के लिए आंखें सहायक हैं। प्रत्येक चीज के पास उनके द्वारा पहुंचा जा सकता है, केवल आत्मा तक आंखों के द्वारा नहीं पहुंचा जा सकता।
आंखें उस तक नहीं पहुंच सकती..
इसे स्मरण रखना। तब फिर यह झूठा प्रश्न कि ''मैं ईश्वर को कैसे देखूं ''गिर जाएगा। तुम फिर यह प्रश्न खड़ा ही नहीं करोगे और इस प्रश्न के इर्द—गिर्द झूठी खोज नहीं करोगे। तुम नहीं पूछोगे कि उसे कहां देखा जाए, कि उसे कहां पाया जाए। वह कहीं भी नहीं है, और वस्तुत: आंखों की बात ही उठाना व्यर्थ है। वह तो पीछे छिपा है—भीतर। अपनी आंखों को बंद करो और 'वह' प्रगट हो जाएगा।
लेकिन सिर्फ इन शारीरिक आंखों को बंद करने से वह प्रगट नहीं होगा क्योंकि सिर्फ इन शारीरिक आंखों को बंद करके तुम कुछ भी बंद नहीं कर रहे हो। तुमने जो संसार भीतर इकट्ठा कर लिया है वह तो चलता चला जाता है, और तुम उसी को देखते रहते हो। मैं अपनी आंखों को बंद कर ले सकता हूं और फिर भी तुम्हें देख सकता हूं। तब फिर आंखें रिक्त नहीं हैं। तब फिर आंखें अभी भी भरी हैं। जब सारे चित्र विलीन हो जायें, सारी अंकित छवियां विलीन हो जायें, तभी आंखें ?? होती हैं। और जब आंखें रिक्त हो जायें तो ही तुम उस तक पहुंच सकते हो। तभी तुम भीतर जा सकते हो।
न ही वाणी और न ही मन।
वाणी भी काम नहीं पड़ेगी। बौद्धिक सोच—विचार भी किसी काम न आएगा। जो भी तुम सोच सकते हो वह 'वह' नहीं होगा। क्योंकि सब सोच—विचार भी बाहर का ही है। विचार भी वस्तुओं का ही होता है। विज्ञान सोच—विचार पर जोर देता है; धर्म निर्विचार पर जोर देता है। विज्ञान का जोर और अधिक तार्किक चिंतन पर है ताकि वस्तुओं की प्रकृति और अधिक सही रूप से प्रगट हो सके। और धर्म कहता है कि सोचो ही मत, तभी आत्मा का स्वभाव तुम्हें प्रगट हो सकेगा। वे दोनों एक—दूसरे के ठीक विपरीत हैं।
धर्म कहता है, ''सोचना छोड़ो, सोच—विचार बंद करो, सब विचारों को गिरा दो, वे ही बाधाएं हैं। ''और विज्ञान कहता है, ''विचार को और अधिक तर्कपूर्ण बनाओ, सही करो, विश्लेषणात्मक करो, उसे बुद्धिसंगत बनाओ। उसमें किसी प्रकार की श्रद्धा या विश्वास का प्रवेश मत होने दो, उसमें किसी भी प्रकार का भाव मत आने दो, उसमें किसी भी प्रकार से तुम संलग्न मत हो। उसे बिलकुल तटस्थ रहने दो—आखिरी छोर तक तार्किक रहने दो। तभी केवल वस्तुओं का स्वभाव प्रगट हो सकेगा। '' और दोनों सही हैं। जहा तक संसार का प्रश्न है, विज्ञान सही है, और जहां तक आंतरिक विषयों का संबंध है, धर्म सही है।
परंतु तुम भांति में पड़ सकते हो, और वह भांति चारों ओर है, विश्वव्यापी है। एक वैशानिक को अनुभव होता है कि जितना अधिक उसका विचार गहरा होता है उतना ही वह किसी भी वस्तु के भीतरी छोर तक जा सकता है, तब वह सोचने लगता है कि यही विधि आंतरिक खोज के लिए भी उपयोगी है। तब भ्रांति शुरू होती है। यह विधि आंतरिक खोज में सहयोगी नहीं हो सकती। और वास्तव में, यदि वैज्ञानिक इस बात पर बहुत जोर दे कि वही विधि काम में लेनी है जो कि विज्ञान की खोज में काम में ली जाती रही है, वही प्रयोगात्मक ढंग, वही वस्तुगत विधि तो वह इस निष्कर्ष पर पहुंच जाएगा कि आत्मा जैसा कुछ भी नहीं होता। नहीं कि आत्मा नहीं है, परंतु वैज्ञानिक की वस्तुओं को आविष्कृत करने कि विधि के कारण, वह आत्मा का आविष्कार नहीं कर सकेगा। वह उसके पास से गुजर जाएगा। उस विधि के कारण ही वह उससे चूक जाएगा।
जो भी संसार में सहायक है, वही भीतर की खोज में अवरोध है। यही भ्रांति दूसरे छोर पर भी हुई है। जब कोई धार्मिक व्यक्ति निर्विचार से भीतर की आत्मा पर पहुंचता है, तो वह यह विश्वास करने लग जाता है कि वह बाहर के संसार को भी निर्विचार से ही प्रगट कर सकता है।
पूर्व ने यह भ्रांति बड़ी गहराई से पकड़ी है। इसीलिए पूर्व विज्ञान को जन्म नहीं दे सका। तुम निर्विचार से विज्ञान का सृजन नहीं कर सकते। पूर्व पूर्णतया अ—वैज्ञानिक रहा है। यहां बड़े—बड़े मनीषी पैदा हुए लेकिन वे विज्ञान को जन्म नहीं दे सके। उन्होंने बहुत चर्चा की, दर्शनशास्त्र के मामले में वे उच्च कोटि के थे, लेकिन बाह्य जगत में कुछ भी नहीं हुआ। कुछ हो भी नहीं सकता है।
पश्चिम ने विज्ञान का एक विराट भवन खड़ा कर दिया है, चूंकि वहा आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक हुए लेकिन भीतरी खोज कुछ भी न हो सकी। यहां तक कि अलबर्ट आइंस्टीन भी जब मरने लगा तो वह भी निराश ही मरा। उसने जगत की चीजों के रहस्य के बारे में गहरी डुबकी लगाई और उसने एक गहनत्‍म केंद्रीय तत्व प्रगट किया—सापेक्षता का नियम। लेकिन उसने यह भी महसूस किया कि यद्यपि उसने ऐसी बहुत—सी बातों के बारे में पता लगाया है जो कि पहले नहीं जानी गई थीं, लेकिन जहा तक आत्मा का संबंध था, वह उसके लिए रहस्य ही रहा। उसके बारे में कुछ भी नहीं जान सका। उसकी विधि उलटी है क्योंकि उसकी —दिशाएं भी उल्टी हैं।
किसी भी वस्तु को जानने के लिए तुम्हें बाहर जाना पड़ेगा, किंतु स्वयं को, आत्मा को जानने के लिए तुम्हें भीतर जाना पड़ेगा। बाहर जाने के लिए तुम्हें विचार में जाना पड़ेगा। विचार की प्रक्रिया बाहर जाने की प्रक्रिया है। भीतर जाने के लिए तुम्हें विचार बंद करना पड़ेगा, सोचना बंद कर देना पड़ेगा। निर्विचार ही भीतर जाने की प्रक्रिया है।

यह सूत्र कहता है:
........न ही वाणी और न ही मन।
मन भी कुछ सहायता न करेगा। केवल ध्यान ही सहायक हो सकता है। ध्यान तुम्हारे भीतर अ— मन की स्थिति पैदा करता है। इसे स्मरण रखो कि ध्यान तुम्हारे भीतर अ—मन की स्थिति पैदा करता इसीलिए मेरा इतना जोर है कि पूरी तरह पागल हो जाओ कि मन गिर जाये। मन हमेशा पागलपन का प्रतिरोध करता है। मन कहता है, ''यह तुम क्या कर रहे हो? क्या पागल हो गए हो? ''मन सदा तर्कपूर्ण बात चाहता है। मन सदा पूछता है कि तुम यह क्यों कर रहे हो। और यदि तुम इस 'क्यों' का जवाब नहीं दे सकते तो मन कहता है कि बंद करो।
लेकिन जीवन किसी भी 'क्यों' का जवाब नहीं देता। यदि तुम किसी के प्रेम में पड़ जाओ तो मन पूछता है कि तुम प्यार में क्यों गिरे हो? और फिर तुम उसके लिए कुछ कारण ढूंढ लेते हो, कि लड़की का चेहरा सुंदर है, आदि! बात यह नहीं है। वास्तव में लड़की का चेहरा सुंदर ही इसलिए लग रहा है क्‍योंकि तुम प्यार में पड़ गए हो, न कि किसी और कारण से। ऐसा नहीं है कि चूंकि उसका चेहरा सुंदर है, इसलिए तुम प्यार में पड़ गए हो। अन्यथा तो प्रत्येक उसी लड़की के प्रेम में पड़ जाएगा। लेकिन कोई और नहीं पड़ा है। ऐसा नहीं है कि चेहरा सुंदर है, बल्कि तुम्हारा प्रेम उसे सौंदर्य प्रदान कर रहा है। तुम्‍हारा प्रेम ही उसके चारों ओर सुंदरता की भूमिका खड़ी कर रहा है।
इसीलिए तुम दूसरे प्रेमियों पर हंसते रहते हो। तुम सोचते हो कि कोई दूसरा प्रेमी पागल है। ऐसी लड़की के प्रेम में पडा है? तुम्हें तो विकर्षण होता है, और उसे आकर्षण होता है! तुम्हें लगता है कि वह पागल हो गया है। नहीं, वह पागल नहीं हुआ है क्योंकि प्रेम कोई तर्क की घटना नहीं है। तुम प्रेम में गिरते हो। इसीलिए हम उसे गिरना कहते हैं क्योंकि तुम सिर से नीचे गिर गए हो। यह कोई प्रेम में उठना नहीं है। यह प्रेम में गिरना है, क्योंकि सिर को लगता है कि तुम नीचे गिर गए हो। तुम्हारा तर्क खो गया है, तुम पागल हुए जा रहे हो।
प्रेम एक तरह से पागलपन है, विक्षिप्तता है। वस्तुत: जीवन स्वयं भी एक पागलपन, एक विक्षिप्तता ही है। यदि तुम पूछते ही जाओ कि 'क्यों?' तो तुम एक पल भी नहीं जी सकते। यदि तुम पूछते ही जाओ,  ''क्यों श्वास लूं? क्यों आज बिस्तर से बाहर निकलूं? क्यों? ''कोई उत्तर नहीं है। ''आज सोए ही क्यों? ''कोई उत्तर नहीं है। ''क्यों रोज—रोज भोजन करें? क्यों उसी—उसी व्यक्ति से रोज प्रेम किया जाए? '' कोई उत्तर नहीं है। जीवन उत्तर—रहित है। तुम प्रश्न तो उठा सकते हो, लेकिन उनका उत्तर देने वाला कोई नहीं है।
जीवन एक प्रकार से विक्षिप्तता ही है।
तर्क मृत्यु है; जीवन नहीं है। जितने अधिक तुम तर्कसंगत होते जाओगे उतने ही ज्यादा तुम मृत हो जाओगे क्योंकि बार—बार तुम पूछोगे कि क्यों? और उसका कोई उत्तर नहीं है। तब तुम कुछ भी नहीं करोगे और तब तुम सिकुड़ते जाओगे, बंद होते जाओगे। जीवन एक पागल फैलाव है। और ध्यान में हम जीवन की गहन और अधिक गहन गहराइयों में उतरते चले जाते हैं, आखिरी केंद्र बिंदु पर पहुंच जाते हैं। मन को पीछे ही छोड़ देना है। इसीलिए मैं कहता हूं कि मत पूछो 'क्यों'—सिर्फ चलो, और जो भी अपने आप तुम्हारे साथ होता हो उसे होने दो। यदि तुम उसे होने दोगे, तो प्रारंभ में मन कहेगा, ''यह मत करो। दूसरे क्या सोचेंगे? लोग क्या कहेंगे? तुम्हारे जैसा तर्कसंगत आदमी और बच्चों की भांति नाच रहा है। पागलों की तरह रो रहा है, चिल्ला रहा है? यह सब क्या करते हो? '' मन तुम्हें रोकने को कहता चला जाएगा, और तुममें मन की न सुनने का साहस होना चाहिए क्योंकि मन उस तक नहीं पहुंच सकता। तुम्हें उसे अलग रख देना पड़ेगा।
मन एक उपाय है संसार में व्यवहार करने का। उसका तुम्हारे लिए कोई उपयोग नहीं है। तुम मन के भी पहले से हो। तुम मन से भी ज्यादा गहराई में हो। मन तो तुम्हारे ऊपर हुई एक घटना है। वह सिर्फ परिधि पर है। हमारे पास भिन्न—भिन्न प्रकार के मन हैं, लेकिन हमारे स्वरूप भिन्न नहीं हैं। मन तो एक संग्रह है, एक कमाई है। एक बच्चा पैदा होता है, तो वह बिना मन के ही पैदा होता है। वह एक सरल चेतना है, और धीरे—धीरे उसके चारों तरफ मन निर्मित होता जाता है। उसे समाज में चलने के लिए मन की आवश्यकता है। काम करने के लिए, जिंदा रहने के लिए मन की आवश्यकता है।
मन सिर्फ एक साधन है। इसीलिए प्रत्येक समाज एक भिन्न प्रकार का मन निर्मित करता है। यदि तुम एक आदिवासी गांव में पैदा हुए हो जो कि पहाड़ों में छिपा है, जिसे आधुनिक जगत की टेक्यालाजी का कुछ भी ज्ञान नहीं है, जो भी सम—सामायिक है उसका उसे कुछ भी पता नहीं है, तो तुम्हारे माता—पिता तुम्हें एक अलग ही प्रकार का मन प्रदान करेंगे, क्योंकि तुम्हें एक भिन्न ही प्रकार के संसार में रहना है। यदि तुम पूर्व में पैदा हुए हो तो तुम्हारे पास एक अलग तरह का मन होगा; यदि तुम पश्चिम में पैदा हुए हो तो तुम्हारे पास एक अलग तरह का मन होगा। यदि तुम एक ही गाव में पैदा हुए हो और तुम ईसाई हो तो तुम्हारे पास एक अलग प्रकार का मन होगा, और यदि तुम मुसलमान हो तो तुम्हारे पास एक दूसरे ही प्रकार का मन होगा।
मन एक निर्माण है, एक निर्मित की हुई चीज है। परंतु हमारा स्वरूप, बिना किसी मन के हर जगह एक जैसा है। यदि तुम गहरे जाओ तो तुम्हें एक नई ही बात का पता चलेगा। यदि तुम मानव—प्राणी हो तो तुम्हारे पास एक प्रकार का मन है, और जो वृक्ष खिड़की के बाहर खड़े हैं, उनके पास भी मन है, वह दूसरी ही तरह का मन है। जहां तक 'बीइंग' का, स्वरूरप का प्रश्न है दोनों के पास एक जैसा ही स्वरूप है। केवल मन भिन्न—भिन्न हैं। चूंकि वृक्ष को वृक्षों के बीच रहना है, इसलिए उसको ऐसा ही मन निर्मित करना होता है कि वह वृक्षों के बीच जी सके। तुम्हें वैसे मन की जरूरत नहीं है। इसलिए तुम्हें लगता है कि वृक्ष बोलते नहीं हैं क्योंकि तुम उनकी भाषा नहीं जानते हो। तुम सोचते हो कि पशु नहीं बोलते हैं। तुम सोचते हो कि उनकी कोई भाषा नहीं है। वास्तव में, बात यह है कि चूंकि तुम उनको नहीं समझ सकते हो इसलिए तुम सोचते हो कि उनकी भाषा नहीं है। उनकी अपनी भाषा है। उनके पास अपना मन है जो कि उनके ढंग के अनुकूल है, उनके वातावरण के अनुकूल है, उनके समाज के अनुकूल है।
मन एक उपाय है, साधन है, बाहर के संसार में जीने के लिए। उसकी भीतर कोई जरूरत नहीं है। और यदि तुम उसे भीतर ले गए तो तुम भीतर प्रवेश नही कर सकते। मन के साथ तुम बाहर जा सकते हो, तुम भीतर नहीं जा सकते। मन को गिरा दो; उसे अलग रख दो। कह दो, ''अब तुम्हारी जरूरत नहीं है। मैं भीतर की यात्रा पर जा रहा हूं—वहां तुम्हारी कोई जरूरत नहीं है।
इसीलिए हम उसे नहीं जानते; और न ही हम यह जानते हैं कि उसे कैसे सिखायें।
जो भी मन से जाना जाता है उसे ही मन से सिखाया भी जा सकता है। लेकिन यदि मन से उसको जानना ही असंभव हो, तो फिर उसे सिखाया भी कैसे जा सकता है? शिक्षा तो मन के द्वारा ही होती है। इसीलिए उस ब्रह्म को, उस परम को, उस आत्मा को सिखाया नहीं जा सकता। उसको सिखाना असंभव है। तो फिर मैं क्या कर रहा हूं? अथवा बुद्ध, कृष्ण या जीसस क्या कर रहे हैं? यदि उसे सिखाया नहीं जा सकता तो फिर वे क्या कर रहे हैं? और केन—उपनिषद का ऋषि भी क्या कर रहा है यदि उसे सिखाया नहीं जा सकता? उसे सिखाया तो नहीं जा सकता—यह बात पूर्णत: सत्य है—लेकिन फिर भी कुछ किया सकता है।
एक स्थिति निर्मित की जा सकती है जिसमें कि वह तुम्हें छू जाए। उसे सिखाया तो नहीं जा सकता लेकिन फिर भी उसे संक्रमित किया जा सकता है। एक विशेष परिस्थिति में, तुम्हें वह पकड़ ले सकता है। इसलिए गुरु और शिष्य की सारी घटना कुछ पढ़ाने—सिखाने की नहीं है। सच पूछा जाए तो गुरु कुछ सिखाता नहीं है। गुरु तो सिर्फ तुम्हें उस हालत में, उस परिस्थिति में खींचने की, धक्का देने की कोशिश में है जिसमें कि तुम्हें वह घटना घट जाए।
योग और तंत्र की सारी विधियां सिर्फ उपाय मात्र हैं ताकि ऐसी परिस्थिति निर्मित की जा सके कि वह घटना घटित हो जाए। मैं तुम्हें सिर्फ उस स्थिति में ले जा सकता हूं जहां कि तुम एक भिन्न ही प्रकार की वास्तविकता के प्रति सजग हो सको। किंतु वह वास्तविकता, वह सत्य सिखाया नहीं जा सकता। क्‍या तुम किसी अंधे आदमी को समझा सकते हो कि प्रकाश क्या है? नहीं, तुम नहीं समझा सकते। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम उसे सिखा नहीं सकते। लेकिन एक बात की जा सकती है : तुम उसकी आंखों का इलाज कर सकते हो, आंखों की शल्य—चिकित्सा की जा सकती है। और यदि वह अंधा आदमी देख सके तो वह जान सकेगा कि प्रकाश क्या होता है।
प्रकाश का अनुभव तो हो सकता है, परंतु उसे किसी अंधे आदमी को सिखाया नहीं जा सकता। और हम सब अंधे आदमी की तरह हैं, जहां तक आंतरिक वास्तविकता का संबंध है। तुम्हारी भीतरी आंखों को उसके प्रति खोला जा सकता है, लेकिन उसे तुम्हें सिखाया नहीं जा सकता।
इसीलिए श्रद्धा का धार्मिक जगत में बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। अँधे आदमी के पास श्रद्धा होनी चाहिए; वरना वह तुम्हें अपनी आख का आपरेशन नहीं करने देगा। वह कहेगा कि तुम मेरी आख और खराब कर दोगे। उसके पास आख है ही नहीं, फिर भी वह डरेगा कि पता नहीं तुम क्या करने वाले हो। और यदि उसे पता हो जाए कि तुम उसकी आख का आपरेशन करने वाले हो तो वह तुम्हें अपनी आंखों को छूने भी नहीं देगा। तुम उन्हें नष्ट कर सकते हो, कौन जाने! और अंधा आदमी कहेगा, ''मुझे कैसे मालूम पड़े कि जब तुम मेरी आख का आपरेशन कर दोगे तो प्रकाश हो जाएगा? और प्रकाश क्या होता है? पहले मुझे यह तो समझाओ। पहले यह सिद्ध करो कि प्रकाश क्या होता है। और वह होता भी है, जब तक तुम यह सिद्ध न कर दो, मैं तुम्हें अपनी आंखों को हाथ नहीं लगाने दूंगा।''
और कोई भी चिकित्सक आज तक नहीं हुआ जो कि प्रकाश को सिद्ध कर सके। चिकित्सक तो इतना ही कह सकता है कि मुझमें विश्वास करो, भरोसा करो। इसके अलावा तो कुछ संभव नहीं है, कोई तर्क—वितर्क काम नहीं आएगा। चिकित्सक सिर्फ इतना ही कह सकता है कि मुझ पर श्रद्धा करो। यदि तुम्हें कुछ लाभ नहीं भी हुआ तो भी एक बात पक्की है कि तुम्हारा कुछ खोने वाला नहीं है, क्योंकि तुम्हारे पास खोने के लिए भी आंखें नहीं हैं।
यही बात बुद्ध, कृष्ण और जीसस कहते रहे हैं, ''श्रद्धा रखो। और तुम्हारे पास खोने के लिए भी कुछ नहीं है, फिर इतनी चिंता भी क्या है? मुझमें विश्वास करके तुम खोओगे भी क्या? तुम्हारे पास है भी क्या? यदि तुम्हारे पास कुछ भी हो तो जल्दी करो और भागो यहां से। किंतु तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है, कुछ भी तो नहीं है खोने के लिए, लेकिन फिर भी तुम इतने चिंतित हो! ''
मेरे पास लोग आते हैं और वे कहते है, ''हमें विश्वास कैसे हो? ''
मैं उनसे कहता हूं ''प्रश्न कैसे का नहीं है, क्योंकि कैसे का मतलब होता है उत्तर। श्रद्धा का अर्थ होता है कि तुम्हारे पास खोने को कुछ भी नहीं है, फिर क्यों नहीं एक प्रयोग करो? क्यों नहीं कोशिश करके देखो? ''
कार्ल मार्क्स ने संसार के सर्वहारा लोगों को कहा, ''तुम्हारे पास खोने को सिवाय तुम्हारी जंजीरों के और कुछ भी नहीं है। ''यह बात शायद सर्वहारा लोगों के लिए इतनी सही न भी हो, परंतु मैं तुमसे कहता हूं कि सिवाय तुम्हारी जंजीरों के, सिवाय तुम्हारे बंधनों के, सिवाय तुम्हारे अंधेपन के और कुछ भी तो नहीं है तुम्हारे पास खोने को। और यह सारी घटना तभी संभव है जब कि तुम्हें श्रद्धा हो, क्योंकि तुम एक अनजान प्रदेश में यात्रा करने वाले हो जिसका कुछ भी पता—ठिकाना नहीं है।
मैं कहता हूं कि मैंने उसे जाना है, लेकिन मैं तुम्हें उसे जना नहीं सकता। मैं तुम्हें उस बिंदु तक पहुंचा सकता हूं जहां कि तुम्हें पता हो सके कि वह है, लेकिन मैं तुम्हें उसे सिखा नहीं सकता। कोई भाषा नहीं है उसे सिखाने के लिए। कोई मस्तिष्क नहीं ऐसा जो उसे सिखा सके। कोई मार्ग भी नहीं है उसे सिखाने का, और न कोई चिह्न ही है उसे सिखाने के लिए। जो भी तुम जानते हो उसे ज्ञान में अनुवादित नहीं किया जा सकता। वह उसके पार है।
मैंने कुछ जाना है, और मैं तुम्हें उस बिंदु तक ले जा सकता हूं जहा कि तुम भी उसे जान सको। तब तुम कह सकोगे, ''हां, वह है।''
मन उसे नहीं जान सकता।
इसीलिए हम उसे नहीं जानते
क्योंकि जो भी हम जानते हैं वह मन के द्वारा ही जानते हैं। हमारा सारा शान ही हमारा मन और है, हमारा सारा मन कुछ और नहीं है, केवल हमारा जानना ही है। इसलिए हम उसे नहीं जान सकते......
........ और न ही हम यह जानते हैं कि उसे कैसे सिखायें वह उससे भिन्न है जो कि ज्ञात है और वह उससे भी भिन्न है जो कि अज्ञात है!
इससे और भी गहरी समस्या खड़ी—होती है।
वह ज्ञात से भिन्न है...
यह स्पष्ट है। क्योंकि यदि वह ज्ञात से फित्र नहीं होता तो तुम उसे अब तक जान ही लेते।
जो भी तुम जानते हो, वह 'वह' नहीं है। और जो भी तुम्हारा जानने का ढंग है, उस ढंग से भी तुम उसे नहीं जान सकते, अन्यथा अब तक तुम उसे जान ही लेते, क्योंकि तुम लाखों—करोड़ों वर्षों से अस्तित्व में मौजूद हो। लेकिन फिर भी बार—बार तुम उसे चूकते रहे हो। और बुद्धपुरुष उसके बारे में बात करते चले जाते हैं, और तुम उनकी बात सुनते चले जाते हो, लेकिन कुछ भी घटता नहीं।
वह ज्ञात से भिन्न है और वह अज्ञात से भी भिन्न है।
क्योंकि अज्ञात को जाना जा सकता है। अज्ञात का इतना ही अर्थ है कि जो अब तक नहीं जाना गया उसी—ज्ञान की विधि का उपयोग करके किसी दिन वह जान लिया जाएगा।
विज्ञान जगत को दो भागों में बांटता है : शात तथा अशात। इसके आगे विज्ञान के पास कुछ नहीं भी है। विज्ञान कहता है, ''ज्ञात और अज्ञात। ज्ञात वह है जो कि हमने जान लिया है, और अज्ञात वह है जो कि देर—अबेर जान लिया जाएगा। ''
धर्म एक तीसरी श्रेणी उपस्थित करता है— '' अज्ञेय। '' धम कहता है कि कुछ है जो कि ज्ञात है, कुछ है जो कि अज्ञात है, और कुछ ऐसा भी है जो कि अज्ञेय है। यदि कुछ अज्ञेय है तो ही धर्म की संभावना हो सकती है, अन्यथा विज्ञान पर्याप्त है। अशात को शात में परिवर्तित करते जाना होगा।
यह संभावना है कि विज्ञान किसी दिन उस जगह आ जाएगा जहां कि एक ही वर्ग रह जाए— ज्ञात का वर्ग। धीरे—धीरे अज्ञात ज्ञात हो जाएगा। एक बिंदु ऐसा आ जाएगा जहा कुछ भी अज्ञात नहीं बचेगा। विज्ञान के लिए ऐसी कल्पना की जा सकती है। लेकिन धर्म कहता है कि कुछ ऐसा भी है जो न तो की भांति है, और न अज्ञात की भांति है—वह अज्ञेय है। चाहे तुम कुछ भी करो, तुम उसे नहीं जान सकते। अत: जब सब कुछ जान लिया जाएगा, तब भी अज्ञेय पीछे शेष रह जाएगा—रहस्‍य, रहस्यात्मक, रहस्यों का भी रहस्य बच रहेगा।
इस पर इतना जोर क्यों है कि वह अज्ञेय है? कपों नहीं इतना ही कहते कि वह अज्ञात है? क्योंकि जो भी ज्ञात है, वह मन के द्वारा ही ज्ञात है, और अज्ञात भी मन के ही द्वारा जान लिया जाएगा और 'वह' मन के पीछे है। तुम मन से कुछ भी करो, तुम उस तक कभी भी —न पडुंच सकोगे। तुम्हें मन को गिराना पड़ेगा। ओर मन के साथ शात भी गिर जाता है और अज्ञात भी गिर जाता है, क्योंकि ये ही दो मन के काम करने के ढंग हैं। शात और अज्ञात, ये दोनों ही मन के कार्यक्षेत्र हैं। जब मन गिर जाता है तो ये दोनों भी गिर जाते हैं, और तुम एक तीसरे आयाम में प्रवेश करते हो। तीसरा आयाम है, अज्ञेय का। तब तुम उस आयाम में प्रवेश करते हो जहा कि आत्मा है।
लेकिन ऋषि एक बहुत ही अनूठी बात कहता है :
ऐसा हमने अपने पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उसके बारे में हमें बताया है।
वह कहता है कि ऐसा हमने अपने गुरुओं से सुना है। वह भी भलीभांति जानता है, वह कह सकता है, ''मैंने ऐसा जाना है। ''यह बात कहने में कोई भी तो कठिनाई नहीं है, लेकिन फिर भी वह कहता है, ''ऐसा हमने सुना है। हमारे गुरुओं ने ऐसा कहा है। ''
यह भारतीय परंपरा का अपना एक विशेष ढंग है, यह कहने का भारतीय ढंग है। सदा विनम्र बने रहने का भारतीय ढंग है। कोई आग्रह नहीं है कहने में। बुद्ध भी यही कहते हैं, ''जो भी मैं कह रहा हूं वह मेरे पहले भी बहुत—से बुद्धों ने जाना था। यह कुछ नया नहीं है। ''जोर इस बात पर है कि इसमें नया कुछ भी नहीं है, कुछ भी मौलिक नहीं है। और वास्तव में, सत्य कभी मौलिक नहीं हो सकता। केवल असत्य ही मौलिक हो सकता है। तुम झूठ को ईजाद कर सकते हो, लेकिन तुम सत्य का आविष्कार नहीं कर सकते; या कि कर सकते हो?
सत्य का आविष्कार नहीं हो सकता। सत्य शाश्वत है—समयातीत है। इसलिए यह बात कहना कि मैंने सत्य की खोज की है, मूढ़ता है। तुम उसे कभी खोजते नहीं, सिर्फ उसकी पुनखोंज करते हो। उसे ही बार—बार खोजा गया है, हजारों—लाखों बार। उसे ही बार—बार जाना गया है, सहस्त्रों बार। तुम उसे ही फिर—फिर खोजते हो, तुम उसे नया नहीं खोजते हो।
इसी तथ्य पर जोर देने के लिए ऋषि कहता है, ''ऐसा उन्होंने कहा है जो हमसे पहले आये हैं। ऐसा सदैव जाना गया है। ''ऋषि किसी मौलिकता का दावा नहीं करता। ऐसा दावा अहंकार का हिस्सा है। यह दावा कि मैंने खोजा है, यह एक अहंकारी मन की बात है। सचमुच, अहंकार को बड़ी चोट लगती है यदि तुम कह दो कि इसमें मौलिकता क्या है? यदि कोई व्यक्ति कोई बात कहे और तुम कह दो कि यह मौलिक नहीं है तो उस व्यक्ति को चोट लगती है। यदि कोई आदमी कोई किताब लिखता है और तुम कहो कि यह मौलिक नहीं है, यह किताब कितनी ही बार बहुत—से लोगों द्वारा लिखी जा चुकी है, फिर तुमने व्यर्थ ही क्यों इतनी मेहनत की? तो उस आदमी को बड़ी चोट लगेगी। प्रत्येक लेखक, प्रत्येक चिंतक किसी प्रकार से यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता है कि जो भी वह कह रहा है मौलिक है। यह एक नई बीमारी है।
पश्चिम में, यदि तुम कोई मौलिक बात नहीं कह रहे हो तो फिर उसे कहने का अर्थ ही क्या है? क्यों कह रहे हो? उसे कहो ही मत। पूर्व में बात बिलकुल विपरीत है। यदि तुम कुछ मौलिक बात कह रहे हो तो पूर्व कहेगा, रुको, और थोड़ा इस पर विचार करो। इसके दावेदार मत बनो; ऐसा मत कहो कि मौलिक बात है क्योंकि यदि यह मौलिक है तो जरूर इसमें कुछ गलती होगी। अन्यथा पहले भी यह जान लिया गया होता। सत्य तो शाश्वत है। यदि यह मौलिक है तो इसमें जरूर कोई त्रुटि होगी। तुम रुको! किसी और से मत कहो, वरना तुम कठिनाई में पड़ जाओगे क्योंकि तुम असत्य भी साबित हो सकते हो। रुको, सोचो, ध्यान करो। यह जगत इतना शाश्वत है, इतना सनातन है कि तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो कि जो भी तुमने सत्य की भांति खोजा है वह पहले नहीं खोजा जा चुका है? यह असंभव है!
लेकिन ऐसा होता है क्योंकि हमारे ज्ञान की सीमा बहुत छोटी है। यह ऐसे ही है जैसे कि मौसम में वृक्ष पुष्पित होते हैं और उनमें फूल लगते हैं। ये फूल नहीं जान सकते उन फूलों को जो कि पिछले मौसम में आए थे। ये उन्हें नहीं जान सकते क्योंकि इनकी उन फूलों से कभी मुलाकात नहीं हुई। वे अपने को ही बहुत अनूठे, बहुत मौलिक समझेंगे, ''हम इस पृथ्वी पर आए हैं, और इसलिए यह पृथ्वी इतनी सुंदर हो गई है। चूंकि हम खिले हैं, इसलिए सारा अस्तित्व ही हमारे साथ खिल उठा है। ''
वे नहीं जानते कि यह बात सदा—सदा होती आयी है। हर साल मौसम आता है और फूल खिलते हैं। परंतु फूल तो आपस में मिल नहीं सकते, इसलिए हर फूल यही समझता है कि वह पहली बार इस पृथ्वी पर आया है। यह बात उसे एक नई हवा दे देती है, एक अहंकार पैदा कर देती है। वह अनुभव करता है कि वह कुछ है, कुछ विशेष है।
पूर्व का जोर सदा इस बात पर रहा है कि सत्य शाश्वत है। तुम उसे सिर्फ पुन: खोजते हो। बहुतों ने उसे जाना है, बहुत—से लोग उसे पुन: जानेंगे, तुम सिर्फ उस विराट शृंखला के एक छोटे—से हिस्से हो। यह तुम्हारा मौसम है इसलिए तुम अब खिले हो, लेकिन दूसरे बुद्ध भी खिले हैं। यह ऐसा ही है जैसे कि तुम प्रेम में पड़ते हो। तुम सोचते हो कि ऐसा प्यार पहले कभी भी नहीं किया गया, कि जैसे कुछ नया अस्तित्व के भीतर प्रवेश कर रहा है। कोई प्रेमी इस बात को मानने को तैयार नहीं है कि उसके पहले भी किसी ने उसी तरह से अपनी प्रेमिका से प्रेम किया है। कोई प्रेमी नहीं मान सकता।
और यह अच्छा है जहां तक बात की बात है। यह अच्छा ही है। तुम इससे अन्यथा मान भी ० सकते हो, जब कि तुम प्रेम में हो? तुम सोचते हो कि दूसरों ने भी प्रेम किया होगा, लेकिन इस भांति नहीं। दूसरों ने भी प्रेम किया होगा लेकिन इतनी गहरी बात नहीं हो सकती। ऐसा कभी नहीं हुआ। यह बिलकुल मौलिक है।
और यही बात विचारों के साथ होती है। जब कोई विचार तुम्हारे मस्तिष्क में आता है तो तुम सोचते हो कि ऐसा विचार पहले कभी किसी के मस्तिष्क में नहीं आया। किंतु विचार बादलों की भांति हैं, वे हर वर्ष आकाश में घिरते हैं, फिर वे बिखर जाते हैं, और फिर घिरते हैं। यह संसार एक पुनरुक्ति के चक्र में चलता रहता है।
इसलिए भारतीय, विशेषत: प्रज्ञावान भारतीय सदा से ही इस बात पर जोर देते रहे हैं कि जो भी वे कह रहे हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है; उसे पहले भी कहा जा चुका है। यह एक बहुत ही निरहंकारी निवेदन है, और इसमें गहरी समझ छिपी है, ''सत्य कैसे प्रतीक्षा करता रह सकता है मेरी कि मैं आऊं और उसे खोजूं? वह मेरे द्वारा ही खोजे जाने के लिए कैसे ठहरा रह सकता है? '' उसे बार—बार खोजा गया है। परंतु ऐसा होता है कि कोई उसे खोजता है और वह फिर खो जाता है, क्योंकि उसे हस्तांतरित नहीं किया जा सकता।
यदि मैंने सत्य को जाना है तो मैं तुम्हें उसे नहीं दे सकता। उसे दिया नहीं जा सकता क्योंकि सत्य कोई वस्‍तु नहीं है। यह एक घटना है जो कि तुम्हारे स्वरूप के भीतर घटती है। उसे दिया नहीं जा सकता। इसलिए जिस सत्य को मैंने खोजा है, वह पुनः खो जायेगा। और जब तुम उसे खोजोगे तो तुमको लगेगा कि कुछ नया घटित हुआ है, कुछ मौलिक घटा है। लेकिन यदि तुम जान लो और तुम इसे बिना किसी अहंकार के लो तो तुम्हें यह भी अनुभव होगा कि ऋषि सच कह रहा है कि इसे पहले भी कहा गया है, पहले भी जाना गया है।
जिसे वाणी प्रगट नहीं कर सकती परंतु जो वाणी को प्रगट करता है—तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है और न कि वह जो कि वस्तुगत है? जिसे लोग यहां पूजते हैं।
जिसे वाणी प्रगट नहीं कर सकती परंतु जो वाणी को प्रगट करता है...
तुम उसे कह नहीं सकते, तुम उसे बोल नहीं सकते, किंतु वाणी के द्वारा वह ही व्यक्त हो रहा है। सचमुच, बिना उसके तुम बोल नहीं सकते, बिना उसके तुम देख नहीं सकते, बिना उसके तुम अनुभव नहीं कर सकते। वही तुम्हारा जीवन है। तुम उसके बारे में बोलकर नहीं बता सकते, लेकिन वही है बोलने वाला, तुम उसे कहीं भी नहीं देख सकते, किंतु वही है देखने वाला; तुम उसके बारे में सोच भी नहीं सकते, परंतु वही है सोचनेवाला; तुम उसके बिना कुछ भी नहीं कर सकते, क्योंकि वही है करने वाला। इसलिए तुम चाहे कुछ भी करो, वही प्रगट होता है। तुम उसे प्रगट नहीं कर सकते, लेकिन जो भी तुम करते हो उससे वही प्रगट होता है क्योंकि वही है एकमात्र। ब्रह्म का अर्थ होता है जीवन। वही है एकमात्र। जिसे वाणी प्रगट नहीं कर सकती परंतु जो वाणी को प्रगट करता है—तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है और न कि वह जो कि वस्तुगत है? जिसे लोग यहां पूजते हैं
लोग मूर्तियों की पूजा किये चले जाते हैं। वे परमात्मा को भी एक वस्तु बना लेते हैं, क्योंकि यदि हमारे सामने कुछ भी मौजूद नहीं हो तो हमें बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है। हमें बड़ी बेचैनी, बड़ी अकुलाहट लगती है। ऐसा ईश्वर जो अज्ञात हो, अज्ञेय हो, बड़ा कठिन हो जाता है। हम एक मूर्ति का सृजन कर लेते हैं, और फिर. हम उसे अपने सामने रख लेते हैं, और उसकी पूजा करते हैं।
एक तरह से यह बात बड़ी मूर्खता की है क्योंकि तुमने ही उस गइrत को बनाया था और अब तुम्हीं उसकी पूजा करने लगे। तुम उसकी ऐसे ही पूजा करते हो जैसे कि मूर्ति ने तुम्हें बनाया हो। तुमने उस मूर्ति को बनाया, असली बनाने वाला तो पीछे छिपा है। वस्तुत: परमात्मा उस पूजी जाने वाली मूर्ति में नहीं है। वह तो पूजा करने वालों के भीतर है। वह उस वस्तु में नहीं है। वह तो पूजा करने वालों के भीतर है। वह उस वस्तु में नहीं है जिसकी तुम पूजा कर रहे हो। वह तो अंतर का आखिरी हिस्सा है जहां से प्रार्थना उठ रही है। वह सदा भीतर है, लेकिन हमारे लिए कोई बात बाहर होने पर ही महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि हम एक ढांचे में थिर हो गए हैं जहां कि हर चीज वस्तुगत हो गई है। इसी से समस्या खड़ी होती है। इसलिए हमने मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों की स्थापना की; सिर्फ उसे वस्तुगत बनाने के लिए जिसे कि वस्तुगत नही बनाया जा सकता। लेकिन मनुष्य की मूढ़ताएं ऐसी हैं.।
मुहम्मद ने उपदेश दिया कि उसे वस्तु में नहीं डाला जा सकता। तुम उसकी मूर्ति नहीं बना सकते। उन्होंने बिलकुल ठीक बात कही थी। वे वही कह रहे थे जिसे उपनिषदों में कहा गया है। लेकिन मुसलमानों ने क्या किया? उन्होंने सोचा कि यह उनका कर्त्तव्य है कि वे मूर्तियों को तोड़ डालें, मंदिरों को नष्ट कर दें, उनमें आग लगा दें। क्योंकि उसे मूर्ति में नहीं ढाला जा सकता, इसलिए जहां भी उसे मूर्ति में डाला गया हो, उस वस्तु को ही नष्ट कर दो।
जरा मनुष्य की मूढ़ता तो देखो! मुहम्मद यह कहने की कोशिश कर रहे थे कि तुम भूलो मूर्ति को और भीतर जाओ। लेकिन वे मूर्ति को नहीं भूल सके। वे फिर से मूर्ति से ही ग्रसित हो गए : ''चलो नष्ट करो। ''अत: कोई ईश्वर को पत्थरों में पूज रहा है, और कोई पत्थरों को तोड़ रहा है, लेकिन दोनों ही पत्थर से जुड़े हैं अपने—अपने ढंग से, और दोनों ही सोचते हैं कि पत्थर बड़ा महत्वपूर्ण है—एक उसकी पूजा करने के लिए, और दूसरा उसे नष्ट करने के लिए। एक सोचता है कि यदि वह मूर्ति को नहीं पूजेगा तो वह धार्मिक नहीं हो सकेगा, और एक सोचता है कि यदि वह इस पत्थर को नहीं तोड़ेगा तो वह धार्मिक नहीं हो सकता। दोनों के लिए पत्थर महत्वपूर्ण हो गया।
हम वस्तु की ओर बढ़ते जाते हैं। या तो हम उससे प्रेम करते हैं, या फिर उससे घृणा करते हैं, लेकिन वस्तु वहीं बनी रहती है। और जिन्होंने भी आज तक जाना है उनका सारा जोर इस बात पर है कि वस्तु को भूलो और अपनी निजता में ठहर जाओ। किसी वस्तु का, किसी मूर्ति का, किसी नाम का अथवा किसी रूप का निर्माण मत करो। कुछ भी निर्मित मत करो। सर्जक तो पहले ही मौजूद है; तुम उस पर और सुधार नहीं कर सकते। कुछ न करो, केवल भीतर जाओ और उसे जानो।
जिसे मन नहीं समझ सकता परंतु जो मन को समझता है—तू जान कि वही एकमात्र ब्रह्म है और न कि वह जिसे लोग यहां पूजते हैं।
मन उसे नहीं समझ सकता, लेकिन वह मन को समझ सकता है। मन उसमें समाविष्ट है, सभी कुछ उसमें समाविष्ट है। पत्थर भी उसमें समाविष्ट है। लेकिन पत्थर उसे समाविष्ट नहीं कर सकता, यही मुख्य बात है। एक बड़ा वर्तुल खींचो, फिर उसके भीतर एक छोटा वर्तुल खींचो। बड़ा वर्तुल छोटे वर्तुल को समाए है। छोटा वर्तुल बड़े वर्तुल का हिस्सा है, लेकिन छोटा वर्तुल बड़े वर्तुल को नहीं समा सकता। तुम्हारा मन परमात्मा में समाविष्ट है, लेकिन तुम्हारा मन उसे अपने में समाविष्ट नहीं कर सकता। वह एक हिस्सा है, और एक हिस्सा सर्व को नहीं समा सकता। सर्व सभी कुछ को समझ सकता है, समा सकता है। और जब एक हिस्सा कहने लगे कि ''मैं सर्व को समाए हूं '' तो वह हिस्सा पागल हो गया है, वह हिस्सा विक्षिप्त हो उठा है।
जब कभी तुम समग्र को मन के द्वारा समझने की कोशिश करते हो तो तुम एक मूढ़ता कर रहे हो। यह असंभव है। एक बूंद सागर को नहीं समा सकती, किंतु सागर पानी की बूंद को समाए है। और यदि पानी की बूंद कहे कि मैं ही सागर हूं तो फिर बूंद का दिमाग खराब हो गया है। लेकिन यह बूंद सागर हो सकती है। यदि यह पानी की बूंद सागर में गिर जाए और अपनी सीमाओं को खो दे, तो बूंद सागर हो जाती है।
मन नहीं कह सकता है कि मैं जानता हूं। मन सागर की समग्रता में गिर सकता है, और तब वह उसका ही हिस्सा हो सकता है।
जो भी हम पूजते हैं वह सिर्फ एक खेल है। वह अच्छा है। यदि तुम्हें पूजा करना अच्छा लगता है ठीक है। खेल अच्छा है, और मैं कभी भी किसी के खेल को बिगाड़ने में उत्सुक नहीं हूं। यदि तुम पूजा करने में रस लेते हो और चर्च जाते हो तो यह अच्छा है, जाते रहो। लेकिन याद रखो कि तुम बुनियादी बात चूक रहे हो. कि वह आत्यंतिक पूजा करने वाले के भीतर छिपा है। इसलिए जब पूजा करो तो अपनी आंखों को पूजा की जाने वाली वस्तु पर ही मत टिकाये रखना। अपने को भीतर पूजा करने वाले पर केंद्रित करना, वहां वह प्रगट होगा। वहीं वह छिपा है।

दिनांक 1० जुलाई 1973; प्रात:,माउंट आबू राजस्थान।

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