कुल पेज दृश्य

बुधवार, 20 जून 2018

निर्वाण-उपनिषद--(प्रवचन-09)

नौवां—प्रवचन 

साधक के लिए शून्‍यता, सत्‍य योग, अजपा गायत्री और विकारमुक्‍ति का महत्‍व

शून्यं न संकेत:।
परमेश्वर सत्
सत्यसिद्धयोगो मठ:।
अमरपदं न तत् स्वरूपम्।
आदिब्रह्म स्व—संवित्।
अजपागायत्री विकारदंडो ध्येय:।
मनोनिरोधिनी कन्‍था।
                        शून्य संकेत नहीं है।
                        परमेश्वर की सत्ता है।
            सच्चा और सिद्ध हुआ योग (संन्यासी का ) मठ है।
               उस आत्मस्वरूप के बिना अमरपद नहीं है।
                        आदि ब्रह्म स्व—चेतन है।
                  अजपा गायत्री है। विकार—मुक्ति ध्येय है।
                    मन का निरोध ही उनकी कन्था है।

साधक के लिए शून्यता, सत्य योग, अजपा गायत्री और विकार—मुक्ति का महत्‍व:

 शून्य संकेत नहीं परमेश्वर की सत्ता ही है।
जिन्होंने भी जाना है, उन्होंने परमेश्वर को या तो पूर्ण कहा है, या शून्य कहा है। ये दो ही उपाय हैं। परमात्मा के संबंध में कोई संकेत करने के ये दो ही उपाय हैं। या तो हम कहें वह पूर्ण है, या हम कहें वह शून्य है।
उलटे मालूम पड़ते हैं। पूर्ण और शून्य से ज्यादा विरोधी और क्या होगा? इसलिए जो जानते नहीं, वे अगर पूर्ण को मानते हैं, तो शून्य का विरोध करते हैं। न जानने वाले यदि शून्य को मान लेते हैं परमात्मा का स्वरूप, तो पूर्ण का विरोध करते हैं।

लेकिन शून्य या पूर्ण दो उपाय हैं उसके संबंध में कुछ कहने के। या तो कह दो कि वह सभी कुछ है, या कह दो कि वह कुछ भी नहीं है, सभी से खाली है। या तो इनकार कर दो उस सब का, जो हमें शात है और कह दो, यह भी वह नहीं, यह भी वह नहीं, यह भी वह नहीं। इस सबके बाद जो बच रहता है, वही है। यह शून्य का मार्ग है। या कहो, यह भी वही है, वह भी वही है, सब कुछ वही है। यह पूर्ण का मार्ग है।
यह व्यक्ति पर निर्भर है कि वह किस मार्ग को प्रीतिकर समझेगा। गिलास आधा भरा हो, तो कोई कह सकता है, आधा भरा; कोई कह सकता है, आधा खाली। विपरीत वक्तव्य हैं दोनों। और जिन्होंने न देखा हो गिलास, वे इस पर विवाद भी कर सकते हैं कि हम आपस में विरोधी हैं। तुम कहते हो, आधा खाली; हम कहते हैं, आधा भरा। अब निश्चित ही भरा और खाली विपरीत सत्य हैं। लेकिन जिन्होंने देखा है, वे कहेंगे, ये आधे भरे गिलास को कहने के दो ढंग हैं।
और जब हम परम सत्ता के संबंध में कुछ कहने चलते हैं, तो अति में ही बात करनी पड़ेगी, एक्सट्रीम पर ही बात करनी पड़ेगी, सीमांत पर बात करनी पड़ेगी। या तो इनकार कर देना पड़ेगा उस सब का, जिसे हम जानते हैं, जो संसार है, स्वप्‍नवत। कह देना पड़ेगा कि यह वहां कुछ भी नहीं है।     बुद्ध से कोई पूछता था, कैसा है सत्य? तो बुद्ध कहते थे, जो भी तुम जानते हो, वैसा जरा भी नहीं है। जो भी तुम पहचानते हो, वह काम नहीं पड़ेगा। जो भी तुमने सुना है, समझा है, अनुभव किया है, वह वहां काम नहीं आएगा। और जैसा सत्य है, उसको कहने का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि जिस तरह भी हम उसे कहेंगे, उसमें तुम्हारे सुने हुए, समझे हुए शब्दों का ही उपयोग करना पड़ेगा। इसलिए बुद्ध कहते थे, मुझे चुप रहने दो, मुझे मजबूर मत करो उसके संबंध में कुछ कहने को। और अगर कोई बहुत मजबूर ही करता, तो वे कहते, शून्य है। पहले तो वे इनकार करते वक्तव्य देने से कि मैं कुछ न कहूंगा, मुझे चुप रह जाने की आशा दो। अगर कोई नहीं ही मानता और जिद किए चला जाता, तो बुद्ध कहते, वह शून्य है।
लेकिन जब हम सुनते हैं, कोई कहे परमात्मा शून्य है, तो लगता है शायद वह कह रहा है, परमात्मा नहीं है। लेकिन अगर 'नहीं है' कहना था, तो शून्य के प्रयोग करने की कोई जरूरत ही न थी। सीधा ही कहा जा सकता था, नहीं है। जो नहीं है, उसे नहीं है कहने में कौन सी बाधा थी? जो है, उसे चाहे प्रकट न भी किया जा सके, लेकिन जो नहीं है, उसके संबंध में तो वक्तव्य दिया ही जा सकता है।
लेकिन बुद्ध कहते हैं, वह शून्य है। 'है' से इनकार नहीं करते। है निश्चित ही, लेकिन शून्य है। और शून्य कहने का कारण यह है, ताकि हम अपने मन की कोई भी धारणाएं, वे जो हमारी कैटेगरीज आफ इन्टेलेक्ट हैं, हमारी बुद्धि की जो धारणाएं हैं, उन सबको छोड्कर उसकी तरफ चलना। अपने को छोड्कर चलें उसकी तरफ।
परमात्मा को शून्य कहने का अर्थ है कि केवल वे ही उसे जान पाएंगे जो शून्य होने की तत्परता दिखाएंगे। जब वे बिलकुल शून्य हो जाएंगे, तो जान पाएंगे उसे। क्योंकि तब उन दोनों का एक सा स्वभाव मिल जाएगा। एक हारमनी, एक एफीनिटी, दोनों के बीच एक संवाद शुरू हो जाएगा। शून्य है, यह कहने का यह अर्थ है कि वहा कोई शब्द नहीं, कोई ध्वनि नहीं, वहा कोई रस नहीं। इंद्रियां जो भी जानती और पहचानती हैं, उनमें से वहां कुछ भी नहीं। फिर भी वह है।
शून्य कहने का एक कारण और है। यह बहुत गहन है। पर खयाल में ले लेना जरूरी है, क्योंकि हम गहन यात्रा पर ही निकले हैं। अगर कोई परमात्मा को पूर्ण कहे, तो यह भी सोचा जा सकता है कि और भी पूर्णतर हो सकता है। कितना ही पूर्ण हो, थोड़ा और पूर्ण होने में कौन सी असुविधा है? पूर्णतर हो सकता है। पूर्ण में और भी कुछ होने का उपाय बना रहता है। लेकिन और शून्य नहीं हो सकता। जब कोई कहता है, परमात्मा शून्य है, तो आखिरी बात आ गई। दो शून्य छोटे और बड़े नहीं हो सकते। शून्य यानी शून्य। वहां कोई है ही नहीं।
अगर मैं कमरे में मौजूद हूं तो भिन्न भी हो सकता हूं। मेरी मौजूदगी भिन्न भी हो सकती है। जैसा अभी हूं कल उससे अन्यथा भी हो सकता हूं। लेकिन कमरे में मेरी गैर —मौजूदगी है, ऐब्सेंस है, वह भिन्न नहीं हो सकती कभी भी। इट विल रिमेन द सेम। ऐब्सेंस में कैसे फर्क पड़ेगा? शून्य सदा थिर होगा। होगा तो पूर्ण भी सदा थिर, लेकिन शून्य ज्यादा तर्कयुक्त है। पूर्ण के साथ हम सोच सकते हैं और भी पूर्णताएं हैं, लेकिन शून्य के साथ और भी, शन्यताएं नहीं सोची जा सकतीं। शून्य का अर्थ ही है कि जो बिलकुल खाली है। अब और खाली कैसे होगा! तो बुद्ध ने शून्य का प्रयोग किया है।
यह उपनिषद का ऋषि भी कहता है, शून्य न संकेत:।
यह कहता है कि जब हम कहते हैं, परमात्मा शून्य है, तो तुम ऐसा मत सोचना कि हम केवल संकेत करते हैं। यह बड़ी हिम्मत का वक्तव्य है। ऋषि कहता है, यह मत सोचना कि हम सिर्फ संकेत करते हैं शून्य से, और परमात्मा शून्य नहीं है। नहीं, हम कहते हैं, परमेश्वर सत्ता। शून्य ही परमेश्वर की सत्ता है। सत्ताएं दो तरह की हो सकती हैं—पॉजिटिव, विधायक; निगेटिव, नकारात्मक। लेकिन जहां—जहां नकार होता है, वहां—वहां विधेय होता है। जैसे बिजली जल रही है, तो उसमें एक निगेटिव पोलेरिटी है, एक पॉजिटिव पोलेरिटी है। उसमें ऋण विद्युत भी है, धन विद्युत भी है। अगर दो में से एक हट जाए तो बिजली बुझ जाए। दोनों का सर्किट, दोनों का वर्तुल चाहिए तो बिजली जलती है। स्त्री है, पुरुष है। एक नकारात्मक है, एक विधायक है। दो में से एक हट जाए, तो जीवन की यात्रा बंद हो जाती है।
जगत में जिस चीज का भी अस्तित्व है, उसमें एक विधायक और एक नकारात्मक हिस्सा संयुक्त रूप से, जैसे बैलगाड़ी के दो चाक या आदमी के दो पैर, ऐसे जिस चीज की भी सत्ता है, उसके दो पैर हैं; एक नकार है, एक विधेय है।
लेकिन परमात्मा अगर नकार है, तो विधेय कौन होगा फिर? फिर तो हमें एक परमात्मा और सोचना पड़े। और इसीलिए कुछ धर्मों ने परमात्मा के साथ शैतान को भी सोचा हुआ है। वह नंबर दो का परमात्मा है, बुरा परमात्मा। लेकिन है वह, और मिट नहीं सकता। क्योंकि उनको खयाल में आया है कि सत्ता तो विभाजित है। अगर परमात्मा शुभ है, तो उसके विपरीत अशुभ की भी सत्ता होनी चाहिए, इसलिए शैतान को बना ही लेना पड़ा।
सिर्फ भारत एक देश है, जहां हमने परमात्मा के विपरीत किसी सत्ता को निर्मित नहीं किया। ईसाइयत भी शैतान के बाबत सोचती है, इस्लाम भी शैतान के बाबत सोचता है, यहूदी भी शैतान के बाबत सोचते हैं, पारसी भी शैतान के बाबत सोचते हैं। सिर्फ इस देश में कुछ लोगों ने बिना शैतान के और परमात्मा के होने की संभावना को स्वीकार किया है। फिर अगर परमात्मा को स्वीकार करना है बिना शैतान के. और शैतान के साथ स्वीकार करना कोई स्वीकार करना नहीं है, क्योंकि फिर एक कास्टैंट काफ्लिक्ट है, जिसका कोई अंत नहीं होगा। शैतान और परमात्मा का कभी अंत नहीं हो सकता। वह विरोध चलता ही रहेगा।
सुना है मैंने कि मुल्ला नसरुद्दीन जिस दिन मरा, मौलवी उसे पश्चात्ताप करवाने आया है। और मुल्ला से कहता है, पश्चात्ताप करो, परमात्मा से क्षमा मांगो और मरते वक्त शैतान को इनकार करो। मुल्ला बिलकुल चुप रहा। आंख खोलकर उसने देखा जरूर, फिर आंख बंद कर लीं। मौलवी ने कहा, तुमने सुना नहीं? ज्यादा देर नहीं है, आखिरी घड़ी है। क्षण दो क्षण की श्वास है। परमात्मा को स्वीकार करो और शैतान को इनकार करो। मुल्ला ने कहा कि आखिरी वक्त में मैं किसी को भी नाराज नहीं करना चाहता। क्योंकि पता नहीं, आगे की यात्रा किस तरफ हो! मैं चुप ही रहूंगा। जिस तरफ चला जाऊंगा, उसी की प्रशंसा कर दूंगा। मगर अभी तो कुछ पक्का नहीं है। तो ऐसे डेलिकेट मोमेंट में, मुल्ला ने कहा, ऐसे नाजुक क्षण में जिद मत करो। अभी कुछ पक्का नहीं है, शैतान की तरफ जाऊं कि परमात्मा की तरफ जाऊं। और किसी को नाराज करना ठीक भी नहीं। जिंदगी की बात और थी, अब तो यह आखिरी क्षण है, तो चुप ही मुझे मर जाने दो।
अगर शैतान और परमात्मा का अस्तित्व है साथ—साथ, तो यह अस्तित्व सदा ही द्वंद्व होगा, और द्वंद्वातीत होना असंभव है। इसलिए ऋषि नहीं कहते कि अस्तित्व द्वंद्व है। ऋषि कहते हैं, जगत द्वंद्व है—जगत, जो हमें दिखाई पड़ता है वह। लेकिन जो है, वह निर्द्वंद्व है।
उस निर्द्वंद्व को कैसे प्रकट करें? कहें विधेय, पॉजिटिव? कहें निषेध, निगेटिव? तो मुश्किल हो जाएगी, द्वंद्व खड़ा हो जाएगा। तो दो ही उपाय हैं उसको प्रकट करने के। या तो कह दें दोनों, अर्थात पूर्ण—एक साथ। और या कह दें दोनों नहीं, अर्थात शून्य। ये दो उपाय हैं। या तो परमात्मा को कह दें पूर्ण। उसका अर्थ यह हुआ कि जो भी इस जगत में है, सभी परमात्मा है।
इससे बड़ी परेशानी पश्चिम में, खासकर ईसाई विचारकों को होती है। वे कहते हैं, फिर बुराई का क्या होगा? बुराई है, बीमारी है, मृत्यु है, दुख है, इसका क्या होगा ई क्या यह भी परमात्मा है?
जो कहता है _ पूर्ण है परमात्मा, वह यह भी स्वीकार कर रहा है कि बुराई है, वह भी परमात्मा है। वह जो चोर है, वह भी परमात्मा है। चोर परमात्मा है, है परमात्मा ही।
ईसाइयत को बड़ी कठिनाई पड़ी इस बात को समझने में। क्योंकि अगर चोर भी परमात्मा है और अगर राम भी रावण हैं, तो फिर आदमी के लिए विकल्प क्या है? आदमी क्या चुने? क्या बुरा है?
इस जगत में कोई बुराई नहीं है। अगर सभी परमात्मा है, तो फिर बुराई नहीं है। अकाल आता है, बाढ़ आती है, लोग मर जाते हैं, युद्ध होता है। सिर्फ हिंदुओं ने हिम्मत की कि वह भी परमात्मा है।
यह हिम्मत बहुत अदभुत है। समझ के थोड़े पार भी है। क्योंकि हमारा भी मन कहता है कि इसे इनकार करो। अच्छाई को परमात्मा से जोड़ दो, बुराई को अलग करो। लेकिन ऋषि कहते हैं, बुराई को फिर कहां रखोगे? फिर तुम्हें शैतान निर्मित करना पड़ेगा। बुराई को रखोगे कहां? बुराई भी परमात्मा है।
असल में अगर बुराई भी परमात्मा है, तो बुराई बुराई हो नहीं सकती अंततः। वह सिर्फ हमारे देखने की भूल होगी या पूरा पर्सपेक्टिव न होगा, पूरी बात दिखाई न पड़ रही होगी। एक घटना घटती है, पैर में काटा चुभ जाता है, आप कहते हैं, यह तो सीधी बुराई है। दुख हो रहा है, पीड़ा हो रही है।
हसन नाम का सूफी फकीर एक रास्ते से गुजर रहा है। पत्थर से चोट लग गई और पैर से खून बहने लगा, तो उसने हाथ जोड़कर आकाश की तरफ परमात्मा को धन्यवाद दिया कि तेरी बड़ी कृपा है। उसके शिष्य तो बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, यह कृपा है! तो अकृपा क्या होती है? पैर में पत्थर लग गया है, खून बह रहा है; अगर यह कृपा है, तो हमें छुट्टी दो। हम सब परमात्मा की कृपा को खोजने निकले हैं और तुम्हारे पीछे इसीलिए चल रहे हैं। अगर यह कृपा है, तो हम वापस लौट जाएं।
तो हसन ने कहा कि जो इसमें कृपा न देख पाएगा, उसे कृपा कभी भी न मिल सकेगी। और फिर मैं तुमसे कहता हूं कि आज मुझे फांसी होनी चाहिए थी, लेकिन उसकी कृपा है कि सिर्फ पैर में एक पत्थर लगकर मैं बच गया हूं। कर्म तो मेरे ऐसे थे कि आज फांसी निश्चित थी। नियति तो मेरी फांसी की थी, लेकिन उसकी कृपा है।
और ऐसा मत सोचना कि हसन को फांसी लगती, तो हसन न कहता कि तेरी बड़ी कृपा है। तो भी यही कहता। क्योंकि और बडी फांसिया हो सकती हैं। फांसी से भी बड़ी फांसिया हो सकती हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन ने इकट्ठी चार शादियां कर ली थीं। जिस जगह वह रहता था, उस जगह का कानून इसे फांसी के योग्य मानता था। अदालत में हाजिर होना पड़ा। मजिस्ट्रेट ने कहा कि जुर्म तो तुमने बहुत भयंकर किया है। फांसी ही इसकी सजा है। लेकिन मुल्ला, हम तुम्हें फांसी नहीं देते। हम तुम्हें माफ करते हैं और यह दंड देते हैं कि चारों स्त्रियों के साथ जाकर रहो। मुल्ला ने कहा, यह फांसी से भी बदतर है। इससे तो तुम फांसी दे दो, बड़ी कृपा होगी।
फांसी से बदतर स्थितियां हो सकती हैं। अगर हसन को फांसी भी लगती, तो वह कहता, तेरी बड़ी कृपा है। नहीं, सवाल यह नहीं है कि कौन सी बात हुई है। सवाल इस हृदय का है, जो हर जगह परमात्मा को देख लेता है।
ऋषि कहते हैं कि वह परमात्मा या तो पूर्ण है, सभी कुछ वही है, क्षुद्रतम से लेकर विराटतम तक वही है। एक तो यह रास्ता है। दूसरा रास्ता यह है कि इसमें से कुछ भी वह नहीं है। निर्वाण उपनिषद का ऋषि तो कहता है, वह शून्य है। और इस पर जोर देने का कारण है। और मेरा भी झुकाव इस बात का है कि परमात्मा को पूर्ण न कहा जाए शून्य ही कहा जाए। यह जानते हुए कि पूर्ण भी कहा जा सकता है, फिर भी मेरा अपना झुकाव भी यही है कि परमात्मा को शून्य ही कहा जाए। क्यों? वह मैं आपको कहूं।
क्योंकि जैसे ही हम परमात्मा को पूर्ण कहते हैं, हमारे अहंकार को परमात्मा के साथ मिटाना मुश्किल हो जाता है। वह बढ़ता है। क्योंकि लगता है, परमात्मा को पाकर हम पूर्ण हो जाएंगे। लेकिन जब कहा जाता है, परमात्मा शून्य है, तो उसका अर्थ है कि परमात्मा को पाना हो, तो हमको मिटना पड़े और शून्य होना पड़े।
इसलिए साधक की दृष्टि से परमात्मा को शून्य कहना ही उचित है। दर्शन की दृष्टि से पूर्ण भी कहा जा सकता है, लेकिन साधक की दृष्टि से पूर्ण कहना बहुत खतरनाक है। क्योंकि साधक बहुत नाजुक हालत में है। सवाल यही है कि अहंकार मिट जाए, तो वह परमात्मा को पा ले, जो पूर्ण है या शून्य है, जो भी है। लेकिन पूर्ण परमात्मा की कल्पना के साथ अपने को मिटाने का खयाल नहीं आता, बल्कि और अपने बड़े हो जाने का खयाल आता है। ऐसा लगता है कि परमात्मा को पाकर हम और भी मजबूत, और भी विराट, और भी अमृत, और भी दुख के पार —र लेकिन हम बच रहेंगे। मैं बच रहूंगा।
तो हमारा अहंकार कह सकता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। और इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा करने वाले साधु—संन्यासी अति अहंकार से पीड़ित हो जाते हैं। अहंकार उनके रोएं—रोएं पर लिख जाता है। उसका कारण है। वक्तव्य अगर परमात्मा के पूर्ण होने का स्वीकार किया जाए, तो उस पूर्ण के साथ स्वयं को जोड़ने में शून्य होना कठिन पडेगा।
इसलिए साधक को ध्यान में रखकर ऋषि कहता है कि शून्य उसका स्वभाव है। और जब तक तुम शून्य न हो जाओ, तब तक उसे न पा सकोगे। यद्यपि जो पा लेते हैं, वे उसे पूर्ण भी कह सकते हैं, कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन जिन्होंने नहीं पाया है, उनकी तरफ से अगर ध्यान रखना हो, तो शून्य कहना ही उचित है। क्योंकि परमात्मा को वही बताना उचित है, जो हमें बनना हो। परमात्मा को ऐसा कोई भी संकेत देना खतरनाक है, जो हमारे मिटने में बाधा बन जाए। मिट जाना है, खाली हो जाना है, तो ही हम उससे भर पाएंगे। तो जो हमें हो जाना 'है, परमात्मा को वही कहना उचित है।
इसलिए शून्य प्रेफरेबल है, चुनाव योग्य है। और ऋषि ने शून्य को ही चुना और कहा कि यह शून्य संकेत नहीं है, ऐसा मत मानना कि हम सिर्फ इशारा करते हैं शून्य से उस परमात्मा का, जो कि पूर्ण है। यह कहा कि वह शून्य ही है, इशारा भी नहीं करते। उसका स्वभाव शन्य है। यह स्वभाव शून्य है, यह और भी एक—दो दिशाओं से समझ लेना चाहिए।
असल में सारा अस्तित्व शून्य से पैदा होता है और शून्य में ही लीन होता है। एक बीज है वृक्ष का, तोड़े और खोजें कि वृक्ष उसमें कहां छिपा है! कहीं भी न मिलेगा। पीस डालें, कहीं वृक्ष न मिलेगा। फिर भी इसी बीज से वृक्ष पैदा होता है। यही बीज टूटकर जमीन में बिखर जाता है और अंकुर निकलता है और वृक्ष बन जाता है। लेकिन बीज में खोजने से वृक्ष कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता था।
कहा से आता है यह वृक्ष? शून्य से आता है। बीज में तो सिर्फ इस वृक्ष की ब्‍लू—प्रिंट होती है, वृक्ष नहीं होता। बीज में तो सिर्फ नक्शा होता है कि वृक्ष कैसा होगा। जस्ट ए ब्‍लू—प्रिंट, ए बिल्ट—इन प्रोग्रैम। जैसे कि कोई आर्किटेक्ट एक मकान बनाता है और अपनी फाइल में एक नक्शा दबाकर चलता है। आप उसके नक्शे में रहने की कोशिश मत करना। वह नक्शा सिर्फ ब्‍लू—प्रिंट है। वह सिर्फ रूपरेखा है; जैसा कि मकान बन सकेगा, उसकी सिर्फ रूपरेखा है। बीज में वृक्ष नहीं होता, बीज में सिर्फ रूपरेखा होती है। वृक्ष तो शून्य से आता है, बीज रूपरेखा देता है और वृक्ष निर्मित होता है।
आप जब पैदा होते हैं, तो आपके पिता और मा से आप पैदा नहीं होते, जस्ट ए ब्‍लू प्रिंट इज गिवेन। मां और बाप सिर्फ ब्‍लू प्रिंट देते हैं, रूपरेखा देते हैं कि नाक कैसी होगी, आंख कैसी होगी, बाल का रंग कैसा होगा, उम्र कितनी होगी, सब रूपरेखा दे देते हैं, लेकिन जो जीवन आता है, वह शून्य से आता है।
सारा अस्तित्व शून्य से निकलता है और सारा अस्तित्व शून्य में लौट जाता है। जब एक वृक्ष गिरता है और नष्ट होता है, तो पत्ते जमीन में मिलकर फिर मिट्टी हो जाते हैं। वे मिट्टी से आए थे। रूपरेखा खो गई, बिल्ट—इन प्रोग्रैम था, वह समाप्त हो गया। सत्तर साल वृक्ष को रहना था, वह बात समाप्त हो गई। मिट्टी अपनी मिट्टी खींच लेती है, पानी अपना पानी वापस ले लेता है, आकाश अपना आकाश मांग लेता है, सूर्य अपनी किरणों को वापस उठा लेता है, हवाएं अपनी हवाओं को खींच लेती हैं। लेकिन वृक्ष कहां गया? वह जो जीवन था, जिसने इस मिट्टी को इकट्ठा किया था और हवा को बांधा था और जिसने पानी खींचा था आकाश से और सूरज से किरणें ली थीं, वह जो जीवन था, जिसने यह सब संघट किया था, यह सारा आर्गनाइजेशन किया था, वह जीवन कहां है? वह शून्य से आया था और शून्य में वापस लौट गया।
परमात्मा को शक कहने का कारण है। जो भी दिखाई पड़ता है, वह तो पदार्थ है। जो भी पकड़ में आता है, वह पदार्थ है। इस सब दिखाई पड़ने वाले और पकड़ में आने वाले के अतिरिक्त कहीं कोई मूल स्रोत जीवन का चाहिए। उसे हम क्या कहें? उसे हम कोई भी नाम देंगे, तो वह पदार्थ जैसा मालूम पड़ेगा। शून्य भर एक शब्द है हमारे पास, जो पदार्थ जैसा मालूम नहीं पड़ता।
इसलिए परमात्मा को शून्य कहा है। इसीलिए उसे निराकार कही है, सिर्फ शून्य ही निराकार हो सकता है। सिर्फ शून्य ही निराकार हो सकता है। इसीलिए उसे निर्गुण कहा है, सिर्फ शून्य ही निर्गुण हो सकता है। इसीलिए उसे सनातन कहा है—सदा एक जैसा रहने वाला—सिर्फ शून्य ही सदा एक जैसा हो सकता है। जैसे ही आकृति आती है, बदलाहट आ जाती है। जैसे ही गुण आते हैं, परिवर्तन आ जाता है। जैसे ही रूप आता है, जन्म और मृत्यु आ जाती है। सिर्फ शून्य ही अजन्मा, अमृत हो सकता है।
इसलिए ऋषि कहता है, शून्य संकेत नहीं है हमारा, शून्य उसकी सत्ता है। विराट जगत उसी से पैदा होता है और उसी में लीन हो जाता है। शून्य परमात्मा की सत्ता, उसका अस्तित्व, उसके होने का ढंग है। इसीलिए वह दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए परमात्मा का दर्शन, ठीक शब्द नहीं है कहना। आंख से तो वह दिखाई नहीं पड़ेगा। कहना पड़ता है, क्योंकि मजबूरी है। कोई भी शब्द उपयोग करेंगे, तो इंद्रियों का होगा। परमात्मा की होती है प्रतीति, होती है अनुभूति, होती है एक्सपीरिएसिंग, दर्शन नहीं। कहते हैं, शब्द के लिए उपाय नहीं कोई। परमात्मा शून्य है, इसीलिए तो मौजूद होकर भी मौजूद नहीं मालूम पड़ता। सब तरफ होकर भी अनुपस्थित है। जगह—जगह होकर भी कहीं भी नहीं मालूम पड़ता।
स्वामी राम निरंतर एक बात कहा करते थे। वे कहते थे, एक परम नास्तिक था। और उसने कहीं दीवार पर लिख छोड़ा था—गॉड इज नोव्हेयर, ईश्वर कहीं भी नहीं है। उसका छोटा बच्चा पैदा हुआ, बड़ा हुआ, स्कूल पढ़ने जाने लगा। अभी नया—नया पढ रहा था, तो पूरे लंबे अक्षर नहीं पढ़ पाता था। नोव्हेयर काफी बड़ा है। वह बच्चा पढ़ रहा था दीवार पर लिखा हुआ गॉड इज नोव्हेयर, उसने पढ़ा, गॉड इज नाऊ हियर। तोड़कर पढ़ा। वह नोव्हेयर जो था, उसे तोड़ लिया। बड़ा लंबा शब्द था। उतना लंबा उसकी अभी सामर्थ्य के बाहर था।
बाप तो बहुत चौंका। लिखा था, गॉड इज नोव्हेयर। पढ़ने वाले ने पढ़ा, गॉड इज नाउ हियर। उस दिन से बाप बड़ी मुश्किल में पड़ गया। जब भी वह दीवार पर देखता, तो उसको भी पढ़ाई में आने लगा, गॉड इज नाउ हियर।
एक दफा बात खयाल में आ जाए तो फिर उसे भुलाना बहुत मुश्किल हो जाता है। नोव्हेयर, नाउ हियर भी हो सकता है। जो कहीं नहीं है, वह सब कहीं भी हो सकता है। जो कहीं नहीं है, वह यहीं और अभी भी हो सकता है। लेकिन उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है। हिज प्रेजेंस इज जस्ट लाइक ऐब्सेंस। असल में अगर परमात्मा की उपस्थिति भी उपस्थिति जैसी हो, तो बहुत वायलेट हो जाए, बहुत हिंसक हो जाए। उसे ऐसा ही होना चाहिए कि हमें पता ही न चले कि वह है, नहीं तो हम बड़ी मुश्किल में पड़ जाएं। खयाल है आपको!
मैंने सुना है कि एक ईसाई नन, एक ईसाई साध्वी, बाइबिल में पढ़ते—पढ़ते इस खयाल पर पहुंच गई। बाइबिल में उसने पढ़ा कि ईश्वर सब जगह है और हर जगह देखता है। वह बड़ी मुश्किल में पड़ी। उसे लगा कि वह बाथरूम में भी होता ही होगा। वह कपड़े पहनकर स्नान करने लगी कि कहीं नंगा न देख ले। और दूसरी साध्वियों को पता चला। उन्होंने कहा, तू यह क्या पागलपन करती है कि तू बाथरूम में कपड़े पहनकर स्नान करती है! वहां कोई भी नहीं है। उस साध्वी ने कहा कि नहीं, जब से मैंने पढ़ा बाइबिल में, उसमें लिखा है, सब जगह वह देख रहा है, उसकी आंख हर जगह है, तो इसलिए मैं कपड़े पहनकर ही नहा लेती हूं।
लेकिन उस पागल को पता नहीं कि जो बाथरूम के भीतर देख सकता है, वह कपड़े के भीतर भी देख सकता है। उसे इसमें क्या कठिनाई होगी? नथिंग इज इम्पासिबल फार हिम। अगर दीवार के भीतर ही घुस जाता है, तो कपड़े के भीतर ऐसी कौन सी अड़चन आती होगी। और कपड़े के भीतर जो घुस सकता है, दीवार के भीतर जो घुस सकता है, चमड़ी और हड्डी उसको कोई बाधा बनेगी? और जो इतना सब कहीं है, क्या वह भीतर भी न होगा? प्राणों में न होगा? लेकिन उसकी मौजूदगी बड़ी नान—वायलेट है, बड़ी अहिंसात्मक है।
ध्यान रखें, मौजूदगी में हिंसा हो जाती है। बाप बैठा है, तब देखें, बेटे की चाल बदल जाती है। बाप कमरे में बैठा है, बेटा जब निकलता है, तो उसकी चाल बदल जाती है, क्योंकि बाप की मौजूदगी हिंसात्मक होगी। अगर परमात्मा इस तरह मौजूद हो, तो जीवन बड़ी मुश्किल में पड़ जाए। जीना मुश्किल ही हो जाए, उठना—बैठना मुश्किल हो जाए, कुछ भी करना मुश्किल हो जाए।
नहीं, आदमी के जीवन के लिए पूरी स्वतंत्रता इसीलिए संभव है कि उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है। वह सिर्फ उन्हें ही दिखाई पड़ना शुरू होता है, जिन पर उसकी मौजूदगी की कोई हिंसा नहीं होती। वह सिर्फ उन्हें ही अनुभव में आना शुरू होता है, जो इतने विकाररहित हो गए होते हैं कि अब नग्न हो सकते हैं और प्रकट हो सकते हैं। वह सिर्फ उन्हीं के निकट जाहिर होता है, जिनके पास छिपाने को कुछ भी नहीं रह जाता। इसलिए ऋषि कहते हैं, वह शून्य है। यह संकेत नहीं, उसकी सत्ता है।
सच्चा और सिद्ध हुआ योग संन्यासी का मठ है। सत्यसिद्धयोगो मठ:।
सिद्ध हुआ योग ही संन्यासी का मठ है, वही उसका मंदिर है, वही उसका आवास। सिद्ध हुआ योग! बड़ी जागरूकता ऋषि के मन में होगी। सिर्फ इतना नहीं कहा कि योग उसका मंदिर है। क्योंकि योग सिर्फ बातों में हो सकता है, चर्चा में हो सकता है, सिद्धांत में हो सकता है। उस योग का कोई मतलब नहीं है।
योग म्यूजियम में भी हो सकता है, यह मुझे आज पता चला। एक मित्र निमंत्रण दे गए हैं ब्रह्माकुमारियो का। उसमें लिखा है कि राज—योग का म्यूजियम। मुझसे कह गए कि आप जरूर देखें। राज—योग का बिलकुल म्‍यूजियम बनाकर रखा है।
अभी योग इतना नहीं मर गया है कि म्यूजियम बनाना पड़े। म्यूजियम तो मरी हुई चीजों के लिए बनाना पड़ता है।
बर्ट्रेंड रसेल के ऊपर कोई व्यक्ति थीसिस लिखना चाहता था। तो बर्ट्रेंड रसेल ने कहा कि कम से कम मुझे मर तो जाने दो। अन्वेषण का काम तो मरने के बाद ही शुरू होना चाहिए, अभी तो मैं जिंदा हूं। और अभी तुम कैसे थीसिस लिखोगे? अभी जिंदा आदमी न मालूम और क्या—क्या कहेगा। तुम्हारी थीसिस गड़बड़ हो सकती है। तुम थोड़ा वेट करो, थोड़ा ठहरो। इतने घबराओ मत, मैं भी मरूंगा ही। फिर तुम थीसिस लिख लेना।
लेकिन राज—योग के म्यूजियम का क्या मतलब हो सकता है? योग कोई म्प्रइजयम की बात है? लेकिन हो गई करीब—करीब।
इसलिए ऋषि नहीं कहता कि योग उसका मठ है। क्योंकि योग सिद्धांत में हो सकता है, चर्चा में हो सकता है, म्‍यूजियम में हो सकता है, विचार में हो सकता है, दर्शन में हो सकता है।
ऋषि कहता है, सिद्ध हुआ योग—वही उसका मठ है। सिद्ध हुआ योग। जब वह अनुभूति बन जाए स्वयं की, तभी। वह पतंजलि के शास्त्र में तो लिखा है, उस शास्त्र को सिर पर लेकर ढोते रहें, तो कोई हल नहीं होता। उस शास्त्र को कंठस्थ कर लें, तो भी कुछ नहीं होता। उस शास्त्र पर बड़ी व्याख्याएं कर डालें, तो भी कुछ नहीं होता। उस शास्त्र के बड़े जानकार बन जाएं, ऐसा कि पतंजलि भी मिल जाए तो डरे, तो भी कुछ नहीं होता। वह सिद्ध हो योग। क्योंकि योग जो है, वह विचार नहीं है, अनुभव है। सिद्ध हुआ योग ही मठ है
लेकिन ऋषि एक शर्त और लगाता है, सच्चा और सिद्ध हुआ—दू एंड एक्सपीरिएंस्त। यह और कठिन शर्त है। इसका मतलब यह हुआ कि गलत योग भी सिद्ध हो सकता है। इसलिए ऋषि एक शर्त और लगाता है कि सत्य और सिद्ध हुआ योग। गलत योग भी सिद्ध हो सकता है। इस जगत में कोई भी चोज ऐसी नहीं है, जिसका गलत रूप न हो सके। सब चीजों के गलत रूप हो सकते हैं। और सही रूप जानने में बड़ा कठिन होता है, इसलिए गलत रूप चुनने सदा आसान होते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी का जन्म—दिन था। तो वह हीरे का हार लेकर आया। पत्नी तो पागल हो गई। लाखों का हार मालूम पड़ता था। उसने कहा, नसरुद्दीन तुम इतना मुझे प्रेम करते हो, यह मुझे कभी पता न था। नसरुद्दीन ने कहा कि बिना हीरे के हार के कहीं प्रेम का पता चलता है? अब तो पक्का है, यह हार देख। पर पत्नी ने कहा, लाखों खर्च हो गए होंगे। नसरुद्दीन ने कहा, हो ही गए। तो पत्नी ने कहा कि जब लाखों ही खर्च करने थे, तो बेहतर था एक राल्‍स रायस कार खरीद ली होती। नसरुद्दीन ने कहा, इमीटेशन कार कहीं मिलती हैं, तो हम वही खरीद लाते। यह इमीटेशन हार है। यह लाखों का दिखता है, है नहीं। लेकिन कार तो मिलती नहीं कहीं इमीटेशन।
जो भी चीज इस जगत में हो सकती है, उसका इमीटेशन हो सकता है। इमीटेशन सस्ता मिलता है। और आदमी सस्ते को खरीदने को बड़ा उत्सुक होता है, सरलता से मिल जाता है। सस्ते योग भी हैं, इमीटेशन योग भी हैं। इसलिए ऋषि ने कहा, सत्य और सिद्ध हुआ। )
इमीटेशन योग क्या है, थोड़ी सी बात समझ लेनी चाहिए।
सम्मोहन से संबंधित सब योग इमीटेशन योग होते हैं। जैसे कि उदाहरण के लिए अभी फ्रांस में एक बहुत योग्य सम्मोहन विद्या का पारंगत व्यक्ति था इमायल कुवें। इमायल कुवे सिर्फ लोगों की सम्मोहन से चिकित्सा करता था। एक आदमी बीमार है, सिर में दर्द है, तो कुवे कोई दवा नहीं देता था। वह सिर्फ उसे लिटाकर कहता कि तुम शिथिल पड़ जाओ और सोचो मन में कि दर्द नहीं है। और वह दोहराता कि दर्द नहीं है। वह बाहर से कहता कि दर्द नहीं है, दर्द झूठ है, दर्द नहीं है। मरीज मन में सोचता कि दर्द नहीं है, दर्द नहीं है, दर्द नहीं है। अगर यह भाव गहरा प्रवेश कर जाए, तो दर्द मिट जाता है।
मिट जाने के दो कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि निन्यानबे मौकों पर दर्द होता नहीं, सिर्फ खयाल होता है। निन्यानबे मौकों पर दर्द होता नहीं है, सिर्फ खयाल होता है, तो खयाल से मिट जाता है। एक मौके पर दर्द हो भी, तो खयाल, विपरीत खयाल से छिप जाता है। इमायल कुवें को मुल्ला नसरुद्दीन जैसा आदमी नहीं मिला।
पर मैंने सुना है कि एक दूसरे सम्मोहन शास्त्री से मुल्ला नसरुद्दीन की मुलाकात हुई। नसरुद्दीन ने जाकर उससे कहा कि मैं बड़ी तकलीफ में पड़ा हुआ हूं। मुझे घर में बैठे —बैठे सर्दी पकड़ जाती है। भली धूप निकली है, सब ठीक है, अचानक सर्दी पकड़ जाती है। उस सम्मोहनविद ने कहा, कोई फिक्र नहीं। तुम घर में बैठे, आंख बंद किए सोचा करो कि सिर पर सूरज की तेज किरणें पड़ रही हैं। सिर गरम हो रहा है। नसरुद्दीन ने कहा, ठीक है। सात दिन बाद नसरुद्दीन की पत्नी ने फोन किया कि महाशय, आपने क्या कर दिया! उनको घर में बैठे—बैठे लू लग गई है।
लग ही जाएगी। वह सर्दी भी मन का खेल थी, यह लू भी मन का खेल। जो सर्दी लगा सकता है, वह लू भी लगा सकता है। इसमें कौन सी कठिनाई है! कला तो वही है, ट्रिक तो वही है।
आदमी सम्मोहन से झूठे योग सिद्ध कर सकता है। अपने मन में सिर्फ भाव क्र—करके, कर—करके कर सकता है। वे सच्चे योग नहीं हैं। सम्मोहन का भी उपयोग किया जा सकता है सच्चे योग के मार्ग पर, और किया जाता है, लेकिन बड़ा भिन्न है। आदमी में जो बीमारिया सम्मोहन से पैदा हुई हैं, उनको काट दिया जा सकता है, डी—हिम्मोटाइज किया जा सकता है। आदमी के भीतर जो रोग सम्मोहन से ही 
पैदा हुए हैं, वे सम्मोहन से जरूर काट देने चाहिए। लेकिन सम्मोहन से स्वास्थ्य नहीं पैदा करना चाहिए नहीं तो वह झूठा होगा। फर्क समझ लें।
सम्मोहन से पैदा हुई बीमारी है झूठी, मन की मानसिक बीमारी है, तो मानसिक विचार से उसे तोड़ा जा सकता है। लेकिन अगर कोई मानसिक विचार से समझे कि मैं स्वस्थ हूं मैं स्वस्थ हूं तो वह स्वास्थ्य भी मानसिक विचार होगा, वह स्वस्थ हो नहीं पाएगा। इसलिए हिम्मोटिज्य का निगेटिव उपयोग हो सकता है। योग में होता है; नकारात्मक, सिर्फ काटने के लिए। पुराने बंधे हुए सम्मोहन को काटने के लिए उपयोग होता है, लेकिन कोई नया सम्मोहन पैदा करने के लिए उपयोग नहीं होता।
झूठे योग में नया सम्मोहन पैदा करने के लिए उपयोग होता है। तो आप बैठकर एक पत्थर की मूर्ति को भगवान मानकर अगर सम्मोहन करते रहें, करते रहें, करते रहें, तो मूर्ति भगवान मालूम होने लगेगी। बातचीत भी मूर्ति से हो सकती है, चर्चा भी हो सकती है। हालांकि और किसी को सुनाई नहीं पड़ेगी सिर्फ आपको ही सुनाई पडेगी। लेकिन अगर दों—चार दिन भी अभ्यास छोड़ दें, तो चर्चा बंद हो जाएगी मूर्ति फिर पत्थर मालूम होने लगेगी। वह जो सम्मोहन था, आपका प्रोजेक्यान था।
नहीं, पत्थर में भी भगवान खोजा जा सकता है। दो ढंग हैं—एक ढंग तो यह है कि मैं पत्थर में भगवान मानूं और आरोपित करूं। तो निरंतर आरोपण करने से पत्थर में भगवान दिखाई पड़ने लगेंगे। वे भगवान मेरे ही कल्पित भगवान हैं, वह सच्चा योग नहीं है। नहीं, मैं पत्थर में भगवान मानूं ही नहीं। मैं तो सिर्फ अपने भीतर चित्त को विचारों से खाली करूं, खाली करूं, खाली करूं और वह घड़ी ले आऊं, जब कि चित्त बिलकुल दर्पण की तरह शून्य हो जाए। पत्थर सामने होगा। भगवान उसमें प्रकट हो जाएंगे।
लेकिन यह भगवान मेरे कल्पित नहीं होंगे। क्योंकि कल्पना करने वाला चित्त और विचार तो मैं छोड़ चुका। कल्पना करने वाला मन तो मैं हटा चुका। अब तो वहां पत्थर है और यहां मेरी चेतना है। चेतना और पत्थर का मिलन हो जाए, तो पत्थर भगवान हो जाता है। लेकिन बिना चेतना के मिलन के मन के ही आधार पर अगर मैं निरंतर चिंतन करता रहूं मनन करता रहूं अभ्यास करता रहूं कि यह मूर्ति भगवान है, भगवान है, भगवान है, ऐसा दोहराता रहूं दोहराता हूं दोहराता रहूं तो एक दिन मैं वह भांति पैदा कर लूंगा जिस दिन मूर्ति भगवान हो जाएगी।
पत्थर में भगवान प्रकट होते हैं, लेकिन उस आदमी के लिए, जिसका मन गिर जाता है। और जो मन से ही पत्थर में भगवान प्रकट करता है, वह झूठा योग है।
तो ऋषि कहता है, सच्चा और सिद्ध हुआ योग।
अनुभवित हो, अनुभव से ठहरा हो, जाना हो और फिर भी जरूरी नहीं—क्योंकि अनुभव भी काल्पनिक हो सकता है, अनुभव भी झूठा हो सकता है, अनुभव भी स्वप्‍नवत  हो सकता है—इसलिए एक शर्त और लगाई, सच्चा। सच्चे का अर्थ यही है, दो तरह की संभावनाएं हैं हमारी। अगर हम मन से सत्य की तरफ चलें, तो जो भी होगा वह सच्चा नहीं, झूठा होगा। अगर हम मन को छोड्कर चलें, तो जो भी होगा वह सच्चा होगा। सत्य योग का अर्थ है, मन से साधा गया नहीं, मन के विसर्जन से पाया गया। झूठे योग का अर्थ है, मन से ही साधा गया। मन के पार कुछ भी पता नहीं।
उस आत्मस्वरूप के बिना अमरपद नहीं है और वह जो सच्चा और सिद्ध हुआ योग है, उससे मिलने वाला जो अनुभव है, अमरपदं न तत् स्वरूपम् उसे जाने बिना, उसे पाए बिना अमर पद नहीं है। उसे पाए बिना अमृत की कोई उपलब्धि नहीं है, मृत्यु बनी ही रहेगी। इसका अर्थ हुआ, जहां तक मन होगा, वहां तक मृत्यु होगी। मन की सीमा मृत्यु की सीमा है। मन और मृत्यु एक ही अस्तित्व के नाम हैं। मन के पार अमृत है, मन 'की सीमा के पार अमृत है।
और अमृत को पाए बिना चैन नहीं मिल सकता—जन्म—जन्म, कोटि—कोटि जन्म भटककर भी चैन नहीं मिल सकता। क्योंकि जब मृत्यु पीछा कर रही हो निरंतर, तो कैसे चैन मिल सकता है? मृत्यु गले में हाथ डाले खड़ी हो निरंतर, तो कैसे चैन मिल सकता है? थोड़ी—बहुत देर भुलावा हो सकता है, वह दूसरी बात है। लेकिन फिर—फिर याद आ जाती है, फिर—फिर याद आ जाती है। मौत फिर—फिर घेर लेती है। अमृत को जाने बिना निश्चितता नहीं हो सकती। जब तक मुझे लगता है कि मिट जाऊंगा, मिट सकता हूं तब तक प्राण कंपते ही रहेंगे।
एक बहुत कीमती विचारक हुआ पश्चिम में—सोरेन कीर्कगार्ड। उसने एक किताब लिखी है, उसमें उसने कहा है कि मैन इज ए ट्रैम्बलिंग, आदमी एक कंपन है। पर व्हाई मैन इज ए ट्रैम्बलिंग? बिकाज आफ डेथ। आदमी क्यों एक कंपन है? मृत्यु के कारण। मृत्यु चौबीस घंटे सामने खड़ी हो, कपेंगे नहीं तो क्या करेंगे? अमृत को पाए बिना कंपन नहीं मिटेगा। कंपन के मिटे बिना स्वभाव की सरलता, निर्दोषता अनुपलब्ध रहेगी।
ऋषि कहता है, उस आत्मस्वरूप के बिना अमरपद नहीं है।
उस आत्मपद को जानना ही पड़ेगा। उस आत्मस्वरूप को जानना ही पड़ेगा। उसे जानना ही पड़ेगा, जो है। उस मन को छोड़ना ही पड़ेगा, जो भरमाता है, भटकाता है, भ्रम पैदा करता है, स्वप्‍न  जन्माता है।
आदिब्रह्म स्व—संवित्।
वह जो ब्रह्म है, वह जो चैतन्य है हमारे भीतर छिपा हुआ, आदि चैतन्य है हमारे भीतर, वह स्व—संवित् है। यह बहुत कीमती विचार है उपनिषदों का—स्व—संवित्, सेल्क—कांशस।
यहां हम बैठे हैं। बिजली बुझ जाए, तो फिर हम एक—दूसरे को दिखाई न पड़ेंगे निश्चित ही। क्योंकि एक—दूसरे का देखना जो है, वह स्व—प्रकाशित नहीं है, पर—प्रकाशित है। एक प्रकाश पर निर्भर है। यह बिजली जलती है, तो मैं आपको देख रहा हूं। बिजली बुझ गई, तो मैं आपको नहीं देख सकूंगा। सूरज है, तो मुझे रास्ता दिखाई पड़ रहा है; सूरज ढल गया, तो मुझे रास्ता दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि रास्ता स्व—प्रकाशित नहीं है। दूसरे से प्रकाशित है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने कमरे में बैठा है। अमावस की रात है। एक मित्र मिलने आया है। सांझ थी, सूरज ढल रहा था, तब आया था। तब सब चीजें दिखाई पड़ती थीं। फिर गपशप में काफी वक्त निकल गया। रात अंधेरी हो गई। तो मित्र ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा कि तुम्हारे बाएं हाथ की तरफ दीया रखा है, ऐसा मैंने सांझ को देखा था। उसे जला क्यों नहीं लेते? मुल्ला ने कहा, आर यू मैड! अंधेरे में पता कैसे चलेगा कि कौन सा मेरा बायां हाथ है और कौन सा मेरा दाहिना?
और अगर अंधेरे में पता चलता है कि कौन सा बाया है और कौन सा दायां, तो भीतर कोई शक्ति है जो स्व—संवेदित है, स्व—प्रकाशित है। कुछ पता न चले, इतना तो पता चलता है कि मैं हूं। अंधेरे में कुछ पता न चले इतना तो पता चलता है कि मैं हूं। अपना तो पता चलता है अंधेरे में भी। तो इसका मतलब यह हुआ कि अपने होने में जरूर कोई प्रकाश होगा, जो अंधेरे में भी दिखाई पड़ता हूं मैँ अपने को, कोई चेतना होगी। इतना तो तय है कि मेरा होना किसी और चीज के आधार से मुझे पता नहीं चलता, मेरे ही आधार से पता चलता है।
लेकिन हम भीतर तो कभी जाकर देखते नहीं कि वहा एक स्व—संवित्, स्व—प्रकाशित, स्व—ज्योतिर्मय तत्व मौजूद है। और कभी अगर देखें भी, तो हम ऐसी उलटी कोशिशें करते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं।
एक रात मुल्ला नसरुद्दीन अपने घर के बाहर पकड़ लिया गया। दो बजे थे। पुलिस वाले ने जोर से धीमे—धीमे आकर उसकी कमर पकड़ ली। वह एक खिड़की में से झांक रहा था। घर उसी का था। अंधेरी रात थी। लेकिन पुलिस वाले को क्या पता? जब पुलिस वाले ने पकड़ा तो मुल्ला ने कहा, धीमे—धीमे, आवाज मत करना! कहीं वह जाग न जाए। उसने पूछा, कौन जाग न जाए? तुम खुद ही तो मुल्ला नसरुद्दीन मालूम पड़ते हो! उसने कहा कि मैं ही हूं लेकिन चुप! उसने कहा, कर क्या रहे हो? बड़ी देर से मैं देख रहा हूं तो मैं समझा कोई चोर। इधर—उधर घूमते हो, इस खिड़की से झांकते हो, उस दरवाजे से...।
उसने कहा, तू बकवास तो मत कर। जोर से तो मत बोल। सुबह आना, बता दूंगा। तो उसने कहा, मैं छोड्कर भी नहीं जा सकता। बात क्या है? नसरुद्दीन ने कहा, नहीं मानता, तो सुन। बात यह है कि लोग कहते हैं कि मैं नींद में उठकर चलता हूं। सो आई एम जस्ट चेकिंग। वे ठीक कहते हैं कि नहीं। मैं खिड़की में से देख रहा हूं कि मुल्ला चल तो नहीं रहा है। लेकिन कोई नहीं चल रहा है, बिस्तर पर भी कोई नहीं है। कोई सो भी नहीं रहा है, चलने का तो सवाल ही नहीं है। आधी रात खराब हो गई। अभी तक तो चलता हुआ दिखाई नहीं पड़ा। लोग कहते हैं, सोते में चलता हूं। जस्ट चेकिंग।
कभी—कभी जब हम अपने को भी ऐसे ही खोजने जाते हैं, तो ऐसे ही दरवाजे—खिड़की से झांकते हैं। अपने ही भीतर दरवाजे—खिड़की से झांकते हैं। वहा कोई न मिलेगा, क्योंकि जिसको खोजने गए हैं, वह बाहर खड़ा है।
स्व—संवित् होने का अर्थ है, जिसे हम बाहर से नहीं जान सकते हैं। जिसे हमें भीतर से ही जानना पड़ेगा। जिसे हम भीतर से जान ही रहे हैं, पर न मालूम भूल गए हैं, विस्मरण हो गया है, याददाश्त खो गई है।
मुल्ला भागा जा रहा है अपने गधे पर बहुत तेजी से। सारा गांव चौकन्ना हो गया है। सड़क पर लोगों ने रास्ते छोड़ दिए हैं। लोगों ने चिल्लाकर पूछा कि मुल्ला जा कहां रहे हो? मुल्ला ने कहा, मेरा गधा खो गया है। तो लोगों ने कहा, ठहरो, तुम गधे पर सवार हो। उसने कहा, अच्छा बताया। मैं इतनी तेजी में था कि मैं सारी जमीन खोज आता और पता न चलता कि गधे पर बैठा हुआ हूं। मैं तेजी में था, इन टू मच हरी। बहुत जल्दी में था। ठीक किया लोगो, जो याद दिला दिया। अन्यथा आज बड़ी भूल हो जाती, लौटना मुश्किल हो जाता, क्योंकि नीचे देखने की फुर्सत किसको है! मेरी आंखें  तो आगे टिकी थीं कि गधा है कहा। चारों तरफ देख रहा था; और नीचे देखने का मौका, मैं कहता हूं निश्चित ही न आता। क्योंकि जो चारों तरफ देख रहा है, वह नीचे कैसे देखेगा?
जो बाहर देख रहा है, वह भीतर कैसे देखेगा?
स्व—संवित् का अर्थ है कि हमारे भीतर वह जो आदि चेतना है, वह जो ओरिजनल कांशसनेस है, वह जो सदा से हमारे भीतर है, वह हमें भूल गई है, क्योंकि हम उस पर ही सवार हैं और उसी को खोज रहे हैं। तो खोजते रहें। ऋषि चिल्लाकर कहते हैं कि जरा ठहरो, किसे खोजने निकले हो? जरा रुको, जरा सुनो भी! क्योंकि तुम जिसे खोजने निकले हो, कहीं उसी पर तो सवार नहीं हो! कहीं तुम वही तो नहीं हो, जिसको खोजने निकले हो!
जो जानते हैं, वे कहते हैं, द सीकर इज दं साट। वह जो खोज रहा है, उसकी ही खोज चल रही है, इसलिए हो नहीं पाती, इसलिए असफलता हो जाती है।
झेन फकीर कहते हैं, डोन्ट सीक, इफ यू वान्ट टु सीक। खोजो ही मत, अगर खोजना है। —रुक जाओ। क्योंकि खोजने में तो दौड़ना पड़ेगा। ठहर जाओ। और एक दफा देखो तो कि तुम कौन हो? तुम किसे खोजने निकले हो? कहीं वह तुम्हारे भीतर ही तो नहीं है?
स्व—संवित् का अर्थ होता है, जिसे जानने के लिए किसी और प्रकाश की जरूरत न पड़ेगी, और जिसे पहचानने के लिए किसी से पूछना न पड़ेगा। जिसके होने में ही जिसकी पहचान छिपी है, जिसके होने में ही जिसका प्रकाश छिपा है, जो अपने से ही प्रकाशित है। दूसरे किसी प्रकाश की कोई भी जरूरत नहीं है।
अजपा गायत्री है। विकार—मुक्ति ध्येय है।
गायत्री तो हम सब जानते हैं कि क्या है। लेकिन ऋषि कहता है, अजपा गायत्री। लेकिन जिस गायत्री को हम जानते हैं, वह तो जपी जाती है। वह तो जपा है। तो यह ऋषि तो उलटी बात कह रहा है। यह कह रहा है, अजपागायत्री विकारदंडो ध्येय:। जिसे जपा ही नहीं जा सकता, उसमें ठहर जाना गायत्री है। जिसका कोई नाम ही नहीं, जपोगे कैसे? जिसका कोई शब्द नहीं, जपोगे कैसे? जिसका कोई रूप नहीं, उसे जपोगे कैसे? सब छोड्कर, जप भी छोड्कर जहां पहुंचा जाता है, वहा गायत्री है। वही मंत्र है, जहा मंत्र भी नहीं रह जाता। जहां प्रभु का नाम भी नहीं रह जाता, वहीं उसके नाम की उपलब्धि है—अजपा।
अगर हम अपने भीतर देखें, शब्द हम बोलते हैं, जब हम शब्द बोलते हैं, उसके पहले भी शब्द होता है एक पर्त नीचे—जब हम शब्द को सोचते हैं—बोला नहीं गया अभी शब्द, सिर्फ सोचा गया है। अभी बाहर प्रकट नहीं हुआ, अभी भीतर ही प्रकट हुआ। लेकिन सोचा गया शब्द जब भीतर प्रकट होता है, उसके पहले भी होता है। तब वह सोचा भी नहीं गया होता है।
कई दफे आपको लगा होगा कि किसी का नाम खो गया है। याद है—लोग कहते हैं, जीभ पर रखा है—फिर भी याद नहीं आता। बड़े अजीब लोग हैं। अगर जीभ पर ही रखा है, तो अब और क्या दिक्कत है? मगर उनकी कठिनाई मैं समझता हूं। उनकी कठिनाई सच्ची है, जीभ पर ही रखा है। उन्हें पक्का पता है कि याद है और याद नहीं आ रहा है। ये दोनों बातें एक साथ हो रही हैं। इसका मतलब यह हुआ कि उन्हें याद है। यह याद कहा होगा? यह याद उनके विचार के तल के नीचे है;, और विचार के तल में पकड़ में नहीं आ रहा है।
और कई दफा अगर आप बहुत कोशिश करें—इन टू मच हरी, सवार हो जाएं खोजने के लिए—न मिलेगा। घबड़ा जाएंगे, परेशान हो जाएंगे, सिर पीट लेंगे। फिर भूल जाएंगे। छोड़ देंगे कि जाने दो। चाय पी रहे हैं और अचानक, वह जो नहीं मिल रहा था, निकल आया और आ गया। यह कहां से आया? यह कहां था? निश्चित ही यह विचार में तो नहीं था, नहीं तो आप पहले ही पकड़ लेते। यह विचार से नीचे के तल पर था।
तीन तल हुए—एक वाणी में प्रकट हो, एक विचार में प्रकट हो, एक विचार के नीचे अचेतन में हो। ऋषि कहते हैं, उसके नीचे भी एक तल है। अचेतन में भी होता है, तो भी उसमें आकृति और रूप होता है। उसके भी नीचे एक तल है, महाअचेतन का कहें, जहां उसमें रूप और आकृति भी नहीं होती। वह अरूप होता है। जैसे एक बादल आकाश में भटक रहा है। अभी वर्षा नहीं हुई। ऐसा एक कोई अज्ञात तल पर भीतर कोई संभावित, पोटेंशियल विचार घूम रहा है 1 वह अचेतन में आकर अंकुरित होगा, चेतन में आकर प्रकट होगा, वाणी में आकर अभिव्यक्त हो जाएगा। ऐसे चार तल हैं।
गायत्री उस तल पर उपयोग की है जो पहला तल है, सबसे नीचे। उस तल पर अजपा का प्रवेश है। तो जप का नियम है। अगर कोई भी जप शुरू करें—समझें कि राम—राम जप शुरू करते हैं, या ओम, कोई भी जप शुरू करते हैं; या अल्लाह, कोई भी जप शुरू करते है—तो पहले उसे वाणी से शुरू करें। पहले कहें, राम, राम; जोर से कहें। फिर जब यह इतना सहज हो जाए कि करना न पड़े और होने लगे, इसमें कोई एफर्ट न रह जाए पीछे, प्रयत्न न रह जाए, यह होने लगे; जैसे श्वास चलती है, ऐसा हो जाए कि राम, राम चलता ही रहे, तो फिर ओंठ बंद कर लें। फिर उसको भीतर चलने दें। फिर बोलें न राम, राम; फिर भीतर बोल चले राम, राम।
फिर इतना इसका अभ्यास हो जाए कि उसमें भी प्रयत्न न करना पड़े, तब इसे वहां से भी छोड़ दें, तब यह और नीचे 'डूब जाएगा। और अचेतन में चलने लगेगा—राम, राम। आपको भी पता न चलेगा कि चल रहा है, और चलता रहेगा। फिर वहां से भी गिरा दिए जाने की विधियां हैं और तब वह अजपा में गिर जाता है। फिर वहां राम, राम भी नहीं चलता। फिर राम का भाव ही रह जाता है—जस्ट क्लाउडी, एक बादल की तरह छा जाता है। जैसे पहाड़ पर कभी बादल बैठ जाता है धुआ—धुआ, ऐसा भीतर प्राणों के गहरे में अरूप छा जाता है।
उसको कहा है ऋषि ने, अजपा। और जब अजपा हो जाए कोई मंत्र, तब वह गायत्री बन गया। अन्यथा वह गायत्री नहीं है।
और क्या है इस अजपा का उपयोग? इस अजपा से सिद्ध क्या होगा? इससे सिद्ध होगा, विकार— मुक्ति। विकारदंडो ध्येय: इस अजपा का लक्ष्य है विकार से मुक्ति।
यह बहुत अदभुत कीमिया है, केमेस्ट्री है इसकी। मंत्र शास्त्र का अपना पूरा रसायन है। मंत्र शास्त्र यह कहता है कि अगर कोई भी मंत्र का उपयोग अजपा तक चला जाए, तो आपके चित्त से कामवासना क्षीण हो जाएगी, सब विकार गिर जाएंगे। क्योंकि जो व्यक्ति अपने अंतिम अचेतन तल तक पहुंचने में समर्थ हो गया, उसको फिर कोई चीज विकारग्रस्त नहीं कर सकती। क्योंकि सब विकार ऊपर—ऊपर हैं, भीतर तो निर्विकार बैठा हुआ है। हमें उसका पता नहीं है, इसलिए हम विकार से उलझे रहते हैं।
ऐसा समझें कि एक घाटी है अंधेरी, और सीलन से भरी और बदबू से भरी। और जंगली जानवर हैं और सांप हैं और सब कुछ उपद्रव है। एक आदमी उस घाटी में है। वह बड़ा परेशान है कि सांपों से कैसे बचूं और सिंह न खा जाए और कोई हमला न कर दे और अंधेरा है और बदबू है और बीमारी है। फिर वह आदमी पहाड़ पर चढ़ना शुरू कर देता है। फिर वह थोड़ा ऊपर पहुंचता है, और सूरज की रोशनी मिल जाती है। वहा अंधेरा नहीं है। वहां सांप नहीं सरकते। घाटी में अब भी सरक रहे होंगे। पर वह आदमी घाटी के बाहर आ गया। वह आदमी और ऊपर चलता है, वह प्रकाश—उज्जल शिखर पर पहुंच जाता है, जहां कोई भय नहीं। अब भी घाटी में सांप सरक रहे होंगे।
ठीक ऐसे ही जो अजपा तक किसी ध्वनि को पहुंचा लेता है, वह अपने भीतर उस गहराई में पहुंच जाता है, जहा विकार नहीं चलते, वे सतह पर चलते हैं—ऊपर—ऊपर। हम वहीं लड़ते रहते हैं, इसलिए परेशान रहते हैं।
मंत्र शास्त्र कहता है, वहां मत लड़ो, वहां से हट जाओ। तुम्हारे भीतर और भी बडी जमीन हैं। तुम्हारे भीतर और भी फैलाव हैं। तुम्हारे भीतर और गहराइयां हैं, और शिखर हैं, वहा हट जाओ। लड़ो मत।
और एक दफा हट जाओ और अपने शिखरों को जान लो, फिर तुम लौटकर भी आ जाओगे उसी जगह पर, तो तुम वही आदमी नहीं हो। तब तुम अपने भीतर इतनी महिमा को जानकर लौटे हो कि तुम्हें क्षुद्र विकार पराजित न कर सकेंगे। तब तुम अपनी इतनी शक्ति से परिचित होकर लौटे हो कि तुम्हें अंधेरा भयभीत न कर सकेगा। तब तुमने अपने स्वरूप का दर्शन किया है और अब तुम्हें कोई भी लुभा न सकेगा। पर एक दफा वहा तक हो आओ।
तो अजपा का उपयोग है विकार—मुक्ति के लिए। और प्रत्येक विकार से मुक्ति के लिए विशेष—विशेष मंत्रों की व्यवस्था है। अगर कोई आदमी क्रोध से पीड़ित है, तो एक विशेष ध्वनि और मंत्र का आयोजन किया जाता है। उसको वह अजपा तक ले जाए, तो क्रोध के बाहर हो जाएगा। कामवासना से पीड़ित है, तो दूसरा। भय से पीड़ित है, तो तीसरा। ध्वनियों के ऐसे समूह हैं, जिनके माध्यम से आपके विकारों को चोट की जाती है और तिरोहित किया जा सकता है।
कुछ महाध्वनियां हैं। महाध्वनियां ऐसी औषधियां हैं, जो सभी विकारों पर काम करती हैं। जैसे अभी हम एक ध्वनि का उपयोग कर रहे हैं—हुंकार। वह महाध्वनि है। उसकी चोट इतनी गहरी है कि अलग— अलग विकारों से लड़ने की जरूरत नहीं है। अगर वह एक ही चोट अजपा तक पहुंच जाए, तो सब विकार विसर्जित हो जाएं।
अल्लाह शब्द से हम सब परिचित हैं। अल्लाह शब्द में भी हुंकार का ही उपयोग है। और जब कोई साधक अल्लाह का उपयोग करता है, तो जो उपयोग बनता है वह होता है—अल्लाहू अल्लाहू अल्लाहू। फिर अल्ला छूट जाता है और लाहू लाहू लाहू। फिर ला भी छूट जाता है, फिर हू हू हू। और आखिर में हू डूबता चला जाता है और अजपा बन जाता है। जब हू अजपा बन जाता है, तो सब विकार तिरोहित हो जाते हैं।
तिब्बती मंत्र है, महामंत्र है—ओम मणि पद्ये हुं। वह हुं, हू का रूप है। ओंम भी हू जैसा काम कर सकता है। लेकिन अब शायद नहीं। बहुत सरल लोग हों, तो ओंम भी हू का काम करता हैं, लेकिन बहुत जटिल लोग हों तो काम नहीं करता। क्योंकि ओंम की जो चोट है, वह बहुत माइल्ड है। ओम की जो चोट है, वह बहुत माइल्ड है। हू की चोट बहुत गहरी है। घाव गहरा है।
ओम की चोट बहुत माइल्ड है। वह बहुत कम मात्रा की दवा है। वह उनके लिए उपयोग में लाई गई
थी, जो ज्यादा बीमार ही नहीं थे। सरल चित्त लोग थे, निर्दोष लोग थे, चालाक न थे, कनिंग न थे बेईमान न थे। सरल थे। ओम काफी था। होमियोपैथी की छोटी सी मात्रा उनकी बीमारी को ठीक करती थी। अब एलोपैथी के बिना नहीं चल सकता। हू एलोपैथिक है। ओम होमियोपैथिक है। हू की चोट भयंकर है। गहरे से गहरे तक जाने वाली है। वह अजपा में उतर जाए, तो हू गायत्री बन जाएगा और विकार विसर्जित हो जाएंगे। कोई भी मंत्र गायत्री बन जाता है, जब अजपा हो जाए। यही इस सूत्र का अर्थ है अजपागायत्री विकारदंडो ध्येय:।
मन का निरोध ही उनकी झोली है।
वे जो संन्यासी हैं, उनके कंधे पर एक ही बात टंगी हुई है चौबीस घंटे—मन का निरोध, मन से मुक्ति, मन के पार हो जाना। चौबीस घंटे उनके कंधे पर है।
आपने एक शब्द सुना होगा, खानाबदोश। यह बहुत बढ़िया शब्द है। इसका मतलब होता है, जिनका मकान अपने कंधे पर है। खाना—बदोश। खाना का मतलब होता है मकान—दवाखाना—खाना यानी मकान। दोश का मतलब होता है कंधा, बदोश का मतलब होता है, कंधे के ऊपर। जो अपने कंधे पर ही अपना मकान लिए हुए हैं, उनको खानाबदोश कहते हैं—घूमक्कडू लोग, जिनका कोई मकान नहीं है, कंधे पर ही मकान है।
संन्यासी भी अपने कंधे पर एक चीज ही लिए चलता है चौबीस घंटे—मन का निरोध। वही उसकी धारा है सतत श्वास—श्वास की, मन के पार कैसे जाऊं? क्योंकि मनातीत है सत्य। मन के पार कैसे जाऊं? क्योंकि मनातीत है अमृत। मन के पार कैसे जाऊं? क्योंकि मनातीत है प्रभु।
जाया जा सकता है। ध्यान उसका मार्ग है।

आज इतना ही।

फिर हम अब ध्यान में लगे। चलें मन के पार।
एक पांच मिनट तीव्र श्वास ले लेंगे, ताकि शक्ति जग जाए। दूर—दूर फैल जाएं। जो लोग तेजी से करते हों, वे करीब हों। जिन्हें धीमे करना हो, वे पीछे फैल जाएं। जो लोग बहुत दूर वहां अंधेरे में बैठे हैं, वे भी यहां पास आ जाएं, ताकि मैं उन्हें दिखाई पड़ सकूं। क्योंकि नजर मुझ पर रखनी है।
जब आप पूरी ताकत में आ जाएंगे, तब मैं अपने हाथ हिलाना शुरू करूंगा, उसके साथ अपनी ताकत को बढ़ाए चले जाएं। और जब मैं ऊपर हाथ ले जाऊं, तब अपनी पूरी शक्ति लगा दें। और जब मुझे लगेगा कि आप अपनी पूरी शक्ति में हैं और वह वातावरण पैदा हो गया है जहां प्रभु को निमंत्रित किया जा सकता है, तो मैं हाथ ऊपर से उलटे करके नीचे लाऊंगा, तब आप बिलकुल पागल हो जाएं। अनेक मित्रों को शक्तिपात का कल अनुभव हुआ है। कोई भी वंचित नहीं रहेगा। अगर आप अपनी पूरी शक्ति लगाएंगे, तो वह अनुभव होना सुनिश्चित है।
पहले पांच मिनट गहरी श्वास ले लें, फिर शुरू करें!

 ओशो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें