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बुधवार, 20 जून 2018

सर्वसार उपनिषद--ओशो

र्वसार उपनिषद!
असार से सार को खोज लेना भी कठिन है; सार में से भी सार को खोजना अति कठिन। जो व्यर्थ है उसमें सार्थक का पता लगा लेना भी आसान नहीं; लेकिन जो सार्थक है, उसमें से भी परम सार्थक को चुन लेना करीब-करीब असंभव जैसा है। मिट्टी से सोने को खोजने की अपनी मुसीबत, मुश्किल है, लेकिन सोने में से भी सोने के सार को.. स्वर्ण-सार को खोज लेना करीब-करीब असंभव है।
सर्वसार उपनिषद का अर्थ है : जो भी आज तक जाना गया गुह्य ज्ञान है, इसोटेरिक नॉलेज है, उसमें से भी जो सारभूत है, दि मोस्ट फाउंडेशनल; वह जो आधारभूत है-- जिसमें से रत्ती भर भी छोड़ा नहीं जा सकता, जिसमें छोड़ने को कुछ भी असार नहीं बचा है, जिसमें शरीर को हमने बिलकुल ही छोड़ दिया और शुद्ध आत्म को ही निकाल लिया है, जिसमें सोने में से वस्तु को अलग कर दिया--केवल स्वर्ण--स्वर्ण के स्वर्णत्व को ही बाहर खींच लिया है, वैसा यह उपनिषद है।

इस एक उपनिषद को जान लेने से मनुष्य की प्रतिभा ने जो भी गहनतम जाना है, उस सबके द्वार खुल जाते हैं। इसलिए इसका नाम है. 'सर्वसार'--दि सिक्रेट ऑफ दि सिक्रेट्स; गुह्य में भी जो गुह्य है और सार में भी जो सार है।
खतरनाक भी है ऐसी बात; क्योंकि जितनी सूक्ष्म हो जाती है विद्या उतनी ही पकड़ के बाहर भी हो जाती है। सत्य जितना शुद्ध होता है उतना हमारी समझ से दूर भी हो जाता है। सत्य का कोई कसूर नहीं, हमारी समझ इतनी अशुद्ध है कि जितना हो शुद्ध सत्य, उतना हमारे और उसके बीच फासला हो जाता है। हमारी अशुद्धि ही कारण है। इसलिए जितना, जितना सूक्ष्मतम सत्य है, वह उतना ही हमारे व्यवहार में आने योग्य नहीं रह जाता।
इसीलिए इस देश में जीवन का परम शान खोजा गया, लेकिन हम उसकी चर्चा ही करने में समय को व्यतीत करते रहे हैं; उसे जीवन में उतारना खयाल में ही नहीं आता; उतारना भी चाहें तो कोई राह नहीं मिलती; निर्णय भी कर लें तो पैर उठने के लिए कोई दिशा नहीं सूझती। इतना गहन है, इतना सूक्ष्म है कि हम आशा ही छोड़ देते हैं कि उसे जीवन में उतारा जा सकेगा। फिर अपने को धोखा देने के लिए हम चर्चा करके मन को समझा लेते हैं।
तो हम चर्चा करते रहे सदियों तक। और जिस संबंध की हमने चर्चा की है, वह ऐसा है, जिसे चर्चा से समझा नहीं जा सकता, जिसे जीएं हम तो ही जान सकते हैं; जीना ही उसे जानने की विधि है, चलें उस पर तो ही समझ पाते हैं। चलना ही समझना है।
कुछ आयाम हैं गहन, जहां जानने और जीने में फर्क नहीं होता; जहां टु नो एंड टु बी आर वन एंड दि सेम; जहां टुबी इज दि ओनली वे टुनो। जहां हो जाएं तो ही जान पाएं।
लेकिन होना कठिन मालूम होता है, और जानना हमें सरल मालूम होता है, क्योंकि जानने से कुल इतना अर्थ होता है कि हम कुछ शब्द जान लें, कुछ सिद्धांत जान लें--कुछ फलसफा, कुछ शास्त्र। बुद्धि भर जाएगी शब्दों से, सिद्धांतों से, हृदय खाली रह जाएगा। और भरी बुद्धि और खाली हृदय जितनी खतरनाक स्थिति है, उतनी कोई और स्थिति खतरनाक नहीं है, क्योंकि भरी बुद्धि से धोखा होता है कि पा लिया मैंने, जब कि मिला कुछ भी नहीं होता। भरी बुद्धि से लगता है भर गया मैं, जब कि भीतर सब रिक्त, कोरा, दीन और दरिद्र होता है--भिक्षुक के पात्र की तरह भीतर आत्मा होती है, लेकिन बुद्धि को सम्राट होने का भ्रम हो जाता है।
तो बुद्धि से जितने लोग अमित होते हैं, उतने लोग अज्ञान से भ्रमित नहीं होते। और बुद्धि की नाव में बैठे लोग जितने डूबते हैं, उतनी कागज की नाव में भी बैठें तो डूबने की उम्मीद नहीं है, क्योंकि लगता ऐसा है जाना, और जान बिलकुल नहीं पाते हैं। इसलिए मैंने कहा कि सर्वसार उपनिषद जैसे ज्ञान के जो सूक्ष्म सूत्र हैं वे खतरनाक भी हैं, क्योंकि डर यह है कि हम उन्हें विचारणा का विषय बना लें--सोचें, समझें और उनसे मुक्त हो जाएं। इसलिए पहले ही आपसे कह दूं उपनिषद की बात में पड़ना आग के साथ खेलने जैसा है, बिना बदले उपनिषद नहीं समझा जा सकता है।
इसे थोड़ा ऐसा लें कुछ तो ऐसे शान हैं, हम जैसे हैं वैसे ही बने रहें, तो भी शान अर्जित किया जा सकता है। एक व्यक्ति गणित सीखे, कि इतिहास सीखे, कि कुछ और, उस व्यक्ति को इस सीखने के लिए बदलने की जरूरत नहीं है। वह व्यक्ति वही बना रहे जो था, सीखना संगृहीत होता चला जाएगा। उस व्यक्ति की आत्मा को किसी रूपांतरण से गुजरने की जरूरत नहीं है। उस आदमी को बदलाहट आवश्यक नहीं है। वह आदमी जैसा था वैसा ही रहे, ज्ञान इकट्ठा हो जाएगा। इतिहासज्ञ होने के लिए कोई आत्म-क्रांति नहीं चाहिए, और न गणितज्ञ होने के लिए, और न वैज्ञानिक होने के लिए।
ओशो

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