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रविवार, 17 जून 2018

केनोउपनिषद--प्रवचन--09


मृत्‍यु : जीवन की पराकाष्‍ठा—नौवां प्रवचन

 दिनांक 12 जुलाई 1973; संध्या,

    माउंट आबू राजस्थान।

प्रश्‍न सार :
 *सक्रिय ध्यान के चौथे चरण में निश्चल और साथ ही विश्राम मैं कैसे रहा जा सकता है?
 *परम अनुभव पाना इतना कठिन क्यों है?  
 *समर्पण कैसे करें?
  पहला प्रश्न :

सुबह के सक्रिय ध्‍यान के चौथे चरण में शरीर को मृत तथा निश्‍चल के प्रयास में, व्‍यक्‍ति तनावपूर्ण हो जाता है। चूंकि यह चरण पूर्ण विश्राम का तथा अपने को छोड़ देने का है, कैसे कोई विश्राम में जाये और साथ ही निश्‍चल भी रहे? बजाए आनंद के, यह एक तनाव हो जाता है।

एक मृत व्‍यक्‍ति पूर्ण विश्राम में होता है। वह तनावपूर्ण नहीं हो सकता। एक मृत व्‍यक्‍ति तनाव से भरा हुआ नहीं हो सकता, या कि यह हो सकता है? वह विश्राम में है क्‍योंकि कोई अहंकार नहीं बचा जो कि तनावपूर्ण हो सके। केवल अहंकार ही तनाव में होता है। अंत: चौथे चरण में, जब मैं कहता हूं कि मृत हो जाओ।
उसका मतलब यही है कि इतने विश्राम में हो जाओ जैसे कि एक मरा हुआ आदमी होता है। तुम्‍हें निश्‍चल और मृत हो जाने की चेष्‍टा नहीं करनी है। यदि तुम प्रयास करोगे तो उसके बड़े उल्‍टे परिणाम आयेंगे। निश्‍चल होने की चेष्टा मत करो, मर जाने का कोई प्रयास मत करो। सिर्फ विश्राम करो और मृत हो जाओ।
ये दो भिन्न बातें हैं। यदि तुम मृत: होने की चेष्टा करोगे तो तुम्हारा सारा शरीर तनाव से भर जायेगा। और जब तुम तनाव से भरे होते हो तो तुम: मृत' नहीं हो सकते, तुम विश्राम में नहीं हो सकते। सिर्फ शरीर को ढीला छोड़ दो जैसे कि वह है ही नहीं, जैसे कि वह मुर्दा हो गया हो। उसे मृत करने के लिए कोई प्रयास नहीं करो। सिर्फ विश्राम में रहो और महसूस करो कि, शरीर मुर्दा हो गया हे, और तुम्हें इस विषय में  कुछ भी नहीं करना है।
मैं तुमसे कहता रहा हूं कि यदि छींक भी आती हो तो छीको मत, खांसो मत। लेकिन यदि तुम्हारे गले में खराश चलती हो तो तुम क्या करोगे? यदि तुम उसे रोकने का प्रयास करोगे तो वह और भी तेज हो जायेगी। यदि तुम उसे रोकोगे तो वह और भी जोर से आयेगी क्योंकि यह एक प्रकार का दमन है। और तुम्हें खांसना ही पड़ेगा। या यदि तुम्हें लगे कि छींक आ रही है, तो तुम क्या करोगे? यदि तुम उसे रोकोगे तो वह और भी बलवती हो जायेगी। वह पहले से भी ज्यादा जोर से आयेगी।
लेकिन एक रास्ता है : यदि तुम्हें लगे कि गले में खराश हो रही है और तुम खांसना चाहते हो, तो गले को ढीला छोड़ दो। उसे रोको मत; सिर्फ गले को ढीला कर दो। खराश के प्रति उदासीन हो जाओ और गले को ढीला छोड़ दो। इसे तनाव न दो क्योंकि तनाव और अधिक खराश पैदा करेगा। गले को ढीला छोड़ दो और इसके प्रति उदासीन हो रहो। ऐसा महसूस करो कि उससे तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं है। और कुछ ही क्षणों में खराश चली जाएगी। यदि तुम्हें लगे कि छींक आ रही है, उसके प्रति उदासीन हो जाओ, उसके लिए कुछ भी मत करो। उस हिस्से को ढीला छोड़ दो जहां तुम्हें लगे कि छींक जोर लगा रही है, और उसके प्रति उदासीन हो जाओ।
उस उदासीनता में, सौ में से निन्यानबे मौकों पर छींक विलीन हो जायेगी। सौ में से सिर्फ एक ही संभावना है कि छींक आये—लेकिन वह भी तुम्हें बाधा नहीं पहुंचायेगी, क्योंकि तुम उसके प्रति इतने उदासीन हो कि यदि वह आये भी तो भी तुम्हें ऐसे ही लगेगा जैसे वह किसी और को आई है। तुम इतने ज्यादा उससे अलग हो कि यदि वह आती भी है तो भी उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। भीतर तुम अविचलित ही रहोगे।
और मैं तुम्हें यह नहीं कह रहा हूं कि छीको मत क्योंकि इससे दूसरों को बाधा पहुंचती है—नहीं। और मैं तुमसे यह भी नहीं कह रहा हूं कि खांसो मत क्योंकि दूसरों को इससे बाधा पहुंचती है। वह बात नहीं है। तुम स्वयं गड़बडा जाओगे। तुम सारे प्रयास का मूल बिंदु ही चूक जाओगे; सारी मेहनत व्यर्थ हो जायेगी।
सुबह के ध्यान में तनाव रहित होओ। तीसरे चरण के बाद विश्रामपूर्ण होओ। एक बात और तुम्हें स्मरण रखनी है : सुबह के ध्यान में जब मैं कहूं कि 'स्टाप' अथवा जब संगीत रुक जाये, तो अपने शरीर को व्यवस्थित मत करो। कोई आसन मत बनाओ, नीचे लेटो भी मत। जैसा है वैसा ही शरीर को छोड़ दो। तत्‍क्षण वहीं पर रुक जाओ, चाहे वह कितना ही असुविधापूर्ण हो।
तुम कूद रहे थे और वह स्थिति कोई आराम की नहीं है, उसी स्थिति में अडिग रह जाओ, उसको बदलो नहीं। जैसे ही तुम्हें पता चले कि संगीत बंद हो गया है, तुम भी रुक जाओ। बिलकुल मृत हो जाओ। क्योंकि तुम अपने शरीर को आरामपूर्ण बना सकते हो, तुम लेट सकते हो, लेकिन इस अंतराल से ही ऊर्जा में गड़बड़ी हो जायेगी, इस अंतराल से दिशा बदल जायेगी।
तीन चरणों में तुमने एक जीवंत शक्ति, एक बाढ़ जैसी शक्ति पैदा की थी। अब सिर्फ अपने शरीर को सुविधा देकर तुम उसे भूल ही जाओगे, और तुम्हारा ध्यान विचलित हो जायेगा। ऐसा मत करो। जब मैं कहूं ''स्टाप! '' तो तुरंत रुक जाओ—वहीं जैसे हो। और धोखा देने की कोशिश मत करो कि कौन देख रहा है! क्यों न शरीर को थोड़ा आरामदायक स्थिति में कर लें। इससे किसी को क्या लेना—देना! तुम अपने को ही धोखा दे रहे हो।
एक बात और! दूसरे चरण में, जब तुम अपने सारे दमित भावों को व्यक्त कर रहे होते हो, जब तुम रेचन में पूरे पागल हो गये होते हो, तो एक बात बड़े जोर से करो : अपने चेहरे की मांस—पेशियों को सिकोड़कर ढीला छोड़ दो। सिकोड़ो और छोड़ो। तुम्हारा शरीर इतना तनावपूर्ण नहीं है, जितना कि तुम्हारा चेहरा, क्योंकि तुम्हारा चेहरा तुम्हारे सारे तनावों का केंद्र बिंदु है। और तुम्हारा चेहरा सर्वाधिक अभिव्यक्ति करता है, इसीलिए चेहरा सर्वाधिक दमन करने वाला हो जाता है। अपने चेहरे से ही तुम दबाते हो या अभिव्यक्त करते हो। इसलिये दूसरे चरण में, सारे शरीर से अभिव्यक्त करो, लेकिन इसे भी स्मरण रखो : अपने चेहरे को खींचो तथा ढीला छोड़ो, खींचो तथा ढीला छोड़ो। इस ढंग से बहुत—से दमित भाव आसानी से निकल जायेंगे।
विश्राम कोई करने की बात नहीं है, वस्तुत: तुम विश्राम कर नहीं सकते। कोई भी नहीं कर सकता, क्योंकि विश्राम कुछ भी करने के विरुद्ध है। तुम सिर्फ करना छोड़ सकते हो, और विश्राम घटित होता है। इसलिए जब मैं कहूं ''स्टॉप! ''और संगीत ठहर जाये, तो पूर्णतया रुक जाओ जैसे भी तुम हो, फिर कुछ भी मत करो। तुम सिर्फ रुक जाओ—सब करना बंद कर दो! जरा भी हलचल नहीं। तब फिर एक बहुत गहरी शांति घटित होगी, और तब तुम्हें अंतर पता चलेगा। तुम अपने को आरामपूर्ण स्थिति में रखने की चेष्टा कर रहे थे, अब से अपने शरीर को आरामपूर्ण स्थिति में रखने की कोशिश मत करो।
दोपहर के ध्यान में भी कीर्तन के बाद, जब संगीत रुके, तो तुम भी रुक जाओ—जैसे भी तुम हो। अचानक सारी क्रिया रुक जाती है और सारी ऊर्जा भीतर की ओर चली जाती है; उसके लिए कोई अवसर इधर—उधर जाने का नहीं है। और यही बात शाम के ध्यान के लिए भी है, जो कि हम अभी करेंगे। जब मैं कहूं ''स्टाप! '' तो पूरी तरह रुक जाओ जैसे भी तुम हो। और फिर पुन: जब संगीत बजे और तुम अपने आनंद को अभिव्यक्त करने लगो, केवल तभी पुन: हिलना—डुलना शुरू करो। इन दोनों के बीच के अंतराल में न—करने में रहो, और विश्राम घटित होगा।

दूसरा प्रश्न


परम अनुभव पाना इतना कठिन क्यों है?

नहीं, ऐसा नहीं है। उसे पाना कठिन नहीं है। वह तो बहुत ही सरल है। लेकिन चूंकि वह इतना सरल है, वह कठिन हो गया है। हमारा अहंकार सदा उसमें रस लेता है जिसे कि पाना कठिन है, क्योंकि तब अहंकार को एक चुनौती मिलती है। अहंकार का कोई रस उसे करने में नहीं है जो सरल है। यही समस्या है। अहंकार का रस ध्यान करने में नहीं है; यही एकमात्र कारण है कि वह इतना कठिन प्रतीत होता है।
यह इतना सरल है—इतना सरल है कि इससे कोई चुनौती नहीं है। इससे कोई महत्वाकांक्षा पूरी नहीं होती; तुम्हें संसार की कोई शक्ति इसके पाने से नहीं मिलती; तुम संसार में कोई सम्मान इसके द्वारा नहीं पा सकते। वस्तुत: संसार में तुम्हें इसके द्वारा ऐसा कुछ भी नहीं मिलता जो कि दिखाई देता हो। बल्कि इसके विपरीत तुम कुछ खोते चले जाते हो, और आखिर में तुम स्वयं को खो देते हो। यह कठिन है क्योंकि तुम अपने को खोना नहीं चाहते। यदि तुम अपने को खोने को राजी हो जाओ तो यह बहुत सरल है। एक क्षण में घटना घट सकती है। वरना तुम्हें बहुत—से जीवन लग जायेंगे, और घटना नहीं घटेगी।
प्रश्न समय का नहीं है, प्रश्न गहरा है। प्रश्न यह है कि क्या तुम अपने को खोने को राजी हो? लेकिन तुम फिर पूछ सकते हो कि क्यों अपने को खोना इतना कठिन है? क्यों लोग आसानी से खोने को तैयार नहीं हो जाते? उसका कारण है, और कारण यह है कि स्वयं को खोना मृत्यु जैसा है और कोई मरना नहीं चाहता। प्रत्येक जीना चाहता है—ज्यादा जीना चाहता है। प्रत्येक मृत्यु से बचना चाहता है।
निश्चित ही कोई इससे बच नहीं सकता। कोई भी इससे बचने में सफल नहीं होता। मृत्यु घटती है। मृत्यु ही एकमात्र निश्चित बात है। बाकी सब अनिश्चित है जीवन में। केवल मृत्यु ही निश्चित है। मृत्यु तो होगी ही; चाहे तुम उससे बचने का प्रयास करो या न करो। तुम उससे बचकर नहीं भाग सकते। एक अर्थ में वह तभी घट गई जिस क्षण तुम पैदा हुए। आधी तो तभी घट गई, और बाकी आधी पीछे आने को है। और इन दो आधों को अलग नहीं किया जा सकता।
बुद्ध बार—बार कहते हैं, ''एक बार पैदा हो गये तो तुम्हें मरना ही पड़ेगा। '' तुम जन्म के साथ ही मृत्यु में भी प्रवेश कर गये। यह एक प्रवेश है। एक अर्थ में तुम मर ही गये हो। तुमने मरना शुरू कर ही दिया है। जिस क्षण तुम जन्मे उसी क्षण से तुमने मरना शुरू कर दिया। तुम्हारी मृत्यु की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई।
लेकिन हम मृत्यु से डरते हैं, और हम जीवन को पकड़ते हैं। क्यों हम जीवन को पकड़ते हैं? और क्यों हम मृत्यु से डरे हुए हैं? तुमने इस पर कभी सोचा नहीं होगा। इसका कारण कि क्यों हम जीवन को पकड़े हैं और क्यों मृत्यु से भयभीत हैं, सोचने में नहीं आता। हम जीवन को इसलिए पकड़े हैं क्योंकि हमें जीना नहीं आता। हम जीवन से बहुत बुरी तरह से चिपके हैं क्योंकि वास्तव में हम जीवंत नहीं हैं। और समय भाग रहा है, और मृत्यु निकट और निकट आती जा रही है। और हम डरे हैं कि मृत्यु तो निकट आती जाती है और हम अभी तक जीये ही नहीं।
यही भय है : मृत्यु आ जायेगी और हम अभी तक जी न पाये। हम तो जीने की तैयारी ही कर रहे हैं। कुछ भी तैयार नहीं है, जीवन की घटना अभी घटी ही नहीं। हमने उस परम आनंद को नहीं जाना जिसे कि जीवन कहते हैं। हमने उस आनंद को नहीं जाना जिसे जीवन कहते हैं। हमने कुछ भी नहीं जाना। हम सिर्फ भीतर बाहर सांस ही लेते रहे। हम तो सिर्फ नाम को जिंदा हैं। जीवन तो एक आशा है, और मृत्यु निकट आ रही है। और यदि जीवन की घटना अभी भी नहीं घटी, और मृत्यु उसके पहले आ जाती है, तो सचमुच डरने की बात ही है, हम मरना नहीं चाहेंगे।
केवल वे ही लोग जो कि जी लिये हैं, सच में जीए हैं, केवल वे ही मरने को, मौत का स्वागत करने को, अनुग्रह भाव से स्वीकार करने को राजी होंगे। तब मृत्यु शत्रु नहीं है। तब मृत्यु तृप्ति बन जाती है।
यदि तुम वाकई जी लिये, और जान लिये कि जीवन क्या है, तब फिर मृत्यु जीवन की समाप्ति नहीं है। तब वह तृप्ति है, तब वह शिखर है, पराकाष्ठा है, तब वह आखिरी भेंट है जो कि जीवन तुम्हें दे सकता है—और श्रेष्ठतम भी।
जीवन दो चीजें देता है—एक है प्रेम, दूसरी है मृत्यु। और दोनों ही खतरनाक हैं क्योंकि दोनों में ही तुम्हें मरना होगा। प्रेम में भी तुम्हें अपने को मिटाना होगा; मृत्यु में भी तुम्हें अपने को मिटाना होगा। और तुम मृत्यु से इतने डरे हुए हो, अपने को खोने से इतने भयभीत हो कि भीतर गहरे में तुम प्रेम से भी डरे हुए हो। तुम प्रेम की बातें तो करते हो, लेकिन कोई भी प्रेम करने को राजी नहीं है क्योंकि प्रेम मृत्यु जैसा है। प्रेम और मृत्यु, ये प्राकृतिक घटनाएं हैं।
यदि मनुष्य प्राकृतिक ढंग से जीये तो प्रेम भी होगा और मृत्यु भी घटित होगी, और दोनों ही शिखर होंगे। प्रेम है दूसरे व्यक्ति में मिटना, और मृत्यु है समष्टि में मिटना। किंतु प्रेम आत्यंतिक मिटना नहीं है, तुम उसमें से वापस आ जाते हो। तुम दूसरे व्यक्ति में से पुन: वापस आ जाओगे, वह पुनर्जीवन है। और मृत्यु भी आखिरी नहीं है क्योंकि तुम पुन: जन्मोगे। तुम समष्टि में से पुन: वापस लौट आओगे, और तुम किसी शरीर में प्रवेश कर जाओगे और फिर से शरीर धारण कर लोगे।      ध्यान परम मृत्यु है : वह प्रेम तथा मृत्यु दोनों के पार है। तुम उसमें से वापस नहीं आ सकते। इसीलिए यह सर्वाधिक खतरनाक है। मृत्यु में भी संभावना है कि तुम फिर से लौटकर आ जाओगे, कि तुम दोबारा जन्म ले लोगे। तुम उसमें मिट जाओगे, लेकिन तुम उसमें पुन: अपने को संगठित कर लोगे, और पुन: विकसित हो जाओगे। अत: मृत्यु सिर्फ एक परिवर्तन का मार्ग होगी, लेकिन ध्यान तो आखिरी मृत्यु होगी—आत्यंतिक, परम मृत्यु। तुम उसमें से वापस नहीं आ सकते।
इसीलिए इतना डर है। और इस भय के कारण ही यह इतना कठिन लगता है। वरना यह इतना ही सरल है जितना और कुछ भी सरल हो सकता है। लेकिन प्रेम कठिन है, इसलिए ध्यान कठिन होगा। मृत्यु कठिन है, इसलिए ध्यान भी कठिन होगा।
इसीलिए मेरे लिए प्रेम इतना महत्वपूर्ण है। यदि तुम प्रेम कर सको तो तुम आसानी से ध्यान कर सकोगे। लेकिन सारा समाज प्रेम के खिलाफ है, सारी संस्कृति प्रेम के विरुद्ध है। वे सारी सावधानी लेते हैं कि कहीं प्रेम घटित न हो जाये। उन्होंने विवाह निर्मित किया है ताकि प्रेम पैदा न हो सके। विवाह से उन्होंने उसका द्वार ही बंद करने का प्रयास किया है। इसके पहले कि तुम प्रेम में पड़ो जो कि मिटने की प्रक्रिया है, उन्होंने तुम्हारी रक्षा कर दी। उन्होंने प्रेम को अनैतिक बनाने के लिए सब तरह की शिक्षाएं बना दीं, सब तरह की व्यर्थ बातें तुम्हारे मस्तिष्क में भर दी हैं।
और बुनियादी रूप से तुम भी भयभीत हो क्योंकि प्रेम में अपना व्यक्तित्व तुम्हें खोना पड़ेगा। तुम जो हो वही बने रहना चाहते हो, इसलिए तुम अपने को बचाते हो। यदि तुम प्रेम में भी जाते हो तो तुम बड़ी सुरक्षा के साथ जाते हो—बहुत सावधानी के साथ। तुम प्रेम में भी अपने व्यक्तित्व को बचाए रखते हो। तुम एक अहंकार ही बने रहते हो। इसलिए दो अहंकार मिलते हैं, लेकिन यह मिलन ऊपरी ही होने वाला है। वे निकट आ सकते हैं, लेकिन मिलन कभी नहीं होता। वे एक दूसरे में कभी भी घुल मिल नहीं पाते वे एक दूसरे में कभी भी अपने को खो नहीं पाते।
यदि तुम प्रेम कर सको तो ध्यान बड़ा सरल होगा। संसार ज्यादा धार्मिक होगा यदि प्रेम को स्वीकार कर लिया जाये। यदि प्रेम को सहयोग दिया जाये और प्रेम तुम्हारे चारों ओर एक स्वाभाविक वातावरण हो जाये, तो ध्यान बहुत सरल हो जायेगा क्योंकि प्रेम के माध्यम से तुम एक स्वाद जानोगे कि मिटने का क्या अर्थ है, भले ही यह एक क्षण के लिए ही क्यों न हो। फिर तुम लंबे क्षणों के लिए मिटने की हिम्मत कर सकते हो।
और यदि तुम प्रेम कर सको तो तुम मृत्यु से नहीं डरोगे। प्रेमी मृत्यु से कभी नहीं डरते। और यदि कोई आदमी मृत्यु से डरा हुआ है तो तुम पक्का समझ सकते हो कि न तो उसने प्रेम किया है और न ही किसी ने उसको प्रेम किया है। मृत्यु का भय ही बताता है कि जीवन में प्रेम नहीं है। प्रेमी मरने के लिए सरलता से तैयार रहते हैं। वे एक दूसरे के लिए मर सकते हैं। वे तथाकथित जीवन की परवाह नहीं करते क्योंकि उन्होंने इससे भी ऊंचा जीवन जान लिया है, उन्होंने उच्चतर जीवन का स्वाद चख लिया है। वे इस जीवन की बहुत परवाह नहीं करते।
लेकिन देखो उन लोगों की ओर जिन्होंने कभी प्रेम नहीं किया—वे सदा मृत्यु से भयभीत होंगे। कंजूसों को देखो—वें सदा मृत्यु से डरे हुए होंगे। और कंजूस लोग वे ही होते हैं जिन्होंने कभी किसी को प्रेम नहीं किया, क्योंकि यदि तुमने एक व्यक्ति को भी प्रेम किया तो फिर तुम पैसे को कभी प्रेम न कर सकोगे। पैसा तो परिपूरक है। जब तुम किसी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर सकते, जब तुम एक जिंदा आदमी को प्रेम नहीं कर सकते, तो तुम मृत पैसे को प्रेम करते हो।
कंजूस, जो कि अपनी संपत्ति से चिपटे रहते हैं, उन्हें पता भी नहीं होता कि प्रेम क्या होता है? उनका सारा प्रेम मृत पैसे की तरफ चला जाता है। और क्यों चला जाता है? उसके गहरे संबंध हैं। एक व्यक्ति जो कि धन के प्रति बहुत आसक्त है, वह मृत्यु से डरेगा। वस्तुत: जो आदमी मृत्यु से भयभीत है वह धन से बहुत प्रेम करेगा, क्योंकि धन उसे मृत्यु के खिलाफ एक सुरक्षा का उपाय मालूम पड़ेगा। यदि तुम्हारे पास धन है, तो तुम्हें सुरक्षा मालूम पड़ेगी। यदि तुम्हारे पास धन नहीं है तो तुम्हें असुरक्षा मालूम पड़ती है। मृत्यु कभी भी घट जायेगी और तुम कुछ भी नहीं कर सकोगे। धन से तुम्हें लगता है कि तुम कुछ कर सकते हो। धन सहायक होगा।
एक व्यक्ति जो कि प्रेम करता है वह धन से प्रेम नहीं करेगा, क्योंकि जो व्यक्ति प्रेम करता है वह मृत्यु से डरा हुआ नहीं होगा। और यदि कोई मृत्यु से डरा हुआ नहीं है तो उसकी कोई पकड़ नहीं होगी, आसक्ति नहीं होगी, धन की विक्षिप्त दौड़ नहीं होगी। यह बात ही असंभव है।
यदि तुम प्रेम कर सको, तो तुम मृत्यु को आसानी से स्वीकार कर लोगे। वह एक गहरा विश्राम होगा, एक लंबी नींद, अस्तित्व में खूबसूरत ढंग से समा जाना होगा। और यदि तुम मृत्यु के प्रति ग्राहक हो सको तो ध्यान बिलकुल सरल बात होगी। सारी समस्या तो यह है कि प्रेम नहीं है। जब मृत्यु ही भय हो गई है तो ध्यान कठिन हो जायेगा, क्योंकि वह दोनों है—प्रेम और मृत्यु। जहां तक तुम्हारे अहंकार का प्रश्न है वह मृत्यु है, और जहां तक दिव्य अस्तित्व का संबंध है वह प्रेम है।
मैं ध्यान की परिभाषा एक गणित के सूत्र की तरह करता हूं : ध्यान = प्रेम + मृत्यु। प्रेम अस्तित्व के प्रति, समग्र के प्रति और अहंकार की मृत्यु। वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, क्योंकि तुम समग्र को तभी प्रेम कर सकते हो यदि तुम अपने को छोड़ने को राजी हो। यदि तुम मरने को तैयार हो, तभी तुम फिर से ब्रह्म की भांति अस्तित्व में जन्म सकते हो।
जीसस कहते हैं कि यदि तुम स्वयं को खो दो तो ही तुम बच सकते हो। और जो अपने को बचाने का प्रयास करेंगे वे खो देंगे।
यह कठिन है क्योंकि तुमने प्रेम नहीं किया है। यह कठिन है क्योंकि तुम अभी जीये नहीं हो। यह अपने आप में कठिन नहीं है। ध्यान अपने आप में बहुत सरल है—एक सहज घटना है। यदि कोई मनुष्य प्राकृतिक ढंग से विकसित हो, प्रेम में गिरे, जाने कि प्रेम क्या है, जाने कि प्रेम कैसा जीवन है और कैसी मृत्यु है, इसके बाहर निकले, मृत्यु का स्वाद जानता हो, वह मृत्यु को प्रेम करेगा—तब वह मृत्यु को जीवन के विरुद्ध नहीं समझेगा। मृत्यु का तब गुण ही बदल जाता है। तब वह जीवन का अंतिम बिंदु, आखिरी शिखर हो जाती है। तब ध्यान बड़ा सरल हो जाता है।
तुममें से वे लोग जो कि खोने को राजी हैं, वे समझ सकते हैं कि वह बहुत सरल है। तुममें से जो खोने को राजी नहीं हैं, वे नहीं समझ सकते हैं। एक मित्र मेरे पास आज आये। वे बोले, ''जो भी आप कहते हैं वह बिलकुल ही सत्य मालूम पड़ता है। मैं पूर्णतया संतुष्ट हूं मेरा मन आपके साथ पूरी तरह सहमत है लेकिन मुझे यह ध्यान करने के लिए मत कहें। क्या यह संभव नहीं है, ''उन मित्र ने पूछा, ''क्या यह संभव नहीं है कि आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हो जाने से मुझे बुद्धत्व प्राप्त हो जाये? क्या इस ध्यान में जाना आवश्यक है?
क्या है भय? तुम मुझसे बौद्धिक रूप से सहमत हो सकते हो, लेकिन तुम अपने को नहीं खो रहे हो। और वस्तुत: यदि तुम भीतर गहरे झांको तो तुम्हें सारी प्रक्रिया ही उलटी चलती दिखाई पड़ेगी। तुम मुझसे बौद्धिक रूप से सहमत हो क्योंकि तुम्हें सदा से लगता रहा है कि मैं जो भी कहता हूं वह सत्य है। वस्तुत: तुम मेरे साथ सहमत नहीं हो, मैं तुम्हारे साथ सहमत हूं। मैं तुम्हें स्वीकारयोग्य मालूम पड़ता हूं। इससे तुम्हारा अहंकार ही पुष्ट होता है। ''बिलकुल सही! '' तुम अपने मन में कहते हो, ''यही तो मैं भी सोच रहा था सदा से। ठीक, आप बिलकुल ठीक हैं क्योंकि यही मेरा भी विचार था। '' तुम्हें संतोष मालूम होता है, तुम्हारा अहंकार मजबूत होता है। यह तुम्हें बुद्धत्व की ओर नहीं ले जायेगा, उल्टे यह तुम्हें और भी गहन अज्ञान में ले जायेगा, क्योंकि अहंकार,.,
क्या है भय? ध्यान में जाने में तुम्हें भय है कि तुम्हें अपना अहंकार खोना पड़ेगा; तुम्हें अपनी पहचान खोनी पड़ेगी। और यह ध्यान भी एक पागलपन का ध्यान है। यदि मैं तुम्हें कहूं ''केवल बुद्धासन में बैठ जाओ, अपनी आंखें बंद कर लो, ''तुम सरलता से बैठ जाओगे क्योंकि उसमें कोई डर नहीं है। तुम आसानी से बैठ सकते हो क्योंकि वस्तुत: उसमें कुछ भी अपेक्षा नहीं है। लेकिन इस विक्षिप्त ध्यान में जहां तुम्हें अपना परिचय, अपना अहंकार, अपनी प्रतिमा आदि सब खोना पड़ता है और तुम बिलकुल पागल हो जाते हो और तुम्हें लगता है कि अब तो तुम्हारा नियंत्रण भी गया.. और जल्दी ही पूरे समूह का मन तुम पर काबू करने लगता है।
तब तुम नाचने लगते हो; लेकिन तुम भलीभांति गहरे में जानते हो कि तुम नहीं नाच रहे हो। पूरा समूह नाच रहा है, तुम तो सिर्फ उसके हिस्से हो गये हो। तुम उसे बंद भी नहीं कर सकते। वस्तुत: एक क्षण ऐसा आता है जबकि तुम उसे बंद नहीं कर सकते, तुम अपने वश में नहीं हो। तुमसे विराट कुछ है जो कि तुम पर अपना वश जमा लेता है, तुमसे विराट हावी हो गया है। यही भय है।
यदि तुम सिद्धासन में बुद्ध की तरह बैठ जाओ तो तुम अपने नियंत्रण में रहते हो। लेकिन यह ध्यान तुम्हें नियंत्रण से बाहर ले जाता है। वस्तुत: यह तुम्हारे नीचे की जमीन सरका देता है। तुम एक खाई में गिरने लगते हो, किसी तूफान में जहां तुम नहीं बचते। कुछ गहरा, कुछ विराट, कुछ अधिक शक्तिशाली तुम पर काबू कर लेता है। अब ऐसा नहीं है कि तुम नाच रहे हो; कुछ और ही है जो कि नाच रहा है; तुम तो उस विराट नाच के एक हिस्से हो। यह बात भय देने वाली है। यही बात मुश्किल पैदा करती है।
इसलिए मैं तुम्हें कहूंगा कि खोने को तैयार रहो और बात बिलकुल सरल हो जायेगी। रोको, और सब मुश्किल हो जाता है। प्रतिरोध ही इसे कठिन बना देता है। छोडो अपने को और सब आसान हो जाता है। और उन्हीं मित्र ने आगे और भी पूछा है। वे कहते हैं?
मुझे ऐसा लगता है कि यह प्रकृति की मर्जी है कि उसने इसको अत्यंत कठिन बना दिया है ताकि मनुष्य को विकसित होने में युगों लग जाये इसके पहले कि वह पहुंचे। क्या इसके पीछे परमात्मा का कुछ प्रयोजन नहीं है कि आदमी को वहां पहुंचने में इतना समय लगता है?
आदमी का मन बड़ा चालाक है। तुम दूसरों पर जिम्मेवारी डालते रहते हो; ''यह प्रकृति का ढंग है कि इसको कठिन बनाया है। '' तुम्हीं कठिन बनाये दे रहे हो, यह कोई प्रकृति का ढंग नहीं है। प्रकृति का ढंग तो हमेशा सीधा और सरल है। प्रकृति का अर्थ है प्राकृतिक, सहज, सरल।
प्रकृति में कुछ भी कठिन नहीं है। केवल आदमी चीजों को जटिल बना देता है, उन्हें कठिन और मुश्किल कर देता है। प्रकृति तो सहज प्रवाह है। लेकिन तुम धोखा दे सकते हो। तुम कह सकते हो कि यही प्रकृति का ढंग है कि ध्यान कठिन है। तब तुम्हारी मुक्ति हुई। तब तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं और तुम कुछ भी कर नहीं सकते। यही प्रकृति का ढंग है अत: तुम क्या कर सकते हो?
तुम सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हो; अथवा जो भी तुम करते आ रहे हो उसे करते जा सकते हो। तुम्हें ध्यान करने की आवश्यकता नहीं। तुमने सारी जिम्मेदारी प्रकृति पर डाल दी।
लेकिन यदि यह बात वास्तव में सही है तो फिर ध्यान घटेगा। यदि तुम वास्तव में सारी जिम्मेवारी, सारा दायित्व—स्मरण रहे, सारा—प्रकृति पर छोड़ देते हो, तो ध्यान घटेगा। तब फिर कोई आवश्यकता नहीं है.... कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। लेकिन जब तुम दुखी होओ, तो किसी से भी कुछ कहने की जरूरत नहीं है। दुखी होना और जानना कि यह प्रकृति का ढंग है। जब दर्द हो तो उसका इलाज मत मांगना, जानना कि यही प्रकृति का ढंग है। यदि तुम इसे समग्रता से कर सकी, तो फिर ध्यान की कोई भी आवश्यकता नहीं है, ध्यान तब हो ही गया।
लेकिन तुम चालाक हो। केवल ध्यान के साथ ही तुम कहते हो कि यह प्रकृति का ढंग है, बाकी किसी बात के लिए नहीं कहते। बाकी सबके लिए तुम संघर्ष करते हो, तुम प्रयास करते हो। यदि तुम गरीब हो तो तुम अमीर होने की पूरी कोशिश करते हो, और नहीं कहते कि यह प्रकृति का ढंग है। तुम नहीं कहते कि जब मैं सचमुच ही इस योग्य हो जाऊंगा तो प्रकृति मुझे अमीर बना देगी। तब तुम प्रकृति के लिए प्रतीक्षा नहीं करते।
यदि तुम सच में ईमानदार हो, तो छोड़ो सब कुछ प्रकृति पर। तब तुम्हें ध्यान करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह सब कुछ प्रकृति पर छोड़ना ही गहरे से गहरा ध्यान होगा। लेकिन यदि तुम ईमानदार नहीं हो तो तुम धोखा दे सकते हो, ताकि जो भी तुम चाहो करते रही, और जो तुम नहीं करना चाहो उसे प्रकृति के कंधों पर डालते रहो।
इस चालाकी के प्रति सजग रहो। हम यही कर रहे हैं। मैं तो तैयार हूं यदि तुम सचमुच ही सब कुछ प्रकृति पर छोड़ सको, तो फिर तुम्हारे लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं ' है। लेकिन यदि तुम समग्ररूप से छोड़ने को तैयार नहीं हो तो थोड़ी अपने ऊपर कृपा करो, ध्यान को मत फेंको। ऐसा न कहो कि प्रकृति का अपना कुछ तात्पर्य है इसलिए प्रकृति ने ध्यान को इतना कठिन बना दिया है। प्रकृति उसे कठिन नहीं बना रही है। वे ही मित्र कहते हैं :
क्या इसके पीछे परमात्मा का कुछ प्रयोजन नहीं है कि आदमी को वहां पहुंचने में इतना समय लगता है?
तुम उसे प्रकृति पर ही नहीं डाल रहे बल्कि तुम उसे सुंदर तथा दिव्य भी बना रहे हो : ''परमात्मा का कुछ उद्देश्य छिपा है इसके पीछे, इसीलिए तुम लक्ष्य तक नहीं पहुंच पा रहे हो। इसीलिए तुम ध्यान को उपलब्ध नहीं हो पा रहे हो। इसीलिए समाधि इतनी कठिन है। '' नहीं! तुम्हीं बाधा खड़ी कर रहे हो ईश्वरीय प्रयोजन में। और एक ढंग से कोई ईश्वरीय प्रयोजन नहीं हो सकता है क्योंकि अस्तित्व उद्देश्य रहित है। यह सिर्फ एक खेल है।
उद्देश्य मनुष्यता का हिस्सा है। तुम्हारा उद्देश्य है। अस्तित्व का कोई उद्देश्य नहीं है। उद्देश्य के होने में कोई सार भी नहीं है। अस्तित्व तो एक प्रवाह—अपनी ऊर्जा का उत्फूल्ल प्रवाह है। यह एक उत्सव है, न कि उद्देश्य। यह एक सतत महोत्सव है। अस्तित्व कितने ही रूपों में आनंद मना रहा है। कहीं कोई उद्देश्य नहीं है। और अस्तित्व को कोई चिंता नहीं है यदि तुम आनंद को उपलब्ध नहीं होते। यह सिर्फ तुम्हारी चिंता है। यदि तुम नहीं पहुंचते तो तुम दुख भोगोगे। तुम्हारे नहीं पहुंचने से अस्तित्व दुखी नहीं है। और अस्तित्व तुम्हें जबरदस्ती भी नहीं करेगा कि तुम आनंद में जाओ। यह तुम पर निर्भर है।
अस्तित्व एक गहन स्वतंत्रता है। यदि तुम दुख पाना चाहो तो दुख पाओ, यदि तुम आनंद में डूबना चाहो तो आनंद में डूबो। यह तुम्हारा अपना चुनाव है। लेकिन यह बात हमारी समझ के बाहर है कि सभी कुछ हमारा चुनाव है, क्योंकि तब हम स्वयं जिम्मेवार हो जाते हैं। यदि तुम्हें पता चले कि तुम्हारी पीड़ा के लिए तुम्हीं जिम्मेवार हो तो तुम्हें बडा बुरा लगेगा। इससे यह बेहतर लगता है कि हम किसी और को हमारी पीड़ा के लिए जिम्मेवार ठहरा दें।
लेकिन स्मरण रहे, यदि कोई और तुम्हारे दुख का कारण है तो फिर तुम कभी भी मुक्त नहीं हो सकते। तब कोई मुक्ति संभव नहीं है। लेकिन यदि तुम्हीं कारण हो अपने दुख के तो फिर मुक्ति तुम्हारे हाथ में है; तुम कुछ कर सकते हो और इसे बदल सकते हो।
मैं तुमसे कहता हूं—तुम्हीं कारण हो अपने स्वर्ग और अपने नर्क के। यदि तुम नर्क में पड़े हो तो यह तुम्हारा ही चुनाव है। और जिस क्षण तुम निश्चय कर लो उसी वक्त तुम उससे बाहर आ सकते हो। कोई तुम्हें रोकनेवाला भी नहीं। कोई तुमसे कहेगा नहीं कि मत जाओ। दरवाजे तुम्हारे खिलाफ बंद नहीं हैं। वास्तव में कोई दरवाजे ही नहीं हैं, और कोई शैतान दरवाजे पर नहीं खड़ा है। तुम्हें बाहर निकलने के लिए किसी पासपोर्ट की भी जरूरत नहीं है। यह केवल तुम्हारा ही निर्णय है कि तुम वहां पर हो।
तुम पीड़ा में हो क्योंकि तुमने पीड़ा में रहने का निर्णय कर रखा है। जिस क्षण भी तुम तय कर लो उसी क्षण तुम इसके बाहर आ सकते हो। तुम आनंद में हो सकते हो यदि तुम आनंद में होने का निर्णय कर लो। तुम्हारा निर्णय ही तुम्हारा होना है। जो भी तुम हो, तुम्हारा ही चुनाव है। तुमने ऐसा होना चुना है, इसलिए ऐसे हो। किसी और चीज पर जिम्मेवारी डालने की कोशिश मत करो—प्रकृति पर, परमात्मा पर, धर्म पर, नियति पर। उन पर मत थोपो।
लेकिन यदि तुम्हें वस्तुत: ऐसा लगता है कि तुम कुछ भी नहीं कर सकते हो, तुम असहाय हो, तो फिर मैं कहता हूं कि सारी जिम्मेवारी डाल दो। ये ही दो तरीके हैं। सारी जिम्मेवारी डाल दो, फिर तुम्हें कुछ भी नहीं करना है और सब कुछ घटित हो जायेगा। क्योंकि जैसे ही तुम सारी जिम्मेवारी फेंक देते हो तो अहंकार भी फेंक दिया जाता है, फिर अहंकार खड़ा नहीं रह सकता। यदि तुम सारा दायित्व प्रकृति पर, या परमात्म शक्ति पर, या अ, , , पर डाल देते हो तो अहंकार नहीं बचता। और जब अहंकार नहीं बचता तभी बात बनती है।
और यदि तुम समग्र दायित्व नहीं डाल सकते, पूर्णतया समर्पण नहीं कर सकते, यदि तुम ऐसा महसूस नहीं कर सकते कि तुम पूरी तरह से असहाय हो—समग्र शब्द को याद रखना—तो फिर तुम्हें कुछ करना होगा जिससे कि अहंकार को गलाया जा सके। तब प्रयास की जरूरत है।
या तो यह या वह, लेकिन दोनों के बीच में मत डोलते रहो। और दो नावों पर यात्रा करने का प्रयास मत करो। तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। तुम कभी कहीं नहीं पहुंचोगे।
और मैंने ऐसा देखा है कि जब मैं लोगों से कहता हूं कि सब कुछ परमात्मा पर छोड़ो, तो वे कहते हैं कि मैं कैसे छोड़ सकता हूं? मैं कैसे समर्पण कर सकता हूं? मैं नहीं जानता कि परमात्मा क्या है। जब तक मैं उसे जान न लूं मैं सब कुछ उस पर कैसे छोड़ सकता हूं? वे कहते हैं, यह जरा कठिन है। वे कहते हैं कि कोई रास्ता बतायें कि हम कुछ कर सकें।
यदि मैं उनको कहता हूं कि यह करो ?ं इस विधि से चलोगे तो पा लोगे, तो तुरंत वे कोई न कोई बाधा उपस्थित कर देते हैं। वे कहते हैं कि आदमी तो असहाय है। हम क्या कर सकते हैं। हम इतने असहाय हैं, सिर्फ कठपुतली हैं नियति के हाथों में, जो कि अज्ञात है।
यदि मैं उनको कहता हूं कि सब कुछ नियति पर छोड़ दो तो वे कहते हैं कि यह असंभव है। यदि मैं उनको कहता हूं कि कुछ करो, तब भी वे कहते हैं कि यह असंभव है। मन बड़ा चालाक है और हमेशा बचना चाहता है। उसके प्रति सावधान रहो, केवल तभी कुछ तुम्हारे साथ घट सकता है। वरना तुम अपनी सारी जिंदगी यूं ही भटकते रहोगे और कुछ भी नहीं होने का।
तुमने इसके पहले भी बहुत से जीवन यूं ही गंवा दिये हैं। तुम पहली बार यहां ध्यान के बारे में सुनने के लिए नहीं आये हो—तुमने बहुत बार सुना है। ऐसा नहीं है कि तुम केवल मेरे साथ ही चालाकी कर रहे हो। तुम पहले भी चालाकी कर चुके हो। तुमने बुद्ध को सुना है, तुमने जीसस को सुना है, तुमने कृष्ण को सुना है, तुम वहां मौजूद थे—चेहरे दूसरे थे, स्वभावत:, पर तुम मौजूद थे वहां। तुम बहुत पुराने हो, काफी पुरातन, लेकिन तुम्हारी चालाकी इतनी गहरी है कि बुद्ध भी असफल हो जाते हैं, जीसस आते हैं और चले जाते हैं और तुम अचल बने रहते हो। कोई तुम्हें तुम्हारे मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। तुम चलते ही जाते हो। तुम सबको पीछे छोड़ देते हो।
इसलिए तुमसे बात करते समय या तुम्हें ध्यान की ओर ले जाते समय, मैं भलीभांति जानता हूं कि तुम कोई नये नहीं हो। तुमने पहले भी बहुत कुछ किया है, लेकिन कभी भी पूरे हृदय से नहीं किया। और जब तक समग्ररूपेण किसी काम को नहीं करो, कुछ भी नहीं हो सकता। या तो पूरी तरह नियति के साश हो जाओ, परमात्म शक्ति के साथ हो जाओ—फिर तुम नहीं बचोगे। अथवा पूरी तरह किसी ध्यान विधि के साथ हो जाओ, ताकि अहंकार क्रमश: धीरे— धीरे मिटाया जा सके। विधि धीरे— धीरे चलने की बात है, समर्पण समग्र है और अंतिम है। समर्पण एक क्षण की बात है, विधि समय लेगी। मैं तुम्हें विधि दे रहा हूं क्योंकि मैं जानता हूं कि तुम समर्पण नहीं कर सकते।

तीसरा प्रश्न :
मैने सदा आपको समर्पण के बारे में बोलते हुए सुना है और मुझे ऐसा लगता है कि रूपांतरण को उपलब्ध करने के लिए समर्पण ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है तब फिर समर्पण कैसे करें? उसका क्या अर्थ है क्या विधि है और क्या प्रक्रिया है? और सक्रिय ध्यान का समर्पण की स्थिति में पहुंचने में क्या योगदान है?


समर्पण के विषय में पहली जो बात समझ लेनी है वह यह है कि तुम यह नहीं पूछ सकते कि कैसे। क्योंकि 'कैसे' के पूछते ही विधि आ जाती है, 'कैसे' के साथ उपाय आ जाता है। समर्पण अपने आप में पर्याप्त है। उसे किसी विधि की जरूरत नहीं है। कैसे समर्पण करें पूछने का अर्थ होता है कि कैसे प्रेम करें। और यदि तुम पूछते हो कि कैसे प्रेम करें तो एक बात पक्की है कि प्रेम तुम्हारे लिए नहीं है। क्योंकि कोई यह बात पूछ ही कैसे सकता है कि प्रेम कैसे करें। और यदि किसी को प्रशिक्षित किया जाये, तो जो भी वह प्रेम के बारे में सीखेगा वह झूठ होगा। प्रशिक्षण सब कुछ झूठ कर देगा।
एक बार ऐसा हुआ :

एक युवक मेरे पास सीखने आता था कि प्रेम कैसे करें। और मैं उससे कहता कि जाओ और यह करो और लड़की को ऐसे ऐसे कहो। तो वह जाता और लौटकर मुझे बताता कि क्या—क्या हुआ। लेकिन वह सदा ही असफल रहा। उसने बहुत—सी लड़कियों के साथ कोशिश की, और वह सदा ही असफल रहा क्योंकि सदा कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाती। वह तैयार होकर जाता और मैं उसे किसी बात के लिए सिखाता—पढ़ाता, तैयार करता, लेकिन जीवन में वैसा कभी नहीं होता—लड़की उससे कुछ और बात कह देती और उससे उत्तर नहीं बन पड़ता। तब वह मुश्किल में पड़ जाता। वह वापस लौटकर आता और कहता कि आपने कहा था कि यह उत्तर देना, लेकिन उसने तो ऐसा कभी पूछा ही नहीं। तो मैंने उस युवक को कहा कि यह तो बड़ा मुश्किल मामला है। जब तक कि मैं तुम दोनों को ही तैयार न करूं, लेकिन तब यह सिर्फ एक नाटक हो जायेगा।

तुम समर्पण करना सीख नहीं सकते। यदि तुम कर सको तो कर सकते हो और इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। यदि तुम नहीं कर सको तो छोड़ दो पूरी तरह से, तब किसी विधि के अनुसार चलो। विधि में किसी समर्पण की जरूरत नहीं है; विधि परिपूरक है। क्योंकि तुम समर्पण नहीं कर सकते, इसलिए तुमको कुछ करना पड़ेगा। और उसको करने से वही घटना एक लंबी प्रक्रिया में घटेगी जो कि समर्पण में इसी क्षण घट सकती है।
समर्पण का अर्थ होता है कि तुम्हें ऐसी प्रतीति होती है कि तुम कुछ भी नहीं कर सकते, इसलिए तुम सब कुछ छोड़ देते हो। यह एक समग्ररूपेण असहाय भाव है। तुम कहते हो कि मैं नहीं जानता। तुम कहते हो कि मैं कुछ भी करने में समर्थ नहीं हूं इसलिए मैं समर्पण करता हूं। अत: आप ही ले चलो जहां कहीं भी आप ले जाना चाहते हो। और स्मरण रहे कि यह बात समग्ररूपेण हो। मेरे पीछे दो—तीन कदम चलने के बाद तुम यह नहीं पूछ सकते कि ''आप मुझे कहौ ले जा रहे हो? ''तुम नहीं कह सकते कि ''आप मुझे गलत मार्ग पर ले जा रहे हो, ''क्योंकि तुमने तो समर्पण कर दिया है। अब तुम तो हो ही नहीं।
समर्पण की अपनी सुंदरता है, लेकिन बहुत कम आत्माएं, बहुत मजबूत आत्माएं ही समर्पण कर सकती हैं। स्मरण रहे, साधारणत: ऐसा समझा जाता है कि केवल कमजोर लोग ही समर्पण करते हैं। यह बात पूरी तरह गलत है। समर्पण करने के लिए तुम्हें बहुत ही शक्तिशाली व्यक्ति होना चाहिए, क्योंकि यह एक समग्र निर्णय होने वाला है। और तुम पीछे नहीं लौट सकते। तुम उसे वापस नहीं ले सकते। तुम यह नहीं कह सकते कि अब मैं अपना समर्पण वापस लेता हूं। यह बेशर्त है। समर्पण सशर्त नहीं हो सकता है! तुम यह नहीं कह सकते कि यदि ऐसा होगा तो ही मैं तुम्हारे पीछे चलूंगा। अगर मैं नर्क भी जाऊं तो भी तुम मेरे पीछे आओगे, क्योंकि वह होता ही बिना किसी शर्त के है। तुमने अपने निर्णय लेने छोड़ दिये हैं। अब तुम कुछ निर्णय लेने वाले नहीं।
समर्पण के लिए अत्यंत मजबूत, परम शक्तिशाली आत्माएं चाहिए। यदि गुरु कहे कि यह दिन है और तुम्हें रात दिखाई पड़ती हो... लेकिन तुमने तो समर्पण कर दिया है, अब तुम अपनी आंखों से तो देखते नहीं हो, तुम तो गुरु की आंखों से देखते हो। वह कहता है कि यह दिन है तो तुम भी कहते हो हा श्रीमान, यह दिन ही है। तुम अपने अहंकार को बीच में नहीं आने देते, तुम अपनी बौद्धिकता को बीच में नहीं आने देते। तुम सब कुछ एक तरफ रख देते हो।
यदि तुम यह कर सको—याद रखो फिर 'कैसे' नहीं है—यह घटता है।
समर्पण कोई करने की बात नहीं है। करने की बात ही विरोधी है। तुम इसे कर नहीं सकते। करना समर्पण के विपरीत है। समर्पण एक घटना है। तुम पूछ सकते हो कि वह घटना कैसे घटती है! यह मुझसे मत पूछना कि समर्पण कैसे किया जाये। तुम मुझसे यह पूछ सकते हो कि वह घटना कैसे घटती है। जब तुम प्रयास करते हो, और करते चले जाते हो और असफल पर असफल होते जाते हो, जब तुमने प्रत्येक मार्ग आजमा लिया है और कहीं भी नहीं पहुंचे हो। जब तुमने अपनी बुद्धि को खूब चलाकर देख लिया और पाया कि वह भी तुम्हें गोल घेरे में घुमाती रही। जब तुमने वह सब करके देख लिया जो कि तुम्हारे हाथ में था और कुछ भी घटित नहीं हुआ, और तुम इस नतीजे पर पहुंचे कि तुम पर्याप्त नहीं हो—कि तुम असहाय हो। जब तुम इस परिणाम पर पहुंचते हो कि तुम असहाय हो। इस असहाय अवस्था में ही समर्पण घटित होता है। तब तुम समर्पण कर सकते हो।
अत: पहली बात, समर्पण में 'कैसे' की बात नहीं होती। नहीं, उसकी कोई विधि नहीं है। यह स्वयं ही एक विधि है, इसकी कोई और विधि नहीं है। यदि तुम कर सकते हो तो कर सकते हो। यदि तुम नहीं कर सकते हो तो भूल जाओ इस बात को, यह तुम्हारे लिए नहीं है। लेकिन चिंता की कोई बात नहीं है। निराश होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि बहुत—सी विधियां है। तुम उनको आजमा सकते हो। और यदि तुम उनको आजमाओगे तो दो संभावनाएं हैं—या तो तुम सफल हो जाओगे या फिर तुम असफल हो जाओगे। यदि तुम सफल हो जाते हो तो फिर समर्पण की कोई जरूरत नहीं है। या तुम असफल हो जाते हो तो उससे तुम्हें समर्पण में सहायता मिलेगी।
बुद्ध ने छह वर्ष तक साधना की। उन्होंने सारी विधियों को किया। उनके एक समसामयिक, महावीर भी प्रयास कर रहे थे—उन्हीं दिनों, उसी समय में, उसी भूखंड में—बिहार में। ये दो महान आत्माएं अपने आत्मज्ञान के लिए प्रयासरत थीं उसी समय में। महावीर एक प्रकार की विधि का प्रयोग कर रहे थे बारह वर्ष तक। बुद्ध भी वैसी ही विधियों पर छह वर्ष तक प्रयास करते रहे। छह वर्ष के बाद बुद्ध इस नतीजे पर पहुंचे कि कोई विधि काम नहीं आ रही है। सभी कुछ असफल हो गया है, अत: उन्होंने समर्पण कर दिया। उन्होंने अस्तित्व के प्रति समर्पण कर दिया। उन्होंने कहा, '' अब मुझे कहीं भी नहीं जाना है। अब मुझे कुछ भी प्राप्त नहीं करना है। अब मैं अपनी खोज समाप्त करता हूं। जो भी हो, अब मैं भविष्य में उत्सुक नहीं हूं। न मैं अब जीवन के विरुद्ध हूं और न पक्ष में हूं। ''
वह एक ऐसी परिपूर्ण विषाद की स्थिति में थे कि तुम यह भी नहीं कह सकते कि वे निराश हो गये थे, क्योंकि निराश भी तुम तभी हो सकते हो जब कि तनिक सी आशा कहीं गहरे में छिपी हो। तुम निराशा का अनुभव कर सकते हो क्योंकि तुम अभी भी आशा किये हो। वे निराश भी नहीं थे। आशा तो चली ही गई थी, निराशा भी खो गई थी। वे सिर्फ बिना आशा के हो गये थे। भविष्य मिट गया था। वे पूर्णत: विफल हो गये थे। छह वर्ष के बाद बुद्ध पूरी तरह विफल हो चुके थे और उसी पूर्ण विफलता में समर्पण घटित हुआ था। वे उस रात बोधिवृक्ष के नीचे विश्राम में चले गये बिना किसी इच्छा के—निर्वाण, समाधि, आनंद, परमात्मा की कामना भी नहीं—जरा सी भी कोई वासना नहीं।
क्योंकि वासना का अर्थ है कि अभी तुम पूरी तरह विफल नहीं हुए। तुम अभी भी कामना करते हो। तुम अभी भी आशा रखते हो। तुम्हें अभी भी लगता है कि कुछ संभव है। लेकिन बुद्ध इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि कुछ भी संभव नहीं है। वे बोधिवृक्ष के नीचे आराम से सो गये, क्योंकि अब कोई तनाव बाकी नहीं था। क्योंकि जब तुम वस्तुत: ही विफल हो चुके हो तो फिर कौन—सा तनाव बचा?
एक आदमी जो कि सफल हो गया है, वह तनावपूर्ण हो सकता है। एक आदमी जो अभी भी सफलता के लिए प्रयास कर रहा है, वह भी तनावपूर्ण हो सकता है। एक आदमी जो कि विफल हो गया है, किंतु अभी भी आशा करता है, वह भी तनावपूर्ण हो सकता है। लेकिन एक ऐसा आदमी जो कि इतनी पूरी तरह विफल हो चुका है कि कोई उम्मीद ही नहीं बची, जो कि अब विषादपूर्ण भी नहीं है, जिसने अब सारा खेल ही छोड़ दिया है, वह तनावपूर्ण नहीं हो सकता। कोई चिंता शेष नहीं बची। चिंता बच भी कैसे सकती थी? कोई अहंकार ही नहीं बचा था, क्योंकि अहंकार बचता ही तभी है जब तुम अभी भी सफलता के लिए प्रयास कर रहे हो।
अचानक, सुबह जब वे जागे. उस रात कोई सपना नहीं था, कोई कामना, कल का कोई विचार शेष नहीं था। सुबह जब उन्होंने अपनी आंखें खोलीं तो उनकी आंखें बिलकुल खाली थीं। उनमें कामनाओं तथा सपनों के बादल नहीं थे। उन्होंने आखिरी तारे को डूबते हुए देखा—और जैसे—जैसे तारा डूबा, वे भी खो गये। और जब क्षितिज पर कोई तारा नहीं था, तो वे भी नहीं थे।
ऐसा कहते हैं कि वे हंसने लगे। वे अपने भीतर हंसे क्योंकि उन्होंने इतना प्रयास किया और कुछ भी नहीं हुआ। और अब वे कुछ भी प्रयास नहीं कर रहे थे और सब कुछ घट गया था। वे आनंद से भर गये। वे इतने आनंद में थे कि कहते हैं उन्होंने कहा, ''निर्वाण घटित हो गया है, बुद्धत्व घट गया है, और ऐसा बुद्धत्व जो पहले कभी भी नहीं घटा था।''
तब उन्होंने प्रयास न करने का उपदेश देना शुरू किया, लेकिन कोई उनकी नहीं सुनता था। कौन मानेगा कि कुछ भी करने की जरूरत नहीं है और सब कुछ हो जाता है? और वास्तव में, वह बिना प्रयास के हुआ भी नहीं था। प्रयास तो किया गया था। प्रयास से विफलता मिली थी और उस विफलता से यह आत्यंतिक चेतना की स्थिति उपलब्ध हुई थी।
महावीर सफल हो गए थे—उसी भूखंड में वे दूसरे साधक थे। वे कुछ निश्चित विधियों से प्रयास कर रहे थे और वे सफल हो गए। विधियों से वे अपने अहंकार को मिटाने में सफल हो गए। इसीलिए जैन और बौद्ध जन्मजात शत्रु हैं। उनमें कोई संगति नहीं बैठ सकती है; वे दोनों किसी समझौते पर नहीं पहुंच सकते, क्योंकि वे बिलकुल विपरीत हैं।
महावीर विधियों से सफल हुए, इसलिए महावीर की सारी शिक्षा विधियों की है। बुद्ध असफलता के कारण सफल हुए, इसलिए उनकी सारी शिक्षा प्रयास—रहितता की है : 
''कुछ भी नहीं करो। ''
ये दो आयाम हैं। दोनों अच्छे हैं, लेकिन मेरा सुझाव है कि पहले विधियों पर चलने का प्रयास करो। यदि तुम सफल हो जाते हो तो ठीक है। यदि तुम विफल हो जाते हो, तो फिर समर्पण संभव हो जायेगा। तब वह भी ठीक है। मैं दोनों के पक्ष में हूं। इसलिए मैं विरोधाभासी प्रतीत होता हूं।
एक युवक आज मेरे पास आया और उसने कहा, '' आप इतने विरोधाभासी हैं कि आपका अनुगमन करना असंभव है। और आप अपनी ही बात का इतना खंडन कर देते हैं कि आप मुझे भ्रमित कर देते हैं। '' तो मैंने उससे कहा कि वह मुझे नहीं सुने, ''सिर्फ अपनी आंखें बंद कर लो और मुझे नहीं सुनो, सिर्फ ध्यान करो। '' क्योंकि अगर तुम्हें लगता है कि जो कुछ भी मैं कहता हूं वह विरोधाभासी है... और तुम अनुभव करोगे! तुम्हारी बुद्धि यह अनुभव करेगी—यह विरोधाभासी है ही।

जब तक तुम्हें यह नहीं पता चलता कि सारे विरोधी मार्ग भी उसी बिंदु पर ले जाते हैं, तब तक तुम्हें भीतर की उस संगति का पता नहीं चलेगा जो कि सब विरोधों के बीच होती है।
वे विरोधी हैं भी, और नहीं भी हैं। ऐसा है, क्योंकि जो भी बुद्ध कहते हैं वह संगत है, और जो भी महावीर कहते हैं वह भी संगत है, लेकिन मैं दोनों बातें एक साथ कह रहा हूं। ऐसा पहले कभी नहीं किया गया, इसलिए यह विरोधाभासी लगता है। लेकिन तुम्हें इस बात पर विचार करने की जरूरत नहीं है, तुम सिर्फ एक बात का अनुगमन करो।
यदि तुम समर्पण कर सकते हो, समर्पण करो—कैसे मत पूछो। यी द तुम 'कैसे' पूछते हो तो तुम अभी समर्पण करने के योग्य नहीं हो। तुम अभी विधि की बात पूछ रहे हो, अत: विधि के अनुसार चलो। या तो तुम सफल हो जाओगे, या तुम विफल हो जाओगे। दोनों ही ठीक हैं। दोनों से ही तुम पहुंच जाओगे।

दिनांक 12 जुलाई 1973; संध्या,

माउंट आबू राजस्थान।

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