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शनिवार, 16 जून 2018

कठोउपनिषद उपनिषद--प्रवचन-13

सत्‍य की अभिव्‍यंजना विपरीतताओं मेंतैहरवां प्रवचन


तृतीय वल्‍ली :

ऊर्ध्वमूलोउवाक्शाख एषोsश्वत्थ: सनातन:।
तदेव शुक्रं सद् ब्रह्म तदेवामृतमुव्यते।
तस्मिल्लोका: श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कस्वन। एतद्वै तत्।।1।।

यदिदं किं च जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्।
महद्भयं वज़मुद्यतं य एतद्धिरमृतास्ते भवन्ति।।2।।

भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्य:।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचम:।। 3।।

इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक् शरीरस्य विम्रस:।
तत: सर्गेष लोकेष शरीरत्वाय कल्पते।।4।।


ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह ( प्रत्यक्ष जगत) सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व वह ( परमेश्वर) ही है। वही ब्रह्म है (और) वही अमृत कहलाता है। सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह ( परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था)।।1।।

( परब्रह्म परमेश्वर से ) निकला हुआ यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत है उस प्राणस्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है। इस उठे हुए वज्र के समान महान भयस्वरूप ( सर्वशक्तिमान) परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं अर्थात जन्म—मरण से छूट जाते हैं।।2।।


इसी के भय से अग्नि तपती है ('इसी के) भय से सूर्य तपता है तथा इसी के भय से इंद्र वायु और पांचवें मृत्यु देवता ( अपने—अपने काम में) प्रवृत्त हो रहे हैं।।3।।

यदि शरीर का पतन होने से पहले इस मनुष्य शरीर में ही ( साधक) परमात्मा को साक्षात कर सका ( तब तो ठीक है ), नहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है।।4।।


सत्य की अभिव्‍यंजना विपरीतताओं में

जैसे किसी सरोवर के किनारे कोई वृक्ष खड़ा हो तो सरोवर में जो प्रतिबिंब बनता है, वह उलटा होगा। तट पर खड़े हुए वृक्ष की शाखाएं आकाश में ऊपर की ओर फैली होंगी, तट पर खड़े वृक्ष की मूल, जड़ें नीचे जमीन में फैली होंगी। लेकिन प्रतिबिंब उलटा होगा। उसमें जड़ें ऊपर होंगी, शाखाएं नीचे होंगी। सभी प्रतिबिंब उलटे होते हैं। प्रतिबिंब कभी भी सीधा नहीं हो सकता। इस वैज्ञानिक सत्य को ध्यान में रखकर इस सूत्र को समझना बहुत आसान होगा।
चीजें जैसी हैं, ठीक उससे उलटी दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि देखना भी एक तरह का प्रतिबिंब है। आंख भी एक दर्पण है। आंख पर भी प्रतिबिंब बनते हैं। प्रतिबिंब सभी उलटे हो जाते हैं। तो इस जगत को जैसा हम देख रहे हैं, यह जगत इससे ठीक उलटा है। जगत का जो नियम हमें मालूम होता है, वास्तविक नियम उससे ठीक उलटा होगा।
आभास सत्य से विपरीत होते हैं, इस मौलिक विचार के आधार पर भारत के मनीषियों ने एक बहुत पुराना प्रतीक उपयोग किया है। वह प्रतीक—
ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व वह परमेश्वर ही है। वही ब्रह्म है और वही अमृत कहलाता है।
ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। हम तो जो भी देखते हैं, उसमें जड़ें नीचे की तरफ हैं, शाखाएं ऊपर की तरफ हैं। लेकिन यह यम का सूत्र नचिकेता को कहा गया है, इसमें यम कह रहा है कि ऊपर की ओर मूल, नीचे की ओर शाखाएं हैं। जैसा भी हमारा जानना है, जीवन का सत्य उससे ठीक विपरीत है। इसे हम कुछ जीवन के अलग—अलग पहलुओं से समझने की कोशिश करें।
हम सोचते हैं कि मृत्यु जीवन की दुश्मन है, लेकिन सत्य बिलकुल विपरीत है। मृत्यु के बिना जीवन हो ही नहीं सकता। तो मृत्यु जीवन की शत्रु तो जरा भी नहीं, मित्र है। मृत्यु के बिना जीवन के होने की कोई संभावना नहीं है। जिस दिन मृत्यु मिट जाएगी, उसी दिन जीवन भी मिट जाएगा। लेकिन हमारे देखने में सब चीजें उलटी हो जाती हैं। हमें लगता है कि जीवन और मृत्यु में विरोध है, जब कि वस्तुत: मृत्यु ही जीवन का आधार है। और मृत्यु के बिना जीवन हो नहीं सकता।
हमें अनुभव में आता है कि प्रेम और घृणा विपरीत हैं, जब कि सचाई बिलकुल उलटी है। मनसविद कहते हैं कि प्रेम और घृणा एक ही ऊर्जा के दो पहलू हैं, वे साथ—साथ हैं। फ्रायड ने जो महानतम खोजें इस सदी में की हैं, उसमें एक खोज यह भी थी कि आदमी जिसको प्रेम करता है, उसी को घृणा भी करता है। हम भी अगर थोड़ा सोचें, तो खयाल में बात आ सकती है। आप किसी भी व्यक्ति को सीधा शत्रु नहीं बना सकते। शत्रु बनाने के पहले मित्र बनाना जरूरी होगा। सीधी शत्रुता पैदा ही नहीं हो सकती, शत्रुता के लिए पहले मित्रता चाहिए। तो मित्रता शत्रुता का पहला कदम है, अनिवार्य कदम है, उसके बाद ही शत्रुता हो सकती है।
तो शत्रुता और मित्रता विपरीत नहीं हैं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस—जिसको हम प्रेम करते हैं, उस—उसको घृणा भी करते हैं; और जिस—जिसको हम घृणा करते हैं, उस—उसको हम प्रेम भी करते हैं। शत्रुओं से हमारा बड़ा लगाव होता है, उनकी याद आती है। उनके बिना हम अधूरे हो जाएंगे; उनके बिना हमारे जीवन में कुछ खाली हो जाएगा। उसी तरह, जैसे मित्र के मिट जाने पर कुछ खाली हो जाएगा। मित्र भी हमें भरते हैं, शत्रु भी हमें भरते हैं।
बुद्ध ने कहा है कि मैं कोई मित्र नहीं बनाता, क्योंकि मैं कोई शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं। पर हम तो सोचते हैं : शत्रु और मित्र विपरीत हैं। जीवन में ऐसी बात नहीं है। हम तो सोचते हैं : रात और दिन विपरीत हैं, अंधेरा और प्रकाश विपरीत हैं। सचाई यह नहीं है। अंधेरा प्रकाश का ही एक रूप है। प्रकाश अंधेरे का ही एक ढंग है। वे दोनों एक ही ऊर्जा के अलग—अलग कम हैं।
अगर जगत से अंधकार पूरी तरह मिट जाए तो हमारी साधारण बुद्धि कहेगी कि सब तरफ प्रकाश ही प्रकाश रह जाएगा। विज्ञान इससे राजी नहीं होगा। विज्ञान कहेगा, अंधकार अगर बिलकुल मिट जाए तो प्रकाश बिलकुल मिट जाएगा, या प्रकाश बिलकुल मिट जाए तो अंधकार बिलकुल मिट जाएगा।
अगर जगत से घृणा बिलकुल मिटानी हो तो प्रेम को बिलकुल मिटाना पड़ेगा। जब तक प्रेम है, घृणा जारी रहेगी। जब तक मित्र हैं, तब तक शत्रु पैदा होते रहेंगे। और अगर मृत्यु को बिलकुल पोंछ देना हो, तो जन्म को बिलकुल पोंछ देना होगा। जब तक जन्म है, मृत्यु होती रहेगी।
अगर दुनिया से युद्ध मिटाने हों, तो हम सोचते हैं कि जब युद्ध मिट जाएंगे तो दुनिया में परम शाति होगी। लेकिन युद्ध अगर बिलकुल मिट जाएं तो शाति भी मिट जाएगी। यह जरा कठिन मालूम पड़ता है। यही हमारे आभास और सत्य की विपरीतता है। दुनिया में तभी तक शाति रह सकती है, जब तक युद्ध जारी रहेंगे। शांति और युद्ध एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उनमें से एक भी खो जाए तो दूसरा भी खो जाएगा।
हम सोचते हैं कि बीमारी है, स्वास्थ्य है—विपरीत हैं। और हमारी चेष्टा होती है कि ऐसा वक्त आ जाए कि आदमी के जीवन में कोई बीमारी न रहे। जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन कोई स्वास्थ्य भी न रह जाएगा।
इस बात की संभावना है कि वैज्ञानिक धीरे—धीरे ऐसी व्यवस्था निकाल लें कि बीमारी न रह जाए। वह व्यवस्था एक ही हो सकती है कि धीरे—धीरे वे मनुष्य के सारे अंगों को बदल डालें। उनकी जगह प्लास्टिक और स्टेनलेस स्टील और कृत्रिम अंगों को डाल दें। बीमारी मिट जाएगी, लेकिन स्वास्थ्य भी मिट जाएगा। स्वास्थ्य का जो अनुभव है, जो वेल बीइंग है, वह स्टेनलेस स्टील और प्लास्टिक के अंगों से नहीं हो सकती। बीमारी के साथ ही जुड़ा है स्वास्थ्य।
अब इस बात के उपाय हैं। अब हृदय बदला जा सकता है, मस्तिष्क के हिस्से भी बदले जा सकते हैं। आज नहीं कल, सारे के सारे मनुष्य के शरीर में जो भी खराब होने वाले, जिनकी संभावना रुग्ण होने की है, ऐसे जो भी अंग हैं, वे सब अलग कर दिए जा सकते हैं। प्लास्टिक बीमार नहीं पड़ेगा। स्टेनलेस स्टील बड़ी लंबी उम्र की होगी। आपके हाथ में हड्डियों की जगह स्टेनलेस स्टील हो सकती है। नसों की जगह प्लास्टिक की नसें होंगी। और आज नहीं कल, हम खून से भी बेहतर रासायनिक—द्रव्य खोज सकते हैं। शरीर को पूरा का पूरा यंत्रवत बनाया जा सकता है। फिर शरीर बीमार नहीं पड़ेगा। लेकिन भीतर जो आत्मा छिपी है, उसको स्वास्थ्य का भी कोई अनुभव नहीं होगा।
असल में स्वास्थ्य बीमारियों के बीच एक संतुलन है। और बीमारियां स्वास्थ्य का डगमगा जाना है। दोनों साथ हैं। एक को हटा दें, दूसरा विनष्ट—हो जाता है। लेकिन हमें ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। हमें तो दिखाइ पड़ता है कि एक को मिटा दें, तो दूसरा बचेगा। यही हमारे आभास की विपरीतता है।
तो जहां—जहां हमें जैसा—जैसा दिखाई पड़ता है, बहुत गौर से उससे उलटा करके सोचना, उलटे के सत्य होने की संभावना ज्यादा है।
ऐसा देखें, जहां—जहां मनुष्य को सुख दिखाई पड़ता है, वहां—वहां अंत में दुख हाथ लगता है। लेकिन मन कहता है कि जहां सुख दिखाई पड़ता है, वहां सुख होगा। खोजने पर दुख हाथ लगता है। और जीवन में अनेक बार हम प्रयोग कर चुके हैं। जहां सुख दिखाई पड़ा, वहीं दौड़े, और पाया कि दुख हाथ लगा।
ऋषियों ने इस सूत्र को उलट लिया। उन्होंने कहा, जहां—जहां दुख दिखाई पड़े, वहा—वहा प्रवेश करने की कोशिश करना। जब सुख दिखाई पड़ने पर दुख मिलता है, तो जहा दुख दिखाई पड़ता है, उसमें खोजने से सुख मिलेगा। इस वैज्ञानिक खोज का नाम ही तप है। तप का मतलब है : दुख में खोजना सुख को। क्योंकि सुख में खोजने वाले दुख पा रहे हैं। सूत्र उलटा लिया। एक यात्रा भ्राति में ले जाती थी, तो हमने दिशा बदल ली।
भोगी हम उसे कहते हैं, जो सुख के आभास में सोचता है कि खोजने से सुख मिलेगा। योगी हम उसे कहते हैं, जिसकी यह भांति टूट गई और जिसने सूत्र को उलटा कर लिया, और अब जो दुख में कोशिश करता है खोजने की। और जो व्यक्ति दुख में खोजता है, वह निश्चित ही सुख पाता है। क्योंकि सुख में खोजने वालों ने सिवाय दुख के और कुछ भी नहीं पाया है।
इस बात को कि जीवन के सत्य हमें उलटे दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि हमारा चित्त उनके प्रतिबिंब बनाता है, झील की भांति वृक्ष उलटा हो जाता है—तो इसके पहले की आप अपने जीवन का दर्शन निर्मित करें, जीवन का पथ चुनें और जीवन का गंतव्य चुनें—इस महत्वपूर्ण बात को स्मरण रखना।
इसलिए ऋषियों ने कहा है कि जो वृक्ष तुम्हें दिखाई पड़ता है कि जड़ें नीचे हैं और शाखाएं ऊपर हैं, वस्तुत: इससे उलटा होगा। जीवन के वृक्ष की शाखाएं ऊपर नहीं नीचे, और मूल नीचे नहीं ऊपर है। इसे शाश्वत, सनातन पीपल का वृक्ष ऋषियों ने कहा है '
यह तो सिर्फ काव्य—प्रतीक है। और इस काव्य—प्रतीक को जीवन में उपयोग किए बिना, और जीवन में जगह—जगह नियोजित किए बिना इसका अर्थ साफ नहीं होता है।
ऊपर की ओर मूल वाला और नीचे की ओर शाखा वाला यह प्रत्यक्ष जगत सनातन पीपल का वृक्ष है। इसका मूलभूत तत्व परमेश्वर ही है।
लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई हमें पदार्थ पड़ता है। दिखाई हमें पड़ता है पदार्थ और वस्तुत: है परमेश्वर।
परमेश्वर हमें अदृश्य है, पदार्थ हमें दृश्य है। जब कोई व्यक्ति जीवन की इस प्रक्रिया को उलटा करता है, तो पदार्थ अदृश्य होने लगता है और परमात्मा दृश्य होने लगता है। और जिस दिन पदार्थ पूरी तरह अदुशा हो जाता है, सिर्फ परमात्मा दृश्य रह जाता है, उस दिन जानना कि सत्य की अनुभूति हुई।
इसलिए उस परम अवस्था में ज्ञानियों ने जगत को माया कह दिया। कह दिया इसलिए कि वह दिरब्राइ नहीं पड़ती थी, खो गई। जैसा कि अज्ञानी ईश्वर को असत्य कहते हैं। कहेंगे ही। जो नहीं दिखाई पड़ता, वह नहीं है। अज्ञानी कहता है, कहां है ईश्वर? उसे दिखाने का कोई उपाय भी नहीं है। क्योंकि सवाल ईश्वर के होने का नहीं है, सवाल अज्ञानी के देखने के ढंग का है। उसके देखने का ढंग ऐसा है कि पदार्थ पकड़ में आता है और ईश्वर छूट—छूट जाता है।
ज्ञानी को पदार्थ पकड़ में नहीं आता, छूट—छूट जाता है; सिर्फ परमेश्वर ही पकड़ में आता है। इसलिए अज्ञानी कहता है—जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। ज्ञानी कहता है—ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या। उलटा हो जाता है। इस गणित को अगर आप खयाल रख लें और जीवन में थोड़ा—सा हुसका उपयोग करने लगें, तो आप पाएंगे, आप बदलने लगे, आप नए होने लगे।
इसका कैसे उपयोग करें? यह तो मैंने आपको तात्विक उदाहरण दिए। आचरण में इसका उपयोग हो सकता है। यह सूत्र बड़ा कीमती है। जब कोई गाली दे, तो आपको क्रोध पैदा होता है—यह सहज, प्राकृतिक, अज्ञानी मनुष्य की स्थिति है। ज्ञानी कहते हैं : जब कोई क्रोध करे, तो क्षमा पैदा हो। उलटा कर लेना है। जब कोई क्रोध करे, तो क्षमा करना; क्षमा के भाव को जन्माना। तुम्हारा जीवन नया हो जाएगा। जब कोई गाली दे और क्रोध तुम करो, तो तुम्हारा जीवन जैसा था, वैसा ही रहेगा। उसमें कोई रूपांतरण संभव नहीं है। क्योंकि तुम कोई बुनियाद बदल नहीं रहे हो।
जब कोई तुम्हारा आदर करे तो हम प्रफुल्लित होते हैं, प्रसन्न होते हैं। ज्ञानी ने कहा है, जब तुम्हारा कोई आदर करे, तब तुम उदास हो जाना, उपेक्षा से भर जाना। क्यों जब कोई आदर करता—है, सम्मान करता है तो हम प्रसन्न होते हैं? क्योंकि अहंकार तृप्त होता है। और अहंकार रोग है। इसलिए आपके दुश्मन आपको उतना नुकसान नहीं पहुंचा सकते, जितने आपके खुशामदी आपको नुकसान पहुंचा सकते हैं। क्योंकि वे आपके अहंकार को भर रहे हैं।
कबीर ने तो कहा है कि आगन कुटी छवाकर, जो तुम्हारी निंदा करते हैं, उनको अपने घर के पास ही बसा लेना। यह उलटा है। जो तुम्हें गाली देते हैं, उनको तुम मकान के बगल में ही बसा लेना, ताकि सुबह—शाम वे तुम्हें गाली देते रहें। क्योंकि जो तुम्हें गाली देता है, वह तुम्हारे अहंकार को तोड़ता है। और जो तुम्हारी प्रशंसा करता है, स्तुति करता है, वह तुम्हारे अहंकार को बढ़ाता है। और अहंकार ही महारोग है, वही दुख का आधार है, स्रोत है।
आचरण में इस सूत्र का अर्थ होगा कि जो सहज, प्राकृतिक प्रतिक्रिया मालूम होती है, वह मत करना, उससे उलटा करना। तुम्हारा जीवन धार्मिक होता चला जाएगा।
जीसस को सूली दी गई और अंतिम समय कहा गया कि तुम्हें कुछ कहना तो नहीं है? तो जीसस ने परमात्मा की तरफ हाथ उठाकर कहा कि इन सबको क्षमा कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।
जब तुम्हें कोई सूली दे रहा हो, तो तुम्हारे मन से अभिशाप निकल सकते हैं। वरदान के निकलने का कोई उपाय नहीं है। अभिशाप बिलकुल प्राकृतिक प्रक्रिया है। वह तो पशुओं से भी वही निकलेगा, पत्थर से भी वही निकलेगा। उसके लिए मनुष्य होने की कोई जरूरत नहीं है। वह तो जीवन का जड़ नियम है। जैसे पानी नीचे की तरफ बहता है और आग जलाती है, ऐसे ही पशुता क्रोध के उत्तर में दुगुना क्रोध पैदा करती है। वह पशुता का सहज नियम है। लेकिन पशु का अर्थ है : जो थिर है और जो गतिमान नहीं है। पशु का अर्थ है : जो जड़ है, रुका है और जिसके जीवन में कोई ऊर्ध्वगमन नहीं है।
संस्कृत का यह शब्द पशु बड़ा अदभुत है। संस्कृत के सभी शब्द अदभुत हैं। कोई भाषा इस अर्थ में वैज्ञानिक नहीं है जैसी संस्कृत है। एक—एक शब्द के पीछे पूरा तत्व—दर्शन है। और एक—एक शब्द को ऐसे ही कामचलाऊ ढंग से नहीं बना लिया गया है, बड़े विचार और बड़ी चितना से निखौरा गया है।
पशु शब्द बनता है पाश से। पाश का अर्थ होता है: जो बांध ले, बंधन। पशु का अर्थ है जो बन। हुआ है। पशु का अर्थ जानवर नहीं है; जो बंधा हुआ है, जो जकड़ा हुआ है, जो प्रकृति के अंधे नियमों का गुलाम है, जो स्वतंत्र नहीं है।
पशुता से ऊपर उठना हो तो प्रकृति जो सहज रूप से करने को कहे, उससे विपरीत को तुम अपनी साधना समझना। जब तुम्हारी कोई प्रशंसा करे तो तुम रोना, और जब तुम्हें कोई गाली दे तो तुम हंसना अगर जीवन इस एक छोटे—से सूत्र को मानकर चल पड़े, तो मोक्ष ज्यादा दूर नहीं है। और तुम्‍हें परमात्‍मा को खोजने नहीं जाना पड़ेगा, परमात्मा तुम्हें खोजता हुआ आ जाएगा। फिर उसकी तलाश की कोई जरूरत नहीं है।
एक बार तुमने जीवन की साधारण प्रक्रिया को बदलकर विपरीत किया कि तुम सत्य के जगत में प्रवेश कर गए, कि तुम उस पथ पर आ गए जहां से सत्य तुम्हें खींच लेगा।
अभी हम उलटे खड़े हैं। जिसे हम सीधा होना समझ रहे हैं, वह शीर्षासन है। हमें सब उलटा दिखाई पड़ रहा है। हमें पैर के बल खड़ा होना होगा। जैसे हम हैं, उससे उलटा हो जाना पड़ेगा।
सारे संतो का बस एक ही प्रयास है कि तुम्हारे जीवन की जो अंधी प्रक्रियाएं हैं, वे होशपूर्ण हो जाए। तुम जहां जड़ की तरह व्यवहार करते हो, यंत्र की तरह व्यवहार करते हो, वहां तुम सचेतन हो जाओ। और सचेतन कोई तभी होता है, जब प्रकृति का अतिक्रमण करता है। कोई गाली दे, तो क्रोध करने के लिए सचेतन होने की कोई भी जरूरत नहीं है।
क्रोध मूर्च्छा है। उसके लिए होश की कोई भी जरूरत नहीं है। लेकिन कोई गाली दे और क्षमा करना है, तो बहुत सावधान होना पड़ेगा; बहुत जागरूक होना पड़ेगा; बहुत चित्त को ऊंचाई पर उठाना पड़ेगा, भीतर की ज्योति को खूब जगमगाना पड़ेगा। तब भी डर है कि क्रोध की पुरानी आदत पकड़ ले और नीचे खींच ले। लेकिन बड़े मजे की प्रक्रिया है। अगर कोई व्यक्ति जीवन की सामान्य प्रक्रियाओं को उलटा करने लगे, तो बड़ा रस उपलब्ध होगा। तब पूरा जीवन एक प्रयोगशाला हो जाता है।
तब दूसरे भी बहुत चकित होंगे, क्योंकि दूसरे भी तभी चकित होते हैं जब वे पाते हैं कि तुम अंधे नहीं हो। दूसरे भी तभी चकित होते हैं और मुसीबत में पड़ते हैं, जब तुम उनके सहज अनुमान के अनुसार नहीं चलते हो।
बुद्ध को कोई गाली देता है तो बुद्ध चुपचाप सुन लेते हैं। बुद्ध के ऊपर कोई थूक जात है तो वह चुपचाप अपनी चादर से पोंछ लेते हैं। और जिसने धूका है, उस आदमी से कहते हैं, तमें: कुछ और कहना है? आनंद क्रोध से भर जाता है—उनका शिष्य—और वह कहता है, आप क्या कह रहे हैं इस आदमी से? यह पागल है और इसने आपके ऊपर थूका! मुझे आज्ञा दें तो मैं इसे ठीक करूं।
बुद्ध कहते हैं, उसे मैं क्षमा कर दूं क्योंकि वह नासमझ है, लेकिन तू इतने दिन से मेरे पास है और तू बिलकुल ही मूर्च्छित व्यवहार कर रहा है! यह आदमी कुछ कहना चाहता है, जो शब्दों में नहीं कहा जा सकता, इसलिए थूककर प्रगट कर रहा है।
थूकना एक भाषा है। बहुत बार भाव गहरा होता है, आप प्रगट नहीं कर पाते, किसी को गले लगा लेते हैं, वह एक भाषा है। कुछ इतना गहरा था हृदय में, जिसे शब्द नहीं कह पाते, तो आप छाती से लगा लेते हैं।
तो बुद्ध कहते हैं, कुछ भाव है इसके मन में बहुत गहरा, जिसको यह शब्द से नहीं कह पाता, थूककर जाहिर कर रहा है। बड़े गहरे क्रोध से भरा है, वह क्रोध शब्द से पूरा नहीं होगा। इसलिए मैं इससे पूछता हूं कि और भी कुछ कहना है? इतना कहा, यह समझा; कुछ और भी कहना है? कुछ इसकी व्याख्या भी करनी है?
वह आदमी तो बड़ा बेचैन हो गया। क्योंकि जब कोई आपके ऊपर यूके तो अपेक्षा करता है कि अब कुछ उपद्रव होगा। लेकिन यहां एक तात्विक चर्चा छिड़ जाए कि फना भी एक भाषा है और इस आदमी ने कुछ कहा है! तो वह आदमी थोड़ा बेचैन हुआ, उसे थोड़ा अपराध— भाव लगा होगा कि मैंने गलत आदमी पर धूक दिया। वह चला गया।
वह दूसरे दिन सुबह आया, बुद्ध के चरणों में सिर रखकर रोने लगा। उसकी आंख से आंसू बहने लगे। उसने कहा कि मुझे क्षमा कर दें। मैं कल आपके ऊपर धूक गया था। मुझसे बड़ी भूल हो गई। मैं पीछे पछताया। मैं रातभर सो नहीं सका। बुद्ध ने कहा, तू बिलकुल नासमझ है। उस बात को बीते कितना समय हो गया! तब से गंगा का कितना पानी बह गया! अब उसको तू याद क्यों रखे है? और तूने यूका था, हमने उसे लिया नहीं था, इसलिए व्यर्थ पश्चात्ताप मत कर। तूने यूका होगा, लेकिन हमें कोई चोट नहीं पहुंची, इसलिए तू व्यर्थ पश्चात्ताप मत कर।
और बुद्ध ने आनंद से कहा, आनंद! देख, यह आदमी फिर कुछ कहना चाहता है। लेकिन बात इतनी गहन है कि नहीं कह पाता, तो इसने आसुओ से पैर धो डाले।
व्यक्ति जैसे ही जीवन की सामान्य धारा के ऊपर अपने को उठाना शुरू करता है, एक बड़ी रसपूर्ण प्रक्रिया शुरू होती है। और एक बहुत मधुर और एक बहुत मीठी यात्रा का प्रारंभ होता है, जो रोज—रोज मधुर होती जाती, रोज—रोज मीठी होती जाती है, रोज—रोज सुगंधित होती जाती है, और भीतर एक रस झरने लगता है। इस यात्रा के अंत में ही अमृत की वर्षा है।
लेकिन जैसे हम हैं, जहा हम हैं, हम बिलकुल उलटे हैं। हम वही कर रहे हैं, जो नहीं करना चाहिए। हम वैसे ही जी रहे हैं, जैसा नहीं जीना चाहिए। हम अपने ही हाथ से काटे बो रहे हैं और अपने ही हाथ से मार्ग पर पत्थर रख रहे हैं, जिनकी वजह से यात्रा असंभव हो जाएगी। हम अपने ही दुश्मन हैं।
तत्व और आचरण दोनों में यह सूत्र खयाल में आ जाए कि हमारी बुद्धि विपरीत देख रही है, तो जीवन के रूपांतरण की कुंजी आपके हाथ में उपलब्ध हो जाती है।
इसका मूलभूत तत्व वह परमेश्वर है वही ब्रह्म है और वही अमृत है। सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था। उसको कोई लाघ नहीं सकता। उसके पार जाने का कोई उपाय नहीं है। उसको ट्रासेंड नहीं किया जा सकता। परमात्मा का अर्थ ही यही है कि जो अंत है, कि जो आखिरी है—सीमांत—जिसके पार कुछ शेष नहीं रह जाता। अगर उसके पार कुछ शेष रह जाता है, तो वह परमात्मा नहीं है।
इसे ऐसा समझें कि जब तक आपके मन में पाने की कोई कामना है, तब तक आप परमात्मा नहीं हैं। जिस दिन आपके मन में पाने की कोई कामना न रही, उसका अर्थ हुआ कि अब आगे जाने को कुछ भी न बचा, उस दिन आप परमात्मा हो गए।
इसलिए ज्ञानियों ने परमात्मा की परिभाषा की है—निर्वासना से भरी हुई चेतना। क्योंकि वासना अतिक्रमण करना चाहती है—और आगे, और आगे। और वासना अनेक रूप लेती है, वह कहीं भी तृप्त नहीं होती। अगर आप इसी क्षण, जैसे हैं वहीं तृप्त हो जाएं और कह दें कि बस आगे और कुछ भी मांग नहीं है—कहने से नहीं होगा, यह भीतर भाव प्रविष्ट हो जाए—तो इसी क्षण आपका सब अंधकार गिर जाए और आप परमात्मा हो जाएं।
परमात्मा का अर्थ है : इसी क्षण में पूर्ण तृप्ति, जिसके पार कुछ भी नहीं बचता।
लेकिन आदमी बहुत उपद्रवी है। अगर वह एक तरफ से अपने उपद्रव को छोड़ता है, तो तभी छोड़ता है जब दूसरी तरफ अपने उपद्रव को तैयार कर लेता है।
एक मित्र मेरे पास आए। वृद्ध हैं। रो रहे थे। बड़े भाव से भरे थे। रोकर कह रहे थे कि मेरी कुंडलिनी अभी तक जगी नहीं। बीस वर्ष से भटक रहा हूं। न—मालूम कितने आश्रम, कितने गुरु, कितनी साधनाएं कर चुका हूं लेकिन कुंडलिनी नहीं जगी।
उनके भाव में कमी नहीं है, उनकी खोज में कमी नहीं है, लेकिन उनकी मौलिक दृष्टि आत है। वे कुंडलिनी को ऐसे ही खोज रहे हैं, जैसे कोई धन को खोजता हो। और न मिले तो रोता हो। न मिले तो परेशान हो, पीड़ित हो, संतप्त हो। कुंडलिनी उनका लोभ बन गई है।
और ध्यान रहे, इस आंतरिक यात्रा की यही सबसे बड़ी कठिनाई है कि वहा लोभ के द्वारा कोई भी प्रवेश नहीं हो सकता। वहां तृप्ति के द्वारा प्रवेश है।
जो नहीं मिला है, उसकी फिक्र छोड़े; जो मिला है, उसका अनुग्रह मानें और प्रवेश बढ़ता जाएगा। लेकिन वे परेशान हैं। इस परेशानी से कुंडलिनी जाग्रत होने वाली नहीं है। उस परेशानी से ही रुकी है। बीस साल की खोज के कारण नहीं मिली, ऐसा नहीं है। बीस साल की खोज के कारण ही रुकी है। वह जो अति तनाव है पाने का, उसी से भीतर सब सिकुड़ गया है।
जहां पाने का तनाव रहेगा, वहां हम संसार में हैं। यह पाने की दौड़ संसार है। और न पाने के लिए राजी हो जाना, संसार से बाहर हटने लगना है।
एक आदमी धन के लिए दौड़ रहा है। एक आदमी पद के लिए दौड़ रहा है। एक आदमी यश के लिए दौड़ रहा है। और एक आदमी मोक्ष के लिए दौड़ रहा है। फर्क क्या है? कोई भी फर्क नहीं है। मोक्ष के लिए दौड़ा ही नहीं जा सकता। मोक्ष तो खड़े होने वाले को मिलता है।
धन के लिए दौड़ा जा सकता है, क्योंकि धन खड़े होने वाले को नहीं मिलता। दौड़ने वाले को भी नहीं मिल पाता है, तो खड़े होने वाले को तो मिलने का कोई उपाय नहीं है। धन, पद, यश, सब दौड़े हैं। मोक्ष दौड़ नहीं है। मोक्ष ठहर जाना है, रुक जाना है।
एक साधिका ने आज ही मुझे आकर कहा कि अभी तक कोई अनुभव नहीं हो रहा है! अनुभव करना क्या है? प्रकाश दिखाई पड़ने लगे तो कुछ हो जाएगा? कि भीतर रंग दिखाई पड़ने लगें तो कुछ हो जाएगा? कि भीतर कोई सुगंध आने लगे तो कुछ हो जाएगा? या आपके हाथ से राख झड्ने लगे तो कुछ हो जाएगा न: कि ताबीज निकलने लगे तो कुछ हो जाएगा? कि आप बीमारों को छू दें और वे ठीक हो जाएं तो कुछ हो जाएगा? वह सब खेल संसार का है और मन का है।
अनुभव की तलाश लोभ है। उस तलाश को गिर जाने दें। अनुभव को नहीं चाहिए; अनुभोक्ता को। वह जो अनुभव करने वाला है, उसकी पहचान। अनुभव तो फिर भी पराए हैं, बाहर हैं। अध्यात्म अनुभव नहीं है। अध्यात्म, अनुभव जिसको होते हैं, उसके साथ एक हो जाना है। जिसके सामने प्रकाश आते है, और जिसके सामने सुगंधें तैरती हैं, और जिसके सामने रंगों की बहार आ जाती है और इंद्रधनुष फैल जाते हैं, और जिसके भीतर संगीत बजने लगता है...। लेकिन ये सब बाहर ही हैं। चाहे आंख बंद करके ये घटनाएं घट रही हों, तो भी बाहर हैं। इनको जानने वाला तो और भीतर है। जानने वाला हमेशा, जिसे भी जानता है, उससे भीतर है, पीछे है, पार है। और जब तक आप जानने वाले में न ठहर जाएं, तब तक अध्यात्म का कोई स्वाद आपको नहीं मिल सकता।
तो कोई बाहर का सेंसेशन खोज रहा है कि चलो फिल्म देखें, रेडियो सुने; कोई नायिका आई, कोई नर्तकी आई—उसको देखें। कोई बाहर का रूप—रंग खोज रहा है; कुछ भीतर के रूप—रंग खोज रहे हैं, कि चलो कुंडलिनी जगाएं, भीतर का प्रकाश देखें, कि भीतर का आनंद लें, लेकिन खोज वही है कि कुछ सेंसेशन, कोई उत्तेजना। दोनों ही अध्यात्म नहीं हैं।
अध्यात्म तो उसकी तलाश है, उस चैतन्य की, उस साक्षी— भाव की, जहा सब अनुभव समाप्त हो जाते हैं और केवल अनुभोक्ता रह जाता है। जहां सब दृश्य खो जाते हैं और केवल द्रष्टामात्र रह जाता है। जहा सब ज्ञेय समाप्त हो जाते हैं और मात्र शाता शेष रह जाता है। उस केवल—ज्ञान की, उस कैवल्य की खोज अध्यात्म है।
सब लोक उसी के आश्रित हैं। कोई भी उसको लांघ नहीं सकता। यही है वह परमात्मा जिसके विषय में तुमने पूछा था।
तो जिस दिन आप उस घड़ी में पहुंच जाएं जहां लांघने को कुछ न बचे, समझना कि आ गया घर। समझना कि आ गया वह मंदिर, जिसकी तलाश थी। यह इसी क्षण भी हो सकता है। क्योंकि परमात्मा का समय से कोई संबंध नहीं है कि साल लगेगी कि दो साल लगेगी, कि दो जन्म लगेंगे कि पचास जन्म लगेंगे। आप के ऊपर निर्भर है। अनंत जन्म लग सकते हैं। और एक क्षण भी काफी है।
यह बोध साफ हो जाए कि नहीं कुछ लांघना है, नहीं कहीं जाना है, नहीं कुछ पाना है। जो भी मैं हूं वहीं परम तृप्ति का भाव सजग हो जाए, तृप्ति का दीया जल जाए—इसी क्षण आप उसमें प्रवेश कर गए, जिसको लांघने का कोई उपाय नहीं। जो लाघने की कोशिश कर रहा है, वह संसार में भटकता रहेगा।
हम सब लांघने की कोशिश कर रहे हैं—और! और! कुछ भी हो। चाहे कुंडलिनी हो और चाहे धन हो—और! और चाहिए! कुछ भी हमें मिल जाए और की दौड़— धूप नहीं मिटती। वह और की आपाधापी भीतर जारी रहती है—और! और! यह और ही संसार है।
जो है, उससे राजीपन। जितना है, उससे स्वीकार। जो है, उससे एक तथाता का भाव। एक परम अहोभाव, उसको लाघने की कोई वृत्ति नहीं।
लाघने की वृत्ति का नाम महत्वाकाक्षा है, एंबीशन है। दस रुपये पास हों, तो लांघने की वृत्ति कहती है कि सौ के बिना कैसे चलेगा? सौ पास हों, तो लाघने की वृत्ति कहती है : हजार के बिना कैसे चलेगा? और यह वृत्ति कभी समाप्त नहीं होती।
एंड्रू कारनेगी मरा तब उसके पास दस अरब रुपये थे। मरने के दो दिन पहले उसने कहा कि मैं अतृप्त मर रहा हूं क्योंकि मेरे इरादे सौ अरब रुपये इकट्ठे करने के थे।
दस अरब केवल! जैसे कोई भिखमंगा कहे, दस पैसे केवल! दस नए पैसे! दस अरब केवल! सौ अरब की योजना थी। और यह मत सोचिए कि सौ अरब से कोई फर्क पड़ जाता। दस अरब से जब कोई फर्क नहीं पड़ा, सौ अरब से क्या फर्क पड़ने वाला था? जब तक आप सौ अरब पर पहुंचते हैं, तब तक आपकी महत्वाकांक्षा हजार अरब पर पहुंच चुकी होगी। वह सदा आपके आगे है। जैसे छाया पीछे चलती है, वैसे महत्वाकाक्षा आगे चलती है। जहां आप पहुंच जाते हैं, वह सदा उसके आगे होती है।
बायजीद सूफी फकीर ने कहा है कि महत्वाकाक्षा आकाश के क्षितिज की भांति है। आपके और क्षितिज के बीच फासला हमेशा वही रहता है, चाहे आप कितनी ही यात्रा करें। क्योंकि क्षितिज कहीं है नहीं, सिर्फ भासता है। दूर लगता है कि आकाश जमीन को छू रहा है। आकाश जमीन को कहीं भी नहीं छूता। बढ़ें तो ऐसा लगता है, जैसे अभी कुछ ही समय में पहुंच जाएंगे उस जगह जहां आकाश जमीन को छू रहा है। जितना आप बढ़ते जाते हैं, उतना ही क्षितिज आगे बढ़ता जाता है। वह और आगे छूता है, फिर और अणे छूता है। आप पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर अपनी जगह पर वापस लौट आएं, तब भी वह उतना ही आगे छूता रहता है। वह छूता नहीं, सिर्फ छूता हुआ मालूम पड़ता है।
आपके और क्षितिज के बीच के फासले को कम करने का कोई भी उपाय नहीं है। आप सोचते हों कि पैदल चलने से पूरा नहीं होता, तो शायद कार में चलने से पूरा होगा, या हवाई जहाज में उड़ने से पूरा होगा। नहीं, कोई उपाय ही नहीं है, क्योंकि क्षितिज की कोई रेखा वस्तुत: नहीं है। नहीं तो उपाय हो सकता था। वहां सिर्फ रेखा भासती है। वहां है नहीं; प्रतीत होती है।
महत्वाकांक्षा की रेखा क्षितिज की भांति है। बस लगता है कि दस अरब पर रेखा है, जब तक आप दस अरब की रेखा पर पहुंचते हैं, पाते हैं कि रेखा आगे हट गई, फासला उतना का उतना है। यह बड़े मजे की बात है। इस लिहाज से देखने पर एक बड़ी गहरी आर्थिक प्रक्रिया समझ में आ जाती है। दुनिया में गरीब और अमीर के बीच धन का कितना ही फर्क हो, गरीबी का फर्क नहीं होता।
एक आदमी के पास दस पैसे हैं, उसको सौ पैसे की चाह है। वह नब्बे पैसे से गरीब है। एक आदमी के पास दस रुपये हैं, उसे सौ रुपये की चाह है, वह नब्बे रुपये से गरीब है। वह नब्बे का आकड़ा बराबर चलेगा। दस अरब हों, तो सौ अरब की चाह है। वह नब्बे का आकड़ा बराबर कायम रहता है। वह क्षितिज और आदमी के बीच की दूरी है—वह नब्बे। आपके पास कितना है, क्या है, इससे कोई सवाल नहीं, लेकिन आप नब्बे गुना गरीब, नब्बे के फासले से गरीब बने रहेंगे।
भिखमंगा और सम्राट दोनों बराबर गरीब होते हैं। उनके खाते—बही में आकड़े अलग—अलग होते हैं, लेकिन दोनों की आकांक्षा मानवीय आकांक्षा है। जितना होता है, उससे एक खास फासले पर आकांक्षा होती है। कि आप सोचते हैं कि एक भिखमंगा खड़ा हो और एक सम्राट खड़ा हो, तो क्षितिज की रेखा दोनों के लिए अलग—अलग होगी? क्षितिज की रेखा दोनों के लिए बराबर होती है। और दोनों ही यात्रा करें, सम्राट अपनी पूरी संपत्ति के साथ, और गरीब अपनी पूरी दीनता के साथ, जहां भी वे खड़े होंगे, वहां से फासला उतना ही होगा जितना पहले था। और दोनों के फासले में कभी कमी—ज्यादा नहीं आएगी।
दुनिया में दो तरह के गरीब हैं। एक, जिनके पास धन है; और एक, जिनके पास धन नहीं है। बाकी गरीबी में कोई भेद नहीं है।
तो फिर अमीर— कौन हो सकता है? अमीर वही हो सकता है जिसकी क्षितिज—रेखा आगे नहीं, पैर के नीचे है। इसका ही अर्थ है तृप्ति—जिसकी क्षितिज—रेखा पैर के नीचे है; जो क्षितिज को वहां देखता है जहां उसका पैर है; जो कहता है, जहा मेरा पैर पड़े वहीं आकाश जमीन को छूता है, और कहीं भी नहीं। जिस दिन कोई व्यक्ति इस भाव से भर जाता है, उस भाव का नाम संन्यास है, वीतरागता है, तृप्ति है। या हम जो भी नाम देना चाहें। वह व्यक्ति दौड़ से मुक्त हो गया।
जो दौड़ से मुक्त है, वह लांघने के पागलपन से मुक्त है। जो लाघने के पागलपन से मुक्त है, वह उस परमात्मा में प्रवेश कर जाता है जिसे लांघने का कोई भी उपाय नहीं।
परब्रह्म परमेश्वर से निकला हुआ यह जो कुछ भी संपूर्ण जगत है उस प्राणस्वरूप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है। इस उठे हुए वज के समान महान भयस्वरूप सर्वशक्तिमान परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं अर्थात जन्म—मरण से छूट जाते हैं।
यहां एक बहुत महत्वपूर्ण शब्द का प्रयोग है। सोचने जैसा है। क्योंकि जगत में परमात्मा की तरफ यात्रा करने वालों की दो श्रृंखलाएं हैं, दो धाराएं हैं। एक कहती है कि परमात्मा प्रेमस्वरूप है और एक कहती है कि परमात्मा भयस्वरूप है। दोनों बड़ी विपरीत हैं।
तुलसीदास ने कहा है, भय बिन होइ न प्रीति। परमात्मा का अगर भय न हो, तो प्रेम न होगा। लेकिन वह जो प्रेमस्वरूप मानती है—जैसे जीसस ने कहा है गॉड इज लव, परमात्मा प्रेम है—वह दूसरी धारा कहेगी कि जहां भय हो, वहा प्रेम तो हो ही नहीं सकता। आप जिससे भयभीत हैं, उससे घृणा कर सकते हैं, प्रेम कैसे? जहा भय पैदा हो जाएगा, वहां आप डर के कारण झुक सकते हैं, लेकिन आदर नहीं हो सकता। भय के कारण आप पैरों पर सिर रख सकते हैं, लेकिन समर्पण नहीं हो सकता। प्रेम का तो कोई उपाय नहीं है, जहां भय है।
लेकिन जो कहते हैं कि परमात्मा भयस्वरूप है और उसके भय से ही चांद—तारे चल रहे हैं, उसके भय से ही प्रकृति अपनी लीक पर कायम है, उसके भय के कारण ही सब व्यवस्था है। उसका भय टूट जाए तो सारी व्यवस्था टूट जाए। उसके भय के कारण अनुशासन है। उनके कहने की भी बात समझने जैसी है। दोनों धाराएं समझने जैसी हैं। और दोनों धाराएं उस तक ले जाती हैं।
प्रेम की बात समझनी बहुत आसान है कि परमात्मा प्रेमस्वरूप है। होना ही चाहिए। परम प्रेम, परम प्रेम का धाम, और उससे प्रेम की धाराएं हमारी तरफ बह रही हैं। यह बात बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि हमारी धारणा परमात्मा के प्रति वही होती है, जो हमारी धारणा पिता और मा के प्रति होती है। इसलिए हमने अकारण ही परमात्मा को पिता, महापिता, या मां या माता नहीं कहा है। कारण से कहा है।
फ्रायड जैसे मनोवैशानिक तो कहते हैं कि परमेश्वर की धारणा पिता की धारणा का ही विस्तार है, उसका ही प्रक्षेप है। जो बच्चे पिता के पास बड़े होते हैं, और जो पिता के प्रेम से भर जाते हैं, और पिता के प्रति आदर से भर जाते हैं, वे बच्चे बाद में धार्मिक हो जाएंगे। और जो बच्चे पिता के प्रति अवश। से भर जाते हैं, विरोध—विद्रोह से भर जाते हैं, वे बच्चे बाद में नास्तिक हो जाते हैं। पिता और बेटे के बीच कैसा संबंध है, इस पर निर्भर करेगा कि व्यक्ति और परमात्मा के बीच कैसा संबंध होगा। फ्रायड की इस बात में अर्थ है।
लेकिन पिता की तरफ भी अगर हम ध्यान दें, तो वहां भी दो धाराएं मौजूद हो जाती हैं। पिता प्रेम भी करता है, लेकिन पिता से बच्चा भयभीत भी होता है। अकेला प्रेम ही नहीं है पिता, साथ में भय भी है। और बडा भय तो यही है कि वह चाहे तो अपने प्रेम को देने से रोक सकता है।
बड़ा भय क्या है बच्चे के सामने? मां या पिता चाहें, तो प्रेम देने से वे वंचित कर सकते हैं। वह भय भी है। वे प्रेम भी दे सकते हैं, वे प्रेम देने से रोक भी सकते हैं। और बच्चे के लिए इससे बडी भय की कोई बात नहीं होती। क्योंकि असहाय है बच्चा और पिता और मां का प्रेम उसे न मिल सके, तो वह खत्म हो जाएगा। तो मृत्यु का भय मालूम होता है। अगर मां इतना ही मुंह फेर ले, कह दे कि नहीं, मुझे तुझसे कुछ भी लेना—देना नहीं, तो बच्चे की पीड़ा हम नहीं समझ सकते हैं कि कितनी भयंकर हो जाती है।
जिससे हम प्रेम करते हैं, उसके साथ—साथ छाया में छिपा हुआ भय भी है। और वह भय इस बात का है कि प्रेम नष्ट हो सकता है, प्रेम टूट सकता है, प्रेम न दिया जाए, यह हो सकता है। प्रेम के और हमारे बीच में अवरोध आ सकते हैं।
इसलिए बाप से बेटा सिर्फ प्रेम ही नहीं करता, भयभीत भी होता है। ये दोनों ही भाव साथ जुड़े रहते हैं। और बड़ी कला यही है, इन दोनों के बीच संतुलन पिता स्थापित कर ले। नहीं तो हर हालत में अयोग्य पिता सिद्ध होता है। और योग्य पिता होना बड़ा कठिन है। बच्चे पैदा करना बिलकुल आसान बात है। उससे आसान और क्या होगा! लेकिन पिता होना बड़ा कठिन है। मा होना बड़ा कठिन है; जन्म देना बिलकुल आसान है।
कठिनाई यही है कि भय और प्रेम के बीच संतुलन स्थापित करना है। अगर बाप इतना ज्यादा भयभीत कर दे बेटे को कि बेटे की आस्था ही प्रेम से उठ जाए, तो भी बेटा नष्ट हो जाएगा। क्योंकि जिंदगीभर अब वह किसी को प्रेम न कर सकेगा।
जिस बच्चे को प्रेम नहीं मिला हो बचपन में, वह बिना प्रेम के ही जीएगा। वह बातें कितनी ही प्रेम की करे, कविताएं लिखे, शास्त्र रच डाले, लेकिन प्रेम उसके जीवन में नहीं होगा। वह प्रेम का पहला जो संस्पर्श था, जिससे प्रेम का बीज जमता, वह नहीं जम पाया। अगर मां और बाप बेटे को प्रेम न कर सकें, तो बेटा फिर किसी को प्रेम नहीं कर पाएगा। और वह जो क्रुद्ध बेटा है, वह सब तरफ से विनाश का कारण हो जाएगा।
आज सारी दुनिया में विद्यालय, विश्वविद्यालय बड़े उत्पात के कारण बने हैं। विशेषकर पश्चिम के मुल्कों में बहुत भयंकर आग है। पूरब के मुल्कों में भी फैल रही है। क्योंकि पूरब के शिक्षालय भी पूरब के नहीं हैं, वे भी पश्चिम की अनुकृतिया हैं, नकल हैं। तो वहां जो बीमारी पैदा होती है, वह कोई तीन—चार साल में पूरब में आ जाती है। उसमें भी हम पीछे हैं। वहा दवा कोई नई होती है, उसको भी तीन साल लग जाते हैं, हमारे मुल्क के अस्पताल में उपयोग में आए तब तक। वहां कोई बीमारी भी पैदा होती है, उसको भी आने में वक्त लग जाता है। हम हर हालत में पीछे हैं।
वहा युवकों का एक भारी विद्रोह चल रहा है पुरानी पीढ़ी के खिलाफ, शिक्षा के खिलाफ, संस्कृति के खिलाफ, समाज के खिलाफ। अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि उसका मूल कारण यही है कि इन बच्चों को इनके मां—बाप से प्रेम नहीं मिला; यह पीढ़ी बिना प्रेम के बड़ी हुई है। और पश्चिम में प्रेम का उपाय कम हो गया है। क्योंकि करीब—करीब बच्चे इसके पहले कि बड़े हों, तलाक हो जाते हैं। सौ विवाह में पचास तलाक हो रहे हैं। तो पचास परिवार विच्छिन्न हो रहे हैं। बाप बदल जाते हैं, मां बदल जाती है। सौतेली मां के पास बड़ा होना पड़ता है, या सौतेले बाप के पास बड़ा होना पड़ता है। जिंदगी की जो प्रेम की धारा है, वह सब जगह से टूट जाती है।
ये पिछले तीस वर्षों में पश्चिम में तलाक के बढ़ने के साथ जो बच्चे पैदा हुए हैं, इनको प्रेम नहीं मिला। ये उसका बदला ले रहे हैं। ये प्रेम नहीं कर सकते। ये विध्वंस से भर गए हैं। प्रेम सृजनात्मक है। और जब प्रेम न मिले तो आदमी तोड़ने लगता है, नष्ट करने लगता है।
हिटलर के ऊपर जिन लोगों ने अध्ययन किया है, वे कहते हैं, हिटलर को उसकी मां का और पिता का प्रेम नहीं मिला। उस न मिलने के कारण, इतना भयंकर युद्ध हुआ। हिटलर तोड़ना चाहता था, सब तरह से नष्ट करना चाहता था। बनाने में उसका कोई रस नहीं था, क्योंकि प्रेम न हो तो बनाने में रस होता ही नहीं।
जिस दिन आपके जीवन में प्रेम आता है, उसी दिन सृजन आता है। एक युवक एक युवती के प्रेम में पड़ता है, तत्थण घर बसाने की सोचने लगता है। तत्‍क्षण घर को कैसे सजाना, कैसे कमाना, एक सृजनात्मक प्रक्रिया शुरू हो जाती है। जहा प्रेम न हो, वहा विध्वंस की धारा पकड़ जाती है।
सारी दुनिया में चल रहे युवकों के विद्रोह प्रेम की कमी के कारण हैं। और सारी दुनिया में युवक नास्तिक होते जा रहे हैं। होंगे ही। क्योंकि जिनको पिता का और मां का प्रेम न मिला हो, वे कल्पना भी नहीं कर सकते कि इस जगत का कोई पिता और मां है। और अगर हो भी, तो वह गोली मार देने योग्य है। उसकी पूजा करने का कोई सवाल नहीं है।
मां या पिता के होने की कला यह है कि अकेला भय अगर हो...। जो कि बहुत जो अनुशासन को थोपने वाले बाप होते हैं, या मां होती हैं, वे अपने सब तरह के प्रेम को रोक लेते हैं, कि कहीं बेटा प्रेम के कारण बिगड़ न जाए! वे उसे भयभीत करते हैं, डंडे के बल पर उसको सुधारने की कोशिश में लगे रहते हैं। वह सुधार अंततः विकृति सिद्ध होता है।
लेकिन दूसरी तरफ धी खाई है। कुछ मां —बाप इस डर से—और पश्चिम के मनोवैशानिको ने बहुत डरा दिया है कि बच्चे को जरा भी भयभीत मत करना, उसे जरा भी डराना मत, उस पर जरा भी कुछ थोपना मत, अनुशासन मत लादना, नहीं तो वह विद्रोही हो जाएगा—तो मां—बाप डर गए हैं। सिर्फ प्रेम करना, अकेला प्रेम भी जहरीला हो जाता है। क्योंकि अकेले प्रेम का मतलब स्वच्छंदता हो जाता है। और तब बेटों को लगता है कि प्रेम उनका अधिकार है। तुम्हें प्रेम देना ही पड़ेगा। प्रेम को अर्जित करने का कोई सवाल नहीं है कि बैटा कुछ करे और प्रेम अर्जित करे। नहीं, बेटे का हक है। कर्तव्य कुछ भी नहीं है।
और अगर मां—बाप सिर्फ प्रेम दें और भय की कोई भी उपस्थिति न हो, तो भी बेटा बिगड़ जाता है। तब वह सारी दुनिया से प्रेम मांगता है। दुनिया आपकी मां—बाप नहीं है। दुनिया कोई आपको प्रेम देने के लिए नहीं बैठी है। दुनिया में जब आप जाएंगे, तो वहा संघर्ष है, प्रतियोगिता है, युद्ध है। वहा कोई आपके लिए प्रेम देने नहीं बैठा है।
और जिसके मां—बाप ने सिर्फ प्रेम दिया है, वह कोमल हो जाता है। वह इतना कोमल हो जाता है कि संघर्ष में वह टिक नहीं पाता, वह टूट जाता है। वह सब से प्रेम की आशा करता है। वह सब तरफ हाथ फैलाए रहता है कि मुझे प्रेम करो। और उसे एक बात भूल ही गई है कि संसार प्रेम देगा, लेकिन तुम्हें उसका प्रेम अर्जित करना पड़ेगा। तुम्हें कुछ करना पड़ेगा अपने जीवन में। तुम्हें कमाना पड़ेगा प्रेम। मुफ्त नहीं मिलेगा।
मां —बाप का प्रेम मुफ्त मिल सकता है। इस जगत में फिर प्रेम मुफ्त नहीं मिलेगा। पत्नी का प्रेम भी मुफ्त नहीं मिलेगा, उसको भी अर्जित करना होगा। तो फिर बच्चा मां—बाप की तलाश कर रहा है। तो वह हो सकता है ईश्वरवादी हो जाए। और बैठा मंदिर में हाथ जोड़े ऊपर आकाश में कहे कि हे पिता! हे परम पिता!! मगर जीवन उसका बांझ होगा। क्योंकि जीवन में संघर्ष से जो प्रौढ़ता आती है, जो शक्ति आती है, वह उसके पास नहीं होगी।
इसलिए अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मां और बाप के होने की कला यह है कि भय और प्रेम के बीच एक संतुलन हो। इतना भय कि बच्चा बगावती न हो जाए और इतना प्रेम की बच्चा मुफ्त प्रेम को मांगने का आदी न हो जाए। यह बड़ी जटिल है बात। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई रस्सी पर—दो पहाड़ों के बीच बंधी हुई रस्सी पर—कोई नट चलता हो, तो उसे पूरे वक्त बैलेंस, संतुलन सम्हालना पड़ता है। जरा ही बाएं झुकता है, तो दाएं झुक जाता है, ताकि बाएं न गिर जाए। और जैसे ही दाएं झुकता है कि दाएं गिरने की हालत आ जाती है, तो बाएं झुक जाता है। दाएं गिरने का डर पैदा होता है, तो बाएं झुकता है।
जरा ही भय से डर पैदा होता है तो प्रेम, जरा ही प्रेम से भय पैदा होता है तो डर। दोनों के बीच जो रस्सी की तरह, रस्सी पर चलने वाले नट की तरह अपने को सम्हाल ले, वही कुशल पिता और कुशल मां हो सकते हैं।
परमात्मा के संबंध में भी दो ही दृष्टियां हैं।
ईसाइयत मानती है कि परमात्मा प्रेम है। और जीसस और यहूदी— धर्म का विरोध यही था, क्योंकि यहूदी— धर्म मानता है—परमात्मा भयावह है.। यहूदी शास्त्र यम के इस वचन से राजी हो जाएंगे कि वह उठे हुए वज की भांति भयस्वरूप है। वह पूरे समय अपने हाथ में शस्त्र लिए हुए है। जरा—सी बात, और वह नष्ट कर देगा। जरा—सी नाराजगी, और आग बरसा देगा। जरा—सा क्रोध, और प्रलय हो जाएगा। यहूदी—धर्म भय के ऊपर आधारित है। वह कहता है, परमात्मा जो है वह भयंकर है। विराट ऊर्जा है वहां। और वह विराट ऊर्जा प्रेमपूर्ण नहीं है।
इसे थोड़ा हम समझें। वह विराट ऊर्जा प्रेमपूर्ण नहीं है, वह विराट ऊर्जा तो जो उसके अनुकूल चलता है, बस उसी के लिए कृपापूर्ण है। जो उसके विपरीत चलता है, उसे नष्ट कर देती है।
यह बात कविता में बहुत अच्छी नहीं मालूम पड़ती, लेकिन विशान इससे राजी है कि जगत का कोई भी नियम प्रेमपूर्ण नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आपका दुश्मन है।
जमींन में कशिश है, ग्रेविटेशन है। अगर आप जरा ही इरछे —तिरछे चले, तो गिरेंगे। हाथ—पैर की हड्डी टूट जाएगी। जमीन की कशिश आपको माफ नहीं करेगी, कि तुम कहते थे, हे पृथ्वी माता! कि तुमने कई दफा सिर झुकाकर पृथ्वी के चरण छुए थे! अगर आप तिरछे चले, तो हड्डी टूटेगी। उस वक्त पृथ्वी माता कुछ भी दया नहीं करेगी। नियम के विपरीत आप गए कि आप नुकसान उठाएंगे। लेकिन आप सम्हलकर चलते रहें, तो पृथ्वी आपकी हड्डी तोड़ने को जरा भी उत्सुक नहीं है।
विज्ञान भी कहता है कि जगत के नियम प्रेमपूर्ण नहीं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वे आपके दुश्मन हैं। इसका कुल इतना मतलब है कि वे तटस्थ हैं। और आप अगर अनुकूल चलते हैं, तो आप सुख को उपलब्ध होंगे। अगर प्रतिकूल चलते हैं, तो दुख को उपलब्ध होंगे।
पुराने धर्मों की भाषा में, यहूदी और उस तरह के, जिन्होंने भयस्वरूप माना है परमेश्वर को, उनका भी कहना यही है कि वह आपका दुश्मन नहीं है। लेकिन वह शाश्वत नियम है। अगर आप उसके अनुकूल चलते हैं, तो परम मोक्ष तक पहुंच जाएंगे। और अगर प्रतिकूल चलते हैं, तो महानर्क में पड़ जाएंगे।
यम भी नचिकेता को उसके भयस्वरूप का वर्णन कर रहा है। कारण भी है कि यम भयस्वरूप का वर्णन करे। क्योंकि यम स्वयं भय की ही प्रक्रिया है। यम का अर्थ है, मौत का देवता। मौत का देवता प्रेम की बात भी कैसे करे? मौत का देवता भय की ही बात करेगा।
और यम की यह बात आधी सच है कि परमात्मा से सिर्फ जो प्रेम की ही आशा रखेंगे, वे नष्ट हो जाएंगे। क्योंकि वै अपने को बदलने की कोई भी कोशिश न करेंगे। जो परमात्मा से भयभीत भी होंगे और जो समझेंगे कि अगर मैं अनुकूल नहीं हूं तो मेरी स्तुतियां काम आने वाली नहीं हैं, मेरी खुशामद से परमात्मा नहीं बदला जा सकता, केवल मेरे आचरण से...। वह भी मैं परमात्मा को नहीं बदलता हूं अपने को बदलता हूं—'जब मेरा आचरण ठीक होता है और मैं परमात्मा की धारा में बहता हूं।
जब कोई आदमी नदी की धारा में बहता है तो नदी उसे ले चलती है सागर की तरफ। और जब कोई आदमी नदी के विपरीत लड़ता है तो नदी भयावह हो जाती है। परमात्मा भयावह है, अगर हम विपरीत हैं। परमात्मा प्रेमपूर्ण है, अगर हम अनुकूल हैं। अगर हम नदी की धारा में बह रहे हैं, तो परमात्मा हमें ले चलेगा। फिर हमें तैरने की भी जरूरत नहीं है, हमें हाथ भी हिलाने की जरूरत नहीं है, नदी खुद ले चलेगी। 
रामकृष्ण कहते थे, तुम सिर्फ उसकी हवा का रुख पहचान लो, फिर तुम अपनी नाव का पाल खोल दो। फिर तुम्हें पतवार भी न चलानी पड़ेगी, फिर नाव, उसकी हवाएं ले चलेंगी गंतव्य की ओर। लेकिन तुम उसकी हवा का रुख पहचान लो। और अगर तुम हवा के विपरीत चले, तो तुम्हें बड़ी मेहनत करनी पड़ेगी, और मेहनत करके भी तुम सफल न हो पाओगे, सिर्फ टूटोगे। क्योंकि विराट से लड़कर कोई भी सफल नहीं हो सकता।
भयावह का अर्थ इतना ही है कि विराट से तुम लड़ना मत, विराट के प्रति समर्पित हो जाना।
इस उठे हुए वज्र के समान महान भयस्वरूप सर्वशक्तिमान परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं। जन्म—मरण से छूट जाते हैं!
क्योंकि वस्तुत: अगर हम ठीक से समझें, तो मृत्यु भी हमारे गलत चलने का परिणाम है। हम अपने को शरीर से बाधतेहैं, इसलिए मृत्यु घटित होती है। अगर हम शरीर से अपने को न बाधें, मृत्यु घटित न होगी। शरीर की ही मृत्यु होती है, हमारी तो मृत्यु नहीं होती, लेकिन हम शरीर से बांध लेते हैं। जैसे कोई कागज की नाव पर सवार हो जाए, फिर नाव डूब जाए तो गलती नाव की नहीं है, गलती सागर की भी नहीं है। आप कागज की नाव पर सवार थे, डूबना तो निश्चित ही था। जितनी देर चल गई, वही काफी है। वह भी चमत्कार है!
शरीर के साथ जिसने अपने को बांधा है, उसने मरने की तो तैयारी कर ही ली, क्योंकि शरीर मरणधर्मा है। जो व्यक्ति भी मरणधर्मा के साथ चलेगा, वह अमृत के विपरीत चल रहा है। वह मरेगा, बार—बार मरेगा। जो व्यक्ति अमृत के अनुकूल चलेगा, मरणधर्मा से नहीं बांधेगा अपने को, यम कह रहा है, वह समस्त भयों से मुक्त हो जाता है, वह मृत्यु से मुका हो जाता है, जन्म—मरण से छूट जाता है।
वे अमर हो जाते हैं, जो परमात्मा के भयस्वरूप को स्मरण करते हैं और उसके अनुकूल अपने जीवन को अनुशासन से भर लेते हैं।
इसी के भय से अग्नि तपती है इसी के भय से सूर्य तपता है इसी के भय से इंद्र वायु और पांचवें मृत्यु देवता अपने—अपने काम में प्रवृत्त हो रहे हैं
यदि शरीर का पतन होने से पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक परमात्मा को साक्षात कर सका तब तो ठीक है नहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है।
मनुष्य की अवस्था में, मनुष्य की योनि में, एक विशेषता है। मनुष्य से नीचे भी योनियां हैं। पशु हैं, पक्षी हैं, वृक्ष हैं, पदार्थों का फैलाव है। मनुष्य से ऊपर की भी योनियां हैं—देवता हैं, स्वर्गों के निवासी हैं। मनुष्य से पीछे और मनुष्य से आगे, दोनों तरफ योनियां हैं। मनुष्य ठीक मध्य की योनि है। लेकिन मध्य की योनि होने के कारण एक विशेषता है, और वह यह कि मनुष्य एक चौराहा है। वहां से नीचे की तरफ भी रास्ता जाता है, वहां से ऊपर की तरफ भी रास्ता जाता है। और वहा से ऊपेर—नीचे, दोनों से मुका होने की तरफ भी रास्ता जाता है। इसे हम थोड़ा समझें।
नीचे की योनियां बिलकुल ही दुख में डूबी हैं। नर्क है समझें कि मनुष्य के नीचे का जगत। वहां दुख ही दुख है। वहा दुख इतना ज्यादा है कि दुख से मुक्त होने की आशा भी नहीं बंधती। दुख से मुक्त होने की आशा तभी बंधती है, जब थोड़ी—बहुत सुख की रेखा हो।
मनोवैज्ञानिक, जो क्रातियों का गहन अध्ययन करते हैं, उनका कहना है कि क्राति तब तक नहीं होती जब तक दुख बहुत ज्यादा हो। यह बडी उलटी बात लगेगी। राजनीति के विद्यार्थी समझते हैं कि जब दुख बहुत ज्यादा होता है समाज में, तो क्रांति हो जाती है। यह बात गलत है। दुख बहुत ज्यादा होता है तो क्राति होती नहीं, क्योंकि दुख के लोग इतने आदी हो जाते हैं। सुख की कोई आशा ही न हो, तो क्रांति किसलिए करनी?
राजनीतिक विचारक कहते हैं कि गरीबक्राति करता है, जो कि गलत है। गरीब क्राति नहीं कर सकता। क्रांतिकारी सभी मर्ध्यावेत्तीय घरों में पैदा होते हैं। चाहे लेनिन, चाहे मार्क्स, सब मध्यवर्गीय परिवारों में पैदा होते हैं।
न तो अमीर घर में पैदा होते हैं क्रांतिकारी, और न गरीब घर में पैदा होते हैं। मध्यवर्गीय, बीच में, जिनको दुख का भी अनुभव है और जिन्हें सुख की भी आशा है। जो महल में भी नहीं पहुंच गए हैं और झोपड़े में भी नहीं हैं, जो बीच के मकान में हैं। कोशिश की जाए तो वह महल बन सकता है। और अगर कोशिश न की जाए तो जल्दी ही झोपड़ा हो जाएगा। जो बीच में अटके हैं, जिनको दुख की भी प्रतीति है और सुख का स्वप्न भी जिनके साथ है, वे लोग क्रांति पैदा करतें हैं।
मनुष्य के पीछे दुख का जगत है। इसलिए कोई पशु मोक्ष पाने की कोशिश नहीं करता। दुख, मूर्च्छा इतनी सघन है कि कोई आशा भी नहीं है। आशा न हो तो आप कोशिश भी नहीं करते।
हिंदुस्तान में पांच हजार साल का इतिहास है, शूद्रों ने कोई बगावत नहीं की। कोई आशा ही नहीं थी, बगावत का कोई कारण नहीं था। अंग्रेजों ने आशा बंधाई। अंग्रेजों के आने के बाद शूद्रों को आशा बंधनी शुरू हुई। राज्य हिंदुओं का नहीं है, बगावत हो सकती है। आशा बंधनी शुरू हुई, शूद्र भी शिक्षित हो सकता है—हिंदुओं की व्यवस्था हौती तो शूद्र शिक्षित ही नहीं हो सकता था—शूद्र भी शिक्षित होकर नौकरी कर सकता है। वे मध्यवर्गीय होने लगे, कुछ लोग शूद्रों में मध्यवर्गीय होने लगे। उन मध्यवर्गीय शूद्रों के मन में स्वभावत: क्राति उठनी शुरू हो गई।
हिंदुस्तान में, आप जानकर हैरान होंगे कि जिन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी, वे सब वे ही लोग थे जो पश्चिम से शिक्षा लेकर लौटे। यह बड़े मजे की बात है कि पश्चिम से शिक्षा लेकर लौटे हुए लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी—चाहे वे गांधी हों, चाहे नेहरू, चाहे अरविंद। पश्चिम ने गुलामी दी थी, पश्चिम ने ही आजादी भी दी। क्या कारण होगा? जो भारत में ही रह रहा था, उसको कोई आशा नहीं थी।
सुभाष ने अपने संस्मरणों में कहीं कहा है, कि यूरोप जब मैं शिक्षित होने गया, पढ़ने गया, और जब मैंने देखा कि अंग्रेज मेरे जूते पर पालिश करता है, तब मुझे लगा कि गुलाम होना अनिवार्य नहीं है। अंग्रेज भी जूते पर पालिश कर सकता है। तो अंग्रेजों की मालकियत कोई अनिवार्य तत्व नहीं है।
जो बच्चे हिंदुस्तान से बाहर पढ़ने गए, उनको आशा बंधी। उस आशा का परिणाम था कि भारत आजादी की लड़ाई में लग गया। जो बच्चे भारत में ही पढ़ रहे थे, उनको आशा भी नहीं बंध सकती थी। मनुष्य के पीछे जो योनियां हैं, वे अत्यंत दुख की हैं; दारुण दुख की हैं। वहा कोई आशा नहीं बंधती। वहां कोई क्राति नहीं हो सकती। मनुष्य के ऊपर की जो योनियां हैं, बड़े सुख की हैं, महासुख की हैं। सुख से कोई क्राति कभी नहीं करता। क्योंकि जो सुख में है, वह क्रांति कैसे करेगा? जिसके पास कुछ भी है खोने को, वह बदलाहट नहीं करना चाहता।
इसलिए क्रातिकारी को मारना हो, तो उसको कुछ दे दो, कोई पद दे दो। कितना ही कम्यूनिस्ट क्रातिकारी हो, उसको मिनिस्ट्री दे दो, क्राति समाप्त हो गई। एक फियेट कार भी क्राति को नष्ट कर सकती है। कुछ खोने को भर पास हो जाए, तो क्राति से खुद ही भय पैदा हो जाता है। जिसके पास सुख हैं, वह बदलाहट नहीं चाहता। सुख हमेशा स्टेटस को चाहता है —स्थिति वैसी ही बनी रहे। सुखी व्यक्ति कोइ रूपांतरण नहीं चाहता।
इसलिए स्वर्ग में कोई क्राति नहीं होती। स्वर्ग में अब तक कोई एक बुद्ध पैदा नहीं हुआ, न कोई एक महावीर, न कोई एक क्या। स्वर्ग में लंपट देवता हैं। इंद्र हैं, जिनकी विवेक की दृष्टि से कोई कीमत नहीं है, और धंधा अप्सराओं को नचाने के सिवाय और कुछ भी नहीं है। खुद तो किसी साधना में, स्वर्ग के देवताओं की कोई कथा नहीं है, बल्कि अगर कोई और साधना कर रहा हो तो उसको हिलाने—डुलाने में उनका बड़ा रस है। तो कोई ऋषि—मुनि, कोई बेचारा अपने झोपड़े में, अपने पहाड़ पर, अपने वृक्ष के नीचे, बैठकर कुछ साध रहा हो, तो जरूर इन देवताओं को उसको सताने में रस आता है कि भेज दो उर्वशी को कि ऋषि—मुनि को परेशान करे।
स्वर्ग से कभी कोई मुक्त नहीं हुआ है। हो नहीं सकता। सुख से कोई मुक्त होना ही क्यों चाहेगा? इसलिए सुख की अतिशयता भी अभिशाप है। दुख की अतिशयता तो अभिशाप है ही, सुख का अतिशय होना भी अभिशाप है।
मनुष्य मध्यवर्गीय योनि है। न तो वह नर्क में है, और न स्वर्ग में। वह त्रिशंकु की तरह; वह बीच में है। वह जरा ही भूल—चूक करे तो नर्क में गिर सकता है, और जरा ही होशियारी करे तो स्वर्ग में प्रवेश कर सकता है। वह दोनों के मध्य में है।
मनुष्य योनि रूपांतरण की, ट्रांसफामेंशन की अवस्था है। और अगर समझ जाए ठीक से, तो न नर्क में जाना चाहेगा और न स्वर्ग में। क्योंकि सुख भी बार—बार भोगने पर बासे हो जाते हैं, और दुख जैसे हो जाते हैं। अगर आप स्वर्ग में जाएं तो वहा आप हर देवता को जम्हाई लेते हुए पाएंगे। ऊब गया होगा। सुंदर—सुंदर स्त्रियां चौबीस घंटे आपके पास मौजूद रहें, आप उनसे भी भागना चाहेंगे कि थोड़ी देर मुझे अकेला रहने दो।
सौंदर्य भी कुरूपता हो जाती है। मिष्ठान्न खाते—खाते जीभ तरसने लगती है, विपरीत के लिए। सुविधा में बैठे—बैठे मन असुविधा में जाने की आकांक्षा करने लगता है। स्वर्ग में जो बैठे हैं, वे बुरी तरह ऊबे हुए हैं। बोरडम स्वर्ग का लक्षण है। वहां हर आदमी ऊबा हुआ है। ऊबा हुआ है, इसीलिए तो इतना मनोरंजन का उपाय कर रहा है। नाच, गाना, शराब—वह चल रहा है।
मुसलमानों के स्वर्ग में शराब के चश्मे बह रहे हैं। बोतलों से काम वहा नहीं चल सकता। झरने! कि आप पीए ही मत, डूबे, तैरें, नहाएं! स्वर्ग में सिर्फ मनोरंजन के साधन हैं।
आप थोड़ा समझें। जमीन पर भी आज अमेरिका स्वर्ग होने के करीब पहुंच गया है। बड़ी ऊब है। सब सुलभ है और कोई रस नहीं है। मनोरंजन ही मनोरंजन चारों तरफ इकट्ठा हो गया है ) सुबह से रात तक आप मनोरंजन करते रहें। लेकिन रस बिलकुल नहीं है। और कितनी ही बड़ी बात घट जाए, मिनटों में रस खत्म हो जाता है। चांद पर ण्हुंचने की कितनी पुरानी आकांक्षा है आदमी की! जब से आदमी जमीन पर है, तब से चांद का सपना है। छोटे बच्चे पैदा होते ही से हाथ बढ़ाने लगते हैं चांद पकड़ने के लिए। आदमी हजारों—हजारों वर्ष से चांद पर पहुंचने की आकांक्षा रखे है।
फिर पहला आदमी एक दिन चांद पर उतर भी गया और अमेरिका में पंद्रह मिनट में रस चला गया। पंद्रह मिनट, दस मिनट तक लोगों ने टेलीविजन पर देखा, फिर क्य—होने टेलीविजन अलग—बंद—दूसरा प्रोग्राम शुरू। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि पंद्रह मिनट के बाद किसी का रस नहीं था कि चांद पर आदमी पहुंच गया। पंद्रह मिनट में इतनी बड़ी घटना व्यर्थ हो गई। बस हो गई बात, खत्म हो गई। देख लिया कि आदमी चांद पर उतर गया, अब और क्या है! अब कुछ और। भयंकर ऊब है।
स्वर्ग में भी मनोरंजन के इतने साधन हैं, भयंकर ऊब होगी। ऊब जहां होती है, वहां मनोरंजन के साधन जुटाने पड़ते हैं। जहा मनोरंजन के साधन जुटते जाते हैं, वहां ऊब बढ़ती चली जाती है। बहुत कथाएं हैं स्वर्ग के देवताओं की कि वे तरसते हैं जमीन पर आकर किसी युवती को प्रेम करने को, कि वहां की उर्वशी तड़पती है कि पृथ्वी के किसी पुरुरवा को प्रेम करे। यहां थोड़ा रस है, क्योंकि यहां जीवन एकदम सुखद नहीं है। यहां जीवन संघर्ष है। यहां कठिनाई भी है, असुविधा भी है।
जो मनुष्य इस बात को समझ लेता है कि दुख तो दुख है ही, सुख भी अंततः दुख हो जाता है, और दुख से तो छुटकारा चाहिए ही, अंततः सुख से भी आदमी छूटना चाहता है। जो इस सत्य को समझ लेता है, वह न तो स्वर्ग को चाहता है न नर्क को, वह मुक्त होना चाहता है। वह समस्त वासनाओं के पार जाना चाहता है।
तो मनुष्य के अस्तित्व से तीन मार्ग निकलते हैं। एक दुख का, एक सुख का और एक मोक्ष का, मुक्ति का। मुक्ति न तो सुख है न दुख। मुक्ति दोनों के पार है।
यदि शरीर का पतन होने के पहले इस मनुष्य शरीर में ही साधक परमात्मा को साक्षात न कर सका — कर सका तो ठीक, न कर सका— तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश हो जाता है।
बहुत लंबी यात्रा के बाद कभी—कभी चेतना मनुष्य की स्थिति में खड़ी होती है। फिर लंबी यात्रा का चक्र शुरू हो जाता है।
जो व्यक्ति मनुष्य होने की अवस्था में मोक्ष की प्यास से नहीं भरते, उनका भविष्य अंधकारमय है। कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि कितनी उनकी लंबी यात्रा होगी। फिर दुबारा चौराहे तक पहुंचने में कितना समय लगेगा, कहना कठिन है। चौराहे से चूक जाना बहुत आसान है। क्योंकि कोई लंबा समय नहीं है। चौराहे को फिर से पाना बड़ा कठिन हो सकता है।
करीब—करीब ऐसी हालत है कि मैंने सुना है, एक आदमी अपनी कार को भगाए जा रहा है। वह रोककर एक वृक्ष के नीचे बैठे आदमी से पूछता है कि दिल्ली कितनी दूर है? वह आदमी कहता है, इट डिपेंड्स—यह निर्भर करता है—कि दिल्ली कितनी दूर है? जिस तरफ तुम जा रहे हो, दिल्ली बहुत दूर है। क्योंकि दिल्ली पीछे छूट गई। अगर तुम लौटने को राजी हो जाओ, तो दिल्ली बहुत पास है। लेकिन तुम्हें दिशा बदलनी पड़ेगी।
आदमी तेजी से भागा जा रहा है मौत की तरफ। और जिस जगह से वह मुक्त हो सकता है, वह पीछे छूटी जा रही है, प्रतिपल। फिर दुबारा कब इस संयोग को उपलब्ध होगा, कहने का कोई उपाय नहीं है। अगर रुक जाए, ठहर जाए और आगे की तरफ दौड़ने की फिक्र छोड़ दे और भीतर की तरफ चलना शुरू हो जाए, दिशा मोड ले बाहर की तरफ से भीतर की तरफ, पदार्थ की तरफ से परमात्मा की तरफ, तो योनियों में भटकाव बंद हो जाता है। और मनुष्य अयोनि हो जाता है, मनुष्य मुक्त हो जाता है। फिर किसी और शरीर में उसका प्रवेश नहीं है।
नचिकेता से यम ने कहा—यही है वह परमात्मा, जिसके संबंध में तुमने पूछा था।
अब ध्यान के लिए तैयार हों।
ध्‍यान योग शिविर
माऊंट आबू, राजस्‍थान।

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