कुल पेज दृश्य

रविवार, 17 जून 2018

केनोउपनिषद--प्रवचन--13

मनुष्‍य का अतिक्रमण हो सकता है—तैरहवां प्रवचन

दिनांक 14 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।
प्रश्‍न सार :

*ध्यान की तुलना में मनोविश्लेषण का क्या योगदान है?


*जो आपमें समग्रता से विश्वास या अविश्वास नहीं कर सकते उनके लिए क्या कोई        तीसरा विकल्प भी है?

*आप पर सब कुछ छोड़ देने पर भी यदि कुछ न घटे तो क्या यह भी समर्पण ही है?


पहला प्रश्न :

विषाद अंतर्द्वद्वं, खंडित व्‍यक्‍तित्‍व, विक्षिप्‍तता आदि मनुष्‍य के अहंकार से उठने वाली समस्‍याओं को हल करनेहेतु पश्‍चिम में फ्रायड, एडगर, जुंग, विलहेम रैख आदि के द्वारा मनोविश्‍लेषण काफी विकसित किया गया है। अहंकार में जड़े जमाये इन मानवीय समस्‍याओं को हल करनेमे ध्‍यान—विधियों की तुलना में मनोविश्‍लेषण की पद्धति की देन, सीमाएं तथा उनके अधूरेपन पर कृप्‍या प्रकाश डालें।


पहली बात जो समझ लेनी है वह यह है कि कोई भी स्‍मस्‍या जो अहंकार से जड़ जमाए बैठी है, तब तक हल नहीं की जा सकती जब तक कि अहंकार का अतिक्रमण न किया जाये। तुम समस्‍या को स्‍थगित कर सकते हो।
तुम थोड़ी सामान्‍यता ला सकते हो। तुम थोड़ा सामान्‍य स्‍थिति उसके बारे में पैदा कर सकते हो। तुम मनोविश्‍लेषण से आदमी को समाज में कुश्‍लता से काम करने के लिए तैयार कर सकते हो, किंतु मनोविश्‍लेषण समस्‍या को कभी हल नहीं कर सकता। और जब भी कभी समस्‍या को स्‍थगित किया जाता है। आगे सरका दिया जाता है तो वह दूसरी समस्‍या पैदा करता है। इससे सिर्फ उसका स्‍थान बदल जाता है। लेकिन समस्‍या वहीं के वहीं रहती है। देर—अबेर एक नया विस्‍फोट होगा।और जब पुरानी समस्‍या का नया विस्‍फोट होगा तो उसको स्‍थगित करना या आगे सरकाना और कठिन होगा।
मनोविश्लेषण एक अस्थायी राहत है क्योंकि मनोविश्लेषण ऐसी कोई बात नहीं सोच सुकता जिससे कि अहंकार का अतिक्रमण होता हो। कोई समस्या तभी हल की जा सकती है, जब कि तुम उसके पार चले गये हो। यदि तुम उसके पार नहीं गभे हो तो तुम ही समस्या' हो। तब कौन उसको हल करेगा? तब कोई कैसे उसका समाधान करेगा? तब तुम्हीं समस्या हो; समस्या तुमसे पृथक चीज नहीं है।
योग, तंत्र तथा सारी ध्यान की विधियां, वे एक दूसरी ही भूमि पर आधारित हैं। वे कहती हैं कि समस्याएं हैं, तुम्हारे चारों ओर समस्याएं हैं, लेकिन तुम समस्या नहीं हो। तुम उनके पार जा सकते हो। तुम उनको एक द्रष्टा की भांति देख सकते हो जो कि पर्वत — शिखर से घाटी में देख रहा हो। यह सा शी समस्याओं को हल कर सकता है। वस्तुत: समस्या को साक्षी भाव से देखने से ही आधी समस्या हल हो जाती है, क्योंकि जब तुम किसी समस्या को साक्षीभाव से देखते हो, जब तुम उसे तटस्थता से देखते हो, जब तुम उसमें संलग्न नहीं होते, तो तुम अलग खड़े हो सकते हो और उसे देख सकते हो। इस तरह साक्षीभाव से देखने से ही तुम्हें एक स्पष्टता का बोध होता है, जिससे तुम्हें सूत्र मिल जाता है, गुप्त कुंजी मिल जाती है। और सारी समस्याएं हैं ही इसलिए क्योंकि उनको समझने के लिए तुम्हारे भीतर कोई सुस्पष्ट बोध नहीं है। तुम्हें समाधानों की आवश्यकता नहीं है, तुम्हें सुस्पष्टता की जरूरत है।
कोई भी समस्या हो, उसकी ठीक समझ से वह हल हो जाती है, क्योंकि समस्या खड़ी ही नासमझी भरे मन के कारण होती है। तुम समस्या ही इसलिए निर्मित करते हो क्योंकि तुम समझ नहीं पा रहे हो। इसलिए आधारभूत बात समस्या को हल करने की नहीं है, आधारभूत बात और अधिक समझ पैदा करने की है। और यदि और अधिक समझ, और अधिक स्पष्टता हो, और यदि समस्या को तटस्थता से देखा जाये, इस तरह कि जैसे वह तुम्हारी नहीं है, जैसे कि वह किसी और की है; यदि तुम अपने और समस्या के बीच दूरी पैदा कर सको—केवल तभी वह हल हो सकती है।
ध्यान दूरी पैदा करता है, वह तुम्हें एक परिप्रेक्ष्य देता है। और तुम समस्या के पार चले जाते हो। चेतना का तल बदल जाता है।
मनोविश्लेषण से तुम उसी तल पर रहते हो। वह तल कभी नहीं बदलता, तुम उसी तल पर ठोक—पीट कर बिठा दिये जाते हो। तुम्हारी सजगता, तुम्हारी चेतना, तुम्हारी साक्षी होने की सामर्थ्य नहीं बदलती। जैसे—जैसे तुम ध्यान में गति करते हो, तुम ऊपर और ऊपर उठते जाते हो। तुम नीचे अपनी समस्याओं को देख सकते हो। वे अब नीचे घाटी में हैं, और तुम पहाड़ी पर आ गये हो। इस परिप्रेक्ष्य से, इस ऊंचाई से, सारी समस्याएं बहुत ही भिन्न दिखती हैं। और जितनी अधिक दूरी बढ़ती है, उतना ही तुम उन्हें इस भांति देखने में सक्षम होते हो, जैसे कि वे तुम्हारी नहीं हैं।
एक बात स्मरण रहे. यदि समस्या तुम्हारी नहीं है, तो तुम उसे हल करने की सदा अच्छी सलाह दे सकते हो। यदि वह किसी दूसरे की है, यदि कोई और दिक्कत में पड़ा है, तो तुम सदा विद्वान होते हो; तुम बड़ी अच्छी सलाह दे सकते हो। लेकिन यदि समस्या तुम्हारी अपनी है तो तुम्हें समझ में नहीं आता कि क्या करें। क्या हो गया? समस्या वही की वही है, लेकिन अब तुम उससे जुड़े हो। जब वह किसी और की समस्या थी तो एक दूरी थी और तुम बिना किसी पक्षपात के इसे देख सकते थे। हर आदमी दूसरे के लिए बड़ा अच्छा सलाहकार होता है, लेकिन जब खुद पर पड़ती है तो तुम्हारी सारी समझदारी खो जाती है, क्योंकि दूरी खो गई।
कोई मर गया है और सारा परिवार दुख में डूबा है; तुम अच्छी सलाह दे सकते हो। तुम कह सकते हो कि आत्मा तो अमर है; तुम कह सकते हो कि कुछ भी मरता नहीं है, कि जीवन शाश्वत है। लेकिन कोई मर गया है जिसे तुम प्रेम करते थे, जो कि तुम्हारे लिए कुछ था, जो कि निकट का था, घनिष्ठ था; अब तुम छाती पीट रहे हो, रो रहे हो, चिल्ला रहे हो। अब तुम वही सलाह स्वयं को नहीं दे सकते—कि जीवन अमर है, और कभी कोई मरता नहीं है। अब यह बात बड़ी बेहूदी लगती है।
इसलिए स्मरण रहे, कि दूसरों को सलाह देते समय तुम छू भी लग सकते हो। जब तुम किसी को कहो कि जीवन अमर है जबकि उसका प्यार मर गया है, तो वह तुम्हें मूढ़ ही समझेगा। तुम बड़ी स्थार्थ बकवास कर रहे हो। उसे पता है कि अपने प्यारे को खो देने पर कैसा लगता है। कोई तत्व—ज्ञान की बात उसे सांत्वना नहीं दे सकेती। और वह भी जानता है कि तुम उसे यह बात क्यों कह रहे हो, क्योंकि समस्या तुम्हारी नहीं है। तुम बुद्धिमान बन सकते हो, वह नहीं बन सकता।
ध्यान के द्वारा तुम अपने साधारण स्वरूप से ऊपर उठ जाते हो। तुम्हारे भीतर एक नया केंद्र खुल जाता है, जहां से तुम चीजों को एक नये ही ढंग से देखने लगते हो। एक दूरी निर्मित हो जाती है। समस्याएं तो हैं, लेकिन अब वे बहुत—बहुत दूर हैं—जैसे कि किसी और पर घट रही हों। अब तुम स्वयं को अच्छी सलाह दे सकते हो, लेकिन उसके देने की भी जरूरत नहीं है। दूरी से ही तुम बुद्धिमान हो जाते हो। इसलिए ध्यान की सारी विधि समस्याओं और तुम्हारे बीच दूरी पैदा करने की है। अभी जैसे तुम हो, तुम अपनी समस्याओं में इतने उलझे हो कि तुम सोच—विचार नहीं कर सकते, तुम मनन नहीं कर सकते, तुम उनके पार देख नहीं सकते, तुम उनके साक्षी नहीं हो सकते।
मनोविश्लेषण सिर्फ फिर से तालमेल बिठाने में मदद करता है। यह कोई रूपांतरण नहीं है—पहली बात। और दूसरी बात : मनोविश्लेषण में तुम परतंत्र हो जाते हो। तुम्हें किसी कुशल मनोविश्लेषक की आवश्यकता होती है और वही सब कुछ करेगा। उसमें तीन वर्ष लगेंगे, चार वर्ष लगेंगे, या पांच वर्ष भी लग सकते हैं यदि समस्या बहुत गहरी है, और तुम सिर्फ निर्भर होते जाओगे; तुम विकसित नहीं हो रहे। बल्कि उल्टे तुम और और निर्भर होते जा रहे हो। तुम्हें हर रोज या सप्ताह में दो बार या तीन बार मनोवश्‍लेषक की आवश्यकता पड़ेगी। और एक बार भी तुम उसको चूक गये तो तुम्हें लगेगा कि तुम गये। यदि तुम मनोविश्लेषण बंद कर दो तो तुम्हें लगेगा कि तुम गये। यह नशे जैसा हो जाता है, और तुम उसके आदी हो जाते हो।
तुम किसी पर निर्भर होने लगते हो, जो कि तुम्हें लगता है कि कुशल जानकार है। तुम उसे अपनी समस्या कह सकते हो, और वह उसे हल करेगा। वह उस पर चर्चा करेगा, और वह अचेतन में पड़ी जड़ों को बाहर ले लायेगा। लेकिन यह सब 'वह' करेगा। समस्या को हल करने का यह सारा प्रयत्न किसी और के द्वारा किया जायेगा!
स्मरण रहे, दूसरे के द्वारा हल की गई समस्या तुम्हें प्रौढता प्रदान नहीं कर सकती। समस्या को हल करने में दूसरे को भले ही कुछ प्रौढ़ता मिलती हो, लेकिन उससे तुम्हारी प्रौढ़ता नहीं बढ़ती। तुम शायद  पहले से भी ज्यादा अप्रौढ़ हो जाओ। फिर जब भी कोई समस्या खड़ी होगी तो तुम्हें किसी दूसरे की सलाह कि आवश्यकता पड़ेगी, किसी कुशल आदमी की सलाह लेनी पड़ेगी। और मुझे नहीं लगता कि मनोविश्लेषक भी तुम्हारी समस्याओं को हल करने से कुछ प्रौढ़ होते हों, क्योंकि वे भी अपना  मनोविश्लेषण कराने किसी दूसरे मनोविश्लेषक के पास जाते हैं। उनकी अपनी समस्याएं हैं। वे तुम्हारी  समस्‍याएं हल करते हैं, लेकिन वे अपनी समस्याएं हल नहीं कर पाते—फिर सवाल वही दूरी का है।
विलहेम रैख स्वयं बार—बार अपना मनोविश्लेषण कराने सिगमंड फ्रायड के पास जाता था। फ्रायड ने उसका मनोविश्लेषण करने से इंकार कर दिया, और सारे जीवन उसे इस बात की पीड़ा रही कि फ्रायड  ने उस मना कर दिया। और फ्रायड के पीछे चलने वाले लोगों ने, फ्रायड के कट्टर शिष्यों ने उसे कभी भी एक कुशल मनोविश्लेषक नहीं माना, क्योंकि उसका स्वयं का मनोविश्लेषण कभी नहीं हुआ था।

प्रत्येक मनोविश्लेषक किसी न किसी और के पास अपनी समस्याओं को लेकर जाता है। यह चिकित्‍सा व्यवसाय की तरह ही है। यदि डाक्टर खुद बीमार है तो वह स्वयं अपना निदान नहीं कर  सकता। वह अपने इतने निकट होता है कि वह किसी और के पास जाता है। यदि तुम एक सर्जन हो तो तुम अपने शरीर का आपरेशन नहीं कर सकते हो—या कि कर सकते हो? दूरी नहीं है। अपने ही शरीर पर शल्य—चिकित्सा करना कठिन है, लेकिन यह तब भी कठिन है, यदि तुम्हारी पत्नी बहुत बीमार है और कोई गंभीर आपरेशन करना पड़े—तुम आपरेशन नहीं कर सकते क्योंकि तुम्हारा हाथ कंपेगा। निकटता इतनी है कि तुम डर जाओगे। तुम तब अच्छे सर्जन नहीं हो सकते। तुम्हें सलाह लेनी पड़ेगी। तुम्हें किसी और सर्जन को तुम्हारी पत्नी का आपरेशन करने के लिए बुलाना पड़ेगा।
क्या हो रहा है? तुमने बहुत—से आपरेशन किये हैं। अभी क्या हो रहा है? तुम अपने ही बच्चे अथवा पत्नी का आपरेशन नहीं कर सकते, क्योंकि दूरी इतनी कम है। जैसे कि दूरी है ही नहीं। बिना दूरी के तुम तटस्थ नहीं रह सकते। इसलिए मनोविश्लेषक दूसरों की सहायता कर सकता है, लेकिन जब वह स्वयं तकलीफ में पड़ा हो तो उसे किसी और के पास जाना पड़ेगा, किसी अन्य मनोविश्लेषक से अपना मनोविश्लेषण. कराना पड़ेगा। और यह बड़ा विचित्र है कि विलहेम रैख जैसा व्यक्ति भी अंत में विक्षिप्त हो जाता है।
हम किसी बुद्ध के पागल हो जाने की कल्पना भी नहीं कर सकते—क्या तुम ऐसी कल्पना कर सकते हो? और यदि एक बुद्ध भी विक्षिप्त हो सकते हैं, तो फिर इस दुख से मुक्त होने का कोई रास्ता नहीं है। यह बात ही कल्पना के बाहर है कि बुद्ध विक्षिप्त हो जायें।
सिगमंड फ्रायड के जीवन को देखो। वह मनोविश्लेषण का जन्मदाता तथा उसका प्रवर्तक है। वह समस्याओं के बारे में बहुत गहरी बातें कहता रहा। लेकिन जहां तक उसका अपना सवाल है एक भी समस्या हल न हुई। एक भी समस्या हल न हो सकी! भय उसके लिए भी उतनी ही समस्या था, जितना किसी और के लिए। वह इतना भयभीत और नर्वस था। क्रोध उसके लिए उतना ही समस्या था जितना किसी अन्य के लिए। वह इतना ज्यादा क्रोध में आ जाता था कि वह क्रोध में बेहोश होकर गिर पड़ता था। और यही आदमी मनुष्य के मन के बारे में इतना कुछ जानता था, लेकिन यह ज्ञान स्वयं उसके लिए किसी काम का नहीं था।
यूं। भी जब गहरी चिंता में होता तो बेहोश हो जाता था, उसे दौरा पड़ जाता था।
बात क्या है? दूरी समस्या है। वे समस्याओं के बारे में चिंतन करते थे, लेकिन वे चेतना के तल पर विकसित नहीं हो रहे थे। वे बुद्धिगत विचार करते थे, गहराई से, तार्किक ढंग से और फिर कोई निष्पत्ति निकालते थे। कभी—कभी वे निष्पत्तिया सही भी होती थीं, लेकिन असली सवाल यह नहीं है। वे अपनी चेतना में विकसित नहीं हुए थे, वे किसी भी भांति अतिमानव नहीं हो पाये थे। और जब तक तुम मानवता का अतिक्रमण नहीं करते, समस्याएं हल नहीं हो सकती। उन्हें सिर्फ थोड़ा—बहुत व्यवस्थित किया जा सकता है।
फ्रायड ने अपने अंतिम दिनों में कहा है, '' आदमी असाध्य है। ज्यादा से ज्यादा हम इतनी ही उम्मीद कर सकते हैं कि वह एक समायोजित व्यक्ति की तरह जी ले, इससे ज्यादा की कोई आशा नहीं है। बस, अधिक से अधिक इतना उम्मीद की जा सकती है। आदमी सुखी नहीं हो सकता, '' फ्रायड कहता है,  ''ज्यादा से ज्यादा हम इतना इंतजाम कर सकते हैं कि वह बहुत अधिक दुखी न हो। बस इतना ही। लेकिन वह सुखी नहीं हो सकता—वह असाध्य है। ''अब ऐसे दृष्टिकोण से किस तरह का समाधान आ सकता है? और मनुष्यों पर चालीस साल के प्रयोग के अनुभव के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि आदमी की कुछ सहायता नहीं की जा सकती है, कि मनुष्य प्रकृति से ही, प्राकृतिक तौर से ही दुखी है, कि वह सदा दुख में ही रहेगा।
लेकिन योग कहता है कि मनुष्य का अतिक्रमण किया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि आदमी असाध्य है : यह सिर्फ उसकी न्यूनतम चेतना है जो कि समस्या पैदा करती है। चेतना में विकसित होओ, चेतना को बढ़ाओ और समस्याएं कम हो जाती हैं। वे उसी अनुपात में होती हैं. यदि चेतना अपने न्यूनतम पर है, तो समस्याएं अपने अधिकतम पर हैं; यदि चेतना अपने अधिकतम पर है तो समस्याएं न्यूनतम होंगी। समग्र चेतना के साथ समस्याएं बिलकुल ही विलीन हो जाती हैं—वैसे ही जैसे सुबह सुरज निकलता है और ओस की बूंदें विलीन हो जाती हैं। समग्ररूपेण चेतना हो तो समस्याएं होती ही नहीं क्योंकि समग्ररूपेण चैतन्य में समस्याएं पैदा ही नहीं हो सकतीं। ज्यादा से ज्यादा मनोविश्लेषण एक उपचार हो सकता है, लेकिन समस्याएं तो आती रहेंगी, वह कोई निवारक नहीं है।
योग, ध्यान, बड़े गहरे जाते हैं। वे तुम्हें परिवर्तित करेंगे ताकि समस्याएं खड़ी ही नहीं हों। मनोविश्लेषण का संबंध समस्याओं से है, ध्यान का सीधा संबंध तुम से है। उसका संबंध समस्याओं से बिलकुल नहीं है। इसीलिए पूर्वी मनोविज्ञान के मनीषी—बुद्ध, महावीर या कृष्ण—समस्याओं के बारे में बात नहीं करते। इसी कारण, पश्चिमी मनोविशान सोचता है कि मनोविज्ञान कुछ नई घटना है। ऐसा नहीं है।
यह तो सिर्फ इस सदी में, इस सदी के प्रारंभ में, फ्रायड वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध कर सका कि अचेतन भी कोई चीज है। बुद्ध ने उसकी बात पच्चीस सौ वर्ष पहले की थी। लेकिन बुद्ध ने किसी भी समस्या को नहीं लिया, क्योंकि बुद्ध कहते हैं कि समस्याएं तो अनंत हैं। यदि तुम समस्याओं को ही हल करते रहे तो तुम उनसे कभी भी निपट नहीं पाओगे—आदमी से ही निपटो। समस्याओं को भूलो। व्यक्ति से ही निपटो और विकसित होने में उसकी मदद करो। जैसे—जैसे आदमी विकसित होता है, वह जितना अधिक चेतन होता जाता है, समस्याएं उतनी ही गिरती चली जाती हैं। तुम्हें उनकी चिंता करने की जरूरत  नहीं है।
उदाहरण के लिए, एक आदमी खंडित है, विभाजित है। मनोविश्लेषक अब इस खंड—खंड व्यक्ति के साथ काम करेगा कि कैसे इसे समाज में काम करने योग्य बना दे, कि यह आदमी समाज में शाति से रहने लायक हो जाये। मनोविश्लेषण इसकी समस्या को, खंडित व्यक्तित्व को, ठीक करने का प्रयत्न करेगा। यदि यही आदमी बुद्ध के पास जाये तो बुद्ध इसके खंडित व्यक्तित्व के बारे में बात ही नहीं करेंगे। वे कहेंगे, ''ध्यान करो! ताकि तुम्हारा भीतरी स्वरूप अखंड हो जाये। जब भीतरी स्वरूप अखंड हो जायेगा, तो खंडित रूप बाहर परिधि पर से भी विदा हो जायेगा। '' व्यक्ति खंड—खंड में बंटा है, लेकिन यह कारण नहीं है, यह सिर्फ परिणाम है। क्योंकि कहीं भीतर गहरे में द्वैत है, और उसी द्वैत ने बाहरी परिधि पर भी दरार पैदा कर दी है।
तुम दरार को सीमेंट लगाते जाओ, लेकिन भीतर का द्वैत बना रहेगा। तब वह दरार कहीं दूसरी जगह प्रकट होगी। फिर तुम उस दरार को भरना; तब फिर कहीं और दरार नजर आयेगी। अत: तुम यदि एक मनोवैज्ञानिक समस्या को ठीक करते हो, तो दूसरी समस्या तुरंत खड़ी हो जाती है। और फिर तुम उसे ठीक करते हो तो तीसरी खड़ी हो जाती है।
जहां तक विशेषज्ञों का सवाल है, उनके लिए यह बात फायदे की है, क्योंकि वे इसी पर जीते हैं। लेकिन यह कोई सहायता नहीं है। पश्चिम को मनोविश्लेषण से आगे जाना पड़ेगा। और जब तक पश्चिम चेतना को विकसित करने की विधियों तक नहीं आता, कि कैसे भीतरी चेतना को विकसित करें और टसको और बढ़ाए तब तक मनोविश्लेषण अधिक सहायता नहीं कर सकता है।
अब यह हो ही रहा है : मनोविश्लेषण पुराना हो ही चुका है। पश्चिम के गहरे चिंतक सोचने लगे हैं कि कैसे चेतना को विकसित करें, न कि कैसे समस्याओं को हल करें। वे सोचने लगे हैं कि कैसे आदमी को और अधिक होशपूर्ण तथा सजग करें। यह बात आ गई है; इसके बीज फूटने लगे हैं। यह बात खयाल में रखने जैसी है।
मुझे तुम्हारी समस्याओं से कुछ लेना—देना नहीं है। वे लाखों हैं और उन्हें हल करना व्यर्थ है—क्योंकि तुम्हीं तो उनके बनाने वाले हो, और तुम ही अछूते छूट जाते हो। मैं एक समस्या को हल करूं, तुम दस खड़ी कर लोगे। तुम्हें हराया नहीं जा सकता, क्योंकि उनका बनाने वाला तो पीछे छुपा है। और मैं उन्हें हल करता ही जाऊं... मैं अपनी शक्ति ही नष्ट कर रहा हूं।
मैं तुम्हारी समस्याओं को अलग ही हटा देता हूं मैं सिर्फ तुम्हारे भीतर झांकता हूं। वह जो बनाने वाला है, उसे ही बदलना है। और एक बार वह सर्जक बदल जाये तो बाहर परिधि पर समस्याएं गिर जाती हैं। क्योंकि अब कोई उनके साथ सहयोग करने वाला नहीं है, कोई उन्हें पैदा करने वाला नहीं है, कोई उनका आनंद लेने वाला नहीं है। तुम्हें यह शब्द विचित्र मालूम पड़ेगा, लेकिन यह बात ठीक से स्मरण रहे कि तुम अपनी समस्याओं का आनंद लेते हो—इसीलिए तुम उन्हें निर्मित करते हो। तुम कई कारणों से उनका आनंद लेते हो।
सारी मनुष्यता रुग्ण है, क्योंकि कुछ बुनियादी कारण हैं, जिन्हें हम देखने से चूक जाते हैं। जब भी कोई बच्चा बीमार होता है तो उसे ध्यान मिलता है, जब भी वह स्वस्थ होता है तो उसकी ओर कोई ध्यान नहीं देता। जब भी बच्चा बीमार होता है तो माता—पिता उसे प्रेम करते हैं—कम से कम दिखावा तो करते ही हैं। लेकिन जब वह ठीक—ठाक होता है तो कोई उसकी फिकर नहीं करता। कोई उसका प्रेम से चुंबन नहीं लेता, कोई उसे प्रेम से छाती से नहीं लगाता। बच्चा तरकीब सीख जाता है। और प्रेम बुनियादी आवश्यकता है, और ध्यान बुनियादी भोजन है। बच्चे के लिए भोजन से भी ज्यादा, दूध से भी ज्यादा, ध्यान जरूरी है। बिना ध्यान के उसके भीतर कुछ मर जायेगा।
तुमने इंग्लैंड की डिलाबार प्रयोगशाला में किए जाने वाले प्रयोगों के बारे में सुना होगा, जहां वे पौधों पर प्रयोग कर रहे हैं। पौधे भी तेजी से बढ़ते हैं यदि तुम उन पर ध्यान दों—केवल उनकी ओर प्रेम से देखने भर से ही। दो पौधों को प्रयोग के लिए काम में लाया जाता है। एक पौधे को ध्यान दो, मुस्कुराओ, प्रेम से उसके निकट जाओ, और दूसरे पौधे को कुछ भी ध्यान मत दो। बाकी सब चीजें जो जरूरी हैं दे दों—पानी, धूप, खाद। दोनों को बाकी सब चीजें बराबर—बराबर दो, लेकिन एक को खूब ध्यान दो और एक को बिलकुल ध्यान मत दो, जब भी तुम पास से गुजरो तो उसकी ओर देखो ही नहीं। और तुम देखोगे कि पहला पौधा जल्दी बढ़ता है, इसमें ज्यादा बड़े—बड़े फूल आते हैं। दूसरा देर से बढ़ता है और उसमें छोटे फूल आते हैं।
ध्यान ऊर्जा है। जब कोई तुम्हारी ओर प्यार से देखता होता है तो वह तुम्हें भोजन दे रहा है—एक बहुत ही सूक्ष्म भोजन। तो प्रत्येक बच्चे को ध्यान की आवश्यकता होती है, और तुम उसकी ओर ध्यान तभी देते हो जब वह रुग्ण होता है, जब कोई समस्या होती है। इसलिए यदि बच्चे को ध्यान की जरूरत है तो वह समस्याएं खड़ी करेगा, वह समस्याओं का निर्माता हो जायेगा।
प्रेम एक बुनियादी आवश्यकता है। तुम्हारा शरीर भोजन से बढ़ता है, तुम्हारी आत्मा प्रेम से बढ़ती है। लेकिन तुम्हें प्रेम तभी मिलता है जब तुम रुग्ण होते हो, जब तुम्हारी कोई समस्या होती है; वरना कोई तुम्हें प्रेम देने वाला नहीं है।
बच्चा तुम्हारे ही तरीके सीख जाता है, तब वह समस्याएं खड़ी करना सीख जाता है। जब भी वह बीमार होता है, या कोई समस्या लिये होता है तब हर कोई उसकी ओर ध्यान देता है।
तुमने कभी देखा? बच्चे शांति से चुपचाप घर में खेल रहे हैं लेकिन यदि कोई मेहमान आ जातें है तो वे शोरगुल मचाना शुरू कर देते हैं। क्योंकि अब तुम्हारा ध्यान मेहमानों की तरफ चला गया, और बच्‍चे— अब ध्यान के लिए तड़प रहे हैं। वे चाहते हैं कि तुम्हारा, तुम्हारे मेहमान का, सबका ध्यान उनकी तरफ हो। तो वे कुछ करेंगे, वे कोई न कोई ऊधम मचायेंगे। यह सब अचेतन बात है, लेकिन फिर यह एक ढंग बन जाता है। और फिर तुम बड़े हो जाने पर भी ऐसा ही करते रहते हो...।
स्त्रियों के लिए, यह बात नब्बे प्रतिशत सही है कि उनकी बीमारियां, उनकी मानसिक समस्याएं, मूलत: उनकी प्रेम की भूख है। जब भी तुम किसी स्त्री को प्रेम करते हो तो उसे कोई बीमारी नहीं होती। जब भी प्रेम में कोई समस्या खड़ी हो जाती है तो बहुत—सी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। अब वह ध्यान के लिए तड़प रही है। और मनोविश्लेषक इस ध्यान की आवश्यकता का ही शोषण कर रहे हैं। क्योकिं मनोविश्लेषक एक व्यावसायिक ध्यान देने वाला आदमी होता है। तुम उसके पास जाते हो —उसका तो यह धंधा है—एक घंटे तक वह ध्यानपूर्वक तुम्हारी ओर देखता है। जो भी तुम कहते हो, कैसी भी बकवास, वह उसे बड़े गौर से सुनता है—जैसे कि वेद पढ़े जा रहे हों। और वह तुम्हें फुसलाको। कि तुम  और बोलो, कुछ भी बोलो—संगत, असंगत—तुम्हारे मस्तिष्क में जो भरा है उसको बाहर निकाल दो। तुम्‍हें बड़ा अच्छा लगता है।
तुम्हें पता है? निन्यानबे प्रतिशत बीमार अपने मनोविश्लेषक के प्रेम में पड़ जाते हैं। और कैसे इस चकित्सक—रोगी संबंध को बचाया जाये यह समस्या बन गई है, क्योंकि देर— अबेर यह एक प्रेम —संबंध बन जाता है। क्यों? क्यों एक स्त्री रोगी एक पुरुष मनोविश्लेषक के प्रेम में पड़ जाती है? या फिर इस से उल्‍टा एक पुरुष रोगी क्यों एक स्त्री मनोविश्लेषक के प्रेम में पड़ जाता है? इसका कारण इतना ही हे कि पहली बार कोई इतना ध्यान देता है। प्रेम की आवश्यकता की पूर्ति होती है।
जब तक कि तुम्हारा बुनियादी अस्तित्व ही नहीं बदला जाता, तब तक समस्याओं को हल कर ने सें कुछ नहीं होगा। तुम्हारे भीतर अनंत संभावना है नई समस्याएं निर्मित करने की। ध्यान इस बात का प्रयल है कि तुम्हें स्वतंत्र बनाया जाये—पहली बात, और दूसरे : तुम्हारे होने के ढंग को और तुम्हारी चेतना के गुण को बदला जाये। चेतना की नयी गुणवत्ता के साथ पुरानी समस्याएं नहीं जी सकतीं। वे बस विलीन हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, तुम कभी बच्चे थे, तब तुम्हारी दूसरी ही समस्याएं थीं। फिर जब तम जवान हुए, तो वे समस्याएं विलीन हो गईं। वे कहां चली गईं? तुमने कभी उन्हें हल नहीं किया। बस वे विलीन हो गईं। तुम्हें स्मरण भी नहीं है कि तुम्हारे बचपन की क्या समस्याएं थीं। लेकिन तुम बड़े हुए, और वे समस्‍याएं विलीन हो गईं।
फिर तुम जवान थे तो एक दूसरे ही प्रकार की समस्याएं थीं। जब तुम के हो जाओगे तो वें समस्‍याएं नहीं रहेंगी। नहीं कि तुम उनका समाधान खोज लोगे—कोई भी किसी समस्या को हल नहीं कर सकता —बस कोई विकसित होकर उनसे बाहर हो सकता है। जब तुम वृद्ध हो जाओगे तो तुम अपनी स्नमस्याओं पर खुद ही हंसोगे, जो कि इतनी जरूरी थीं, और इतनी विध्वंसात्मक थीं कि कई बार तुमने उनके ही कारण आत्मघात करने का भी विचार किया था। और तब जब तुम वृद्ध हो गये होओगे तो तम्हें सिर्फ हंसी आयेगी कि आखिर वे समस्याएं कहां गईं? क्या तुमने उनको हल किया? नहीं—सिर्फ तुम विकसित हो गये। वे समस्याएं विकास की एक विशिष्ट स्थिति से संबंधित थीं।
वैसा ही मामला है : जैसे—जैसे तुम अपनी चेतना में गहरे विकसित होते हो, वैसे—वैसे समस्याएं विलीन होती चली जाती हैं। एक क्षण आता है जब कि तुम इतने सजग होते हो कि समस्याएं खड़ी ही नहीं होतीं। ध्यान विश्लेषण नहीं है, ध्यान विकास है। उसका संबंध समस्याओं से नहीं है, उसका संबंध तुम्हारे अस्तित्व से है।

दूसरा प्रश्न :

कल रात आपने कहा कि या तो हम पूर्णरूप से आपमें विश्वास करें कि जो भी आप कहते हैं वह सत्य है या हम पूर्णरूप से आपमें अविश्वास करें और सोचें कि जो भी आप कहते हैं वह सब असत्य है और कि दोनों ही तरीकों से हमें सहायता मिलेगी लेकिन वे क्या करें जो कि दोनों ही तरीकों में पूर्ण नहीं हो सकते? क्या इस मामले में कोई तीसरा विकल्प भी संभव है?


अन्य कोई विकल्प न है, और न हो सकता है। तीसरी तो तुम्हारी अवस्था है ही—कोई जरूरत नहीं है... ये दो विकल्प उससे बाहर आने के लिए ही हैं। तीसरे तो तुम अभी हो ही—उलझन से भरे। इस उलझन से तुम किसी समग्र प्रयास से ही बाहर निकल सकते हो।
आखिर क्यों इतना कठिन है समग्र होना, चाहे विश्वास में अथवा अविश्वास में? क्यों सरल है बीच में रहना? क्योंकि यदि तुम बीच में हो, तो फिर किसी परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है, तुम वहां पहले से ही हो। और यदि तुम सोचते ही रहते हो कि किस बात में विश्वास करें और किस बात में विश्वास नहीं करें, तो तुम्हारा मन वही का वही रहता है। क्योंकि यह तुम्हारा मन ही तो है जो कि चुनाव करता है कि क्या विश्वास करने योग्य है, और क्या विश्वास करने योग्य नहीं है। तुम अपने मन के ही अनुसार चुन लेते हो।
तब फिर यह मन कैसे बदल सकता है? यदि तुम्हारा मन ही चुनने वाला है तो यह वही चुनेगा जो कि इसके लिए भोजन बने। और यह उस सबको अलग हटाता जायेगा जो इसे मिटाये, या जिससे इसे बदलना पड़े। मन चाहता है कि स्थिति जैसी है वैसी ही रहे—'स्टेटस—को' बना रहे। यह स्थिर रहना चाहता है, क्योंकि बदलाहट में कष्ट है, असुरक्षा है। तुम्हें फिर से सब कुछ जमाना पड़ेगा, सारा इंतजाम फिर नये सिरे से करना पड़ेगा। यह कठिन होगा।
इसलिए मन मूलत: रूढ़िवादी है; उनका मन भी, जो अपने को क्रातिकारी समझते हैं। मन बड़ा रूढ़िवादी है, इसीलिए हर क्राति अंत में एक रूढ़ि बन जाती है। सारे क्रातिकारी आखिर में बड़े कट्टर—पंथी बन जाते हैं। प्रत्येक क्राति एक गतिहीन समाज में समाप्त होती है। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि मन की प्रकृति ही रूढ़िवादी होने की है—अतीत से चिपके रहने की है।
तो जब मैं कुछ कहता हूं तो तुम चुनाव कर सकते हो. तुम उसे चुन सकते हो जो कि तुम्हें जैसे का तैसा रहने में मदद दे। तुम कहोगे, ''यही सत्य है। '' जो तुम्हें रूपांतरण की ओर ले जाता हो, किसी नई अज्ञात जगह, किसी असुरक्षा में, किसी अनजान मार्ग, पर किसी अज्ञात यात्रा पर ले जाता हों—उसे तुम कहोगे, ''यह सत्य नहीं है। ''
तो तुम चुनाव करते रह सकते हो। यही तो तुम करते रहे हो। और मैं तुम्हें कहता हूं '' समग्र हो जाओ। ''तब बदलाहट होगी ही। क्राति अनिवार्य है। जब मैं कहता हूं ''मुझमें पूरी तरह विश्वास करो, ''या, ''बिलकुल भी विश्वास मत करो, '' तो मैं नहीं कहता, ''मुझमें विश्वास करो। '' मैं कहता हूं '' समग्र हो जाओ। '' आधे—अधूरे तुम कहीं भी नहीं पहुंचोगे। और कैसे तुम निर्णय कर सकते हो कि क्या सच द्रे और क्या झूठ है? ज्यादा संभावना यही है कि जिसे तुम सोचोगे कि सच है वह झूठ होगा, या इससे उल्टा होगा। क्योंकि यदि तुम पहले से ही जानते हो कि सच क्या है तो फिर कोई जरूरत नहीं है—फिर मेरे पास आने की या किसी और के पास जाने की कोई जरूरत नहीं है। बिलकुल भी जरूरत नहीं है। लेकिन मन तरकीबें निकालता रहता है।
आज ही एक युवक मुझसे मिलने आया। मैंने उससे कहा, ''संन्यास में छलांग लो।''
उसने कहा, ''मैं जे कृध्यर्ग्रित को सुनता रहा हूं और मैं किसी चीज के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हो सकता। '' लेकिन उसे पता नहीं है कि वह जे. कृष्णमुर्ति के साथ प्रतिबद्ध हो गया है।
जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं, ''प्रतिबद्ध मत होओ, '' इसलिए वह अपने को प्रतिबद्ध नहीं कर रहा है। लेकिन उसने सलाह मान ली है, वह पहले से ही अनुयायी बन गया है। उसका मन तरकीब निकाल रहा है। वह सोच रहा है कि अब किसी का अनुयायी बनने की आवश्यकता नहीं है।
तुम पहले ही अनुयायी बन चुके हो, लेकिन यह अचेतन है। तुम्हें पता नहीं है कि तुम्हें क्या घट चुका है। और इससे कुछ ज्यादा लाभ नहीं होगा, क्योंकि यह अचेतन है। जब तक वह चेतन न हो जाये......।
मैं कहता हूं यदि तुम्हें लगता है कि कृष्णमूर्ति सही हैं तो उनके प्रति प्रतिबद्ध हो जाओ, सचेतन रूप से तथा समग्रता से। लेकिन उसे सचेतन कर लो, क्योंकि जो भी सचेतन है वही रूपांतरण में मदद कर सकता है। जो अचेतन है वह मदद नहीं कर सकता और अगर तुम सोचते हो कि तुम्हें किसी से भी प्रतिबद्ध नहीं होना है, तब फिर तुम्हें अपनी स्वतंत्रता को बहुत तरह से सुरक्षित रखना पड़ेगा। तब फिर जे कृष्णमूर्ति के पास या मेरे पास या किसी के भी पास जाने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि किसी के भी पास जाने की कोशिश ही बतलाती है कि तुम्हें सहायता की जरूरत है—कि कोई और चाहिए।
लेकिन तुम अपने को बहलाये रख सकते हो। तुम सोच सकते हो, ''मैं तो सिर्फ सुन रहा हूं। मैं चुनाव करूंगा कि क्या ठीक है। मैं उसी में विश्वास करूंगा जो सही है और उसमें विश्वास नहीं करूंगा जो सही नहीं है। '' जैसे कि तुम्हारे पास कोई कसौटी है तौलने की कि क्या सही है और क्या सही नहीं है! तुम कैसे तौलोगे? या तो तुम जानते हो, तो फिर किसी के पास जाने की जरूरत नहीं है। या तुम नहीं जानते हो, तब तुम तौल नहीं सकते।
बुद्ध कहा करते थे, ''मुझसे प्रश्न मत पूछो, बल्कि जो मैं कहता हूं वह करो, और एक वर्ष तक वैसा करने के बाद मैं तुम्हें प्रश्न पूछने की आज्ञा दूंगा। लेकिन एक वर्ष तक मैं जो भी कहूं वह करो। इस एक वर्ष के लिए चुनाव मत करो; पूरी तरह से मेरी मानकर चलो और एक वर्ष के बाद जब तुम सजग हो जाओ, स्पष्ट हो जाओ, तब तुम पूछ सकते हो, और तब तुम चुनाव कर सकते हो, क्योंकि तब ताला। पास एक कसौटी होगी जिससे तुम जांच कर सको। '' लेकिन लगभग हमेशा ऐसा हुआ कि एक वर्ष क्ऐंए। गहरे ध्यान के बाद जब बुद्ध कहते, ''अब तुम पूछ सकते हो, और अब मैं तुम्हें चुनाव करने की इजाजत देता हूं '' तो वह व्यक्ति कहता, '' अब मेरे पास कुछ भी पूछने के लिए नहीं है, और अब कुछ भी चुनाव करने को नहीं है।''
जब मैं तुम्हें संन्यास में छलांग लगाने को कहता हूं तो मेरा मतलब है कि फिलहाल चुनाव मत करो। यह तुम्हारी जिंदगी भर के लिए नहीं है, लेकिन फिलहाल चुनाव मत करो, ताकि तुम्हारा मन बीच में न आये। वही करो जो मैं तुमसे कहता हूं। एक वर्ष की सच्ची मेहनत के बाद, मैं तुम्हें चुनाव करने की स्वीकृति दूंगा, तब तुम चुन सकते हो! तब तुम सोच—विचार कर सकते हो। तब तुम्हारे पास कुछ होगा जिससे तुम जांच कर सकोगे। अभी तुम जांच नहीं कर सकते, लेकिन फिर भी तुम निर्णय लेते रहते हो।
मैं दोनों प्रकार के लोगों के साथ प्रसन्न हूं : जो कह सकें, ''मैं समग्रता से विश्वास करता हूं ''—मैं उनके साथ काम कर सकता हूं—या जो कहते हैं, ''मैं बिलकुल भी विश्वास नहीं करता, ''—मैं उन्हें उन पर छोड़ सकता हूं। लेकिन इन उलझे हुए लोगों के साथ, जो कहते हैं, ''कुछ चीजों में हम विश्वास करते हैं और कुछ चीजों में हम विश्वास नहीं कर सकते, '' कुछ भी नहीं किया जा सकता। और वे मेरे इर्द—गिर्द घूमते रहते हैं, लेकिन मैं उनकी कुछ भी मदद नहीं कर सकता। वे व्यर्थ ही अपना समय बर्बाद कर रहे हैं, क्योंकि मैं उनकी कुछ भी मदद नहीं कर सकता। वे मुझे मदद करने ही नहीं देंगे। वे समय बर्बाद कर रहे हैं; वे एक अवसर को चूक रहे हैं। बहुत आसानी से कुछ संभव हो सकता था यदि वे लेने को तैयार होते, लेकिन वे लेने को तैयार ही नहीं हैं। और वे कहते हैं कि वे जांच—परख करेंगे। वे सोचते रह सकते हैं... लेकिन वे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचेंगे।
तुम किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकते क्योंकि तुम्हारा मन उलझा हुआ है। और यदि तुम इस उलझन से कुछ भी चुनोगे तो तुम और ज्यादा उलझ जाओगे। उलझन में लिया गया कोई भी निर्णय तुम्हें और उलझन में ले जायेगा। एक उलझन से भरा हुआ चित्त कुछ भी चुनाव नहीं कर सकता। समर्पण का यही अर्थ है। तो जब तुम्हें लगता है कि तुम उलझन में हो तो तुम किसी के पास जाते हो... तुम्हें लगता है कि उसके पास स्पष्टता है। मैं कहता हूं ''तुम्हें ऐसा लगता है '' —ऐसा नहीं है कि तुम सोचते हो। यदि तुम्हें प्रतीत होता है कि किसी के पास एक स्पष्टता है जो कि तुम्हारे पास नहीं है, तो समर्पण करो। इसमें जोखिम है, खतरा है, लेकिन खतरा तो लेना ही होगा, क्योंकि बिना खतरे के कोई संभावना नहीं है।
यदि तुम बहुत होशियार हो, चतुर हो और कोई खतरा लेने को तैयार नहीं हो, तो तुम अपने सारे जीवन चूकते ही जाओगे, तुम किसी भी बोध तक नहीं पहुंचोगे। खतरा बुनियादी बात है। यह खतरनाक है! क्योंकि तुम नहीं जानते, तुम्हें कुछ भी पक्का पता नहीं है कि जिस व्यक्ति को तुम समर्पण कर रहे हो वह वास्तव में सच्चा है या नहीं। यह खतरे से भरा है, लेकिन प्रयोग करो। यदि वह सच्चा नहीं है तो भी तुम लाभ में ही रहोगे, क्योंकि वह तुम्हें कहीं भी नहीं ले जा सकेगा। यदि वह सच्चा नहीं है और तुम अपना सब कुछ समर्पित कर देते हो तो तुम्हें मालूम हो जायेगा कि एक झूठा गुरु कैसा होता है। और तुम इस जाल में फिर कभी नहीं पड़ोगे। लेकिन यदि वह सच्चा हुआ तो तुम अपने स्वरूप के एक नये ही आयाम को उपलब्ध हो जाओगे। कुछ भी खोता नहीं है, खतरा लेने जैसा है।
लेकिन तुम चालाक हो—तुम्हारी चालाकी ही बाधा है। थोड़े नासमझ बनो और छलता लगाओ, इतने चालाक मत बनो। तुम पहले ही बहुत कुछ खो चुके हो चालाक बन कर। कुछ बातें हैं जहा केवल नासमझ, पागल, प्रेमी ही प्रवेश पा सकते हैं, कुछ ऐसे द्वार हैं। होशियार लोग वहां कभी नहीं जाते। ऐसा होता है कि थोड़ा—सा खतरा लेकर नासमझ बुद्धिमान साटि.. होते हैं और बुद्धिमान नासमझ साबित होते हैं, क्योंकि नासमझ खतरा उठा सकते हैं, और तथाकथित बुद्धिमान खतरा नहीं उठा सकते।
कोई और विकल्प नहीं है। तीसरा कोई विकल्प नहीं है। ये ही दो विकल्प हैं। तीसरा विकल्प जो है वह तुम अभी हो ही। इसलिए यदि तुम सोचते हो कि तीसरा ठीक है तो जैसे हो वैसे बने रहो, किसी परिवर्तन की मत सोचो। यदि तुम सोचते हो कि तुम जैसे हो वैसे बड़े दुख में हो, महानर्क में हो, तो उस नर्क से बाहर छलांग लगा लो। और छलांग सदा अज्ञात में है, इसलिए खतरा है, वह होगा ही। अत: थोड़े साहसी बनो, थोड़े नासमझ बनो।
जब बुद्ध ने अपना महल छोड़ा तो वह नासमझ थे। उनके सारथी ने भी, जो उन्हें राज्य की सीमा पर छोड़ने आया था, उनसे कहा—उस सारथी का नाम चन्ना था—चन्ना ने बुद्ध से कहा, '' आप एक बहुत ही नासमझी का काम कर रहे हैं। यह जोखिम बहुत अधिक है : साम्राज्य खो रहे हैं, सिंहासन छोड़ रहे हैं, उसके लिए जिसका कुछ भी पता नहीं। कोई नहीं जानता कि आत्मा होती भी है या नहीं। जो आपके पास है उसे उसके लिए ल्ट्रोड्ना जो कि अनिश्चित है बड़ी नासमझी है। ''
बुद्ध ने उसकी बात नहीं सुनी। वह आदमी का था, और बुद्ध से ज्यादा होशियार था, अत: उसने बुद्ध से कहा, '' आप अभी युवा हैं, और युवा होने के कारण आप अभी इतने प्रौढ़ नहीं हैं कि आप समझ सकें कि आप क्या कर रहे हैं। वापस लौट चलें! हर आदमी इस महल को पाना चाहता है जिसे आप छोड़ कर जा रहे हैं। और आप जा कहां रहे हैं? भिखारी होने? यदि भिखारी ही प्राप्त कर सकते होते तो सारा संसार ही भिखारी हो जाता। और इतने भिखारी सड़क पर पड़े हुए हैं, और इनको कुछ भी तो नहीं मिला है। कहां जा रहे हैं आप इतना दाव पर लगाकर? शात को अज्ञात के लिए छोड़ना हमेशा एक जोखिम है। ''
तो बुद्ध ने कहा, ''मैं ज्ञात से बहुत तंग आ चुका हूं। मैंने उसको जान लिया है और अब कुछ भी और जानने को नहीं है। इसलिए मुझे खतरा मोल लेने दो। यदि मैं खो देता हूं तो भी मेरा कुछ भी खोता नहीं, क्योंकि मेरे पास कुछ है ही नहीं। यदि मैं पाता हूं तो सभी कुछ पा लेता हूं इसलिए खतरा उठाने 'जैसा है। मैं कुछ भी खोने को नहीं हूं क्योंकि मेरे पास कुछ भी नहीं है। वे महल और वे सुंदर स्त्रियां, मैं उनके साथ जी लिया हूं मैं उन्हें जान चुका हूं। अब वहां जानने को कुछ नहीं बचा है। अब कोई रहस्य नहीं बचा है। अब वह सब एक पुनरुक्ति, एक आदत—सा, उबाऊ हो गया है। मैं एक यंत्र की भांति हो गया हूं। अब वापस लौटने जैसा वहा कुछ भी नहीं है। मैं खतरा लूंगा। यदि मैं खोता हूं तो भी मैं कुछ नहीं खोता, क्योंकि मेरे पास कुछ है ही नहीं। ''
क्या है तुम्हारे पास जिसके कारण तुम समर्पण करने से इतने डरे हुए हो? क्या है तुम्हारे पास? तुम्हारी दशा उसे नंगे आदमी जैसी है जो नदी में नहाने से डरता है, क्योंकि वह सोचता है, ''मैं अपने कपड़े कहां सुखाऊंगा? '' और वह नंगा है। उसके पास कपडे हैं ही नहीं। लेकिन वह नहाने को नदी में नहीं उतर रहा है क्योंकि उसे डर है कि कपड़े कहां सुखाऊंगा त्र: क्या है तुम्हारे पास खोने को? और पाने की बड़ी संभावना है। लेकिन मैं कहता हूं 'संभावना' और यही खतरा है।
धर्म कमजोरों के लिए नहीं है। यह उनके लिए ही है जिनके पास बड़ा मजबूत संकल्प है अज्ञात में प्रवेश करने का। कमजोर सदा दो नावों पर सवार होते हैं और इसीलिए संभ्रमित रहते हैं। और नावें सदा दो दिशाओं में जा रही होती हैं। वे एक नाव में यात्रा नहीं कर सकते क्योंकि उन्हें डर लगता है। और वे बड़े चालाक हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि यदि एक गलत दिशा में गई तो दूसरी तो है ही। तो वे दो नावों में यात्रा करते हैं... वे कभी कहीं नहीं पहुंचते, क्योंकि तुम दो नावों में यात्रा नहीं कर सकते।
तीसरा कोई विकल्प नहीं है। तुम्हें 'यह' या 'वह' में से ही चुनना होगा। केवल तभी कोई क्राति घटित हो सकती है। पुराने को मरना होगा ताकि नया जन्म सके, और कोई समझौता नहीं हो सकता। पुराना किसी भी रूप में नये के साथ बना नहीं रह सकता। उसे तो पूरा का पूरा ही उतार कर फेंक देना है। धर्म दोनों है, मृत्यु भी और पुनर्जन्म भी। और जब मैं तुम्हें कहता हूं : एक को चुनो, अपने चुनाव में समग्र हो जाओ, तो यह मृत्यु ही होने वाली है, और यही डर है। लेकिन जब तक तुम मरो नहीं, तुम्हारा पुनर्जन्म नहीं हो सकता।

अंतिम प्रश्न :


मैं हर चीज के बारे में पूरी तरह असहाय अनुभव करता हूं— जीवन स्वास्थ्य ध्यान और यहां तक कि समग्र समर्पण के लिए भी मैं असहाय अनुभव करता हूं। जो भी मैं करता हूं हमेशा अधूरा आंशिक ही होता है अचेतन कारण बहुत कुछ नियंत्रित करते हैं। और मेरे सारे प्रयास व अप्रयास की कोशिशें उनके सामने शक्तिहीन हैं। मुझे लगता है कि यह सब मैं आप पर छोड़ देना चाहता हूं लेकिन वह भी वहीं तक संभव है जहां तक मैं सजग रूप से समर्थ हूं। और फिर मुझे यह भी खयाल है कि आत्यंतिक घटना इस जीवन में शायद घटे और शायद न भी घटे और मैं यह भी आपसे नहीं पूछ सकता हूं कि यह कब —घटेगी यदि इसे मैं आप पर छोड़ता हूं क्या मैं आप पर सब छोड़ सकता हूं यद्यपि मुझे खयाल है कि वह घटना घटने में कई— कई जीवन भी लग सकते हैं? यदि इस समर्पण से कुछ भी फलित नहीं होता तब भी क्या यह समर्पण ही है?


तीन बातें : पहली, समग्र से मेरा मल्लब है जो प्री संभव है, मेरा मतलब संपूर्ण से नहीं है। तुम अभी संपूर्ण समर्पण नहीं कर सकते, क्योंकि तुम स्वयं ही संपूर्ण नहीं हो, फिर तुम कैसे संपूर्ण समर्पण कर सकते हो? समग्र से मेरा मतलब है जो भी तुम कर सकते हो, कुछ भी बचाओ मत। जो भी तुम कर सकते हो, तुम्हारी सारी सामर्थ्य—न कि तुम्हारा पूरा अस्तित्व, क्योंकि तुम अभी वह हो ही नहीं, अत: तुम उसे समर्पित करोगे भी कैसे? लेकिन जो भी तुम कर सकते हो उस सबको अपने समर्पण में समाहित कर लो।
यह आशिक ही होगा—आशिक इन अर्थों में कि तुम्हारा सारा अस्तित्व उसमें समाहित नहीं होगा। तुम्हारा एक अचेतन भाग है। तुम उसे इसमें नहीं ला सकते, यह तुम्हारे लिए असंभव है। तुम जानते भी नहीं हो कि वह क्या है, वह कहां है, वह कैसे काम करता है और उसे समर्पण में कैसे लाया जा सकता है। तुम यह नहीं कर सकते। जो भी तुम कर सकते हो—उसमें से कुछ भी अनकिया मत छोड़ो। समर्पण से मेरा मतलब है : तुम्हारी सारी चेतन सामर्थ्य से समर्पण। इस समर्पण से धीरे— धीरे भीतर का अस्तित्व ऊपर आने लगेगा, और उसमें समाहित होने लगेगा।
प्रारंभ में तो यह ऐसे ही हो सकता है। इसलिए जब तक तुम अपना पूर्ण अस्तित्व ही समर्पित न कर सको, तब तक ठहरने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तब समर्पण की आवश्यकता ही नहीं होगी—क्योंकि जब तुम भीतर समग्र हो ही गये हो तो फिर समर्पण की आवश्यकता ही नहीं है। समर्पण तो एक विधि है समग्र होने की। इसलिए तुम जैसे हो और जितना तुम कर सकते हो वैसे ही छलांग लगाओ। बस इतना ही।
दूसरी बात, इस बात की चिंता मत करो कि यह कब घटेगा। यह अगले क्षण भी घट सकता है, और यह शायद कई—कई जीवन भी न घटे। यह निर्भर करता है। यह अगले क्षण भी घटित हो सकता है। यदि तुम्‍हारी छलांग तीव्र है, समग्र है, यदि तुमने उसमें अपनी सामर्थ्य भर सब कुछ लगा दिया है, तो यह अगले क्षण भी घटित हो सकता है। लेकिन यदि तुमने थोड़ा पीछे बचा लिया तो उसमें समय लगेगा। वह कई जीवन ले सकता है। लेकिन यदि यह कई जीवनों में भी घटित हो तो भी जल्दी ही है, क्योंकि तुम लोखों वर्षों से जी रहे हो, और अभी तक यह नहीं घटा।
अत: यदि इसमें कुछ जीवन भी लग जायें तो भी ज्यादा नहीं है, तो भी यह जल्दी ही है। इसके लिए चिंता मत करो, क्योंकि यह चिंता भी समग्र समर्पण के रास्ते में बाधा बन जायेगी, और यह चिंता एक भीतरी शर्त हो जायेगी। जाने— अनजाने तुम चाहने लगोगे कि यह जल्दी ही घट जाये, और यह अपेक्षा एक वासना बन जायेगी, और यही रुकावट हो जायेगी। इसलिए यह सोचो ही मत कि यह कब घटेगा, उसकी नई शर्त मत बनाओ। उसे बेशर्त ही घटित होने दो। अपने हृदय के अतंर्तम में कह दो, ''यह कभी भी घटित हो.. मैं नहीं हूं। और यह घटे चाहे न घटे तो भी मैं समर्पण करने को तैयार हूं। '' तब यह बहुत जल्‍दी घट जायेगा। यह उस समर्पण में ही घटित हो सकता है, शायद उसमें एक क्षण भी न लगे।
मैं तुमसे एक कहानी कहता हूं। एक बहुत पुरानी हिंदू कथा है :

दो संन्यासी दो वृक्षों के नीचे ध्यान कर रहे हैं, और नारद वहां से गुजरते हैं। नएद इन दो जगतों के बीच में संदेशवाहक हैं—इस और उस जगत के बीच। वे दोनों के बीच घूमते रहते हैं और वे यहा की खबरे वहां पहुंचाते रहते हैं और वहां की खबरें यहां पहुंचाते रहते हैं।
वे पहले साधु के पास से गुजरते हैं जो कि बहुत का हो गया है, जो गहन तपस्या में लगा है, और  कई जीवनों से मोक्ष के लिए श्रम कर रहा है। वह साधु पूछता है, ''नारद, क्या तुम उस दूसरे जगत में जा रहे हो? तो कृपया भगवान से पूछना कि मुझे अभी कितना वक्त और लगेगा, कि अभी मुझे इस शरीर में कितनी देर और जीना होगा। यह बहुत हो गया है! मैं कई जन्मों से श्रम कर रहा हूं। अभी कितना समय और बचा है अंतिम मोक्ष पाने में? कृपया यह बात पूछना। ''
जिस तरह से वह साधु पूछ रहा था उससे लगता था कि वह बहुत तनाव से भरा है, लोभ से भरा है, शर्त लगा रहा है, जैसे कि वह शिकायत कर रहा हो। उसे लगता था कि वह पहले ही कई जन्मों से कठिन श्रम करता रहा है—जैसे कि उसके साथ बड़ा भारी अन्याय हो रहा हो। उसका स्वर, उसका ढंग शिकायत भरा है।
नारद दूसरे वृक्ष के पास से गुजरते हैं। एक नवयुवक वहां पर नाच रहा है, गा रहा है, आनंद मना रहा है। उसने नारद की तरफ देखा भी नहीं। नारद वहां पर खड़े हो जाते हैं। उस युवक ने उनको देखा लेकिन फिर भी वह नाचता ही रहा। तो नारद ने ही उससे पूछा, ''क्या तुम्हें कुछ नहीं पूछना है? उस पड़ोस के दूसरे वृक्ष के नीचे वाले साधु ने पूछा है। क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे बारे में भी खबर लाऊं कि तुम्हें मुक्ति कब मिलेगी? '' वह आदमी तो नाचता ही रहा और उसने कुछ भी नहीं कहा।
नारद दूसरे जगत जाते हैं, वापस आते हैं। उन्होंने उस बूढ़े संन्यासी से कहा, ''मैंने परमात्मा से पूछा था, और उन्होंने कहा है कि तीन जन्म और लगेंगे। ''
वह साधु अपनी माला फेर रहा था, उसने माला फेंक दी और बोला, ''तीन जन्म और! '' वह बड़ा क्रोधित और निराश हुआ।
नारद दूसरे वृक्ष के पास पहुंचे। वह युवक अभी भी नाच रहा था। नारद ने कहा, ''यद्यपि तुमने तो पूछने के लिए नहीं कहा था फिर भी मैंने पूछ लिया। लेकिन मुझे तुम्हें बताने में बड़ा डर लग रहा है, क्योंकिं उस साधु ने अपनी माला फेंक दी है और वह क्रोधित तथा निराश हो गया है। इसलिए तुम्हें कहने में मुझे डर लग रहा है। ''
युवक ने कहा, ''फिर भी तुम कह सकते हो क्योंकि जो भी है सब आनदपूर्ण है, जो भी होता है वह अच्छा ही है। तुम मुझे कह दो, चिंता करने की जरूरत नहीं है। ''
तो नारद ने कहा, ''मैंने परमात्मा से पूछा था, और उन्होंने कहा है कि तुम्हें अभी उतने ही जीवन और लगेंगे जितने इस वृक्ष में पत्ते हैं, जिसके नीचे तुम नाच रहे हो। ''
वह युवक तो इतना हर्षोल्लास से भर गया। उसने कहा, ''बस इतने ही पत्ते? इतने कम? क्योंकि यह पृथ्वी तो पत्तों से भरी है, अनंत पत्ते हैं। '' वह तो फिर से नाचने लगा। और कहते हैं कि उसी क्षण वह इस पृथ्वी से अदृश्य हो गया।
यह है समर्पण। यह है समग्र स्वीकार—कोई शिकायत नहीं, कोई शर्त नहीं, कोई अपेक्षा नहीं। तत्‍क्षण उसकी मुक्ति हो गई, उसी क्षण वह मुक्त हो गया।
मुझे उस बूढ़े साधु का तो पता नहीं, उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा गया। लेकिन मुझे नहीं लगता है कि तीन जन्म भी उसके लिए पर्याप्त होंगे। वह अभी भी यहीं कहीं होगा, अभी भी तपस्या कर रहा होगा।

दिनांक 14 जुलाई 1973; संध्या,
माउंट आबू राजस्थान।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें