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बुधवार, 20 जून 2018

सर्वसार-उपनिषद--प्रवचन-06

पंच कोष—छठवां प्रवचन

ध्‍यान योग शिविर,
दिनांक 11जनवरी, 1972;
माथेरान।

सूत्र :

                  अन्नकार्याणां कोशाना समूहोऽन्नमयकोश इत्‍युच्‍यते । 
                        प्राणादिचतुर्दशवायुभेदा अन्नमयकोशे
                      यदा वर्तन्ते तदा प्राणमयकोश इत्‍युच्‍यते ।


            अन्न से बनने वाले कोषों के समूह रूप शरीर को अन्नमय कोष कहते हैं ।
               प्राण आदि चौदह प्रकार के वायु इस अन्नमय कोष में संचार करते हैं,
                            तब उसे प्राणमय कोष कहते हैं ।

नुष्य का व्यक्तित्व बहुत पर्तों से बना है। और इन पर्तों का सम्यक बोध इन पर्तों को पार करने के लिए जरूरी है। जिसके पार हमें जाना हो उसे जान लेना जरूरी है, जिससे हमें मुक्त होना हो उसे पहचान लेना जरूरी है।

ऊपर से देखने पर आदमी जैसा दिखाई पड़ता है, वह उसका पूरा शरीर नहीं है, वह केवल उसके शरीरों की पहली पर्त है। जब हम देखते हैं आदमी को तो जो हमें दिखाई पड़ता है, उसे ऋषियों ने 'अन्नमय कोष 'कहा है--दि फिजिकल बॉडी।
यह जो शरीर है, यह माता-पिता से उपलब्ध होता है, यह आपका नहीं है; यह पर्त आप नहीं हैं, यह पर्त एक लंबी परंपरा है। हजारों शरीरों ने इस शरीर को निर्मित किया है। आपके मां-बाप आपको जो बीजाणु देते हैं उसमें इस शरीर की पूरी बिल्ट इन प्रोसेस, इस शरीर के होने की सारी संभावना छिपी होती है।
अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि आपके शरीर में जो भी प्रकट होता है पूरे जीवन में, वह सब आपके पहले बीज-कोष में छिपा होता है; कुछ भी नया घटित नहीं होता। आपकी आंख का रंग, आपके बाल का रंग, आपकी चमड़ी का रंग, आपकी उम्र--आपके व्यक्तित्व में जो-जो फलित होगा, वह सब उस बीज में छिपा होता है; वह आप नहीं हैं। उस शरीर की तो लंबी अपनी यात्रा है-- आपके माता-पिता से आपको मिला है, उनके माता-पिता से उन्हें मिला है--लंबी यात्रा है, करोड़ों वर्ष की लंबी यात्रा है।       अगर हम अपने शरीर में पीछे लौटें तो प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में इस जगत का पूरा इतिहास छिपा है। यह जगत पहले दिन बना होगा, उस दिन भी आपके शरीर का कुछ हिस्सा मौजूद था; वही विकसित होते आपका शरीर हुआ है। एक छोटे से बीज-कोष में इस अस्तित्व की सारी कथा छिपी है; वह आपका नहीं है, उसकी लंबी परंपरा है। वह बीज-कोष न मालूम कितने मनुष्यों से, न मालूम कितने पशुओं से, न मालूम कितने पौधों से, न मालूम कितने खनिजों से यात्रा करता हुआ आप तक आया है। वह आपकी पहली पर्त है। उस पर्त को ऋषि अन्नकोष कहते हैं। अन्नकोष इसलिए कहते हैं कि उसके निर्माण की जो प्रक्रिया है वह भोजन से होती है; वह बनता है भोजन से।
प्रत्येक व्यक्ति का शरीर सात साल में बदल जाता है। सभी कुछ बदल जाता है-- हड्डी-मांस-मज्जा, सभी कुछ बदल जाती है। एक आदमी सत्तर साल जीता है तो दस बार उसके पूरे शरीर का रूपांतरण हो जाता है। रोज आप जो भोजन ले रहे हैं, वह आपके शरीर को बनाता है; और रोज आप अपने शरीर से मृत शरीर को बाहर फेंक रहे हैं। जब हम कहते हैं कि फलां व्यक्ति का देहावसान हो गया, तो हम अंतिम देहावसान को कहते हैं.. जब उसकी आत्मा शरीर को छोड़ देती है। वैसे व्यक्ति का देहावसान रोज हो रहा है, व्यक्ति का शरीर रोज मर रहा है, आपका शरीर मरे हुए हिस्से को रोज बाहर फेंक रहा है। नाखून आप काटते हैं, दर्द नहीं होता, क्योंकि नाखून आपके शरीर का मरा हुआ हिस्सा है। बाल आप काटते हैं, पीड़ा नहीं होती, क्योंकि बाल आपके शरीर के मरे हुए कोष हैं। अगर बाल आपके शरीर के जीवित हिस्से हैं तो काटने से पीड़ा होगी।
आपका शरीर रोज अपने से बाहर फेंक रहा है... एक मजे की बात है कि अक्सर कब में मुर्दे के बाल और नाखून बढ़ जाते हैं, क्योंकि नाखून और बाल का जिंदगी से कुछ लेना-देना नहीं है, मुर्दे के भी बढ़ सकते हैं, वे मरे हुए हिस्से हैं.. वे मरे हुए हिस्से हैं, वे अपनी प्रक्रिया जारी रख सकते हैं। भोजन आपके शरीर को रोज नया शरीर दे रहा है, और आपके शरीर से मुर्दा शरीर रोज बाहर फेंका जा रहा है। यह सतत प्रक्रिया है। इसलिए शरीर को अन्नमय कोष कहा है, क्योंकि वह अन्न से ही निर्मित होता है।
और इसलिए बहुत कुछ निर्भर करेगा कि आप कैसा भोजन ले रहे हैं। इस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा। आपका आहार सिर्फ जीवन चलाऊ नहीं है, वह आपके व्यक्तित्व की पहली पर्त निर्मित करता है। और उस पर्त के ऊपर बहुत कुछ निर्भर करेगा कि आप भीतर यात्रा कर सकते हैं या नहीं कर सकते हैं, क्योंकि सभी भोजन एक जैसा नहीं है।
कुछ भोजन हैं जो आपको भीतर प्रवेश करने ही न देंगे, जो आपको बाहर ही दौड़ाते रहेंगे; कुछ भोजन हैं जो आपके भीतर चैतन्य को जन्मने ही न देंगे, क्योंकि वे आपको बेहोश ही करते रहेंगे, कुछ भोजन हैं जो आपको कभी शांत न होने देंगे, क्योंकि उस भोजन की प्रक्रिया में ही आपके शरीर में एक रेस्टलेसनेस, एक बेचैनी पैदा हो जाती है। रुग्ण भोजन हैं, स्वस्थ भोजन हैं, शुद्ध भोजन हैं, अशुद्ध भोजन हैं।
शुद्ध भोजन उसे कहा गया है, जिससे आपका शरीर अतर की यात्रा में बाधा न दे, बस, और कोई अर्थ नहीं है। शुद्ध भोजन से सिर्फ इतना ही अर्थ है कि आपका शरीर आपकी अंतर्यात्रा में बाधा न बने। एक आदमी अपने घर की दीवालें ठोस पत्थर से बना सकता है। कोई आदमी अपने घर की दीवालें कांच से भी बना सकता है, लेकिन कांच पारदर्शी है, बाहर खड़े होकर भी भीतर का दिखाई पड़ता है। ठोस पत्थर की भी दीवाल बन जाती है, तब बाहर खड़े होकर भीतर का दिखाई नहीं पड़ता है।
शरीर भी कांच जैसा पारदर्शी हो सकता है। उस भोजन का नाम शुद्ध भोजन है जो शरीर को पारदर्शी, ट्रांसपैरेंट बना दे--कि आप बाहर भी चलते रहें तो भी भीतर की झलक आती रहे। शरीर को आप ऐसी दीवाल भी बना सकते हैं कि भीतर जाने का खयाल ही भूल जाए, भीतर की झलक ही मिलनी बंद हो जाए।
सात्विक और असात्विक का इतना ही अर्थ है. आपका शरीर पारदर्शी हो सके... पहली पर्त पारदर्शी हो सके। तो भीतर की यात्रा शुरू होती है। और जब पहली पर्त पारदर्शी होती है तो ही दूसरी पर्त का पता चलता है, नहीं तो पता नहीं चलता। हमें पता ही नहीं चलता कि शरीर के भीतर और भी कोई शरीर है। उसका और कोई कारण नहीं है। योगी को पता चलता है कि शरीर के भीतर एक और शरीर है, क्योंकि उसकी पहली पर्त पारदर्शी हो जाती है; तो उसे दूसरे शरीर की झलक मिलनी शुरू हो जाती है।
और तब दूसरे शरीर को भी पारदर्शी बनाने के उपाय हैं। तब तीसरे शरीर की झलक मिलनी शुरू हो जाती है। फिर तीसरे शरीर को भी पारदर्शी बनाया जा सकता है, तो चौथा शरीर। और चौथा भी पारदर्शी हो जाए, तो पांचवां। और जब पांचवां पारदर्शी होता है तब शरीर के बाहर जो है, शरीर के पार जो है, अशरीरी जो है, उसकी झलक मिलनी शुरू होती  तो आप अपने शरीर को ठोस पत्थर की दीवालें बना सकते हैं, कांच की पारदर्शी दीवालें भी बना सकते हैं।

इसलिए पहले से ऋषि शुरू करता है ''अन्नमय कोष।''
यह भोजन से निर्मित जो शरीर है आपके चारों ओर, निश्चित ही यह पूरा का पूरा भोजन से निर्मित है। इसमें कुछ भी नहीं है जो भोजन के बाहर से आया हो। हो सकता है, वह भोजन आपके पिता ने किया हो, और उनके पिता ने किया हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; इस शरीर में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भोजन के बाहर से आया हो।
मनुष्य का जो जीव-कोष है, जिससे गर्भ निर्धारण होता है, उसका विश्लेषण करके सिवाय भोजन के तत्वों के और कुछ भी नहीं मिलता है। भोजन का सारभूत हिस्सा, एसेंस बीज में संगृहीत होता है।
इस पर बड़े प्रयोग किए हैं मनीषियों ने। हजारों वर्ष तक, पीढ़ी दर पीढ़ी, कुछ परिवारों ने हिम्मत करके शाकाहार किया है--पीढ़ी दर पीढ़ी! क्योंकि एक दिन में कुछ बदलाहट शरीर में नहीं होती; शरीर का जाल लंबा है। लेकिन अगर हजारों पीढ़ियों तक एक परिवार शाकाहार पर जीआ है, तो शरीर में आमूल-परिवर्तन हो जाते हैं; अगर मांसाहार पर जीआ है तो भी आमूल-परिवर्तन हो जाते हैं; क्योंकि निरंतर छनते, छनते, छनते, छनते... शुद्धतम होते-होते भोजन बीज-कोष में प्रवेश कर जाता है। और जब बीज-कोष में प्रवेश कर जाता है तभी ट्रांसपैरेसी, पारदर्शी स्थिति पैदा होती है।
अनूठा प्रयोग था यह कि हम भोजन को पूरा बदल कर पूरे शरीर को बदल लें। इतनी बात से वैज्ञानिक भी राजी है कि शरीर में जो भी हम डालते हैं, वह शरीर को बदलता है।
एक स्त्री के शरीर में और एक पुरुष के शरीर में थोड़े से हार्मोन का फर्क है और कुछ भी नहीं। बहुत छोटा सा फर्क है। वह हार्मोन भी भोजन से निर्मित होता है। अगर हम एक स्त्री के शरीर से थोड़े से हार्मोन बाहर कर लें, तो स्त्री का शरीर पुरुष के शरीर में परिवर्तित होने लगेगा। अगर हम पुरुष के शरीर से थोड़े से हार्मोन बाहर कर लें, तो पुरुष का शरीर स्त्री के शरीर में परिवर्तित होने लगेगा। इसलिए अब बहुत दिन तक यह बंधन नहीं रहेगा आदमी के ऊपर कि वह जैसा पैदा हुआ है वैसा ही रहने की मजबूरी हो--वह चाहे तो स्त्री हो सकता है, चाहे तो पुरुष हो सकता है। क्योंकि केवल थोड़े से हार्मोन के फर्क की बात है.. बहुत थोड़ा सा, और हार्मोन भोजन है। वह भोजन से निर्मित सार-तत्व है। उतने से फर्क से स्त्री और पुरुष का भेद हो जाता है।
भोजन के थोड़े से फर्क से बुद्धि क्षीण हो जाती है, या प्रगाढ़ हो जाती है, क्योंकि बुद्धि के लिए कुछ अनिवार्य भोजन के तत्व हैं जो पहुंचने चाहिए। अगर वे न पहुंचें तो बुद्धि क्षीण हो जाती है। बुद्धि की क्षमता भी होगी, तो भी बुद्धि प्रकट नहीं हो पाएगी, क्योंकि प्रकट करने के लिए जो अन्नमय कोष की सहायता चाहिए वह नहीं मिल रही है। एक बहुत छोटा सा तत्व आदमी के तृतीय नेत्र में--जो मैंने कल कहा--पिनीयल ग्लैंड में पैदा होता है, अगर वह पैदा न हो तो बुद्धि एकदम क्षीण हो जाती है।
असल में जब एक आदमी शराब पीता है तो बुद्धि तक उसका कोई प्रभाव नहीं जाता वस्तुत:, चेतना तक शराब नहीं जाती; लेकिन पिनीयल ग्लैंड में जो रस पैदा होते हैं वे पैदा होने बंद हो जाते हैं; बस, बुद्धि खो जाती है। बुद्धि पर कोई परिणाम नहीं होता, लेकिन अन्नमय कोष में जो हिस्सा है, जिससे बुद्धि का संबंध है, वह हिस्सा सो जाता है।
अभी पश्चिम से एक पागलपन सारी दुनिया में फैलना शुरू हुआ है--लिसर्जिक एसिड का; और उस तरह की चीजों का। वैज्ञानिक कहते हैं कि लिसर्जिक एसिड, या मेस्कलीन, या उस तरह की चीजें भी सिर्फ पिनीयल ग्लैंड पर असर करती हैं। और पिनीयल ग्लैंड में जिस तत्व के पैदा होने से मनुष्य की बुद्धि होती है, विवेक होता है, वह तत्व पैदा होना बंद हो जाता है; रुक जाता है, अवरुद्ध हो जाता है। इसलिए कुछ आश्चर्य न होगा कि पश्चिम की जो नई पीढ़ी एल एस डी का प्रयोग कर रही है, वह पश्चिम की पूरी सभ्यता को वापस जमीन पर गिरा दे; क्योंकि वह सारी सभ्यता जिस बुद्धि के आधार पर खड़ी है, उस बुद्धि को नुकसान पहुंचना अनिवार्य है।
निश्चित ही उस बुद्धि के गिर जाने से आदमी एक तरह के बंधन से मुक्त हो जाता है; क्योंकि विवेक का भी एक बंधन है, और विवेक की एक मर्यादा है, उससे मुक्त हो जाता है। उस मर्यादा की मुक्ति को अगर किसी ने स्वतंत्रता समझा तो बड़ी भूल है; क्योंकि स्वतंत्रता दो तरह से फलित होती है मर्यादा के पार हो जाने से भी फलित होती है, मर्यादा के नीचे गिर जाने से भी फलित होती है। मर्यादा से नीचे गिर कर जो स्वतंत्रता है, वह सिर्फ पागलपन है; मर्यादा के पार उठ कर जो स्वतंत्रता है वही, वही परम अवस्था है।
तो बहुत सस्ता मोक्ष खरीदा जा रहा है केमिकल्स से। पर वह भी रासायनिक तत्व... भोजन है।
यह जो हमारा शरीर है, यह जो पहली हमारी पर्त है, यह भोजन की ही पर्त है। इसलिए भोजन का विवेक महत्वपूर्ण है--सिर्फ सुपरस्टीशन नहीं, सिर्फ अंधविश्वास नहीं। एक विशुद्ध शाकाहारी शरीर को एक तरह की लोच देता है, एक फ्लेक्विबिलिटी देता है, जो मांसाहारी के शरीर को उपलब्ध नहीं होती। मांसाहारी के शरीर की पर्त धीरे- धीरे ठीक जानवरों जैसी हो जाती है।
यह बहुत मजे की बात है कि आप जिन जानवरों का मांस लेते हैं, आपको खयाल नहीं कि वह मांस उन जानवरों की शरीर की निर्मिति है, शरीर का कांस्टिटयूएंट हिस्सा है। उस मांस को आप सीधा अपने शरीर में ले जाते हैं, तो आप धीरे- धीरे अपने शरीर को उन जानवरों जैसी व्यवस्था भीतर से देना शुरू कर देते हैं। वह व्यवस्था आपको प्रभावित करेगी। वह व्यवस्था आपके शरीर को ठोस पत्थर की दीवाल बना देगी। शायद जानवर के भीतर जो बुद्धि का विकास नहीं हुआ है, उसका बहुत कुछ कारण उसका अन्नमय कोष है। 
आपके भीतर जो विकसित विवेक है, वह आप, जानवर का शरीर अपने पास... आस-पास इकट्ठा करके नीचे गिरा लेंगे।
और बहुत छोटी सी बातें क्रांतिकारी परिवर्तन करती हैं; जिनका हमें अंदाज नहीं होता, इतनी छोटी बातें। वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी के मस्तिष्क का विकास हो सका क्योंकि वह दो पैरों पर खड़ा हो गया; अगर वह चारों हाथ-पैर पर चलता रहता, तो उसका मस्तिष्क कभी विकसित नहीं होता। इतनी छोटी सी बात, क्या हम सोच सकते हैं कि इतने विवेक का फर्क कर देगी--बंदर और आदमी के, कुत्ते और आदमी के? एक आइंस्टीन में और एक बंदर में कितना फासला है? यह इतना फासला, वैज्ञानिक कहते हैं, बड़ी छोटी सी बात से फलित हुआ है, और वह यह कि आदमी दो पैरों पर खड़ा हो गया। इससे क्यों फलित हुआ? इससे इसलिए फलित हुआ कि उसकी खून की जो धार थी, वह मस्तिष्क की तरफ कम जाने लगी.. कम जाने लगी, क्योंकि मस्तिष्क तक पंप करने के लिए खून को ऊपर चढ़ना पड़ता है। वह कम जाने लगी, और मस्तिष्क में जब खून की धार कम जाने लगी तो मस्तिष्क सूक्ष्म तंतुओं को विकसित कर पाया। अगर धार तेजी से जाती है तो सूक्ष्म तंतु टूट जाते हैं।
जानवर की खून की धार सतत एक सी मस्तिष्क की तरफ होती है। इसलिए सूक्ष्म तंतु निर्मित ही नहीं हो पाते। जैसे कि तेज नदी की धारा हो, तो वहां छोटे-मोटे पौधे उस धारा में नहीं टिक सकते; छोटे-मोटे कंकड़ भी नहीं टिक सकते, वे सब बह जाएंगे, फिंक जाएंगे।
तो मस्तिष्क की तरफ खून कम जाता है, बस इतना ही कारण है मनुष्य की इतनी बुद्धि के विकास में। इसलिए रात के बाद जब आप सुबह सोकर उठते हैं तो बुद्धि आपको ताजी मालूम पड़ती है। वह सिर्फ इसीलिए ताजी मालूम पड़ती है कि दिन भर बुद्धि का उपयोग करते-करते आप थक जाते हैं तो सो जाते हैं; सोकर खून की धार फिर वापस दौड़ने लगती है।
तो हमारी नींद में और जानवर की नींद में बहुत फर्क नहीं है; हमारे जागरण में और जानवर के जागरण में ही फर्क है। एक आदमी सोया हो और एक जानवर सोया हो, तो दोनों में हम कितनी ही खोज करें, कोई फर्क नहीं बता पाएंगे--या कि बता सकते हैं आप कोई फर्क... एक जानवर सोया है और एक आदमी सोया है?
नहीं, सारा फर्क शुरू होता है जब जानवर जगता है और आदमी जगता है।
एक महात्मा सोया है और एक पापी सोया है... गहरी प्रगाढ़ निद्रा में, सुषुप्ति में-- क्या आप कोई फर्क बता सकते हैं? मस्तिष्क को कितना ही काटें-पीटें, क्या आप कोई अंदाज लगा सकेंगे कि कौन इसमें पापी है और कौन इसमें महात्मा है? सुषुप्ति में कोई भेद नहीं किया जा सकता। असल में सुषुप्ति में भेद रह नहीं जाता; सारा भेद जागरण का है। वह दो पैर पर जब हम खड़े होते हैं, तब हममें सब भेद शुरू हो जाते हैं। एक आदमी बुद्ध है और एक आदमी आइंस्टीन है और एक आदमी जड़बुद्धि है, लेकिन यह भेद जागरण का है; जब खून की धार मस्तिष्क में नहीं पहुंचती, तब ये सारे तंतुओं के भेद हैं। क्या आपने कभी खयाल किया कि अगर नींद भी ठीक से लानी हो तो भी आपको तकिया सिर के नीचे रखना पड़ता है। तकिया हटा लें, नींद आनी मुश्किल हो जाती है; क्योंकि तकिया हटते से ही आपके सिर में खून की धार तीव्रता से प्रवाहित हो जाती है।
असल में आदमी के सिर की बनावट ऐसी है कि जैसे ही वह अगर बिना तकिए के सोए तो सिर जो है वह सबसे गहरा बन जाता है, पूरे शरीर से सिर नीचे पड़ जाता है, खून की धार सिर की तरफ तेजी से बहने लगती है; वह इतनी तेजी से बहती है कि तंतुओं को विश्राम नहीं करने देती... तो नींद नहीं आ सकती। इसलिए जैसे-जैसे आदमी की बुद्धि विकसित होती है, तकिए बढ़ते चले जाते हैं.. एक की जगह दो, तीन। उसका कारण है, जितने सूक्ष्म तंतु भीतर पैदा हो जाते हैं, उतना उनको बचाने की जरूरत हो जाती है, अन्यथा नींद नहीं आएगी.. सूक्ष्म तंतु इतने जोर से कंपेंगे कि नींद नहीं आ सकेगी।
इतनी छोटी सी घटना, वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी में आमूल रूपांतरण हो गई-- आमूल रूपांतरण हो गई। मैं छोटी घटना इसलिए समझा रहा हूं आपको कि आपको खयाल में आ सके कि भोजन छोटी घटना नहीं है। बड़ी छोटी घटनाएं फर्क लाती हैं।
आदमी चूंकि सीधा खड़ा हो गया, इसलिए समाजशास्त्री कहते हैं कि सीधा खड़े होने की वजह से परिवार का जन्म हुआ, नहीं तो परिवार का कभी जन्म नहीं होता। आप सोच नहीं सकते कि सीधे खड़े होने से और परिवार के जन्म का क्या संबंध? और अगर परिवार न जन्मे, तो न कोई सभ्यता है, न कोई संस्कृति; क्योंकि सभ्यता और संस्कृति परिवार का फैलाव है। लेकिन क्या आपको कभी कल्पना भी आ सकती है कि आदमी के सीधे खड़े होने से परिवार का क्या संबंध हो सकता है?
वैज्ञानिक कहते हैं : आदमी सीधा खड़ा हुआ इसलिए प्रेम पैदा हुआ, नहीं तो प्रेम पैदा नहीं हो सकता। आप सोच भी नहीं सकते कि सीधे खड़े होने से प्रेम का क्या लेना- देना है? लेकिन हुआ। और इस पर एकमत हैं खोजी। सभी पशु संभोग जब करते हैं तो उनके चेहरे आमने-सामने नहीं होते--हो नहीं सकते। पशु जब संभोग करते हैं तो उनके चेहरे आमने-सामने नहीं होते, क्योंकि संभोग पशु पीछे से करते हैं। और वैज्ञानिक कहते है कि चेहरे आमने-सामने हो सके आदमी के संभोग में, क्योंकि वह खड़ा हो गया; पीछे से संभोग गिर गया। संभोग ने सामने का रुख ले लिया। और जब हम किसी के चेहरे को देखते हैं तभी व्यक्तित्व का खयाल आता है, नहीं तो कोई खयाल पैदा नहीं होता। तो जब एक पुरुष एक स्त्री के सामने से संभोग में उतरता है, तो बहुत शीघ्र ही उसके चेहरे से संबंध निर्मित हो जाते हैं।
बड़े मजे की बात है कि बाकी सब शरीर तो एक ही जैसा है, उसमें बहुत फर्क नहीं है; चेहरे में ही भेद हैं; चेहरे में ही व्यक्तित्व है। अगर आपकी सबकी गर्दनें काट दी जाएं, तो आपके शरीरों को पहचानना मुश्किल हो जाएगा कि किसका है? लेकिन गर्दनें पहचानी जा सकेगी, क्योंकि जो इडिविजुअलिटि है, जो रूप है व्यक्तित्व का, वह चेहरे पर है। चेहरा आमने-सामने संभोग में पड़ा, इसलिए कामवासना प्रेम में परिवर्तित होने लगी... और निजी संबंध निर्मित हुए; परिवार खड़ा होना शुरू हो गया-- धीरे-धीरे बाकी शरीर गौण हो गया और चेहरा महत्वपूर्ण हो गया।
पशुओं के लिए चेहरा बिलकुल महत्वपूर्ण नहीं है। चेहरे से कभी गहरा संबंध ही निर्मित नहीं होता।
वैज्ञानिक कहते हैं : आदमी सीधा खड़ा हुआ इसलिए परिवार, इसलिए प्रेम, इसलिए संस्कृति, इसलिए सभ्यता... इतनी छोटी सी बात इतनी महत्वपूर्ण हो सकती है? तो भोजन छोटी बात नहीं है, बड़ी बात है; और बड़ी बात इसलिए है कि उससे हमारा पूरा शरीर ही निर्मित है।
जैसे उदाहरण के लिए, हम जो भी अपने शरीर में डाल रहे हैं, उसका अपना गुण है। वह गुण हमारे शरीर का गुण आज नहीं कल हो जाएगा। जो आदमी शराब अपने शरीर में निरंतर डाले चला जा रहा है, अचानक उससे हम कहें : शराब छोड़ दो, वह नहीं छोड़ पाता--क्या कारण है? अब शराब वह ही नहीं पीता, उसके शरीर का अणु- अणु शराब पीने लगा है--ईच एंड एवरी सेल। अब उसके बस के बाहर है, उसके पूरे शरीर का रोआं-रोआं शराब पीने लगा है--एक-एक कोष! आदमी के शरीर में कोई सात करोड़ कोष हैं, एक-एक कोष शराब पीने लगा, एक-एक कोष शराबी हो गया। इसी का नाम एइडक्शन है। और तो कोई एडिक्शन होता नहीं।
हम कहते हैं कि एक आदमी एडिक्टेड हो गया, उसका केवल मतलब इतना है कि अब वह नहीं पीता, अब पूरे शरीर का कोषा-कोषा कहता है : अब पीओ, नहीं तो कुछ नहीं हो सकता--चल ही नहीं सकते, उठ ही नहीं सकते, बैठ ही नहीं सकते। अब बड़ा मुश्किल है छोड़ना; क्योंकि सात करोड़ जीवन भीतर कह रहे हैं, पीओ। सात करोड़ जीवित सेल! आप एक बड़ी भीड़ हैं, एक बड़ा नगर; आप अकेले नहीं हैं, आप उस बड़े नगर में रह रहे हैं।
इसलिए हमने जो शब्द चुना था आत्मा के लिए, वह था 'पुरुष।' पुरुष का अर्थ होता है : एक बड़े पुर के बीच में रहने वाला; एक बड़े नगर के बीच मै रहने वाला--पुरुष! एक बड़ी नगरी है हर आदमी के शरीर में--बड़ी! छोटी नगरी नहीं है। करोड़ों-करोड़ों जीवन आपके आस-पास हैं। और जब उनकी सबकी मांग होती है, तो फिर आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं, उनकी मांग पूरी करनी पड़ती है; फिर आप बाहर भी निकलना चाहें तो निकल नहीं सकते।
तो आप क्या भोजन दे रहे हैं, वह इन सात करोड़ कोषों को निर्मित कर रहा है, इनकी मांग निर्मित कर रहा है। फिर आपको इनके साथ बंध कर जीना पड़ता है। और यह बंधन भीतर जाने में बाधा बन जाता है। सात्विक भोजन हम उसे कहते रहे हैं, जिससे एडिक्शन पैदा न हो--ऐसा भोजन, जो सिर्फ शरीर को ऊर्जा देता हो, नशा न देता हो। इस फर्क को ठीक से समझ लें। जो शरीर को ऊर्जा देता हो, एनर्जी देता हो, लेकिन नशा न देता हो; जो शरीर की मांग-पूर्ति करता हो, लेकिन शरीर में पागलपन पैदा न करता हो; जो शरीर की जरूरत पूरी करता हो, लेकिन शरीर को विलास न बन जाता हो।
जिस मात्रा में कोई चीज शरीर के लिए मूर्च्छा पैदा करती है, उसी मात्रा में आपका अन्नमय कोष विकृत हो जाता है। पर हम इतना चिंतन नहीं करते, विचार नहीं करते; हम क्या खा रहे हैं, इसकी हमें कोई फिकर नहीं है; हम क्या पी रहे हैं, हमें इसकी कोई फिकर नहीं है; भीड़ जो कर रही है, हम भी किए चले जाते हैं।
भोजन की, आहार की चितना में भारत ने जैसी गति की, किसी और देश ने कभी की नहीं; क्योंकि शायद भारत को ही पहली दफे यह खयाल आना शुरू हुआ.. कि अगर इस शरीर के भीतर जाना है तो इस शरीर को बदलना होगा; जैसा यह शरीर है, यह काफी नहीं है।
पावलफ प्रयोग करता था कुत्तों पर-- भारी प्रयोग किए, कोई पचास साल की मेहनत है। तो कुत्तों की एक छोटी सी ग्रंथि को काट देने पर उनसे फिर क्रोध पैदा नहीं करवाया जा सकता; फिर आप कितनी ही कोशिश करें, कुत्ता जो खूंखार था, शिकारी था अभी एक क्षण पहले, उसमें से रत्ती भर एक खास जहर बाहर निकाल लेने पर, आप उसको मारे, कुछ भी करें, वह क्रोध नहीं कर सकता। क्या हो गया? रत्ती भर जहर बाहर कर लिया गया। वह जहर कुत्ते के भोजन से आता है। तो कुत्ते से जहर न निकाला जाए, लेकिन भोजन बदल दिया जाए, जिससे वह जहर न आ सके, तो भी कुत्ता क्रोधी नहीं रह जाएगा।
आदमी की वायलेंस, आदमी की हिंसा भी उसके भीतर निर्मित होते जहरों से आती है। आपके भीतर से खास जहर बाहर कर लिए जाएं, फिर आप हिंसा न कर सकेंगे। इसलिए शरीर-शास्त्रियों का एक बड़ा वर्ग यह कहता है कि जो लोग हत्या कर देते हैं, उनको अपराधी करार देना नासमझी है; वे केवल बीमार हैं। उनके शरीर में एक विशेष जहर निर्मित हो रहा है, वे क्या कर सकते हैं! तो उनको सजा देना और फांसी लगाना पागलपन है, निहायत पागलपन है। और आज नहीं कल, अगर अमरीका का एक बड़ा विचारशील मनावैज्ञानिक बी. एफ. स्किनर सफल हो गया दुनिया को राजी करने में, तो वह कहता है कि अपराधियों का ऑपरेशन करना चाहिए। अपराध नहीं है। थोड़ी सी ग्रंथियां उनकी अलग कर देनी चाहिए, फिर वे हत्या नहीं कर सकेंगे, हिंसा नहीं कर सकेंगे।
लेकिन जब कोई वैज्ञानिक, या कोई प्रयोगशाला, या कोई समाज या कोई राज्य आपकी ग्रंथियां काटने लगेगा तो आप गुलाम हो जाएंगे। अगर मैं क्रोध कर ही न सकूं तो मेरी क्षमा का क्या मूल्य रह जाएगा? इंपोटेंसी नॉन-वायलेंस नहीं हें; नपुंसक हो जाना तो अहिंसा नहीं होगी। वैज्ञानिक काट सकता है... आपके भोजन को बदलने की जरूरत नहीं; आप जो भोजन करते हैं, करते रहें, लेकिन आपकी ग्रंथि काटी जा सकती है; जहां रस निर्मित होते हैं, वह व्यवस्था तोड़ी जा सकती है--तो आप क्रोध नहीं कर सकेंगे, हिंसा नहीं कर सकेंगे, हत्या नहीं कर सकेंगे--लेकिन उसमें आपकी गुणवत्ता न होगी, और आपकी कोई अंतर्यात्रा भी न होगी, आप सिर्फ नपुंसक हो गए होंगे।
लेकिन हमने एक और प्रक्रिया खोजी थी... वह प्रक्रिया यह नहीं थी कि हम आप पर ऊपर से दबाव डालें, और आपका कोई हिस्सा तोड़ दें, आपका शरीर जैसा है हम वैसा ही रखने को राजी थे, लेकिन स्वेच्छा से, आत्म-क्रांति के लिए, आप अपने अन्न की व्यवस्था को, आहार की व्यवस्था को बदल डालें। धीरे- धीरे, धीरे- धीरे आपका शरीर उन जहरों से मुक्त हो जाता है जो आपको पाप में ले जाते हैं, उन उत्तेजनाओं से मुक्त हो जाता है जो आपको बाहर भगाती हैं।
और धीरे- धीरे इससे उलटा भी संभव है। यह तो आधा हिस्सा हुआ, निगेटिव, कि आपमें कोई जहर पैदा होता है जो आपको क्रोध करवाता है, क्या आपमें कोई अमृत भी पैदा हो सकता है जो आपको क्षमा करवाए? अभी स्किनर को इसका पता नहीं है। अगर आपमें कोई ग्रंथि है, जो आपको पुरुष और स्त्री बनाती है, और पुरुष या स्त्री की वासना पैदा करवाती है, तो क्या यह संभव नहीं है कि आपके भीतर ऐसी रसधार पैदा हो कि आप स्त्री और पुरुष दोनों से मुक्त हो जाएं?
हां, आपका ऑपरेशन करके भी आपको स्त्री-पुरुष से मुक्त किया जा सकता है, लेकिन वह नीचे गिरना है। तब आप सिर्फ नंपुसक हो जाते हैं। लेकिन स्त्री-पुरुष की पूरी क्षमता मौजूद रहे, और आपके भीतर वह रसधार शुरू हो जाए जो आपको पार ले जाती है, और स्त्री-पुरुष दोनों का आकर्षण खो जाता है--खयाल ही भूल जाता है कि आप स्त्री हैं या पुरुष हैं। तब आप ऊपर उठते हैं और ऊर्जा ऊर्ध्वगामी होती है।
शरीर पहली बात है।

शरीर की दूसरी पर्त... दूसरी पर्त को ऋषियों ने कहा है. ''प्राणमय कोष'' --दि वाइटल बॉडी।
जैसे ही यह शरीर पारदर्शी हो, वैसे ही पता चलेगा, अन्यथा यह बातचीत ही रहेगी। इस शरीर के पीछे छिपा हुआ है एक प्राण-शरीर।
प्राण-शरीर से अर्थ है : दि एनर्जी बॉडी, दि वाइटल बॉडी।
एक पत्थर में और एक प्राणी में जो फर्क है, वह यही है. पत्थर के पास एक ही शरीर है-- अन्नमय कोष। पौधे के पास एक और शरीर है भीतर--प्राणमय कोष। पौधे के पास दो शरीर हैं, पत्थर के पास एक शरीर है। पौधे के पास दो शरीर हैं, पौधा सिर्फ पत्थर नहीं है; कुछ उसमें पत्थर जैसा है जो उसको बाहर से घेरे हुए है, लेकिन भीतर एक जीवन-धार बहती है। पौधा भी कभी जवान होता है, कभी का होता है, पौधा भी कभी प्रफुल्लित होता है, जब जीवन- धार गहन बहती है, कभी उदास होता है, जब जीवन- धार क्षीण होती है।  
सुबह जब सूरज उगता है तो पत्थर पत्थर ही रहता है, रात भी पत्थर पत्थर रहता है, लेकिन पौधा रात कुछ और होता है, सुबह कुछ और होता है। एक भीतर जीवन- धारा है, एक प्राण-शरीर है, जो सूरज के उगने के साथ आनंद से भर जाता है। सूरज से जो ऊर्जा मिलती है, वह प्राण-शरीर को मिलती है। इसलिए पत्थर रात भी पत्थर है, जैसा है वैसा है, सुबह भी वैसा है। पत्थर पर कोई प्रभाव सूरज का नहीं होता।
जब मैं पत्थर कह रहा हूं तो पहाड़ नहीं कह रहा हूं खयाल रखना, क्योंकि पहाड़ पर होता है, पहाड़ जीवित है। कुछ पहाड़ जवान होते हैं, जैसे हिमालय अभी जवान है, अभी बढ़ता जाता है। विंध्या का हो गया।
कथा अच्छी है, प्रीतिकर है, कि किसी मुनि की यात्रा पर सिर झुका कर खड़ा था, फिर मुनि लौटे नहीं, फिर वह सिर झुका ही हुआ है। सच बात और है। विंध्या का पर्वत है, सबसे पुराना पर्वत है पृथ्वी पर--हिमालय बिलकुल बच्चा है--सबसे पुराना है; बहुत पहले सिर झुक गया और कमर उसकी ढीली पड़ गई; वह का हो गया। वह कथा तो माइथोलॉजी... पर प्रीतिकर है--पर बताती है कि पहाड़ का हो गया, अब सिर उठा नहीं सकता। ऋषि लौट भी आएं तो अब सिर उठा नहीं सकता। लेकिन हिमालय उठता ही चला जा रहा है; रोज बढ़ रहा है। अभी हिमालय कितना बढ़ेगा, कहना मुश्किल है।
यह बड़े मजे की बात है कि ऋग्वेद हिमालय की बात नहीं करता। असंभव है कि हिमालय जैसी बात और चूक जाए। हिमालय जैसा पर्वत निकट खड़ा हो, और गौरीशंकर जैसे शिखर आकाश में चमक रहे हों और ऋषि गीत न गाए-- असंभव है। सच्चाई यह है कि ऋषि ने जब गीत गाया तब हिमालय पैदा नहीं हुआ था। और कोई कारण नहीं समझ में आता, क्योंकि छोटी-छोटी बात नहीं चूंकी ऋषि से, हिमालय चूक जाए यह बहुत मुश्किल है। एक ही कारण कि ऋषि ने जब गीत गाए तब हिमालय पैदा नहीं हुआ था-- या पैदा भी हुआ होगा तो इतनी छोटी टेकरी रही होगी कि भूला जा सकता था।
ऋग्वेद में स्मरण है उन यात्राओं का, उन जगहों का जो हिंदुस्तान में नहीं हैं, जो मध्य एशिया में हैं। उन रातों का जो केवल उत्तरी ध्रुव पर होती हैं, जो यहां होती ही नहीं। जहां छह महीने का दिन और छह महीने की रात होती है, ऋग्वेद में उसकी चर्चा है। लेकिन हिमालय की चर्चा नहीं है। लगता ऐसा है, हिमालय अनुपस्थित था। और या तो यह ऋषि उत्तर ध्रुव पर रहा था, और या फिर उत्तर ध्रुव और भारत के बीच में हिमालय के न होने से सीधे यात्रा-पथ थे, कोई अड़चन न थी, कोई बाधा न थी।
जो लोग भी इस खयाल को मानते हैं कि भारत में आर्य बाहर से आए, उनको भी एक कठिनाई होती है कि इन आने वालों ने हिमालय को पार करने की कठिनाइयों का कोई उल्लेख नहीं किया! अगर ये बाहर से आए, तो इतना असंभव है... और सब बातों का उल्लेख किया, और हिमालय को पार करने की कठिनाई भयंकर रही होगी, उसका उल्लेख ही नहीं किया! वह तो इस कौम की स्मृति में गहरी से गहरी बात होती--न मालूम कितने लोग मर गए होते, न मालूम कितने लोग खो गए होते, मुश्किल से हजार चलते तो दस पहुंच पाते; उसकी कोई चर्चा नहीं है। यह हिमालय रहा ही नहीं। यह बहुत पुराना पर्वत नहीं है।
तो जब मैं पत्थर की बात करता हूं तो पहाड़ की बात नहीं कर रहा हूं। पहाड़ में भी प्राण-शरीर है। जहां भी बढ़ती होती है वहां प्राण-शरीर है। बढती प्राण में होती है, पदार्थ में नहीं होती। बढ़ती सदा ही प्राण में होती है, पदार्थ में नहीं होती। तो कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि पदार्थ से भरा हुआ एक आदमी और बिलकुल निष्प्राण मालूम पड़ता है, भारी काया और प्राण बिलकुल नहीं मालूम होते। और कभी-कभी बड़ी दुर्बल काया और प्राण सागर जैसा मालूम पड़ता है।
यह जो प्राणमय शरीर है, यह ऊर्जा-निर्मित है, एनर्जी बॉडी है। शरीर जो है, वह पदार्थ-निर्मित है; वह अन्न से निर्मित है। प्राण-शरीर जो है, वह ऊर्जा से, शक्ति से निर्मित है। यह शक्ति मिलती है सूरज से; यह शक्ति मिलती है वायु से, शक्ति मिलती है अनंत- अनंत सूक्ष्म तरंगों से।
इसलिए कभी ऐसा भी हो सकता है कि एक व्यक्ति अगर प्राण के आहार की कला को सीख जाए, तो अन्न से मुक्त हो सकता है; अन्न को कम करता जा सकता है। अगर सीधे ऊर्जा उपलब्ध होने लगे, और उस ऊर्जा को ही वह रूपांतरित करने की कला जान जाए... और वैसी कला है। कभी-कभी आकस्मिक रूप से भी घटित हो जाता है। ऐसे बहुत... अभी भी दों-चार व्यक्ति पृथ्वी पर जीवित हैं जिन्होंने वर्षों से भोजन नहीं लिया। उनका वजन नहीं घटता--घटना चाहिए। तो एक ही बात मालूम पड़ती है कि किसी न किसी भांति उनके व्यक्तित्व ने वह तरकीब जान ली है, जिससे ऊर्जा सीधी पदार्थ में परिवर्तित हो जाती है। और अभी तो आइंस्टीन के बाद यह साफ हो गया कि मैटर एंड एनर्जी आर नॉट टू थिंग्स; मैटर इज जस्ट एनर्जी, एनर्जी इज जस्ट मैटर--टू स्टेटस ऑफ वन थिंग।
आइंस्टीन का जो बड़े से बड़ा फार्मूला है वह यही है कि शक्ति और पदार्थ दो चीजें नहीं, एक ही चीज हैं; और शक्ति और पदार्थ एक ही चीज की दो अवस्थाएं हैं। तो पदार्थ शक्ति बन सकता है, शक्ति पदार्थ बन सकती है। इसी सूत्र पर अणुबम का विकास हुआ।
अणुबम का विस्फोट केवल इस बात की घोषणा है कि हम पदार्थ को शक्ति बना रहे हैं। तो एक अणु को तोड़ देते हैं, तो वह ऊर्जा बन जाता है। इससे उलटा भी संभव है। और वही उलटा घटता है, जब एक आदमी बिना भोजन के और जी लेता है, और शरीर को कोई जरूरत नहीं होती, तब उलटा घट रहा है; प्राण-शरीर का अणु पदार्थ बन रहा है।
यह जो ऊर्जा-शरीर है, यह हमारे भीतर की पर्त है; इसका हमें पता नहीं चलता। कभी-कभी किन्हीं क्षणों में इसका हमें अहसास होता है--कभी-कभी! सागर के किनारे आप खड़े हैं और अचानक लगता है कि भीतर कोई लहर दौड़ गई। वह लहर आपके पदार्थ-शरीर में नहीं दौड़ती। पदार्थ-शरीर में लहर दौड़ ही नहीं सकती। लहर जो है वह घटना ऊर्जा की है। पदार्थ में कहीं लहरें होती हैं! कहीं पत्थर में कोई लहर उठती है? लहर जो है, तरंग जो है, वेव जो है, वह ऊर्जा की घटना है। कभी जब आप किसी के प्रेम में पड़ जाते हैं, तो अचानक आपके भीतर तरंगें दौड़ जाती हैं। वे तरंगें आपके शरीर में नहीं दौड़ती--यद्यपि शरीर भी उनका अनुभव करता है, शरीर के रोंगटे भी खड़े हो सकते हैं।
पश्चिम के एक बहुत विचारशील व्यक्ति हाऊसमेन ने लिखा है. कि कविता मैं उसी को कहता हूं जिसमें रोंगटे खड़े हो जाएं। लेकिन काव्य का जो प्रभाव होता है वह शरीर पर नहीं होता; काव्य का प्रभाव तो प्राण-शरीर पर होता है। और कुशल कवि वही है जो जितने गहरे आपके प्राण-शरीर में प्रवेश कर जाए... कि आप तरंगित हो जाएं।
जो गीत आपको नचा न सके वह गीत नहीं, कान ने सुन लिया लेकिन प्राण तक नहीं पहुंचा। लेकिन गीत जब प्राण पर पहुंच जाता है तो नृत्य बन जाता है। कभी किसी क्षण में कोई गीत सुन कर, कोई वीणा का स्वर सुन कर, किसी सागर की लहर के साथ, किसी के प्रेम- क्षण में, आकाश में चांद को देख कर, कभी उगते सूरज को देख कर, कभी हवा के एक झोंके में, कभी किसी कली को फूल बनते देख कर भीतर एक कंपन दौड़ जाता है, वह आपके अन्नमय कोष का हिस्सा नहीं है, वह तरंग आपकी प्राण-ऊर्जा का हिस्सा है।
वैज्ञानिक अनुभव करने लगे हैं कि प्राण-ऊर्जा भीतर है, उसे वे कहते हैं बायो- एनर्जी; वे उसे कहते हैं जीव-ऊर्जा। वे कहते हैं वह शरीर की विद्युत है।
अधिक विद्युतवान व्यक्ति हैं, कम विद्युतवान व्यक्ति हैं। जिन लोगों को आप कहते हैं कि उन्हें देख कर सम्मोहन पैदा हो जाता है, उसका कोई और कारण नहीं है। किसी व्यक्ति के पास जाकर आप अचानक पाते हैं कि प्रभावित हैं; यह प्रभाव अकारण मालूम पड़ता है। इसका संबंध प्राण-शरीर से है। अगर इस व्यक्ति के पास एक विकसित प्राण- शरीर है... और यह तभी होता है, जब पहला शरीर पारदर्शी हो, अन्यथा नहीं होता। अगर इसके पास एक विकसित प्राण-शरीर है, तो आपके प्राण-शरीर में तत्काल तरंगें पैदा हो जाती हैं... यह प्राण-शरीर प्राण-शरीर को छू लेता है। यह कितनी ही दूर से छुआ जा सकता है, इसके लिए दूरी का कोई सवाल नहीं है। अन्नमय शरीर के लिए ही दूरी का सवाल है, प्राणमय शरीर के लिए दूरी का कोई संबंध नहीं है। और तब आपके भीतर कोई डोल जाता है, कोई कैप जाता है, कोई अनुगत हो जाता है, कोई आच्छादित हो जाता है।
इस प्राणमय शरीर का जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा शरीर में झांकता है वह आंख है। इसलिए आंख से ज्यादा जीवित और कोई चीज शरीर में नहीं मालूम पड़ती; बाकी शरीर मुर्दा मालूम पड़ता है। आंख असल में दोहरा तल है। आंख वह जगह है जहां से आपके अन्नमय शरीर से आपका प्राणमय शरीर बाहर झांकता है। इसलिए आंख इतनी जीवंत और तरंगित है। इसलिए आंख में लहरें तत्क्षण दौड़ जाती हैं। आपके हाथ में क्रोध आने में बहुत देर लगेगी--जब वह मुट्ठी बांधेगा, खून दौड़ेगा, और हमले के लिए दौड़ेगा; आंख एक क्षण में क्रोधित हो जाती है। आपके शरीर तक प्राण की, प्रेम की लहर दौड़ने में बहुत वक्त लग जाएगा, प्रतीक्षा करनी पड़ेगी; आंख तत्काल प्रेम में पड़ जाती है।
आपकी आंख आपके प्राण-शरीर की भाषा है। और आपकी आंख को जांचा जा सके ठीक से तो आपके प्राण-शरीर के संबंध में सब-कुछ कहा जा सकता है। आंख पूरे वक्त खबर दे रही है कि भीतर क्या हो रहा है। आंख बहुत तरंगित है।
यह जो दूसरा प्राण-शरीर है, इस प्राण-शरीर की भी शुद्धि की जरूरत है। इस प्राण- शरीर को भी पारदर्शी बनाने की जरूरत है। प्राणायाम के सारे प्रयोग इस प्राण-शरीर को पारदर्शी बनाने के प्रयोग हैं। शरीर में जितनी ज्यादा मात्रा में प्राणवायु जाती है, ऑक्सीजन जाती है, उतना यह प्राण-शरीर स्वच्छ और शुद्ध होता है, जितनी ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड जाती है, उतना यह प्राण-शरीर अशुद्ध, दूषित और स्थूल हो जाता है।
इसलिए दिन में नींद आनी मुश्किल होती है, रात में नींद आनी आसान होती है, क्योंकि रात पृथ्वी पर ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है, और कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ जाती है। दिन में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाती है, कार्बन डाइऑक्साइड की कम हो जाती है। इसलिए ब्रह्ममुहूर्त में उठने वाले लोगों का जो खयाल था, वह केवल इतना ही था.. वह यह नहीं था कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना चाहिए--वह यह था कि ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाना सहज ही होना चाहिए; क्योंकि जब सूरज उठने लगा तब अगर आपका प्राण-शरीर प्रभावित नहीं होता तो बहुत जड़ बना लिया आपने उसको। सूरज जग रहा है पौधे तक प्रभावित हो गए, पक्षी गीत गाने लगे, और आपका प्राण-शरीर आंदोलित नहीं हो रहा है! और आप अपने बिस्तर पर करवटे ही बदले चले जा रहे है! तो आप बहुत पथरीले हो गए हैं। 
यह जो प्राण-शरीर है, यह चूंकि ऊर्जा है, इसलिए प्राणवायु से प्रभावित होता है। इसलिए जितनी गहरी श्वास ली जा सके उतनी हितकर है। इसे सहज हिस्सा बना लेना चाहिए। उथली श्वास मत लें। जितनी गहरी श्वास होगी उतने आप प्राणवान होंगे; और जितनी गहरी श्वास होगी उतनी आपकी मेधा प्रखर होगी।
स्त्रियां अगर बुद्धिमानी में पुरुषों से पिछड़ गईं तो उसके बहुत कारणों में एक कारण उनकी गलत आदत है, उथली श्वास लेने की। जानवरों में ऐसा नहीं दिखाई पड़ता कि मादा और पुरुष में कोई बुद्धि का इतना फासला हो, कोई फासला नहीं दिखाई पड़ता। आदमी में बहुत फासला दिखाई पड़ता है। इसमें और हजार कारण हैं, एक कारण यह भी है कि स्त्रियां उथली श्वास लेती हैं। उथली श्वास लेने का कारण है कि स्त्रियां निरंतर स्तनों के संबंध में अति सचेतन हैं। और अगर स्तन बड़े करने हैं तो उथली श्वास उपयोगी है। स्तन छोटे रह जाएंगे अगर गहरी श्वास होगी। लेकिन बड़े की कोई जरूरत भी नहीं है।
यह बहुत मजे की बात है कि आदमी की मादाओं को छोड़ कर सभी पशु-मादाओं में स्तन समय पर बड़े होते हैं, फिर छोटे हो जाते हैं--जब बच्चे को दूध की जरूरत होती है। सिर्फ स्त्री ने ऐसे स्तन विकसित किए हैं, जब दूध की जरूरत भी नहीं होती तब भी बड़े रहते हैं। यह कम श्वास लेने का उपयोग है। पेट तक श्वास जाए तो स्तन उतने ही होंगे जितने शरीर के लिए जरूरी हैं। अगर स्तन बड़े करने हैं तो पेट को भीतर सिकोड़े रखना जरूरी है। तो पेट तक श्वास नहीं जानी चाहिए।
इसलिए पहलवान भी अगर छाती बड़ी करना चाहता है तो फिर पेट तक श्वास नहीं ले जाता। इसलिए पहलवान अक्सर बुद्धिमान नहीं होते--हो नहीं सकते। हो नहीं सकते! अभी तक सुना नहीं मैंने कभी कोई पहलवान और बुद्धिमान हुआ हो, क्योंकि बुद्धि के विकास के लिए प्राण-ऊर्जा का घना होना जरूरी है। तो पहलवान भी पेट को भीतर सिकोड़े रखता है और छाती से श्वास लेता है।
लेकिन आपने कभी बच्चे को श्वास लेते देखा? बच्चा जैसी श्वास लेता है, वही सम्यक श्वास है। बच्चे का पेट ऊपर उठता है और नीचे गिरता है, छाती नहीं, क्योंकि बच्चा अभी तक बिगड़ा नहीं है। अभी न उसको पहलवान बनना है, न स्तन बड़े करने हैं, अभी उसको कोई झंझट नहीं है। अभी वह वैसी ही श्वास लेता है, जैसी प्रकृति ने चाही है कि श्वास ली जाए। तो उसका पेट ऊपर गिरता है, नीचे गिरता है।
एक बात देख कर आपको हैरानी हुई होगी अगर बुद्ध की भारतीय प्रतिमाएं आप देखें तो छाती बड़ी और पेट छोटा है, लेकिन अगर जापानी और चीनी प्रतिमाएं देखें तो छाती छोटी और पेट बड़ा है। बेहूदी लगती है थोड़ी देखने में, लेकिन कारण है--ऐसा था भी नहीं, यह ठीक भी नहीं है, बुद्ध की ऐसी हालत थी भी नहीं। लेकिन जापान और चीन में वे जान कर ऐसी मूर्तियां बनाए हैं, क्योंकि वे यह कहते हैं कि ध्यान पेट पर होना चाहिए, छाती पर नहीं। छाता पर अगर ध्यान होगा तो श्वास छाती तक जाएगी और वापस लौट जाएगी।
तो स्त्रियों के कम बुद्धि के होने का एक कारण उनके श्वास की कमी है; ऊर्जा-शरीर छोटा रह जाता है।
यह जो ऊर्जा-शरीर है, प्राणवायु जितनी ज्यादा मिले, जितनी गहरी मिले उतना ज्यादा शुद्ध होता है। और यह जो ऊर्जा-शरीर है इसके और सूक्ष्म भोजन भी हैं। जहां-जहां तरंगें मिल सकती हों.. तरंगें बहुत तरह की हैं--शुद्ध तरंगें भी हैं, अशुद्ध तरंगें भी है।...... 
सत्संग का केवल इतना ही उपयोग था : एक साधु के पास जाकर आप बैठ जाते हैं, न कोई बात करते हैं, न कोई चीत करते हैं, सिर्फ बैठ जाते हैं--किसलिए? उसके पास तरंगें हैं, जो आपके ऊर्जा-शरीर को उपलब्ध हो जाती हैं बिना कुछ बातचीत किए।
दर्शन बड़ी अनूठी बात थी जो इस मुल्क में पैदा हुई। पश्चिम में कोई सोच भी नहीं पाता कि दर्शन का क्या मतलब? फलां आदमी के दर्शन को जा रहे हैं। मिलने जा रहे हों, बात करने जा रहे हों, चर्चा करने जा रहे हों, समझने जा रहे हों, समझ में आता है, दर्शन करने जा रहे हैं! क्या पागलपन की बात है? दर्शन से क्‍या होगा? अकेले दर्शन से क्या होगा? अकेले दर्शन से कुछ होता है--बहुत कुछ होता है। अक्सर तो बात करने से जो नहीं होता, चीत करने से जो नहीं होता, वह दर्शन से हो जाता है। दर्शन का केवल इतना मतलब है कि हम उस जगह के पास जा रहे हैं, जहां एक बहुत जीवंत प्राण-शरीर है, जिसके चारों तरफ एक वायुमंडल है प्राण-शरीर का, वहां बैठ जाना दो क्षण भी आपके प्राण-शरीर को गति देता है, तरंगें देता है।
साधु पहाड़ पर जाता रहा है... दूर आदमी की सभ्यता से, क्योंकि आदमी जहां जितना सघन है, वहा आदमी अपनी तरंगें छोड़ रहा है। दृषित है तो दूषित छोड़ रहा है, शुद्ध है तो शुद्ध छोड़ रहा है।
तो भीड़ थकाने वाली होती है। कभी आपने खयाल किया, जब आप भीड़ से लौटते हैं तो आप थोड़े कम होकर लौटते हैं; कुछ आपकी ऊर्जा नीचे गिर गई होती है। भीड़ थकाने वाली होती है।
और भीड़ आपकी बुद्धि को कम करती है, इसका आपने कभी खयाल किया? इसलिए अगर कोई बहुत बेवकूफी का काम करवाना हो तो अकेले आदमी से नहीं करवाया जा सकता, भीड़ से ही करवाया जा सकता है। अगर मस्जिद में आग लगानी है, मंदिर तुडवाना है, तो भीड़ से करवाया जा सकता है, एक-एक से नहीं।
और यह बड़े मजे की बात है कि जिस भीड़ से यह करवा रहे हैं, अगर उनमें से भी एक-एक से कहें कि करो, तो वह भी कहेगा कि कुछ जंचता नहीं, क्या फायदा है मस्जिद के जलाने से! लेकिन जब वह भीड़ में होता है तब बुद्धि का तल नीचे गिर जाता है, क्योंकि भीड़ में विवेक और दायित्व खो जाता है; और वह आदमी सोचता है, कोई मैं ही थोड़े ही जिम्मेवार हूं! इतने लोग कर रहे हैं, मैं तो केवल साथ हूं। और सभी यही सोचते हैं। इसलिए दुनिया में जो बड़े पाप हैं वह भीड़ ने किए हैं, व्यक्तियों ने नहीं; व्यक्तियों ने छोटे- छोटे पाप किए हैं। भीड़ से दूर जाने का उपयोग केवल इतना ही था कि प्राण-ऊर्जा शुद्धतम हो; भीड़ न दे उसे। तो मोजेज सिनाई के पर्वत पर चले जाते हैं, मोहम्मद पहाड़ चढ़ जाते हैं, बुद्ध- महावीर जंगलों में भटक जाते हैं; क्राइस्ट का तीस साल तक कोई पता ही नहीं चलता... ईसाइयों के पास कोई कथा ही नहीं कि यह आदमी तीस साल तक क्या करता रहा! केवल तीन साल की ही कहानी है--वह भी मरने के तीन साल पहले की। बाकी पहले यह आदमी कहां रहा? सात साल पहले का उल्लेख है--सात साल की उम्र का था तब का उल्लेख है, फिर तीस साल का जब था। ये बाकी तेईस साल आदमी कहां था, इसका कोई पता नहीं। यह भीड़ के बाहर था। ये तेईस साल वाइटल बॉडी को, प्राण-ऊर्जा को बढ़ाने के वर्ष थे।

तीसरे शरीर के संबंध में हम रात बात करेंगे; अभी कुछ काम करें।
जब मैं आपसे कहता हूं गहरी और तीव्र, गहरी और तीव्र श्वास, तो आपके प्राण- शरीर को जगाने की कोशिश कर रहा हूं। कंजूसी नहीं चलेगी, पूरी ताकत लगाएं। जब आपसे कहता हूं पागल होकर सब निकाल दें जो भीतर पड़ा है, तो आपकी शुद्धि के लिए कह रहा हूं इसे बाहर फेक दें। और जब आपसे हुंकार की बात करता हूं तो वह भी आपके ऊर्जा-शरीर को चोट पहुंचाने के लिए है।
अब हम प्रयोग में जाएं। दूर-दूर फैल जाएं।
पागल होने से कम में नहीं चलेगा। बुद्धिमानी एक तरफ रख दें। वैसे भी बुद्धिमान हैं नहीं, रखने में कोई ज्यादा दिक्कत नहीं। पागल होने से कम में नहीं चलेगा।...

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