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गुरुवार, 8 मार्च 2018

भक्तिसूत्र (नारद)—प्रवचन-15



पंद्रहवा प्रवचन—हृदय-सरोवर का कमल है भक्ति

दिनांक १५ मार्च, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना

सूत्र :
अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ
प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात्
शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात्
न तदसिद्धौ लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत्साधनं च कार्यमेव
स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम्
अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम्
तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादिकं तस्मिन्नेव करणीयम्

भक्ति तो एक है।
बुद्ध ने कहा है, जैसे सागर को कहीं से भी चखो, खारा है: ऐसा ही सत्य भी है--एक स्वाद है, एक रस है। फिर भी नारद ने भक्ति के तीन विभाजन किए हैं। पराभक्ति के वे विभाजन नहीं हैं, गौणी भक्ति के विभाजन हैं।

तो पहला विभाजन: पराभक्ति मुख्याभक्ति; वह तो एक स्वरूप है। फिर गौणीभक्ति: दोयम, नीची, मनुष्यों के अनुसार। चूंकि मनुष्य तीन प्रकार के हैं, इसलिए स्वभावतः उनकी भक्ति भी तीन प्रकार की हो जाती है।
प्रकाश का तो एक ही रंग है, लेकिन कांच के टुकड़े से प्रकाश निकल जाए तो सात रंग का हो जाता है--कांच उसे सात रंगों में विभाजित कर देता है। ऐसे ही तो इन्द्रधनुष बनता है। वर्षा के दिनों में, हवा में, वायुमण्डल में छोटे-छोटे पानी के कण झूलते होते हैं; उन पानी के कणों से निकलती सूरज की किरण सात हिस्सों में टूट जाती है। तो वर्षा के दिन हों, सूरज निकला हो, इन्द्रधनुष बन जाता है। किरण तो एकरंगी है, लेकिन सप्तरंगी हो जाती है।
भक्ति तो एकरंगी है, लेकिन मनुष्य तीन तरह के हैं; इसलिए गौण अर्थ में भक्ति तीन तरह की हो जाती है। उन्हें भी समझ लेना जरूरी है, क्योंकि बड़ी बहुमूल्य बात उनमें छिपी है।
सत्त्व , रज, तम--ऐसे तीन मनुष्य के विभाजन हैं। स्वभावतः आदमी जो भी करेगा, उसका कृत्य उससे प्रभावित होता है। सात्त्वि भक्ति करेगा तो सत्त्व के हस्ताक्षर होंगे। राजसी भक्ति करेगा तो भक्ति में भी राजस गुण समाविष्ट हो जाएगा। तामसी भक्ति करेगा तो तमस से बचा न सकेगा अपनी भक्ति को।
सात्त्वि भक्ति का अर्थ होता है: व्यक्ति पापों के विमोचन के लिए, अंधकार से मुक्त होने के लिए, मृत्यु से पार जाने के लिए भक्ति कर रहा है। भक्ति में आकांक्षा है सात्त्वि पुरुष की भी, इसलिए वह पराभक्ति नहीं। पराभक्ति में तो कोई भी आकांक्षा नहीं है--सत्त्व की भी नहीं है। पराभक्त्ति में तो परमात्मा को पाने को आकांक्षा भी नहीं है। क्योंकि जहां अकांक्षा है, वहां मनुष्य आ गया। तुम्हारी आकांक्षा तुम्हारी है। तुम्हारी आकांक्षा से जो भी गुजरेगा, तुम्हारी आकांक्षा के रूप को ले लेगा। तुम्हारी आकांक्षा उसे विकृत कर देगी। तुम्हारी आकांक्षा उसे शुद्ध कर देगी। उसका कुआंरापन खो जाएगा।
आकांक्षा भ्रष्ट करती है। तो सत्त्व की आकांक्षा भी यद्यपि बड़ी ऊंची आकांक्षा है, पर कितनी ही ऊंची हो, गौरीशंकर की चोटी कितनी ही ऊंची हो, ऐसे पृथ्वी से ही रहती है। आकांक्षा के जाल से संबंध बना रहता है। अभी भी मन में कुछ पाने का खयाल होता है--परमात्मा नहीं, मोक्ष सही; लेकिन पाने का खयाल होता है। और जहां तक पाने का खयाल है, वहां तक संसार है।
तुम अगर मोक्ष को भी चाहोगे तो तुम्हारा मोक्ष तुम्हारे संसार का ही फैलाव है। तुम मोक्ष की भी कल्पना क्या करोगे? तुम्हारे कांच के टुकड़े से, तुम्हारी आकांक्षा के टुकड़े से गुजरकर मोक्ष भी मोक्ष न रह जाएगा। तुम मोक्ष में भी अगर मांगोगे तो फिर-फिर संसार को ही मांग लोगे, थोड़ा सुधार कर, थोड़ा रंग-रोगन बदलकर। लेकिन तुमसे ही जुड़ा रहेगा तुम्हारा मोक्ष। इसीलिए तो तुम्हारा मोक्ष स्वर्ग के रूप में प्रगट होता है, मोक्ष के रूप में नहीं।
मनुष्य की आकांक्षा से गुजरकर मोक्ष पतित हो जाता है, स्वर्ग बन जाता है। स्वर्ग, मोक्ष का पतन है। स्वर्ग का अर्थ है कि तुमने संसार में जो चाहा था और न पा सके थे, उसे तुम अब परलोक में चाहते हो। सुंदर स्त्रियां चाही थीं, न मिल सकीं; मिलीं, सुंदर सिद्ध न हुई। जिन्हें नहीं मिलीं वे भी तड़फकर मरे; जिन्हें मिलीं, वे और भी तड़फकर मरे। सुंदर पुरुष चाहे थे, न मिल सके; जो मिला, उसी को कुरूप पाया; जो मिला, उसी को क्षुद्र में ग्रसित पाया। आकांक्षा शेष रह गई, भरी न। मन तड़फता रह गया, प्यास बुझी न। बहुत घाटों से पानी पिया, लेकिन कोई पानी मन को न भाया, कोई पानी रास न आया। घाट तो बहुतेरे मिले, लेकिन ऐसा कोई घाट न मिला कि घन बन जाता।
तो तुम्हारे स्वर्ग में अप्सराएं पैदा हो जाएंगी। वह तुम्हारी ही वासना का विस्तार है। तो तुम स्वर्ग में रच लोगे उन स्त्रियों को जो तुम यहां न पा सके। चूंकि स्वर्ग के सारे मित्र पुरुषों ने बनाए हैं, अप्सराएं हैं। अगर स्त्रियां बनातीं तो स्वभावतः सुंदर पुरुषों को रचतीं। अप्सराएं ऐसी कि सोलह वर्ष पर उनकी उम्र ठहर जाती हैं, फिर बढ़ती नहीं। उर्वशी अभी भी सोलह ही साल की है,सदियों पहले भी सोलह साल की थी, सदियों बाद भी सोलह साल की रहेगी! मनुष्य की आकांक्षा थी कि स्त्री सोलह पर ठरह जाती। कोई स्त्री वहां ठहरती नहीं, हालांकि स्त्रियां ठहरने की कोशिश भी करती हैं। सोलह के बाद बड़ी मुश्किल से बढ़ती हैं, बड़ी बैचेनी से बढ़ती हैं, दो-दो तीनत्तीन चार-चार साल में एक-एक साल बढ़ती हैं--फिर भी बढ़ना तो पड़ता ही है। समय किसी को क्षमा नहीं करता। मौत को पीछे हटाने का कोई उपाय नहीं है। युवावस्था को सदा पकड़े रखने की कोई सुविधा नहीं। यहां तो सभी हाथ से खोया चला जाता है।
तो फिर स्वर्ग तो है; वहां तो हमारे स्वप्न ही साकार हुए हैं। वहां तो कोई समय बाधा देने को नहीं है। वहां तो कोई मौत द्वार पर नहीं दस्तक देती। वहां तो बुढ़ापा आकर खड़ा नहीं हो जाता। स्वर्ग में स्त्रियों के शरीर से पसीने की बदबू नहीं आती, सुगंध आती है, सुवास आती है। चहा हमने यहां था, हो न सका। बहुत इत्र-फुलेल छिड़के, बहुत सुगंधियां खोजीं, फिर भी पसीने की बू छिपाए छिपती नहीं, प्रगट हो ही जाती है। शरीर की गंध, कितना ही भुलाओ, भूलती नहीं।
स्वर्ग में, पहली तो बात, पसीना निकलता ही नहीं। शीतल समीर! सुबह ही बना रहता है, दोपहर नहीं होती। और शरीर से सुगंध आती है। स्वर्ण-कायाएं हैं स्वर्ग में। और सोने में सुगंध है।
मुसलमानों के स्वर्ग में शराब के झरनों का भरोसा दीलाते हैं। आदमी का मन तो देखो! छोड़ता भी है पाने के लिए ही छोड़ता है। यह भी कोई छोड़ना हुआ? एक हाथ से छोड़ा नहीं, दूसरे हाथ से पकड़ लिया। और यहां प्यालियां छोड़ता है, शराब यहां प्यालियों में मिलती है, झरने और नदियां नहीं बहतीं--स्वर्ग में नदियां बहाता है। यहां तो शराब तुम्हें अपने में उतारनी पड़ती है, वहां तुम शराब में उतर जाओगे। डुबकियां लेना, तैरना!
उमर खय्याम ने कहा है कि धर्मगुरुओ, अगर यह बात सच है कि स्वर्ग में शराब है तो थोड़ा हमें यहां अभ्यास कर लेने दो। तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे; न तुम्हें पीना आता है, न पिलाना आता है। तुम वहां करोगे भी क्या? तुम्हारा अभ्यास विपरीत है।
उमर खय्याम ने ठीक ही मजाक की है। उमर खय्याम एक सूफी संत था, कोई शराबी नहीं। शराब तो उसका प्रतीक है परमात्मा के लिए। वह यह कह रहा है कि अगर परमात्मा उस लोक में मिलता है तो हमें उसका स्वाद यहीं लेने का अभ्यास करना होगा। अगर यहां अभ्यास न किया तो वहां पहुंच कर भी उसका स्वाद न ले सकोगे, भोग न कर सकोगे। छोड़ो वहां की फिक्र! यहां उसके स्वाद में रमो। तब जब उसके झरने बहने लगें तो तुम डुबकी भी ले सको। अगर यहां डरे शराब से, हाथ-पैर कंपे, तौबात्तौबा करते रहे, तो वहां जब झरने देखोगे बहते तो तुम्हारे तो प्राण सूख जाएंगे। तुम्हें तो जगह न मिलेगी बचने की।
लेकिन शराब छोड़ी है यहां बड़े बेमन से, इसलिए स्वर्ग में उसका इन्तजाम कर लिया है।
हिंदुओं ने कल्पवृक्ष बना रखा है स्वर्ग में। यहां जो-जो नहीं मिलता, सब कल्पवृक्ष के नीचे मिल जाएगा। कल्पवृक्ष का अर्थ ही यह होता है कि उसके नीचे बैठते से ही वासना पूरी हो जाती है। वासना पूरी करने को कोई कृत्य नहीं करना पड़ता। यहां संसार में तो बड़ा दौड़ो, फिर भी नहीं पहुंचते--यह हमारा अनुभव है सभी का। कितना भ्रम करो, फिर भी फल क्या हाथ लगता है! राख रह जाती है हाथ में! सिकंदर भी खाली हाथ मरते हैं। धूल भरी रह जाती है मुंह में। कब्र प्रतीक्षा कर रही है। कितने ही दौड़ो, कितनी ही चेष्टा करो, अंततः कब्र में ही गिर जाते हो। छोटे गिरते वहीं, बड़े गिरते वहीं, भिखारी और सम्राट गिरते वहीं, गरीब और अमीर गिरते वहीं, ज्ञानी और मूढ़ गिरते वहीं--सब मौत में गिर जाते हैं, सब धूल-धूसरित हो जाते हैं। कितना श्रम करो, मिलता क्या है?
यह हमारा संसार का अनुभव है, तो हमने स्वर्ग में कल्पवृक्ष बनाया। वहां श्रम नहीं करना पड़ता। इधन तुमने सोचा उधर पूरा हुआ। सोचने और पूरे होने मग क्षण का भी फासला नहीं होता। इधर उठा भाव उधर फल हुआ। जीवन का अनुभव यह है कि जिंदगीभर भाव करो, दौड़ो, श्रम करो, उपाय करो, आयोजन करो--सब निष्फल,! इसके विपरीत हमने स्वर्ग में कल्पवृक्ष बनाए। कुछ भी न करो, सिर्फ सपना उठे, सिर्फ लकीर उठे भाव की, इधर भाव उठ नहीं पाया, तुम जान भी न पाओगे, तुम जाग भी न पाओगे कि भाव उठा कि बाहर फल उपस्थित हो जाएगा। यह सांसारिक मन की ही आकांक्षा है।
इसलिए सारी दुनिया के सवर्ग अलग-अलग हैं, क्योंकि हर मुल्क के रहनेवाले के जीवन के दुख-सुख के अनुभव अलग हैं।
तिब्बत का स्वर्ग सूर्य-प्रदीप्त है, रोशनी ही रोशनी है, उत्तप्त है, क्योंकि तिब्बत बर्फ की पीड़ा से पीड़ित है। हिंदुओं का स्वर्ग, शीतल बहार, सुबह की ठंडी हवा, वातानुकूलित है। हिंदू परेशान हैं सूरज से। आग-वगैरह का इंतजाम तो नरक में किया है दूसरों के लिए। स्वभावतः जो हमारा दुख है यहां, वह हमने नरक में; और जो हमने चाहा था, जो सुख था, हमारी कामना था, उसे हमने स्वर्ग में...।
स्वर्ग तुम्हारी कामना है, तुम्हारी चाह की कल्पना है, तुम्हारी चाह का काव्य है, तुम्हारा रोमांस है। नरक: तुम्हारी पीड़ा का इकट्ठा जोड़। तुमने बांट दिया। सारी पीड़ा नरक में रख दी और सारे सुख स्वर्ग में रख दिए--और बिना यह जाने कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं: अलग-अलग होते ही नहीं।
सुंदर स्त्री में ही कुरूप स्त्री छिपी है। सुंदर पुरुष मग ही कुरूप छिपा है। जीवन में ही मौत खड़ी है। जवानी में ही बुढ़ापा झांक रहा है। जरा गौर से देखो तो जवानी में ही तुम्हें बुढ़ापा झांकता हुआ दिखाई पड़ जाएगा। ठेठ भरी जवानी में तुम्हें झुकी कमर, हाथ में लकड़ी टेकता हुआ बूढ़ा दिखाई पड़ जाएगा। जरा गौर से देखो, सुंदरतम देह में तुम्हें अस्थि-कंकाल दिखाई पड़ जाएंगे। जरा गौर से देखो, जहां तुम्हें यौवन की विभा दिखाई पड़ती है, वहीं तुम्हें चिता की लपटें दिखाई पड़ जाएंगी। थोड़ी गहरी आंख चाहिए। जरा देखने की गहराई चाहिए, बस।
सुख और दुख अलग नहीं किए जा सकते। संसार के सुख और दुख सम्मिलित हैं। मनुष्य के तर्क ने, विचार ने सुख को अलग करके स्वर्ग बना लिया; दुख को अलग करके नरक बना लिया। स्वभावतः नरक उनके लिए जिन्हें तुम पसंद नहीं करते, दुश्मनों के लिए, परायों के लिए--स्वर्ग अपने लिए, अपनों के लिए, जिन्हें तुम चाहते हो; जिन्हें तुम सुख देना चाहते थे, न दे सके, उनके लिए।
इसलिए जो भी मरता है, सभी "स्वर्गीय' हो जाते हैं। खयाल किया तुमने, जो भी मरता है, मरते से ही स्वर्गीय हो जाता है। क्योंकि मरने की चर्चा, मरने का दुख प्रियजन उठाते हैं; दूसरों को तो लेना-देना क्या है! किसको पड़ी है कि नारकीय कहे कि नरक चले गए! किसको लेना-देना है! फिर मरे के संबंध मग कोई बुरी बात कहता भी नहीं। दुश्मन भी मर जाए तो भी अब मरे से कुछ बुरा कहना शोभा नहीं देता, अशोभन लगता है। स्वर्ग गए, स्वर्गीय हो गए! कोई शक भी नहीं उठाता कि ये स्वर्गीय हो गए, ये स्वर्गीय होने योग्य थे! लेकिन प्रियजन हैं, वे चाहते हैं स्वर्ग जाएं।
भक्ति--पराभक्ति--कुछ भी नहीं मांगती--परमात्मा को भी नहीं--और परमात्मा को पा लेती है। परमात्मा को पाने का ढंग ही यही है--न मांगना। बिना मांगे मोती मिलें! मांगा कि तुमने परमात्मा की शक्ल अपनी वासनाओं में ढाल ली।
तुम जरा सोचो, तुम किस तरह का परमात्मा चाहोगे। कभी विचार करो। तो तुम पाओगे कि तुम्हारी कामना का ही प्रतिबिम्ब होगा। किस तरह का परमात्मा चाहोगे? तो तुम पाओगे, तुम रंग भरने लगे परमात्मा में अपने ही। किरण टूट गई, सतरंगी हो गई। स्वभाव खो गया। सत्य अब सत्य न रहा। तुम जब सारी वासना को, कामना को छोड़कर देखते हो तो वह दिखाई पड़ता है, जो है।
परमात्मा की चाह भी परमात्मा के मार्ग में बाधा है। इसलिए परम भक्त सिर्फ भक्ति करता है, मांगता कुछ भी नहीं। परम भक्त सिर्फ प्रार्थना करता है, प्रार्थी नहीं होता--इसे खयाल में लेना। परम भक्त सिर्फ प्रार्थना करता है, प्रार्थी नहीं होता। उसकी प्रार्थना कुछ मांगने की नहीं होती। उसकी प्रार्थना अहोभाव की होती है, वह धन्यवाद देता है। वह कहता है, "ऐसे ही इतना दिया, कुछ पात्रता न थी, कोई योग्यता न थी। तू भी खूब है! लुटा रह है! मुझे दिया, जिसकी कोई पात्रता न थी! न देता तो शिकायत कहां करते, किससे करते! न देता तो शिकायत किस मुंह से करते! कोई कारण न होता। इतना दिया! पारावार दिया, विस्तार दिया! जीवन दिया, अस्तित्व दिया। धड़कता हुआ हृदय, प्रेम से भरे प्राण दिए! प्रार्थना की संभावना दी! परामात्मा की संभावना दी! मोक्ष का द्वार दिया! सब दिया!'
तो परम भक्त प्रार्थना करता है धन्यवाद के लिए। उसकी प्रार्थना अहोभाव है। उसकी प्रार्थना कृतज्ञता का उच्छवास है! वह मंदिर में धन्यवाद देने जाता है कि तेरी बड़ी कृपा है, तेरी बड़ी अनुकंपा है! तेरे जैसा औघड़ दानी नहीं देखा!
लेकिन यह पराभक्ति है। और ऐसा भक्त भगवान को पा लेता है। मुझे फिर दोहराने दें: जो मांगता नहीं, उसे मिल जाता है। जो मांगता है वह मांगने के कारण ही दूर पड़ जाता है। क्यों? मांग का शास्त्र समझो।
जब तुम कुछ मांगते हो तो मांगनेवाला अपनी मांग पर ध्यान रखता है। जब तुम कुछ मांगते हो तो तुम परमात्मा से भी बड़ी उस चीज को बता रहे हो जो तुम मांगते हो। अगर तुम गए मंदिर में और तुमने कहा कि स्वर्ग मिल जाए, हे प्रभु! बहुत दुख पा लिया, अब और दुख न दे! अब तो सुख की छाया दे! तो तुम यह कह रहे हो अगर तुम मेरे सामने तुझे पाने अर स्वर्ग को पाने का विकल्प हो तो मैं स्वर्ग चुनता हूं। तुम यह कह रहे हो कि तेरा हम उपाय की तरह उपयोग कर लेते हैं, साधन की तरह; क्योंकि तेरे बिना मिलेगा न। अपने किए तो कर लिया बहुत, कुछ पाया नहीं--अब तेरा सहारा ले लेते हैं। ऐसे तो भीतर मजबूरी है कि चाहा तो यही था कि अपने ही हाथ से पा लेते; नहीं मिल सका, चलो ठीक, मांग लेते हैं, तेरी खुशामद कर लेते हैं; तेरी स्तुति कर लेते हैं!
यह एक तरह की रिश्वत है। यह एक तरह का फुसलावा है कि चलो, तुझे राजी कर लें, तेरे हाथ मघें है। लेकिन भीतर बेचैनी है। और जो तुम मांगते हो, वह बताता है।
मैंने सुना है, एक सम्राट युद्ध से घर वापस लौटता था। उसकी एक हजार रानियां थीं, उसने खबर भेजी कि मैं क्या तुम्हारे लिए ले आऊं। किसी ने कहा, हीरों का हार ले आना। किसी ने कहा, उस देश में कस्तूरी-मृग की गंध मिलती है, वह ले आना। किसी ने कहा, वहां के रेशम का कोई मुकाबला नहीं, तो रेशम की साड़ी ले आना। ऐसे बहुत लोगों ने बहुत कुछ मांगा। सिर्फ एक पत्नी ने कहा, तुम घर आ जाओ, तुम बहुत हो। उस दिन तक उसने इस रानी पर कोई खयाल ही न किया था। हजार रानियों में एक थी, कहीं थी; नम्बर थी, कोई व्यक्ति नहीं थी; लेकिन घर लौटा तो उसे पटरानी बना दिया। और रानियों ने कहा,"यह क्या हुआ? किस कारण?' उसने कहा, "इस ने अकेले कहो कि तुम घर आ जाओ। और कुछ नहीं चाहिए; तुम आ गए, सब आ गया। इसने मेरा मूल्य स्वीकारा। तुममें से किसी ने हीरे मांगे, किसी ने साड़ियां मांगी, किसी ने इत्र मांगा, और हजार चीजें मांगी--मेरा उपयोग किया। ठीक है, तुमने जो मांगा, तुम्हारे लिए ले आया। इसने कुछ भी न मांगा। इसके लिए मैं आया हूं'
परमात्मा उसके द्वार पर दस्तक देता है जिसने कुछ भी न मांगा; जिसने कहा, ऐसे ही बहुत दिया है, बस मेरा धन्यवाद स्वीकार कर लो।
तो पराभक्ति तो धन्यवाद है। उसकी हम बात छोड़ें। वह तो आत्यन्तिक है। लेकिन मनुष्यों में तो सात्त्वि मनुष्य है। वह कहता है, "छुटकारा हो जाए संसार से, पाप से मुक्ति मिले। अधंकार में बहुत जी लिए, प्रकाश चाहिए प्रभु! तमसो मा ज्योतिर्गमय! मृत्योर्मा अमृतं गमय! अब मृत्यु से मुझे अमृत की तरफ ले चलो! असतो मा सद्गमय! असत्य से मुझे सत्य की तरफ ले चलो'! बड़ी सात्त्वि पुकार है। आदमी कल्पना कर सके, उसकी आखिरी ऊंचाई है। और क्या तुम कल्पना करोगे; उसके पार तो कल्पना के पंख कट जाते हैं। उसके पार तो शून्य का विराट आकाश है। उसके बाद तो परमात्मा ही है। यह सत्पुरुष की आकांक्षा है--इसको नारद ने कहा, सात्त्वि भक्त्ति। मगर इसको गौणी भक्ति कहा है, याद रखना यह मुख्या नहीं है। यह परा नहीं है। यह कोई आखिरी बात नहीं है।
फिर उससे नीची भक्ति है: राजसी भक्ति। तुम मांगते हो--बड़ा राज्य मिल जाए, सत्कार मिले, सम्माान मिले, राष्ट्रपति हो जाओ कि प्रधानमंत्री हो जाओ। कि चुनाव में लड़ते हो तो मंदिर जात हो! दिल्ली के सभी राजनेताओं के गुरु हैं। जैसे ही जीते, भूल जाते हैं, वह बात दूसरी; मगर हारे कि गुरु के पास पहुंच जाते हैं।
यश मिले, कीर्ति मिले, धन मिले, पद मिले--यह राजसी मन का लक्षण है। अहंकार की तृप्ति हो, अस्मिता बढ़े, मैं कुछ हो जाऊं! फिर किसी भी रूप में मांगते हो। तो अगर तुम मंदिर में गए और तुमने यश, धन, कीर्ति मांगी; सुयश फैले, मेरे परिवार, मेरे कुल का नाम सदा रहे--तो तुम्हारी भक्त्ति और भी नीचे गिर गई, राजसी हो गई।
उससे भी नीचे तामसी भक्ति है। तामसी व्यक्ति राज्य भी नहीं मांगता, यशकीर्ति भी नहीं मांगता--वह कहता है, फलां आदमी मर जाए; इस पर दुख का पहाड़ गिर पड़े; चाहे इसे मिटाने में मैं मिट जाऊं, मगर इसे मिटाकर रहूंगा। उसका मन क्रोध से, तमस से; उसका मन हिंसा से,र् ईष्या से--आंदोलित होता है--विनाश से!
ये तीन गौणी भक्तियां हैं। इन तीन में उत्तर-उत्तर क्रम में पूर्व-पूर्व की भक्ति कल्याणकारिणी होती है। तामसी से राजसी ज्यादा कल्याणकारिणी है। राजसी से सात्त्विी ज्यादा कल्याणकारिणी है। और इन तीनों से पराभक्त्ति ज्यादा कल्याणकारिणी है।
लेकिन एक बड़ी अनूठी बात है जो समझ लेनी चाहिए--वह यह कि भक्ति का सेत्र तीनों में है। क्योंकि ऐसे तामसी व्यक्ति भी हैं तो सीधा छुरा मार आएंगे, जो भगवान के मंदिर न जाएंगे पूछने कि आज्ञा है, कि इस आदमी को मिटाना है; जो मिटा ही देंगे, जो भगवान को बीच में भी न लेंगे, इस बुरे काम के लिए भी बीच में न लेंगे, भले काम की तो बात दूर। यह तामसी व्यक्ति कम-से-कम मंदिर तक तो जाता है; इसके जाने का कारण गलत है, माना, मगर जाता ठीक जगह है। गलत आकांक्षा से जाता है, लेनिक जाता ठीक के पास है। इतना तो कम-से-कम ठीक है ही। आंखें इसकी धुंधली हैं, परदा है क्रोध का--कोई बात नहीं। अगर प्रार्थना करता ही रहा, रोता ही रहा प्रार्थना में, तो शायद आंख से धुंधलका हट जाएगा।
जो आदमी धन के लिए पद के लिए मांगने गया है, कब तक मांगेगा; कभी तो जानेगा, समझेगा कि यह मैं क्या मांग रहा हूं! मांगते-मांगते, प्रार्थना करते-करते होश भी तो सम्हलेगा; कम-से-कम पाएगा तो मंदिर में अपने को--कभी होश भी आ जाए। गलत कारण से ही सही, लेकिन ठीक जगह तो है--कभी झलक मिल जाए, तो शायद सात्त्वि हो जाएगा। किसी दिन पाएगा कि मांगा परमात्मा से धन और मिला; बड़ी भूल हो गई, कुछ और बड़ी बात मांग लेते। धन मांगा, क्या पाया! मिल भी गया, तो भी कुछ न पाया। पर अब शिकायत भी किसकी करें, खुद ही मांगा था। पद पा लेगा, लेकिन पद पाकर पाएगा, सिवाय खींचातानी के और कुछ भी नहीं है।
कुर्सी पर कोई ठीक से बैठ थोड़े ही पाता है! कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है; कोई कुर्सी को उलटाने की कोशिश कर रहा है। जो कुर्सीयों पर हैं, उनको जरा गौर से देखो! दो-चार दिन से ज्यादा भी राजधानी से बाहर रहने में घबड़ाहट लगती है: उधर कोई कुर्सी उलटा न दे! प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति परदेशाग की यात्रा पर जाने मएं डरते हैं; जब तक गए तब तक;इधर लौटकर आने का मौका ही न आए! बहुत बार ऐसा हो जाता है: राष्ट्रपति गए बाहर, फिर लौट ही न सके, क्योंकि तब तक यहां दूसरों ने उलटा दी कुर्सी, कोई और चढ़ा बैठा। रात चैन से सो नहीं सकते। राजनीतिज्ञ और चैन से सो जाए तो राजनीतिज्ञ ही नहीं। करवटें बदलता रहता है, दांव बिठाता रहता है, रातभर शतरंज की चालें चलतारहता है। बड़ा खेल है बड़ी बेचैनी से भरा है। मिल भी गया पद तो पाओगे कि कुछ मिला नहीं, कुछ और मांग लिए होते; मौका आया और क्या मांग बैठे। अवसर मिला था, यह क्या कूड़ा-कचरा मांगकर घर आ गए! देनेवाला सामने खड़ा था, मांगा भी तो क्या मांगा! तो किसी दिन शायद सत्त्व की ऊर्जा उठे और तुम्हारे मन में भाव उठे:असतो मा सद्गमय। असत्य से सत्य की तरफ ले चल प्रभु!
अगर सत्त्व की प्रार्थना जारी रही, तो किसी-न-किसी दिन तुम्हें यह दिखाई पड़ जाएगा: "परमात्मा से, और सत्य को मांग रहा हूं! परमात्मा को ही मांग लेता! जब मालिक हो तो नासमझी है। जब देनेवाला ही आकर हृदय में विरजमान होने को राजी है, तो माजिक को ही मांग लूं। फिर और सब तो इसके साथ आ ही गया। सत्य आया, प्रकाश आया, अमृत आया--वह सब तो इसका अनुषंग है। वे तो इसकी छायाएं हैं। तो मैं छायाएं मांग रहा हूं'?
तब मांगते-मांगते मांग भी निखरती है, सुधरती है। प्रार्थना गलत भी शुरू हो तो भी शुरू तो होती है।
अल्लाह अल्लाह ये तेरी तर्कोतलब की वुसअतें
रफ्ता-रफ्ता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया
अव्वल-अव्वल हर कदम पर थीं हजारों मंजिलें
आखिर आखिर इक मुकामे बेमुकाम आ ही गया।
ये तेरे त्याग और भोग की विशाल उलझनें, हे परमात्मा! लेकिन चलते रहे: रफ्ता-रफ्ता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया!
बहुत तरह के सौंदर्यों ने घेरा है--स्त्री का सौंदर्य था, फूलों का सौंदर्य था, धन का सौंदर्य था, पद का सौंदर्य था--लेकिन रफ्ता-रफ्ता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया, उस पुण्य का सौंदर्य आ ही गया, खोजते-खोजते, टटोलते-टटोलते।
अल्लाह अल्लाह ये तेरी तर्कोतलब की वुसअतें!
कितने भोग, कितने त्याग, कितनी उलझनें, कितनी विशालताएं! भ्रा आकाश है, लेकिन फिर भी--
रफ्ता-रफ्ता सामने हुस्ने तमाम आ ही गया।
अव्वल अव्वल हर कदम पर थीं हजारों मंजिलें।
पहले-पहले एक-एक कदम पर मुसीबतें खड़ी थीं, हजारों रास्ते खुलते थे, चुनाव कर मुश्किल था। चुतते थे, भूलें हो जाती थीं। हजार रास्ते खुलते हों तो जो भी चुनोगे, पछतावा बना रहेगा कि नौ सौ निन्यानबे छोड़ दिए, पता नहीं वहां क्या था!
और जिंदगी में कुछ तो चुनाव ही होगा। धन चुनो, पद छूट जाता है। पद चुनो, धन त्यागना पड़ता है। स्त्री चुनो, पद छूट जाता ह। पद चुनो, ब्रह्मचर्य धारण करना पड़ता है। कुछ-न-कुछ झंझट खड़ी रहती है। एक चुनो, दूसरा छूटता है; दूसरा चुनो, एक छूटता है। और मन में यह पछतावा बना ही रहता है कि पता नहीं दूसरा विकल्प कहीं ज्यादा सुंदर हुआ होता। इसलिए मैं ऐसाा आदमी नहीं पाता जो सुखी हो, क्योंकि नौ सौ निन्यानबे विकल्प सभी ने छोड़े हैं। एक चुनोगे तो नौ सौ निन्यानबे छूट जाते हैं।
राजनीतिज्ञ आता है। वह कहता है, "कहां की झंझट में पड़ गया! इससे तो थोड़ा धन कमा लेते!' क्योंकि राजनीतिज्ञ को सदा जिसके पास धन है, उसके पैर दबाने पड़ते हैं, उसे पीड़ा बनी रहती है।
धनपति आता है। वह कहता है, "इतनी मेहनत से धन कमाया, इससे तो इतनी मेहनते में तो राष्ट्रपति या प्रधानमंत्रि हो गए होते। इन लुच्चे-लफंगों की जाकर खुशामद करनी पड़ती है। लाइसेंस चाहिए, यह चाहिए, वह चाहिए...!
जिसको देखो, वही दुखी है। क्योंकि तुम कुछ भी पाओगे, वह पाना किसी कीमत पर होगा और वह कीमत तुम्हें चुकानी पड़ेगी। यहां मुफ्त तो कुछ मिलता नहीं। एक चुनो, नौ सौ निन्यानबे की कीमत चुकानी पड़ती है। रास्ते पर खड़े हो, हजार रास्ते खुलते हैं; तुम एक पर ही जा सकते हो। मन में यह बात तुम भूलोगे कैसे कि कहीं नौ सौ निन्यानबे रास्तों पर कोई मंजिल पर ले जानेवाला रास्तान रह गया हो। और जब तुम कहीं भी न पहुंचोगे, तब तो पछताओगे निश्चित ही कि यह रास्ता तो गलत चुन ही लिया। और चाहे ठीक न हों, एक बात तो पक्की हो ही जाएगी कि यह गलत है।
दसरे भी ऐसे ही पछता रहे हैं।
अव्वल अव्वल हर कदम पर थीं हजारों मंजिलें
आखिर आखिर इक मुकामे बेमुकाम आ ही गया।
लेकिन फिर धीरे-धीरे जब टटोलता ही रहता है, टटोलता ही रहता है तो वह मंजिल आ जाती है जो आखिरी मंजिल है, बेमुकाम है; वह मुकाम, जिसके पार फिर कोई और मंजिल नहीं है; जो आखिरी है; जिससे कि फिर कोई रास्ता नहीं खुलता; जिसमें पहुंचे कि पहंचे; जिसमें डूबे कि डूबे; जिसमें खोए तो खोए--जैसे सागर में सरिता खो जाती है।
आखिर आखिर इक मुकामे बेमुकाम आ ही गया!
आज का पहला सूत्र: "अन्यस्मात् सौलभ्यं भक्तौ'
अन्य सब की अपेक्षा भक्ति सुलभ है।
अन्य सब की अपेक्षा! योग है, तंत्र है, ज्ञान है, तप है, त्याग है--सब की अपेक्षा भक्ति सुलभ है। क्यों? सुलभता क्या है भक्ति की? सुलभता यही है कि और सब तो मनुष्य को करने पड़ते हैं--भक्ति होती है। सुलभता यही है कि और सब में तो मनुष्य को अपने ही सिर पर बोझ रखकर चलना पड़ता है--भक्ति में समर्पण है; बोझ परमात्मा को दे देना है।
एक सम्राट अपने रथ से आ रहा है। राह पर उसने एक बूढ़े आदमी को अपनी गठरी ढोते देखा, दया आ गई। रथ रोककर उसे कहा, "आ जा, तू भी बैठ जा; कहां उतरना है, उतार देंगे'। वह रथ में तो बैठ गया। गरीब आदमी, रथ में कभी बैठा नहीं, सिकुड़ा-सिकुड़ा डरा-डरा...ठीक से बैठा नहीं कि कहीं ज्यादा गरीब आदमी को वजन न पड़ जाए। और तो और, सिर से गठरी भी न उतारी। सम्राट ने कहा कि गठरी नीचे रख दे, अब गठरी क्यों सिर पर रखी है?
उसने कहा कि नहीं मालिक, इतना ही क्या कम है कि मुझको चढ़ा लिया; अब और गठरी का वजन भी आपके रथ पर रखूं; नहीं नहीं, यह मुझसे न होगा।
और इससे क्या फर्क पड़ता है कि जब तुम बैठे हो, तो गठरी तुम सिर पर रखो कि नीचे रखो?
योगी की गठरी सिर पर है, भक्ति की रथ में। वह कहता है, परमात्मा पर सब छोड़ दिया, "अब तू ही सम्हाल!' वह एक ही कदम उठात है भक्त। ज्ञानी को बहुत कदम उठाने पड़ते हैं; क्योंकि ज्ञानी बड़ा कुशल है, बड़ा होशियार है। योगी को एक-एक सीढ़ी चढ़नी पड़ती है। भक्ति एक छलांग है। भक्त कहता है कि अब हमारी समझ के बाहर है। हमारी समझ से चलेंगे तो पक्का है कि कभी न पहुंचेगे। तुझ पर भरोसाा करते हैं।
जैसे हम कहते हैं, प्रेम अंधा है, लेकिन प्रेम के पास ऐसी आंख हैं जो आंखवाला के पास भी नहीं हैं। भक्त कहता है, सौंपा तेरे पास! तूने दिया जन्म, तूने दिया जीवन, तू ही चला! यह पतवार ले! हम निश्चिंत सोते हैं। तू वैसे ही चला रहा है, हम नाहक बीच-बीच में आते हैं!
योगी तैरता है नदी की धारा के विपरीत। भक्त बहता है नदी के साथ। इसलिए सुगम है। भक्त कहता है, "हम बहेंगे। अगर तुझे गलत जगह ले जाना हो तो ले जा, हम वहीं जाने को राजी हैं'। यह भक्त की हिम्मत है। भक्ति बड़ा साहस है--दुस्साहस है। जुआरी जैसा दांव लगाता है भक्त अपना सारा, अपने पास कुछ भी नहीं रखता। वह कहता है, "ठीक है, अब तुझे गलत ही ले जाना है तो स्वीकार है। अगर डुबाना है तो सही, डुबा'
जरा सोचो। जरा इस बात का स्वाद लो। जरा इसको भीतर हृदय में उतरने दो: अगर तुझे डुबाना है, सही, डुबा! तो क्या किनारा मिल न जाएगा इसी डूबने में? तो क्या मंझधार में किनारा उपलब्ध न हो जाएगा? क्योंकि जो डूबने को राजी हो गया, उसे कैसे डुबाओगे?
तुमने कभी देखा, जिंदा आदमी डूब जाता है नदी में, मुर्दा तो ऊपर आ जाता है! जरूर मुर्दे को कोई तरकीब मालूम है जो जिंदा को नहीं मालूम। जिंदा आदमी डूब जात है; चेष्टा करता था बचने की, लड़ रहा था नदी से, शोरगुल मचाता था, चिल्लाता था कि बचाओ-बचाओ, अपना सब किया था जो कर सकता था और डूब गया। मुर्दे को क्या तरकीब मालूम है? मरते ही आदमी ऊपर आ जाता है, लाश तैरने लगती है।
भक्त जीते-जी मर जाता है। वह कहता है, हम हैं ही नहीं, तू ही है। अगर भटकेगा तो तू भटकेगा, हम कहां भटकेंगे! अगर डूबेगा तो तू डूबेगा, हम कहां डूबेंगे। अगर तुझे डूबने में मजा है तो हम कौन हैं जो बीच में बाधा डालें। हम हैं ही कौन! हम तो एक भ्रम हैं--सत्य तो तू है!
इसलिए भक्ति सुगम है।
लड़खड़ा के जो गिरा पांव पे साकी के गिरा
अपनी मस्ती से तसद्हुक ये मुझे होश रहा।
 लड़खड़ा के जो गिरा पांव पे साकी के गिरा।
भक्त लड़खड़ाकर गिर जाता है। वह कोई सम्हलकर खड़े रहनेवालों में से नहीं है। लेकिन इतना उसकी बेहोशी में भी होश रहता है कि वह गिरता साकी के पैरों पर है, वह गिरता परमात्मा के पैरों पर है। इतनी बेहोशी में भी इतना होश रखता है, बस कि पैर तेरे हों फिर क्या गिरना और क्या खड़ा होना--सब बराबर है। क्या मिटना और क्या होना--सब बराबर है! रात और दिन बराबर हैं। जन्म और जीवन, मौत और जीवन बराबर हैं। तेरे पैर पर!
भक्ति सुगम है। लड़खड़ाकर गिरना भी अगर न हो सकेगा तो फिर और क्या होगा? जरा सोचो? जरा ध्यान करो! भक्ति यह कहती है कि गिर पड़ो। योगी सम्हलकर खड़ा होता है, साधता है। भक्ति कोई साधना नहीं है। हम कहते हैं, भक्त्ति-साधना! भाषा बड़ी कमजोर है। भक्ति साधना नहीं है। इसलिए पुराने दिनों में फासला बहुत साफ था--भक्ति थी उपासना। और बाकी साधनाएं हैं। योग साधो, ध्यान साधो--साधनाएं हैं। भक्ति है उपासना।
उपासना का अर्थ होता है: "उसके' पास होना, बस। उप+आसान= "उसके' पास बैठ जाना, गिर जाना उसके चरणों में। और "उसके' चरण सब जगह हैं। इसलिए तुम यह मत पूछना कि कहां गिरें! इसीलिए तो बेहोशी में भी इतना होश रहा आता है। अगर "उसके' चरण कहीं एक जगह होते, काबा में होते कि काशी में होते, तो तुम पूना में कितने ही होश से गिरो, क्या फर्क पड़ता है!
कबीर जिंदगीभर काशी रहे, मरते वक्त काशी छोड़ दी। लोग मरते वक्त काशी जाते हैं। मरने के लिए ही काशी जाते हैं--काशी-करवट! तो काशी में रहते ही हैं मरे-खुरे लोग, मरने की तैयारी कर रहे हैं। तुम अगर काशी जाओ तो बूढ़े, बुढ़ियाएं, विधवाएं तैयारी में बैठी हैं, घाटों पर, कि करवट कब हो जाए। क्योंकि खयाल है कि काशी मरे तो उसके चरणों में मरे। खयाल है कि काशी मरे तो स्वर्ग निश्चित है।
कबीर हट गए। भक्तों ने कहा, "यह क्या कर रहे हैं? जिंदगीभर काशी रहे, अब मरते वक्त हटते हैं? कबीर ने कहा, अगर काशी में मरने के कारण उसके पास पहुंचे तो फिर उसके चरण बड़े सीमित हो गए। तो काशी के पास एक छोटा-सा गांव है: मगहर। जैसे काशी की कहावत है कि काशी में जो मरता है, स्वर्ग जाता है, वैसी ही कहावत मगहर के संबंध में है कि मगहर में तो मरता है, गधा होता है। मगहर में कोई मरे न, इसलिए मगहर के लोगों ने फैला दिया होगा कि मरते वक्त सब लोग काशी पहुंच जाएं। यह होशियारों की तरकीब रही होगी। कबीर मरते वक्त मगहर पहुंचे गए। उन्होंने कहा कि अगर यहां मरकर उसके चरणों में पहुंचे तो ही कोई बात है। मगहर में ही मरे।
पैर उसके बड़े हैं। पैर उसके सब जगह हैं। एक बार यह समझ में आ जाए कि वही है, तुम कहीं भी गिरो, साकी के पैरों में ही गिरे। यह तुम्हारे होश का इतना सवाल नहीं है जितना इस समझ का सवाल है कि उसके पैर ही सभी जगह हैं। वही है। कण-कण में वही है। क्षण-क्षण में वही है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
भक्ति सुगम है, क्योंकि भक्त्ति की न कोई विधि है, न विधान है।
रामकृष्ण को दक्षिणेश्वर के मंदिर में पुजारी रखा तो अड़चन हो गई ट्रस्टियों को, निकालने की नौबत आ गई। क्योंकि रामकृष्ण पुजारियों जैसे पुजारी तो न थे--पुजारी थे ही नहीं, भक्त थे। पुजारी और भक्त में बड़ा फर्क है। पुजारी यानी धंधे में लगा है, व्यवसायी है।
गुरजिएफ का कल रात मैं एक वचन पढ़ता था। उसके बहुत अदभुत वचनों में एक वचन है कि अगर धर्म से छुटकारा पान हो तो धर्मगुरुओं के पास रहो; छुटकारा हो जाएगा--देखकर सारा उपद्रव, जाल, षडयंत्र। एक बात पक्की है कि पुजारियों को भगवान पर बिलकुल भरोसा नहीं है--हो ही नहीं सकता। पुजारियों के पास तो तुम्हें भी समझ में आ जाएगा कि यह सब जाल है। रोज पूजा करते हैं, पुजारी को कुछ होता नहीं, खुद को कुछ नहीं होता, खुद भीगा ही नहीं; कर आता है पूजा, घर आ जाता है; तनख्वाह ले लेता है, निपटारा हो जाता है। प्रार्थना भी बेच देता है। पूजा भी बेच देता है।
रामकृष्ण पुजारी न थे, भक्त थे। वहीं मुश्किल हो गई। तो कभी तो आधी रात पूजा शुरू हो जाती, कभी दिन भर पूजा न होती। उन्होंने कहा कि यह नहीं चलेगा, यह किस तरह की पूजा है? व्यवस्था होनी चाहिए, विधि-विधान होना चाहिए। रामकृष्ण ने कहा, फिर संभलो अपना मंदिर, यह हमसे न होगा। जब हृदय से ही न उठती हो तो हम कैसे करेंगे? करके क्या धोखा देंगे भगवान को?
और धोखा देकर उसको हम धोखा दे कैसे पाएंगे! दुनिया को धोखा हो जाएगा कि पूजा हो रही है, लेकिन उसको थोड़े ही धोखा होगा! तुम हमको फंसाओगे, नरक भिजवाओगे। वह देख ही लेगा कि यह आदमी धोखा दे रहा है। यह हमसे न होगा। कभी रात दो बजे उठता है भाव। यह अपने हाथ में नहीं है। उठता है तब उठता है, जब नहीं उठता है नहीं उठता है।
कभी दिन-दिन भर पूजा चलती भूखे-प्यासे; और कभी दिन बीत जाते और मंदिर खाली पड़ा रहता और कोई दीया भी न जलता। रामकृष्ण ने कहा, जब जलेगा, प्रामाणिकता से जलेगा; जब नहीं जलेगा, नहीं जलेगा। हम क्या करें,उसकी मर्जी, जलवाना होता तो भाव जगाता। जब सभी उस पर छोड़ दिया, तब यह भी क्य हिसाब अपने पास रखना। जब उसको दीये की जरूरत होगी, बुला लेगा; और जब उसको घंटनाद सुनना होगा, बुला लेगा, और जब उसे गीत सुनने का रस आएगा, कहेगा, "रामकृष्ण गाओ'! हम गाएंगे, नाचेंगे। अब जब सुननेवाला ही वहां नहीं है, अभी उसकी मौज ही नहीं है,यायद सोता हो विश्राम करता हो, तो हम नाहक बीच में खलल डालें? तुम हमको मत फंसा देना।
खैर, बात टली कि चलो, चलने दो; बात जंची भी कि बात तो ठीक है। फिर और उलझनें आने लगीं। यह भी मना चला कि यह भी पता चला कि यह पहले खुद ही को भोग लगा लेता है--वहीं मंदिर मग खड़े-खड़े--जो थाली भगवान के लिए आई है, पहले खुद चख लेता है। फिर जूठा! फिर जरा ज्यादा हो गई बात। ट्रस्टियों ने कहा, "अब जरा सीमा के बाहर हो गई। इसका क्या हिसाब है?' रामकृष्ण ने कहा, "हिसाब! मुझे पता है। मेरी मां जब भी कुछ बनाती थी, पहले खुद चखती थी; जब खुद ही न जंचे तो मुझे नहीं देती थी। तो मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकता। जूठा! वही मुझसे चख रहा है। लेकिन मैं बिना चखे नहीं चढ़ा सकता; क्योंकि पता नहीं चखाने योग्य है भी! जब अच्छी चीज बनती है तो मैं चढ़ाता हूं, जब नहीं बनती अच्छी चीज तो नहीं चढ़ाता। यह भगवान का चढ़ा रहे हैं, कोई खेल नहीं है!'
यह भक्त था, यह पुजारी नहीं था।
भक्ति सुगम है, अगर हृदय उत्फुल्लित हो। भक्ति बिलकुल सरल है। अगर तुम्हारे पास हृदय हो--
क्या पूजन क्य अर्चन रे!
पदरज को धोने उमड़े आने लोचन में जलकण रे!
अक्षत पुलकित रोम, मधुर मेरी पीड़ा का कंपन रे!
क्या पूजन क्य अर्चन रे!
तो कोई गंगाजल थोड़े ही चढ़ाना पड़ता है, आंसू ही उमड़े आते हैं।
पदरज को धोने उमड़े आते लोचन में जलकण रे!
अक्षत पुलकित रोम--यह जो पुलकित रोम है, यही अक्षत है। यह तो आनंद से विभोर होती हुई भाव-दशा है, यही अक्षत है।
मधुर मेरी पीड़ा का कंपन रे! और इसी पीड़ा को चढ़ाता हूं। जो मेरे पस है वही चढ़ाता हूं। जो मैं हूं वही चढ़ाता हूं।
क्या पूजन क्या अर्चन रे!
तो भक्त की कोई विधि नहीं है, विधान नहीं है। इसलिए सुगम है। हुए शूल अक्षत मुझे धुलि चंदन
अगरु धूम-सी सांस सुधिगंध-सुरभित
बनी स्नेह लौ आरती चिर अकंपित
हुआ नयन का नीच अभिषेक जलकण
हुए शूल अक्षत मुझे धूलि चंदन
प्रेम की बात है: धूलि को चढ़ा दो, चंदन हो जाती है। और नहीं तो चंदन जिंदगीभर घिसते रहो। घिस रहे हैं लोग जिंदगीभर से चंदन--और चंदन धूलि हो गया। धूलि को चढ़ा दो। बात, तुम क्या चढ़ाते हो, इसकी है ही नहीं--कौन चढ़ाता है, किस हृदय से चढ़ाता है!
हृदय हो तो भक्ति सुगम है। हृदय न हो तो भक्ति सबसे ज्यादा दुर्गम हो जाती है।
"अन्य सबकी अपेक्षा भक्ति सुलभ है'
जब नारद ने ये वचन कहे थे, तब जरा भी इनको समझाने की जरूरत न रही होगी। वे लोग, वह समय और था। हृदय स्वाभाविक था। बुद्धि बड़ी दूर थी। चेष्टा करके लोग बुद्धि का उपाय करते थे, उपयोग करते थे। सहज तो हृदय का उपाय था, उपयोग था।
आज बात उलटी हो गई है। आज सब तरह मालूम पड़ता है भक्त्ति को छोड़कर। आज योग साधना हो, कोई कठिन नहीं मालूम पड़ता। इसलिए तो योग का इतना प्रचार सारी दुनिया में होता चला जाता है। आसन लगाओ, व्यायाम करो, प्राणायाम करो, शीर्षासन करो--समझ में आता है, बुद्धि के पकड़ में आता है। यह बात जरा पैदगलिक है, पार्थिव है। समझ में आता है। वैज्ञानिक की भी समझ में आता है। इसलिए बहुत-से योगी अमरीका और यूरोप में जाकर वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाओं में बैठे हैं, तार वगैरह लगवाकर जांच करवा रहे हैं। वैज्ञानिक को भी समझ में आता है कि अगर एक खास ढंग से श्वास ली जाए तो रक्तचाप कम हो जाता है; एक खास ढंग से श्वास ली जाए तो मस्तिष्क की गतिविधि अल्फा तरंगों से भर जाती है--वैसे ही जैसे गहरी नींद में होता है, शांत हो जाती है। यह तो वैज्ञानिक की भी समझ में आता है कि सारी चीजें शारीरिक हैं, बुद्धि इनको पकड़ पाती है।
भक्त को तुम बिलकुल न पकड़ पाओगे। रामकृष्ण की तुम कितनी ही जांच करो, हाथ कुछ भी न आएगा। हां, किसी योगी को अगर प्रयोगशाला में ले जाओ, बहुत कुछ हाथ में आएगा; क्योंकि उसके उपकरण भी पौदगलिक हैं, पार्थिव हैं। श्वास की जांच हो सकती है। रक्तचाप की जांच हो सकती है। मस्तिष्क के भीतर चलती विद्युतत्तरंगों की जांच हो सकती है। और यह बात सिद्ध हो सकती है प्रयोग से कि एक विशेष प्राणायाम करने से शरीर और मन को लाभ होता है। लेकिन आत्मा की क्या जांच होगी? हृदय को कैसे पहचानोगे? अभी तक प्रेमी को पकड़ने का, प्रेमी को जांचने का कोई उपाय नहीं मिला, तो भक्ति की तो बात ही मुश्किल है।
तो भक्ति, जब नारद ने यह सूत्र लिखा था, निश्चित ही अन्यस्यात् सौलभ्यं भक्तौ--तब भक्ति बड़ी सुलभ थी। भक्ति अब भी सुलभ है, आदमी जटिल हो गया है। आदमी बड़े कठिन हो गए। आदमी बड़े सोच-विचार में उलझ गए, खोपड़ी में जकड़ गए, हृदय तक जाने के द्वार-दरवाजे बंद हो गए। हृदय करीब-करीब भूल ही गया है।
जब मैं तुमसे हृदय की बात कर रहा हूं, तब अगर तुम्हें ज्यादा से ज्यादा याद आएगी तो फेफड़ों की याद आएगी। जहां धुक-धुक चल रही, श्वास चल रही है--वह फेफड़ा है, हृदय नहीं। वह फेफड़ा तो बदला जा सकता है, प्लास्टिक का लगाया जा सकता है। हृदय भी प्लास्टिक का हो सकता है? फेफड़ा हो सकता है और शायद इस फेफड़े से बेहतर होगा, क्योंकि प्लास्टिक जल्दी खराब नहीं होता। और प्लास्टिक आसानी से बदला जा सकता है। जिस दिन प्लास्टिक के फेफड़े होंगे उस दिन लोग हृदय के दौरे से न मरेंगे। बदल देंगे। पार्ट ही बदलने की बात है। ले गए गैरेज में, बदलवा लाए, दूसरा लगवा लिया।
लेकिन हृदय कहीं और है। फेफड़े से हृदय का कोई सीधा संबंध नहीं है। फेफड़ा और हृदय पास-पास हैं, यह बात सच है। जहां फेफड़ा है, उसी के पीछे कहीं छिपा हुआ हृदय है। फेफड़ा शरीर का हिस्सा है; हृदय आत्मा का। यहां बड़ी भूल हो जाती है। इसलिए तुम जब प्रेम से भरते हो तो तुम फेफड़े पर हाथ रखते हो--वस्तुतः तुम हृदय पर हाथ रखना चाहते हो, लेकिन फेफड़ा भी वहीं पास है। इसलिए जब तुम वैज्ञानिक से कहोगे कि मेरा हृदय बड़ा प्रफुल्लित हो रहा है भगवान से, तो वह कहेगा हम जांच करके देखे लें। वह फेफड़े की जांच करेगा, क्योंकि फेफड़े की जांच हो सकती है।
योग का संबंध तो फेफड़े से है; भक्ति का संबंध हृदय से है। ज्ञान का संबंध तो खोपड़ी से है, सिर से है, विचार की व्यवस्था से है। भक्ति का संबंध भाव की व्यवस्था से है। भक्ति का संबंध भाव की व्यवस्था से है। वह बड़ी और बात है। वह दूसरा ही आयाम है। तो तुम जब सोच-विचार छोड़ोगे, जब तुम सोच-विचार का सर्मपण करोगे, जब तुम उसके चरणों में रख आओगे--फूल वगैरह बहुत रख चुके, अब तो विचारों को रख आओ उसके चरणों में। चढ़ाना हो तो सिर चढ़ाओ, बाकी कुछ चढ़ाने जैसा नहीं है। सिर चढ़ जाए तो तुम एक नए केन्द्र-बिन्दु से जीने लगोगे--हृदय से। और तब भक्ति बड़ी सुलभ है।
हृदय सजीव हो, हृदय जीवंत हो, हृदय पुनः गतिवान हो जाए, हृदय के सरोवर में फिर तरंगें उठें, हृदय के वृक्ष पर फिर फूल-फल लगें--तो भक्ति बड़ी सुलभ है। इसलिए भक्ति का जो अनिवार्य कदम है, वह श्रद्धा है।
तर्क विचार में ले जाता है; श्रद्धा, भाव में। तर्क अगर सफल हो तो अहंकार में ले जाता है; अगर विफल हो तो विषाद में। श्रद्धा निरहंकार में ले जाती है, अगर सफल हो; अगर असफल हो तो संताप में। लेकिन श्रद्धा असफलता जानती ही नहीं। अगर श्रद्धा हो तो सहल ही होती है। तर्क की सफलता सुनिश्चित नहीं है; सफल हो तो अहंकार को प्रगाढ़ कर जाएगा; असफल हो तो अहंकार को क्षत-विक्षत कर जाएगा। श्रद्धा सफल ही होती है, अगर हो। हां, अगर न हो तो असफल होती है; लेकिन न होने को असफल होना कहना ठीक नहीं।
..."क्योंकि भक्ति स्वयं प्रमाणरूप है और इसके लिए अन्य प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं'। तर्क प्रमाण जुटाते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, "ईश्वर को प्रमाण क्या है'? वे सिर के बल ईश्वर को खोजने चले हैं'। वे तर्क के सहारे ईश्वर को खोजने चले हैं। वे कहते हैं, "प्रमाण क्या है? पहले सिद्ध करें कि ईश्वर है'। उनको पता ही नहीं है कि ईश्वर को सिद्ध करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि जाए तर्क ईश्वर को सिद्ध करता है वही तो उस तक पहुंचने में बाधा है। इसे थोड़ा खयाल में लेना। जिसको तुमने अमृत समझा है, वही तो जहर है वहां। इसलिए तर्क अगर कोई ईश्वर को सिद्ध भी कर दे, तो एईश्व्र सिद्ध नहीं होता--तर्क ही सिद्ध होता, तर्क ही सिद्ध होता है। इससे तर्क ईश्वर से ऊपर हो जाता है, नीचे नहीं। और ईश्वर के ऊपर कोई चीज हो जाए ईश्वर कहां रहा! ईश्वर सर्वोपरि है।
थोड़ा भाव करो। ईश्वर सर्वोपरि है। इसलिए तर्क से सिद्ध नहीं हो सकता, नहीं तो तर्क उसके ऊपर हो जाएगा। फिर जब तर्क से सिद्ध हुआ तो वह तर्क के लिए मोहताज हो जाएगा। और जो तर्क से सिद्ध हो सकता है, वह तर्क से असिद्ध भी हो सकता है। तर्क दोधारी तलवार है। और तर्क वेश्या जैसा है। वह पक्ष में भी हो सकता है, विपक्ष में भी हो सकता है। वकीत है तर्क। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम अगर गए वकील के पास तो वह तुम्हारे पक्ष में हो जाता है। तुम्हारा विरोधी चला जाए, वह उसके पक्ष में हो जाएगा। पैसे की बात है।
एक रास्ते पर एक बच्चा रो रहा था। और एक दूसरा बच्चा बड़े क्रोध में भुनभुनाा खड़ा था। और तीसरा बच्चा आइसक्रीम खा रहा था। राह चलते किसी राहगीत ने पूछा, क्या मामला है, यह बच्चा क्यों रो रहा है? तो आइसक्रीम खाते बच्चे ने कहा, "इसकी आइसक्रीम उस दूसरे लड़के ने छीन ली थी, इसलिए रो रहा है'। तो उसने कहा, "लेकिन आइसक्रीम तो उस दूसरे लड़के के पास नहीं है; वह क्रोध में भुनभुनाया खड़ा है! आइसक्रीम तो तुम खा रहे हो'। उसने कहा, "मैं उस लड़के का वकील हूं'
वकील को आइसक्रीम से मतलब है।
तर्क वकील है। उसकी कोई निष्ठा नहीं है। वह तुम्हारे साथ हो सकता है, वह तुम्हारे विपरीत हो सकता है। इसलिए जिन तर्कों से उसे असिद्ध भी किया गया है। इसलिए तो नास्तिक और आस्तिक के बीच का द्वंद्व समाप्त नहीं होता, वह कभी होगा भी नहीं। वह तो बदलता रहता है। कभी नास्तिक जीतता मालूम पड़ता है, कभी आस्तिक जीतता मालूम पड़ता है। लेकिन वस्तुतः दोनों नहीं जीतते--तर्क जीतता है; वकील जीतता है। जितने तर्क परमात्मा के लिए दिए गए हैं, ठीक वे ही तर्क परमात्मा के विपरीत दिए गए हैं; कोई फर्क नहीं है उनमें।
इसलिए जिसने तर्क के आधार पर अपनी श्रद्धा बनाई, उसने रेत पर अपना भवन बनाया; वह खिसक जाएगी रेत। अगर तुम तर्क के कारण आस्तिक हो तो तुम नास्तिक ही हो, छिपे हुए, प्रच्छन्न, तुममें कोई आस्तिकता नहीं।
तुम मुझसे परिभाषा पूछो नास्तिक की: जिसकी तर्क में श्रद्धा है वह नास्तिक। जिसकी श्रद्धा में श्रद्धा है वह आस्तिक। इसलिए परम आस्तिकाग ने कोई तर्क नहीं दिए हैं; उनके वक्तव्य सीधे वक्तव्य हैं। उपनिषद सिर्फ कहते हैं, ईश्वर है। तुम पूछो "क्यों'? वे कहते हैं कि क्यों का क्या सवाल --है। जानना हो, जान लो; न जानना हो, मत जानो। चलना हो उसकी तरफ, चल पड़ो; पीठ करना हो, पीठ कर लो। लेकिन उसका होना तुम्हारे सोच-विचार पर निर्भर नहीं है। तुम्हारा सोच-विचार ही उसके होने पर निर्भर है।
विवेकानंद बहुत ज्ञानियों के पास गए। नास्तिक थे। प्रगाढ़ तार्किक थे। फिर रामकृष्ण के पास भी गए। सोचा था, वही विवाद जो दूसरी जगह कर लिया था वहां भी कर लेंगे। वहां जरा मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि जाकर उन्होंने शुरू किया, मण्डली साथ ले गए थे दस-पंद्रह मित्रों की, जो देखने गए थे, और जो सब सोचकर गे थे कि बड़ी फजीहत होगी इस गरीब रामकृष्ण की--गरीब ही लगता है। तार्किक को भक्त तो दीन-हीन लगता है कि बेचारे को कुछ पता नहीं; क्योंकि तर्क के सिक्के पहचानता है तार्किक और वे सिक्के इसके पास दिखाई नहीं पड़ते, इसलिए गरीब है। विवेकानंद ने अपनी पुरानी अकड़ से, पुराने ढंग से पूछा कि क्या ईश्वर है, सिद्ध कर सकते हैं? रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, "सिद्ध करने की बात ही पूछना बेकार है। तुझे जानना है? तुझे देखना है? तुझे मिलना है? अभी मिलवा दूं? तैयारी है?'
यह सोचा ही नहीं था कि कोई आदमी ऐसी बात कहेगा। इसका उत्तर तैयार भी न था। क्योंकि तार्किक तो सभी चीजों का रिहर्सल किए होता है। उसके पास कुछ सहज उत्तर नहीं हो सकते--तैयार ही होते हैं। यह तो सोचा भी नहीं था कि कोई आदमी यह कहेगा। बहुतों के पास गए थे, वे पंडित थे; उनसे कहा कि सिद्ध करो ईश्वर है! वे सिद्ध करने में लग गए। फिर उनके तर्क पकड़कर काट डाले। इस आदमी ने कहा कि बकवास छोड़ो, इतना समय किसके पस खराब करने को है! तुझे देखना है? तू हां कह या न!
वह मण्डली थोड़ी शंकित हो गई कि यह मामला क्या है! ऐसा सोचा ही न था कि ईश्वर से ऐसा कुछ...। और इसके पहले कि विवेकानंद कुछ कहें, रामकृष्ण् ने अपना पैर उनकी छाती से लगा दिया। अब यह कोई ढंग है! ये कोई सज्जन शिष्टाचार के ढंग हैं। यह बेचारा तर्क लेकर आया है, सिद्ध करने की बात लेकर आया है। यह कोई बात हुई! यह कोई व्यवहार हुआ! और विवेकानंद बेहोश हो गए। और जब होश में आए तो सारी दुनिया बदल गई थी। भागे, घबड़ा गए बहुत, यह क्या हो गया! कुछ समझ में न आए। कुछ-का-कुछ हो गया। यह आदमी कहीं और घसीटकर ले गया, किसी और अज्ञात लोक में! चांदत्तारों के पार कहीं! सारी सीमाएं उखड़ गईं। सब विचार वगैरह दूर, बहुत दूर सुनाई पड़ने लगा। अपने ही विचार बहुत दूर सुनाई पड़ने लगे। अपने से ही नाता न रहा। अस्त-व्यस्त, डिसओरियंटेड! जड़ें उखड़ गईं। भागने लगे। रामकृष्ण ने कहा, "कहां भागता है? जब भी फिर देखना हो, आ जाना'
नास्तिक गया! फिर विवेकानंद ने लिखा है कि बहुत चेष्टा की कि इस आदमी के पास न जाऊं, कितना अपने को बचाया, पर कुछ खींचने लगा। कोई अदम्य, कोई अज्ञात पर! लाख उपाय करूं, लेकिन सोते-जागते यही आदमी याद आने लगा। वह चरण छाती पर पड़ जाना! पुराना मर ही गया!
कहां फंस गए--विवेकानंद सोचे! अच्छे-भले थे। सब चलता था। तर्क था, बुद्धिमत्ता थी, पांडित्य था, अकड़ थी, अहंकार था, प्रतिभा थी। लोग मानते थे। अगर न गए होते रामकृष्ण के पास तो भारत में एक बड़ा महापंडित और एक बड़ा दार्शनिक पैदा हुआ होता। हीगल और कांट की हैसियत का व्यक्ति भारत पैदा करता। लेकिन रामकृष्ण ने सब गड़बड़ा दिया। बहुत बचने की कोशिश की, न बच सके; रोक-रोककर भी जाना पड़ता। और हर बात इस आदमी का सान्निध्य कुछ तोड़ देता। और हर बार यह आदमी किसी और लोक में ले जाता। इसकी मौजूदगी ने द्वार खोल दिया।
आस्तिक कोई तर्क की बात नहीं है।
"क्योंकि भक्त्ति स्वयं प्रमाणरूप है'
"स्वयंप्रमाणत्वात्!' इसके लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
परमात्मा मौजूद है--तुम्हारी मौजूदगी चाहिए। सोच-विचार का कुछ लेना-देना नहीं है। परमात्मा ने सब तरफ से तुम्हें घेरा है।
तू अबोध, आग्रह-निग्रह का
भेद नहीं कर पाया
जो स्वरूप में स्थित है उसमें
स्वयं अरूप समाया
जिन चरणों का सहज आगमन
तुम्हें न क्षण भर भाया
उन चरणों में अरुण विभामय
एक चरण था मेरा।
रही चेतना बनी अहिल्या
जागी नहीं अभागी
जान-बूझ कर बधिर बन गया
अनहद का अनुरागी
जिन वचनों का नम्र निवेदन
तुम को लगा पराया
उन वचनों में दिव्य अर्थमय
एक वचन था मेरा।
जो तुमने सुना है, उसमें परमात्मा भी बोला है। जो तुमने देखा है उसमें परमात्मा दृश्य हुआ है। तुमने जो छुआ है, उसमें तुमने परमात्मा को भी छुआ है। क्योंकि वह सब जगह मौजूद है, सब तरफ मौजूद है। वही मौजूद है। उसके अतिरिक्त और किसी चीज की कोई मौजूदगी नहीं है। जरा उतरो, अपने विचारों के परी-लोक से नीचे उतरो! जरा अपने विचाराग के व्यर्थ उत्ताप को नीचे लाओ। जरा अपने ज्वर को कम करो। थोड़े शांत होकर जरा देखो! भाव से जरा भरो! वही है! उसके लिए किसी प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। वह स्वयं प्रमाणरूप है। वह स्वयंसिद्ध है।
"भक्ति शांतिरूपा और परमानंदरूपा है'
उसके लिए प्रमाण की कोई जरूरत नहीं है। तुम शांत हो जाओ--उसका प्रमाण मिल जाता है। तुम्हारे विचार में, तुम्हारी तर्कसरणी में नहीं, तुम्हारी शांति में उसका प्रमाण मिलता है।
"भक्ति शांतिरूपा और परमानंदरूपा है'
जैसे ही तुम शांत हुए, परमानंद उतरा। उसी परमानंद में परमात्मा का साक्षात्कार है। हमने आनंद को उसकी परिभाषा माना है, इसलिए उसको सच्चिदानंद कहा है। हमने किसी और चीज को उसकी परिभाषा नहीं माना। सत्, चित् और आनंद! वह है, यानी सत्। वह चैतन्यस्वरूप है, यानी चित्। वह आनंद स्वरूसप है, यानी आनंद। सच्चिदानंद।
तुम क्या करो जिससे वह तुम्हारे पास झलक आए? तुम क्या करो, जिससे तुम्हारी आंख से घूंघट उठे?
भक्ति शांतिरूपा है! तुम शांत हो जाओ! इसलिए सारे ध्यान, सारी प्रार्थना, सारा पूजन-अर्चन, सब एक ही बात के पास हैं: तुम शांत हो जाओ। तुम उसे देखना चाहते हो? शांत हो जाओ। उत्तेजित न रहो। जैसे ही तुम ठहरे, शांत हुए--वह पास आया। जैसे ही तुम ठहरे, शांत हुए--वह सुनाई पड़ा।
"लोकहानि की चिंता भक्त को नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह अपने आपको और लौकिक, वैदिक कर्मों को भगवान को अर्पण कर चुका है'
यह बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है: लोक हानि की चिंता! लोग क्या सोचते, अच्छा सोचते कि बुरा सोचते, तुम्हें पागल समझते कि बुद्धिमान समझते, तुम्हें दीवाना मानते हैं...लोग क्या सोचते हैं, लोक में तुम्हारी प्रतिष्ठा बनती है भक्ति से या खोती है--यह चिंता भक्त को नहीं करनी चाहिए। क्योंकि भक्त ने अगर यह चिंता की तो वह भक्त ही न हो पाएगा।
लोग सदा ही ठीक को प्रतिष्ठा नहीं देते; अकसर तो गैर-ठीक को ही प्रतिष्ठा देते हैं, क्योंकि लोग गैर-ठीक हैं। लोग अकसर ही सत्य का सम्मान नहीं करते, क्योंकि लोग झूठे हैं। लोग झूठ का ही सम्मान करते हैं। लोगों के सम्मान पर मत जाना। लोक में हानि हो कि लाभ हो, यह तुम विचार ही मत करना, अन्यथा भक्त्ति को कदम न उठ सकेगा। भक्त को तो इतना साहस चाहिए कि लोग अगर उसे पागल समझ लें तो वह स्वीकार कर ले कि ठीक है। परमात्मा के लिए पागल हो जाना संसार की समझदारी से बहुत बड़ी समझदारी है। परमात्मा के लिए पागल हो जाना संसार की समझदारी से ज्यादा बहुमूल्य है, चुनने-योग्य है। धन की खोज में समझदार रहना कोई बड़ी समझदारी नहीं है। पद की खोज में बुद्धिमान रहना कोई बड़ी बुद्धिमानी नहीं, धोखा है।
बना कर कोटि सीमाएं हृदय को बांधती दुनिया
विशद विस्तार कर सकना बहुत मुश्किल हुआ जग में।
हजार सीमाएं संसार बनाता है। हजार दीवालें खड़ी करता है। संसार एक बड़ा कारागृह है।
बना कर कोटि सीमाएं हृदय को बांधती दुनिया
विशद विस्तार कर सकना बहुत मुश्किल हुआ जग में।
तो जिसको भी उठना है पार, उसे इन सीमाओं और इन सीमाओं के आसपास बंधे हुए जाल की उपेक्षाा करनी होगी। नहीं कि तुम जानकर संसार की सीमाएं तोड़ो; नहीं कि तुम जानकर उनकी मर्यादा के विपरीत जाओ--लेकिन अगर ऐसा हो जाए कि मार्यादा और परमात्मा में कुछ चुनना हो तो तुम मर्यादा मत चुन लेना। हां, अगर परमात्मा को चुनकर भी मार्यादा सम्हलती हो, शुभ। अगर परमात्मा को खोजते हुए संसार की व्यवस्था भी सम्हलती हो, सौभाग्य। तो जानकर मत तोड़ना।
इसलिए तत्क्षण नारद दूसरा सूत्र कहते हैं: "जब तक भक्ति में सिद्धि न मिले, तब तक लोक-व्यवहार का त्याग नहीं करना चाहिए, किन्तु फल त्यागकर उस भक्ति का साधन करना चाहिए'। धीरे-धीरे, संसार न छूटे अभी, कोई जरूरत भी नहीं है लेकिन संसार से कुछ फल पाने की आकांक्षा छोड़ देनी चाहिए। कारागृह में रहने से लोग जो पूजा देते हैं उस पूजा को कह देना चाहिए, कोई जरूरत नहीं; उस पूजा की आकांक्षा छोड़ देनी चाहिए। तो तुमने असली बुनियाद तो गिरा दी। फिर थोथी मर्यादा रह गई। अगर परमात्मा को खोजते वह मर्यादा भी सम्हलती है, बड़ी अच्छी बात है। लेकिन ध्यान रखना, किसी भी कीमत पर परमात्मा का धागा न छूटे हाथ से। चाहे सारा संसार भी छूट जाए, सब मर्यादा टूटे, सब तरह से हानि हो जाए, संसार की दृष्टि से तुम सब तरह से विक्षिप्त और पागल समझ लिए जाओ, तो भी फिक्र मत करना। क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त और सब पागलपन है।
अजां दी काबे में नाकूस दैर में फंका
कहां-कहां तेरा आशिक तुझे पुकार आया।
उसका प्रेमी सब जगह खोजता है--मंदिर में, मस्जिद में।
अजां दी काबे में नाकूस दैर में फूंका।
मंदिरों में शंख फूंके, अजान दी काबे में।
कहां-कहां तेरा आशिक तुझे पुकार आया।
सब जगह पुकार आता है, लेकिन न वह मंदिर में है, न वह मस्जिद में है। जिस दिन यह दिखाई पड़ जाता है, आशिक को उस दिन न मंदिर की कोई मर्यादा है, न मस्जिद की कोई मर्यादा है। नहीं कि जानकर वह कोई मंदिर-मस्जिद को तोड़ेगा--तोड़ने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन हिंदू नहीं रह जाएगा, मुसलमान नहीं रह जाएगा। इसको कहने की भी कोई जरूरत नहीं कि इसकी उदघोषणा करे कि न मैं हिंदू हूं, न मैं मुसलमान हूं। लेकिन नहीं रह जाएगा। नहीं रह जाएगा। भीतर कोई रेखा न रह जाएगी, हिंदू-मुसलमान की; वह मर्यादा गई, वह सीमा गई। भगवान का भक्त तो बस भगवान को भक्त होता है, कोई विशेषण नहीं उसका।
न बुतकदे से काम न मतलब हरम से था
महवे खयाले-यार रहे हम जहां रहे।
न तो कोई मस्जिद से लेना-देना है न मंदिर से कोई संबंध है। महवे खयाले-यार रहे--उसकी याद से भरे रहें--हम जहां रहें: मंदिर में बैठे तो, मस्जिद में बैठे तो; कुरान पढ़ी तो, बाइबिल पढ़ी तो कोई तोड़ने की सीधी जरूरत नहीं है, लेकिन भीतर से मुक्ति हो जाए, भीतर से तुम निपट मनुष्य हो जाओ। बस धार्मिक होना। प्रार्थना तुम्हारा गुण हो जाए।
"स्त्री, धन, नास्तिक और वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिए'
ऐसा ही सूत्र का अनुवाद किया गया है, मैं नहीं करता हूं।
"स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम्'
सूत्र का सीधा-सा अर्थ होता है: स्त्री, धन, नास्तिक और वैरी का चरित्र सुनने योग्य नहीं है। दोनों में बड़ा फर्क हो जाता है। "नहीं सुनना चाहिए'--आदेश हो जाता है। सुनने योग्य नहीं है'--सिर्फ तथ्य का वक्तव्य है। "नहीं सुनना चाहिए'--इसमें तो डर मालूम होता है; जैसे घबड़ाहट है; जैसे स्त्री के पास उतर आएगा। यह तो फिर भक्ति ही न हुई, यह तो दमन हुआ। जैसे कि नास्तिक की बात सुनकर उसकी आस्तिकता कंपित होने लगेगी। तो यह कोई आस्तिकता हुई? ऐसी नपुंसक आस्तिकता का कोई मूल्य नहीं है। इसे तो फेंक ही दो खुद ही। जो नास्तिक की बात सुनने से कंप जाती हो, तो जानना कि भीतर नास्तिक छिपा है, ऊपर-ऊपर आस्तिकता आरोपित कर ली है।
आस्तिक नास्तिक की बात सुनने से डरेगा? नास्तिक डरे, समझ  में आता है। नहीं, धन की बात सुनने से आस्तिक भयभीत होगा? तो फिर इसे परम धन का स्वाद ही नहीं मिला।
तुमने कभी देखा? अगर तुम्हें हीरों की परख हो तो क्या तुम कंकड़-पत्थरों से डरोगे? क्या तुम यह कहोगे कि हीरों के पारखी को कंकड़-पत्थरों की चर्चा नहीं सुननी चाहिए। हीरों की जिसे परख है, कंकड़-पत्थरों की चलने दो चर्चा। तुम उसे थोड़े ही भुला सकोगे जिसे हीरों की परख है। हां, अगर परख झूठी हो, हो ही न, मान ली हो कि है, तो फिर कंकड़-पत्थर भी लुभा सकते हैं।
नहीं, तो मैं इस सूत्र का अनुवाद ठीक-ठीक वही करता हूं जो नारद ने कहा है: न श्रवणीयम्! सुनने योग्य नहीं है। मैं नही कहता कि सुनना चाहिए। तुम्हें लगेगा कि थोड़ा-सा फर्क है भाषा का, लेकिन थोड़ा नहीं है--सारा गुणधर्म बदल जाता है। एक छोटा-सा शब्द सारा गुणधर्म बदल देता है। सुनने योग्य नहीं है, यह बात समझ में आती है। व्यर्थ है। "नहीं सुनना चाहिए', इससे तो लगता है, सार्थक है और डर है; न केवल सार्थक है, बल्कि परमात्मा से भी ज्यादा बलशाली है। "सुनने योग्य नहीं है', इससे पता चलता है, निरर्थक है, व्यर्थ समय मत गवांना। जिसको हीरों की परख है, वह कंकड़-पत्थर की व्यर्थ चर्चा में समय न गंवाएगा, यह बात पक्की है। लेकिन अगर कोई कंकड़-पत्थर लेकर आ जाए तो भाग भी न खड़ा होगा कि आंख बंद कर लेगा, कि चिल्लाने लगेगा: "बचाओ, बचाओ। मारा, मारा गया! यह कंकड़-पत्थर ले आया'। ऐसी घबड़ाहट न दिखाई पड़ेगी। वह यह ही कहेगा, "व्यर्थ, क्यों कंकड़-पत्थरों को यहां ले आए? हीरों को पहचान चुका हूं--कहीं और ले जाओ'
अगर आस्तिक के पास नास्तिक अपनी बात लेकर आएगा तो प्रेम से आस्तिक कहेगा, "अब नहीं प्रभावित कर सकेगी यह बात। वह वक्त जा चुका। थोड़े दिन पहले आना था। जरा देर करके आए'। नास्तिक को बिठाकर उसकी बात भी सुन लेगा, क्योंकि नास्तिक में भी बोलता तो परमात्मा ही है। खेल है समझो, खूब खेल खेल रहा है! अपना ही खंडन करता है!
ऐसा हुआ, रामकृष्ण को केशवचंद्र मिलने आए। वे बड़े प्राकण्ड तार्किक थे; भारत में बहुत कम ऐसे तार्किक पिछली दोत्तीन सदियों में हुए। उन्होंने बड़ा तर्क का विस्तार किया। वे तो रामकृष्ण से विवाद, शास्त्रार्थ करने आए थे। और रामकृष्ण उनका तर्क सुनने लगे और प्रफुल्लित हो-होकर उठ आते और उनको छाती से लगाते। जरा थोड़े चकित हुए: "आदमी पागल है, बावला है! हम खंडन कर रहे हैं ईश्वर का'! उन्होंने कहा कि "समझे कुछ?' मैं ईश्वर का खंडन कर रहा हूं कि ईश्वर नहीं है। "रामकृष्ण ने कहा, "उसी को तो समझकर तुम्हें छाती से लगाता हूं। उसकी बड़ी महिमा है! अपना खंडन किस मले से कर रहा है! तुम्हें देखकर मुझे उसके चमत्मकार पर और भी बड?ा प्रेम हो आया है। क्या मजा है! क्या खेल! खूब धोखा देने की तरकीब है! लेकिन मुझे धोखा न दे सकेगा। इसलिए मैं गले लगा रहा हूं। तुमको नहीं--उसको कह रहा हूं कि तू मुझे धोखा न दे पाएगा; पहचान चुका हूं तुझे। तेरा सब खेल जानता हूं।
थके-हारे केशवचंद्र वापस लौटे। चैन छिन गया। नींद खो गई! इस आदमी ने हिला दिया। खंडन न किया इनका। बात सुनने से इनकार भी न किया। बेचैन भी न हुए। उलटे प्रफुल्लित होने लगे। उलटे कहने लगे, "तुम जैसा बुद्धिमान जब दुनिया में है तो परमात्मा होना ही चाहिए, अन्यथा इतनी बुद्धि कहां से होगी! संसार पत्थर ही नहीं हो सकता, केशव! तुम जैसा बुद्धिमान यहां दुनिया में है। इसमें चैतन्य छिपा है। तुम कहते हो कि परमात्मा नहीं है; मैं तुम्हारी मानूं कि तुमको देखूं और तुम्हें पहचानूं? तुम्हें दिखता हूं तो उसका सबूत, उसकी खबर मिलती है। तुम्हें सुनूं कि तुम्हें समझूं'?
नहीं आस्तिक न तो स्त्री से परेशान होता, न धन से, न नास्तिक से, न बैरी से। ये भी कोई बातें हुई! हां, लेकिन एक बात पक्की है कि सुनने योग्य नहब है। न श्रवणीयम्! फिजूल है। इनमें कोई रस नहीं लेता। कोई सुनाने आ जाए तो सुन लेगा, लेकिन भयभीत नहीं है।
"अभिमान, दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए'
बड़ा अनूठा सूत्र है: "सब आचार भगवान के अर्पण कर चुकने पर यदि काम, क्रोध, अभिमान, आदि हों, तो उन्हें भी उसके प्रति ही समर्पित करना चाहिए।
क्या करोगे अगर हों फिर भी? छोड़ चुके सब, लेकिन फिर भी न छूटते हों तो क्या करोगे? भक्त क्या करेगा? भक्त कहेगा, "अब इनको भी तू सम्हाल! तूने ही दिए, तू ही वापस ले ले'। यही तो भक्ति की सुगमता है और परम ऐश्वर्य है। भक्ति की महिमा है कि भकित्त किसी तरह का द्वंद्व खड़ा नहीं करती। वह यह भी नहीं कहती कि अपने अहंकार से लड़ो। चढ़ा दो भगवाान के चरणों में--उसी का दिया है! त्वदीयं वस्तु तुभ्यमेव समर्पये! तेरी चीज है, तू ही ले ले! गोविंद ने दी है, गाविंद को ही लौटा दो। अगर फिर भी न छूटता हो तो भी क्या करोगे, स्वीकार कर लो कि तेरी जैसी मर्जी! अगर तू क्रोध करवाता है तो क्रोध करते रहेंगे! अगर तुझे अहंकार ही करवाना है तो अहंकार करते रहेंगे।
लेकिन जरा समझो इस बात को। अगर तुमने उस पर छोड़ दिया तो क्रोध कर सकोगे? क्रोध करने के लिए "मैं हूं' यह अकड़ होनी ही चाहिए, नहीं तो क्रोध होगा ही कैसे। "मैं' पर ही चोट लगती है तभी तो क्रोध होता है। अहंकार समर्पण के बाद हो ही कैसे सकता है? समर्पण का अर्थ ही यह होता है कि तू सम्हाल, और अगर तू कहे कि ठीक, अभी तुम ही रखो थोड़ी देर तो रखे रहेंगे!
ऐसा हुआ, गुरजिएफ के पास कैथरिन मैन्सफील्ड एक बड़ी लेखिका आई। सिगरेट पीने की उसे लत थी--श्रंखलाबद्ध! एक सिगरेट से दूसरी सिगरेट जला ले। गुरजिएफ ने कहा, "सिगरेट पीना बंद! थोड़ा अपना संकल्प जगाओ'! सालभर बीत गया, मैन्सफील्ड ने सिगरेट न पी। सालभर बाद वह बड़ी प्रसन्न हुई कि अदभुत हो गया, मैं भी अदभुत हूं कि जो छूटे न छूटती थी, वह भी छोड़ दी! सालभर बाद वह गुरजिएफ के पास आई । उसने कहा, "साल भर हो गया, सिगरेट नहीं पीती हूं'। गुरजिएफ ने उसकी तरफ देखा और कहा, "कराड़ों लोग हैं जो सिगरेट नहीं पीते'! वह थोड़ी झिझकी। उसने कहा, "झिझकाना क्या! थोड़ा संकल्प जगा! पी! एक दिन कहा था, छोड़...थोड़ा संकल्प जगा'
समझ गई कैथरिन, बात ठीक है। पहले सिगरेट पकड़ी थी; अब सिगरेट नहीं पीती, इस बात ने पकड़ लिया। तो गुरजिएफ का वचन बड़ा महत्वपूर्ण है। उसने कहा, "करोड़ों लोग हैं जो सिगरेट नहीं पीते, इसमें बात ही क्या? ले पी! न पीना कोई गुण है? पहले पीने में जकड़ी थी, अब न पीने में जकड़ गई'!
तो गुरजिएफ के पास अगर गैर-मांसाहारी आते तो वह मांस खिला देता; मांसाहारी आते तो मांस छुड़वा देता; शराबी आते तो शराब छीन लेता; गैर-शराबी आ जाते तो उनको डटकर पिलवा देता कि छोड़, यह क्या पकड़े बैठा है!
वह जो थोड़ी-सी झिझक आ गई कैथरिन मैन्सफील्ड को, गुरजिएफ ने कहा, यह तेरी झिझक डर है।
इसको ऐसा समझो कि तुम भगवान के पास गए, अहंकार चढ़ाया और भगवान ने कहा, अभी थोड़ी देर रखो, तो क्या करोगे? भगवान की मानोगे कि अपनी ही धुनोगे? कि कहोगे कि नहीं, हम तो छोड़कर रहेंगे? कि हमने तो चढ़ा दिया! तो उस "हम' में ही तो अहंकार रह जाएगा। और अगर उसकी मान ली, कहा, "ठीक तेरी मर्जी'! ले आए कंधे पर रखकर वापस। उसी रखने में छूट गया। क्योंकि बात ही क्या रही अब, जब उस पर ही छोड़ दिया, और उसने कहा कि रखो। तो अपनी मानें कि उसकी मानें!
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, हम तो सब आपके लिए छोड़ते हैं। एक युवती आई। उसने कहा, "मैं सब आपके लिए छोड़ती हूं, जो आप कहेंगे वह करूंगी'। मैंने कहा, अच्छी बात है। उसने कहा, मगर मुझे यहां से जाना नहीं है; यहीं इसी आश्रम में रहना है। मैंने कहा कि नहीं, जाना पड़ेगा। उसने कहा, कि मैं जा नहीं सकती; अब तो आप जो कहेंगे वही करूंगी। अब बोलो, क्या करना है। मैंने कहा, "तू मेरी सुनती है कि अपनी'? वह कहती है बिलकुल मैं सब छोड़ ही चुकी, अब तो मैं यहीं रहूंगी। अब तो मैं जो आप कहेंगे वही करूंगी।
वह यह दोहराए चली जा रही है। उसे बात दिखाई ही नहीं पड़ रही कि मैं कह रहा हूं कि तू जा। अगर सच में वह छोड़ चुकी है तो वह कहेगी, "ठीक, आप कहते हैं तो जाती हूं; आप कहेंगे तो आ जाऊंगी'। अगर वह इतना कह देती तो उसी वक्त मैं उसे रोक लेता, लेकिन वह न कह सकी। उसका यह कहना कि सब छोड़ती हूं, छोड़ना नहीं है। उस तरकीब से वह मुझे भी चलाना चाहती है अपने हिसाब से।
तुम जातेहो भगवान को चढ़ोन, लेकिन चढ़ाते तुम इस बात से हो कि "ध्यान रखना, एहसान किया है, भूल न जाना! सब चढ़ा दिया है'। जैसे उसे तुम कुछ नया दे आए हो जो उसका नहीं था!
नारद का यह सूत्र समझ लेना: "सब आचार भगवान को अर्पण कर चुकने पर यदि काम, क्रोध, अभिमान आदि हों तो उन्हें भी उसके प्रति ही समर्पित मानना चाहिए'
परमात्मा सदा तुम्हारे पास है। एक बार तुम उसके हाथों में अपने को छोड़ो--सर्व, समग्र, पूर्ण भाव से। रत्तीभर भी पीछे मत बचाना। यह आग्रह भी मत बचान कि मैंने सब छोड़ा। इतना भी "मैं' पीछे मत बचाना।
इतने दिन था बंद, आज ही
वातायन खोला है
कहता रहा वसंत, गंध को
यों ही मत लौटाओ
चिंतित रहा अनंत, स्वयं को
सीमित नहीं बनाओ
अब तक था हत्चेत, आज ही
हृद-चिंतन बोलो है।
अपने रुग्ण विमूर्छित मन को
प्राणवायु पहुंचाओ
तिमिरग्रस्त लोचन को फिर से
परम विभा दिखलाओ
जीवन-रण के इस क्षण में फिर
नरारण बोला है
 छिपा हुआ जो द्वंद्व, उसे ही
परमानंद बनाओ
बिछुड़ गई जो बूंद, उसे ही
महा समुंद बनाओ
बन कर फिर प्रारम्भ स्वयं ही
पारायण बोला है।
परमात्मा चारों तरफ बोल रहा है, संदेश दे रहा है, इंगित-इशारे। प्रतिपल तुम्हें ले चलना चाहता है वापस घर। तुम सुनते ही नहीं हो। तुम अपनी ही कहे चले जाते हो। सब छोड़ो उस पर। छोड़ना भी उसी पर छोड़ो।
इतने दिन था बंद, आज ही
वातायन खोला है।
खोलो खिड़की! आने दो उसकी हवाओं को भीतर!
कहता रहा वसंत, गंध को
यों ही मत लौटाओ!
बहुत बार लौटाया है। कितनी बार कितने अनंत कालों में, कितनी अनंत बार लौटाया है!
कहता रहा वसंत, गंध को
यों ही मत लौटाओ
चिंतित रहा अनंत, स्वयं को
सीमित नहीं बनाओ
अब तक था हत्चेत, आज ही
हृद्-चिंतन बोला है।
एक तो सिर का विचार है, और एक हृदय का चिंतन है, वह बड़ी अलग बात है।
अब तक था हत्चेत!
खोपड़ी बोलती रही, हृदय सोता रहा!
अब था हत्चेत, आज ही
हृद-चिंतन बोला है
अपने रुग्ण विमूर्छित मन को
प्राणवायु पहुंचाओ
तिमिरग्रस्त लोचन को फिर से
परम विभा दिखलाओ
जीवन-रण के इस क्षण में फिर
नारायण बोला है।
प्रतिपल जहां भी जीवन है, वहीं उसकी गूंज है। हर कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र है।
जीवन-रस के इस क्षण में फिर
नारायण बोला है
छिपा हुआ जो द्वंद्व, उसे ही
परमानंद बनाओ।
वही ऊर्जा, जिससे तुम दुखी हो रहे हो, वही आनंद बन जाती है; वही दुर्गंध से भरी हुई खाद फूलों में सुगंध बन जाती है; वही कीचड़-कर्कट कमल बन जाता है।
छिपा हुआ जो द्वंद्व उसे ही
परमानंद बनाओ
बिछुड़ गई जो बूंद, उसे ही
महा समुंद बनाओ।
 फिर से डाल दो बूंद को वापस समुद्र में। कुछ बिछुड़ा थोड़े ही है। गिरते ही बूंद फिर महासागर हो जाती है। दूर-दूर मत रखो, अलग-थलग मत रहो।
बिछुड़ गई जो बूंद, उसे ही
महा समुंद बनाओ
बन कर फिर प्रारंभ स्वयं ही
पारायण बोला है।

आज इतना ही।


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