मुझे चक्करों में जाना पड़ेगा—चक्कर के भीतर चक्कर, चक्कर के भीतर चक्कर, क्योंकि जीवन ऐसा है। और खासकर मेरे लिए। पचास वर्षो में मैंने कम से कम पचास जीवन जी लिए है। जीने के अतिरिक्त मैंने और कुछ किया ही नहीं है? और लोगों को तो बहुत काम धंधे है, लेकिन मैं तो बचपन से ही यायावर रहा, कुछ नहीं करता था, सिर्फ जिया। जब तुम कुछ नहीं करते, सिर्फ जीते हो तो जीवन का आयाम बदल जाता है। यह सपाट नहीं चलता, उसमें गहराई आ जाती है।
देव गीत, अच्छा हुआ कि तुम कभी मेरे छात्र न थे, नहीं तो तुम कभी डेंटिस्ट न बन पाते। मैं तुम्हें कभी प्रमाणपत्र न देता। लेकिन यहां पर तुम हंस सकते हो यह सोच कर कि मैं आराम से बैठा हूं और कोई समस्या नहीं है। लेकिन याद रखो कि अगर में मर भी जांऊ तो भी तुम्हारे ऊपर चिल्लाने के लिए में कब्र से उठ कर आ सकता हूं। जीवन भर मैं यहीं तो करता रहा हूँ।
मैंने पैसे कमाने, बैंक में पैसा जमा करने, या राजनीति के क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने के अर्थ में कभी कुछ भी नहीं किया। मैं अपने ही ढंग से जीता रहा हूं! और जीने के मेरे इस ढंग का अनिवार्य अंग था पढ़ना। इसलिए यहां भी, माफ करना, मैं उसे भूल नहीं सकता। मैं सदा गुरु हूं। तुम जानते हो, मैं जानता हूं इस कमरे में सब लोग जानते है कि तुम मेरे नीचे हो। और मैं डेंटल चेयर में बैठा हुआ हूं। तुम नहीं। अगर मैं हंसू तो क्षमा किया जा सकता है यह सोच कर कि बूढा आदमी अपने आपका मजा ले रहा है। बहुत खुश है। आशु भी यही सोच रही है। अन्यथा वह तो गंभीर महिला है, बहुत ही गंभीर। स्त्रीयां जब अध्यापिका, टाइपिस्ट या नर्स बन जाती है तो कुछ गड़बड़ हो जाती है, वे बहुत गंभीर हो जाती है।
यहीं तो मैं कह रहा था कि जीवन चक्कर के भीतर चक्कर, चक्कर के भीतर चक्कर है—और मेरे जीवन में तो ऐसा ही है। जैसे जीवन की दूसरों से अपेक्षा की जाती है वैसा जीवन मैं नहीं जिया। मैंने कुछ और किया ही नहीं। हां, मैं सिर्फ जिया और कुछ नहीं किया सिवाय जीने के। यह इतना परिपूर्ण है कि इसका एक क्षण भी अनंत काल जैसा प्रतीत होता है। जरा सोचो तो....
मैं तो अपने ही ढंग से जीता रहूंगा। तुम लोगों को ही मुझसे मेल बिठाना होगा, और कोई रास्ता नहीं है। मैंने कभी अपने आपको कभी किसी दूसरे के अनुसार ढालने की कोशिश नहीं कि, न किसी से कोई समझौता ही किया। इसलिए मुझे नहीं पता कि कैसे करना और अगर अब मैं सीखना भी चाहूं तो बहुत देर हो गई है। लेकिन तुम लोग तो जीवन भर दूसरों से मेल बिठाते रहे हो।
मैं तो अपने माता-पिता या चाचाओं, आदि के अनुसार न चला,जो कि सब मुझे प्यार करते थे। और मेरी सहायता करते थे। न ही मेरे अध्यापक जो मेरे दुश्मन न थे और प्रोफेसर जो मेरे बावजूद सदा मेरी सहायता करते थे। लेकिन फिर भी मैं इनमें से किसी के साथ मेल न बैठा सका। उनको ही मेरे अनुसार चलना पड़ता। यह सदा से एकतरफा मामला रहा है। और अभी है।
तुम मुझसे मेल बिठा सकते हो, मैं उपलब्ध हूं। लेकिन मैं तुमसे मेल नहीं बिठा सकता। दो कारणों से—एक, तो तुम अपलब्ध नहीं हो, उपस्थित नहीं हो। अगर मैं तुम्हारा दरवाजा खटखटाऊं भी तो भीतर कोई नहीं हे। दरवाजे पर ताला लगा हुआ है। किसी को यह भी नहीं मालूम कि यह ताला किसने लगाया और चाभी कहा है। शायद खो गई है। अगर मैं चाबी खोज भी लू या ताला तोड़ भी दूँ—जो की अधिक आसान है। इससे फायदा क्या होगा। घर में तो वह व्यक्ति है ही नहीं। तुम मुझे वहां पर मिलोंगे नहीं, तूम सदा कहीं और रहते हो। अब कैसे तुम्हें खोजूं और कैसे तुम्हारे साथ मेल बिठाऊं। यह तो असंभव है। दूसरे अगर यह संभव भी हो, सिर्फ तर्क के लिए, तो भी मैं नहीं कर सकता। मैंने कभी किया ही नहीं है। मुझे इसकी तरकीब मालूम ही नहीं। मैं तो अभी भी गांव का जंगली लड़का हूं।
अभी उस रात मेरी सैक्रेटरी रो रही थी और मुझसे कह रही थी, आप मुझ पर इतना भरोसा क्यों करते है, ओशो। मैं इस योग्य नहीं हूं, में तो आपको अपना चेहरा दिखाने के योग्य नहीं हूं।
मैने कहा: योग्यता और अयोग्यता की चिंता कौन करता है। और निर्णय भी कौन करेगा। कम से कम मैं तो नहीं करूंगा। तुम रो क्यों रहीं हो?
उसने कहा: ‘’ केवल इस विचार से कि आपने आप काम करने के लिए मुझे चुना है..... यह इतना बड़ा काम है।‘’
मैंने कहा: ‘’ यह तो भूल जाओ कि काम बड़ा है और मैं जो कहता हूं बस उसे सुनो।‘’
मैंने स्वयं तो कभी कुछ किया नहीं। इसलिए स्वभावत: मैं कभी इसकी फ़िकर ही नहीं करता कि वह कर भी पाएगी या नहीं। मैं तो सिर्फ उससे कहता हूं कि सुनो और जब मैं कहता हूं तो उसे सुनना ही पड़ेगा है। अब यह कैसे करती है यह मेरी समस्या नहीं है। न ही यह उसकी समस्या है। वह उसका इंतजाम कर लेती है। क्योंकि मैंने उसको ऐसा कहा था। और मैंने इसलिए कहा कयोंकि मैं प्रबंध के बारे में इंतजाम के बारे में कुछ नहीं जानता। अब तुम देखते हो कितना सही मैंने उसको चुना? यह फिट हो जाती है और मैं मिस फिट हो जाता हूं।
मेरी नानी सदा चिंतित रहती थी । वे बार-बार मुझसे कहती थीं, राजा तुम कहीं भी फिट न हो सकोगे। मैं तुमसे कहती हूं। तुम सदा मिस फिट रहोगे।
मैं हंस कर उनसे कहता था कि यह मिस फिट शब्द इतना सुंदर है कि मैं इसके प्यार में पड़ गया हूं, मुझे बहुत पसंद है। अब अगर मैं फिट हो जाऊँ तो याद रखना, मैं तुम्हारे सिर पर चोट मारूंगा—और जब मैं यह कहता हूं तो तुम जानती हो कि मेरा क्या अर्थ है। मैं सचमुच ही सिर पर चोट करूंगा, अगर तुम जीवित रही तो। अगर तुम जीवित न रही, तो मैं तुम्हारी कब्र पर आऊँगा,पर मैं निश्चित ही कुछ न कुछ उपद्रव करूंगा। आप मेरा भरोसा रखो। वे और जो से हसंती और कहती, मैं चुनौती स्वीकार करती हूं। मैं फिर से कहती हूं कि तुम सदा मिस फिट रहोगे, चाहे मैं जिंदा रहू या न रहूँ। और तुम कभी मेरे सिर पर चोट न कर सकोगे,क्यों कि तुम कभी भी फिट न हो सकोगे। और वे सचमुच सही थीं। सचमुच सब जगह मैं मिस फिट रहा।
जिस विश्वविद्यालय में मैं पढ़ाता था, वहां जब सारे स्टाप का वार्षिक फोटो लिया जाता था तो मैं उसमें कभी सम्मिलित नहीं हुआ। एक बार उप कुलपति ने मुझसे पूछा, मैंने देखा कि तुम अकेले ऐसे स्टाप के सदस्य हो जो इस वार्षिक फोटो के लिए कभी नहीं आते। बाकी सब आते है। क्योंकि इस फोटो को प्रकाशित किया जाता था। और कौन अपनी फोटो को प्रकाशित नहीं करवाना चाहता।
मैने कहा: ‘’ निश्चित ही मैं इतने सारे इन गधों के साथ अपनी फोटो छपवाना नहीं चाहता। और ऐसी फोटो तो मेरे नाम पर सदा के लिए एक धब्बा रहेगी कि मेरी संगत कभी ऐसे लोगो से थी।
उनको बहुत धक्का लगा और उन्होने कहा: तुम इन सबको गधा कहते हो? और मुझे भी सम्मिलित करते हो।
मैंने कहा: हां, आप भी। मेरी तो यही विचार है। और अगर आप अपनी प्रशंसा सुनना चाहते है तो आपने गलत आदमी को बुला लिया। किसी एक गधे को बुला लीजिए।‘’
जब मैं नौकरी करता था तब की एक भी ऐसी फोटो नहीं है। जिनमें मेंने हिस्सा लिया हो। मैं बिलकुल मिस फिट था। मैंने सोचा कि ऐसे लोगों के साथ न जुड़ना ही ठीक है जिनमे और मुझमें कुछ भी समानता नहीं है।
विश्वविद्यालय में मेरा संबंध सिर्फ एक पेड़ से हुआ, एक गुलमोहर का पेड़। मुझे नहीं मालूम कि पश्चिम में गुलमोहर का पेड़ होता है या नहीं। लेकिन पूरब में तो यह एक बहुत सुंदर पेड़ माना जाता है। इसकी छाया बहुत ठंडी होती है। यह बहुत ऊंचा नहीं हाता लेकिन इसकी शाखाएं चारों और दूर-दूर तक फैल जाती है। कभी-कभी तो एक पुराने गुलमोहर पेड़ की शाखाओं की छाया के नीचे पाँच सौ लोग आसानी से बैठ सकते है। और गर्मी में जब यह खिलता है तो हजारों फूल एक साथ खिल उठते है। यह कंजूस नहीं है कि जिसके फूल एक के बाद एक खिलते है। इसकी कलियॉं रात को फूटती है और सुबह यह देख कर आश्चर्य होता है कि हजारों फूल खीलें हुए है। और इन सबका रंग मेरे संन्यासियों का रंग है। बस यही मेरा मित्र था।
वर्षो तक मैं अपनी गाडी को उसके नीचे खड़ी करता था। धीरे-धीरे सब लोग जान गए कि यह मेरी जगह है। इसलिए वे अपनी गाड़ी वहीं नहीं रखते थे। मुझे किसी से कुछ कहना नहीं पड़ा, लेकिन धीरे-धीरे सबने यह मान लिया। उस पेड़ से कोई छेड़छाड़ नहीं करता था। अगर मैं वहां न जाता तो वह पेड़ मेरी प्रतीक्षा करता रहता। वर्षो तक मैंने उसे पेड़ के नीचे गाड़ी पार्क की। जब मैने विश्वविद्यालय को छोड़ा तो मैं उप कुलपति से विदा लेने गया। इसके बाद मैंने उनसे कहा: ‘’ अब मुझे जाना चाहिए। अंधरा हो रहा है, सूर्यास्त के पहले मेरा पेड़ कहीं सो न जाएं। मुझे उससे विदा लेनी है।
उप कुलपति ने मेरी और देखा जैसे कि में पागल हूं, पर कोई और भी ऐसे ही देखता। मिस फिट को इसी प्रकार देखा जाता है। उनको मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिए जब मैं गुलमोहर से विदा ले रहा तो वे अपनी खिड़की से देख रहे थे।
मैंने पेड़ का आलिंगन किया और एक क्षण के लिए हम इसी प्रकार गले मिलते रहे। यह देख कर उप कुलपति दौड़ें हुए वहां आए और उन्होंने मुझसे कहा: ‘’ क्षमा करना। मैंने कभी किसी को पेड़ से आलिंगन करते हुए नहीं देखा, लेकिन अब मुझे समझ आया कि सब लोग कितना कुछ चूक रहे है। मैंने कभी किसी को पेड़ से इस प्रकार विदा लेते या सुबह उसका अभिवादन करते नहीं देखा है। लेकिन तुमने सिर्फ मुझे यह पाठ ही नहीं पढा़या बल्कि अब यह बात अच्छे से मेरी समझ में आ गई है।‘’
दो महीने बाद उन्होंने मुझे फोन करके बताया कि यह दुखद है और बड़ी अजीब बात है कि जिस दिन तुम यहां से गए हो, उस दिन से ही तुम्हारे पेड़ को कुछ हो गया है’’—अब वह पेड़ मेरा हो गया था।
मैंने पूछा: ‘’ क्या हुआ?’’
उन्होंने कहा: ‘’ वह मरने लगा है। अब अगर तुम आओ तो सिर्फ मृत पेड़ को देखोगे, न उस पर पत्ते है, न फूल है। उसको क्या हो गया है। मैंने इस लिए फोन किया है।‘’
मैंने कहा: ‘ पेड़ के लिए मैं कैसे जवाब दे सकता हूं? आप पेड़ को ही फोन करके पूछ लेते।‘’
वे थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले, मुझे सदा ही ऐसा लगता था कि तूम पागल हो।
मैंने कहा: ‘’ आपको अभी भी विश्वास नहीं हो रहा। नहीं तो पागल आदमी को कौन फोन करता है। आपको तो पेड़ को फोन करना चाहिए था। और वह पेड़ तो आपको खिड़की के बाहर है, फोन करने की जरूरत ही नहीं है।
उन्होंने फोन रख दिया। मैं हंसा, लेकिन दूसरे दिन सुबह, विश्वविद्यालय के किसी मुर्ख के पहुंचने से पहले मैं पेड़ को देखने गया। उस समय उसके फूलने का मौसम था। लेकिन उस पर एक भी फूल न था। सिर्फ फूल ही नहीं, पत्ते भी नहीं थे। फूल और पत्ते विहीन सिर्फ उसकी नंगी शाखाएं वहां खड़ी थी। मैंने उस पेड़ का फिर आलिंगन किया और मुझे मालूम हो गया कि वह मर गया है। पहली बार जब उसको गले लगाया था तो उसकी और से मुझे उत्तर मिला था। लेकिन अब उसकी और से मुझे कोई उत्तर नहीं मिला। पेड़ का शरीर तो खड़ा था लेकिन उसके प्राण निकल गए थे। उसका यह निर्जीव शरीर शायद इस प्रकार कई बरस तक खड़ा रहा, शायद अभी भी खड़ा हो लेकिन अब तो केवल एक मृत लकड़ी थी।
मैं कही भी फिट नहीं हो सका। जब मैं विद्यार्थी था तो बड़ा उपद्रवी था। मुझे पढ़ाने वाले हर प्रोफेसर के लिए मैं एक सज़ा के समान था। वह समझता था कि भगवान ने उसे इस रूप में सज़ा दी है। भगवान का संदेशवाहक बनने का मैंने बड़ा मजा लिया, पूरी तरह इसका मजा लिया है। कोन इसका मजा न लेता। और अगर वे सोचते थे कि मैं एक सज़ा के समान हूं, तो मैं जितना वे सोचते उससे भी बढ़ कर अपने को सिद्ध करता था।
इनमें से कुछ एक अभी कुछ दिन पहले मुझे मिले है। उन्होंने कहा, हम तो विश्वास ही नहीं कर सकते कि तुम संबुद्ध हो गए हो। तुम तो मुसीबत की जड़ ही थे। तुम्हारे साथ पढ़ने वाले सब छात्रों को हम भूल गए हैं। लेकिन अभी भी तुम कभी-कभी रात को हमें दुख स्वप्न में दिखाई देते हो।
मैं इस बात को समझ सकता हूं। मेरा कहीं भी मेल नहीं बैठता था। वे जो कुछ भी मुझे पढ़ाते थे वह इतना घटिया होता था कि मुझे उसका विरोध करना पड़ता था। मुझे उनसे कहना पड़ता था कि यह बहुत घटिया है। अब कल्पना करो कि कई दिनों की तैयारी के बाद जब कोई प्रोफेसर लेक्चर देता है तो वह आशा करता है कि छात्र उसकी सराहना करेंगें। लेकिन उसके लेक्चर के अंत में एक छात्र खड़ा होकर कहता है कि यह सब तो बहुत साधारण है। यह जानकारी बहुत मामूली है।
मैं तो बड़ा अजीब छात्र था। पहली बात याद रखने की यह है कि मेरे बाल लंबे थे—और उन लंबे बालों का इतिहास और भी लंबा था। इसके बारे में मैं बाद में किसी दिन किसी चक्कर में बताउुंगा। चक्कर में घूमने का यही मजा है। अलग-अलग रास्तों पर बार-बार एक ही बिंदु पर पहुंच जाते है—जैसे पर्वत के शिखर पर जाते समय गोल-गोल घूम कर तुम विभिन्न तलों से एक ही दृश्य को देखते हो। हर बार कुछ अलग होता है क्योंकि तुम नई जगह पर खड़े होते हो, लेकिन दृश्य वही होता है। वह ज्यादा सुंदर हो जाता है। बहुत ज्यादा सुंदर भी हो सकता है।
क्योंकि तुम अधिक देख सकते हो....इसके बारे में कभी बात करूंगा, लेकिन आज नहीं।
खास तौर पर आज मैं कहना चाहता था कि ध्यान एक प्रकार कि दुधारी तलवार है। दुधारी, क्योंकि यह दोनों और से काटती है। एक और से सुनने वाले को और दूसरी और से बोलने वाले को। इन दोनों को जोड़ भी देती है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। अगर व्यक्ति ध्यान दे—किसी चीज पर भी....क ख ग—किसी पर भी, तो ध्यान देने की प्रक्रिया में ही वह पूर्ण हो जाता है। क्रिस्टलाइजेशन हो जाता है। एक चीज पर ध्यान केंद्रित करने से वह अपने भीतर अपने होने पर केंद्रित हो जाती है।
लेकिन यह बात अधूरी है। जो आदमी ध्यान से सुन रहा है वह निश्चित ही विभक्त नहीं रहता, अखंड हो जाता है। पूरब के सभी ध्यान-स्कूलों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। किसी भी चीज पर ध्यान केंद्रित करना काम कर जाता है। अमरीकियों के लिए तो कोकाकोला की बोतल भी ध्यान का केंद्र बन सकती है। सिर्फ कोका कोला की बोतल को ध्यान से देखते रहो तो महर्षि महेश योगी के भावातीत-ध्यान का रहस्य समझ में आ जाता है। यह केवल अर्ध-सत्य है अर्ध-सत्य झूठ से अधिक खतरनाक होता है।
अगर पुस्तक को पढ़ते रहो या मंत्र का जाप करते रहो या किसी मूर्ति को देखते रहो, तो आधा सत्य संभव है। दूसरा आधा सत्य तो संभव हो सकता है। जब तुम्हारा किसी जीवित व्यक्ति के साथ ह्रदय लयबद्ध हो जाए। मैं इसको प्रेम नहीं कहता,क्योंकि इसका तुम गलत अर्थ लगा लोगे। इसको मित्रता भी नहीं कहता, क्योंकि तब तुम सोचो गे कि यह तो तुम पहले से ही जानते हो। मैं इसको सिन्क्रॉनिसिटी कहता हूं ताकि तुम इसकें बारे में थोड़ा सोचों और अपने होने का कुछ अंश दे सको।
जब ध्यान पूरा दिया जाता है। जब व्यक्ति लीन हो जाता है। तो सिन्क्रॉनिसिटी घटती है। हो सकता है कि फूल को या सूर्यास्त को देखते समय तुम उसमें लीन हो जाओ यह बच्चों के खेलने की खुशी से तुम भी खुश हो जाओ....बस एक विशेष प्रकार का लयबद्धता चाहिए। जब ऐसा होता है तो ध्यान घटता है। अगर यह गुरु और शिष्य के बीच में घटे तब तुम्हारे हाथ में अमूल्य हीरा आ जाता है।
मैंने तुम्हें बताया है कि मैं भाग्यशाली रहा हूं, लेकिन मुझे नहीं मालूम कि ऐसा क्यों है। कुछ बातें होती है। जिनके बारे में केवल यही कहा जा सकता था। वे है, क्यों है, उसका कोई कारण नहीं होता। तारे है, गुलाब है, विश्व है—या यूं कहना चाहिए कि अनेक विश्व है। अस्तित्व को विश्व नहीं बल्कि बहु-विश्व कहना चाहिए। बहुआयामी विचार को प्रचालित करने की जरूरत है।
न जाने कब से मनुष्य, एक के विचार से ग्रसित रहा है। और मैं तो पैगाम हूं: मैं एक भगवान में विश्वास नहीं करता, मैं भगवानों में विश्वास करता हूं। मेरे लिए तो पेड़ परमात्मा है, पर्वत परमात्मा है, मनुष्य परमात्मा है, लेकिन हमेशा नहीं। उसमें उसकी संभावना है। स्त्री परमात्मा है लेकिन हमेशा नहीं, ज्यादातर तो यह झंझटी होती है। लेकिन यह उसका चुनाव है। उसको ऐसा चुनाव करने की कोई जरूरत नहीं थी। किसी ने ऐसा करने को उसे बाध्य नहीं किया था।
साधारणत: पुरूष हसबेंड़ अर्थात पति होता है। हर भाषा में यह शब्द बहुत कुरूप है। हसबेंड़ शब्द हसबेंड्री से आया है अर्थात बागवानी, कृषि, खेती। यही तो मेरे संन्यासी कर रहे है। और जब तुम किसी को अपना हसबेंड़ कहते हो तो क्या तुम्हें मालूम है कि तुम क्या कह रहे हो। क्या उस बेचारे आदमी को मालूम है कि तुमने उसको किसान के स्तर पर खड़ा कर दिया है। मूल विचार तो अलग में यही है कि पुरूष है किसान और स्त्री है खेत। कितना महान विचार है।
पुरूष सामान्यत: सांसारिक कामों में उलझा रहता है और स्त्री तो उससे भी अधिक। वह
हर बार में पुरूष से बढ़ कर है। वह पीछे बैठ कर गाड़ी चलाती है, मगर चलाती वही है।
एक पुरूष तेज गाड़ी चलाते हुए पकड़ा गया। सिपाही को बहुत गुस्सा आया। क्योंकि वह सिर्फ गाड़ी ही तेज नहीं चला रहा था बल्कि उसके पास लाइसेंस भी न था। और उसने लाइसेंस की जगह सिनेमा के टिकट दिखा दिए जो वे देखने जा रहा था। यह तो ज्यादती थी। सिपाही ने कहा कि अब में तुम्हें असली टिकट दूँगा। पत्नी पति पर चिल्लाने लगी, मैं तुमसे शुरू से कह रही थी, लेकिन तुम कभी मेरी बात सुनते हो। और वह इतने जौर से चिल्लाई कि सिपाही भी चालान लिखते-लिखत रूक गया। और सुनने लगा कि क्या हो रहा है। पत्नी ने कहा: तुम्हारा चशमा कहां है। तुम देख तो सकते नहीं और गाड़ी चला रहे हो, और तूम पर कोई असर ही नहीं हो रहा। और उपर से तुमने नशा भी कर रखा है। तुम्हें मालूम ही नहीं हो रहा की मैं कितने जोर से लात मार रही हुं। फिर उसने सिपाही की तरफ मुड़ कर कहा: आफिसर, आप इसको जेल भेज दीजिए। आप इसे छह महीने की कड़ी सज़ा दीजिए। इससे पहले कम में यह कभी सुधरेगा नहीं।
पुलिस भी नहीं समझ सका कि इतनी कड़ी सजा, सिर्फ तेज गाड़ी चलाने के लिए, उसने उस आदमी से कहा: आप जा सकते है। ऐसी पत्नी देकर भगवान ने पहले ही आपको काफी सज़ा दे दी है। वह काफी है। मुझे भी आप पर दया आती है, अब मुझे मालूम हुआ की आपकी नजर क्यों खराब हो गई। ऐसी औरत को कौन देखना चाहेगा। वह बार-बार आपको पैरों से मार रही थी इसलिए आपको गाड़ी तेज चलानी पड़ी। मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है आप गाड़ी तेज चलाते रहिए लेकिन वह हमेशा वहां रहेगी—इतनी तेज चलाइए कि वह पीछे बहुत पीछे छूट जाए। स्त्री और पुरूष दोनों , कुरूप, बहुत कुरूप जीते है। एक बार मेरे गांव से मेरे एक प्रोफेसर की पत्नी जा रही थी। मैंने उसे एक बार बताया था कि मेरी नानी और मेरा सारा परिवार वहां रहता है। वह आपसे मिल कर बहुत खुश होगें। मैंने नानी से उसका परिचय कराया। जब वह चली गई तो हम दोनों हंस पड़े। नानी ने हंस कर कहां—यह ता कुछ भी नहीं है। तुम्हें तो उसके को सहन करना पड़ता है। अगर यह ऐसी है तो वह कैसा होगा।
मैंने कहा: मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं—वह पासपोर्ट फोटो से भी अधिक कुरूप लगता है।
मैं जीवन भर पढ़ाता रहा हूं। अपने स्कूल के दिनों में भी में शायद ही कभी उपस्थित रहता था। उन्हें मुझसे छुटकारा पाने के लिए मुझे पचहतर प्रतिशत अस्थिति देनी पड़ती थी। यह भी सरसर झूठ था। मैं तो निन्यानवे प्रतिशत गैर-हाजिर रहता था। प्राइमरी स्कूल में, हाई स्कूल में और कालेज में मेरा यही रवैया रहा।
कालेज में तो प्रिंसिपल बी. एस. अधौलिया के साथ मैंने यह समझोता किया था। वे बहुत ही अच्छे आदमी थे। वे मध्य भारत में स्थित जबलपुर के एक कालेज के प्रिंसिपल थे। जबलपुर में बहुत से कालेज है और उनका कालेज बहुत नामी था। एक कालेज से मैं निकाल दिया गया था, क्योंकि एक प्रोफेसर ने कहा था कि जब तक मुझे निकाला न जाएगा वे वहां पर काम नहीं करेंगे। उनकी यही शर्त थी। और वे सम्मानित प्रोफेसर थे। इस कहानी को में शायद विस्तार से बाद में बताउुंगा।
सो स्वभावत: मुझे निष्कासित किया गया। एक बेचारे गरीब छात्र की कौन परवाह करता है। और वे प्रोफेसर थे पीएचडी., डी. लिट. आदि। और उन्होंने जीवन भर उस कालेज में पढा़या था। अब मेरे कारण उनको कैसे निकाला जा सकता है। मैं ठीक था या गलत, यह तो सवाल ही न था। मुझे निष्कासित करने से पहले उन प्रिंसिपल ने मुझसे यही कहा था। वे अपना स्पष्टीकरण देना चाहते थे। उनहोंने मुझे बुलाया उन्होंने सोचा होगा कि मैं अन्य साधारण छात्रों की तरह निकले जाने के डर से कांप रहा होऊंगा। उनहोंने यह सोचा भी न होगा कि मैं उनके आफिस में भूकंप की तरह प्रवेश करूंगा।
इससे पहले कि वे मुझसे कुछ कहते, मैंने चिल्ला कर उनसे कहा: आप तो गोबरगणेश निकले, और मैने उनकी मेज पर इतने जोर से घूंसा मारा कि वे एकदम खड़े हो गए। मैने कहा: क्या आपकी मेज में स्प्रिंग लगे है। मैं इसको मारता हूं। तो आप खड़े हो जाते है। बैठ जाइए। मैने इतने जोर से कहा कि वे चुपचाप बैठ गए। उनको डर लगा कि मेरी आवाज दूसरे लोग सुन लें और अंदर न आ जाएं, खासकर दरवाजे पर खड़ा दरबान भीतर न आ जाए।
उन्होंने कहा: अच्छा मैं बैठ जाता हूं। अब कहो, तुम्हें क्या कहना है।
मैने कहा: यह अच्छी बात है। आपने मुझे बुलाया है और आप मुझसे पूछ रहे है कि मुझे क्या कहना है। मैंने कहा: आपको चाहिए कि आप डाक्टर एस.एन.एल. श्रीवास्तव को निकाल दें। अपनी पी. एच डी. और डी. लिट. डिग्रियों के बावजूद वे मूर्ख है। मैंने उनका कोई नुकसान नहीं किया। मैने उनसे केवल प्रश्न पूछे थे जो कि बिलकुल लाज़मी है। वह हमें लाजिक पढ़ाते है। सो अगर उनकी क्लास में तर्क न करूं तो कहां करूं। आप ही बताइए।
उन्होंने कहा: हां, बात तो ठीक है कि अगर वे तर्क पढ़ाते है तो तुम्हें तर्कपूर्ण होना चाहिए।
तो मैंने कहा: आप उन्हें बुला कर देखिए कि कौन तर्कपूर्ण है।
लेकिन जैसे ही डाक्टर श्रीवास्तव ने सुना कि मैं प्रिंसिपल के आफिस में हुं और उनका बुलाया जा रहा है। वैसे ही वे अपने घर भाग गए। वे तीन दिन तक आए ही नहीं। मैं तीन दिन तक लगातार उनका इंतजार करता रहा। आफिस के खुलते ही में वहां पहुंच जाता और उसके बंद होने तक वहां बैठा रहता। अंत में उन्होंने प्रिंसिपल को पत्र लिख दिया कि ऐसा कब तक चल सकता है। में इस लड़के का सामना नहीं करना चाहता। या तो इस लड़के को कालेज से निकाल दीजिए या मुझे नौकरी से जवाब दे दीजिए।
प्रिंसिपल न वह पत्र मुझे दिखाया। मैंने कहा: अब ठीक है, वे तो आपको उपस्थिति में भी सिर्फ एक बार मेरा सामना नहीं करना चाहते। नहीं तो आपको मालूम हो जाता कि कौन तर्कपूर्ण है। और इस पत्र से यह प्रमाणित होता है कि वे कायर है। मैं नहीं चाहता कि उनको नौकरी से निकाल दिया जाए। उनके बीबी बच्चे है और दूसरी भी जिम्मेदारियाँ है। मैं ह्रदय हीन नहीं हूं। आप मुझे कालेज से निकाल दीजिए। लेकिन यह आदेश लिख कद दीजिए।
उन्होने मेरी और देखा और कहा: अगर मैं तुम्हें निष्कासित करता हूं तो तुम्हें दूसरे किसी कालेज में दाखिला मिलना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
मैंने कहा: यह मेरी समस्या है। मैं तो मिस फिट हूं। इसलिए मुझे ऐसी समस्याओं का सामना करना ही पड़ेगा।
इस घटना के बाद मैंने शहर के सब प्रिंसिपल के दरवाजे खटखटाए—यह शहर कॉलेजों का शहर है—और उन सबने कहा, अगर तुम निष्कासित किए गए हो तो हम यह खतरा मोल नहीं लेना चाहते। हमने सुना है कि पिछले आठ महीनों से तुम निरंतर डाक्टर श्रीवास्तव से बहस करते रहे हो और उनको पढ़ाने ही नहीं दिया।
जब मैंने यह सारी कहानी श्री बीएस. अधौलिया को सुनाई तो उन्होंने कहा, मैं यह खतरा उठाता हूं। लेकिन एक शर्त है। वह बहुत अच्छे और उदार आदमी थे लेकिन उनकी भी सीमाएँ थी। मुझे किसी से असीम उदारता की अपेक्षा नहीं है। लेकिन सच तो यह है कि असीम उदारता के बीना तुम जीवन के ऐ सुंदरतम अनुभव से वंचित रह जाते हो। मुझे दाखिल करके उन्होंने जो उदारता दिखलाई उस शर्त के कारण उसका महत्व कम हो गया। मेरे लिए तो वह शर्त अच्छी सिद्ध हुई, लेकिन उनके लिए नहीं। उनके लिए तो वह एक अपराध था और मेरे लिए वह स्वतंत्र होने का अवसर था।
उन्होंने एक एग्रीमेंट पर मुझसे हस्ताक्षर करवाए कि मैं फिलासफी की क्लास में उपस्थित नहीं होऊंगा। मैंने कहा, यह तो बहुत अच्छा है। सच तो यह है कि इससे ज्यादा में और क्या मांग सकता था। यही तो मैं कहना पंसद करता कि उन मूर्खों के लेक्चर में न जाता। मैंने कहा कि मैं हस्ताक्षर करने को तैयार हूं, लेकिन आपको भी एक एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने होंगे कि आप मुझे पचहतर प्रतिशत उपस्थिति देंगे। उनहोंने कहा: यह वादा है मैं लिख कर नहीं दे सकता, क्योंकि उससे काफी जटिलता पैदा हो जाएगी,पर यह मेरा वादा रहा।
मैंने कहा: मैं आपकी बात मान लेता हूं, और मैं आप पर भरोसा करता हूं। और उन्होंने अपना वायदा पूरा किया। और मुझे नब्बे प्रतिशत उपस्थिति दी, हालाकि में उनके कालेज की एक भी फिलासफी की क्लास में कभी नहीं गया।
मैं प्राइमरी स्कूल में भी ज्यादा उपस्थित नहीं रहता था। क्योंकि वहां की नदी बहुत सुंदर और आकर्षक थी। तो सदा मैं दूसरे छात्रों के साथ उस नदी के किनारे पहुंच जाता। आ नदी के पार बहुत सुंदर जंगल था। और वहां खोज करने को जीवंत भूगोल था। स्कूल के उस गंदे नक्शे की कौन फ़िकर करता। कॉन्स्टेंटिनोपाल कहां है। यह जानने में मेरी कोई दिलचस्पी न थी। मैं नदी और जंगल की खोज में लग जाता। करने को तो और भी बहुत से काम थे।
उदाहरण के लिए जेसे-जैसे मेरी नानी ने धीरे-धीरे मुझे पढ़ना सिखाया मैने पुस्तकें पढ़नी शुरू कर दी। उस शहर के पुस्तकालय का जितना उपयोग मैंने किया उतना मुझसे पहले या बाद में शायद ही किसी ने किया हो अब तो वे बड़े चाव से दिखाते है कि मैं वहां पर कहां बैठता था। कहां बैठ कर पढ़ता था और नोट लिखता था। लेकिन सच बात तो यह है कि उन्हें अब यह बताना चाहिए कि यह वही जगह है जहां से वे मुझे बाहर फेंकना चाहते थे। यह धमकी तो उन्होंने कई बार मुझे दी थी।
लेकिन एक बार जब मैंने पढ़ना आरंभ किया तो नये-नये आयाम खुलते गए। मैंने तो सारे पुस्तकालयों चाट लिया। जो पुस्तकें मुझे प्रिय थी उनको में रात को अपनी नानी को पढ कर सुनाता था। तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं होगा कि पहली पुस्तक जो मैने नानी को पढ कर सुनाई वह थी: ‘’ दि बुक ऑफ मिरदाद’’ इसके बाद तो अनेक पुस्तकें सुनाई। कभी-कभी बीच में वे मुझसे किसी वाक्य या पैराग्राफ या सारे अध्याय का सारांश में अर्थ पूछती।
मैं उनसे कहता: नानी मैं तो पढ़ कर आपको सुना रहा था, क्या आपने सुना नहीं।
वह कहती: जब तूम पढ़ कर आपको सुना रहा था, तुम्हारी आवाज में इतनी लीन हो जाती हूं कि मैं भूल ही जाती हूं कि तुम क्या पढ़ रहे हो। मेरे लिए तो तुम्हीं मेरे मिरदाद हो। जब तक तुम इसे मुझे समझाओगे नहीं तब तक मैं मिरदाद से अपरिचित ही रह जाऊंगी।
फिर में उनको अच्छी तरह समझता। इस प्रकार यह मेरा प्रशिक्षण हो गया। दूसरों को समझाने की मेरी आदत हो गई। जो व्यक्ति अपनेआप अर्थ की गहराई में नहीं जा सकता उसका हाथ पकड़ कर धीरे-धीरे मैं शब्दों की थाह में ले जाता हूं। जीवन भर यही करता रहा हूं। मैंने यह काम स्वयं नहीं अपनाया, न किसी दूसरे ने ही इसे मेरे लिए चुना जैसाकि कृष्ण मूर्ति के लिए चूना गया था। कृष्ण मूर्ति पर तो यह काम दूसरों द्वारा थोपा गया था। आरंभ में तो उनके भाषण भी एनीबीसेंट और लीड बीटर द्वारा लिखे गए थे। और कृष्ण मूर्ति केवल उन्हें दोहरा देते थे। उनके लिए सारी योजना पहलेसे ही तैयार कर ली गई थी। उनकी निजता पर कुछ नहीं छोड़ा गया उनका सार काम व्यवस्थित था। पूर्व-नियोजित था।
मैं तो कोई योजना नहीं बनाता। इसीलिए अभी तक गंवार हूं। कभी-कभी मुझे खुद आश्चर्य होता है कि में यहां क्या कर रहा हूं, लोगों को संबुद्ध होना सिखा रहा हूं। और जब वे संबुद्ध हो जाते है तो मैं तुरंत उन्हें फिर से असंबुद्ध होने का ढंग सिखाने लगता हूं।
मुझे मालूम है कि वह समय करीब आ रहा है जब मेरे बहुत से संन्यासी समाधिस्थ हो जाएंगे। और अभी से मैंने तैयारी कर ली है कि इतने जाग्रत लोगों को कैसे दुबारा असंबुद्ध बताऊंगा। यही तो मैं करता रहा हूं। बड़ी अजीब काम है, लेकिन इसका पूरा मजा लिया है और अभी भी ले रहा हूं,इसलिए ऐसा कर सकता हूं। मैं अंतिम सांस तक लुंगा—शायद उसके बाद भी। मैं थोड़ा सनकी आदमी हूं, इसलिए ऐसा कर सकता हूं। अभी तक किसी दूसरे सनकी ने ऐसा कभी किया नहीं। लेकिन किसी न किसी को कभी न कभी तो करना ही पड़ेगा। किसी को तो शुरूआत करनी ही होगी।
--ओशो
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