नौवां प्रवचन—हृदय का आंदोलन है भक्ति
दिनांक १९ जनवरी, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र :
तस्याः साधनानि गायन्त्याचार्यः
तत्तु विषयत्यागात् संगत्यागाच्च
अव्यावृतभजनात्
लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात्
मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद्वा
महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च
लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव
तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्
तदेव साध्यतां तदेव साध्याताम्
पहला सूत्र: "तस्या साधनानि
गायन्त्याचार्याः'।
जितने भी हिंदी में अनुवाद हैं, वे सभी कहते हैं:
"आचार्यगण उस भक्ति के साधन बतलाते हैं। मूल सूत्र कहता है: आचार्यगण उस भक्ति
के साधन गाते हैं। और भेद थोड़ा नहीं है। बतलाना बतलाना ही है--गाना बात और! गाने
में कुछ खूबी छिपी है।
भक्ति बोलती नहीं--गाती है।
भक्ति बोलती नहीं--नाचती है।
नृत्य में और गीत में ही उसकी अभिव्यक्ति है।
वेदांत बोलता है, भक्ति गाती है।
गाने का अर्थ हुआ: भक्ति का संबंध तर्क से नहीं, विचार से नहीं--हृदय और प्रेम से है। भक्ति का संबंध कुछ कहने से कम,
कहने के ढंग से ज्यादा है।
भक्ति कोई गणित की व्यवस्था नहीं है--हृदय का आंदोलन है। गीत में
प्रगट हो सकती है। भाषा तो वैसे ही कमजोर है। फिर भाषा में ही चुनना हो तो भक्ति
गद्य को नहीं चुनती, पद्य को चुनती है। ऐसे तो पद्य से भी कहां कहा जा
सकेगा, लेकिन शब्दों के बीच में लय को समाया जा सकता है।
शब्द से न कहा जा सके, लेकिन शब्दों के बीच समाहित धुन से
शायद कहा जा सके।
तो भक्त के जब शब्द सुनो तो शब्दों पर बहुत ध्यान मत देना। भक्त के
शब्दों में उतना अर्थ नहीं है जितना शब्दों की धुन में है, शब्दों के संगीत में है। शब्द अपने-आप में तो अर्थहीन हैं। जिस रंग में और
जिस रस में लपेटकर शब्दों के भक्त ने पेश किया है, उस रंग और
रस का स्वाद लेना।
लेकिन अकसर अनुवाद में मूल खो जाता है, और कभी-कभी तो इतनी
सरलता से खो जाता है कि खयाल में भी नहीं आता। क्योंकि हम सोचते हैं कि इससे क्या
फर्क पड़ता है कि आचार्यों ने गाया कि आचार्यों ने कहा, बात
तो एक ही है।
बात जरा भी एक ही नहीं है--बात बड़ी भिन्न है। आचार्यों ने गया, भक्ति के आचार्यों ने गाया--कहा नहीं। और जोर धुन पर है, संगीत पर है। जोर शब्द पर नहीं, शब्द के अर्थ पर
नहीं, शब्द की तर्कनिष्ठा पर नहीं।
पक्षियों के गीत जैसे हैं भक्तों के शब्द। तुम उन्हें सुनकर आनंदित
होते हो। कोई अर्थ पूछे तो न बता सकोगे। लेकिन अर्थ की चिंता ही कौन करता है, जिसे आनंद मिलता हो! आनंद अर्थ है!
अंग्रेजी के महाकवि शैली से किसी ने पूछा कि तुम्हारे एक गीत को मैं
पढ़ रहा हूं, समझ में नहीं आता, मुझे अर्थ
समझा दो। शैली ने कंधे बिचकाये, कहा, "मुश्किल। जब लिखा था तब दो आदमी जानते थे, अब एक ही
जानता है'।
उसने पूछा, "वे कौन दो आदमी थे?...तो
मैं दूसरे से पूछ लूं, अगर तुम भूल गए हो। लेकिन तुमने ही
लिखा है तो तुम अर्थ कैसे भूल गए'।
शैली ने कहा, "जब लिखा, तब मैं और
परमात्मा जानते थे; अब सिर्फ परमात्मा ही जानता है। मैं
तुम्हें न बता सकूंगा। मुझे ही याद नहीं। जैसे एक ख्वाब देखा था! भनक रह गई है कान
में। रस भी रह गया है कहीं गूंजता, लेकिन अर्थ खो गए हैं'।
फिर शैली ने कहा, "अर्थ का करोगे भी क्या?
गुनगुनाओ!'
गीत गाने के लिए है। जो गीत
में अर्थ देखने लगा, वह वैसा ही नासमझ है, जो जाकर
फूल से पूछे कि तेरा अर्थ क्या। फूल का रस देखो! रंग देखो! फूल की गंध देखो! अर्थ
पूछते हो?
परमात्मा अर्थातीत है। इसलिए भक्तों ने कहा नहीं--गाया। क्योंकि कहने
में अर्थ जरा जरूरत से ज्यादा हो जाता है। गाने में अर्थ गौण हो जाता है, रस प्रमुख हो जाता है।
भक्ति है रस। भक्ति कोई ज्ञान नहीं; कहने-सुनने की बात नहीं--डूबने,
मिटने की बात है।
इसलिए मैं अनुवाद करूंगा: "आचार्यगण उस भक्ति के साधन गाते हैं'।
गाने में ही साधन को बतलाते हैं। अगर तुमने गाने को समझ लिया, अगर उनके गीत के रस को पकड़ लिया, तो उन्होंने सब बता
दिया। क्योंकि फिर वे जो साधन बतलाते हैं, वे साधन भी क्या
है? वे साधन हैं: भजन, कीर्तन, उसकी कथा में रस, श्रवण। वे सब उसी रस के विस्तार
हैं।
"वह भक्ति विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती
है'।
इस सूत्र को बारीकी से समझना, क्योंकि योग भी यही
कहता है। तो फिर योग और भक्ति में भेद कहां होगा? योग भी
कहता है: विषय-त्याग और संग-त्याग से। विषयों को छोड़ना है। विषयों की आसक्ति छोड़नी
है। त्यागी भी यही कहता है और भक्त भी यही कहता है। दोनों के अर्थ तो एक नहीं हो
सकते, क्योंकि दोनों के आयाम अलग है। शब्द एक होंगे, अर्थ तो अलग हैं।
तो थोड़ा समझें।
त्याग दो तरह के हो सकते हैं। एक तो त्याग होता है: बिना भूमिका बदले
भाग जाना। एक आदमी घर में है, गृहस्थ है। वह अपनी चेतना को तो
नहीं बदलता, घर छोड़ देता है, पत्नी-बच्चे
छोड़ देता है, जंगल की तरफ चला जाता है। भूमिका नहीं बदली,
चेतना का तल नहीं बदला--स्थान बदल लिए। स्थिति नहीं बदली--स्थान बदल
लिया। मन:स्थिति नहीं बदली--आसपास की जगह बदल ली। वह जाकर जंगल में बैठ जाए,
जल्दी ही वहां फिर गृहस्थी खड़ी हो जाएगी। क्योंकि गृहस्थी का जो
"ब्लू प्रिंट' है, वह उसकी चैतन्य
की दशा में है, वह उसे साथ ले आया। वहां भी गृहस्थी इसी ने
बनाई थी। वह कुछ आकस्मिक आकाश से न उतर आई थी। किसी शून्य से उसका आविर्भाव न हुआ
था। इसके ही चैतन्य में, इसकी ही चेतना के भीतर छिपे बीज
थे--वे प्रगट हुए थे।
पत्नी आकाश से नहीं आती--पति के भीतर छिपे राग से खिंचती है। पति आकाश
से नहीं आता--पत्नी के भीतर छिपे राग से आता है। तुम उसी को अपने पास बुला लेते हो
जिसकी गहन आकांक्षा तुम्हारे भीतर छिपी है। वही तुम्हें मिल जाता है जो तुम चाहते
हो। चाहे तुम्हें पता हो न हो,चेतन हो अचेतन हो, होश में मांगा हो बेहोशी में मांगा हो--तुम्हें वही मिलता है जो तुमने
मांगा है। तुम्हारे पास वही सरककर चला आता है जो तुमने चाहा है।
तुम चुंबक हो। और तुम्हारा चुंबक तुम्हारी चेतना की स्थिति में है। अब
अगर एक चुंबक लोहे के कणों को खींच लेता हो, फिर लोहे के कणों से
परेशान हो जाए, भाग जाए जंगल--क्या फर्क पड़ेगा? चुंबक चुंबक रहेगा। वहां भी लोह-कणों को खींचेगा। यह भी हो सकता है कि
लोह-कण पास हों, तो
चुंबक कुछ भी न खींच पाए, लेकिन इससे क्या चुंबक चुंबक न हो
जाएगा? चुंबक चुंबक ही रहेगा। लोह-कण होंगे तो खींच लेगा,
न होंगे तो न खींचेगा; लेकिन इससे कोई चुंबक
के जीवन में क्रांति न हो जाएगी।
तो एक तो त्याग है जो पलायनवादी है, भगोड़े का है। भक्त तो
उस त्याग में कोई रस नहीं है। वह त्याग ही नहीं है। उसको त्याग ही कहना पहले तो
गलत है। वह छोड़ना है, त्याग नहीं; भागना
है, मुक्ति नहीं है।
फिर एक त्याग है चेतना के तल को बदलने से। तुम जैसे हो अभी उससे ऊपर
उठते हो। जैसे ही ऊपर उठते हो, तुम्हारे आसपास का सारा संसार
वैसा ही बना रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता--तुम वैसे ही नहीं रह
गए। संसार में रहो तो भी संसार अब तुम में नहीं है। तुम चुंबक न रहे। तुमने
चुंबकत्व छोड़ दिया। अब लोहे के टुकड़े पास ही पड़े रहें, पुराने
समय में खींचे थे जब तुम चुंबक थे; अब भी पास पड़े रहेंगे,
लेकिन अब तुम चुंबक नहीं हो--अब तुम में खींच न रही, आकर्षण न रहा। इसका नाम ही संग-त्याग है। पास तो है, लेकिन तुम बड़े दूर हो गए। घर में ही हो, लेकिन घर
में न रहे। दुकान पर बैठे हो, दुकान में न रहे।
संसार से भागना एक बात है--वह त्याग नहीं है। संसार से उठना दूसरी बात
है--वह त्याग है।
ऊपर उठो। भूमिका बदलो।
इसलिए भक्तों ने भागने का आग्रह नहीं किया।
जीवन को न तोड़ना है, न मिटाना है, न बदलना है--चैतन्य के रूप को नया करना है। तुम्हारे भीतर की ज्योति के
थोड़ा बड़ा करना है, तुम थोड़े ऊपर खड़े होकर देख सको; तुम्हारी दृष्टि का विस्तार थोड़ा बड़ा हो जाए।
तो चेतना के एक-एक तल से
दूसरे तल पर जाना, चेतना के एक सोपान से दूसरे सोपान पर जाना, वही त्याग है।
"वह भक्ति विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती
है'...तो तुम भक्त हो!
इसे हम ऐसा समझें कि तुम जहां खड़े हो, वहां संसार है। अगर
तुम स्थान के बदल लो, तो तुम संसार में ही कहीं दूसरी जगह
खड़े हो जाओगे। परमात्मा से तुम्हारी दूरी उतनी ही रहेगी जितनी पहले थी। हिमालय
परमात्मा से उतना ही दूर है जितना तुम्हारी दुकान और बाजार की जगह। हिमालय
परमात्मा से जरा भी पास नहीं।
लेकिन अगर तुम अपनी चेतना के तल को बदलो तो तुम संसार से दूर लगते हो
और परमात्मा के पास होने लगते हो।
एक हिमालय तुम्हें चढ़ना है जरूर, लेकिन वह हिमालय
तुम्हारे भीतर की शीतलता का है; वह तुम्हारे भीतर की शांति
का है; वह तुम्हारे भीतर के मौन का है। एक गौरीशंकर की
यात्रा करनी है जरूर, लेकिन वह गौरीशंकर बाहर नहीं है;
वह तुम्हारी अंतरात्मा का शिखर है। भीतर ऊपर उठना है। बाहर तो जहां
हो, ठीक हो। बाहर से कुछ भी भेद नहीं पड़ता।
"विषय-त्याग और संग-त्याग से भक्ति उत्पन्न होती
है, भक्ति सधती है'।
भक्ति का अर्थ है: परमात्मा और तुम्हारे बीच की दूरी कम हो जाए। भक्ति
तुम्हारे और परमात्मा के बीच की दूरी के कम होने का नाम है। दूरी कम होती जाए, तो भक्ति सघन होती जाती है। एक दिन पूरी मिट जाती है, अनन्यता हो जाती है, तो भक्त भगवान हो जाता है,
भगवान भक्त हो जाता है। तब "दुई' नहीं रह
जाती। तब दोनों किनारे खो जाते हैं एक में ही।
इसलिए भक्त के त्याग की सूक्ष्मता को खयाल में रखना। साधारण त्यागी का
त्याग सीधा-साफ है; भक्त का त्याग बड़ा सूक्ष्म है। साधारण त्यागी भागता
है; भक्त रूपांतरित होता है। इसलिए भक्त को शायद तुम पहचान
भी न पाओ--साधारण त्यागी को कोई भी पहचान लेगा। उसकी पहचान बड़ी ऊपरी है--घर-द्वार
छोड़ दिया, काम-धंधा छोड़ा। जिसे तुम संसार कहते थे, उसे छोड़ दिया, जंगल में चला गया। इसे पहचानने में
अड़चन न आएगी। भक्त जहां है वहीं है। चैतन्य बदलता है। रूपांतरण बड़ा सूक्ष्म है और
भीतरी है। ऊपर से तो वैसा ही रहता है, कानों-कान किसी को खबर
नहीं होती। लेकिन भीतर एक हीरे का जन्म होने लगता है। भीतर एक निखार आता है। चेतना
की लौ थमती है, अकंप जलती है। इसे देखने के लिए तुम्हें भी
थोड़ा सा भीतर झांकना पड़े...।
और जब तक ऐसा न हो पाए तब तक तुम्हारी जिंदगी कहने को ही जिंदगी है, नाममात्र की जिंदगी है। जरा भी मूल्य नहीं उसका--दो कौड़ी भी मूल्य नहीं।
चाहे तुम्हारी जिंदगी सिकंदर की जिंदगी ही क्यों न हो, फिर
भी दो कौड़ी भी मूल्य नहीं। क्योंकि मूल्य तो अंतरात्मा का होता है। तुमने बाहर
क्या किया, इससे कुछ मूल्य का संबंध नहीं--तुम भीतर क्या
हुए...।
"भटक के रह गयीं नज़रें खला की बुसअत में
हरीमे-शाहिदे-रअना का कुछ पता न मिला
तबिल राहगुज़र खत्म हो गई, लेकिन
हनोज अपनी मुसाफत का मुन्तहा न मिला'।
जैसे शून्य की विशालता में आखें भटक जाएं...।
"भटक के रह गई नज़रें खला की वुसअल में !'
शून्य ने तुम्हें घेरा है। विराट है शून्य। रिक्तता है एक। उसमें
आंखें खोकर रह गई हैं।
"हरीमे-शाहिदे-रअना का कुछ पता न मिला'।
प्रेमी के घर का, प्रेयसी के घर का कुछ भी पता
नहीं चलता, कहां है। एक रेगिस्तान में रिक्तता के खो गए हो ।
"तबील राहगुज़र खत्म हो गयी...!'
कठिन भी राह जिंदगी की, वह भी खत्म हो गयी...
"लेकिन, हनोज अपनी मुसाफत का
मुन्तहा न मिला'।
लेकिन आज तक यह ठीक से पता न चला कि हम यात्रा क्यों कर रहे थे।
यात्रा खत्म भी हो गई, कठिन भी बहुत थी; लेकिन अब तक
यह भी साफ न हो सका कि मुद्दा क्या था, मंजिल क्या थी,
जाते कहां थे। प्रेयसी के या प्रेमी के घर की कोई झलक भी न मिली।
जब तक तुम्हारे चैतन्य की भूमिका न बदले, तब तक यही कथा है सभी की: रिक्तता में खो जाते हैं; जैसे
कोई भूली भटकी नदी है और रेगिस्तान में समा जाए, और सागर का
कोई रास्ता न मिले; तपती धूप में, जलती
आग में, बूंद-बूंद करके, तड़फत्तड़फकर उड़
जाए, भाप बन जाए:
"हरीमे-शाहिदे-रजना का कुछ पता न मिला!'
सागर में मिलने का, सागर के साथ मिलन का, सागर के साथ एक हो जाने का कोई पता न मिले-ऐसी ही साधारण जिंदगी है।
जिसे तुम भोगी की जिंदगी कहते हो, उसे भोगी की जिंदगी
कहना ठीक नहीं; भोग जैसा वहां कुछ भी नहीं है। भक्त भोगता है;
भोगी क्या भोगेगा? जिसको तुम भोगी कहते हो,
वह तो भोग के नाम पर सिर्फ धक्के खाता है। भोग की सोचता है, माना; भोगना कभी नहीं। भोग तो उसी के लिए है जिसे
भगवान के हाथ का सहारा मिला। भोग सिर्फ भगवान का है। जिसने उस स्वाद को न जाना,
वह केवल बिखरने और मिटने और रोज मरने को ही जिंदगी समझ रहा है।
नहीं, ऐसी जिंदगी में न तो किसी अर्थ का पता चलेगा। ऐसी
जिंदगी में मंजिल की कोई खबर न मिलेगी। चले थे क्यों, जाते
थे कहां, थे क्या--सब धुंधला-धुंधला , सब
अंधेरा-अंधेरा रहेगा। पर जिंदगी की राह बड़ी कठिन है और परिणाम कुछ भी हाथ न आएगा।
जिसे तुम भोगी कहते हो, उसे वस्तुतः त्यागी
कहना चाहिए। किसी दिन अगर भाषा का फिर से संशोधन हो तो जिसको तुम भोगी कहते हो,
उसको त्यागी कहना चाहिए, और जिसको त्यागी कहते
हैं, उसको भोगी कहना चाहिए। क्योंकि त्यागी की जानता है कि
भोग क्या है। और भोगी तो सिर्फ तड़फता है, सिर्फ सोचता है,
सपने बनाता है, बड़े इंद्रधनुषी सपने बनाता है,
बड़े रंगीन--मगर पकड़ो तो हाथ में राख भी हाथ नहीं आती; खाली हाथ खाली के खाली रह जाते हैं।
"अपने सीने से लगााये हुए उम्मीद की लाश
मुद्दतें जीस्त को नाशाद किया है मैंने'।
बस एक लाश लगाए हुए हैं उम्मीद की छाती से--वह भी लाश है आशा की कि
मिलेगा कुछ, मिलेगा कुछ!
"अपने सीने से लगाये हुए उम्मीद की लाश...!'
सब आशा मुर्दा हैं; कभी कुछ मिलता नहीं--बस मिलने का
खयाल है, भरोसा है, आज नहीं मिला,
कल! कल भी यही होगा। और तुम्हारी आशा फिर आगे कल के लिए स्थगित हो
जाएगी। पीछे कल भी यही हुआ था। तब तुमने आज पर छोड़ दिया था; आज
भी वही हो रहा है। ऐसे क्षण-क्षण करके जीवन रिक्त होता चला जाता है, और तुम उम्मीद की लाश को लिए ढोते फिरते हो।
तुमने कभी देखा, बंदरों में अकसर हो जाता है,
छोटा बच्चा मर जाता है तो बंदरिया उसकी लाश को लिए सप्ताहों तक छाती
से चिपटाये घूमती रहती है! तुम्हें देखकर उसे हंसी आएगी। और जिस दिन तुम अपनी तरफ
देखोगे, उस दिन तो तम्हें भरोसा ही न आएगा कि उम्मीद की लाश
तो तुम मुद्दतों से, जिंदगीयों से...। वह बंदरिया का बच्चा
तो कभी जिंदा भी था; उम्मीद कभी भी जिंदा न थी। वह सदा से ही
लाश है। लाश होना उसका स्वभाव है।
"अपने सीने से लगाये हुए उम्मीद की लाश
मुद्दतें जीस्त को नाशाद किया है मैंने'।
और इस उम्मीद की लाश के कारण न मालूम कितने काल से जिंदगी को व्यर्थ
ही खिन्न करता रहा हूं।
आशा बनाते हो, आशा फिर बिखरती है, टूटती
है--दुख पाते हो। फिर आशा बनाते हो, फिर बनाते हो ताश के
पत्तों के घर--फिर हवा जरा सी लहर, और नाव डूब जाती है। लाश
को ढोते हो, उसका वजन भी, उसकी दुर्गंध
भी, उसका बोझ भी--और फिर, उसके कारण
जिंदगी रोज-रोज खिन्न होती है, उदास होती है।
तुम निराश क्यों होते हो बार-बार?
--आशा के कारण।
धन्यभागी हैं वे जिन्होंने आशा छोड़ दी; फिर उन्हें कोई निराश
न कर सकेगा! जिन्होंने आशा ही छोड़ दी, उनके निराश हाने की
बात ही समाप्त हो गई।
भोगी आशा में जीता है। आशा मुर्दा है। उससे न कभी कुछ पैदा हुआ न कभी
कुछ पैदा होगा। आशा बांझ है, उसकी कोई संतान नहीं।
तो क्या तुम सोचते हो, भक्त कहते हैं कि
निराशा में जीयो? नहीं, भक्त कहते हैं
कि आशा और निराशा तो एक ही सिक्के के पहलू हैं--तुम परमात्मा में जियो!
परमात्मा अभी और यहां है। आशा, कल और वहां कहीं और।
अगर ठीक से समझो तो आशा का नाम ही संसार है। संसार सदा वहां, कहीं और; परमात्मा अभी और यहां, इस क्षण! इस क्षण उसने तुम्हें घेरा है। इस क्षण सब तरफ से उसने तुम्हें
घेरा है। हवाओं के झोंको में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के सायों में--उसने ही तुम्हें घेरा है।
तुम्हारे चारों तरफ जो लोग बैठे हैं, वे भी परमात्मा के
रूप हैं, उन्होंने तुम्हें घेरा है। वही तुम्हें पुकार रहा
है। वही तुम्हारे भीतर श्वास बनकर चल रहा है।
परमात्मा अभी है, परमात्मा कभी उधार नहीं।
स्वामी राम कहते थे, परमात्मा नगद है। वह अभी और यहां
है। संसार उधार है; वह कल और कहां है। कल और वहां को भोगोगे
कैसे? भविष्य को कोई कैसे भोग सकता है, कहो? भविष्य को भोगने का उपाय कहां है? भविष्य है नहीं अभी; तुम उसे भोगोगे कैसे? केवल वर्तमान भोगा जा सकता है।
संसार के त्याग का अर्थ है: भविष्य का त्याग। संसार के त्याग का अर्थ
है: भविष्य के नाम पर जिस भोग को हम स्थगित करते जाते थे, उसका त्याग। संसार के त्याग का अर्थ है: इस क्षण में--इस जीवंत क्षण
में--जागना। वहीं से भोग शुरू होता है।
भक्त भगवान को भोगता है। संसारी केवल भोगने की सोचता है। तुम सोचने के
भ्रम में मत आ जाना। वस्तुतः सोचता वही है जो भोग नहीं पाता है। विचार वही करता है
जो भोग नहीं पाता है। योजना वही बनाता है जो भोग नहीं पाता है। कल की कल्पना वही
संजोता है जो भोग नहीं पाता है। जो अभी भोग रहा हो, वह कल की बात ही
क्यों करे?
तुमने कभी देखा, तुम जितने दुखी होते हो, उतनी भविष्य की ज्यादा विचारणा करते हो! जितने सुखी होते हो, उतना ही भविष्य छोटा हो जाता है, वर्तमान बड़ा हो
जाता है। अगर कभी-कभी एक क्षण को तुम आनंदित हो जाते हो तो भविष्य खो जाता है,
वर्तमान ही रह जाता है।
संसार दुख का फैलाव है; परमात्मा, आनंद की अनुभूति।
जो व्यक्ति दुख में जी रहा है, वह कहीं से भी सुख
पाने की चेष्टा करता है, टटोलता है--विषयों में, वासनाओं में, धन में, संपदा
में, शरीर में। वह जगह-जगह टटोलता है। दुखी है! कहीं से भी
सुख का झरना हाथ आ जाए! और जितनी देर लगती जाती है, उतना
व्याकुल होता जाता है। जितना व्याकुल होता है, बेचैन होता
है--उतना ही होश खोता चला जाता है, उतना और बेहोशी से टटोलता
है। कभी यह पूछता ही नहीं अपने से कि "जहां मैं टटोल रहा हूं, वहीं मैंने खोया है; पहले यह तो पूछ लूं कि मैंने
खोया कहां; पहले यह तो ठीक से पूछ लूं कि मेरा आनंद कहां भटक
गया है'।
कोई धन में खोज रहा है, बिना पूछे। धन में
खोया है आनंद को? अगर धन में खोया नहीं तो धन से पा कैसे
सकोगे? कोई पद में खोज रहा है, बिना
पूछे। पद में खोया है? अगर पद में खोया नहीं तो पा कैसे
सकोगे?
और इसके पहले कि दुनिया की बड़ी यात्रा पर जाओ, अपने भीतर तो खोज लो। इसके पहले कि तुम पड़ोसियों के घर में खोजने लगो कोई
चीज जो खो गई हो, अपने घर में तो खोज लो। बुद्धिमानी यही
कहेगी, पहले अपने घर में खोज लो। यहां न मिले तो फिर
पड़ोसियों के घर में खोजना; फिर चांद-सितारों पर खोजने जाना।
कहीं ऐसा न हो कि तुम चांद-सितारों पर खोजते रहो और जिसे खोया था, वह घर में पड़ा रहे।
निकट से खोज शुरू करो। निकटतम से खोज शुरू करो। निकटतम तुम हो! और
जिसने भी स्वयं पर हाथ रखा, उसका हाथ परमात्मा पर पड़ गया। जिसने गौर से अपनी धड़कन
सुनी, उसने परमात्मा की धड़कन सुनी। जो भीतर गया, वह मंदिर में पहुंच गया।
"वह भक्ति विषय-त्याग, संग-त्याग
से संपन्न हाती है'।
क्या मतलब हुआ विषय-त्याग, संग-त्याग से?
इतना ही मतलब हुआ कि विषय में मत खोजो, वासना
में मत खोजो। पहले अपने में खोज लो। और जिसने भी अपने में खोजा, फिर कहीं और खोजने न गया--मिल गया! इससे अपवाद कभी हुआ नहीं। यह शाश्वत
नियम है। "ऐस धम्मो सनंतनो', कि जिसने अपने में खोजा,
पा ही लिया। हां, अगर खोजने में रस हो तो
भूलकर अपने में मत खोजना। अगर खोजी ही बने रहने में रस हो तो भूलकर अपने में मत
खोजना; क्योंकि वहां खोज समाप्त हो जाती है। वहां मिल ही
जाता है। अगर खोजने में ही रस हो तो बाहर भटकते ही रहना। अगर पाना हो तो बाहर जाना
व्यर्थ है। जो खोज रहा है, जो चैतन्य यात्रा पर निकला है;
उसी चैतन्य में मंजिल छिपी है।
..."विषय-त्याग और संग-त्याग से संपन्न होती है'--इसलिए कि वहां जब यात्रा बंद हो जाती है तो तुम अपने पर लौटने लगते हो। जो
व्यक्ति बाहर नहीं खोजता, वहा कहां जाएगा? वह अपने घर आ जाएगा।
कोलम्बस अमरीका की खोज पर गया। तीन महीने का उसके पास सामान था, वह चुक गया। केवल तीन दिन का सामान बचा, और अभी तक
कोई अमरीका की झलक नहीं, किनारों का कोई पता नहीं; जमीन कितनी दूर है, कुछ अनुमान भी नहीं बैठता। साथी
घबड़ा गए। रोज सुबह पता लगाने के लिए वे कबूतर छोड़ते थे, क्योंकि
अगर कबूतरों को कहीं भूमि मिल जाए तो वे वापस न लौटें। लेकिन वे कबूतर थोड़ी बहुत
दूर चक्कर काटकर वापस जहाज पर लौट आते, कहीं भूमि न मिलती।
पानी में तो ठहर नहीं सकते। उनका लौट आना इस बात की खबर होता कि उन्हें कोई जगह न
मिली।
जिस दिन तीन दिन का भोजन रह गया, उस दिन कबूतर
छोड़े--बड़ी उदासी में थे, डरते थे कि कहीं लौट न आएं, क्योंकि अब खात्मा है। अगर तीन दिन के भीतर जमीन नहीं मिलती तो गए। लौट भी
नहीं सकते, क्योंकि तीन महीने का रास्ता पार कर आए। लौटकर भी
तीन महीने लगेंगे पहुंचने में। तो पीछे जाने का तो कोई अर्थ नहीं है, आगे शून्य मालूम पड़ता है।
लेकिन उस दिन कबूतर वापस नहीं लौटे। नाच उठे आनंद से! कबूतरों को भूमि
मिल गई!
वासनाएं तुम्हारे भीतर से बाहर जाती है। विषय और संग-त्याग का इतना ही
अर्थ है: वहां से भूमि हटा लो, ताकि उनको बाहर ठहरने की कोई जगह
न मिले--तुम्हारा चैतन्य तुम्हीं पर वापस लौट आए। कहीं बाहर ठहरने की कोई जगह मत
दो। अगर बाहर ठहरने की जगह दी...तो यही तो तुम करते रहे हो अब तक, यही भटकाव हो गया, यही संसार है।
विषय से कोई विरोध नहीं है। धन से क्या विरोध? पद से क्या विरोध? कोई निंदा नहीं है। सिर्फ इतनी ही
बात है कि वहां अगर चेतना का पक्षी बैठ जाए तो फिर वह स्वयं पर नहीं लौटता। और तुम
बाहर जितने उलझते जाते हो, उतना ही अपने पर आना कठिन होता
जाता है।
इसलिए भक्ति की बड़ी ठीक से व्याख्या की है: "विषय-त्याग और
संग-त्याग से संपन्न होती है'। पक्षियों को बैठने की जगह नहीं
रह जाती--चैतन्य के पक्षी अपने पर लौट आते हैं।
अगर वासना न हो तो विचार क्या करोगे?
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं,
"विचारों से बड़े पीड़ित हैं। विचारों को बंद करना है'। मैं उनसे पूछता हूं, "विचारों से पीड़ित हो,
यह बात ठीक नहीं--वासना से पीड़ित होओगे'।
किस बात के विचार आते हैं? तो कोई कहता है,
धन के विचार आते हैं; कोई कहता है, काम वासना के विचार आते हैं। तो विचार थोड़े ही असली सवाल है। विचार तो
वासना का अनुषगीं है, छाया की तरह है। जब तक तुम्हारी
कामवासना में रस भरा हुआ है, जब तक तुम्हारी आशा की लाश छाती
से लगी हुई है, जब तक तुम कहते हो कि कामवासना से सुख
मिलनेवाला है--तब तक कामवासना के विचार आने बंद हो जाएंगे।
विचारों को थोड़े ही हटाना है। विचारों को तो हटा-हटाकर भी तुम न हटा
पाओगे; क्योंथक अगर मूल मौजूद रहा, जड़
मौजूद रही, तो पत्ते तुम काटते रहो, शाखाएं
काटते रहो--नये निकल आएंगी।
वासना की जड़ कट जाए तो विचार के पत्ते अपने-आप आने बंद हो जाते हैं।
"अखंड भजन से भी भक्ति संपन्न होती है'। विषय-त्याग , संग-त्याग से--फिर अखंड भजन से...।
अखंड भजन का अर्थ वैसा नहीं है जैसा तुमने समझ रखा है कि लोग
लाउडस्पीकर लगाकर बैठ जाते हैं चौबीस घंटे; मोहल्लेभर के लोगों
को परेशान कर देते हैं; अखंड भजन कर रहे हैं! अखंड उपद्रव है
यह, अखंड भजन नहीं है। और पड़ोसियों ने क्या बिगाड़ा है?
तुम्हें भजन करना हो करो, दूसरों को क्यों
परेशान किए हो? सोना भी मुश्किल कर देते हो।
और यह तो धार्मिक देश है, इसमें अगर कोई अखंड
भजन-र्कीतन करे और कोई पड़ोसी एतराज करे तो उसको लोग अधार्मिक समझते हैं। वे तो तुम
पर कृपा करके माइक लगाए हुए हैं ताकि तुम्हारे कानों में भी भजन-र्कीतन का उच्चार
पड़ जाए, तो शायद तुम्हारी भी मुक्ति हो जाए।
अखंड भजन का क्या अर्थ है?
अखंड भजन का अर्थ है: तुम्हारे भीतर परमात्मा की स्मृति अविच्छिन्न हो, विच्छिन्नता न आए। कोई राम-राम, राम-राम, राम-राम जपने का सवाल नहीं है। क्योंकि अगर तुम राम-राम भी जपो, कितने ही जोर से जपो, तो भी दो राम के बीच में खण्ड
तो आ ही जाएगा। इसलिए वह अखंड तो नहीं होगा। वह तो कोई रस्ता न हुआ। तुम राम-राम
कितनी ही तेजी से जपो, एक राम और दूसरे राम के बीच में जगह
खाली छूट जाएगी, उतनी देर को परमात्मा का स्मरण न हुआ। इसलिए
राम-राम जपने से अखंड भजन का कोई संबंध नहीं हो सकता।
अखंड भजन का अर्थ तो, अगर अखंड होना है भजन को,
तो विचार से नहीं सध सकता यह काम, निर्विचार
से सधेगा। अगर अखंड होना है तो विचार का काम न रहा, क्योंकि
विचार तो खंडित है। एक विचार और दूसरे विचार के बीच में जगह है, अविच्छिन्न धारा नहीं है। अविच्छिन्न धारा तो स्मरण की हो सकती है। स्मरण
का शब्द से कोई संबंध नहीं है।
जैसे मां भोजन बनाती है, बच्चा आसपास खेलता
रहता है, लेकिन उसे स्मरण बना रहता है: वह कहीं बाहर तो नहीं
तिकल गया, आंगन के बाहर तो नहीं उतर गया, सड़क पर तो नहीं चला गया! ऐसा वह बीच-बीच में देखती रहती है। अपना काम भी
करती रहती है और भीतर एक सातत्य स्मृति का बना रहता है।
कबीर ने कहा है, जैसे कि पनघट से स्त्रियां पानी
भरकर घर लौटती हैं, आपस में बात करती हैं, हंसती हैं, मजाक करती हैं--घड़े उनके सिर पर सम्हले
रहते हैं, उनको हाथ भी नहीं लगातीं, स्मरण
बना रहता है कि उन्हें सम्हाले हैं। बात चलती है, चर्चा होती
है, हंसी-मजाक होती है--लेकिन भीतर एक सतत स्मृति बनी रहती
है घड़े को सम्हालने की।
जनक के दरबार में एक संन्यासी आया और उसने जनक के कहा कि मैंने सुना
है कि तुम परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए हो। लेकिन मुझे शक है, इस धन-दौलत में, इस सुख-सुविधा में, इन सुंदर स्त्रियों और नर्तकियों के बीच में, इस सब
राजनीति के जाल में, तुम कैसे उसका अखंड स्मरण रखते होओगे।
जनक ने कहा, "आज सांझ उत्तर मिल जाएगा'।
सांझ एक बड़ा जलसा था और देश की सबसे बड़ी नर्तकी नाचने आई था। सम्राट
ने संन्यासी को बुलाया। चार नंगी तलवारें लिए हुए सिपाही उसके चारों तरफ कर दिए।
वह थोड़ा घबड़ाया। उसने कहा, "क्या मतलब? यह क्या हो
रहा है?'
जनक ने कहा, "घबड़ाओ मत। यह तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है'।
और हाथ में उसको तेल से लबालब भरा हुआ पात्र दे दिया कि जरा हिल जाए
तो तेल नीचे गिर जाए; एक बूंद और न जा सके, इतना भरा
हुआ। और उसने कहा कि नर्तकी का नृत्य चलेगा, तुम्हें सात
चक्कर उस पूरे स्थान के लगाने हैं। बड़ी भीड़ होगी। हजारों लोग इकट्ठे होंगे। अगर एक
बूंद भी तेल नीचे गिरा तो ये चार तलवारें नंगी तुम्हारे चारों तरफ हैं, ये फौरन तुम्हें टुकड़े-टुकड़े कर देंगी।
उस संन्यासी ने कहा, "बाबा माफ करो! प्रश्न अपना
वापस ले लेते हैं। हम तो सत्संग करने आए थे, जिज्ञासा लेकर
आए थे, कोई जान नहीं गंवाने आए हैं। तुम जानो, तुम्हारा ज्ञान जाने। हो गए होओगे तुम उपलब्ध ज्ञान को, हमें कुछ संदेह भी नहीं है। पर हमें छोड़ो'।
पर जनक ने कहा, "अब यह न हो सकेगा। प्रश्न जब पूछ ही लिया तो
उत्तर जरूरी है'।
सम्राट था, संन्यासी के भागने का कोई उपाया न था। सुन्दर नर्तकी
नाचती थी। हजार बार संन्यासी के मन में भी हुआ कि एक तरफ आंख उठाकर देख लूं;
लेकिन एक बूंद तेल गिर जाए तो वे चारों तलवारें उसे काटकर
टुकड़े-टुकड़े कर देंगी। उसने सात चक्कर लगा लिए, एक बूंद तेल
न गिरा। आंखें उसकी तेल पर ही सधी रहीं।
पूछा जनक ने, "उत्तर मिला?'
उसने कहा, "उत्तर मिल गया। और ऐसा उत्तर मिला कि मेरा पूरा
जीवन बदल गया। पहली दफा कोई चीज इतनी देर सतत रही, अखंड
रही--एक समृति कि बूंद तेल न गिर जाए'।
सम्राट ने कहा, "तेरी तरफ चार तलवारें थी, मेरे पास कितनी तलवारें हैं, मेरे चारों तरफ--तुझे
पता नहीं। तेरी जिंदगी तो थोड़े से ही खतरे में थी; मेरी
जिंदगी बड़े खतरे में है। और फिर इससे भी क्या फर्क पड़ता है कि तलवार है या नहीं,
मौत तो सबको घेरे हुए है। जिसको मौत का स्मरण आ गया, उसे सातत्य भी समझ में आ जाएगा'।
अखंड भजन का अर्थ होता है: अविच्छिन्न धारा रहे; परमात्मा के स्मरण में एक क्षण को भी व्याघात न हो; तुम
उससे विमुख न होओ; तुम्हारी आंखें उस पर ही लग रहें; तुम्हारा हृदय उसकी ही तरफ दौड़ता रहे; तुम्हारे
चैतन्य की धारा उसकी तरफ ही प्रवाहित रहे--जैसे गंगा सागर की तरफ अविच्छिन्न बह
रही है--एक क्षण को भी व्याघात नहीं है, एक क्षण को भी बाधा
नहीं है, अवरोध नहीं है।
"अव्यावृतभजनात्'।
कोई भी व्याघात न पड़े तो भजन! इसका अर्थ हुआ कि तुम्हारे जीवन के
साधारण कृत्य ही जब तक परमात्मा के स्मरण की व्यवस्था न बन जाएं--
उठो तो उसमें उठो!
बैठो तो उसमें बैठो!
सोओ तो उसमें सोओ!
जागो तो उसमें जागो!
--जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक तो
व्याघात होतो ही रहेगा।
तो ध्यान रखना: परमात्मा का स्मरण तुम्हारे और कृत्यों में एक कृत्य न
हो, नहीं तो व्याघात पड़ेगा।
जब तुम दूसरे कृत्यों में उलझोगे, तो परमात्मा भूल
जाएगा। यह तुम्हारे जीवन का कोई एक हिस्सा न हो परमात्मा; यह
तुम्हारे पूरे जीवन को घेर ले; यह तुम्हारे सारे जीवन पर छा
जाए। मंदिर में जाओ तो परमात्मा की याद और दुकान पर जाओ तो परमात्मा की याद नहीं;
तो फिर अखंड न हो सकेगा स्मरण। मंदिर में जाओ या दुकान पर, मित्र से मिलो कि शत्रु से, इससे उसकी याद में कोई
फर्क न पड़े; उसकी याद तुम्हें घेरे रहे; उसकी याद तुम्हारे चारों तरफ एक माहौल बन जाए; तुम्हारी
श्वास-श्वास में समा जाए।
"जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वोह जगह बता जहां पर खुदा न हो'।
फिर तुम शरब भी पियो तो उसी में, मस्जिद में बैठकर।
फिर तुम्हारे सारे कृत्य उसी में लपेटे हुए हों। फिर तुम्हारा कोई कृत्य ऐसा न रह
जाए जो उसके बाहर हो। क्योंकि जो कृत्य उसके बाहर हो। क्योंकि जो कृत्य उसके बाहर
होगा, वही व्याघात बन जाएगा।
तो परमात्मा और स्मृतियों में एक स्मृति नहीं है--परमात्मा महास्मृति
है। वह और चीजों में एक चीज नहीं है--परमात्मा आकाश की तरह सभी चीजों को घेरता है।
शराब की बोतल रखो तो भी आकाश ने उसे घेरा। भगवान की मूर्ति रखो तो उसे आकाश ने
घेरा। परमात्मा तुम्हारा सब कुछ घेर ले। बुरा-भला सब तुम उसी पर छोड़ दो। बुरा भी
उसका, भला भी उसका--तुम बीच से हट जाओ। क्योंकि तुम जब तक
बीच में रहोगे, व्याघात पड़ेगा। तुम ही व्याघात हो। तुम्हारी
मौजूदगी अखंड न होने देगी।
तो अखंड भजन का अर्थ हुआ: तुम मिट जाओ और परमात्मा रहे। तो यह कोई
शोरगुला मचाने की बात नहीं है। यह तो बड़ी सूक्ष्म प्रक्रिया है। यह कोई बैंड-बाजे
बजाने की बात नहीं है। यह कोई चौबीस घंटे का अखंड कीर्तन कर दिया, इतना सस्ता नहीं है मामला। क्योंकि चौबीस घंटा तो दूर, अगर चौबीस पल भी अखंड कीर्तन हो जाए तो तुम मुक्त हो गए।
महावीर ने कहा है, अड़तालीस सैकंड अगर कोई व्यक्ति
अविच्छिन्न ध्यान मग रह जाए तो मुक्त हो गया! अड़तालीस सैकंड अविच्छिन्न ध्यान में
रह जाए तो मुक्त हो गया! अविच्छिन्न ध्यान का अर्थ है: इस समय में, न एक विचार उठे, न एक वासना जगे, कोरा रह जाए। तुम्हें परमात्मा ऐसा घेर ले जैसा आकाश ने तुम्हें घेरा है।
चुनाव न रहे। तुम्हारे सारे कृत्य उसी के समर्पण बन जाएं।
नानक सो गए थे, मक्का के पवित्र पत्थर की तरफ पैर करके, पुजारी नाराज हुए थे। कहा, "हटाओ पैर यहां से।
कहीं और पैर करो। इतनी भी समझ नहीं है साधु होकर?'
तो नानक ने कहा, "तुम हमारे पैर वहां कर दो
जहां परमात्मा न हो'।
कहानी कहती है कि पुजारियों ने उनके पैर सब दिशाओं में किए, जहां भी पैर किए, काबा का पत्थर वहीं हटकर पहुंच
गया। कहानी सच हो न हो, पर कहानी में बड़ा सार है।
"जाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वोह जगह बता जहां पर खुदा न हो'।
सार इतना ही है कि पुजारी ऐसी कोई जगह न बता सके जहां परमात्मा न हो।
तुम्हारा जीवन ऐसा भर जाए उससे कि ऐसी कोई जगह न बचे जहां वह न हो!
इसलिए बुरे-भले का हिसाब मत रखना। अच्छा-अच्छा उसे मत दिखाना, अपना बुरा भी उसके लिए खोल देना। तुम्हारे क्रोध में भी उसकी ही याद हो।
और तुम्हारे प्रेम में भी उसकी ही याद हो। और तुम सब हैरान होओगे कि तुम्हारा
क्रोध क्रोध न रहा, तुम्हारे क्रोध में भी उसकी सुगंध आ गई;
और तुम्हारा प्रेम तुम्हारा प्रेम न रहा, तुम्हारे
प्रेम में भी उसकी ही प्रार्थना बरसने लगी।
तुम जिस चीज से परमात्मा को जोड़ दोगे, वही रूपांतरित हो
जाती है। तुम अपना सब जोड़ दो, तुम्हारा सब रूपांतरित हो
जाएगा।
"अखंड भजन से संपन्न होता है'।
"उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है
एक लम्हा जो तेरी रूह में वुसअत भर दे...'
--एक छोटा सा क्षण भी जो तेरे प्राणों में विशालता को
भर दे, विराट को भर दे!
"उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है
एक लम्हा जो तेरी रूह में वुसअत भर दे
एक लम्हा जो तेरे गीत को शोखी दे दे
एक लम्हा तो तेरी लै में मसर्रत भर दे'।
एक क्षण भी काफी है परमात्मा के स्मरण का--"जो तेरी रूह में
वुसअत भर दे'--जो विराट को तेरे आंगन में बुला ले, तेरी बूंद में सागर को बुला ले। सीमाएं टूट जाएं, ऐसा
एक क्षण पर्याप्त है जी लेने का।
"उम्र-भर रेंगते रहने से कहीं बेहतर है'।
फिर अखंड कीर्तन की बात ही क्या, अगर एक लम्हा,
अगर एक क्षण विशालता का इतना अदभुत है, तो
अखंड कीर्तन की तो बात ही क्या! सतत भजन की तो बात ही क्या! ओंठ भी हिलते नहीं सतत
भजन में! भीतर परमात्मा का नाम भी स्मरण नहीं किया जाता। जो किया जाता है, जो होता है, सभी में उसकी याद होती है। भोजन करो,
स्नान करो, तो स्नान में भी जलधार उसी की है।
जल गिरे तो परमात्मा ही गिरे तुम्हारे ऊपर!
मेरे गांव में बड़ी सुंदर नदी बहती है और गांव के लिए वही स्नान की जगह
है। सर्दियों के दिन में लोग, जैसा सदा जाते हैं, सर्दियों के दिन में भी जाते हैं। मैं बचपन से ही चकित रहा कि गर्मियों
में कोई भजन-कीर्तन करता नहीं दिखाई पड़ता। सर्दियों में लोग जब स्नान करते हैं नदी
में तो जोर-जोर से भगवान का नाम लेते हैं, "भोलेशंकर!
भोलेशंकर!' तो मैंने पूछा कुछ लोगों से कि गरमी में कोई
भोलेशंकर का नाम नहीं लेता, भूल जाते हैं लोग क्या? तो पता चला कि सर्दियों में इसलिए नाम लेते हैं कि वह नदी की ठंडक,
और उनके बीच भोलेशंकर की आवाज परदे का काम करती है। वे
"भोलेशंकर' चिल्लाने में लग जाते हैं, उतनी देर डुबकी मार लेते हैं--ठंड भूल गई!
लोग नदी से बचने को भगवान का नाम ले रहे हैं। और तब मुझे लगा कि ऐसा
पूरी जिंदगी में हो रहा है। भगवान सब तरफ से तुम्हें घेरे हुए हैं, तुम उससे घिरना नहीं चाहते। तुम्हारे भगवान का नाम भी तुम्हारा बचाव है।
परमात्मा का स्मरण करना हो तो नदी को बहने दो, वही उसी की
है। वही उसमें बहा है, बह रहा है। तुम डुबकी ले लो। इतना बोध
भर रहे कि परमात्मा ने घेरा। ऊपर उठो तो परमात्मा के सूरज ने घेरा। डुबकी लो तो
पानी ने, परमात्मा के जल ने घेरा। भूखे रहो तो परमात्मा की
भूख ने घेरा और भोजन लो तो परमात्मा की तृप्ति ने घेरा।
और यह कोई शब्दों की बात नहीं है कि ऐसा तुम सोचो, क्योंकि तुम सोचोगे तो वही बाधा हो जाएगी। ऐसा तुम जानो। ऐसा तुम सोचो
नहीं । ऐसा तुम दोहराओ नहीं। ऐसा तुम्हारा बोध हो। ऐसा तुम्हारा सतत स्मरण हो।
"लोकसमाज में भी भगवदगुण-श्रवण और कीर्तन से भक्ति
संपन्न होती है'।
"भगवतगुण-श्रवण'...! भगवान
के गुणों का श्रवण, और भगवान के गुणों का कीर्तन; उसके गुणों को सुनना और उसके गुणों को गाना।
सुनने से...अगर तुमने ठीक-ठीक सुना, अगर तुमने हृदय के पट
खोलकर सुना, अगर तुमने कान से ही न सुना, प्राणों से सुना, तो तुम्हारे भीतर भगवान के गुणों
को सुनते-सुनते, उसके स्मरण का सातत्य बनने लगेगा। क्योंकि
हम जो सुनते हैं, वही हमारा बोध हो जाता है। जो हम सुनते हैं,
वह धीरे-धीरे हम में रमता जाता है। जो हम सुनते हैं, वह धीरे-धीरे हमारे रोएं-रोएं में व्याप्त हो जाता है। जो हम सुनते हैं
सतत, वह धीरे-धीरे हमें घेर लेता ह, हम
उसमें डूब जाते हैं।
तो उसका श्रवण भी करो और उसके गुणों का कीर्तन भी करो। सुनने से ही
कुछ न होगा। क्योंकि सुनना तो निष्क्रिय है और कीर्तन सक्रिय है। निष्क्रियता में
सुनो, सक्रियता में अभिव्यक्त करो। अगर बोलो तो उसके गुणों
की ही बात बोलो।
तुम कितनी व्यर्थ की बातें बोल रहे हो! कितनी व्यर्थ की चर्चाएं कर
रहे हो! अच्छा हो उसके सौंदर्य की बात करो। अच्छा हो उसके विराट अस्तित्व की थोड़ी
चर्चा करो। उस चर्चा में तुम्हें भी याद आएगा; जिससे तुम चर्चा
करोगे उसे भी याद आएगा। क्योंकि परमात्मा को हमने खोया नहीं है, केवल भूला है। इसलिए श्रवण का और कीर्तन का उपयोग है। अगर खो दिया हो तो
क्या होने वाला है? जैसे कि तुम्हारे घर में खजाना हो और तुम
भूल गए हो कि कहां दबाया था; तुम्हारे खीसे में हीरा रखा हो,
और तुम भूल गए हो, तो अगर हीरे की कोई बात करे
तो तुम्हें याद आ जाएगा।
तुमने कभी खयाल किया? घर से तुम चले थे, चिट्ठी डालनी थी, कोई मित्र मिल गया, तुम भूल ही गए थे दिन-भर, फिर उसने कुछ बात की और
उसने कहा कि पत्नी का पत्र आया है--तत्क्षण तुम्हें याद आ गया कि तुम्हें पत्र
डालना है। सुनकर भूली बात स्मरण हो आई। जो तुम्हारे भीतर पड़ा था, वह चैतन्य में उठ गया।
"भगवदगुण-श्रवण और कीर्तन से...!'
और फिर जो तुम सुनो, उसे सुन लेना ही काफी नहीं है,
क्योंकि तुम फिर-फिर भूल जाओगे। तुम्हारी नींद का कोई अंत नहीं है।
उसे गाओ भी, गुनगुनाओ भी। रात जब सोने जाओ तो उसके ही गीत को
गुनगुनाते सो जाओ, ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हारे सपनों में
घेरे रहे; ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हें ऊष्मा देती रहे;
ताकि गुनगुनाहट रातभर तुम्हारे चारों तरफ पहरा देती रहे; ताकि तुम्हारी नींद में भी, तुम्हारी गहरी नींद में
भी उसकी याद का सातत्य बना रहे।
खयाल किया तुमने, तो बात तुम रात को आखिरी सोचते
हुए सोते हो, वही बात तुम्हें सुबह पहली याद आती है। न खयाल
किया हो तो कोशिश करना। जो बात तुम्हारे चित्त में आखिरी होती है रात सोते वक्त,
वही पहली होती है सुबह उठते वक्त; क्योंकि
रातभर वह बात तुम्हारी चेतना के द्वार पर खड़ी रहती है। अगर तुम परमात्मा का स्मरण
करते ही सो जाओ तो सुबह तुम पाओगे, आंख खुलते ही उसके स्मरण
के साथ उठे हो।
सारी दुनिया के धर्मों ने, रात और सुबह, सोते वक्त और जागते वक्त, परमात्मा के स्मरण पर बहुत
जोर दिया है, क्योंकि उस समय चेतना कि भूमिका बदलती है:
जागने से नींद, तो चेतना का गेयर बदलता है; फिर सुबह नींद से जागना, फिर चेतना की भूमिका बदलती
है। इन संध्या के क्षणों में, इन बदलाहट के, क्रातिं के क्षणों में, अगर परमात्मा का स्मरण तुम
में व्याप्त होता जाए, तो तुम पाओगे: धीरे-धीरे तुम्हारे खून
के कतरे-कतरे में परमात्मा की छाप लग गई। तुम्हारा पूरा अस्तित्व उसे गुनगुनाने
लगेगा।
"परंतु भक्ति-साधन मुख्यतया महापुरुषों की कृपा से
अथवा भगवदकृपा के लेशमात्र से होता है'।
नारद कहते हैं, यह सब ठीक, यह साधन ठीक--लेकिन
इतने से ही न हो जाएगा। वस्तुतः तो महापुरुष की कृपा या भगवत्कृपा से, उसके लेशमात्र से हो जाता है। ये तुम्हारे उपाय हैं जरूरी, पर इतने को ही काफी मत समझ लेना। यहीं भक्ति का अन्य साधनों से भेद है।
अन्य साधन कहते हैं: अगर ठीक से किया तो परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा; भक्ति कहती है: यह तो सिर्फ तैयार है, इससे नहीं हो
जाएगा, अंततः तो वह कृपा से ही उपलब्ध होगा--महापुरुषों की,
और भगवत्कृपा से।
"परंतु महापुरुषों का संग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है'।
सदगुरु को खोजना बड़ा कठिन है--
संग-दुर्लभ, अगम्य और अमोघ!
दुर्लभ है, क्योंकि पहले तो जिन्होंने पा लिया सत्य को, ऐसे लोग बहुत कम, फिर जिन्होंने पा लिया, उनको तुम पहचान सको, ऐसी पहचानने वाली आंखें बहुत
कम। फिर तुम पहचान भी लो, किसी को, तो
अगम्य। फिर पहचान के बाद सदगुरु तुम्हें ऐसे जगत में ले चलता है जो तुम्हारा
पहचाना हुआ नहीं है, अगम्य है, समझ में
नहीं आता है। तुम्हारी समझ डगमगाती है, तुम्हारे पैर डगमगाते
हैं, तुम घबड़ाते हो। यह अपरिचित लोक है; नाव ऐसी तरफ ले जाता है, जहां तुम कभी गए नहीं,
नक्शे भी तैयार नहीं, खतरा ही खतरा है।
तो पहले तो मिलना कठिन, मिल जाए तो पहचानना
कठिन, पहचान में भी आ जाए तो उसके साथ जाना कठिन--अगम्य है!
लेकिन अगर तुम साथ चले जाओ तो अमोघ है, फिर वह रामबाण है;
फिर उसकी जरा सी भी कृपा पर्याप्त है।
"यूं अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आयी
जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों की मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख सितारा टूटे।
शहद-सा घुल गया तल्खावा-एत्तन्हाई में
रंग-सा फैल गया दिल के सियाहखाने में
देर तक यूं तेरी मस्ताना सदाएं गूंजी
जिस तरह फूल चमकने लगें वीरानों में।
यूं अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आयी...!
सदगुरु का मिलना अचानक है। खोजते रहो, खोजते-खोजते
अचानक...। क्योंकि कोई बंधे हुए नक्शे नहीं हैं, कोई
पता-ठिकाना नहीं है। इसलिए अचानक...। कहां मिलेगा, इसको
बताया नहीं जा सकता।
सदगुरु कोई जड़ वस्तु नहीं है--चैतन्य का प्रवाह है; ठहरा हुआ नहीं है--गत्यात्मक है, गतिमान है।
एक सूफी फकीर एक वृक्ष के नीचे बैठा था, एक युवक ने आकर पूछा
कि "मैं सदगुरु की तलाश में हूं, मुझे कुछ कसौटी
बताएंगे कि मैं सदगुरु को कैसे पहचानूं?' तो उस फकीर ने उसे
कसौटी बतायी कि ऐस-ऐसे वृक्ष के नीचे अगर बैठा हुआ मिल जाए, तो
समझना...।
वह युवक गया। उसने बहुत खोजा; कहते हैं, तीस साल...। लेकिन वैसा वृक्ष कहीं न मिला, और न
वृक्ष के नीचे बैठा हुआ कोई सदगुरु मिला। कसौटी पूरी न हुई। बहुत लोग मिले लेकिन
कसौटी पूरी न हुई, वह वापस लौट आया। जब वह वापस आया तो वह
हैरान हुआ कि यह तो बूढ़ा उसी वृक्ष के नीचे बैठा था। इसने कहा कि महानुभाव,
पहले ही क्यों न बता दिया कि यही वह वृक्ष है। उसने कहा,
"मैंने तो बताया था, तुम्हारे पास आंख न
थी। तुमने वृक्ष देखा ही नहीं। मैं तब व्याख्या ही कर रहा था वृक्ष की, तब तुम सुने और भागे। यही वृक्ष है, और मैं वही आदमी
हूं। और तुम्हारी झंझट तो ठीक, मेरी झंझट सोचो कि तीस साल
मुझे बैठा रहना पड़ा, कि तुम एक न एक दिन आओगे।
"यूं अचानक तेरी आवाज़ कहीं से आयी
जैसे परबत का जिगर चीर के झरना फूटे
या ज़मीनों की मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख सितारा टूटे'।
जमीन की मुहब्बत में तड़पकर...
शिष्य तो जमीन जैसा है; गुरु आकाश जैसा है।
"या जमीनों की मुहब्बत में तड़प कर नागाह
आसमानों से कोई शोख सितारा टूटे।
शहर-सा घुल गया तल्खावा-एत्तन्हाई में'।
वह जो पीड़ा से भरी हुई तन्हाई थी, अकेलापन था...शहद-सा
घुल गया!
"शहद-सा घुल गया तल्खावा-एत्तन्हाई में
रंग-सा फैल गया दिल के सियाहखाने में'।
अंधेरी रात थी जैसे दिल में, वहां एक नया रंग उगा,
एक नशी सुबह हुई।
"देर तक यूं तेरी मस्ताना सदाएं गूंजी
जिस तरह फूल चमकने लगें वरानों में'।
जैसे अचानक मरुस्थलों में फूल खिल गए हों! इतना ही आश्चर्यजनक है
सद्गुरु का मिल जाना, जैसे मरुस्थल में अचानक फूल खिल जाएं, जैसे पत्थर से टूटकर अचानक झरना फूट पड़े, जैसे आसमान
से कोई तारा जमीन की मुहब्बत में नीचे उतर आए!
संग दुर्लभ है। लेकिन जो खोजते हैं, उन्हें मिलता है।
खोजनेवाला चाहिऐ। कितना ही दुर्लभ हो, खोजनेवालों को सदा
मिला है। इसलिए तुम थक मत जाना और हार मत जाना। प्यास हो तो तुम्हें जला का झरना
मिल ही जाएगा। असल में परमात्मा प्यास बनाने के पहले जल का झरना बनाता है; भूख देने के पहले भोजन तैयार करता है। प्यास तो बाद में बनाई जाती है,
झरने पहले बनाए जाते हैं। आदमी जमीन पर बहुत बाद में आया, झील और झरने बहुत पहले आए। आदमी बहुत बाद में आया, वृक्षों
में लगे फल बहुत पहले आए।
ध्यान रखना, जिस बात की भी तुम्हारे भीतर खोज है, वह खजाना कहीं न कहीं तैयार ही होगा, अन्यथा खोज की
आकांक्षा ही नहीं हो सकती थी। महापुरुषों का संग दुर्लभ है माना, मगर निराश मत होना। दुर्लभ इसलिए सूत्र कह रहा है ताकि खोजने में जल्दी मत
करना, धीरज रखना। और कोई मतलब नहीं है दुर्लभ का। दुर्लभ का
यह मतलब नहीं है कि मिलेगा ही नहीं। मिलेगा, धीरज रखना।
धैर्य से खोजना।
अगम्य है। और जब सदगुरु तुम्हें अगम्य के मार्ग पर ले जाने लगे, जिसे तुम्हारी बुद्धि न समझ पाए--समझ ही न पाएगी, क्योंकि
मार्ग प्रेम का है, अगम्य ही होगा, तर्कातीत
होगा--तो घबड़ाना मत। इतनी हिम्मत रखना और साहस रखना। पागल होने का साहस रखना।
दीवाने होने की हिम्मत रखना। भरोसा रखना।
इसी को श्रद्धा कहा है। श्रद्धा की जरूरत इसीलिए है, क्योंकि जहां अगम्य का द्वार खुलेगा, वहां तुम क्या
करोगे, अगर श्रद्धा न हुई, वहां अगर
तुमने कहा, पहले हम समझेंगे तब भीतर चलेंगे, तो रुकावट हो जाएगी; क्योंकि समझ तो तभी आ सकती है
जब तुम भीतर पहुंच जाओ। और तुमने अगर यह शर्त रखी कि हम पहले समझेंगे, फिर भीतर चलेंगे...।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं,
"संन्यास तो लेना है, लेकिन पहले समझ लें
कि संन्यास क्या है'। "मैं उनको कहता हूं,
"स्वाद लिए बिना तुम कैसे समझोगे? हुए
बिना कैसे समझोगे। हो जाओ, समझ लेना पीछे।
वे कहते हैं, "यह कैसी बात? पहले समझ
लें, सोच लें, विचार लें, फिर हो जाएंगें'। वे कभी भी न हो पाएंगे। यह मार्ग
अगम्य का है, अनजान का है, अज्ञेय का
है।
लेकिन सूत्र बड़ी अमूल्य बात कह रहा है: "दुर्लभ है, अगम्य है, पर अमोघ है'। क्ए
बार हाथ हाथ में आ गया तो चूक नहीं है, रामबाण है। फिर तीर
लग ही जाएगा। फिर तीर छिद ही जाएगा, आर-पार।
"उस भगवान की कृपा से ही महापुरुषों का संग भी
मिलता है'।
यह संग भी, नारद कहते हैं, परमात्मा की
कृपा से ही मिलता है। क्योंकि भक्त की सारी धारणा ही कृपा पर खड़ी है, प्रसाद पर। तुम्हें सदगुरु भी मिलता है तो भी उसकी ही कृपा से मिालता है,
तुम्हारी खोज से नहीं; जैसे सदगुरु के द्वारा
वही तुम्हारे पास आता है; जैसे सदगुरु में वही तुम्हें मिलता
है। तुम अभी इतने तैयार न थे कि सीधा-सीधा मिल सके, तो थोड़े
परदे की ओट से मिलता है। हाथ तो उसी का है--दस्ताने में है। हाथ तो उसी का है।
सदगुरु के भीतर भी आवाज उसी की है। लेकिन कोरे आकाश से अगर आवाज आए तो तुम समझ न
पाओगे, घबड़ा जाओगे।
समझो कि यहां यह खाली कुर्सी हो और आवाज आए तो अभी तुम भाग खड़े हो
जाते हो, फिर तो कहना ही क्या, फिर तो
तुम लौटकर भी न देखोगे। आवाज अभी भी शून्य से ही आ रही है।
सदगुरु के द्वारा भी वही पुकारता है, वही बुलाता है,उसके ही हाथ तुम्हारी तरफ आते हैं--लेकिन हाथ तुम्हारे जैसे होते हैं,
तुम भरोसा कर लेते हो; तुम हाथ हाथ में दे
देते हो। देने पर पता चलेगा कि हाथ तुम्हारे जैसे नहीं थे; दिखाई
पड़ते थे, धोखा हुआ।
सदगुरु परमात्मा ही है। इसलिए सूत्र कहता है: "वह भी उसकी ही
कृपा से मिलता है'।
"जो कुछ है वो, है अपनी ही
रफ्तोर-अमल से
बुत है जो बुलाऊं, जो खुद आए तो खुद है'।
त?ुम्हारे बुलाने से भी आता है, ऐसा
भी नहीं--"जो खुद आए खुदा है'। मूर्तियां हैं जिन्हें
तुम बुलाते हो।
"बुत है जो बुलाऊं, जो खुद
आए तो खुदा है'।
वह आता है अपने ही कारण। तुम जब भी तैयार हो जोते हो, तभी आ जाता है। ठीक से समझो तो ऐसा कहना चाहिए कि आता तो पहले भी रहा था,
तुम पहचान न पाए। तुम जब सम्हले तो तुमने पहचाना; आता तो पहले भी रहा था; बुलाता तो पहले भी रहा था;
तुमने न सुना, तुम्हारे कान तैयार न थे,
तुम कुछ और सुनने में लगे थे।
"क्योंकि भगवान में उसके भक्त में भेद का अभाव है'। इसलिए सदगुरु में भी वही आता है।
"क्योंकि भगवान में और उसके भक्त में भेद का अभाव
है'।
"दिल हर कतरा है साज़े अनलबहर
हम उसके हैं, हमारा पूछना क्या!'
हर बूंद का एक साज है और साज से निरंतर एक ध्वनि निकलती है कि मैं
सागर हूं। हर बूंद का एक साज है, एक गीत है। और हर बूंद निरंतर
गाती रहती है कि मैं एक सागर हूं।
"दिले हर कतरा है साज़े अनलबहर
हम उसके हैं, हमारा पूछना क्या'!
अब हमारी तो बात ही क्या कहनी! हम उसके हैं!
तुम भी अगर अपने भीतर झांकोगे तो तुम एक ही आवाज पाओगे; तुम्हारे भी परमात्मा होने की आवाज पाओगे--जैसे हर बूंद में सागर होने की
आवाज है। हर बूंद का साज है कि मैं सागर हूं और हर चैतन्य का साज है कि मैं
परमात्मा हूं। जिसने पहचान लिया, वह सदगुरु। जिसने अपनी ही
ध्वनि को पहचान लिया, वह सदगुरु। जिसने अभी नहीं पहचाना है,
खोजना है--लेकिन फर्क कुछ भी नहीं है।
उस भगवान की कृपा से ही सत्पुरुषों का संग मिलता है, क्योंकि भगवान में और उसके भक्त में भेद का अभाव है।
"उस सत्संग की ही साधना करो'।
"तदेव साध्यतां, तदेव
साध्यताम्!'
उसकी ही साधन करो!
सत्संग की ही साधना करो!'
सदगुरु की खोज करो!
किन्हीं हाथों पर भरोसा करो और हाथ हाथ में दे दो। ऐसे ही तुम
परमात्मा के हाथ में अपने को सौंप पाओगे। और ऐसे ही परमात्मा तुम्हारे हाथ को अपने
हाथ में ले पाएगा।
तो भक्ति की साधना क्या हुई? सत्संग की साधना हुई।
सार
क्या हुआ?...कि ऐसे किसी व्यक्ति के साथ हो जाना है जिसने पा
लिया हो। क्योंकि है तो तुम्हारे भीतर भी, लेकिन तुम्हारा
साज सोया हुआ है। किसी ऐसी वीणा के पास पहुंच जाना है, जिसका
साज बज उठा हो, ताकि उसकी प्रतिध्वनि में तुम्हारे तार भी
कंपने लगे।
संगीतज्ञ कहते हैं कि अगर कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा पर बजाए और दूसरी
वीणा कमरे में चुपचाप रखी हो तो धीरे-धीरे उसके तार भी झंकृत होने लगते हैं।
तरंगें जागी वीणा की, सोयी वीणा को भी जगाने लगती हैं: ध्वनि की चोट सोयी
वीणा को भी खबर देती है कि मैं भी वीणा हूं। उसके भीतर भी कोई जागने लगता है। उसके
तार भी कंपने लगते हैं। रोमांच हो आता है उसे भी। दूर की खबर आती है! अपने
अस्तित्व का बोध आता है।
सत्संग भक्त की साधना है।
मीरा मिल जाए तो उसके साथ हो लो। चैतन्य मिल जाएं, उनके साथ हो लो। तुम्हें अपनी याद नहीं है, उन्हें
अपनी याद आ गई है--उनके साथ तुम्हें भी धीरे-धीरे तुम्हें अपनी याद आ जाएगी। कुछ
और करना नहीं है।
सदगुरु तो दर्पण है--उसमें तुम्हें अपना चेहरा धीरे-धीरे दिखाई पड़ने
लगेगा; भूली-बिसरी याद आ जाएगी।
"उजाले अपनी यादों के हमारे पास रहने दो।
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए'।
तो भक्त इतना ही कहता है अपने गुरु से
"उजाले अपनी यादों के हमारे पास रहने दो।
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए'।
न मालूम किस दिन अंधकार घेर ले! बस तुम्हारा उजाला हमारे पास हो तो
काफी। याद भी तुम्हारे उजाले की हमारे पास हो तो काफी, क्योंकि तब हम भी उजाले हो गए। फिर कितना ही घना अंधेरा हो, अमावस की रात हो, कितना ही घेर ले, फिर भी हम उजाले ही रहेंगे।
बुद्धों के पास तुम्हें अपने उजाले की याद आई।
तो भक्त की साधना इतनी ही है कि वह सत्संग खोज ले।
भक्ति संक्रामक है।
"तदेव साध्य्तां, तदेव
साध्यामाम्!'
आज इतना ही।
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