दसवां प्रवचन—परम मुक्ति है भक्ति
दिनांक २० जनवरी, १९७६; श्री रजनीश आश्रम, पूना
प्रश्नसार :
1—मुझे कभी लगता है कि मैंने आपसे बहुत-बहुत पाया
है और कभी यह भी कि मैं आपसे बहुत चूक रहा हूं। ऐसा क्यों?
2—एक भक्त भगवान होना पसंद करे और दूसरा सिर्फ
भक्त रहना चाहे, तो दोनों में श्रेष्ठ कौन है?
3—"भक्त्या अनुवृत्या' ऐसा
कहा है, तो भक्ति साकार ही होना चाहिए। सूर्य सूर्यलोक में
साकार ही है, वैसे ही भगवान भी साकार क्यों नहीं?
4—आशीर्वाद क्या है? गुरु शिष्य के सिर पर क्या प्रेषित करता है? क्या
आशिर्वाद लेने की क्षमता होती है?
5—कल के प्रवचन में अचानक कुछ घटा!...प्रणाम
स्वीकार करें!
6—क्या भक्ति-सूत्र के रचयिता के व्यक्तित्व पर
प्रकाश डालने की कृपा करेंगे?
पहला प्रश्न: मुझे कभी लगता है कि मैंने आपसे
बहुत-बहुत पाया और कभी यह भी कि मैं आपसे बहुत चूक रहा हूं। ऐसा क्यों है?
जितना ज्यादा पाओगे उतना ही लगेगा कि चूक रहे हो। जितनी होगी तृप्ति, उतनी ही और बड़ी तृप्ति की आकांक्षा जगेगी।
प्यासे को जब पहली घूंट जल की, गले से उतरती है तो
पहली दफ प्यास का पूरा-पूरा पता चलता है। प्यास का पता चलने के लिए भी जल की थोड़ी
जरूरत है।
और परमात्मा की खोज तो ऐसी है कि शुरू होती है, पूरी नहीं होती। पूरी हो जाए तपो परमात्मा सीमित हो गया, असीम न रहा। पूरी हो जाए तो परमात्मा का भी अंत आ गया, परिधि आ गई, सीमांत आ गया।
इसीलिए तो परमात्मा निराकार है, तुम उसे चुका न
पाओगे। तुम चूक जाओगे, परमात्मा न चुकेगा। उतरोगे सागर में
जरूर, दूसरा किनारा कभी न आएगा। दूसरा किनारा है ही नहीं।
यही तो अर्थ है विराट का। अगर तुम दूसरा किनारा भी छू लो, फिर
विराट कैसा विराट रहा! जो तुम्हारी मुट्ठी में आ जाए वह तो तुमसे भी छोटा हो
जाएगा। जो तुम्हारे गले में तृप्ति बन जाए, उसकी सामर्थ्य तुम्हारे
गले की सामर्थ्य से त्यादा न रह जाएगी।
तो ये दोनों घटनाएं साथ-साथ घटेंगी। तृप्ति भी मालूम होगी, गहन तृप्ति मालूम होगी और अतृप्ति मिटेगी नहीं। यही तो खोजी की व्याकुजता
है: सरोवर के तट पर खड़ा है, डुबकियां लेता है, जलधार बरसती है; प्यास बुझती भी लगती है, बुझती भी नहीं; प्यास बुझती भी है और बढ़ती भी है।
साथ-साथ ऐसा विरोधाभास घटता है।
तुम्हारी अड़चन मैं समझता हूं। अगर प्यासे ही रहे और तुम्हें मुझसे कुछ
भी न मिले तो भी तर्क को समझ में आ जाए, बात खत्म हो गई। यह
मंदिर तुम्हारे लिए नहीं फिर, कहीं और खोजना होगा। यह द्वार
तुम्हारे लिए नहीं फिर, कहीं और खोजना होगा। यह सरोवर
तुम्हारे कंठ से मेल नहीं खाता, कहीं और खोजना होगा। तो बात
साफ हो जाती है।
या, तृप्ति हो जाए, प्यास बिलकुल खो
जाए, तो भी हल हो जाता है। हल इतना आसान नहीं है। और हल हो
तो दुर्भाग्य है, सौभाग्य नहीं है। क्योंकि अगर तुम्हारी
प्यास बिलकुल ही मिट जाए तो तुम्हारे जीवन का अर्थ भी खो गया। फिर जीवन में सार
क्या होगा? फिर जीवन में गीत के अंकुरण कैसे होंगे? फिर नाचोगे कैसे?
ध्यान रखना, न तो अतृप्त नाच सकता है, क्योंकि
नाचने का कोई कारण नहीं। अतृप्त रो सकता है, शिकायत कर सकता
है; नाचेगा कैसे? तृप्त भी नहीं नाच
सकता, क्योंकि फिर नाचने का कोई कारण न रहा। अतृप्ति और
तृप्ति के बीच में एक पड़ाव है; वहां नृत्य है; वहां आनंद का आविर्भाव है।
और जब तुम समझोगे धीरे-धीरे, तो तुम जल के लिए ही
परमात्मा को धन्यवाद न दोगे, प्यास के लिए भी धन्यवाद दोगे।
तब तुम प्रार्थना करोगे कि जल भी बरसाते जाना और प्यास भी बढ़ाते जाना।
इन दोनों के मध्य में जीवन है। इन दोनों के मध्य में जीवन का संतुलन
है, जीवन की ऊंचाइयां हैं, गहराइयां हैं।
अगर जीवन में विरोधाभास न हो तो जीवन मुर्दा हो जाता है--इस किनारे या
उस किनारे। धार तो जीवन की मध्य में है--न इस किनारे न उस किनारे। तो इस किनारे से तो तुम्हारी नाव छुड़ा लूंगा।
इसलिए थोड़ी तृप्ति होती मालूम पड़ेगी। अतृप्ति का किनारा दूर हटता जाएगा और तृप्ति
का किनारा पास नहीं आएगा। मंझधार में पड़ जाओगे। और जिसने मंझधार में जीना सीखा, उसी ने परमात्मा में जीने की कला जानी।
किनारे का मोह भय के कारण है। तृप्ति की आकांक्षा भी मुर्दादिली का
हस्सा है। वह कोई जिंदादिलों की बात नहीं है। जिंदादिल आग चाहते हैं, वर्षा भी चाहते हैं--वर्षा ऐसी चाहते हैं कि कैसी भी आग हो तो मिट जाए;
और आग ऐसी चाहते हैं कि कैसी भी वर्षा हो तो न बुझ पाए। इन दोनों के
बीच में जिसने जीना सीखा, उसी ने जीना जाना।
ठीक पूछते हो। कभी लगेगा, बहुत कुछ पाया और कभी
लगेगा, सब चूके जा रहे हो। और इन दोनों में विरोध मत देखना।
ये दोनों बातें मैं एक साथ ही कर रहा हूं। ये दोनों बातें एक साथ ही होनी चाहिए।
तुम्हारी अड़चन भी मैं समझता हूं, क्योंकि तुम चाहते
हो: निपटारा हो, इस पार कि उस पार। या तो सिद्ध हो जाए कि
तृप्ति होती ही नहीं, अतृप्ति ही भाग्य है, अतृप्ति ही नियत्ति है तो ठीक है, उससे ही राजी हो
जाएं, सांत्वना कर लें, अपने घर बैठ
जाएं, फिर किसी यात्रा पर जाना नहीं, जड़
हो जाएं; और या फिर पक्का हो जाए कि तृप्ति पूरी हो जाती--तो
या तो अतृप्ति पर ठहर जाएं या तृप्ति पर ठहर जाएं!
ठहर जाने का तुम्हारा मन है। और परमात्मा चाहता है: तुम चलते ही रहो, चलते ही रहो, क्योंकि चलना जीवन है!
कब तुम्हें दिखाई पड़ेगा चलने का सौंदर्य--चलते जाने का सौंदर्य?
रोज नये-नये अभियान उठें!
रोज नये शिखरों का दर्शन हो!
हां, पैर में बल मिलता जाए!
यात्रा से थकान न मिले!
पैर में बल मिलता जाए और नये शिखर उभरते चले आएं!
जिन्होंने भी परमात्मा को जाना, वे मुर्दा नहीं हो गए
हैं। उनके जीवन में पहली दफा वास्तविक जीवन की ऊर्जा का आविर्भाव हुआ है।
पर तुम इसे न समझ पाओगे, क्योंकि तुम्हारे
गणित में बड़ी छोटी-छोटी बातें हैं। तुम्हारा गणित ही बड़ा छोटा है। तुम हिसाब ही
कौड़ियों का कर रहे हो और यहां हीरे बरस रहे हैं। तुम हिसाब कौड़ियों का कर रहे हो
और तुम्हें कौड़ियां दिखाई नहीं पड़तीं, तुम बड़ी मुश्किल में
पड़ जाते हो।
परमात्मा को क्या लेना-देना कौड़ियों से?
सिक्के मत मांगो--तृप्ति के या अतृप्ति के!
जीवन की क्रांति मांगो!
जीवन की चुनौती मांगो!
जीवन का अभियान मांगो!
हां, शक्ति दे और नये शिखर दे!
पैरों में बल दे और कभी ऐसी घड़ी न आए कि चलने को कोई स्थान न रह जाए!
नये तल चैतन्य के छूते चलो!
आगे ही आगे जाना है!
तुम कहोगे, हम तो यही सोचते थे कि जल्दी ही पड़ावआ जाएगा, कहीं रुक जाएंगे।
तुम्हारी रुकने की इतनी आकांक्षा क्यों है?
तुम्हारी रुकने की आकांक्षा में ही ईश्वर का विरोध छिपा है!
ईश्वर अब तक नहीं रुका, तुम रुकना चाहते हो!
ईश्वर अभी भी बीज में अंकुर तोड़ेगा, वृक्ष में फूल
लगाएगा।
अभी भी तारे बनाए चला जाता है नये!
अभी भी झरने बहाए चला जाता है!
अभी भी मेघ बनेंगे और बरसेंगे!
ईश्वर थका नहीं, चलता चला जाता है!
जो सदा चलता चला जाता है--सदा, सदैव--उसी को तो हम
ईश्वर कहते हैं। जो थक जाता है, चुक जाता है, जिसकी सीमा आ जाती है--वही तो मन है; जो जल्दी ही
बैठ जाना चाहता है; जो कहता है: बस, बहुत
हो गया...!
इस सीमा को तोड़ो!
परमात्मा के साथ चलना हो तो अनंत की यात्रा है। और जिस दिन तुम्हें यह
समझ में आएगा, उस दिन तुम पाओगे: मंजिल नहीं है; यात्रा ही मंजिल है; हर कदम मंजिल है। तब तुम आनंद
से नाचोगे भी, अहोभाव से गीत भी गाओगे; लेकिन बैठकर मुर्दा चट्टान की तरह न हो जाओगे, चलते
ही रहोगे।
और-और नये फूल लगने हैं तुम में अभी!
तुम्हें अपनी ही सम्भावनाओं का कुछ पता नहीं। तुम्हें अपने ही होने का
कुछ पता नहीं कि तुम कितने हो सकते हो!
"एक मौज मचल जाए तो तूफां बन जाए!'
एक छोटी-सी लहर भी, अगर मचल जए...
"एक छोटी-सी लहर भी, अगर मचल
जाए'...क्योंकि छोटी-सी लहर में सागर भी छिपा है।
"एक फूल अगर चाहे गुलिस्तां बन जाए!'
एक छोटा-सा फूल सारी पृथ्वी
को फूलों से भर सकता है।
एक बीज सारी पृथ्वी को हरा कर सकता है, फैलता चला जाए...एक
बीज में करोड़ बीज लगते हैं; करोड़ों बीजों में और करोड़ों बीज
लगेंगे!
एक बीज मिल जाए पृथ्वी को तो सारी पृथ्वी हरी हो सकती है।
"एक मौज मचल जाए तो तूफां बन जाए
एक फूल अगर चाहे तो गुलिस्तां बन जाए।
एक खून के कतरे में है तासीर इतनी
एक कौम की तारीख का उनमां बन जाए'!
एक छोटे से खून के कतरे में इतना छिपा है कि एक पूरी जाति के जीवन का
शीर्षक बन जाए, इतिहास का शीर्षक बन जाए।
तुम्हें अपने होने का पता नहीं, तुम कौन हो! तुमने
जहां अपने को पाया है, वह तुम्हारे भवन की सीढ़ियां हैं;
तुम अपने भवन में अभी प्रविष्ट भी नहीं हुए। तुम जहां ठहर गए हो,
वहां तो द्वार भी नहीं है, सीढ़ियां ही हैं;
तुमने भवन में प्रवेश भी नहीं किया।
तुम इस किनारे पर बैठ गए हो, जिसको तुम संसार कहते
हो। और अगर कभी तुम्हें कोई जगा देता है इस किनारे से--ऐसे तो तुम जागते नहीं
आसानी से; ऐसे तो तुम बड़ी बाधाएं डालते हो; ऐसे तो तुम चेष्टा करते हो, हर उपाय करते हो कि
तुम्हारी नींद न टूट जाए--जो तुम्हारी नींद तोड़ता है वह दुश्मन जैसा मालूम पड़ता
है।
लेकिन बुद्ध और क्राइस्ट और कृष्ण जैसे लोग तुम्हारे पीदे पड़े ही रहें, तो तुम आंख खोलते हो। तो तत्क्षण तुम पूछते हो कि दूसरा किनारा कितनी दूर
है, ताकि तुम उस किनारे सो जाओ। यहां से तुम हटाए जाओ तो
जल्दी ही तुम दूसरे किनारे को यही किनारा बना लेना चाहते हो। जड़ होने की तुम्हारी
आदत बड़ी गहरी है।
जड़ता का मोह मंजिल की तलाश है।
चैतन्य तो प्रवाह है, यात्रा है। चैतन्य की कोई मंजिल
नहीं।
पत्थर ठहर जाता है;
फूल कैसे ठहरे!
फूल को तो जाना है, और होना है!
फूल को तो करोड़ फूल होना है, अरब फूल होना है!
एक फूल को तो सारे विश्व पर फैल जाना है!
फूल रुके कैसे!
फूल एक यात्रा है, मंजिल नहीं।
पत्थर पड़ा है!
फूल खिलते हैं, मुरझा जाते हैं;
आते हैं, जाते हैं;
रुकते हैं क्षण-भर पत्थर के पास, फिर यात्रा पर निकल
जाते हैं!
पत्थर अपनी जगह पड़ा है!
यह जड़ता ही सांसारिक मन है।
तुमसे इस किनारे को छुड़ाने का सवाल नहीं है, तुमसे किनारा ही छुड़ाने का सवाल है।
इसे मुझे दोहराने दो।
इस किनारे को छुड़ाने का सवाल नहीं है। तुमसे दुकान नहीं छुड़ानी है; क्योंकि तुम मकान छोड़ दोगे तो मंदिर पकड़ लोगे। तुम खाता-बही छोड़ दोगे तो
तुम वेद-कुरान-गीता पकड़ लोगे। तुमसे यह नहीं छुड़ाना है, नहीं
तो तुम वह पकड़ लोगे। तुमसे पकड़ छुड़ानी है। तुमसे किनारा नहीं छुड़ाना है, तुम्हारी जड़ता छुड़ानी है यह बैठ जाने का ढंग छुड़ाना है--
ताकि तुम्हें प्रवाह होना आ जाए!
ताकि तुम गत्यात्मक हो जाओ!
ताकि बहने में ही तुम्हारी मंजिल हो!
रुकना तुम भूल जाओ!
तुम चलते ही रहो!
धीरे-धीरे अगर तुम ठीक से चलने की कला सीख जाओ तो तुम मिट जाओगे, चलना ही रह जाएगा। तुम भी इसीलिए हो, क्योंकि तुम
बैठ जाते हो।
इसे कभी तुमने खयाल किया? तुम कभी तेजी से दौड़े?
अगर तुम तेजी से दौड़ो तो तुम मिट जाते हो, दौड़ना
रह जाता है।
तुम कभी परिपूर्ण रूप से नाचे? अगर तुम समग्रता से
नाच उठो तो तुम मिट जाते हो, नाच रह जाता है।
जब भी तुम गत्यात्मक होते हो, "डायनेमिक'
होते हो, तब तुम्हारा अहंकार मिट जाता है।
जहां तुम बैठे कि अहंकार आया।
जहां तुम रुके कि अहंकार आया।
जहां तुमने किनारा पकड़ा कि अहंकार आया।
जहां तुमने कहा कि बस आ गए, कि अहंकार आया।
जीवन अगर तुम्हारा पूरा गत्यात्मक हो और तुम बैठने की आदत छोड़
जाओ...अगर तुम कभी बैठो भी इसीलिए कि चलने की तैयारी करते हो।
कभी-कभी बीज भी विश्राम करता है, बसंत की प्रतीक्षा
करता है, महीनों पड़ा रहता है। जब बीज विश्राम करता है तो
कंकड़-पत्थर में और बीज में फर्क करना मुश्किल होगा--लेकिन फर्क तो है।
कंकड़-पत्थर विश्राम ही करते हैं, कहीं जाते नहीं। बीज
कहीं जाने के लिए तैयारी कर रहा है; साज-सामान जुटा रहा है;
ठीक समय और अनुकूल अवसर की बाट जोह रहा है; जाने
को तत्पर है।
जैसे कभी दौड़ की प्रतियोगिता में तुमने देखा हो, दौड़नेवाले लोग खड़े हाते हैं लकीर पर, लेकिन खड़े नहीं
हाते, भागे-खड़े हाते हैं। घण्टी बजेगी या विसिल बजेगी,
और वे दौड़ पड़ेंगे। बिलकुल तत्पर होते हैं! अगर तुम उन्हें देखो तो
तुम यह न कह सकोगे कि वे खड़े हैं। तुम कहोगे, वे अब गए,
अब गए! वे प्रतीक्षा में हैं, रोआं-रोआं तैयार
है, क्योंकि एक क्षण भी चूकना खतरनाक है।
फूल और कंकड़ जब पास रखे हों तब भी फूल का जो बीज है वह ऐसे ही खड़ा है
जैसे दौड़ाक, या तैराक तैरने के लिए तत्पर हों; सिर्फ प्रतीक्षा है ठीक मुहूर्त की, और दौड़ जाएंगे।
कंकड़ वहीं पड़ा रह जाएगा, बीज यात्रा पर निकल जाएगा।
तुम अगर कभी रुको भी तो सिर्फ थकान मिटा लेने को। कोई पड़ाव तुम्हारी
मंजिल न बने! रातभर रुके और सुबह चल पड़े। यह जीवंत धारा ही परमात्मा का अनुभव है।
तो अगर तुम्हें मुझे ठीक-ठीक समझना हो तो तुम तृप्ति और अतृप्ति के
संयम में और संयोग में और संगीत में ही समझ पाओगे। मैं तुम्हें तृप्ति भी
दूंगा...तुम्हारे पुराने दुख छिनेंगे; तुम्हें नये दुख भी
दूंगा। तुम्हारी पूरी पुरानी पीड़ाएं गिर जाएंगी। तुम्हें नये दर्द भी दूंगा,
ताकि तुम उन नये दर्दों को मिटाने में और नये-नये कदम उठाओ।
परमात्मा प्राप्ति नहीं अकेली, पीड़ा भी है। जिसने
ऐसा जाना, उसके लिए हर कदम मंजिल हो जाता है।
और तुम अगर गौर से देखोगे तो तुम परमात्मा को हर जगह गत्यात्मक पाओगे।
लेकिन तुमने झूठे परमात्मा खड़े किए हैं। मंदिरों में पत्थरों की मूर्तियां बना ली
हैं, वे ठहरी हैं वहीं की वहीं। उनसे तो तुम्हीं थोड़े
ज्यादा परमात्मा हो। चलते तो हो; उठते-डोलते तो हो; तुम्हारे जीवन में कुछ गीत तो है--सुबह कहीं, सांझ
कहीं! मंदिर का तुम्हारा भगवान तो वहीं का वहीं पड़ा है।
अच्छा हो कि तुम फूलों को पूजो! लेकिन तुम उलटे आदमी हो। तुम
जिंदा फूलों को तोड़कर मुर्दा परमात्माओं
के चरणों में रख आते हो। इससे तो अच्छा होता कि अपने मुर्दा परमात्मा को उठा कर
फूलों के चरणों में रख देते।
गति को पूजो, अगति को नहीं!
अगति जड़ता है।
प्रवाह को पूजो, पत्थरों को नहीं!
लेकिन पत्थर से तुम्हारा रास बैठ जाता है, क्योंकि तुम जड़ हो। तुमने अकारण ही पत्थर के भगवान नहीं बना लिए हैं;
वे तुम्हारी जड़ता के सूचक हैं, सबूत हैं।
तुमने अपनी ही छवि में उनको ढाल लिया है। तुमने अपनी ही प्रतिमाएं गढ़ जी
हैं--तुमसे भी ज्यादा मुर्दा!
थोड़ा पहचानो! थोड़ा जागो!
गत्यात्मक को पूजो!
देखो! चांद चलता है, सूरज चलता है, तारे चलते हैं। कुछ ठहरा हुआ नहीं है!
इस जीवन को अगर तुम गौर से देखोगे तो कुछ ठहरी हुई कोई भी चीज न
पाओगे। यहां सब चल रहा है।
तुम इतनी जल्दी में क्यों हो ठहर जाने की?
यह ठहर जाने की आकांक्षा आत्मघाती है, सुसाइडज है। तुम मरना
चाहते हो।
जियो! हिम्मत करो जीने की! और जितनी तुम्हारी हिम्मत बढ़ेगी जीने की
उतना बड़ा जीवन तुम्हें उपलब्ध होगा--उसका अर्थ है, उतनी बड़ी चुनौती आएगी;
उतनी पीड़ा उतरेगी; उतने बड़े पहाड़ों को चढ़ने का
अवसर मिलेगा।
और यह अवसर कभी समाप्त नहीं होता। यह समाप्त हो जाता तो दुर्भाग्य था।
क्योंकि अगर ऐसी घड़ी आ जाए जहां तुम उस किनारे को पा लो तो फिर क्या करोगे?
बर्ट्रेंड रसेल ने मजाक में ही कहीं कहा है कि मैं हिंदुओ के मोक्ष से
डरता हूं: "सब पा लिया!' फिर? फिर
क्या करोगे?
रसेल गत्यात्मक व्यक्ति था; मुर्दा परमात्मा से,
मुर्दा मोक्ष से डरे, स्वाभाविक है।
मोक्ष लेकिन मुर्दा नहीं है। जिन्होंने मोक्ष को मुर्दा बना लिया वे
खुद मुर्दा होंगे, तो उन्होंने अपनी प्रतिछवि आरोपित कर ली है।
सागर की लहरें टकराती ही रहती हैं--अनंत काल से, अनंत काल तक। ऐसे ही चैतन्य का सागर लहराता ही रहता है।
बुद्ध ने तो कहा, "है' शब्द
झूठा है। तुम कहते हो, नदी है। बुद्ध कहते हैं, नदी हो रही है, बह रही है; है
नहीं। "है' शब्द झूठा है। तुम कहते हो, वृक्ष है। जब तुमने कहा, वृक्ष है, तभी वृक्ष में कुछ नयी कोंपलें आ गईं; कुछ पुराने
पत्ते झड़ गए। तुम्हारे कहते-कहते ही तुम्हारा वक्तव्य झूठा हो गया; वृक्ष थोड़ा ऊपर छलांग लगा गया; नयी जड़ें फूट आईं।
"है' की अवस्था में ही तो
कुछ भी नहीं है। ठहरा हुआ तो कुछ भी नहीं है।
तुम घड़ीभर मुझे सुनोगे, घड़ीभर बूढ़े हो गए। आए
थे, तुम वैसे ही वापस न जाओगे। चाहे तुम न समझ पाओ, लेकिन गंगा बहुत बह गई! सब बदल गया! तुम ही नहीं बदल रहे हो, सारा संसार बदल रहा है।
गति जीवन है। और परमात्मा महाजीवन है तो महागति है ।
तो मैं तुम्हें भी तृप्ति दूंगा, इसीलिए ताकि तुम्हें
और अतृप्ति दे सकूं। मैं तुमसे क्षुद्र की तृप्ति छीन लूंगा और विराट की अतृप्ति
दूंगा। मैं तुमसे व्यर्थ की तृप्ति और व्यर्थ की अतृप्ति छीन लूंगा, और सार्थक की तृप्ति और सार्थक की अतृप्ति दूंगा। संसार के दुख तुमसे छीन
लिए जाएंगे; तुम्हें परमात्मा की पीड़ा दूंगा।
पीड़ा भी ठीक और गलत होती है।
एक आदमी रो रहा है, उसका एक रुपया खो गया है,
यह क्षुद्र की पीड़ा है। यह हो तो भी ठीक नहीं। इसका रुपया भी मिल
जाए तो भी क्या तृप्ति मिलनेवाली है! क्षुद्र की ही पीड़ा थी, क्षुद्र की ही तृप्ति होगी। यह अभागा आदमी है। रुपया खो गया है, इसलिए रो रहा है। फिर किसी को समझ में आई कि मैं खुद ही खो गया हूं,
मेरा ही कुछ पता नहीं चलता, कहां हूं।
"कहां हूं'--अपने को खोजने लगा। बड़ी पीड़ा उठेगी। रुपये
की पीड़ा बहुत बड़ी न थी, कोई भी हल कर देता; राह चलता कोई भी राहगीर एक रुपया दया करके दे देता। अब एक ऐसी पीड़ा उठी
तुम्ह, जो कोई भी हल न कर पाएगा। अब एक ऐसी पीड़ा उठी जो
तुम्हें ही हल करनी पड़ेगी। संसार का कोई सिक्का इसे हल न कर पाएगा। फिर किसी दिन
इसकी भी झलक मिलनी शुरू हो जाती है कि मैं कौन हूं। तब एक और नयी पीड़ा उठती है कि
यह विराट क्या है! अपने को जान लिया, इतने से क्या होगा--यह
बड़ा सागर क्या है! बूंद की पहचान से क्या होगा! अभी बूंद को जान भी न पाए थे कि
सागर की जिज्ञासा उठने लगी। अभी बूंद को पहचान भी न पाए थे कि सागर ने द्वार पर
दस्तक दी कि बैठ मत जाना।
और मैं तुमसे कहता हूं: और भी बड़े सागर हैं। एक को चुकाओगे, दूसरा द्वार खुलेगा। एक द्वार निपटता नहीं कि नए द्वार खुल जाते हैं।
तो मेरे साथ तो केवल वे ही चल सकते हैं, तो तृप्ति और अतृप्ति
दोनों को साथ-साथ लेने को तैयार हैं, जो मंझधार में जीने को
तैयार है। और इसे ही मैं परमात्मा-जीवन कहता हूं। ऐसे जीवन के धारक को ही मैं
संन्यस्त कहता हूं। तुम उसे तृप्ति पाओगे; और जहां तक उसे
आत्यंतिक की, अंतिम की पुकार है, तुम
उसे बड़ा अतृप्त पाओगे। एक दिव्य असंतोष उसमें तुम जलता हुआ पाओगे। संसार की तरफ से
तुम उसमें पाओगे: बड़ी तृप्ति, सब मिला हुआ है! और परमात्मा
की तरफ से पाओगे: बड़ी अतृप्ति, कुछ भी मिला हुआ नहीं है!
इसलिए तुम्हें दोनों बातें लगेंगी। कभी लगेगा, बहुत-बहुत पाया मेरे पास; और कभी लगेगा, बहुत-बहुत चूके। दोनों ही ठीक है। और तुम दोनों के साथ ही राजी रहना,
तो ही मेरे साथ, मेरे हाथ में हाथ डालकर चल
सकोगे।
दूसरा प्रश्न: आपने कहा...तब पाओगे कि भक्त ही
भगवान है। प्रश्न उठता है कि एक भक्त भगवान होना पसंद करे और दूसरा सिर्फ भक्त
रहना चाहे, तो दोनों में श्रेष्ठ कौन है?
जो भगवान होना चाहेख वह तो हो न पाएगा। और जो भक्त ही रहना चाहे वह
भगवान हो जाएगा। श्रेष्ठ-अश्रेष्ठ का सवाल नहीं उठता, क्योंकि एक ही हो पाएगा। जो नहीं होना चाहता वही हो पाएगा। जो होना चाहता
है, वह तो वंचित रह जाएगा। वह तो चाह भी अहंकार की ही है।
लेकिन मामला थोड़ा नाजुक है।
कभी-कभी ऐसा होता है कि विनम्रता भी अहंकार की ही होती है। कहीं
तुम्हारी विनम्र्रता भी अहंकार की ही न हो। कहीं तुम इसलिए ही न कर रहे होओ कि मैं
नहीं होना चाहता, क्योंकि तुम जानते हो कि जो इनकार करते हैं वही हो
पाते हैं। तो तुम चालाक हो। तो तुम्हारी विनम्रता व्यभिचारी है। तो तुम्हारी
विनम्रता शुद्ध नहीं, पवित्र नहीं, कुंआरी
नहीं, वेश्या जैसी है।
जो भगवान होना चाहता है, जिसका यह अहंकार है
कि मुझे भगवान होना है, वह तो पा नहीं सकेगा। लेकिन जो इसलिए
विनम्र हो जाता है कि यही तरकीब है भगवान होने ही, वह भी न
पा सकेगा।
और तब एक और जाल की बात है, वही भी समझ लेनी
चाहिए। यह भी हो सकता है, जैसे कि विनम्र छिपाए हुए अहंकार
हो सकता है। अहंकारी के भीतर छिपी हुई विनम्रता भी हो सकती है। कोई बड़ी सहजता से
भी कह सकता है कि मैं भगवान होना चाहता हूं; इसमें "मैं'
की कोई बात ही न हो। यह जरा कठिन है समझना। इसमें "मैं'
का कोई भाव ही न हो; इसमें शुद्ध पुकार हो
अस्तित्व की; यह सीधी-सीधी बात हो; इसमें
कहीं "मैं' का कोई सवाल ही न हो; इसमें
ऐसे ही हो कि मैं चाहता हूं कि मुझमें भगवान हो; यह इतना ही
हो कि मैं इससे कम पर राजी नहीं हो सकता, "सब डुबाने को
तैयार हूं, सब गंवाने को तैयार हूं, लेकिन
जब तक भगवान की मेरे हृदय में वास न करे, जब तक वही मुझे भर
न दे, तब तक चैन नहीं'।
यह बड़ी गहरी प्यास हो सकती है; यह अहंकार हो ही
न...।
मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अहंकार न हो तो ही भक्त भगवान हो पाता है।
प्रगट-अप्रगट का सवाल नहीं है--वास्तविक विनम्रता हो।
कभी-कभी ऊपर से शब्द तो अहंकार के दिखाई पड़ते हैं, भीतर बड़ी विनम्रता होती है। और कभी-कभी ऊपर से शब्द तो बड़ी विनम्रता के
होते हैं, भीतर बड़ा अहंकार होता है।
इसे तुम भलीभांति खोज ले सकते हो अपने भीतर। दूसरे का कोई प्रयोजन भी
नहीं है। अपने भीतर तो तुम जान सकते हो कि तुम्हारी विनम्रता अहंकार का ही आभूषण
तो नहीं है, या तुम्हारा अहंकार केवल वक्तव्य की ही बात हो!
कृष्ण ने अर्जुन से कहा, "मामेकं शरणं
व्रज! तू मेरी शरण आ'। उस क्षण में, कृष्ण
में "मैं' जैसा कुछ भी नहीं था--"मैं' था ही नहीं। यह केवल वक्तव्य की बात थी, भाषा की बात
थी। कृष्ण के भीतर से परमात्मा बोला, "मैं' कुछ भी न था वहां।
कभी तुम कहते हो, "मैं तो कुछ भी नहीं,
आपके पैरों की धूल हूं'। लेकिन जरा गौर करना।
जिससे तुम कह रहे हो, वह अगर मान ले कि बिलकुल ठीक कह रहे
हैं आप, यह तो मैं पहले ही से जानता हूं कि आप कुछ भी नहीं,
पैरों की धूल हैं, तब एक धक्का लगेगा छाती में
कि अरे! चाट लगेगी। अहंकार पीड़ित हो उठेगा, फुफकार उठेगा।
तुम इस आदमी को कभी माफ नहीं कर पाओगे। क्योंकि यह जो कह रहा था, वह इसका प्रयोजन न था। यह तो असल में यह कह रहा था कि तुम कहो कि
"अरे आप, और पैर की धूल! आप तो सिर के ताज हैं!'
यह कहलवाने के लिए कह रहा था। यह चालाक है। यह होशियार है। यह गणित
समझता है।
तो तुम अपने भीतर जानना। दूसरे से कोई प्रयोजन भी नहीं है। दूसरे को
ठीक-ठीक समझ भी न पाओगे, क्योंकि दूसरे के शब्द ही सुनाई पड़ेंगे। उसके भीतर
क्या घट रहा है, तुम कैसे जानोगे? लेकिन
तुम अपने भीतर तो जांच कर ही ले सकते हो।
अगर तुम्हारी विनम्रता वास्तविक है, तो "मैं'
की उदघोषणा भी उसे मिटा न सकेगी। और अगर तुम्हारा अहंकार प्रगाढ़ है
तो "मैं आपके पैरों की धूल हूं', इस तरह का वक्तव्य उसे
नष्ट न कर सकेगा।
लेकिन भगवान वही हो पाते हैं जो "नहीं' हो जाते हैं।
और दोनों में कौन श्रेष्ठ है, यह तो पूछना ही मत।
क्योंकि दोनों कभी पहुंच ही नहीं पाते। एक ही पहुंचता है। वही पहुंचता है जिसकी
विनम्रता प्रामाणिक है। और प्रामाणिक विनम्रता का भाषा से कोई संबंध नहीं।
प्रामाणिक विनम्रता का हृदय से संबंध है, तुम्हारी अंतरानुभूति
से संबंध है,
"सूरते-नक्शे-रहगुज़र आजिजी इख्तियार कर
अर्श की रफअतों पै गर तुझको मुकाम चाहिए'।
अगर आकाश की ऊंचाइयों पर अपना मुकाम बनाना हो तो पदचिह्मों की भांति
विनम्र हो जा। लेकिन ध्यान रखना, इसीलिए मत पदचिह्मों की भांति
विनम्र हो जाना कि आकाश पर मुकाम चाहिए, नहीं तो चूक जाओगे।
आकाश पर मुकाम चाहने की तो बात ही न हो। पृथ्वी पर पदचिह्मों की भांति हो जाना,
आकाश पर मुकाम अपने से हो जाता है।
जो मिट जाते हैं, वे हो जाते हैं। जो अपने को छोड़
देते हैं, वे बच जाते हैं। मृत्यु यहां जीवन का सूत्र है और
मिट जाना पा लेने की कला है।
तीसरा प्रश्न: "भक्त्या अनुवृत्या' ऐसा कहा है, तो भक्ति साकार ही होनी चाहिए। सूर्य
सूर्यलोक में साकार ही है, वैसे ही भगवान भी साकार क्यों
नहीं?
किसने कहा, भगवान साकार नहीं है?
सभी आकार उसी के हैं। भगवान का कोई आकार नहीं है। तुम भगवान का आकार
खोज रहे हो, इसलिए सवाल उठता है कि भगवान साकार क्यों नहीं।
वृक्ष में भगवान वृक्ष है, पक्षी में पक्षी है,
झरने में झरना है, आदमी में इादमी है, पत्थर में पत्थर है, फूल में फूल है। तुम भगवान का
आकार खोज रहे हो, तो चूकते चले जाओगे।
सभी आकार जिसके हैं, उसका अपना कोई आकार नहीं हो
सकता। अब यह बड़े मजे की बात है। इसका अर्थ हुआ कि सभी आकार जिसके हैं, वह स्वयं निराकार ही हो सकता है। यह जरा उलटी लगती है बात, सभी आकार जिसके हैं वह निराकार!
सभी नाम जिसके हैं उसका अपना नाम कैसे होगा? जिसका अपना नाम है उसके सभी नाम नहीं हो सकते। सभी रूपों से जो झलका है
उसका अपना रूप नहीं हो सकता। जो सब जगह है उसे एक जगह खोजने की कोशिश करोगे तो चूक
जाओगे। सब जगह होने का एक ही ढंग है कि वह कहीं भी न हो। अगर कहीं होगा तो सब जगह
न हो सकेगा। कहीं होने का अर्थ है: सीमा होगी। सब जगह होने का अर्थ है: कोई सीमा न
होगी।
तो परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है। परमात्मा सभी के भीतर बहती जीवन की
धार है। वृक्ष में हरे रंग की धार है जीवन की! वृक्ष आकाश की तरफ उठ रहा है--वह
उठान परमात्मा है। वृक्ष छिपे हुए बीज से प्रगट हो रहा है--वह प्रगट होना परमात्मा
है।
परमात्मा अस्तित्व का नाम है।
परमात्मा ऐसा नहीं है जैसे पत्थर है। परमात्मा ऐसे नहीं है जैसे तुम
हो। परमात्मा ऐसा नहीं जैसे कि चांदत्तारे हैं। परमात्मा किसी जैसा नहीं, क्योंकि फिर सीमा हो जाएगी।
अगर परमात्मा तुम जैसा हो, पुरुष जैसा हो,
तो फिर स्त्री में कौन होगा? स्त्री जैसा हो
तो पुरुष वंचित रहा जाएगा। मनुष्य जैसा हो तो पशुओं में कौन होगा? और पशुओं जैसा हो तो पौधों में कौन होगा?
इसे समझने की कोशिश करो।
परमात्मा जीवन का विशाल सागर है। हम सब उसके रूप हैं, तरगें हैं। हमारे हजार ढंग हैं। हमारे हजारों ढंगों में वह मौजूद है। और
ध्यान रहे कि हमारे ढंग पर ही वह समाप्त नहीं है; वह और ढंग
ले सकता है। वह कभी भी ढंगों पर समाप्त नहीं होगा। उसकी संभावना अनंत है। तुम ऐसी
कोई स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते, जहां परमात्मा पूरा-पूरा
प्रगट हो गया हो। कितना ही प्रगट होता चला जाए, अनंत रूप से
प्रगट होने को शेष है।
इसलिए तो उपनिषद कहते हैं, उस पूर्ण से हम पूर्ण
का भी निकल लें तो भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। हम कितना ही निकलते चले जाएं,
हमारे निकालने से कुछ कमी नहीं पड़ती। हमारे निकलने से वह कुछ छोटा
नहीं होता जाता--पूर्ण का पूर्ण ही शेष रहता है।
पूछा है, "भक्ति साकार ही होनी चाहिए'।
भक्ति तो साकार है; लेकिन भगवान साकार नहीं है।
क्योंकि भक्ति का संबंध भक्त से है, भगवान से नहीं है। भक्त
साकार है, तो भक्ति साकार है। लेकिन भक्ति अंतिम परिणाम
भगवान है। प्रथम तो यात्रा शुरू होती है भक्त से, अंतिम
उपलब्धि होती है भगवान पर। शुरू तो भक्त करता है, पूर्णता
भगवान करता है। प्रयत्न तो भक्त करता है, प्रसाद भगवान देता
है।
तुम शुरू करनेवाले हो, पूरे करनेवाले तुम
नहीं हो--पूरा परमात्मा करेगा।
तो, भक्ति के दो अर्थ हो जाएंगे: जब भक्त शुरू करता है तो
वह साकार होती है; फिर जैसे-जैसे भगवान भक्त में उतरने लगता
है, निराकार होने लगती है। जब भक्त पूरा मिट जाता है,
भक्ति शून्य हो जाती है, निराकार हो जाती है।
फिर तुम भक्त को बैठकर मंदिर में घंटी बजाते न देखोगे। फिर अहर्निश उसके प्राणों
की धक-धक ही उसकी घंटी है। फिर तुम भक्त को राम-राम चिल्लाते न देखोगे, क्योंकि अब भक्त जो भी सोचे, वही राम-राम है। अब तुम
भक्त को तिलक-टीका लगाते न देखोगे; अब तो भक्त ही स्वयं
तिलक-टीका हो गया; वह स्वयं लग गया। अब अपना कुछ बचा नहीं।
अब तुम भक्त को मंदिर जाते न देखोगे। हां, अगर तुम्हारे पास
आंखें हों तो मंदिर को भक्त के पास आते देखोगे। अब तुम भक्त को भगवान को पुकारते न
देखोगे; अगर तुम्हारे पास सुननेवाले कान हों तो तुम भगवान को
देखोगे कि पुकार रहा है भक्त को।
भक्त ने शुरू की थी यात्रा, भगवाान ने पूरी की।
तुम एक हाथ बढ़ाओ, दूसरा हाथ उस तरफ से आता है। इस तरह का हाथ
साकार है, उस तरह का हाथ निराकार है। इसलिए तुम जिद्द मत
करना कि उस तरफ का हाथ भी साकार हो, अन्यथा झूठा हाथ
तुम्हारे हाथ में पड़ जाएगा। फिर तुम्हारे ही दोनों हाथ होंगे। इधर से भी तुम्हारा,
उधर से भी तुम्हारा।
उधर से आनेवाला हाथ तो निराकार है, निर्गुण है। निर्गुण
का यह मतलब नहीं है कि परमात्मा में कोई गुण नहीं है। निर्गुण का इतना ही मतलब है
कि सभी गुण उसके हैं। इसलिए कोई विशेष गुण उसका नहीं हो सकता।
निराकार का यह अर्थ नहीं कि उसका कोई आकार नहीं है;सभी
आकार जो कभी हुए, जो हैं, और जो कभी
होंगे, उसी के हैं। तरज हैं! सभी आकारों में ढल जाता है।
किसी आकार में कोई अड़चन नहीं पाता।
भक्त की तरफ से तो भक्ति साकार होगी, लेकिन जैसे-जैसे भक्त
परमात्मा के करीब पहुंचेगा वैसे-वैसे निराकार होने लगेगी। और एक पड़ाव ऐसा आता है,
जहां भक्त की तरफ से सब प्रयास समाप्त हो जाते हैं। क्योंकि प्रयास
भी अहंकार है। मैं कुछ करूंगा तो परमात्मा मिलेगा, इसका तो
अर्थ हुआ कि मेरे करने पर उसका मिलना निर्भर है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि यह भी एक
तरह की कमाई है। इसका तो यह अर्थ हुआ कि अगर मैंने सिक्के मौजूद कर दिए तो मैं
उसको वैसे ही खरीद कर ले आऊंगा जैसे बाजार से किसी और सामान को खरीदकर ले आता
हूं--पुण्य के सिक्के सही, भक्ति-भाव के सिक्के सही।
नहीं, ऐसा नहीं है। मैं सब भी पूरा कर दूं तो भी उसके होने
की अनिवार्यता नहीं है। मेरे सब करने पर भी वह नहीं मिलेगा, जब
तक कि मेरा "करने वाला' मौजूद है।
तो भक्त पहले करने से शुरू करता है। बहुत करता है, बहुत रोता है, बहुत नाचता है, बहुत
याद करता है, बहुत तड़फता है; फिर
धीरे-धीरे उसे समझ में आता है कि मेरी तड़फन में भी मेरी अस्मिता छिपी है; मेरी पुकार में भी मेरा अहंकार है; मेरे भजन में भी
मैं हूं; मेरे कीर्तन में भी मेरी छाप है; कर्तृत्व मौजूद है!
जिस दिन यह समझ आती है उस दिन भक्त मिट जाता है; उस दिन जैसे किसी ने दर्पण गिरा दिया और कांच से टुकड़े-टुकड़े हो गए;
उस दिन भक्त नहीं रह जाता।
जिस दिन भक्त नहीं रह जाता, भक्ति कौन करे! कौन
मंदिर जाए! कौन मंत्रोच्चार करे! कौन विधि-विधान पूरा करे! एक गहन सन्नाटा घेर
लेता है! उसी सन्नाटे में दूसरा हाथ उतरता है।
तुम मिटे नहीं कि परमात्मा आया नहीं! तुमने सिंहासन खाली किया कि वह
उतरा! तुम्हारी शून्यता में ही उसके आगमन की संभावना है।
भक्ति तो साकार है; भगवान निराकार है। और भक्त के
संबंध में हम क्या कहें? भक्त अपने को साकार समझता है,
वह उसकी भ्रांति है; जिस दिन जानेगा, अपने को भी निराकार पाएगा। भक्त अपने को भक्त समझता है, यह भी उसकी भ्रांति है; जिस दिन जानेगा उस दिन अपने
को भगवान पाएगा।
सब आकार स्वप्नवत हैं। निराकार सत्य है; आकार स्वप्न है।
लेकिन हम जहां खड़े हैं, वहां आकारों का जगत है। हम अभी
स्वप्न में ही पड़े हैं। हमें तो जागना भी होगा तो स्वप्न में ही थोड़ी यात्रा करनी
पड़ेगी।
भक्ति साकार ही होनी चाहिए--होती ही है। निराकार भक्ति हो नहीं सकती, क्योंकि निराकार में करने को क्या रह जाता है, करनेवाला
नहीं रह जाता!
भक्ति तो साकार ही होगी, लेकिन भगवान निराकार
है। इसलिए एक न एक दिन भक्ति भी जानी चाहिए। भक्ति की पूर्णता पर भक्ति भी चली
जाती है। प्रार्थना जब पूर्ण होती है तो प्रार्थना भी चली जाती है। ध्यान जब पूर्ण
होता है तो ध्यान भी व्यर्थ हो जाता है--हो ही जाना चाहिए। जो चीज भी पूर्ण हो
जाती है वह व्यर्थ हो जाती है। जब तक अधूरी है तब तक ठीक है--मंदिर जाना होगा,
पूजा कारनी होगी। करना, लेकिन याद रखना,
कहीं यह न भूल जाए कि यह सिर्फ शुरुआत है। यह जीवन की पाठशाला की
शुरुआत है, अंत नहीं है। यह बारहखड़ी है, क ख ग है।
छोटे बच्चों की किताबें देखी हैं। कुछ भी समझाना हो तो चित्र बनाने
पड़ते हैं, क्योंकि छोटा बच्चा चित्र ही समझ सकता है। आम तो छोटे
में लिखो, आम का बड़ा चित्र बनाओ। पूरा पन्ना आम के चित्र से
भरो, कोने में आम लिखो। क्योंकि पहले यह चित्र देखेगा,
तब वह शब्द को समझेगा।
ऐसा ही भक्त है। भगवान! "भगवान' तो कोने में रखो,
बड़ी मूर्ति बनाओ, खूब सजाओ। अभी भक्त बच्चा
है। अभी उस खाली कोने में जो भगवान है वह उसे दिखाई न पड़ेगा।
तुमने कभी गौर किया? मंदिर गए हो? जहां मूर्ति है वहां तो भगवान हैं; लेकिन खाली जगह
तो मूर्ति को घेरे हुए है, वहां भगवान दिखाई पड़ा? वहां भी भगवान हैं; तुम्हें नहीं दिखाई पड़ा, क्योंकि तुम्हें मूर्ति चाहिए। बचपना है अभी! मंदिर में भगवान दिखाई पड़ा;
मंदिर के बाहर कौन है? मंदिर की दीवालों को
कौन छू रहा है? सूरज की किरणों में किसने मंदिर की दीवालों
पर थाप ही है? हवाओं में कौन मंदिर के आसपास लहरें ले रहा है?
मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ाते हुए भक्तों के भीतर कौन सीढ़ियां चढ़ रहा
है? वहां तुम्हें अभी नहीं दिखाई पड़ा। अभी बचकाना है मन। अभी
चित्र चाहिए, मूर्ति चाहिए।
साकार से शुरुआत करनी होतीह है, लेकिन साकार पर रुक
मत जाना। मैं यह नहीं कहता हूं कि साकार की शुरुआत ही मत करना। नहीं तो बच्चा भाषा
कभी सीखेगा ही नहीं। वह सीखने का ढंग है, बिलकुल जरूरी है।
अड़चन वहां शुरू होती है जहां तुम पहले पाठ को ही अंतिम पाठ समझ कर बैठ जाते हो।
सीख लेना और मुक्त हो जाना!
जो भी सीख लो, उससे मुक्ति हो जाती है।
आगे चलो!
मूर्ति में देख लिया--अब अमूर्त में देखो!
आकार में देख लिया--अब निराकार में देखो!
शब्द में सुन लिया--अब नि:शब्द में सुनो!
शास्त्र में पहचान लिया--अब मौन में, शून्य में चलो!
पर जल्दी भी मत करना। अगर मंदिर में ही न दिखा हो तो मंदिर के बाहर तो
दिख ही न सकेगा। जल्दी भी मत करना।
आदमी का मन अति पर बड़ी आसानी से चला जाता है।
तो इस देश में तो बड़ी अतियां हुईं। इसमें एक तरफ लोग हैं जो कहते हैं, परमात्मा निराकार है। वे किसी तरह की मूर्ति को बरदाश्त न करेंगे, किसी तरह की पूजा को बरदाश्त न करेंगे।
मुसलमानों ने यही रुख पकड़ लिया, तो मूर्तियों को तो॰?ने पर उतारू हो गए।
अब थोड़ा सोचो! पूजा के योग्य तो मूर्ति नहीं है, लेकिन तोड़ने के योग्य है! इतने में तो पूजा ही हो जाती। जब परमात्मा की
कोई मूर्ति ही नहीं है तो तोड़ने का भी क्या प्रयोजन? तोड़ने
में भी क्यों श्रम लगाते हो?
अति होती है: या तो पूजा करेंगे, या तोड़ेंगे।
समझ नहीं है अति के पास कोई।
तो एक तरफ हैं तो जिद्द किए जाते हैं कि परमात्मा निराकार है। ठीक
कहते हैं, बिलकुल ठीक ही कहते हैं, परमात्मा
निराकार है। लेकिन आदमी उस जगह नहीं है अभी, जहां से निराकार
से संबंध जुड़ सके। आदमी अभी निराकार के योग्य नहीं है। होगा बुद्ध के लिए, पर आदमी बुद्ध कहां? होगा महावीर के लिए, लेकिन किससे बातें कर रहे हो? जिससे बातें कर रहे हो,
उसकी भी तो सोचो। दया करों उस पर। तुम परम स्वस्थ लोगों की बातें
अस्पताल में पड़े बिमारों से कर रहे हो! बुद्ध को जरूरत नहीं है, लेकिन जिसको तुम समझा रहे हो, उसको? उस पर ध्यान करो, करुणा करो थोड़ी।
निराकार की बातें करनेवाले लोग बड़े दयाहीन हैं। करुणा उनके मन में जरा
भी नहीं है। इसलिए उनकी निराकार की बातें सब थोथी, पांडित्य हैं,
शास्त्रीय हैं।
फिर दूसरी तरफ साकार की बात करनेवाले लोग हैं, उनके मन में आदमी के प्रति दया तो है, लेकिन सत्य की
निष्ठा नहीं। ठीक कहते हैं, इस आदमी को ले जाना है। जिसका
सारा चित्त मूर्तियों से भरा है, जिसके चित्त में सब आकार ही
आकार हैं, उससे निराकार की अभी पहचान नहीं हो सकती, आकारों से ही संबंध जुड़ाना होगा, फिर धीरे-धीरे छुड़ा
लेंगे, सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ा लेंगे। छलांग न हो सकेगी, सीढ़ी-सीढ़ी यात्रा हो जाएगी।
ठीक कहते हैं कि परमात्मा साकार है। लेकिन फिर जिद्द पैदा होती है।
फिर जिद्द यह पैदा होती है कि परमात्मा साकार है, यह कोई अंतिम सत्य
है। तो फिर लोग मूर्तियों से ही बंधे रह जाते हैं। कुछ मूर्ति-भंजक हैं, मूर्तियां तोड़ने में जीवन गंवाते हैं; कुछ
मूर्ति-पूजक हैं, मूर्तियों को सजाने में जीवन गंवाते हैं।
मेरी तुम पूछते हो तो मैं तुमसे कहूंगा, मुझे दोनों की बातों
में सार है और दोनों की बातों में खतरा भी दिखाई पड़ता है। सार है दोनों की बातों
में और खतरा भी दोनों की बातों में। तुम सार-सार चुन लेना और खतरे से बच जाना।
मेरा कोई मजहब नहीं है, मेरा कोई सम्प्रदाय
नहीं है। इसलिए मुझे कोई अड़चन भी नहीं है; किसी से भी सत्य,
जहां भी सत्य हो, वहां देखने में मुझे कोई
अड़चन नहीं है। मेरा कोई आग्रह नहीं है। मेरे पास कोई कसौटी नहीं है जिस पर मैं
तौलूं। मैं सीधा देख पाता हूं।
जो साकार की बात कहते हैं, ठीक कहते हैं;
आधी मंजिल तक वे तुम्हारे साथ हो सकेंगे--बस आधी मंजिल तक! उसके बाद
निराकार की बात तुम्हारे लिए महत्वपूर्ण होने लगेगी। तब तुम घिरे मत रह जाना,
गिरफ्त में मत रह जाना। तब तुम यह मत कहना कि हम तो साकार की पूजा
करते रहे अब तक, हम आकार को भीतर न प्रवेश करने देंगे। आंख
बंद मत कर लेना जब निराकार पुकारे। यह मत कहना कि यह मेरी धारणा में नहीं है,
यह तो हमारा शास्त्र नहीं है, हम तो माननेवाले
साकार के हैं! आंख बंद मत कर लेना। पीठ मत फेर लेना। क्योंकि तुम्हारा साकार ही
वहां ले आया है; उसको तो तुम अपनी साकार की सफलता मानना कि
तुम्हारी पूजा पूरी हुई, तुम्हारी प्रार्थना सुनी गई। तो
तुमने फायदा भी ले लिया, तुम खतरे से भी बच गए।
साकार से तुम चलो, निराकार पर तुम पहुंचो!
ऐसा अगर तुम्हारे जीवन में संतुलन हो तो कोई खतरा नहीं है।
तो, दूसरी तरफ लोग हैं, वे कहते हैं,
"जब निराकार ही है आखिर में तो हम पहले से ही निराकार क्यों न
मानें? वे चल ही नहीं पाते। वे उन लंगड़े लोगों की तरह हैं जो
बैसाखियों का सहारा लेने को राजी नहीं।
तुमने देखा! पैर पर चोट लग गई हो, ऐक्सीडेंट हो गया हो,
तो डाक्टर कहता है, बैसाखियों का सहारा ले लो।
साल छह महीने बैसाखियों के सहारे चलो, फिर धीरे-धीरे शक्ति
वापस लौट आएगी। फिर धीरे-धीरे बैसाखियां छोड़ देना, पैरों पर
चलना।
तुम डाक्टर से यह नहीं कहते कि जब
आखिर पैरों से ही चलना है तो अभी से हम बैसाखियों से क्यों चलें? नहीं, हम बैसाखियां छुंएगे भी नहीं। तुम कहते हो,
"ठीक है, बैसाखियों का उपयोग कर लेंगे'।
सब धर्म तुम्हारे उपयोग के लिए हैं। तुम उनका उपयोग कर लेना और तुम
किसी के भी गुलाम मत बनना। कोई धारणा इतनी बड़ी न हो जाए कि सत्य को ओट कर ले।
प्रश्न चौथा: आशीर्वाद क्या है? और गुरु जब शिष्य के सिर पर हाथ धरता है, तब क्या
प्रेषित करता है? और क्या आशीर्वाद लेने की भी क्षमता होती
है?
आशीर्वाद गुरु तो अकारण देता है,बेशर्त देता है;
लेकिन तुम ले पाओगे या न ले पाओगे, यह तुम पर
निर्भर है। इतना ही काफी नहीं है कि कोई दे और तुम ले लो; तुम्हें
उसमें कुछ दिखाई भी पड़ना चाहिए, तभी तुम लोगे। वर्षा हो और
तुम छाते की ओट में छिपकर खड़े हो जाओ, तो तुम न भीगोगे।
आशीर्वाद बरसे, और तुम अहंकार की ओट में, अहंकार के छाते में छिप जाओ, तो तुम न भीगोगे। वर्षा
हो जाएगी, मेघ आएंगे, और चले जाएंगे
तुम सूखे रह जाओगे।
तो, तुम्हारी तैयारी चाहिए। तुम्हारा स्वीकार का भाव
चाहिए। ग्रहण करने की क्षमता चाहिए। चातक की भांति मुंह खोलकर आकाश की तरफ,
प्रार्थना से भरा हुआ हृदय चाहिए। स्वाति की बूंद तुम्हारे बंद मुंह
में न गिरेगी--मुंह खुला होना चाहिए, आकाश की तरफ उठा होना
चाहिए, प्रतीक्षातुर होना चाहिए, तो
ही...।
तो, जब तुम गुरु के पास झुको, तब
वस्तुतः झुकना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि सिर ही झुके और हृदय बिना झुका रह जाए,
तो आशीर्वाद बरस जाएगा...।
समझने की बात यह है कि गुरु यह नहीं कह रहा है कि तुम्हारी कोई
पात्रता होगी तो आशीर्वाद दूंगा; लेकिन तुम्हारी पात्रता न होगी
तो दिया आशीर्वाद तुम तक न पहुंच पाएगा, व्यर्थ चला जाएगा।
गुरु आशीर्वाद देता है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं;
गुरु से आशीर्वाद बरसता है, ऐसा ही कहना ठीक
है। जैसे दीए से रोशनी झरती है, फूल से गंध बहती है, ऐसा गुरु कुछ करता है, प्रेषित करता है, ऐसा नहीं; तुम्हें कुछ देता है विशेष रूप से,
ऐसा नहीं--झर ही रहा है। वह उसके होने का ढंग है। उसने कोई ऊंचाई
पाई है, जिस ऊंचाई से झरने नीचे की तरफ बहते ही रहते हैं।
अगर तुम तैयार हो तो तुम नहा लोगे। तुम अगर तैयार हो तो जन्मों-जन्मों की धूल बह
जाएगी उस स्नान में। तुम अगर तैयार हो तो तुम्हारे मार्ग के कांटे हट जाएंगे और
फूलों से भर जाएगा मार्ग।
लेकिन आशीर्वाद लेने की कला, झुकने की कला है। वह
अहंकार को हटाने की कला है। वह स्वीकार-भाव है! आस्तिकता है! श्रद्धा है! आस्था
है! प्रेम है!
तो पहली तो बात यह है कि गुरु देता है, ऐसा नहीं; गुरु आशीर्वाद का दान है, देता नहीं है। गुरु के
होने में ही समाया है...!
ऐसा भी मत समझना कि वह तुम्हारे लिए कुछ विशेष रूप से कर रहा है। कोई
भी न हो, एकांत में भी दीया जले, तो भी
रोशनी जलती रहती है, तो भी प्रकाश पड़ता रहता है। वीरान में,
निर्जन में फूल खिले, कोई राह से न निकले,
कोई नासापुट पास न आए, किसी को कभी कानों कान
खबर ही न होगी शायद, निर्जन में खिले फूल की किसको खबर होगी;
लेकिन सुगंध तो झरती ही रहेगी; सुगंध तो भरती
ही रहेगी हवाओं में; हवाओं पर पंख फैलाती रहेगी; सुगंध तो दूर-दूर की यात्रा पर निकलती ही रहेगी। फूल तो अपने को लुटा
देगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि कोई था या नहीं! किसी का होना न होना संयोग है।
फूल खिल गया है तो सुगंध का बिखरना नियति है।
गुरु वही है जिससे आशीर्वाद ऐसे ही बिखरता है, जैसे खिल गए फूल से गंध बिखरती है। संयोग की बात है कि कोई ले ले, झेल ले। संयोग की बात है कि कोई अपने नासापुटों को भर ले। संयोग की बात है
कि इन किरणों को कोई संभाल ले अपने हाथों में और अपने अंधेरे रास्ते पर चिराग जला
ले। यह संयोग की बात है।
आशीर्वाद दिया नहीं जााता; गुरु के होने का ढंग
आशीर्वाद है; वह प्रसादरूप है।
आशीर्वाद क्या है?
आशीर्वाद जैसे मैंने कहा, फूल जब खिलता है तो गंध
बिखरती है। गंध क्या है? बीज में छिपी थी, फूल में प्रकट हुई; बीज में बंद थी, फूल में खिली। लंबी यात्रा करनी पड़ी, बीज अंकुर बना;
कितनी कठिनाइयां थीं; कितने पत्थर-रोड़े थे राह
में बीज के, जमीन को फोड़कर ऊपर आया; कितना
कोमल था और कितना संघर्ष था; हजार उपद्रवों को झेलकर
बचा--वृक्ष बना, फूल खिले, गंध बिखरी!
गुरु: तुम्हारे भीतर जो कल होने वाला
है, तुम्हारा जो भविष्य है, वह गुरु
का वर्तमान है। तुम अगर बीज हो तो वह गंध हो गया है। तुम अगर बंद झरने हो, राह नहीं खोज पा रहे हो, तो वह सागर से मिल गया है।
वह तुम्हारा भविष्य है।
गुरु में तुम अपने होने की आखिरी संभावना का दर्शन पाते हो।
आशीर्वाद का अर्थ है: गुरु के सान्निध्य में तुम्हारे वर्तमान और
तुम्हारे भविष्य का मिलन होता है; तुम्हारा भविष्य तुम्हारे
वर्तमान पर झरता है।
गुरु माध्यम है--तुम जो नहीं हो अभी और हो सकते हो--उसकी खबर है। अगर
तुम ठीक से झुक जाओ तो उसका आशीर्वाद तुम्हारे लिए एक ऊर्ध्वयात्रा बन जाएगी। वह तुम्हारे ऊपर
उतरेगा, बरसेगा। जैसे आकाश से वर्षा होती है, जमीन में छिपे बीज तक पहुंचती है, ऐसा वह तुम तक
पहुंचेगा। आकाश से वर्षा होती है, जमीन में छिपे बीज तक
पहुंचती है और तत्क्षण बीज का अंकुरण फूट जाता है और बीज आकाश की तरफ उठने लगता
है।
आशीर्वाद में गुरु तुम तक पहुंचेगा; उतरेगा; उसका अस्तित्व तुम्हारे अस्तित्व को छुएगा; तुम्हारी
भूमि में, अंधेरे में दबे हुए बीज पर उसकी वर्षा होगी और
तत्क्षण तुम ऊपर की यात्रा पर निकल जाओगे।
आशीर्वाद का अर्थ है: गुरु ने तुम्हारे शून्य में, तुम्हारी रिक्तता में अपने को भरा, ताकि तुम्हारे
भीतर जो दबा पड़ा है, उसे पुकार मिल जाए, उसे आह्वान मिल जाए, चुनौती मिल जाए, सुगबुगाहट पैदा हो; तुम्हारे भीतर जो बीज है वह भी
अंकुरित होने लगे, उसे खबर मिल जाए कि मैं क्या हो सकता हूं!
इसलिए भक्ति-शास्त्र सत्संग की महिमा गाता है।
तुम करीब आओ, तुम झुको, तो गुरु तुम्हारे
करीब आ पाता है। तुम झुको तो वह तुम में उतर पाता है... अवतरण!
हर आशीर्वाद में परमात्मा अवतरित होता है। हर आशीर्वाद अवतार है।
हमने उन्हीं व्यक्तियों को अवतार कहा है जिनके कारण बहुत से
व्यक्तियों के भीतर, अनेकों के भीतर सोई हुई संभावनाएं सजग हो गईं,
वास्तविक बनीं। हमने उन्हीं व्यक्तियों को अवतार कहा है जो हमारे
भीतर उस गहराई तक उतर सके जहां तक हम भी नहीं पहुंच पाए और जिन्होंने हमारी
गहराइयों को छू दिया, तिलमिला दिया, जगा
दिया, जिन्होंने हमारी नींद तोड़ दी।
तो आशीर्वाद अवतरण है--ऊंचाइयों का, तुम्हारी गहराइयों
में; भविष्य का, तुम्हारे वर्तमान में;
संभावना का, तुम्हारी वास्तविकता में; तुम्हारे तथ्यों के जीवन में सत्य की पुकार है।
और आशीर्वाद अनूठी बात है, क्योंकि गुरु दिए जा
रहा है। उसे कुछ करना नहीं पड़ रहा है। कोई श्रम नहीं है जो उसे करना पड़ रहा है।
तुम न भी लोगे तो भी यह गंध हवाओं में लुटानी ही पड़ेगी। मेघ जब भर जाएंगे, तो बरसेंगे ही। बीज अंकुरित हों या न हों; मेघ जब भर
जाएंगे तो बरसेंगे ही--बरसना ही पड़ेगा।
तो गुरु मेघ है, बरस रहा है।
बुद्ध ने तो उस अवस्था को मेघ-समाधि कहा है--जब समाधि बरसती है। वही
गुरु की दशा है। जब समाधि बरसने लगती है--तब आशीर्वाद, तब प्रसाद!
पर तुम ले सको तो ही ले पाओगे।
झुकने की कला सीखो, मिटने की कला सीखो, तो तुम्हारे होने का सूत्रपात होता है।
पांचवां प्रश्न: कल के प्रवचन में अचानक कुछ घटा!
सुनते-सुनते ध्यान दो वाक्यों के बीच मौन पर केंद्रित हो गया और बड़ी गहरी और शीतल
शांति का अनुभव हुआ! प्रणाम स्वीकार करें!
शुभ हुआ! उस तरफ ज्यादा से ज्यादा ध्यान को ले जाएं, ताकि यह घटना केवल एक स्मृति न रह जाए, ताकि यह घटना
धीरे-धीरे तुम्हारे जीवन की शैली बन जाए!
जैसे दो शब्द के बीच में ध्यान रुका, ऐसे ही जीवन के हर
पहलू में जहां-जहां अभिव्यक्त्ति है, वहां-वहां दो
अभिव्यक्तियों के बीच में कहीं मोक्ष है।
रात और दिन अभिव्यक्तियां हैं। अगर तुम दिन से बंधे रहे तो रात से डरे
रहोगे। अगर रात से बंधे रहे तो दिन से परेशान रहोगे। रात और दिन के बीच में संध्या
का काल है। इसलिए तो हमने इस देश में संध्या को प्रार्थना का समय चुना है--बीच में, ठीक मध्य में!
दुकान से ही मत बंधे रहना और मंदिर से भी मत बंध जाना। मंदिर और दुकान
के बीच में कहीं संन्यास है। हर दो अभिव्यक्तियों और विरोधों, अतियों के बीच में मध्य में खोजते रहना, तो तुम्हारे
जीवन में संयम का फूल खिलेगा।
और यह घटना स्मृति न बन जाए, क्योंकि बहुत बार ऐसी
घटना घटती है। हम ऐसे अभागे हैं कि घट भी जाती है, झलक भी
मिल जाती है, तो भी झलक को गहराते नहीं। पकड़ में भी आ जाते
हैं सूत्र तो आ-आकर खो जाते हैं। कई बार तुम्हारे हाथ में आंचल आ गया है सत्य का
और छिटक गया है; तुम फिर झपकी लेने लगते हो, फिर याद भूल जाती है, फिर होश खो जाता है।
शुभ हुआ! सौभाग्य हुआ! प्रसाद का क्षण मिला! उसे गहराना। उसे जितना
ज्यादा जहां-जहां खोज सको, खोजना, ताकि धीरे-धीरे वह
तुम्हें हर जगह दिखाई पड़ने लगे। उसी शून्य और शांति से तुम्हें परमात्मा के पहले
दर्शन होंगे। उसी शून्य से निराकार का हाथ तुम तक आएगा। हाथ तैयार ही है आने को!
तुम बस जरा एक कदम चलो, परमात्मा हजार कदम तुम्हारी तरफ चलता
है।
आखिरी प्रश्नः एक परम्परा कहती है कि दवर्षि नारद परम मुक्ति को
उपलब्ध नहीं थे। दूसरी परम्परा उन्हें सप्तऋषि में एक मानती है, जिनका गुह्य और परोक्ष कार्य सदा चलता रहा है। क्या
6-भक्ति-सूत्र के रचयिता के व्यक्तित्व पर प्रकाश
डालने की
कृपा करेंगे?
जानकर ही नारद की कोई बात मैंने नहीं की। सोचकर की छोड़ा। क्योंकि भक्त
का कोई कर्तृत्व नहीं होता और न व्यक्तित्व होता है। भक्त तो एक मौन है, एक शून्य निवेदन है!
भक्त कुछ करता नहीं, इसलिए कोई कर्तृत्व नहीं होता।
भक्त तो एक आनंद है! एक गीत है! एक नृत्य है!
एक अहोभाव है!
बड़ा सूक्ष्म है भक्त का अस्तित्व!
न तो कोई कर्तृत्व है, न कोई व्यक्तित्व है;
क्योंकि भक्त तो एक खाली बांस की पोंगरी है, व्यक्तित्व
क्या! खाली जगह है, जहां से भगवान को जगह देता है, जहां से भगवान उससे बहने लगते हैं।
नारद पर इसलिए मैंने कुछ कहा नहीं। और इसीलिए नारद के संबंध में न
मालूम कितनी कथाएं प्रचलित हैं। नारद के व्यक्तित्व को समझा ही नहीं जा सका। समझने
के लिए जगह नहीं है। समझने के लिए आधार नहीं है।
एक परम्परा कहती है कि वे परम मुक्ति को उपलब्ध नहीं हुए। क्यों?...क्योंकि नारद में बुद्ध जैसा व्यक्तित्व दिखाई नहीं पड़ता, न महावीर जैसा व्यक्तित्व दिखाई पड़ता है। नारद ऐसे सुलझे हुए मालूम नहीं
होते जैसे बुद्ध सुलझे हुए मालूम होते हैं। नारद बड़े उच्च मालूम होते हैं। कथाएं
कहे चली जाती हैं कि पृथ्वि और स्वर्ग के बीच में न केवल खुद उलझे हैं, दूसरों को भी उलझाते रहते हैं।
नारद का व्यक्तित्व साफ-साफ नहीं है। बुद्ध साफ-साफ उस पार हैं, समझ में आते हैं। नारद न इस पार न उस पार, कहीं बीच
में डोलते हैं।
कितनी कथाएं हैं! नारद स्वर्ग जा रहे हैं, बैकुंठ जा रहे हैं, बैकुंठ से जमीन पर आ रहे हैं--दो
लोकों के बीच में! मेरे लिए उतना ही इंगित है कि दो किनारों के बीच में...!
व्यक्तित्व बड़ा उलझा हुआ मालूम पड़ता है। एक ही किनारे पर इतनी उलझन
है। दो संसारों के बीच में जो जिए--एक पैर यहां रखे, एक बैकुंठ में
रखे--उसकी उलझन तुम समझ सकते हो। लेकिन वही मेरे लिए परम संन्यास का रूप है,
जो दो अतियों के बीच अपने को संभाल ले।
एक किनारेपर बस गए, वह भी कोई सुलझाव, सुलझाव हुआ? या दूसरे किनारे पर हट गए, वह भी कोई सुलझाव, सुलझाव हुआ? सेतु बनना चाहिए, जिस पर दोनों किनारे जुड़ जाएं।
नारद सेतु हैं। इस तरफ से देखो तो बिलकुल संसारी हैं! और उस तरफ से
तुम देख न सकोगे; उस तरफ से मैं देख रहा हूं। उस तरफ से देखो तो परम
वीतराग हैं।
इसी तरफ से देखा गया है। इसी किनारे पर खड़े हुए लोग देखते हैं कि यह
सेतु तो यहीं जुड़ा है, इसी किनारे पर जुड़ा है, दूसरा
किनारा तो दिखाई नहीं पड़ता। तो नारद संसार से जुड़े मालूम पड़ते हैं, सांसारिक मालूम पड़ते हैं। उनके आसपास रची गई कथाएं इस किनारे के लोगों ने
रची हैं। मैं तुमसे उस किनारे से कह रहा हूं कि नारद सेतु हैं।
नारद बड़े अनूठे रहस्यपूर्ण व्यक्ति हैं। उनका अनूठापन यही है, उनकी अद्वितीयता यही है कि वे एकतरफा नहीं हैं, एकांगी
नहीं हैं। महान समन्वय उनमें सिद्ध हुआ है।
फिर सारी कथाएं कहती हैं कि वे कुछ उलझाव का ताना-बाना बुनते रहते
हैं। लोकमानस में उनकी जो प्रतीति है वह कुछ चुगलखोर जैसी हैं। यह भी अकारण नहीं
बन गई होगी, क्योंकि कोई भी बात बनती है तो उसके पीछे कुछ न कुछ
कारण होगा। हजारों साल तक करोड़ों लोग जब ऐसी कहानियां गढ़ते रहते हैं, तो उसके पीछे कहीं न कहीं कोई सूत्रपात होगा, कहीं न
कहीं कोई आधार होगा। आधार है।
जब भक्त अपने को परमात्मा के हाथ में सौंप देता है, तो "वह' जो करवाये वह करता है। फिर वह यह भी
नहीं कहता कि यह बात जंचती नहीं, यह करनी ठीक न होगा। फिर वह
असंगतियां भी करवाए तो असंगति भी करता है। छोड़ने का अर्थ ही होता है पूरा छोड़ना।
फिर उसमें हिसाब नहीं रखता। वह झूठ भी बुलवाए तो भी भक्त यह नहीं कह सकता,
"मैं न बोलूंगा'। क्योंकि भक्त है ही
नहीं। वह कहता है, "तेरा झूठ, तो
तेरा झूठ मेरे सच से भी ज्यादा बड़ा है'।
इसे थो॰?ा समझना, "मेरा सच भी तेरे
झूठ से छोटा होगा! तेरा झूठ भी मेरे सच से बड़ा होगा! फिर तू करवा रहा है तो जरूर
कोई कारण होगा। फिर तू ही जान, यह हिसाब, कौन रखे!'
तो नारद के व्यक्तित्व में संगति नहीं है। यहां की बात वहां कह रहे
हैं, बढ़ा-चढ़ाकर कह रहे हैं, कभी
घटाकर कह रहे हैं, कभी जोड़का कह रहे हैं। इसलिए स्वभावतः
लोगमानस को यह लगता है कि यह व्यक्ति और मुक्त! तो थोड़ी अड़चन मालूम होती है।
मुक्त के संबंध में हमारी धारणाएं हैं कुछ; नारद सब धारणाओं को तोड़ देते हैं, क्योंकि नारद अपने
को सब भांति समर्पित कर देते हैं। परमात्मा की इस विराट लीली में, इस बड़े खेल में, इस बड़े नाटक में, वे अपना कोई व्यक्तित्व लेकर नहीं चलते, वे "वह'
जो करवाता है करते हैं। इतना ही इंगित है। "वह' अगर झूठ भी बुलवाए तो झूठ भी बोल देते हैं। लेकिन नारद ने झूठ नहीं बोला
है; परमात्मा की लीला के अंश हो गए हैं!
इस बात को लोकमानस न समझ पाए, यह भी स्वाभाविक है।
लेकिन इतना बड़ा सूत्र, इतना बड़ा नाटक चलता हो तो उसमें नारद
जैसे व्यक्तित्व की भी जरूरत है। वह भी कोई कमी पूरी करता है। नारद के बिना कथाएं
अधूरी रह जाएंगी। नारद के बिना नाटक सूना-सूना होगा। नारद कुछ महत्वपूर्ण सूत्र का
काम पूरा करते हैं।
पर नारद के व्यक्तित्व की बात इतनी ही है कि उन्होंने छोड़ दिया है, "वह' जो करवाए!
उनका रूप जो लोकमानस में है वह यह है कि वे अपना एकतारा लिए इस लोक से
स लोक के बीच डोलते रहते हैं। उनका वाद्य उनके साथ है। उनका संगीत उनके साथ है।
उनके भीतर की संगीतपूर्ण दशा उनके साथ है।
ज्यादा कुछ उनके संबंध में कहा नहीं जा सकता; कहने की कोई जरूरत नहीं है। उनका एकतारा ही उनका प्रतीक है। भीतर उनके एक
ही स्वर बज रहा है, वह भक्ति का है; एक
ही स्वर बज रहा है, वह समर्पण का है; एक
ही स्वर बज रहा है, वह श्रद्धा का है। फिर परमात्मा जो कराए,
जो "उसकी' मर्जी!
नारद की अपनी कोई मर्जी नहीं है। अपने व्यक्तित्व को बनाने में भी
उनकी कोई आचरणगत धारणा नहीं है। महावीर की मर्जी है; वे पैर भी
फूंक-फूंककर रखते हैं; उनके पास एक आचरण है। बुद्ध की मर्जी
है; एक शील है; नारद के पास अपना उतना
भी दावा नहीं है।
इसलिए अगर तुम मुझसे पूछते हो तो मैं तुमसे कहता हूं कि यही परम
मुक्ति है।
आज इतना ही।
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