प्रेम का मार्ग अनूठा—छठवां
प्रवचन
दिनांक १ अप्रैल, १९८०; श्री रजनीश आश्रम पूना,
प्रश्नसार:
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय।
न मैं जानूं आरती-वंदन, न पूजा की रीत,
लिए री मैंने दो नयनों के दीपक लिए संजोय।
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय!
आंसुओं के सिवाय कुछ नहीं है। मैं आपको क्या
चढ़ाऊं?
आपका युवकों के लिए क्या संदेश है?
शिशय और अनुयायी में क्या फर्क है?
क्या काव्य में भी उतना ही सत्तय नहीं होता है
जितना कि बुद्धपुरुषों के वचनों में?
आपने कहा था कि पूंछ भी जाएगी। आपके चरणों की
कृपा से वह भी गई। संतत्तव कब घटेगा, मेरे मालिक? अब देरी क्यों?
अप्रैल फूल के इस महान धार्मिक दिवस पर कुछ कहें।
पहला प्रश्न:
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय।
न मैं जानूं आरती-वंदन, न पूजा की रीत,
लिए री मैंने दो नयनों के दीपक लिए संजोय।
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय!
आंसुओं के सिवाय कुछ नहीं है। मैं आपको क्या
चढ़ाऊं?
प्रेमतीर्थ! लूटो जितना लूट
सको। चढ़ाने की बात ही भूल जाओ। तुम मेरे ऋणी नहीं हो रहे हो। तुम्हें ऋण नहीं
चुकाना है। जैसे भरा बादल बरसेगा ही बरसेगा। जैसे फूल खिलेगा तो सुगंध उड़ेगी ही
उड़ेगी। दीप जलेगा तो किरणें बिखरेंगी ही। न तो हम बादल को धन्यवाद देते हैं, न फूल को, न दीप को। न मुझे ही तुम्हें धन्यवाद देने
की कोई जरूरत है। उलटे मैं ही तुम्हें धन्यवाद देता हूं कि तुमने झोली फैलाई और जो
फूल झरे, उन्हें अपनी झोली में सम्हाल लिया, कि तुमने अपना आंचल फैलाया और फूलों को भूमि पर न गिर जाने दिया।
वर्षा तो होती ही; कोई न सम्हालता तो भी होती। मेघ
के वश के बाहर है कि जो उसके भीतर घटा है, उसे सम्हाल रखे।
उसे लुटाना ही पड़ेगा। वह जीवन का अनिवार्य नियम है। उससे बचने का कोई उपाय नहीं
है।
इसलिए तुमने शब्द तो सुना है--गुरु-ऋण, लेकिन सच बात यह है
कि गुरु के प्रति कोई ऋण नहीं होता और इसीलिए उसे चुकाया नहीं जा सकता। माता का ऋण
चुकाया जा सकता है, पिता का ऋण चुकाया जा सकता है, क्योंकि कुछ ऋण है तो चुकाया जा सकता है। गुरु के प्रति कोई ऋण होता ही
नहीं, चुकाओगे भी तो कैसे चुकाओगे? इस
चिंता में ही न पड़ो।
इसलिए आंसू जो बह रहे हैं, वे पर्याप्त हैं।
उससे सुंदर और कुछ है भी तो नहीं! न उससे सुंदर गीत हैं पृथ्वी पर, न संगीत है। फूलों में होगा बहुत सौंदर्य, पर आंसुओं
के सामने सब फूल फीके हैं। आंसू कह रहे हैं अपनी कथा, अपनी
व्यथा। उतना काफी है। उन आंसुओं को नाम भी न दो।
प्रीति को अनाम ही रहने दो। प्रेम को नाम देने से सीमा बंध जाती है, शर्त लग जाती है। और जहां शर्त है और सीमा है, वहीं
प्रेम दूषित हो जाता है।
मीरा के ये शब्द प्यारे हैं। प्रेम निश्चित ही दीवाना है। इसलिए चतुर
वंचित रह जाते हैं प्रेम से। उन नासमझों को, उन नादानों को पता ही
नहीं चलता कि कितनी बड़ी संपदा गंवा बैठे! वे तो अपनी अकड़ में ही रह जाते हैं--समझ
की अकड़। वे तो अपनी बुद्धिमानी में ही घिरे रह जाते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता
कि जीवन में एक और शराब भी थी, जिसे पीते तो अमृत का अनुभव
होता, कि एक और रसधार भी थी जो पास ही बहती थी, जरा आंख भीतर मोड़ने की जरूरत थी।
मगर बुद्धिमान बाहर ही देखता रहता है। बुद्धिमानों से ज्यादा बुद्धू
व्यक्ति खोजने मुश्किल हैं। बुद्धू इसलिए कि कूड़ा-कर्कट तो इकट्ठा कर लेते
हैं--धन-संपदा, पद-प्रतिशठा; और जीवन की जो
असली संपदा है, जो शाश्वत संपदा है, उससे
वंचित रह जाते हैं। प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी शाश्वत नहीं है। शेष सब क्षणभंगुर
है। शेष बस यूं है जैसे इं(धनुष--दिखाई तो पड़ता है बहुत रंगीन; दिखाई तो पड़ता है बड़ा प्यारा--मगर है वहां कुछ भी नहीं। मुट्ठी बांधोगे तो
हाथ कुछ भी न लगेगा। शेष सब कुछ ऐसे ही है जैसे सुबह की धूप में चमकते हुए ओस-कण,
लगें कि मोती ही मोती फैल गए हैं आज दूब पर; और
पास जाओ जो कुछ भी नहीं है। दूर से मोती हैं; पास जाओ तो
मिट्टी भी नहीं। ऐसे ही हमारे धन हैं, पद है, प्रतिशठा है। और इस सबके पीछे चलने वाली दौड़ है--क्षणभंगुर, पानी के बबूलों जैसी। बुद्धिमान उसी में अटका रह जाता है। वह रुपये ही
गिनता रहता है। और गिनते-गिनते ही मर जाता है। कुछ जान नहीं पाता, कुछ जी नहीं पाता।
प्रेम है द्वार जीने का, जानने का। प्रेम एक
अनूठा ही मार्ग है जानने का। एक मार्ग तो है शास्त्र-ज्ञान, शब्द-ज्ञान;
वह जानने का धोखा है। उससे बस प्रतीति होती है कि जाना, और जानने में कुछ आता नहीं। पढ़ो वेद, पढ़ो कुरान,
पढ़ो बाइबिल। हो जाएंगे याद तुम्हें शब्द, दोहराने
लगोगे उन शब्दों को। सुंदर और प्यारे शब्द हैं। और दोहराओगे तो खुद को भी अच्छा
लगेगा, हृदय में गुदगुदी होगी। लेकिन खाली आए, खाली ही जाओगे। तोतों की तरह दोहराते रहना राम-राम, राम-राम;
जपते रहना मंत्र; फेरते रहना मालाएं। यूं ही
मर जाओगे। बुद्धि से जाना नहीं जाता; जाना जाता है हृदय से।
तर्क से नहीं जाना जाता; जाना जाता है प्रीति से। प्रीति है
रीति जानने की। मगर बड़ी दीवानी रीति है, बड़ी पागल रीति है।
इसलिए सिर्फ थोड़े से लोग ही हिम्मत जुटा पाते हैं। थोड़े से लोग ही साहस कर पाते
हैं। कौन बदनाम हो! कौन डुबोए अपनी लोक-लाज! कौन रंगे अपने को प्रीति में! क्योंकि
प्रीति में जैसे ही तुम रंगे गए, कि संसार तुम पर हंसेगा।
स्वभावतः, क्योंकि तुम ऐसे काम करने लगोगे जो पूरे संसार को
लगेंगे कि गलत हैं, व्यर्थ हैं, फिजूल
हैं।
प्रेम संसार की समझ में आता नहीं, आ सकता नहीं; आ जाए तो संसार स्वर्ग न हो जाए! संसार की समझ में घृणा आ जाती है,
प्रेम नहीं आता; युद्ध आ जाता है, शांति नहीं आती; विज्ञान आ जाता है, धर्म नहीं आता। जो बाहर है, उसे तो संसार समझ लेता
है; लेकिन जो भीतर है और असली है, जो
प्राणों का प्राण है, वह संसार की पकड़ से छूट जाता है। दृश्य
तो स्थूल है। अदृश्य ही सूषम है--और वही है आधार। संसार तो दृश्य पर अटका होता है।
प्रेम की आंख अदृश्य को देखने लगती है। प्रेम तुम्हारे भीतर एक तीसरी आंख को खोल
देता है। और स्वभावतः जिनकी वैसी आंख नहीं खुली है, वे
तुम्हें न समझ पाएंगे; वे तुम्हें पागल कहेंगे। वे हंसेंगे,
मुस्कुराएंगे। वे कहेंगे कि गए तुम काम से।
सदा उन्होंने यही कहा है। जीसस से उन्होंने यही कहा, बुद्ध से उन्होंने यही कहा, जरथुस्त्र से उन्होंने
यही कहा। इस जगत में जो भी चमकदार लोग हुए, जो भी हीरे हुए,
उन सब पर मिट्टी हंसी है। लेकिन मिट्टी बहुत है, उसके ढेर ही ढेर लगे हैं। और हीरा तो कोई-कोई कभी-कभी विरला होता है।
मिट्टी ने बहुत तरह से अपमानित किया है हीरों को। बदला लिया है हीरों से। बदला किस
बात का? इस बात का कि हीरों की मौजूदगी में मिट्टी को बहुत
दीनता अनुभव होती है, चोट पड़ती है, कचोट
पैदा होती है। यह जानना और मानना कि मैं मिट्टी हूं, अहंकार
के विपरीत जाता है। कोई और हीरा--और मैं मिट्टी! नहीं, अहंकार
यह मानने को राजी नहीं है। हटा लो इन हीरों को! मिटा दो इन हीरों को! कह दो कि ये
पागल हैं!
इसलिए जीसस को लोग विक्षिप्त समझते हैं, बुद्ध को लोग पागल
समझते हैं। समझेंगे ही। बुद्ध से ही हमारा बुद्धू शब्द बन गया। निश्चित ही लोगों
ने कहा कि है बुद्धू! इतना राज्य था, धन-संपदा थी, सुंदर स्त्रियां थीं, सिंहासन था, अकेला बेटा था बाप का, सुनिश्चित अधिकारी था--इस
सारे सुख, सुविधा, वैभव को छोड़ कर कोई
जंगल में चला जाए, बैठ जाए वृक्षों के नीचे आंख बंद करके,
बुद्धू न कहोगे तो और क्या कहोगे! जिन्होंने जाना उन्होंने बुद्ध
कहा। जिन्होंने पहचाना उन्होंने बुद्ध कहा। लेकिन भीड़ ने तो बुद्धू ही कहा। बुद्धू
शब्द की उत्तपत्ति बुद्ध के साथ है। फिर बुद्ध को देख कर, बुद्ध
की उमंग में आकर, बुद्ध के खुमार में आकर और भी कुछ दीवाने
चल पड़े। तब तो लोगों ने कहा: ये भी हुए बुद्धू। ये भी हुए पागल।
बंगाल में मस्तों की एक परंपरा हुई है: बाउल। बाउल का अर्थ ही होता है
बावला, पागल। सूफियों में जो पहुंच जाता है, उसको मस्त कहते हैं, अलमस्त! वह डूबा रहता है मस्ती
में परमात्तमा की। ऐसे ही एक अलमस्त ने--उमर ख््याम ने--रुबाइयात लिखी। लोग समझे
ही नहीं। लोग समझे कि यह शराब की बात हो रही है--मधुशाला और मधुबाला, और पीने वाले और पिलाने वाले--यह बात शराब की हो रही है। यह बात शराब की
नहीं थी। यह बात तो उस परम आनंद की थी। यह उमर ख्याम तो एक मस्त है, एक सूफी अलमस्त! लेकिन उमर ख्याम को समझा ही न जा सका। सदियां बीत गईं,
हम समझते ही नहीं प्रेम को।
इसलिए बेचारी मीरा कहती है कि ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय!
मेरे भीतर कैसी पीड़ा उठ रही है। यह सोच कर कि मुझे कोई नहीं समझ पाता, मेरे इस दर्द को कोई भी नहीं समझ पा रहा है, मुझे
दया उठती है, मुझे सहानुभूति होती है, करुणा
आती है नासमझों पर, जो अपने को समझदार बैठे हैं मान कर;
जो खुद पागल हैं और मुझे पागल समझ रहे हैं; जो
खुद वस्तुतः विक्षिप्त हैं और मुझे विक्षिप्त मान रहे हैं। मेरे हृदय में इनके लिए
बहुत दर्द उठता है। मगर ये न समझ सकेंगे। ये क्या समझेंगे? अंधा
क्या समझेगा प्रकाश को? जिसने प्रेम नहीं किया वह प्रेम को
क्या समझेगा?
और प्रेम का दर्द बड़ा मीठा दर्द है! तुमने दर्द तो बहुत देखे, लेकिन प्रेम का मिठास से भरा हुआ दर्द नहीं देखा, तो
फिर कुछ भी नहीं देखा। आए खाली हाथ, गए खाली हाथ।
मीरा ठीक कहती है: न मैं जानूं आरती-वंदन, न पूजा की रीत।
प्रेम मानता ही नहीं औपचारिकताओं में। औपचारिकताएं तो वे लोग करते हैं
पूरी, जिनके जीवन में प्रेम नहीं है। वे ही जाते हैं मंदिर
में घंटियां बजाते हैं, फूल चढ़ाते हैं, मस्जिदों में नमाज पढ़ते हैं, गुरुद्वारों में जपुजी
का पाठ करते हैं, गिरजों में सूली पर चढ़े हुए जीसस को प्रणाम
करते हैं। ये वे ही लोग हैं, जिनको प्रेम का पता नहीं है। तो
प्रेम की कमी किसी तरह बेचारे पूरी कर रहे हैं। असली सिक्का तो पास नहीं, तो नकली सिक्के को ही हाथ में बंद किए हैं। भरोसा तो रहता है कि कुछ तो
है। न सही असली, कुछ तो है। और फिर कुछ को हाथ में रखे-रखे
अपने को सम्मोहित कर लेते हैं--कि नहीं, यही सच है। और फिर
सभी तो यही नकली सिक्का लिए हुए बैठे हैं, इतने लोग गलत नहीं
हो सकते! सो अपने को समझा लेते हैं, अपने को सांत्तवना दे
लेते हैं।
लेकिन प्रेम न तो जानता है आरती, न वंदन, न जानता है रीति। प्रेम तो मर्यादा-मुक्त है। प्रेम सीमाएं नहीं मानता।
रामकृशण पूजा करते थे काली की। वह पूजा एक प्रेमी की पूजा थी; वे कोई साधारण पुरोहित नहीं थे। मंदिर के ट्रस्टियों को पहले ही समझ लेना
था कि यह कोई साधारण पुरोहित नहीं है, यह कोई साधारण
ब्राह्मण नहीं है। मंदिर बनवाया था रानी रासमणि ने। रासमणि शू( थी। शू( थी,
इसलिए उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण पूजा करने को राजी नहीं था। शू(
के मंदिर में कौन ब्राह्मण पूजा करेगा? बरसों मंदिर बिना
पूजा के पड़ा रहा। ब्राह्मण न मिले कोई पूजा करने को। कौन शू( के मंदिर में पूजा
करे? कौन अपनी बदनामी कराए? यह तुम मजा
देखो! मंदिर भी शू( हो जाता है, अगर शू( ने बनवाया! मंदिर भी
ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, शू( होते हैं! वह भगवान भी जो मंदिर में विराजमान है, शू( हो गया! कोई ब्राह्मण उसकी पूजा करने को राजी नहीं।
मैं जबलपुर में बहुत वर्षों तक था। वहां गणेश-उत्तसव पर बड़ी
शोभायात्रा निकलती है, गणेश की झांकियां निकलती हैं। ब्राह्मणों के मोहल्ले
का गणेश सबसे पहले होता है स्वभावतः। फिर क्रमशः होते हैं हर वर्णों के। भंगी,
चमारों के बिलकुल आखिर में होते हैं। एक बार ऐसा हुआ कि ठीक समय पर
जब शोभायात्रा निकलनी थी, ब्राह्मणों के गणेश न पहुंच पाए,
कुछ देर हो गई। और शू(ो के गणेश पहले पहुंच गए। शोभायात्रा समय पर
निकलनी थी, तो निकाल दी शू(ो ने। उन्होंने भी सोचा कि मौका
क्यों चूको! सो चमारों के गणेश आगे चल पड़े। जब ब्राह्मणों के गणेश पहुंचे, तो ब्राह्मणों ने बड़ा हो-हल्ला मचा दिया, शोभायात्रा
रुकवा दी। और कहा: हटाओ चमारों के गणेश को पीछे! जब तक चमारों के गणेश पीछे नहीं
हटेंगे, शोभायात्रा आगे नहीं बढ़ेगी। चमारों के गणेश और आगे!
चमारों के गणेश को पीछे हटना पड़ा। चमारों के गणेश ही हो तो चमार, ऐसे कैसे आगे चले! ब्राह्मणों के गणेश आगे चलेंगे!
सो रासमणि ने बना तो दिया मंदिर, और सुंदर मंदिर बनाया
दक्षिणेश्वर का, लेकिन कोई ब्राह्मण न आया पूजा करने,
कोई राजी नहीं। जितनी तनषवाह मांगो उतनी देने को राजी थी रासमणि,
पैसे की कोई कमी न थी, मगर शू( थी।
किसी ने रामकृशण को कहा कि एक मंदिर खाली पड़ा है, पूजा करने को ब्राह्मण नहीं मिलते। तो रामकृशण ने कहा कि तो मैं कर दूंगा।
वे पहुंच गए। तभी समझ लेना था रासमणि को और ट्रस्टियों को, कि
यह आदमी कोई साधारण ब्राह्मण नहीं; साधारण ब्राह्मण तो आने
को राजी ही नहीं थे, किसी कीमत पर राजी नहीं थे। यह आदमी कुछ
असाधारण है, तभी समझ लेना था। मगर नहीं समझे। पूछा कि क्या
लोगे? रामकृशण बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा कि पूजा भी करने
को मिलेगी और कुछ ऊपर से भी मिलेगा? गजब करते हो! अरे पूजा
बहुत! अब पूजा के पार और क्या? पूजा मिल गई, सब मिल गया। तब भी न समझे, मूढ़ मूढ़ ही थे। रहे होंगे
पक्के शू(। तब भी न समझे कि यह ब्राह्मण कोई साधारण ब्राह्मण नहीं है, जो कह रहा है--पूजा भी और ऊपर से पैसा भी, क्या
बातें कर रहे हो! सतयुग में भी ऐसा नहीं होता। यह कलियुग! अरे पूजा बहुत, मिल गया, सब पा लिया।
जब उन्होंने कुछ न मांगा तो भी सोलह रुपये महीने...उन दिनों सोलह
रुपये बहुत थे। नगद चांदी के सोलह रुपये एक आदमी के लिए साल भर के लिए काफी थे।
सोलह रुपये महीने उनको फिर भी रानी रासमणि ने कहा कि देने ही चाहिए। कुछ तो देना
ही चाहिए।
मगर थोड़े दिन में ही पता चला कि भूल-चूक हो गई, यह आदमी ढंग का नहीं है। कुछ झक्की मालूम होता है। कभी पूजा चलती तो दिन
भर चलती और कभी न चलती तो बिलकुल न चलती। कभी दिन, दो दिन के
लिए ताला ही मार देते वे मंदिर में; न खुद जाते, न किसी और को जाने देते।
लोगों ने पूछा कि यह मामला क्या है? दो दिन से पूजा नहीं
हुई!
उन्होंने कहा: पड़ी रहने दो काली को भीतर! भुगतने दो। अब आती होगी मेरी
याद। हम भी विरह में तड़फते हैं, उसको भी तड़फने दो। आग लगे तो
दोनों तरफ से लगे। हम ही हम रोएं अकेले?
और जब पूजा करते, तो शुरू होती तो अंत ही न आता। पत्तनी
शारदा उनकी बार-बार जाती देखने कि अब खत्तम हो, अब खत्तम हो
तो भोजन...। मगर वह पूजा सुबह शुरू हो रही है तो रात खत्तम हो रही है, दिन भर चल रही है। भक्त आते और जाते रहते और पूजा है कि जारी रहती। लोग
कहते, यह कैसी पूजा है?
रामकृशण कहते: जिस पूजा में याद रह जाए समय की, वह कोई पूजा है? अरे जब डूब गए तो डूब गए! जब रुकेगी,
रुक जाएगी; जब तक चल रही है, चलेगी। हम न अपनी तरफ से चलाते, न अपनी तरफ से
रोकते। उसकी मर्जी!
चलो यहां तक भी ठीक था। रासमणि ने सोचा कि दो साल तक मंदिर में किसी
ने पूजा नहीं की, यह कम से कम दिन दो दिन ही तो छोड़ता है, फिर करता है। फिर इतनी कर देता है कि दिन दो दिन को भर देता है पूरा।
हिसाब से कुछ कम नहीं पड़ रही पूजा, ज्यादा ही हो रही है।
करने दो। और इसको भगाना भी ठीक नहीं, क्योंकि दूसरा ब्राह्मण
फिर मिले कि न मिले।
मगर बात बिगड़ती चली गई। फिर खबर आई रासमणि को कि अब मामला और बिगड़ रहा
है। यह पूजा का जो थाल ले जाता है भोग लगाने, पहले खुद बैठ कर
मंदिर में भोग लगाता है अपने को। सब चीजें चख कर जूठी कर देता है, फिर काली को चढ़ाता है जूठा भोजन!
तब तो रासमणि भी चिंतित हुई। बुलवाया रामकृशण को कि यह कैसी पूजा है? तुम्हें पूजा आती है कि नहीं? जूठा भोजन भोग लगाते
हो!
रामकृशण ने कहा कि मेरी मां भी जब भोजन बनाती थी तो पहले खुद चख लेती
थी, तभी मुझे देती थी। तो मैं बिना चखे नहीं दे सकता। करवानी हो पूजा, करवा लो। नहीं तो कहीं और करेंगे। कोई एक ही मंदिर है? अरे मंदिर का क्या करना है! झाड़ के नीचे बैठ कर कर लेंगे। कोई भी पत्तथर
सामने रख कर कर लेंगे। यह तो भाव की बात है।
रामकृशण ने कहा कि मैं बिना चखे नहीं...पता नहीं, है भी देने लायक कि नहीं। शक्कर ज्यादा हो, फिर?
कम हो, फिर? ठीक भोजन
पका हो कि न पका हो। कच्चा-पक्का कुछ भी खिला दूं? यह मुझसे
नहीं होगा। मेरी मां मुझे नहीं खिला सकी, तो मैं अपनी मां को
कैसे खिला दूं?
तब जाकर रासमणि को और उनके ट्रस्टियों को समझ में आया कि भूल हो गई
है। यह तो पागल है। यह होश में नहीं है। इसे न पूजा आती है, न वंदन आता है, न पूजा की रीति आती है।
और पूजा भी क्या होती थी, कैसे-कैसे दृश्य
रामकृशण की पूजा में आ जाते थे! न तो बंधे-बंधाए मंत्रों का कुछ हिसाब था। कभी कुछ,
कभी कुछ। एक दिन तो तलवार निकाल ली। जो काली के पास तलवार रखी रहती
है, वही उठा ली और कहे: आज या तो तू या मैं! भक्त जो खड़े थे,
वे तो भाग गए एकदम। उन्होंने कहा, यह तो मामला
बिगड़ा जा रहा है। यह कैसी पूजा हो रही है, तलवार से! और
रामकृशण ने कहा: आज या तू या मैं। आज निपटारा हो ही जाए। रोज-रोज की क्या लगा रखी
है! या तो दे दे दर्शन या काट लूंगा गर्दन!
मंदिर एकदम खाली हो गया। लोगों ने उनकी पत्तनी को खबर दे दी। रासमणि
को खबर पहुंच गई, वह भी भागी आई। और भी लोग भागे आए, मगर सब बाहर से ही देखें, क्योंकि यह आदमी पता नहीं
किसी और की गर्दन काट दे! तलवार चमका रहा है अंदर!
और रामकृशण को उसी दिन परम ज्ञान हुआ। वह जो तलवार उठाई, उसी दिन। रामकृशण ने कहा बाद में कि जब तलवार मैंने उठाई और मैंने कहा कि
बस, अब यह गर्दन गिरती है--एक, दो,
तीन! और बस तीन पर बात हो गई। वह जो पत्तथर की मूर्ति थी, विदा हो गई। उसकी जगह जीवंत, चिन्मय परमात्तमा का
आविर्भाव हो गया। मेरे हाथ से तलवार गिर गई। मैं एक ऐसे आनंद के सागर में खो गया
कि घंटों डुबकियां मारता रहा। जी ही न भरे, भर-भर कर न भरे।
प्यास ही न बुझे, पी-पी कर न बुझे। घंटों मस्ती छाई रही। जब
होश आया तो पड़े थे फर्श पर, तलवार बगल में पड़ी थी। सब भक्त इत्तयादि
रानी रासमणि और ट्रस्टी-मंडल के लोग दरवाजों के बाहर खड़े खिड़कियों से झांक रहे थे
कि अब करना क्या? अंदर जाना कि नहीं जाना? छह घंटे किसी और लोक में प्रवेश हो गया।
रामकृशण ने कहा उस दिन: जो होना था वह हो गया।
यह हुई पूजा की रीति! यूं गर्दन चढ़ाने का साहस! और यह पक्का समझ लेना
कि अगर तीन पर बात न हुई होती तो गर्दन कट गई होती। तुम यह मत सोचना कि चलो अपन भी
करके देखें। अरे किसको काटना है, ऐसे ही तलवार रख कर चमकाएंगे! और
असली तलवार की भी क्या जरूरत है? ऐसे ही नकली लकड़ी की
तलवार--रामलीला वगैरह में काम आती है, बाजार में मिल जाती
है--चमकाएंगे और कहेंगे कि एक, दो, तीन!
और नहीं हुई प्रकट तो समझ लेंगे कि है ही नहीं, प्रकट क्या
होना है! तलवार म्यान में रख कर अपने घर आ जाएंगे।
तो नहीं होगा। तो नहीं हो सकता है। रामकृशण ने गर्दन काट ही दी होती, वे इतने पागल थे। ऐसे प्रेम का न तो कोई पूजा का बंधा-बंधाया ढांचा होता
है, न आरती-वंदन, क्योंकि प्रेम
पर्याप्त है अपने में। फिर तुम जो चढ़ा दो--जो चढ़ा दो! दो आंसू। सिर झुका दो। दो
शब्द बोल दो। जरूरत थोड़े ही है कि संस्कृत में बोलो, मराठी
में भी बोलोगे तो समझ में आ जाएगा परमात्तमा के। हालांकि बाहर से सुनने वालों को
ऐसा लगेगा कि जैसे कोई झगड़ा-झांसा कर रहे हो। लेकिन परमात्तमा समझ लेगा कि
झगड़ा-झांसा नहीं है। आप से तुम, तुम से तू। मराठी में तो बात
बड़ी गजब की होती है! प्रेम की भी बात हो रही हो तो ऐसा ही लगता है कि हुआ झगड़ा।
यहां पास-पड़ोस में लोग हैं, जब उनकी काफी प्रेम-चर्चा छिड़
जाती है तो ऐसा ही लगता है कि अब हुआ, अब हुआ! कुछ कभी नहीं
होता। मराठी में भी कहोगे तो भी परमात्तमा समझेगा। कोई संस्कृत या अरबी या हिब्रू
में ही कहने की जरूरत नहीं है। अपनी ही भाषा में कह दोगे...। बात भाव की है,
भाषा की नहीं है। अंतर्तम की है। क्या कहते हो, कैसे कहते हो, व्याकरण सही है कि गलत--इस चिंता में
मत पड़ना। परमात्तमा कोई स्कूल का शिक्षक नहीं है कि पहले व्याकरण की शुद्धियां
करेगा, पहले भाषा ठीक जमाने को कहेगा। परमात्तमा तुम्हारा
भाव समझ लेगा। न कहो तो भी चल जाएगा। चुपचाप मौन खड़े हो जाओ तो भी चल जाएगा।
ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी, मेरा दरद न जाने कोय
न मैं जानूं आरती-वंदन, न पूजा की रीत,
लिए री मैंने दो नयनों के दीपक लिए संजोय।
बात हो गई। ये दो आंखें अगर दीये बन जाएं तो और क्या चाहिए! बस ये दो
आंखें उसकी प्रतीक्षा में, उसकी प्रार्थना में डूब जाएं तो दीये बन जाती हैं।
प्रेमतीर्थ, तुम्हें नाम मैंने दिया है प्रेमतीर्थ। तुम्हें प्रेम
का तीर्थ बनना है। इन आंखों को प्रतीक्षा बन जाने दो। आएगा अतिथि, निश्चित आएगा। राह देखने की अनंत क्षमता चाहिए। इंतजार की ऐसी क्षमता
चाहिए जो चुके ही न। अनंत प्रतीक्षा जो करने में सफल है, एक
न एक दिन, जब भी तुम परिपक्व हो जाते हो, वह द्वार पर दस्तक देता है।
दूसरा प्रश्न: आपका युवकों के लिए क्या संदेश है?
कृशणतीर्थ! पहली तो बात, युवक हैं कहां? इस देश में तो नहीं हैं। इस देश में
तो बच्चे बूढ़े ही पैदा होते हैं; गायत्री मंत्र पढ़ते हुए ही
पैदा होते हैं। कोई ऋग्वेद दबाए चले आ रहे हैं! कोई गीता का पाठ करते चले आ रहे
हैं! कोई राम-नाम जपते चले आ रहे हैं! इस देश में युवक हैं कहां? शक्ल-सूरत से भला युवक मालूम पड़ते हों, मगर युवक
होना शक्ल-सूरत की बात नहीं। युवक होना उम्र की बात नहीं। युवक होना एक बड़ी और ही,
बड़ी अनूठी अनुभूति है--एक आध्या९ति०मक प्रतीति है!
सभी युवक, युवक नहीं होते। सभी बूढ़े, बूढ़े
नहीं होते। जिसे युवक होने की कला आती है, वह बूढ़ा होकर भी
युवक होता है। और जिसे युवक होने की कला नहीं आती, वह युवक
होकर भी बूढ़ा ही होता है।
तो पहले तो इस सत्तय को समझने की कोशिश करो कि युवा होना क्या है!
तुम्हारी उम्र पच्चीस साल है, इसलिए तुम युवा हो, इस भ्रांति में मत पड़ना। उम्र से क्या वास्ता? पच्चीस
साल के भला होओ, लेकिन तुम्हारी धारणाएं क्या हैं? तुम्हारी धारणाएं तो इतनी पिटी-पिटाई हैं, इतनी
मुर्दा हैं, इतनी सड़ी-गली हैं, इतनी
सदियों से तुम्हारे ऊपर लदी हैं--तुम्हें उन्हें उतारने का भी साहस नहीं है। तुम
जंजीरों को आभूषण समझते हो। और तुम, जो बीत चुका, अतीत, उसमें जीते हो। और फिर भी अपने को युवा मानते
हो? युवा हो--और पूजते हो जो मर गया उसको! जो बीत गया उसको!
जो जा चुका उसको!
तुम्हारी धारणाओं का जो स्वर्ण-युग था वह अतीत में था, तो तुम युवा नहीं हो। राम-राज्य, सतयुग, सब बीत चुके। वहीं तुम्हारी श्रद्धा है। लेकिन न तुम विचार करते हो,
न तुम श्रद्धा के कभी भीतर प्रवेश करते हो कि श्रद्धा है भी,
या सिर्फ थोथा एक आवरण है? पक्षी तो कभी का उड़
गया, पींजड़ा पड़ा है। तुम कुछ भी मानते चले जाते हो! इतने
अंधेपन में युवा नहीं हो सकते।
जैसे उदाहरण के लिए, कोई ईसाई कहे कि मैं युवा हूं और
फिर भी मानता हो कि जीसस का जन्म कुंवारी मरियम से हुआ था, तो
मैं उसे युवा नहीं कह सकता। ऐसी मूढ़तापूर्ण बात, कुंवारी
मरियम से कैसे जीसस का जन्म हो सकता है? अगर तुम मान सकते हो,
तो तुम अंधे आदमी हो, तुम्हारे पास विवेक जैसी
चीज ही नहीं है। और जिसके पास विवेक ही नहीं है, उसके पास
श्रद्धा क्या खाक होगी! जिसके पास संदेह की क्षमता नहीं है, उसके
पास श्रद्धा की भी संभावना नहीं होती।
लेकिन तुम्हारे पंडित-पुरोहित तुम्हें समझाते हैं: संदेह न करना। हम
जो कहें, मानना। और वे ऐसी-ऐसी बातें कहते हैं तुमसे कि तुम भी
जरा सा सजग होओगे तो नहीं मान सकोगे। कुंवारी लड़की से कैसे जीसस का जन्म हो सकता
है? हां, अगर तुम हिंदू हो तो तुम
कहोगे: कभी नहीं हो सकता! यह सरासर बात झूठ है! अगर मुसलमान हो तो तुम राजी हो
जाओगे कि यह बात सरासर झूठ है। मगर ईसाई, कैथेलिक ईसाई,
वह नहीं कह सकेगा कि सरासर झूठ है। उसके प्राण कंपेंगे। उसके
हाथ-पैर भयभीत...डोलने लगेंगे। वह डरेगा कि इसको मैं कैसे झूठ कह दूं! दो हजार साल
की मान्यता है; मेरे पूर्वजों ने मानी, मेरे बाप-दादों ने मानी, उनके बाप-दादों ने मानी। दो
हजार साल से लोग नासमझ थे, एक मैं ही समझदार हुआ हूं! वह
छिपा लेगा अपने संदेह को; ओढ़ लेगा ऊपर से चदरिया श्रद्धा की,
दबा देगा संदेह को। आसान है दूसरे के धर्म पर संदेह करना। युवा वह
है जो अपनी मान्यताओं पर संदेह करता है।
अब जैसे हिंदू है कोई। हिंदू की मान्यता है कि गीता का जो प्रवचन हुआ, वह महाभारत के युद्ध में हुआ। और महाभारत का युद्ध हुआ कुरुक्षेत्र के
मैदान में। कुरुक्षेत्र के मैदान में कितने लोग खड़े हो सकते हैं? महाभारत कहता है, अठारह अक्षौहिणी सेना वहां खड़ी थी।
और उस युद्ध में एक अरब पच्चीस करोड़ व्यक्ति मारे गए। जिस युद्ध में एक अरब और
पच्चीस करोड़ व्यक्ति मारे गए हों, उस युद्ध में कम से कम चार
अरब व्यक्ति तो लड़े ही होंगे। क्योंकि इतने लोग मारे जाएंगे तो कोई मारने वाला भी
चाहिए, कि यूं ही अपनी-अपनी छाती में छुरा मार लिया और मर
गए!
बुद्ध के जमाने में भारत की कुल आबादी दो करोड़ थी। और कृशण के जमाने
में तो एक करोड़ से ज्यादा नहीं थी। अभी भी भारत की कुल आबादी सत्तर करोड़ है। अगर
पूरा भारत भी अभी कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा हो तो भी पूरी अठारह अक्षौहिणी
सेना नहीं बन सकती। अभी दुनिया की आबादी चार अरब है--पूरी दुनिया की, अभी! अगर पूरी दुनिया के लोगों को तुम कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़ा करो,
तब कहीं एक अरब पच्चीस करोड़ लोग मारे जा सकेंगे।
मगर कुरुक्षेत्र में मैदान में इतने लोग खड़े कैसे हो सकते हैं, यह भी तुमने कभी सोचा? हां, चींटा-चींटी
रहे हों तो बात अलग; मच्छर-मक्खी रहे हों तो बात अलग। मगर
आदमी अगर रहे हों तो इतने आदमी खड़े नहीं हो सकते। और फिर हाथी भी थे, और घोड़े भी थे, और रथ भी थे, फिर
इनको चलाने वगैरह के लिए भी कोई जगह चाहिए, कि बस खड़े हैं!
जो जहां अड़ गया सो गया, फंस गया सो फंस गया, न लौटने का उपाय, न जाने का उपाय, न चलने का उपाय! कुरुक्षेत्र के मैदान में एक अरब पच्चीस करोड़ लोगों की
लाशें भी नहीं बन सकतीं। मैदान ही छोटा सा है। एक अरब की तो बात छोड़ दो, तुम एक करोड़ आदमियों को खड़ा नहीं कर सकते वहां।
मगर नहीं; मानते चले जाएंगे लोग, क्योंकि
शास्त्र में जो लिखा है! कुछ भी लिखा हो, उसको मानने में कोई
अड़चन नहीं होती।
तुम अब भी (ोणाचार्य जैसे व्यक्तियों को सम्मान दिए चले जाते हो! और
अब भी बड़े मनोभाव से एकलव्य की कथा पढ़ी जाती है और तुम बड़ी प्रशंसा करते हो एकलव्य
की! लेकिन तुम निंदा (ोण की नहीं करते। जब कि निंदा (ोण की करनी चाहिए। यह आदमी
क्या गुरु होने के योग्य है? इसने एकलव्य को इसलिए इनकार कर
दिया कि वह शू( था, शिशय बनाने से इनकार कर दिया! और ये
सतयुग के गुरु, महागुरु! और इस आदमी की बेईमानी देखते हो!
पहले तो उसे इनकार कर दिया और फिर जब वह जाकर जंगल में इसकी मूर्ति बना कर,
मूर्ति के सामने ही अभ्यास कर-कर के धनुर्धर हो गया, तो यह दक्षिणा लेने पहुंच गए। शर्म भी न आई! जिसको तुमने शिशय ही स्वीकार
नहीं किया, उससे दक्षिणा लेने पहुंच गया! और दक्षिणा में भी
क्या मांगा--दाएं हाथ का अंगूठा मांग लिया! क्योंकि इस आदमी को डर था कि एकलव्य
इतना बड़ा धनुर्धर हो गया है कि कहीं मेरे शाही शिशय अर्जुन को पीछे न छोड़ दे! कहीं
शू( क्षत्रियों से आगे न निकल जाए! इस बेईमान, चालबाज आदमी
को तुम अब भी गुरु कहे चले जाते हो! (ोणाचार्य! अब भी आचार्य कहे चले जाते हो!
जगह-जगह, जैसे रावण को जलाते हो, ऐसे
(ोणाचार्य को जलाना चाहिए। रावण ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? रावण
ने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा।
और एकलव्य की भी मैं प्रशंसा नहीं कर सकता। जब गुरु (ोण पहुंचे थे
लेने अंगूठा, तब अंगूठा बता देना था, देने का
तो सवाल ही नहीं है। यह भी क्या युवा था! पिटाई-कुटाई न करता, चलो ठीक है; इनकी नाक नहीं काटी, ठीक है। लेकिन कम से कम अंगूठा तो बता सकता था। अंगूठा दे दिया काट कर! और
सदियों से फिर इसकी प्रशंसा की जा रही है। अब भी स्कूलों में पाठ पढ़ाया जा रहा है
कि अहा, एकलव्य जैसा शिशय चाहिए! कौन पढ़ा रहे हैं? तुम्हारे शिक्षक, गुरु, अध्यापक,
प्रोफेसर, वे सब पढ़ा रहे हैं: एकलव्य जैसा
शिशय चाहिए! ये सब तुम्हारा अंगूठा काटने के लिए उत्तसुक हैं। इनको मौका मिले तो
तुम्हारी गर्दन काट लें। जेब तो काटते ही हैं। और ये प्रशंसा कर रहे हैं! और तुम
भी...और फिर तुम कहे जाते हो कि तुम युवा हो।
तुमने राम की निंदा की कभी? नहीं की तुमने राम की
निंदा कभी। तुम कैसे युवा हो? इसने एक असहाय स्त्री को,
सीता को, पहले तो अग्निपरीक्षा से
गुजरवाया--जो कि अशोभन है। अगर गुजरना था तो दोनों को गुजरना था। जब सात चक्कर
लगाए थे, विवाह के फेरे डाले, तब दोनों
ने डाले; और जब अग्निपरीक्षा का समय आया तो सिर्फ सीता।
क्यों? क्योंकि सीता लंका में रही, सो
सीता अलग रही राम से, सो राम भी तो सीता से अलग रहे। अब कई
इतिहासज्ञों को यह शक है कि शबरी बूढ़ी नहीं थी, जवान स्त्री
थी। यह बूढ़ी होने की बात थोथी है। और शबरी के जूठे बेर राम खा गए, यह सिर्फ प्रेमी ही कर सकते हैं। नहीं तो कोई किसी का जूठा बेर नहीं खा
सकता, पक्का समझो। हां, किसी स्त्री से
प्रेम हो तो चल सकता है, किसी पुरुष से प्रेम हो तो चल सकता
है। प्रेम में आदमी जूठी चीजें खा लेते हैं, एक-दूसरे को
जूठी चीजें खिलाने में मजा भी लेते हैं। लेकिन शबरी की रामलीला में जो तस्वीर बताई
जाती है, वह ऐसी कि बिलकुल बूढ़ी स्त्री है। मगर इतिहासज्ञों
का कहना है कि शबरी बूढ़ी स्त्री नहीं थी। जिन्होंने शोध की है, वे कहते हैं, वह युवा स्त्री थी, सुंदर स्त्री थी। तो अगर गुजरना ही था अग्निपरीक्षा में से तो आगे राम को
होना चाहिए था, पीछे सीता को। लेकिन वहां उन्होंने लेडीज
फर्स्ट का सिद्धांत स्वीकार किया कि पहले तू। जब सात चक्कर लगाते हो तब लेडीज फर्स्ट
नहीं, तब भइया आगे हो जाते हैं और बाई को पीछे कर लेते हैं,
कि जिंदगी भर के लिए पाठ पढ़ा दिया कि बस इसी तरह रहना--हम आगे,
तुम पीछे। जहां हम जाएं, वहां तुम आना! हम
इंजन, तुम डब्बा।
अग्निपरीक्षा में क्या हुआ था? उस वक्त न कहा कि ठीक,
मैं आगे, तू पीछे। डर था कुछ, भय था कि कहीं जल-जला न जाएं? नहीं तो वैसे ही भद्द
हो जाएगी।
सीता को अग्निपरीक्षा से गुजारा। और अग्निपरीक्षा के बाद भी एक धोबी
के कहने से गर्भवती सीता को जंगल में छुड़वा दिया। न स्त्रियां एतराज करती हैं।
स्त्रियों को तो राम का नाम ही लेना बंद कर देना चाहिए। मगर वे ही रामचं( जी के
मंदिर में बैठी रहती हैं। जैसा राम-राम वे जपती हैं, कोई नहीं जपता। पता
नहीं इनको राम से क्या पड़ी है! राम ने इनके साथ कौन सा व्यवहार किया है?
राम जब सीता को लंका से लेकर आए तो उसको जो पहली बात कही, वह अभ( है। उससे कहा कि ऐ स्त्री, तू यह मत सोचना कि
मैंने तेरे लिए युद्ध लड़ा। युद्ध लड़ा मैंने वंश की प्रतिशठा के लिए! यह अभ( बात
कहने की क्या जरूरत थी? वे यह कह रहे थे कि स्त्री तो संपदा
है, स्त्री के लिए कौन लड़ता है! इससे तो रावण ने सीता के साथ
ज्यादा सदव्यवहार किया, कोई दर्ुव्यवहार नहीं किया, कोई बलात्तकार नहीं किया। सम्मानपूर्वक सुंदरतम अशोक-वाटिका में उसे
ठहराया। उसके साथ किसी तरह का दर्ुव्यवहार नहीं किया गया। रावण ने जरा भी अशोभन
कोई कृत्तय नहीं किया। रावण को तुम जलाते हो और राम की पूजा चल रही है! और
स्त्रियां ही पूजा में आगे हैं!
कहां युवक हैं?
वेदों को सिर पर ढो रहे हो, कभी वेदों में झांक
कर देखते नहीं कि क्या कचरा भरा हुआ है! निन्यानबे प्रतिशत कचरा है। एक प्रतिशत
जरूर हीरे-जवाहरात हैं, वे चुनो, लेकिन
कचरे को तो आग लगा दो।
तुम्हारे शास्त्रों में इतना कचरा भरा है कि अगर तुम उनको उठा कर
देखोगे तो तुम हैरान रह जाओगे कि इन शास्त्रों को क्या करें? इनको बचाएं या समु( में डुबा दें? अश्लील से अश्लील
कहानियां हैं, बेहूदे से बेहूदे चरित्र हैं। और उनको भी
सम्मान दिया जा रहा है! युधिशिठर हैं, जुआ खेलते हैं,
मगर धर्मराज हैं! स्त्री को दांव पर लगा दिया, मगर धर्मराज हैं! और तुम फिर भी अपने को युवा माने जाते हो।
तुम जरा लौट कर अपने अतीत पर दृशिट डालो। उस अतीत से तुम चिपके हो।
कृशणतीर्थ, युवा हैं कहां? युवा वह है जो
अतीत से मुक्त है। यह मेरी परिभाषा। जिसको अतीत से कोई न्यस्त स्वार्थ नहीं है।
युवा न तो हिंदू हो सकता है, न मुसलमान, न ईसाई, न जैन, न
बौद्ध--क्योंकि ये सब अतीत की सीमाएं हैं। युवा तो मुक्त होगा सभी सीमाओं से।
सच्चा युवक न भारतीय होगा, न पाकिस्तानी होगा, न चीनी होगा, न जापानी होगा। सच्चा युवक पूरी पृथ्वी
की एक घोषणा करेगा। यह सारी पृथ्वी हमारी है, हम इसके हैं।
ये क्या छोटे-छोटे टुकड़े बना रखे हैं! और फिर टुकड़ों के भीतर टुकड़े, और उनके भी भीतर टुकड़े। युवक अखंड चैतन्य की घोषणा करेगा। युवक वर्तमान
में जीएगा। आज उसके लिए सब कुछ है, पर्याप्त है।
कुछ हैं जो अतीत में जी रहे हैं; और कुछ, जिन्होंने अतीत से बगावत कर दी, वे भविशय में जीने
लगे हैं। जैसे रूस और चीन में लोग भविशय में जी रहे हैं। उनका स्वर्णयुग आगे है।
आएगा साम्यवाद एक दिन! कुछ हैं जिनका जा चुका स्वर्णयुग और कुछ का है जिनका आएगा
कभी। मगर आज? आज दोनों दुख में जी रहे हैं। युवा वह है जो आज
को रूपांतरित करता है; जो आज जीता है; और
जो कहता है: दोनों कल बेमानी हैं। जो गया, गया। जो आया नहीं,
आया नहीं। अभी जो मेरे सामने है, उसको बदलूं,
उसको जीऊं--परिपूर्णता से, समग्रता से। उसी पर
सोना बिखेरूं। उसी की मिट्टी को सोना बनाऊं। जो इस कीमिया की कला में निशणात है,
वही युवक है। वर्तमान में जीने की कला का नाम मैं ध्यान देता हूं।
तुम मुझसे पूछते हो: "आपका युवकों के लिए क्या संदेश है?'
ध्यान मेरा संदेश है।
बदलो सदी
कि बांधो नदी
कि जोड़ो मन के तारत्तार को
जागो, समय को पढ़ो।
जवानो! जागो, समय को पढ़ो।
धूल नया सिंगार किए है,
फूल-फूल अंगार पीए है,
धरती फिर से अंगड़ाई है,
बाजी फिर से शहनाई है,
यह शहनाई सुनवा दो तुम गांव-गांव के द्वार-द्वार को।
जागो, समय को पढ़ो।
जवानो! जागो, समय को पढ़ो।
नये देश की नई कहानी,
नये पुजारी, नई भवानी,
मंदिर के त्तयोहार नये हैं,
मन के वंदनवार नये हैं,
देख रही अचरज से दुनिया, आज तुम्हारे नमस्कार
को।
जागो, समय को पढ़ो।
जवानो! जागो, समय को पढ़ो।
अमन-भरा है चमन तुम्हारा,
पवन भोर का देता नारा,
सूरज भेज रहा संदेशा,
इस मौसम में सोना कैसा!
निर्माणों के राजकुमारो, पतझर में लाओ बहार
को।
जागो, समय को पढ़ो।
जवानो! जागो, समय को पढ़ो।
वही है जवान, जो जागा हुआ है। फिर उम्र से बूढ़ा हो कि बच्चा,
भेद नहीं पड़ता। उम्र बिलकुल ही अप्रासंगिक है। जो जागा है, वह जवान है।
और जागोगे तो वर्तमान के अतिरिक्त और कहां जागोगे? सोओ तो दो उपाय हैं: अतीत में सोओ, भविशय में सोओ।
जागो तो एक ही उपाय है: वर्तमान में जागो। और उसकी प्रक्रिया भी एक ही है: ध्यान,
साक्षी-भाव।
तीसरा प्रश्न: शिशय और अनुयायी में क्या फर्क है?
ओमप्रकाश! शिशय और अनुयायी
में बहुत फर्क है, जमीन-आसमान का फर्क है। अनुयायी वह है जो शिशय होना
चाहता है और फिर भी बच रहा है; जो शिशय होने से बच रहा है,
यद्यपि भीतर कहीं उसके खलबली मच गई है, कहीं
तार उसकी हृदयत्तंत्री के छू लिए गए हैं, कहीं स्वर जगने लगा
है, मगर घबड़ा रहा है, बच रहा है।
अनुयायी कायर होता है। अनुयायी का अर्थ होता है: मैं आपको मानता हूं, आपको आदर देता हूं, आपको सम्मानता हूं, मगर आपको जीऊंगा नहीं। नहीं, अभी मेरे जीने की घड़ी
नहीं आई। आप जो कहते हैं, ठीक ही कहते हैं। आप कहते हैं तो
गलत कैसे कहते होंगे! जरूर ठीक ही कहते होंगे। मैं संदेह नहीं करता, मैं विश्वास करता हूं--अनुयायी कहता है--मगर अभी जी न सकूंगा, अभी चल न सकूंगा। आप जो राह सुझाते हैं, पहुंचाती
होगी मंजिल को। मगर अभी मुझे उस राह पर जाना नहीं। अभी मुझे और दूसरे काम निपटाने
हैं।
अनुयायी चालबाज है। वह अगर साफ-साफ कह दे कि वह राह गलत, तो भी ठीक; वह कह दे कि आपकी बात गलत, तो भी ठीक। क्योंकि जो कहे आपकी बात गलत, उसको
समझाया जा सकता है, उससे जूझा जा सकता है, उससे विचार-विनिमय किया जा सकता है। लेकिन वह होशियार है। वह कहता है:
नहीं, बात तो आपकी सही है। आप कहते हैं तो सही ही कहते
होंगे। आप कैसे गलत कहेंगे! इस तरह वह विवाद में भी नहीं पड़ना चाहता, क्योंकि वह विवाद से भी डरता है। वह जानता है कि विवाद में मैं कहीं गोता
न खा जाऊं; कहीं ऐसा न हो कि यह बात ठीक ही हो जाए; कहीं मुझे भी स्वीकार न करनी पड़े, हां न भरनी पड़े।
इसलिए इसके पहले कि कोई झंझट ज्यादा बढ़े, वह हां भर देता है,
झूठी हां भर देता है। अनुयायी सदा मिथ्या होता है। ईसाई हैं,
हिंदू हैं, जैन हैं, बौद्ध
हैं--ये सब अनुयायी हैं। ये सब झूठे हैं।
शिशय होना बड़ी और बात है। शिशय होने का अर्थ है: सोचा, समझा, विचारा, मनन किया--पाया
कि ठीक है। जिस क्षण पाया कि ठीक है, उसके अनुसार जीने की
फिर हिम्मत जुटाई। फिर चाहे दांव पर कुछ भी लगाना पड़े। फिर चाहे सब दांव पर लग
जाए। फिर इस पार या उस पार। फिर बाजी हारें या जीतें।
अनुयायी दुकानदार होता है, शिशय जुआरी होता है।
अनुयायी बच-बच कर चलता है, सम्हल-सम्हल कर चलता है, झिझक-झिझक कर कदम उठाता है। एक-एक इंच सरकता है तो खूब देख लेता है कि
फायदा है कि नहीं? फायदा हो तो ही! कहीं कोई नुकसान तो न हो
जाएगा!
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं: संन्यास तो हम लेना चाहते हैं, लेकिन अगर गैरिक वस्त्र और माला न पहनें तो कुछ हर्जा है?
तो मैंने कहा, फिर संन्यास ही काहे को लेना चाहते हो? संन्यासी हो ही तुम। गैरिक वस्त्र और माला से क्या घबड़ाहट है!
नहीं, वे कहते हैं कि लोगों को पता चल जाएगा और लोग अड़चन
खड़ी करेंगे।
सस्ता संन्यास चाहते हैं कि लोगों को पता भी न चले। लोगों का इतना भय
है? किन लोगों का? बड़े मजे की दुनिया है यह। अक्सर इनमें
वे ही लोग हैं जो तुम्हारे भय के कारण संन्यास नहीं ले रहे और तुम उनके भय के कारण
संन्यास नहीं ले रहे।
मुल्ला नसरुद्दीन एक मरघट के करीब खड़ा था--कब्रिस्तान के करीब। सांझ
का वक्त। सूरज तो डूब चुका था, रात उतरने के करीब थी। और तभी
उसने देखा कि उधर से कुछ लोग चले आ रहे हैं घोड़ों पर सवार, और
तलवार और बाजे! अभी-अभी घर से आ रहा था। खूनी पंजा नाम का एक उपन्यास पढ़ रहा था,
सो अभी तक उसकी आंखों में खतरे की बातें डोल रही थीं। खूनी पंजा!
सोचा कि हो न हो दुश्मन आ रहा है। पता नहीं कौन हों, क्या
मामला है! अभी तक प्रभावित था खूनी पंजे से। सो सोचा कि भाग कर छिप जाना बेहतर है।
दीवाल छलांग लगाई। एक कब्र नई-नई खुदी थी, खोद कर लोग गए थे
आदमी को लेने जो मर गया था। सो उसने देखा, इसी में लेट जाना
चाहिए। सो जल्दी से वह उस कब्र में लेट गया।
इधर जो बारात थी यह, जो आ रही थी, बरातियों ने देखा कि एक आदमी खड़ा था, एकदम से दीवाल
चढ़ा, छलांग लगा कर उतर गया! कोई हो न हो दुश्मन है, कोई बदमाश है, कोई बम फेंक दे, कुछ भी शरारत करे। सो बारात रुक गई, बैंड-बाजा रुक
गया।
मुल्ला की तो सांस रुक गई। उसने कहा कि आ गए। मेरा सोचना ठीक था। वह
खूनी पंजे की सारी कहानी उसको खयाल में आने लगी कि अब क्या होगा, क्या नहीं होगा। मगर अब कोई उपाय भी न था। वे लोग भी बड़े आहिस्ता से सम्हल
कर दीवाल चढ़े। जब इसने देखा कि दीवाल पर चढ़ रहे हैं, इसने
कहा मारे गए! ये तो मेरे पीछे ही पड़े हुए हैं। उसने तो मन ही मन में अपनी पत्तनी
को, अपने बच्चों को नमस्कार कर लिया कि बस, अब आखिरी समझो। उन लोगों ने देखा कि जिंदा आदमी और सांस बंद किए कब्र में
लेटा है। है शरारती, कुछ न कुछ गड़बड़ करने का इरादा रखता है।
सो वे बहुत आहिस्ता-आहिस्ता आए। जितना आहिस्ता वे आए, उतना
मुल्ला घबड़ाया। जितना मुल्ला घबड़ाया, उतना ही उसने सांस बंद
कर ली कि बिलकुल ऐसे रहो कि जैसे मर ही गए हो। अगर इन्होंने देखा कि जिंदा है तो
मारेंगे। मरे को कौन मारता है! देखा कि मरा है तो चले जाएंगे। सो वह बिलकुल ही
हाथ-पैर सम्हाल कर...मुर्दे कहीं ऐसा हाथ-पैर सम्हाल कर लेटते हैं! बिलकुल जैसे
अटेंशन में कोई खड़ा होता है, ऐसा अटेंशन में लेट गया। ऐसा
अकड़ा! वे लोग आकर झुक कर देखे। कब तक सांस रोके रहेगा? आखिर
सांस लेनी ही पड़ी। तो वे लोग भी घबड़ाए, एकदम चौक गए, जब उसने सांस ली। पहले तो सोच रहे थे कि शायद मरा ही हो। जब उसने सांस ली
तो वे भी घबड़ाए। उनमें से एक ने पूछा गुस्से में कि आप यहां क्या कर रहे हो?
तो मुल्ला ने पूछा: यही मैं आपसे पूछना चाहता हूं, आप यहां क्या कर रहे हो?
उन्होंने कहा: हम यहां क्या कर रहे हैं! अरे हम तुम्हारी वजह से यहां
हैं।
मुल्ला ने कहा: हद्द हो गई, मैं तुम्हारी वजह से
यहां हूं।
तुम डरे हो जिन लोगों से, वे तुम से डरे हुए
हैं। मेरे पास पति आते हैं, वे कहते हैं: संन्यास लेना है,
मगर पत्तनी! और प९ति०नयां आती हैं, वे कहती
हैं: संन्यास लेना है, लेकिन पति!
एक-दूसरे से डरे हुए लोग जी रहे हैं। यह समाज क्या है? भय ही भय है। तो फिर लोग सोचते हैं कि अच्छा यह है कि अनुयायी हो जाओ।
अनुयायी का मतलब यह होता है: कुछ करना नहीं, कुछ बदलना नहीं,
तुम जैसे हो वैसे ही रहोगे। सिर्फ समय-समय पर सिर हिला देना कि हां,
जी हां।
अनुयायी होते हैं जी-हजूर, जी-हुक्म; बस इससे ज्यादा कुछ भी नहीं। कुछ करेंगे नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक फकीर का अनुयायी हो गया। फकीर को इस पर शक तो था
ही, कि आदमी कुछ ढंग का मालूम पड़ता नहीं, लेकिन पीछे ही
पड़ गया। तो उसने कहा कि ठीक है भई। पहली ही रात की बात, लेटने
ही जा रहे थे दोनों, तो फकीर ने मुल्ला से कहा कि नसरुद्दीन,
जरा बाहर तो जाकर देख, पानी तो नहीं गिर रहा
है? वर्षा तो नहीं हो रही?
नसरुद्दीन लेटा रहा। उसने कहा कि कोई जरूरत नहीं बाहर जाने की। वह
बिल्ली अभी बाहर होकर आई है, आपके पास ही तो खड़ी है, जरा टटोल कर देख लो। अगर भीगी हो तो समझो गिर रहा है; अगर न भीगी हो तो समझो नहीं गिर रहा है।
गुरु ने कहा कि हद्द हो गई! खैर जो हुआ हुआ। फिर भी उसने कहा कि तू
जाकर जरा यह तो देख आ कि बाहर का दरवाजा लगा है कि नहीं?
नसरुद्दीन ने कहा: आप भी क्या बातें कर रहे हैं! अरे हम फकीर आदमी, दरवाजा लगा हो तो ठीक और न लगा हो तो ठीक। अपने पास है ही क्या, कोई ले क्या जाएगा? कोई आ फंसेगा, तो कुछ छीना-झपटी में उसका ही कुछ छूट जाए तो छूट जाए, अपना क्या ले जाएगा? अपने पास है क्या?
गुरु फिर चुप हो गया। नसरुद्दीन नहीं हिला अपनी जगह से। आखिर उसने
कहा: भई, अब सोने का वक्त हो गया, तू
दीया तो बुझा दे।
नसरुद्दीन ने कहा: गुरुदेव, दो काम मैंने कर दिए,
अब एक आप कर दो।
अनुयायी का मतलब होता है: कुछ करना नहीं, बातचीत। बस बातचीत में ही लोग समझते हैं सत्तसंग। बातचीत से ज्यादा नहीं
बढ़ना आगे। तो ब्रह्मचर्चा करो--संसार माया है, इत्तयादि-इत्तयादि
सुबह-सुबह रोज चर्चा कर आए, अपने घर आ गए। वही माया, वही संसार, वही भवसागर चलने लगा। फिर रोज दूसरे दिन
पहुंच गए, फिर सत्तसंग हुआ, फिर
ऊंची-ऊंची बातें कीं, फिर घर आ गए। जिंदगी वही की वही रही,
बातचीत ऊपर-ऊपर चलती रही।
यह बातचीत बेईमान है, यह बातचीत पाखंडी है। मंदिरों और
मस्जिदों में जाने वाले लोगों को तुम जितना पाखंडी पाओगे, उतना
और पाखंडी तुम्हें कहीं भी नहीं मिलेंगे। पाखंडी जाते ही वहां हैं, पाखंडी मिलते ही वहां हैं। वहीं पाखंडी पैदा होते हैं। पाखंड का सारा का
सारा उप(व यही है कि लोग अच्छी-अच्छी बातें सीख लेते हैं और जीवन और उन बातों में
कोई तालमेल नहीं होता।
शिशय होने का अर्थ है: मैं अपने जीवन में और अपने जीवन-दर्शन में
तालमेल बिठाऊंगा। मैं एक संगीतपूर्ण जीवन जीऊंगा। मेरी जो दृशिट है, वही मेरा जीवन होगा। मेरे जीवन में और मेरी दृशिट में भेद नहीं होगा। मेरा
अंतर और बाहर एक जैसा होगा। मेरे भीतर दोहरे रुख नहीं होंगे। मेरे भीतर दोहरे आदमी
नहीं होंगे, दोहरे मापदंड नहीं होंगे। मेरे भीतर कई तरह के
मुखौटे नहीं होंगे। मेरा एक ही चेहरा होगा--मौलिक चेहरा होगा। मैं अपनी नग्नता में
जीऊंगा। जैसा हूं वैसा ही जीऊंगा। उसके ऊपर राम-नाम की चदरिया नहीं ओढूंगा। न किसी
को धोखा दूंगा, न धोखा खाऊंगा।
शिशय होना दुर्गम है, कठिन है, तपश्चर्या
है। शिशय होने का अर्थ है: सत्तय को तुम सिर्फ बातचीत नहीं समझते, जीवन-मृत्तयु का सवाल है। जैसे सब कुछ दांव पर लगा है। कुतूहल नहीं,
कोरी जिज्ञासा नहीं। ता९ति०वक चर्चा का अर्थ ही लोग यह समझते हैं:
कोरी जिज्ञासा, कुतूहल।
मेरे पास लोग आ जाते हैं--ईश्वर है या नहीं?
मैं उनसे पूछता हूं: तुमको क्या पड़ी है? तुम्हें कुछ ईश्वर से
लेना-देना है? कोई झगड़ा-झांसा है? कोई
मुकदमा चलाओगे उस पर, मिल जाए तो क्या करोगे?
नहीं, वे कहते हैं कि ऐसे ही जानना चाहते थे कि है या नहीं।
क्यों परेशान हो रहे हो? तुम क्या करोगे अगर
है तो फिर?
मैं एक गांव में ठहरा था। वहां दो बूढ़े मुझसे मिलने आए--एक जैन था, एक हिंदू। दोनों पड़ोसी। दोनों पुराने दोस्त। बचपन के लंगोटिया यार। अब तो
बूढ़े भी हो गए। दोनों मुझसे बोले कि हमारा विवाद जिंदगी भर से चल रहा है। मैं कहता
हूं कि ईश्वर है, उसी ने सृशिट की। और यह जैन है, यह कहता है: कोई सृशिट करने वाला नहीं, सृशिट अपने
से चल रही है। यह विवाद खतम होता ही नहीं। अब हम मरने के भी करीब आ गए, मगर यह विवाद अपनी जगह खड़ा हुआ है। यह रोज बात छिड़ जाती है किसी न किसी
बहाने। आप आए हैं तो हमने सोचा कि आपसे हम जाकर पूछें कि क्या मामला है, ईश्वर है या नहीं?
मैंने कहा कि अगर ईश्वर है तो फिर क्या करोगे?
उन्होंने कहा: करना क्या है!
नहीं है तो फिर क्या करोगे?
उन्होंने कहा: करना क्या है!
मैंने कहा: अच्छा यही है कि तुम विवाद तुम्हारा चलने दो। एक काम तो है
बुढ़ापे में। अगर यह हल हो गया मामला तो फिर क्या करोगे? कोई दूसरा विवाद खड़ा करना पड़ेगा। तुम तो इसी को चलने दो। पुराना है।
अभ्यासी भी हो इसको; तुम्हें भी सब तर्क मालूम हैं ईश्वर के
पक्ष में, उनको भी सब तर्क मालूम हैं ईश्वर के विपक्ष में।
और ईश्वर को कुछ प्रयोजन नहीं पड़ा है, नहीं तो तुम पचास साल
से विवाद कर रहे हो, खुद ही आ जाता कि भैया, क्यों झंझट कर रहे हो, मैं हूं!
और तुम कहते हो कि कोई फर्क तो तुम्हें करना नहीं है। ईश्वर हो तो तुम
ऐसे ही जीओगे। तुम्हारे मित्र में और तुम्हारी जिंदगी में कोई फर्क है?
नहीं, उन्होंने कहा, फर्क क्या! हम
दोनों साझीदार हैं, एक ही दुकान करते हैं। जैसा बेईमान यह है,
वैसा ही बेईमान मैं हूं। फर्क क्या है!
जैन और हिंदू में क्या फर्क है? मुसलमान और ईसाई में
क्या फर्क है? कोई फर्क नहीं है। सब एक से जी रहे हैं। हां,
अलग-अलग मंदिर जाते हैं, अलग-अलग शास्त्र को
सिर नवाते हैं। फर्क कुछ भी नहीं है। ये अनुयायी हैं। इनको फर्क वगैरह जीवन में
लाना नहीं है। जीवन में क्रांति की इनकी कोई उत्तसुकता नहीं है।
शिशय का अर्थ होता है: जो रूपांतरित होने के लिए आतुर हुआ है; जिसके जीवन में अब बौद्धिक खुजलाहट नहीं है, वरन सच
में ही जो जानना चाहता है क्या है; और जो भी मूल्य चुकाना
पड़े, वह चुकाने को राजी है। अगर जीवन भी गंवाना पड़े सत्तय को
पाने के लिए तो वह जीवन भी गंवाने को राजी है। तब कोई शिशय होता है।
शिशय होना बहुत थोड़े से सौभाग्यशाली लोगों की बात है--थोड़े से साहसी, थोड़े से हिम्मतवर लोग। कहना चाहिए दुस्साहसी। वे ही लोग शिशय हो सकते हैं।
शिशय का शाब्दिक अर्थ होता है: जो सीखने में तत्तपर है, जो सीखने को तत्तपर है। पंडित नहीं सीख सकता; वह तो
पहले से ही सीखा हुआ बैठा है। सीखने की तत्तपरता का अर्थ है, जिसने अपने सामने यह बात स्वीकार कर ली कि मुझे कुछ भी पता नहीं है,
मैं अज्ञानी हूं! वही शिशय हो सकता है। जिसने यह मान लिया कि मैं
अज्ञानी हूं, उसका अहंकार मर जाता है तत्तक्षण! और अहंकार की
मृत्तयु पर ही शिशयत्तव का फूल खिलता है।
चौथा प्रश्न: क्या काव्य में भी उतना ही सत्तय
नहीं होता है जितना कि बुद्धपुरुषों के वचनों में?
सिद्धार्थ! काव्य में केवल
झलक होती है, सत्तय नहीं होता। कवि को सत्तय की कोई अनुभूति नहीं
होती। कवि को सत्तय का कोई साक्षात्तकार नहीं होता। लेकिन झलक जरूर उसे मिली होती
है। झलक--जैसे कि चांद झील में झलके और कोई झील में चांद को देख ले। चांद की ही
झलक है, मगर झील में देखी गई है। एक कंकड़ी फेंक दोगे झील में,
और तितर-बितर हो जाएगा प्रतिबिंब, छितर जाएगा,
खंडित हो जाएगा। ऐसा ही काव्य है--सिर्फ झलक है।
इसलिए सुंदरतम काव्य को जन्म देने वाले लोग भी जीवन वैसा ही जीते हैं
जैसे साधारण लोग। अक्सर तो साधारण लोगों से भी बदतर।
अगर तुम खलील जिब्रान को पढ़ो, तो कैसे प्यारे वचन
हैं! कैसा अदभुत काव्य है! एक-एक शब्द जैसे शहद में डुबोया हुआ हो! एक-एक शब्द
अमृत-कलश है, ऐसा मालूम पड़े। निश्चित प्रीतिकर हैं शब्द वे।
वही रंग है, वही ढंग है, जो जीसस के
वचनों का है बाइबिल में। मगर अगर खलील जिब्रान से तुम्हारा मिलना हो जाए तो तुम
बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे, तुम तालमेल न बिठा पाओगे--कि खलील
जिब्रान का अदभुत ग्रंथ प्रोफेट और खलील जिब्रान, इन दोनों
में कोई तालमेल नहीं है। खलील जिब्रान प्रेम पर इतनी अदभुत बातें कहता है, लेकिन उसके जीवन में वह बड़ा क्रुद्ध आदमी था, बड़ा
क्रोधी, महाक्रोधी! छोटी-मोटी बात पर चीजें फेंकने लगे,
किताबें फेंक कर मारे, कुर्सियां तोड़ दे। जो
लोग उसके साथ रहे, जिन लोगों ने उसे निकट से जाना, वे बड़े हैरान थे कि ये दो अलग व्यक्ति हैं। जब लिखता है तो जैसे मोती झरते
हैं! जब काव्य की किसी लहर में होता है, तो बातें इसकी फूलों
से भी ज्यादा नाजुक, हीरों से ज्यादा कीमती! कोहिनूर फीके पड़
जाएं, ऐसी! और जीवन? जीवन बिलकुल
कूड़ा-कर्कट, बहुत साधारण, बहुत
ईशर्यालु, बहुत दूसरे पर कब्जा करने की नीयत, बहुत अहंकारी।
और यह कुछ खलील जिब्रान के संबंध में ही बात नहीं है, तुम्हारे अधिकतम कवियों के संबंध में, महाकवियों के
संबंध में है। इसलिए मैं कहता हूं: अगर तुम्हें किसी कवि की कविताएं प्रीतिकर लगती
हों तो उस कवि से न मिलना, नहीं तो उसकी कविताओं का रस चला
जाएगा। उसकी कविताओं में तो हो सकता है उपनिषदों की गंध आए और अगर कविराज से मिलना
हो जाए, तो बैठे हैं किसी होटल के सामने, मक्खियां भिनभिना रही हैं उनके चेहरे पर, बीड़ी पी
रहे हैं। तुम्हारा जी देख कर मितला जाए। तुम्हारी समझ में भी न आए कि यह बीड़ी पीते
महाराज, यह मक्खियां भिनभिनाता रूप, यह
सड़ी-सड़ाई होटल! वे उपनिषद जैसे प्यारे वचन, इस आदमी से पैदा
हुए!
कवि कभी-कभी किसी-किसी क्षण में ऋषि होता है। बस किसी-किसी क्षण में।
और वह उसके बस की बात नहीं है। कोई सांयोगिक घटना उसे उड़ान दे देती है। आकाश में
पूर्णिमा का चांद है--और उसको देख कर कवि के भीतर कुछ हो जाए--जैसे कोई दीया जल
जाए! या कि सूर्यास्त हो रहा है और नीड़ की तरफ लौटते हुए पक्षी और उनकी आवाजें और
बादलों पर छा गए सुनहले रंग--और कवि के भीतर कुछ हो जाए--एक सिलसिला, एक शृंखला, गीत बनने लगें! मगर इसका वह मालिक नहीं
है। यह कभी हो जाता है, कभी नहीं भी होता। जब हो जाता है,
तब हो जाता है; जब नहीं होता, तब नहीं होता। जब नहीं होता, तब वह लाख उपाय करे,
बैठा रहे टेबल पर सिर मारे, कलम हाथ में पकड़े
बैठा रहे, कुछ भी न आएगा। और जब आता है तो ऐसा बहता है कि
कलम पिछड़ जाती है। इतना आता है कि प्रकट नहीं कर पाता।
कवि के जीवन में यह घटना उसकी मालकियत से नहीं घटती; ऋषि के जीवन में उसकी मालकियत से घटती है। उसका कारण सूर्यास्त नहीं होता
और न चांद होता है और न पक्षियों के गीत होते हैं। ऋषि के भीतर ध्यान के कारण घटना
घटती है। ध्यान उसे निर्मल कर जाता है, शांत कर जाता है,
मौन कर जाता है। वह चौबीस घंटे मौन है। इसलिए जहां उसकी आंख पड़ती है,
वहीं परमात्तमा का दर्शन, वहीं परमात्तमा का
प्रसाद। अगर ऋषि गाए तो उसके गीतों में झलक ही नहीं होती, अनुभव
होता है। अगर ऋषि बोले तो उसके वचन में प्रामाणिकता होती है, स्वतःसिद्ध प्रामाणिकता होती है, उसके वचन आप्त होते
हैं। कवि कभी-कभी उसी तरह के वचन बोल देता है। मगर कौन उससे बुलवा लेता है,
इसका उसे भी पता नहीं होता। ऋषि जब बोलता है तो उसे पता होता है कि
कौन उससे बोल रहा है। ऋषि परमात्तमा के हाथों में अपने को छोड़ दिया होता
है--जागरूकतापूर्वक, परमात्तमा उससे बहता है। कवि बेहोश है।
इसलिए अक्सर तुम पाओगे कि कवि शराब पीएंगे, अफीमची होंगे, गांजा-भांग-चरस सब तरह की नशीली चीजों
में कवियों को सदियों से रस रहा है। उसका कारण? उसका सिर्फ
एक कारण है कि कवि के भीतर से कविता उसकी बेहोशी में पैदा होती है। तो जब भी वह
जितना ज्यादा बेहोश होता है, उतनी ही संभावना होती है काव्य
के अभिव्यक्त होने की।
ऋषि की प्रक्रिया बिलकुल उलटी है। वह जितना जागरूक होता है, उतना परमात्तमा उससे बहता है। इसलिए सारे ऋषियों ने मादक (व्यों का विरोध
किया है--कि मत अपने को बेहोश करो। होश जगाना है।
फर्क तुम समझ लो।
ऋषि से भी काव्य उतरता है--उपनिषद उतरा, गीता उतरी, धम्मपद उतरा--लेकिन ये उतरे हैं उसके होश से। कवियों से भी बहुत से अदभुत
वचन उतरे हैं, मगर वे उतरे उनकी बेहोशी में। एक होश की मस्ती
है--तुम मस्त भी होते हो, मगर होश नहीं खोते। और एक बेहोशी
की मस्ती है--तुम बेहोश होते हो, इसलिए मस्त होते हो। होश
आते ही मस्ती खो जाती है। बेहोशी की मस्ती का कोई मूल्य नहीं है। होश की मस्ती का
मूल्य है।
जितना जो कहा कभी
सुधियों ने--छवियों ने,
स्वप्न-भरी अंखियों ने,
मैंने वह दिया सभी
कविता को अपनी।
जितना जो मिला कभी
गंध-लुब्ध बादल से,
मौन-मुग्ध पायल से,
मैंने वह दिया सभी
कविता को अपनी।
जितना जो पिया कभी
रंग-रूप फूलों से,
गान-गंध कूलों से,
मैंने वह दिया सभी
कविता को अपनी।
लेकिन जो मिला नहीं
मुझको अंधियारे में,
खोज-खोज हारे में
मैंने वह दिया नहीं,
कविता को अपनी।
कवि वही दे सकता है जो उसे मिलता है। जो उसे खुद ही नहीं मिला है, वह कैसे दे सकता है? कवि ईश्वर को नहीं जानता। अपने
को ही नहीं जानता! कवि का स्वयं से साक्षात्तकार नहीं हुआ है। तो जो मिला उसे....
जितना जो कहा कभी
सुधियों ने--छवियों ने,
स्वप्न-भरी अंखियों ने,
मैंने वह दिया सभी
कविता को अपनी।
जितना जो मिला कभी
गंध-लुब्ध बादल से,
मौन-मुग्ध पायल से,
मैंने वह दिया सभी
कविता को अपनी।
जितना जो पिया कभी
रंग-रूप फूलों से,
गान-गंध कूलों से,
मैंने वह दिया सभी
कविता को अपनी।
लेकिन जो मिला नहीं
मुझको अंधियारे में,
खोज-खोज हारे में,
मैंने वह दिया नहीं
कविता को अपनी।
कैसे देगा कवि, जो मिला नहीं उसे स्वयं? पहले
पाओ, फिर बंटता है। कवि बांट रहा है जो उसने पाया नहीं।
इसलिए शब्द ही होते हैं। सुंदर शब्द बना सकता है, सुंदर शब्द
संयोजित कर सकता है, शब्दों की मालाएं गूंथ सकता है--प्यारी
मालाएं! मगर बस निशप्राण होंगी, निर्जीव होंगी। भाषा होगी,
शैली होगी, छंद होगा; मगर
जीवन नहीं होगा, रस नहीं होगा, परमात्तमा
की उपस्थिति नहीं हो सकती है।
पांचवां प्रश्न: आपने कहा था कि पूंछ भी जाएगी।
आपके चरणों की कृपा से वह भी गई। संतत्तव कब घटेगा, मेरे मालिक! अब देरी क्यों?
संत महाराज! कम से कम आज मत
घटाना--एक अप्रैल है! आज छोड़ कर जब मर्जी।
तषितयां देखीं न तुमने--आज नगद, कल उधार! उससे उलटा
कर लेना--आज उधार, कल नगद। आज भर बचना। आज तो संतत्तव घटे भी
तो तुम हाथ जोड़ कर खड़े हो जाना कि नहीं-नहीं। क्योंकि आज घटा भी तो कोई मानेगा
नहीं।
तुमने कभी सुना कि एक अप्रैल को कोई बुद्धत्तव को उपलब्ध हुआ हो? अब तक तो नहीं हुआ। अब तुम अपवाद ही सिद्ध करने को पड़े हो तो बात अलग। अब
घबड़ाओ न, पूंछ निकल ही गई; हाथी तो
पहले ही निकल गया था, पूंछ ही रह गई थी, वह भी निकल गई--अब चिंता न करो। अब जब घटेगा, घटेगा।
तुम फिकर-फांटा छोड़ो।
और आज के दिन तो तुम बिलकुल ही चादर ओढ़ कर सो जाओ। दरवाजा लगा लेना
भीतर से। कितना ही परमात्तमा खटखटाए, कहना: कल! आज नहीं
भैया। आज हमें होना ही नहीं है बुद्ध। आज तो बुद्धू भले!
आखिरी प्रश्न: अप्रैल फूल के इस महान धार्मिक
दिवस पर कुछ कहें।
सहजानंद! दो झूठे लतीफे।
पहला--
वेदांत सत्तसंग मंडल की सभा के पश्चात सामूहिक भोजन का आयोजन था। सभी
बिना दांत के बूढ़े मौजूद थे। वही अर्थ होता है वेदांत सत्तसंग मंडल का। उन्हीं में
थे श्री मुरदाजी भाई देसाई भी, जो कि सिर्फ भाई ही भाई रह गए
हैं, जिनकी जान निकल गई है। अब भूल कर उनको भाईजान न कहना,
बस भाई ही कहना, जान अब कहां!
इस एक घटना के कारण वे उस दिन विशेष आकर्षण का कारण बन गए। बात यह हुई
कि जब खाना परोसने वाले व्यक्ति ने उनसे पूछा कि क्या आप थोड़ी परमल की सब्जी और
लेंगे? तब श्री मुरदाजी भाई यकायक जीवित हो उठे, अर्थात उन्हीं भयंकर क्रोध आ गया। आंखें लाल-पीली करके वे बोले: शर्म नहीं
आती बदमाश छोकरे? मुझसे ऐसी गंदी बातें करता है!
वह व्यक्ति तो हक्का-बक्का रह गया। समझा कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री
मजाक कर रहे हैं। एक अप्रैल का दिन है, शायद अप्रैल फूल बना
रहे हैं। वह पुनः विनम्रतापूर्वक बोला: जरा चख कर तो देखें श्रीमान! बड़े ही
स्वादिशट परमल की सब्जी है।
इतना सुन कर तो मुरदाजी भाई का खून खौल उठा। उन्होंने थाली में लात
मार दी। थाली की झनझनाहट से सभी चौंक पड़े। मुरदाजी भाई चिल्लाए: हरामजादे, बदतमीजी की भी एक हद होती है! भरी सभा में मेरी बेइज्जती कर रहा है! अपनी
औकात भूल रहा है! जानता नहीं, मैं कौन था?
सत्तसंग मंडल के सभी वेदांतियों ने आश्चर्य से मसूड़ों तले अंगुलियां
दबा लीं। किसी के पल्ले न पड़े कि आखिर हुआ क्या! मुरदाजी भाई किस बात पर इतने
आगबबूला हो रहे हैं! एक सज्जन द्वारा पूछे जाने पर मुरदाजी भाई ने बताया: यह लफंगा
मेरी खिल्ली उड़ा रहा है। मुझसे कहता है स्वादिशट परमल की सब्जी खा लो। कमीना कहीं
का! क्या मेरे खुद के मल का स्वाद कड़वा है, जो मैं यहां-वहां हर
किसी का ऐरे-गैरे नत्तथूखैरे का मल खाता फिरूं? अरे आत्तम-मल
खाता हूं, परमल क्यों खाऊं?
और दूसरा झूठा लतीफा--
मैंने सुना है कि बेचारे चरणसिंह जब से कुर्सी से उतरे हैं, तब से बात-बात पर नाराज होते रहते हैं। कुछ कहो, उन्हें
कुछ सुनाई देता है। एक दिन की बात है, दोपहर के समय कुछ
पत्रकार उनसे मिलने आए। जब पत्रकारों ने कमरे में प्रवेश किया, उस समय भूतपूर्व प्रधानमंत्री आराम-कुर्सी पर विश्राम कर रहे थे--उदास,
आंखें बंद किए हुए। एक पत्रकार न यह देख औपचारिकतावश पूछा:
एक्सक्यूज मी सर, आर यू रिलैक्सिंग?
इतना सुनते ही वे गुस्से से तमतमा उठे और बोले: नमकहरामो! चार दिन
पहले मेरे आगे-पीछे चक्कर काटते थे, पैर दबाते थे और अब
मुझे पहचानते तक नहीं हो! पूछते हो--आर यू रिलैक्सिंग? कमबषतो,
आई एम नाट रिलैक्सिंग, आई एम चरणसिंग। हैव यू
फारगॉटन ईवन माई नेम?
आज इतना ही।
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