असंभव क्रांति-(साधना-शिविर)
साधना-शिविर माथेरान, दिनांक 21-10-67
रात्रि
(अति-प्राचिन प्रवचन)
प्रवचन-दसवां-(बस एक कदम)
शिविर की इस अंतिम रात्रि में थोड़े से प्रश्नों पर और हम विचार कर
सकेंगे। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जो मेरे शब्दों को, विचारों को ठीक से न सुन पाने, न समझ पाने की वजह से पैदा हो
गए हैं। एक शब्द भी यहां से वहां कर लें तो बहुत अंतर पैदा हो जाता है।
उन
प्रश्नों के तो उत्तर मैं नहीं दे पाऊंगा। निवेदन करूंगा कि जो मैंने कहा है, उसे फिर एक बार सोचें। उसे
समझने की कोशिश करें। जरा सा भेद आप कर लेते हैं, कुछ अपनी तरफ से जोड़ लेते हैं
या कुछ मैंने जो कहा उसे छोड़ देते हैं, तो बहुत सी भ्रांतियां, दूसरे अर्थ पैदा हो जाते हैं।
और जरा से फर्क से बहुत बड़ा फर्क पैदा हो जाता है।
एक
राजधानी में उस देश के धर्मगुरुओं की एक सभा हो रही थी। सैकड़ों धर्मगुरु देश के
कोने-कोने से इकट्ठे हुए थे। उस नगर ने उनके स्वागत का सब इंतजाम किया। सभा का जब
उदघाटन होने को था तो मंच पर से परदा उठाया गया।